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अभिज्ञान

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2010
पृष्ठ :232
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4429
आईएसबीएन :9788170282358

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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...

एक


"इस बार बहुत दिनों पर चक्कर लगा बाबा!" सुदामा ने बाबा का झोला एक खूटी पर टांग दिया।

सुशीला ने तिनकों का बना आसन भूमि पर बिछा दिया, "बैठिये बाबा!"

बाबा ने सुदामा को कोई उत्तर नहीं दिया। आसन पर बैठकर पहले तो सांस को नियन्त्रित-सा करते रहे और फिर सुशीला की ओर उन्मुख होकर बोले, "कैसी हो बेटी?"

सुशीला मुस्कराई, "हम कैसे होंगे बाबा! जैसे आप छोड़ गये थे, वैसे ही हैं। वहीं हैं। यहां कुछ भी घटित नहीं होता! न अच्छा, न बुरा। हमारा संसार तो अचल है न। आप सुनाइये, कैसे हैं?"

बाबा हंस पड़े, "तेरा-मेरा सोचना विपरीत दिशा में चलता है बिटिया! तुम सोचती होगी कि जो कुछ घटित होता है, बाहर ही होता है। घर में कुछ भी नहीं घटता। घरों में व्यवस्थापूर्वक रहने वालों के जीवन में कोई विशेष आरोह-अवरोह नहीं है। उनका कुशल-मंगल एकरस ही रहता है...।"

"हां, बाबा!"

"और जो मुझ-जैसे घुमक्कड़ लोग हैं, बाहर-ही-बाहर रहते हैं। घटनाओं के साथ वे ही चलते हैं। उनके कुशल की सूचना मिलनी ही चाहिए। वे किसी दुर्घटना के साथ न हो जायें या उनके साथ कहीं कोई दुर्घटना न हो जाये...।" बाबा हंस पड़े।

"अब बाबा का शब्दों के साथ खिलवाड़ और भी बढ़ गया है।" सुदामा धीरे-से बोले।

"शब्दों का खिलवाड़ ही सही, पर बात तो ठीक कह रहे हैं बाबा!" सुशीला ने सुदामा का प्रतिवाद किया।

"और मैं सोचता हूं बिटिया," बाबा उन दोनों के विवाद से निरपेक्ष अपनी बात कहते गये, "जब तक ठीक हैं, चल रहे हैं, जब ढीले हुए, रुक गये। मेरे साथ गृहस्थी का दायित्व तो है नहीं। तुम लोग गृहस्थ हो। हज़ार प्रकार के दायित्व हैं। बच्चे हैं...अरे, तुम्हारे बच्चे कहां हैं?" बाबा रुक गये।

"यहीं कहीं खेल रहे होंगे।" सुशीला बोली, "मैं अभी ढूंढकर लाती हूं।" सुशीला कुटिया से बाहर चली गयी।

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    अनुक्रम

  1. अभिज्ञान

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