पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
सुदामा ने आहत दृष्टि से सुशीला को देखा और धीरे-से बोले, "ऐसी कोई चाकरी कर ली तो मेरा दर्शन-ग्रन्थ धरा का धरा रह जायेगा। ज्ञानयोग की श्रेष्ठता का स्वप्न, स्वप्न ही रह जायेगा।"
"देखो! मैंने तो जीवन-भर कोई चाकरी की नहीं।" बाबा बीच-बचाव-सा करते हुए बोले, "मुझे चाकरी का कोई अनुभव नहीं है। सत्य तो यह है कि मुझे चाकरी के नाम से ही घबराहट होती है। पर, द्वारका के गुरुकुल में जो स्थिति मैंने देखी है, उससे ऐसा नहीं लगता कि वहां के आचार्यों, अध्यापकों और साधकों को ज्ञान-साधना में कोई विघ्न उपस्थित होता होगा। इस सन्दर्भ में मैंने कृष्ण में एक अद्भुत उदारता देखी है। गुरुकुल यद्यपि पूर्णतः राजकीय अनुदान से चलता है और वहां के आचार्य, अध्यापक, साधक तथा ब्रह्मचारी बड़े सुख और सुविधा से रहते और कार्य करते हैं; किन्तु गुरुकुल में तनिक भी राजकीय हस्तक्षेप नहीं है।"
"ऐसा सम्भव ही नहीं है बाबा!" सुदामा बोले, "ऐसा कौन-सा शासन होगा, जो अपने धन से ऐसे लोगों का पोषण करे, जो उसके अनुशासन से बंधना न चाहें। गुरुकुल के विद्वान् राजपुरुषों की उपेक्षा करेंगे तो क्या शासनतंत्र उसे सह लेगा? कभी नहीं! राजपरिवार की इसी उदारता का भरोसा कर द्रोणाचार्य अपना आश्रम त्यागकर हस्तिनापुर गये थे। पर क्या हुआ? राजपुत्रों का राजगुरु एक राजपुरुष से अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है। द्रोणाचार्य अपने शिष्यों के गुरु न रहकर उनके आदेशों का पालन करने वाले चाकर होकर रह गये हैं।"
"यह तुम्हारा भ्रम है सुदामा!" बाबा का स्वर इस बार पर्याप्त दृढ़ था, उनका व्यवहार चाहे कितना ही कोमल और स्नेहयुक्त हो, पर सिद्धान्त की बात आते ही वे कठोर हो जाते थे।
"भ्रम की क्या बात है?" सुदामा का स्वर भी कुछ आग्रहपूर्ण हो गया, "आचार्य द्रोण आज किसी राजपुरुष से कुछ अधिक हैं क्या?"
"द्रोण अब आचार्य ही नहीं हैं," बाबा अपने शब्दों को चबा-चबाकर दृढ़ स्वर में बोले, "द्रोण राजपुरुष हैं। कुरु सेनाओं के सेनापति हैं। कुरुओं के मण्डलेश्वर हैं। अहिछत्रा के राजा हैं। द्रोण पूरे राजनीतिज्ञ हैं। वह न आचार्य हैं, न ऋषि। और फिर..." बाबा का स्वर कुछ ऊंचा हो गया, "तुम्हारे गुरु द्रोणाचार्य हस्तिनापुर में ज्ञान की साधना करने नहीं आये थे कि उन्हें चिन्तन की स्वतन्त्रता की आवश्यकता होती।"
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