पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
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कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"साधारण रूप में कहूं, तो इतना ही कहूंगा कि माता-पिता अपनी सन्तान को क्यों पीटते हैं? गुरुजन अपने शिष्यों को क्यों दण्डित करते हैं?" कृष्ण सहज भाव से बोले, "और यदि एक समाज तथा दूसरे समाज से तटस्थ हो जाओ; अपना ममत्व और पक्षपात दूर कर लो तो यह प्राकृतिक व्यवस्था है, शुद्ध व्यवस्था है, शुद्ध सत्यों-नियमों से परिचालित। एक स्थान में शून्य होते ही, दूसरे स्थान से वायु वहां पहुंच जाती है। वही स्थिति मानव-समाज की है। एक समाज में अकर्म आते ही, दूसरा कर्मशील समाज वहां जा पहुंचता है। और तब तक वहां टिका रहता है, जब तक कि पहला समाज समर्थ होकर दूसरे को बाहर नहीं धकेल देता। प्रकृति तो है ही संघर्ष का नाम। कभी यह संघर्ष मनुष्य और मनुष्य में होता है, कभी समाज और समाज में, कभी राज्य और राज्य में। सम्भव है कि किसी समय यह संघर्ष एक ग्रह और दूसरे ग्रह के बीच में हो, दो ब्रह्माण्डों के लोगों के बीच में हो। ऐसे प्रत्येक संघर्ष में, उन इकाइयों के अलग नियम होते हैं, जो उसमें भाग ले रही हैं। राज्यों के संघर्षों में व्यक्तियों के संघर्ष के नियम लागू नहीं होते, और ब्रह्माण्डों के संघर्षों में राज्यों के संघर्षों के नियम असत्य हो जायेंगे। इसीलिए यह आवश्यक है कि इन प्राकृतिक नियमों को खोजा जाये, समझा जाये और फिर उनके अनुकूल जिया जाये। जहां मनुष्य की अथवा समाज की समझ में भ्रम अथवा प्रमाद होता है-नियमों की ठोकर उसे बता देती है कि वह भूल कर रहा था। इस धरातल पर व्यक्ति, प्रकृति से अपना तादात्म्य करता है तो पाता है कि जो जीत रही है, वह भी प्रकृति है, जो हार रही है, वह भी प्रकृति है। तभी वह पाता है कि पीड़ित भी वही है, पीड़क भी वही है। शोषित भी मैं हूं, शोषक भी मैं हूं। सारा संघर्ष प्रकृति के भीतर चल रहा है। प्रकृति से प्रकृति ही लड़ रही है-एक सन्तुलन स्थापित करने के लिए। वही प्रकृति तुम हो, वही मैं हूं। यही प्रकृति, यही संजीवनी-मनुष्य का विराट रूप है। जब मैं यह अनुभव करता हूं, तो मैं इस संकीर्ण मानव शरीर में सीमित नहीं रह जाता, मैं विराट प्रकृति हो जाता हूं।"
सुदामा ने कृष्ण को देखा : क्या था कृष्ण की आँखों में? क्या था उसके चेहरे पर। जो कुछ कृष्ण के मुख से निकला था, वह मात्र शब्द नहीं थे, वह कृष्ण की अनुभूति थी। ...तो क्या कृष्ण सचमुच इस समय प्रकृति-रूप हो रहा है। कृष्ण के शब्द, अन्य व्यक्ति के लिए मात्र एक चिन्तन-पद्धति हो सकते हैं; किन्तु कृष्ण के लिए वह जीवन-पद्धति थी। कृष्ण ज्ञान से कहीं आगे बढ़ गया था, अनुभव की सीमा तक...।
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