पौराणिक >> अभिज्ञान अभिज्ञाननरेन्द्र कोहली
|
4 पाठकों को प्रिय 10 पाठक हैं |
कृष्ण-सुदामा की मनोहारी कथा...
"तो भ्रष्ट राजपुरुषों और आपके इन विद्वानों में क्या अन्तर है?" सुशीला आक्रोश के साथ बोली, "दिन-भर राजनीतिज्ञों और राजपुरुषों को कोसने का क्या लाभ?"
"तुम समझी नहीं बिटिया!" बाबा बोले, "ये तथाकथित विद्वान् भी तो उसी भ्रष्ट राजनीति तथा भ्रष्ट समाज की उपज हैं।"
"तो श्रीकृष्ण ने ऐसा कुलपति क्यों चुना?"
"यह तो भगवान् ही जाने!" बाबा बोले, "कौन जानता है कि यह नियुक्ति कृष्ण ने की है या किसी अन्य राजपुरुष ने। कृष्ण तो आज तक भीतर और बाहर की भ्रष्ट राजशक्तियों से उलझ रहा है। उसे अवकाश ही कहां है। जरासंध से वह लड़ा। कालयवन को उसने मारा। चेदी, विदर्भ तथा पण्यजनों से वह उलझा रहा। आर्यावर्त का ध्यान वह छोड़ नहीं पाता। काशी, कुरु और पांचाल की राजनीति में वह धंसता जा रहा है। और फिर शाल्व..." बाबा ने सांस ली, "इधर शक्ति पाकर यादवों में उद्दण्डता बढ़ती जा रही है। कृष्ण ही उनका अनुशासन कर रहा है। और फिर वह राजा तो है नहीं कि सर्वशक्तिशाली हो।"
"उस कुलपति की नियुक्ति के लिए कृष्ण उत्तरदायी हो या न हो, बाबा तो उत्तरदायी नहीं ही हैं।" सुदामा हंसे, "इस विवाद को यहीं छोड़ो और शान्त मन से भोजन करो। भोजन के समय मस्तिष्क का उत्तेजित होना लाभकारी नहीं है।'
"अच्छा! केवल एक बात!" पूरियां बेलती हुई सुशीला ने सुदामा से कहा और बाबा की ओर देखा, "कृष्ण राजा नहीं हैं?''
"नहीं।" बाबा ने बताया, "कृष्ण राजा नहीं है। उग्रसेन को राजा कहा जाता है, पर वस्तुतः वह भी यादवों की राजपरिषद् का अध्यक्ष मात्र ही है। बुड्ढे को राजा कहकर लोग प्रसन्न कर देते हैं।" बाबा एक हाथ पर दूसरा हाथ पटक ज़ोर से हंसे।
"अच्छा! तो राज कौन करता है?"
"परिषद् ! नायकों की परिषद्।' बाबा बोले, "वस्तुतः यादवों में नायकों का गणतन्त्र है। कृष्ण उनका सबसे अधिक प्रभावशाली नायक है। जब कभी आवश्यकता होती है, वह परिषद् को अपने पक्ष में कर, अपनी इच्छा पूरी करवा लेता है।"
"तो वे राजा बन क्यों नहीं जाते?"
"क्या आवश्यकता है।" बाबा बोले, "प्रभाव की दृष्टि से, आज वह चक्रवर्ती सम्राटों से भी अधिक शक्तिशाली है और उस पर भी समय-असमय वह घोषणा कर देता है कि मैं तो एक ग्वाला हूं।"
|
- अभिज्ञान