पौराणिक >> महाभारत में मातृ-वंदना महाभारत में मातृ-वंदनादिनकर जोशी
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महाभारत में वर्णित माताओं के वंदनीय स्वरूपों का वर्णन....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
महाभारत में एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ पात्र हैं। इसके स्त्री पात्रों की
जीवन-विशषताएँ हमें प्रभावित करती हैं। प्रस्तुत कृति में महाभारत में
वर्णित माताओं के वंदनीय स्वरूप को उद्घाटित किया गया है। विद्वान् लेखन
दिनकर जोशी ने इसमें सत्यवती, गंगा, गांधारी, कुंती, द्रौपदी, हिडिंबा,
चित्रांगदा, उलुपी, सुभद्रा एवं उत्तरा आदि माताओं के जीवन के विभिन्न
पक्षों पर सर्वथा अलग तरह से दृष्टि डालते हुए उनके विशिष्ट स्वरूप का
दिग्दर्शन कराया है।
दर्शन के पूर्व का क्षण
रामायण की रचना राम के पात्र को केंद्र में रख कर की गयी है। राम को
छोड़कर शेष सभी पात्र गौण हैं। नायिका के रूप में सीता का नाम लिया जा
सकता है, परंतु सीता भी अंततः राम के पात्र में आत्मविलोपन ही करती हैं।
लक्ष्मण या भरत जैसे पात्र कहीं-कहीं स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में
उभरते भी हैं तो तत्काल राम के ही पात्र में विलीन हो जाते हैं। हनुमान और
रावण-ये दो ऐसे पात्र कि, जो रामकथा के उत्तरार्ध में अनेक घटनाओं पर
प्रभुत्व प्राप्त कर स्वतंत्र पात्र के रूप में अपना स्थान सुरक्षित रख
सकते हैं; पर वे भी अंत में राम के विकास और घटनाक्रम का एक अंश ही बनकर
रह जाते हैं। रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि ने रामकथा के आरंभ में ही
यह बात स्पष्ट कर दी है। स्वंय ब्रह्मा से उन्होंने राम का परिचय प्राप्त
किया है और एक लोकोत्तर पुरुष के जीवन का आलेखन करना ही एकमात्र उपक्रम
यहाँ रहा है। स्वयं ब्रह्मा ने ऐसे लोकोत्तर पुरुष के रूप में राम का
परिचय देकर उनके जीवन का चित्रण करने के लिए महर्षि वाल्मीकि को सूचित
किया था। रामायण रामकथा है, यह बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है।
परंतु जैसा रामायण के विषय में कहा जा सकता है वैसा महाभारत के विषय में नहीं कहा जा सकता। महाभारत की कथा ही ऐसी जटिल और घटना-बहुल है कि उसमें से किसी एक प्रमुख पात्र को नायक के रूप में बता पाना अत्यंत कठिन काम है। एक प्रकार से देखें तो महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास तटस्थ भाव से मात्र एक सर्जक के रूप में महाभारत की रचना नहीं करते। वे स्वंय भी महाभारत के एक पात्र हैं। वाल्मीकि जिस तटस्थता से रामायण की रचना करते हैं, व्यास उस तटस्थता से महाभारत का आलेखन नहीं करते। व्यास से इस प्रकार की तटस्थता की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती, क्योंकि व्यास एक ऐसे पात्र हैं जो महाभारत के आरंभ में ही दिखाई देते हैं और उसके अंतिम पृष्ठों में भी प्रकट होते हैं। इन हजार पृष्ठों की सैकड़ों घटनाओं के बीच भी व्यास जब-तब एक पात्र के रूप में घटनाओं के साथ सहभागी भी होते हैं, पर इसके बावजूद व्यास को मुख्य पात्र नहीं कहा जा सकता है।
व्यास के बाद तत्काल ही हमें कृष्ण का नाम स्मरण में आता है। कृष्ण महाभारत के एक मुख्य पात्र हैं यह सही है और वे महाभारत की लगभग अधिकांश घटनाओं पर अपने प्रभुत्व का विस्तार करते हैं, यह भी सही है। कृष्ण की अनुपस्थिति में जो भी घटना है वह घटना की बजाय दुर्घटना अधिक है। द्यूत में सर्वस्व हारकर पांडव जब अरण्यवास भोग रहे थे, उस समय सभापर्व में युधिष्ठिर से कृष्ण ने स्वंय कहा है—‘‘यदि मैं वहाँ उपस्थित होता तो यह नहीं हुआ होता।’’ इसी तरह महाभारत की तमाम घटनाओं के होने अथवा न होने पर भी कृष्ण का व्यक्तित्व व्याप्त दिखाई देता है। तथापि कृष्ण का प्रवेश ही बहुत देर से होता है। द्रौपदी के स्वयंवर के समय कृष्ण पहली बार जब महाभारत के घटनाक्रम में प्रवेश करते हैं तो वे अपने पुत्र प्रद्युम्न के साथ वहाँ आते हैं। समय की गणना करें तो कृष्ण की आयु उस समय लगभग अथवा कम-से-कम चालीस वर्ष की होनी चाहिए, ऐसा मत विद्वानों का है। कृष्ण-चरित्र का चित्रण कोई महाभारत का विषय नहीं है।
उनके अतिरिक्त अन्य पात्र धृतराष्ट्र, युध्ष्ठिर, दुर्योधन या कर्ण—ये सभी समय-समय पर दिखाई देते हैं, स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में विकसित होते हैं, घटनाओं पर अपना प्रतिबिंब छोड़ते हैं और पाठक के मन पर प्रभाव भी डालते हैं, इसके बावजूद इनमें से कोई भी महाभारत की कथा का नायक नहीं हो सकता। महाभारत की विस्तृत कथा के ये सभी महत्त्वपूर्ण पात्र भर हैं। भीम, अर्जुन जैसे पात्र लक्ष्मण या भरत की भाँति अपने व्यक्तित्व को अपने बड़े भाई के व्यक्तित्व में लुप्त नहीं कर देते, यह सही है और लक्ष्मण या भरत की तुलना में ये दोनों पात्र अधिक विकसित और स्वतंत्र हैं, यह भी सही है; किंतु उन पर भी महाभारत के मुख्यपात्र के रूप में विचार किया जाना संभव नहीं।
महाभारत में सबसे महत्त्वपूर्ण पात्र भीष्म हैं। कथा के रचयिता व्यास को यदि विचार में न लिया जाय को महाभारत के सैकड़ों पात्रों के बीच भीष्म हिमालय के शिखर की ऊँचाई रखते हैं। कृष्ण की व्याप्ति और उनकी उत्तुंगता को लक्ष्य में न लें तो भीष्म ही महाभारत के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पात्र हैं। महाभारत कुरुवंश की कथा है और कृष्ण कुरुवंशी नहीं हैं, इसलिए कथा के उद्गम और सातत्य को लक्ष्य में रखें तो भीष्म ही सबसे ऊपर रहते हैं। कथा के आरंभ में ही व्यास के बाद वे दिखाई दे जाते हैं—उस समय वे भीष्म नहीं देवव्रत हैं; पर देवव्रत से भीष्म बनने के बाद महाभारत की तमाम घटनाओं पर कुरुक्षेत्र का युद्ध समाप्त होने और युधिष्ठिर के राज्यारोहण के बाद भी भीष्म ही सर्वोपरि स्थान बरकरार रखते हैं। इस प्रकार महाभारत में भीष्म को नायक न मानें तो भी उन्हें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पात्र के आसन पर तो रखना ही होगा।
तो फिर महाभारत में नायक के स्थान पर कौन है ?
महाभारत की कथा नायक-विहीन दिखाई देती है, मात्र यही इसकी विशेषता नहीं है महाभारत में एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ पात्र हैं। जिसका ऊपर उल्लेख हुआ है उनके उपरांत द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे अतिशय महत्त्व के पात्र भी हैं। इन सभी पात्रों की एक अलग विशेषता है। कृष्ण का अपवाद छोड़ दें तो महाभारत के इन तमाम प्रमुख पात्रों का जन्म सामाजिक मूल्यों ने जिस पद्धति को सबसे ऊपर रखा है उस स्त्री-पुरुष के बीच की स्वीकृत विवाह-पद्धति से नहीं हुआ है। इन सभी पात्रों का जन्म किसी-न-किसी विशेष कथा के साथ हुआ है। अधिसंख्य पात्र या तो चमत्कारक या अवैध संबंधों के परिणाम हैं। महाभारत के सर्जक स्वयं व्यास एक दुर्बल क्षण के ही परिणाम हैं। द्रोणाचार्य अपने पिता भरद्वाज के स्खलित वीर्य के एक पात्र में पड़ जाने के परिणाम हैं। कर्ण, पांडव, कौरव—इन सभी के विषय में इसी प्रकार कहा जा सकता है।
एक सरसरी नजर महाभारत के स्त्री पात्रों के ऊपर भी डाल लें। ऐसा करते ही महाभारत कथा का नायक कौन है, यह प्रश्न गौण हो जाता है, ऐसा लगता है। कतिपय आश्चर्यजनक लगे, ऐसा यह विधान हैं; किंतु थोड़ा अधिक विस्तार से गहरे में उतरें तो इन तमाम स्त्री पात्रों की एक अलग ही प्रकार की विशेषता से हम स्तब्ध हो जाते हैं।
जैसा कि ऊपर लिखा गया है, महाभारत के सबसे अधिक तेजस्वी और विश्व साहित्य में भी जिनका स्थान विराट् व्यक्तित्व के रूप में रखा जा सके, ऐसे तमाम पात्रों के पिता बहुधा इन पुत्रों के विकास या निर्माण के लिए आगे नहीं आए हैं। अपवाद-स्वरूप एक-दो को छोड़ दें तो पिता पुत्रों को अवैध जन्म देकर अदृश्य हो जाते हैं। इसके बाद की सारी कथा पुत्रजन्म तो ठीक, पुत्र के पालन-पोषण और निर्माण तक की कथा, उसका संघर्ष इन स्त्री पात्रों ने सहा है, फिर भले ही वह सत्यवती हो, कुंती हो, गांधारी हो या एकदम बच्ची लगती किशोरी उत्तरा हो। सत्यवती के गर्भ से जनमें दो पुत्र कुछ कर सकें, उसके पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाएँ और उसके बाद दो युवा विधवा पुत्रवधुओं के बीच सत्यवती जो संघर्ष करती है—वंश के विस्तार के लिए—वह अद्भुत कथा है, रोमांचक कल्पना है। इन सभी स्त्री पात्रों ने कठिन संघर्ष करके अपने गर्भ को जन्म दिया—जन्म देने के बाद उनके पालन-पोषण के लिए जो संघर्ष जाने-अनजाने आ पड़ा उसे झेला और अपनी संतानों को महान् पात्रों के रूप में समाज के समक्ष रखा।
इस प्रकार भीम हों या द्रोण, युधिष्ठिर हों या कर्ण, दुर्योंधन हो या अभिमन्यु, भीम और अर्जुन हों या धृतराष्ट्र और विदुर हों—यह सूची खासी लंबी की जा सकती है। इन सबके स्थान पर सच्ची अधिकारिणी यदि कोई हो सकती है तो वे उनकी जन्मदात्री माताएँ हैं। इन माताओं ने जो सहा है उसका सही परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन स्वयं व्यास ने भी महाभारत में नहीं किया है, इसमें कोई शंका नहीं। महाभारत एक इंद्रधनुष हैं। इसमें यदि कोई निश्चित रंग देखना हो तो खास तरह के काँच से वह विशिष्ट रूप में देखा जा सकता है। असीम आकाश में इंद्रधनुष के सातों रंग एक पट्टी में जरूर देखे जा सकते हैं, किंतु उनमें से एक ही रंग को यदि अलग करके उसके सौंदर्य का आनंद लेना हो तो उसके सिए खास तरह का काँच लेना पड़ेगा।
इस काँच से जब महाभारत के इन स्त्री पात्रों को देखते हैं तो न केवल मुग्ध हो जाना पड़ता है बल्कि स्तब्ध भी हो जाना पड़ता है। स्तब्धता का यह आभास जब पिघलता है तो पहली संवेदना यह प्रकट होती है—अरे ! महाभारत की कथा के सही नायक के स्थान पर यदि किसी को स्थापित ही करना हो तो अन्य किसी को नहीं, इन माताओं को—इनके मातृत्व को ही सही स्थान देना चाहिए।
पर महाभारत के नायक पर इस मातृत्व का अभिषेक करते हैं तो उसी क्षण अपने सात-सात पुत्रों को जन्म देते ही जल में प्रवाहित कर देने वाली माता दिखाई देती है, कौमार्यवस्था में मातृत्व प्राप्त करने के बाद पुत्र का त्याग करती माता सत्यवती और माता कुंती दोनों दिखाई देती हैं। पुत्रोत्पत्ति के लिए असमर्थ पति को त्यागकर दूसरों द्वारा गर्भाधान करती माद्री दिखाई देती है या फिर पिता-तुल्य व्यास के साथ संबंध स्थापित करके धृतराष्ट्र या पांडु को जन्म देती अंबालिका दिखाई देती है।...
तत्काल कठिन प्रश्न पैदा होता है।
परंतु जैसा रामायण के विषय में कहा जा सकता है वैसा महाभारत के विषय में नहीं कहा जा सकता। महाभारत की कथा ही ऐसी जटिल और घटना-बहुल है कि उसमें से किसी एक प्रमुख पात्र को नायक के रूप में बता पाना अत्यंत कठिन काम है। एक प्रकार से देखें तो महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास तटस्थ भाव से मात्र एक सर्जक के रूप में महाभारत की रचना नहीं करते। वे स्वंय भी महाभारत के एक पात्र हैं। वाल्मीकि जिस तटस्थता से रामायण की रचना करते हैं, व्यास उस तटस्थता से महाभारत का आलेखन नहीं करते। व्यास से इस प्रकार की तटस्थता की अपेक्षा भी नहीं की जा सकती, क्योंकि व्यास एक ऐसे पात्र हैं जो महाभारत के आरंभ में ही दिखाई देते हैं और उसके अंतिम पृष्ठों में भी प्रकट होते हैं। इन हजार पृष्ठों की सैकड़ों घटनाओं के बीच भी व्यास जब-तब एक पात्र के रूप में घटनाओं के साथ सहभागी भी होते हैं, पर इसके बावजूद व्यास को मुख्य पात्र नहीं कहा जा सकता है।
व्यास के बाद तत्काल ही हमें कृष्ण का नाम स्मरण में आता है। कृष्ण महाभारत के एक मुख्य पात्र हैं यह सही है और वे महाभारत की लगभग अधिकांश घटनाओं पर अपने प्रभुत्व का विस्तार करते हैं, यह भी सही है। कृष्ण की अनुपस्थिति में जो भी घटना है वह घटना की बजाय दुर्घटना अधिक है। द्यूत में सर्वस्व हारकर पांडव जब अरण्यवास भोग रहे थे, उस समय सभापर्व में युधिष्ठिर से कृष्ण ने स्वंय कहा है—‘‘यदि मैं वहाँ उपस्थित होता तो यह नहीं हुआ होता।’’ इसी तरह महाभारत की तमाम घटनाओं के होने अथवा न होने पर भी कृष्ण का व्यक्तित्व व्याप्त दिखाई देता है। तथापि कृष्ण का प्रवेश ही बहुत देर से होता है। द्रौपदी के स्वयंवर के समय कृष्ण पहली बार जब महाभारत के घटनाक्रम में प्रवेश करते हैं तो वे अपने पुत्र प्रद्युम्न के साथ वहाँ आते हैं। समय की गणना करें तो कृष्ण की आयु उस समय लगभग अथवा कम-से-कम चालीस वर्ष की होनी चाहिए, ऐसा मत विद्वानों का है। कृष्ण-चरित्र का चित्रण कोई महाभारत का विषय नहीं है।
उनके अतिरिक्त अन्य पात्र धृतराष्ट्र, युध्ष्ठिर, दुर्योधन या कर्ण—ये सभी समय-समय पर दिखाई देते हैं, स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में विकसित होते हैं, घटनाओं पर अपना प्रतिबिंब छोड़ते हैं और पाठक के मन पर प्रभाव भी डालते हैं, इसके बावजूद इनमें से कोई भी महाभारत की कथा का नायक नहीं हो सकता। महाभारत की विस्तृत कथा के ये सभी महत्त्वपूर्ण पात्र भर हैं। भीम, अर्जुन जैसे पात्र लक्ष्मण या भरत की भाँति अपने व्यक्तित्व को अपने बड़े भाई के व्यक्तित्व में लुप्त नहीं कर देते, यह सही है और लक्ष्मण या भरत की तुलना में ये दोनों पात्र अधिक विकसित और स्वतंत्र हैं, यह भी सही है; किंतु उन पर भी महाभारत के मुख्यपात्र के रूप में विचार किया जाना संभव नहीं।
महाभारत में सबसे महत्त्वपूर्ण पात्र भीष्म हैं। कथा के रचयिता व्यास को यदि विचार में न लिया जाय को महाभारत के सैकड़ों पात्रों के बीच भीष्म हिमालय के शिखर की ऊँचाई रखते हैं। कृष्ण की व्याप्ति और उनकी उत्तुंगता को लक्ष्य में न लें तो भीष्म ही महाभारत के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पात्र हैं। महाभारत कुरुवंश की कथा है और कृष्ण कुरुवंशी नहीं हैं, इसलिए कथा के उद्गम और सातत्य को लक्ष्य में रखें तो भीष्म ही सबसे ऊपर रहते हैं। कथा के आरंभ में ही व्यास के बाद वे दिखाई दे जाते हैं—उस समय वे भीष्म नहीं देवव्रत हैं; पर देवव्रत से भीष्म बनने के बाद महाभारत की तमाम घटनाओं पर कुरुक्षेत्र का युद्ध समाप्त होने और युधिष्ठिर के राज्यारोहण के बाद भी भीष्म ही सर्वोपरि स्थान बरकरार रखते हैं। इस प्रकार महाभारत में भीष्म को नायक न मानें तो भी उन्हें सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण पात्र के आसन पर तो रखना ही होगा।
तो फिर महाभारत में नायक के स्थान पर कौन है ?
महाभारत की कथा नायक-विहीन दिखाई देती है, मात्र यही इसकी विशेषता नहीं है महाभारत में एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ पात्र हैं। जिसका ऊपर उल्लेख हुआ है उनके उपरांत द्रोणाचार्य, कृपाचार्य जैसे अतिशय महत्त्व के पात्र भी हैं। इन सभी पात्रों की एक अलग विशेषता है। कृष्ण का अपवाद छोड़ दें तो महाभारत के इन तमाम प्रमुख पात्रों का जन्म सामाजिक मूल्यों ने जिस पद्धति को सबसे ऊपर रखा है उस स्त्री-पुरुष के बीच की स्वीकृत विवाह-पद्धति से नहीं हुआ है। इन सभी पात्रों का जन्म किसी-न-किसी विशेष कथा के साथ हुआ है। अधिसंख्य पात्र या तो चमत्कारक या अवैध संबंधों के परिणाम हैं। महाभारत के सर्जक स्वयं व्यास एक दुर्बल क्षण के ही परिणाम हैं। द्रोणाचार्य अपने पिता भरद्वाज के स्खलित वीर्य के एक पात्र में पड़ जाने के परिणाम हैं। कर्ण, पांडव, कौरव—इन सभी के विषय में इसी प्रकार कहा जा सकता है।
एक सरसरी नजर महाभारत के स्त्री पात्रों के ऊपर भी डाल लें। ऐसा करते ही महाभारत कथा का नायक कौन है, यह प्रश्न गौण हो जाता है, ऐसा लगता है। कतिपय आश्चर्यजनक लगे, ऐसा यह विधान हैं; किंतु थोड़ा अधिक विस्तार से गहरे में उतरें तो इन तमाम स्त्री पात्रों की एक अलग ही प्रकार की विशेषता से हम स्तब्ध हो जाते हैं।
जैसा कि ऊपर लिखा गया है, महाभारत के सबसे अधिक तेजस्वी और विश्व साहित्य में भी जिनका स्थान विराट् व्यक्तित्व के रूप में रखा जा सके, ऐसे तमाम पात्रों के पिता बहुधा इन पुत्रों के विकास या निर्माण के लिए आगे नहीं आए हैं। अपवाद-स्वरूप एक-दो को छोड़ दें तो पिता पुत्रों को अवैध जन्म देकर अदृश्य हो जाते हैं। इसके बाद की सारी कथा पुत्रजन्म तो ठीक, पुत्र के पालन-पोषण और निर्माण तक की कथा, उसका संघर्ष इन स्त्री पात्रों ने सहा है, फिर भले ही वह सत्यवती हो, कुंती हो, गांधारी हो या एकदम बच्ची लगती किशोरी उत्तरा हो। सत्यवती के गर्भ से जनमें दो पुत्र कुछ कर सकें, उसके पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाएँ और उसके बाद दो युवा विधवा पुत्रवधुओं के बीच सत्यवती जो संघर्ष करती है—वंश के विस्तार के लिए—वह अद्भुत कथा है, रोमांचक कल्पना है। इन सभी स्त्री पात्रों ने कठिन संघर्ष करके अपने गर्भ को जन्म दिया—जन्म देने के बाद उनके पालन-पोषण के लिए जो संघर्ष जाने-अनजाने आ पड़ा उसे झेला और अपनी संतानों को महान् पात्रों के रूप में समाज के समक्ष रखा।
इस प्रकार भीम हों या द्रोण, युधिष्ठिर हों या कर्ण, दुर्योंधन हो या अभिमन्यु, भीम और अर्जुन हों या धृतराष्ट्र और विदुर हों—यह सूची खासी लंबी की जा सकती है। इन सबके स्थान पर सच्ची अधिकारिणी यदि कोई हो सकती है तो वे उनकी जन्मदात्री माताएँ हैं। इन माताओं ने जो सहा है उसका सही परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन स्वयं व्यास ने भी महाभारत में नहीं किया है, इसमें कोई शंका नहीं। महाभारत एक इंद्रधनुष हैं। इसमें यदि कोई निश्चित रंग देखना हो तो खास तरह के काँच से वह विशिष्ट रूप में देखा जा सकता है। असीम आकाश में इंद्रधनुष के सातों रंग एक पट्टी में जरूर देखे जा सकते हैं, किंतु उनमें से एक ही रंग को यदि अलग करके उसके सौंदर्य का आनंद लेना हो तो उसके सिए खास तरह का काँच लेना पड़ेगा।
इस काँच से जब महाभारत के इन स्त्री पात्रों को देखते हैं तो न केवल मुग्ध हो जाना पड़ता है बल्कि स्तब्ध भी हो जाना पड़ता है। स्तब्धता का यह आभास जब पिघलता है तो पहली संवेदना यह प्रकट होती है—अरे ! महाभारत की कथा के सही नायक के स्थान पर यदि किसी को स्थापित ही करना हो तो अन्य किसी को नहीं, इन माताओं को—इनके मातृत्व को ही सही स्थान देना चाहिए।
पर महाभारत के नायक पर इस मातृत्व का अभिषेक करते हैं तो उसी क्षण अपने सात-सात पुत्रों को जन्म देते ही जल में प्रवाहित कर देने वाली माता दिखाई देती है, कौमार्यवस्था में मातृत्व प्राप्त करने के बाद पुत्र का त्याग करती माता सत्यवती और माता कुंती दोनों दिखाई देती हैं। पुत्रोत्पत्ति के लिए असमर्थ पति को त्यागकर दूसरों द्वारा गर्भाधान करती माद्री दिखाई देती है या फिर पिता-तुल्य व्यास के साथ संबंध स्थापित करके धृतराष्ट्र या पांडु को जन्म देती अंबालिका दिखाई देती है।...
तत्काल कठिन प्रश्न पैदा होता है।
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