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जीवनी/आत्मकथा >> मेरा जीवन दर्शन

मेरा जीवन दर्शन

कर्ण सिंह

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2013
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4440
आईएसबीएन :9788170286615

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लेखक के जीवन के अनुभवों और अनुशीलन की प्रेरणात्मक प्रस्तुति....

Mera jeevan-darshan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

डॉ. कर्ण सिंह ने अपने 75वें जन्मदिन पर यह पुस्तक लिखी है। जिसमें उन्होंने अपने जीवन के अनुभवों, मान्यताओं और विश्वासों को बहुत ही सरल और रोचक शैली में वर्णित किया है। इस पुस्तक की भूमिका में वे स्वयं लिखते हैं--‘‘देश-विदेश की यात्राएं करते समय मुझसे प्रायः यह प्रश्न, अधिकतर युवाओं के द्वारा पूछा जाता है, ‘आपका जीवन-दर्शन क्या है ?’’ साधारण-सा लगने वाला परंतु भारी प्रश्न है यह ! मैं वेदांत, उपनिषद तथा श्रीअरविंद इत्यादि के दर्शन पर लम्बे-चौड़े भाषण देता हूँ, परंतु उनसे इस प्रश्न का समाधान नहीं होता। मैं 75 वर्ष का हो रहा था, मैंने सोचा कि अपने विचारों को स्पष्ट करने का यह अच्छा अवसर है।’’

 

आरंभ

 

देश-विदेश की यात्राएँ करते समय मुझसे प्रायः यह प्रश्न, अधिकतर युवाओं के द्वारा, पूछा जाता है, ‘आपका जीवन-दर्शन क्या है ?’ साधारण-सा लगने वाला परंतु भारी प्रश्न यह है ! मैं वेदांत, उपनिषद तथा श्रीअरविंद इत्यादि के दर्शन पर लंबे-चौड़े भाषण देता हूँ, परंतु उनसे इस प्रश्न का समाधान नहीं होता। 9 मार्च, 2006 को मैं 75 वर्ष का हो रहा था, मैंने सोचा कि अपने विचारों और मान्यताओं को सही-सही स्पष्ट करने का यह अच्छा अवसर है।
मनुष्य के विश्वास उसके जीवन के उन सभी अनुभवों से, जिनसे उसे गुजरना पड़ा है, निःसृत होते हैं। मैं इन अर्थों में भाग्यशाली हूँ कि अन्य लोगों की अपेक्षा मुझे कहीं ज्यादा विविध और प्रबल अनुभवों से गुजरना पड़ा है। मेरे चिंतन को दिशा प्रदान करनेवाले प्रमुख तत्त्व चार है—पुस्तकें, संगीत, यात्रा और व्यक्ति। इन चारों से मुझे बहुत व्यापक और गहरा संपर्क रहा है और यदि मैं उनसे पूरा लाभ नहीं उठा पाया तो यह मेरा अपना ही दोष है। जो हो, मैं, यहाँ संक्षेप में अपने प्रमुख विश्वासों को व्यक्त कर रहा हूँ—यद्यपि गंभीर विषयों को सरल शब्दों में किस प्रकार व्यक्त किया जाय, यह समझ पाना मेरे लिए कठिन लग रहा है।

1. मैं मानता हूँ कि मनुष्य अभी भी पशु और देवत्व के बीच की अवस्था में है, वह सचेत तथा निरंतर प्रयत्न के द्वारा ही उच्चतर स्थिति को प्राप्त कर सकता है और देवत्व की दिशा में इस प्रकार अग्रसर होने की प्रेरणा से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई संकल्प नहीं हो सकता। मैं मनता हूँ कि हमारे इस पृथ्वी गृह पर अथवा इन अनंत सृष्टि के किसी भी भाग में उत्पन्न प्रत्येक मनुष्य में देवत्व का कभी न बुझनेवाला स्फुलिंग विद्यमान है। मनुष्य के रूप में इस स्फुलिंग को जगाते रहकर आध्यात्मिक अनुभूति को निर्धूम शिखा में परिवर्तित कर देना ही हमारे जीवन की नियति है।

2. मैं मानता हूँ कि प्रत्येक व्यक्ति में इस देवत्व को जाग्रत कर पाना सभी राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक क्रियाकलापों का अंतिम उद्देश्य होना चाहिए। वैज्ञानिक तथा तकनीकी विकास यदि हमें इस परम उद्देश्य की दिशा में नहीं ले जाते, तो वे निर्थक हैं।

3. मैं मानता हूँ कि अपने उच्चतम स्वरूपों में सभी धर्म एक ही लक्ष्य की ओर ले जाने वाले विविध मार्ग हैं, और वह लक्ष्य है मनुष्य तथा देवत्व के परस्पर मिलन का अनिर्वचनीय अनुभव; कि सभी धर्मों के रहस्यवादियों ने इसका स्वयं अनुभव करके मानव-प्रेम तथा दैवी सम्मिलन के इस मूलतः एक ही सिद्धांत का प्रतिपादन और प्रसार किया है; तथा यह धर्म के नाम पर संघर्ष और घृणा फैलाना न केवल अध्यात्म का प्रतिवाद है बल्कि, मनुष्यता के नाम पर घोर कलंक है।

4. मैं मानता हूँ कि सभ्यता के उषःकाल से पृथ्वी पर विद्यमान भारत देश का वर्तमान समय में विशेष कर्तव्य विकास की दिशी में आगे बढ़नेवाले समाज को बनाना तथा पुष्ट करना है। हिंसा तथा घृणा से टूट रहे आज संसार में धन तथा बुद्धि में एक नया संतुलन स्थापित करके मनुष्यता का मार्गदर्शन करने में भारत को एक विशेष रोल अदा करना है। मेरा मानना है कि राजनीतिक एकीकरण, आर्थिक विकास, सामाजिक परिवर्तन तथा सेक्युलर लोकतंत्र के लिए कार्य करना स्वयं में कोई उद्देश्य नहीं है, बल्कि चारों संयोग से इस पुरातन देश के निवासी अपनी नियति को किसी प्रकार फलीभूत कर सकें, यह उनका उद्देश्य होना चाहिए।

5. मैं मानता हूँ कि जब तक लाखों-करोंड़ों व्यक्ति जीवन की मौलिक आवश्यकताओं को पूर्ण कर पाने में असमर्थ हैं, तब तक उनसे आत्मा-परमात्मा की चर्चा करने का कोई औचित्य नहीं है, और आध्यात्मिक विकास के लिए उनकी भौतिक आवश्यकताओं की पहले मूर्ति होना नितांत आवश्यक है। मैं मानता हूँ कि यह कर पाना तभी संभव है जब हम कई दशकों तक कठिन परिश्रम करके अनुशासनपूर्वक राष्ट्रीय संपत्ति अर्जित करें तथ साथ ही ऐसी नीतियाँ निर्धारित तथा उनका पालन करें जिनसे यह सम्पत्ति समाज के सभी वर्गों में न्यायपूर्वक वितरित की जाती रहे। मैं मानता हूँ कि वर्ग-संघर्ष की कठोर धारणा के अनुसार कार्य करने से इसे प्राप्त नहीं किया जा सकता बल्कि गरीबी की सीमारेखा तो, जो अब तक हमारे बीच विद्यमान है, तोड़ने के प्रयत्न में संपूर्ण समाज को इच्छापूर्वक संयोजित करने से प्राप्त किया जाना चाहिए।

6. मैं मानता हूँ कि राजनीति तो हमेशा अशांत और विक्षुब्द रहेगी क्योंकि यही उसका चरित्र है, जैसे सूर्य गरम होता है और जल नमी पैदा करता है। इसलिए राजनीतिक स्थितियों पर दुःखी होना निरर्थक है। हमें जीवन की सभी स्थितियों से, जो किसी न किसी कारण उत्पन्न होती रहती हैं, संघर्ष करते रहना चाहिए। मैं मानता हूँ कि सही भावना से कार्य करते रहने से राजनीतिक कार्य मनुष्य-परिवर्तन का प्रभावी साधन बन सकता है और विश्व समाज के सामने जो महत् उद्देश्य विद्यमान हैं, उनकी प्राप्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकता है।

7. मैं मानता हूँ कि हमारी पीढ़ी भविष्य की पीढ़ियों के लिए वर्तमान को सिद्ध कर रही है, और हमें अपनी पूर्व की पीढ़ियों का कृतज्ञ होते हुए अपना दायित्व पूरा करना चाहिए। इस दृष्टि से, मैं मानता हूँ कि हमें प्रगति के नाम पर, अपने पृथ्वी ग्रह को अनियंत्रित विनाश और खुलेआम शोषण से बचाना चाहिए जिससे कि तेजी से बढ़ रहे नगरीकरण और उद्योगों के विस्तार के परिणाम स्वरूप हो रहे भयंकर नाश को रोककर वातावरण और जल, जंगल तथा पशु-पक्षियों की रक्षा की जा सके।

8. मैं मानता हूँ कि जीवन आवश्यक रूप से सुख और दुःख आनंद और कष्ट, सफलता और असफलता तथा प्रकाश और छाया का मिला-जुला रूप है, और जब तक हम इनका उत्क्रमण करने की क्षमता प्राप्त नहीं कर पाते, हमें इनको अपनी आध्यात्मिक प्रगति के आवश्यक पड़ाव ही मानना चाहिए, और यह कि प्रत्येक अनुभव हमारे आंतरिक विकास का मूल्यवान साधन हो सकता है, तथा अनेक बार कष्टदायी घटनाएँ, ऊपरी ढंग से सुखकारी अनुभवों की तुलना में, विकास का कहीं ज्यादा श्रेष्ठ साधन सिद्ध होती हैं।

9. मैं मानता हूँ कि इस संसार में जहाँ प्रतिक्षण सबकुछ परिवर्तित हो रहा है, प्रेम तथा मित्रता जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैं, और ये जहाँ भी तथा जिस रूप में भी प्राप्त हों, इनको स्वीकार किया जाना चाहिए। मैं मानता हूँ कि संगीत अथवा कविता या ललित कलाओं अथवा वास्तुकला से उत्पन्न सौंदर्य सभ्यता का एक प्रमुख अंग है और इन सबको प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिससे समाज के अधिकाधिक वर्ग इनसे प्राप्त अभौतिक परंतु बहुमूल्य सुखों से लाभान्वित हो सकें, जिससे मनुष्य इस बाह्य सौंदर्य के द्वारा चैतन्य के आंतरिक सौंदर्य तक पहुँच सके। इससे अधिक, मैं यह भी मानता हूँ कि हमारी शिक्षा व्यवस्था को इस प्रकार परिष्कृत किया जाय कि, निरंतर गतिमान मानव सभ्यता की भौतिक आधारशिलाओं के महत्त्व की अनदेखी किए बिना, हमारे युवा दैवी चैतन्य की अनुभूति से परिचित हो सकें।

10. मैं मानता हूँ कि जहाँ हम अपने जन्म-देश के साथ अभेद्य रूप से जुड़े हुए हैं, संपूर्ण मनुष्य जाति के सदस्य के रूप में, हमारा व्यापक संबंध अपने पृथ्वी ग्रह के साथ भी है जिसने करोड़ों वर्षों से हमारा पोषण किया है।


11. मैं मानता हूँ कि मृत्यु जीवन का नौसर्गिक तथा आवश्यक परिणाम है और भय तथा अरूचि के स्थान पर हमें इसे सहज स्वाभाविक रूप में स्वीकार करना चाहिए। मैं मानता हूँ कि शरीर का अवसान उस लंबी यात्रा का पहला कदम है, जो आत्मा को उसके अंतिम लक्ष्य की दिशा में अग्रसर करती है, इसलिए मनुष्य को इसके प्रति अपने समस्त भय-आतंक की अंधविश्वासपूर्ण भावनाओं से मुक्त हो जाना चाहिए। मृत्यु से छुटकारा पाना न संभव है, न उचित है। भगवान शिव का एक नाम है महाकालेश्वर, और उनकी तरह हम भी उसे स्वीकार करने को तैयार रहें।

12. अंत में, मैं मानता हूँ कि इस समग्र सृष्टि की एक दैवी नियति है, जो किसी सुदूर भविष्य में फलीभूत नहीं होती है, बल्कि जिसके साथ हम सब, किसी रहस्यमय ढंग से, क्रिया रूप से जुड़े हुए हैं। मैं मानता हूँ कि उस नियति के भलीभूत होने का सर्वोत्तम मार्ग मानव हित के बाह्य कार्यकलापों के साथ आध्यात्मिक अनुभूति के लिए गहन प्रयत्न को संयुक्त करना है। इस प्रकार मैं मनता हूँ कि सभ्यता के प्रारंभ से समय की सबसे महत्त्वपूर्ण और शक्तिशाली प्रार्थना यही है और यह हमारे आकाश में सदा से गूँज रही है—

 

आसतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्मा अमृतं गमय

 

(हमें असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।)


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