लोगों की राय

धर्म एवं दर्शन >> दृष्टांत महासागर

दृष्टांत महासागर

गंगा प्रसाद शर्मा

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :208
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4442
आईएसबीएन :81-8133-342-x

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

442 पाठक हैं

महान पुरुषों के प्रेरक प्रसंग और रहस्यों को खोलती लघु कथाएं...

DRASHTANT MAHASAGAR

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दृष्टांत महासागर

सत्य को जानने-समझने के लिए एकाग्रता जरूरी है। मन को जो अच्छा नहीं लगता, वह उसे छोड़कर दूसरी ओर चल देता है। भारतीय मनीषियों ने मानव-मन के इस स्वभाव को भलीभांति जान लिया था। तभी जीवन के परम यथार्थ को सिखाने-समझाने के लिए उन्होंने मनोरंजक कथाओं का सहारा लिया—उपनिषदों की संरचना के बाद पुराणों की रचना के पीछे यही कारण था। ये कथाएँ कहीं किसी व्यक्ति विशेष से सीधे-सीधे जुड़ी हुई थीं, तो कहीं एक विशेष प्रकार के पात्र को गढ़कर उसके इर्द-गिर्द कुछ सार्थक कहने का प्रयास था इनमें।

इसी प्रकार का प्रयोग जूनापीठाधीश्वर श्री स्वामी अवधेशानन्द जी महाराज के प्रवचनों में भी देखने को मिलता है। प्रवचनों के बीच-बीच में कहे गये प्रेरक प्रसंग और छोटी-छोटी कहानियां अपने संदर्भों में तो अपने कथ्य को स्पष्ट, सरल और सुगम बनाती ही हैं, अलग से भी ऐसा कुछ कह जाती हैं, जिससे अनचाहे में जीवन की गुत्थियाँ सुलझने लगती हैं।

 पढ़ें और इन पर मनन करें, आपके सोचने की प्रक्रिया में जरूर कुछ नया घटित होगा। अपनी बात को स्पष्ट, सरल और सुगम बनाने के लिए इन दृष्टान्तों का प्रयोग कर आप अपने वाकचातुर्य को और निखार सकते हैं।
संग्रह करने योग्य नित्य उपयोगी पुस्तक !

जीवन मार्ग प्रशस्त करने वाले छोटे-छोटे प्रेरक कथा प्रसंग
जो काम तलवार नहीं कर पाती, उसे नन्हीं-सी सूई कर देती है। यह बात जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पूरी होती है-बल्कि देखने में तो यह आया कि छोटी-छोटी बातें जीवन में उनसे ज्यादा मूल्यवान होती हैं, जिन्हें बड़े रूप में दर्शाया जाता है। इस संकलन के छोटे-छोटे दृष्टांतों पर ‘गागर में सागर’ की उक्ति तो सही बैठती ही है, इनके बारे में यह भी कहा जा सकता है-देखने में छोटे लगें, घाव करें गंभीर।

स्वामी अवधेशानन्द जी महाराज के व्यक्तित्व में आध्यात्मिक समझ और उसके प्रति निष्ठा का अद्भुत समन्वय है। उनके प्रवचनों में भाव और विचारों पर एक समान जोर होता है। दार्शनिक गूढ़ रहस्यों को समझने के लिए वे ऐसे छोटे-छोटे दृष्टांतों और प्रसंगों को उद्धृत करते हैं, जिन्हें समझने के बाद एक साधारण व्यक्ति के लिए भी कथ्य को समझना सहज रूप से सरल हो जाता है। इससे उनकी वक्तृत्व कला की अलौकिकता का जहां पता चलता है, वहीं यह भी अनुभव होता है कि वैचारिक और अनुभूति के स्तर पर सबकुछ कितना स्पष्ट है, कहीं किसी तरह का उलझाव नहीं है।
इस संकलन का प्रत्येक दृष्टांत जीवन के बारे में स्पष्ट दृष्टि देता हुआ अमूल्य संदेश देता है। बच्चे-बड़े सभी के लिए एक समान उपयोगी यह पुस्तक प्रत्येक परिवार के लिए संग्रहणीय है।

प्रकाशक

दो शब्द


हमारे देश में समय-समय पर ऐसी महान विभूतियां अवतीर्ण होती रही हैं, जिन्होंने अपने प्रवचनों, अपनी रचनाओं के द्वारा जनमानस के अज्ञान रूपी तिमिर को दूर कर उनके मन में धर्म और ज्ञान की ज्योति जाग्रत की है। गुरु नानक, तुलसी, सूरदास, रैदास आदि ऐसे ही महान संत थे। वर्तमान समय में भी अनेक संत इस कल्याणकारी कार्य के निमित्त धर्म-ध्वज उठाए हुए हैं, जिनमें से एक हैं-संत शिरोमणि स्वामी अवधेशानंद गिरि। ‘संत कैसा होना चाहिए ?’ इस विषय में शास्त्रों में लिखा हुआ है कि जो स्वभाव शुद्ध हो, जितेंद्रिय हो, जिसे धन का लालच न हो, वेद-शास्त्रों का ज्ञाता हो, सत्य-तत्व को पा चुका हो, परोपकारी हो, दयालु हो, नित्य जप-तपादि साधनों को स्वयं (चाहे लोक-संग्रहार्थ ही) करता हो, सत्यवादी हो, शांतप्रिय हो, योग विद्या में निपुण हो, जिसमें शिष्य के पाप-नाश करने की शक्ति हो, जो भगवान का भक्त हो, स्त्रियों में अनासक्त हो, क्षमावान हो, धैर्यशाली हो, चतुर हो, अव्यसनी हो, प्रियभाषी हो, निष्कपट हो, निर्भय हो, पापों से बिलकुल परे हो, सदाचारी हो, सादगी से रहता है, धर्म प्रेमी हो, जीव मात्र का सुहृद हो और शिष्य को पुत्र से बढ़कर प्यार करता हो और ये सभी गुण पूज्य स्वामी अवधेशानंद गिरि में मौजूद हैं।

स्वभाव से अति विनम्र हैं। चेहरे पर देवताओं जैसा ओज, वाणी में विनम्रता बोलते हैं तो लगता है जैसे मुंह से फूल झड़ रहे हों।

नान्तर्विचत्तयति किंचिदपि प्रतीप माको पितोऽपि सुजनः पिशुनेन पापम्।
अर्क द्विषोऽपि मुखे पतिताग्रभागा स्तारापतेर मृतमेव कराः किरन्ति।।

अर्थात् चुगली करने वाले दुष्ट मनुष्य के द्वारा क्रोध दिलाने पर भी साधु पुरुष उसके विरुद्ध अमंगलमय प्रतिशोध की बात अपने मन में नहीं लाते। राहु चन्द्रमा का सहज विद्वेषी है, किंतु चंद्रमा की शुधामयी किरणें उसके मुख में पकड़कर भी अमृत की ही वर्षा करती हैं। श्लोक की ये पंक्तियां जैसे स्वामीजी के स्वभाव को ही चरितार्थ करती हैं।

इस संकलन के लिए दृष्टांतों का चुनाव करते समय इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा गया है कि ये संक्षिप्त और सटीक हों। यह संकलन प्रत्येक आयु वर्ग के लिए उपयोगी है। इसमें नैतिकता, मानवीय मूल्यों और धर्म-अध्यात्म के रहस्यों का सरल भाषा-शैली में खुलासा किया गया है।
पुस्तक के संकलन में मैंने और भी कई संत, विद्वानों एवं मनीषियों के लेखों का सहारा लिया है। उनके प्रति मैं हृदय से अपना आभार व्यक्त करता हूं। इस पुस्तक के प्रकाशन का उद्देश्य धन कमाना नहीं, अपितु जनसामान्य को मानव-मूल्यों की जानकारी देना है। इस आपाधापी भरे युग में जो व्यक्ति सत्संगों का लाभ नहीं उठा पाते, उन्हें इस पुस्तक के द्वारा बहुत कुछ सीखने को मिलेगा। मेरा विश्वास है कि इससे सभी पाठक लाभान्वित होंगे।
धन्यवाद सहित-

-गंगाप्रसाद शर्मा

बीज के आकार पर मत जाओ
बीज में छिपा है एक विशाल वृक्ष
बीज की एक-एक परत में छिपी हैं
अनंत संभावनाएं
धरती को बंजर भी करता है बीज
और तृप्त भी करता है धरती को अपनी छाया से
इसलिए धरती में डालने से पहले
जांचो-परखो बीज को कि वह किसका है
बबूल का या फिर आम का
क्योंकि जो बोओगे वही काटोगे
यह उपदेश भर नहीं है
यह है जीवन का कड़वा सच
प्रकृति का शाश्वत नियम

मानव इतिहास साक्षी है इस बात का कि यदि आंतरिक तैयारी है, तो क्रांति का बहाना एक छोटी-सी घटना, एक छोटा-सा वाक्य, यहां तक कि मात्र एक शब्द बन जाता है। लेकिन यदि तैयारी न हो तो बड़े-बड़े सारगर्भित उपदेश, मोटे-मोटे ग्रंथों का ज्ञान बिलकुल उसी तरह बेअसर हो जाता जैसे नल के नीचे रखा उलटा घड़ा खाली रहता है। एक बात और ध्यान रखने की है कि इस तरह का प्रभाव बुराइयों को उभारने और आपको पथभ्रष्ट करने के संदर्भ में भी हो सकता है।
जीवन सांप-सीढ़ी उनके लिए है, जो कमजोर हैं-क्योंकि जिनमें आत्मविश्वास है, उनके भाग्य को बनाने के पहले भाग्य निर्माता उससे पूछता है कि उसे क्या चाहिए।
ध्यान रहे, विचारों से ही कर्म बनते हैं और कर्मों से ही आपके भविष्य का निर्माण होता है।

दृष्टांत महासागर


सिद्धान्त को स्पष्ट और सुगम बनाने के लिए विभिन्न दृष्टांतों का सहारा वक्ता को लेना पड़ता है। पूज्य स्वामी अवधेशानंद जी महाराज ने अपने व्याख्यानों और कथाओं में जिन दृष्टांतों को उद्धृत किया है, यहाँ उन्हीं को सरल और संक्षिप्त रूप में पाठकों के लिए प्रस्तुत किया जा रहा है। ये दृष्टांत स्वतंत्र रूप से एक लघु कथा और प्रेरक प्रसंग के रूप में मानव जीवन को उन्नत बनाने के उपायों का संदेश देते हैं। क्योंकि ये दृष्टांत किसी विशेष धर्म-संप्रदाय या विचारधारा से संबद्ध नहीं हैं, इसलिए मानवमात्र के लिए उपयोगी हैं-आपके लिए भी।

संगति


एक पेड़ पर दो तोते रहते थे। एक का नाम था सुपंखी और दूसरे का नाम था सुकंठी। दोनों एक ही मां की कोख से पैदा हुए थे। दोनों के रंग-रूप, बोली और व्यवहार एक समान थे। दोनों साथ-साथ सोते-जागते, खाते-पीते और फुदकते रहते थे। बड़े सुख के साथ दोनों का जीवन व्यतीत हो रहा था। अचानक एक दिन बिजली कड़कने लगी और आंधी आ गई। ऐसे में सुपंखी हवा के झोंके से मार्ग भटकता चोरों की बस्ती में जा गिरा और सुकंठी एक पर्वत से टकरा कर घायल होकर ऋषियों के आश्रम में जा गिरा। धीरे-धीरे कई वर्ष बीत गए। सुपंखी चोरों की बस्ती में पलता रहा और सुकंठी ऋषियों के आश्रम में। एक दिन वहां का राजा शिकार के लिए निकला। रास्ते में चोरों की बस्ती थी। राजा को देखते ही सुपंखी कर्कश वाणी में चिल्लाया, ‘मार, मार मार।’’ भागते-भागते राजा ने पर्वत पर जाकर शरण ली। वहां सुकंठी की मधुर वाणी सुनाई दी, ‘‘राम-राम...आपका स्वागत है।’’ राजा सोचने लगा कि दो तोते रंग रूप में बिल्कुल एक समान, परंतु दोनों की वाणी में कितनी असमानता है। सच है, जैसी संगति में रहोगे, वैसा ही आचरण करोगे।

सच्चा विश्वास


कहा जाता है कि ईरान के फजल ऐयाज नामक एक प्रसिद्ध मुस्लिम संत पहले डाकुओं के सरदार थे। एक बार उनके गिरोह के डाकुओं ने व्यापारियों के एक दल को घेरकर लूटना शुरू कर दिया। लूटपाट के दौरान एक व्यापारी नजर बचाकर उस तंबू में घुस गया, जहां गिरोह के सरदार फजल ऐयाज फकीर वेश में बैठे हुए थे। फकीर के रूप में फजल को देखकर व्यापारी ने अपनी रूपयों की थैली उनके सामने रखते हुए कहा, ‘‘मैं रुपयों की थैली आपके पास सुरक्षित रख रहा हूं। डाकुओं के जाने के बाद मैं इसे यहां से ले जाऊंगा। तब तक आप इसे अपने पास रखकर मेरे धन की सुरक्षा कीजिए। लूटपाट थमने के बाद व्यापारी वापस तंबू में लौटा और यह देखकर आश्चर्य में पड़ गया कि वहां के ही डाकू बैठकर आपस में माल बांट रहे थे और इस बारे में फजल से मशविरा कर रहे थे।

व्यापारी मन ही मन पछताकर वहां से लौटने लगा, तो फजल ऐयाज बोले, ‘‘ऐ मुसाफिर, तुम लौट क्यों रहे हो ?’’
 इस पर व्यापारी ने घबराते हुए कहा, ‘‘हजूर, मैं यहां अपनी रुपयों की थैली लेने आया था। परंतु अब जा रहा हूं।’’
फजल ऐयाज बोले, ‘‘ठहरो, तुम अपनी धरोहर लेते जाओ।’’ यह देखकर डाकुओं ने सरदार से कहा, ‘‘हुजूर यह क्या ? आपने हाथ आया हुआ माल वापस क्यों जाने दिया ?’’ इस पर फजल ऐयाज बोले, ‘‘तुम्हारी बात ठीक है, लेकिन व्यापारी मुझ पर सच्चा विश्वास करके थैली रख गया था। उसके विश्वास को मैं चोट कैसे पहुंचा सकता था ?’’ फजल का जवाब सुनकर डाकुओं ने ग्लानि से सिर नीचे झुका लिया।

इंसान की कीमत


स्वामी विवेकानंद जी अमरीका के एक बगीचे में से गुजर रहे थे। उनके इस प्रकार सादे कपड़ों में बिना किसी हैट के खुले सिर देखकर वहां के लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। और वे उनका माखौल उड़ाने लगे, ‘‘होएऽऽ..होएऽऽ..होएऽऽ...’’ करते हुए वे सब स्वामी जी के पीछे लग गए।
स्वामी विवेकानंद आगे-आगे जा रहे थे और मजाक उड़ाने वाले अनेक पीछे-पीछे। थोड़ा आगे चलकर विवेकानंद जी थोड़ा-सा रुके और बोले ‘‘भाइयो ! आपके देश में इंसान की कीमत उसके कपड़ों से होती है।

ज्ञान का दीपक


एक संत गंगा किनारे आश्रम में रहकर शिष्यों को पढ़ाते थे। एक दिन उन्होंने रात होते ही अपने एक शिष्य को एक पुस्तक दी तथा बोले, ‘‘इसे अंदर जाकर मेरे तख्त पर रख आओ।’’
शिष्य पुस्तक लेकर लौट आया तथा कांपते हुए कहा, ‘‘गुरुदेव, तख्त के पास तो सांप है।’’
संत जी ने कहा, ‘‘तुम फिर से अंदर जाओ। ॐ नमः शिवाय मंत्र का जाप करना, सांप भाग जाएगा।’’
शिष्य फिर अंदर गया, उसने मंत्र का जाप किया, उसने देखा कि काला सांप वहीं है। वह फिर डरते-डरते लौट आया। अब गुरुदेव ने कहा, ‘‘वत्स ! इस बार तुम दीपक हाथ में लेकर जाओ। सांप दीपक के प्रकाश से डरकर भाग जाएगा।’’
छात्र दीपक लेकर अंदर पहुंचा, तो प्रकाश में उसने देखा कि वह सांप नहीं रस्सी का टुकड़ा था। अंधकार के कारण उसे सांप दिखाई दे रहा था।

संत जी को जब उसने रस्सी होने की बात बताई, तो वे मुस्कराकर बोले, ‘‘वत्स, संसार गहन भ्रमजाल का नाम है। ज्ञान के प्रकाश से ही इस भ्रमजाल को काटा जा सकता है। अज्ञानतावश ही हम बहुत से भ्रम पाल लेते हैं। उन्हें दूर करने के लिए हमेशा ज्ञानरूपी दीपक का सहारा लेना चाहिए।

देश का सम्मान


स्वामी रामतीर्थ जापान गए। एक लंबी रेल यात्रा के बीच उनका फल खाने का मन हुआ। गाड़ी एक स्टेशन पर रुकी पर उन्हें वहां फल नहीं मिले। उनके मुंह से निकला, ‘‘जापान में शायद अच्छे फल नहीं मिलते।’’
एक जापानी युवक ने उनके शब्द सुन लिए। अगले स्टेशन पर वह तेजी से उतरा और कहीं से एक टोकरी में ताजे मीठे फल ले आया। उसे स्वामी रामतीर्थ की सेवा में प्रस्तुत करते हुए बोला, ‘‘लीजिए, आपको इसकी जरूरत थी।’’ स्वामी जी ने उसे फलवाला समझकर पैसे देने चाहे लेकिन उसने नहीं लिए। स्वामी जी के बहुत आग्रह करने पर उस जापानी युवक ने कहा, ‘‘स्वामी जी, इसकी कीमत यही है कि आप अपने देश में किसी से यह न कहें कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते।’’ स्वामी रामतीर्थ युवक का यह उत्तर सुनकर मुग्ध हो गए। भारत लौटकर उन्होंने यह कहानी यहां के युवकों को बार-बार सुनाई।

अपने अवगुण की पहचान


एक बार एक व्यक्ति ने किसी संत से कहा, ‘‘महाराज मैं बहुत नीच हूं, मुझे कुछ उपदेश दीजिए।’’ संत ने कहा, ‘‘अच्छा जाओ, जो तुम्हें अपने से नीच, तुच्छ और बेकार वस्तु लगे उसे ले आओ।’’ वह व्यक्ति गया और उसने सबसे पहले कुत्ते को देखा। कुत्ते को देखकर उसके मन में विचार आया कि मैं मनुष्य हूं और यह जानवर, इसलिए यह मुझ से जरूर नीच है। लेकिन तभी उसे खयाल आया कि कुत्ता तो वफादार और स्वामिभक्त जानवर है और मुझसे तो बहुत अच्छा है। फिर उसे एक कांटेदार झाड़ी दिखाई दी और उसने मन में सोचा कि यह एक झाड़ी तो अवश्य ही मुझसे तुच्छ और बेकार है परंतु फिर खयाल आया कि कांटेदार झाड़ी तो खेत में बाड़ लगाने के काम आती है और फसल की रक्षा करती है। मुझसे तो यह भी बेहतर है। आगे उसे गोबर का ढेर दिखाई दिया। उसने सोचा, गोबर अवश्य ही मुझसे बेकार है। परंतु सोचने पर उसे समझ में आया कि गोबर से खाद बनती है, और वह चौका तथा आंगन लीपने के काम आता है। इसलिए यह मुझसे बेकार नहीं है। उसने जिस चीज को देखा वही उसे खुद से अच्छी लगी। वह निराश होकर खाली हाथ संत के पास गया और बोला, महाराज, मुझे अपने से तुच्छ और बेकार वस्तु दूसरी नहीं मिली।’ संत ने उस व्यक्ति को शिष्य बना लिया और कहा कि जब तक तुम दूसरों के गुण और अपने अवगुण देखते रहोगे तब तक तुम्हें किसी के उपदेश की जरूरत नहीं।

पारस से भी मूल्यवान


एक व्यक्ति संन्यासी के पास जाकर बोला, ‘‘बाबा ! बहुत गरीब हूं, कुछ दो।’’ संन्यासी ने कहा, ‘‘मैं अकिंचन हूं, तुम्हें क्या दे सकता हूं ? मेरे पास अब कुछ भी नहीं है।’’ संन्यासी ने उसे बहुत समझाया, पर वह नहीं माना। तब बाबा ने कहा, ‘‘जाओ नदी के किनारे एक पारस का टुकड़ा है, उसे ले जाओ। मैंने उसे फेंका है। उस टुकड़े से लोहा सोना बनता है।’’ वह दौड़ा-दौड़ा नदी के किनारे गया। पारस का टुकड़ा उठा लाया और बाबा को नमस्कार कर घर की ओर चला। सौ कदम गया होगा कि मन में विचार उठा और वह उल्टे पांव संन्यासी के पास लौटकर बोला, ‘‘बाबा ! यह लो तुम्हारा पारस, मुझे नहीं चाहिए।’’ संन्यासी ने पूछा, ‘‘क्यों ?’’ उसने कहा, ‘‘बाबा ! मुझे वह चाहिए जिसे पाकर तुमने पारस को ठुकराया है। वह पारस से भी कीमती है वही मुझे दीजिए।’’ जब व्यक्ति में अंतर की चेतना जाग जाती है तब वह कामना पूर्ति के पीछे नहीं दौड़ता, वह इच्छापूर्ति का प्रयत्न नहीं करता।

चैतन्य महाप्रभु का त्याग


एक बार चैतन्य महाप्रभु बचपन के मित्र रघुनाथ के साथ नाव से यात्रा कर रहे थे। शास्त्री जी विद्वान व संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। उन्हीं दिनों चैतन्य महाप्रभु ने कड़ा परिश्रम करके न्यायशास्त्र पर एक बहुत ही उच्च कोटि का ग्रंथ लिखा था। उन्होंने वह ग्रंथ शास्त्री जी को दिखाया। ग्रंथ को बारीकी से देखने के बाद शास्त्री जी का चेहरा उतर गया और आँखों में आंसू भर आए। यह देखकर चैतन्य महाप्रभु ने शास्त्री जी से रोने का कारण पूछा। बहुत दबाव देने के बाद शास्त्री जी ने कहा, ‘‘मित्र तुम्हें यह जानकर अचरज होगा कि लगातार वर्षों मेहनत कर मैंने भी न्यायशास्त्र पर एक ग्रंथ लिखा है। मैंने सोचा था कि इस ग्रंथ से मुझे यश मिलेगा। यह इस विषय पर अब तक के ग्रंथों में बेजोड़ होगा। मेरी वर्षों की तपस्या सफल हो जाएगी। लेकिन तुम्हारे ग्रंथ के आगे तो मेरा ग्रंथ एक टिमटिमाता दीपक भर है। सूर्य के आगे दीपक की क्या बिसात।’’ शास्त्री जी के इस कथन पर चैतन्य महाप्रभु मुस्कराते हुए बोले, ‘‘बस इतनी सी बात के लिए तुम इतने उदास हो रहे हो। लो, मैं इस ग्रंथ को अभी गंगा मैया की भेंट चढ़ा देता हूं।’’ यह कहकर चैतन्य महाप्रभु ने तुरंत उस ग्रंथ के टुकड़े-टुकड़े किए और गंगा में प्रवाहित कर दिया।

               

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book