नाटक-एकाँकी >> समकालीन पंजाबी नाटक समकालीन पंजाबी नाटकचरनदास सिद्धू
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पंजाबी के तीन महत्वपूर्ण नाटकों का संकलन...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
समकालीन पंजाबी नाटक पंजाबी के तीन महत्वपूर्ण नाटकों का संकलन है, जो
हिन्दी के पाठकों को पंजाबी नाटक के ओर-छोर से परिचित कराता है।
गुरचरनसिंह जसूजा, अजमेरसिंह औलख तथा आत्मजीत-इन तीन प्रख्यात नाटककारों के श्रेष्ठ नाटक-रचना राम बनाई, पराये बरगद की छाया तले तथा रिश्तों को क्या नाम दिया जाए-इसमें संकलित हैं। जिंदगी के फलसफे, ग्रामीण और किसानों के सामाजिक रिश्तों की बुनियाद तथा देश विभाजन की विडम्बना को अलग-अलग तलाशने के मार्मिक चित्र यहाँ उपस्थित हैं।
तीनों नाटककार पंजाबी के नाट्य-साहित्य के पथ-निर्धारक हैं। अपनी नाट्य कृतियों के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित इन नाटककारों की कई कृतियाँ-नाटक, एकांकी, आलोचना आदि पंजाबी में प्रकाशित और प्रशंसित हैं।
संकलनकर्ता चरनदास सिद्धू (जन्मः 14 मार्च 1938) स्वयं भी पंजाबी के प्रख्यात नाटककार हैं। विस्कोनसिन विश्वविद्यालय मोडीसन (अमेरिका) से अंग्रेजी साहित्य में पी.एच.डी. की उपाधि लेकर भी, अंग्रेजी साहित्य के गम्भीर अध्येता रहने के बावजूद, इन्होंने पंजाबी साहित्य की श्रीवृद्धि तन मन से की है।
गुरचरनसिंह जसूजा, अजमेरसिंह औलख तथा आत्मजीत-इन तीन प्रख्यात नाटककारों के श्रेष्ठ नाटक-रचना राम बनाई, पराये बरगद की छाया तले तथा रिश्तों को क्या नाम दिया जाए-इसमें संकलित हैं। जिंदगी के फलसफे, ग्रामीण और किसानों के सामाजिक रिश्तों की बुनियाद तथा देश विभाजन की विडम्बना को अलग-अलग तलाशने के मार्मिक चित्र यहाँ उपस्थित हैं।
तीनों नाटककार पंजाबी के नाट्य-साहित्य के पथ-निर्धारक हैं। अपनी नाट्य कृतियों के लिए कई पुरस्कारों से सम्मानित इन नाटककारों की कई कृतियाँ-नाटक, एकांकी, आलोचना आदि पंजाबी में प्रकाशित और प्रशंसित हैं।
संकलनकर्ता चरनदास सिद्धू (जन्मः 14 मार्च 1938) स्वयं भी पंजाबी के प्रख्यात नाटककार हैं। विस्कोनसिन विश्वविद्यालय मोडीसन (अमेरिका) से अंग्रेजी साहित्य में पी.एच.डी. की उपाधि लेकर भी, अंग्रेजी साहित्य के गम्भीर अध्येता रहने के बावजूद, इन्होंने पंजाबी साहित्य की श्रीवृद्धि तन मन से की है।
भूमिका
गुरचरन सिंह जसूजा का ‘रचना राम बनाई’, अजमेर सिंह
औलख का
‘पराए बरगद की छाया तले’ तथा आत्मजीत का
‘रिश्तों को
क्या नाम दिया जाए’- तीनों नाटक बीसवीं शताब्दी के पंजाबी
रंगमंच के
लिए मील के पत्थर हैं। ये तीनों नाटक अस्सी के दशक के हर पहलू से कामयाब
नाटक हैं। विषय, तकनीक, मंच पर सफलता, दर्शकों की रुचि-हर तरह से ये तीनों
कृतियों पंजाबी साहित्य और नाट्य कला का गौरव हैं। और दूसरी भाषाओं के
भारतीय रंगमंच के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी हो सकती हैं।
आज के पंजाबी नाटक का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं। यह सन् 1913 में लिखे ईश्वर चन्द्र नंदा के एकांकी ‘दुल्हन’ से आरम्भ होता है। पर इन बरसों में पंजाबी नाटक ने बहुत तरक्की की है। कई नये आयाम खुले हैं।
पंजाबी रंगमंच की खुदकिसम्ती है कि इसे पश्चिमी रंगमंच की निपुणता और पांच दरियाओं की सभ्यता की जननी नोरा रिचर्ड का प्यार और स्नेह मिला। शुरू से ही पंजाबी ड्रामा आयरलैंड के येट्स और लेड़ी ग्रैगरी द्वारा चलाए जा रहे एबी थियेटर के साथ जुड़ गया था। नोरा रिचर्ड, डब्लिन की नई ड्रामा लहर का जोशीला अंग थी। आयरलैंड की जिंदगी, बोली, मिथे के साथ जड़ी कृतियों को मंच पर पेश कर, उनकी अलग पहचान बनाने में नोरा रिचर्ड योगदान दे चुकी थी। लाहौर पहुंचकर नोरा ने अपने प्रोफेसर पति के विद्यार्थियों में नाटक की ज्योति प्रज्जवलित की। उन्होंने उन्हें अपनी मातृ-भाषा में अपने लोहों के बारे में नाचक लिखने के लिए प्रेरित किया। प्रतियोगिताएँ करवाईं। एक प्रतियोगिता में ईश्वर चन्द्र नंदा को ‘दुल्हन’ नाटक के लिए पहला ईनाम मिला। यह ड्रामा बहुत कामयाबी के साथ खेला गया। बेमेल विवाह से संबंधित ग्राम्य भाषा में लिखा ‘दुल्हन’ पंजाबी का पहला यथार्थवादी ड्रामा था। नंदा ने नोरा के निर्देशन तले शेक्सपियर के कई ड्रामे खेले और मंचन के यूरोपिय ढंग सीखे। पंजाबी नाटक की फुलवाड़ी को नोरा ने न केवल रोपा, सींचा, अपितु अपनी लंबी जिंदगी में उसे खिलते-फूलते भी देखा।
नंदा ने मंचन के काबिल तीन-चार और नाटक लिखे। ‘सुभद्रा’ में बेमेल विवाह की समस्या को फिर उठाया। ‘सोशल सर्कल’ में हो रहे मध्यम श्रेणी के पाखण्डों पर व्यंग्य किया। पर, नंदा का यह अच्छा उदाहरण दूसरे पंजाबी नाटककार पूरी तरह नहीं अपना सके। नाटक लिखने की शुरआत जरूर हुई, लेकिन बाहर वाले नाटककार मंच से अनजान रहे। भाई वीर सिंह, संत सिंहल सेखों, हरचरण सिंह, अमरीक सिंह, गुरदयाल सिंह फुल्ल, परितोष गार्गी, गुरदयाल सिंह खोसला, कपूर सिंह धुम्मण जैसे विद्वानों ने उद्यम किए। इक्का-दुक्का मंचन के प्रयास भी हुए। पर इन काव्य-कृतियों को लाइब्रेरी की शेल्फ में उठाकर मंच तक पहुंचाना मुश्किल है।
रंगमंच की दृष्टि से सबसे ज्यादा सफलता बलवंत गार्गी को मिली। गार्गी हिन्दुस्तान के हर हिस्से की रंगमंच परम्परा से वाकिफ हैं। पश्चिमी नाटक के साथ भी गार्गी का गहरा ताल्लुक रहा है। अपने ड्रामे ‘लोहा कूट’ में गार्गी ने इब्सन और बर्नाड शा के समस्या-प्रधान नाटकों का अच्छा उदाहरण पेश किया है। मां अपनी बेटी की निडरता से शिक्षा लेती है। निर्दयी पति को छोड़कर अपने आशिक के घर चली जाती है। ‘कनक दी बल्ली’ (गेहूं की बाली), ‘धूणी दी अग’ (धूनी की आग) और ‘सौंतन’ में बलवंत गार्गी मनोवैज्ञानिक बनकर घरेलू संबंधों की चीर-फाड़ करती है। पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ के रंगमंच विभाग के अध्यक्ष के तौर पर लगभग दस बरस रहकर गार्गी खूबसूरत तजुर्बे किए। विद्यार्थियों को देशीय और विदेशीय तकनीकों का प्रयोग करना सिखाया।
बलवंत गार्गी की इस प्रथा के पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में सुरजीत सिंह सेठी ने बढ़वा दिया। सेठी ने अपने बहुत-से नाटक (‘किंग मिर्जा़ और सपेरा’, ‘मर्द-मर्द नहीं, औरत-औरत नहीं’, ‘नंगी सड़क की ओर’ आदि) एब्सर्ड शैली में लिखे, पर इनमें मंचन विधियों का पूरा ध्यान रखा गया। मंच और साहित्य का सुमेल ही अच्छा नाटक पेश कर सकता है, इसका कामयाब उदाहरण पेश किया दिल्ली में शीला भाटिया ने और लुधियाना में हरपाल टिवाणा ने। रंगकर्मी और लेखक की साझेदारी के इस नये दौर में पंजाबी नाटक को कई नए नाटककार, निर्देशक और ग्रुप दिए। तरक्की का यह दौर सन् 1965 से गतिशील है। इसकी मुख्य प्राप्तियां हैं-गुरचरन सिंह जसूजा, अजमेर सिंह औलख, आत्मजीत सिंह और चरन दास सिद्धू। औलख, आत्मजीत और सिद्धू कालेज में अध्यापन करते हैं और लेखक-निर्देशक-अदाकार होने के साथ-साथ अपने नाटक ग्रुपों की बानी और चालक हैं। वे अपने विद्यार्थियों और परिवार के लोगों के साथ मिलकर नाटक खेलेते हैं। पंजाब के गांवों और दूर-दराज शहरों में नाटक को बार-बार खेलकर, सुधारते, परखते हैं। प्रकाशित होने से पूर्व, नाटक को दर्शकों की भट्टी के भीतर तपाकर खरा सोना बनाते हैं। पंजाबी नाट्य कुंदन के ये तीन गहने इस संग्रह में हाजिर हैं।
आज के पंजाबी नाटक का इतिहास ज्यादा पुराना नहीं। यह सन् 1913 में लिखे ईश्वर चन्द्र नंदा के एकांकी ‘दुल्हन’ से आरम्भ होता है। पर इन बरसों में पंजाबी नाटक ने बहुत तरक्की की है। कई नये आयाम खुले हैं।
पंजाबी रंगमंच की खुदकिसम्ती है कि इसे पश्चिमी रंगमंच की निपुणता और पांच दरियाओं की सभ्यता की जननी नोरा रिचर्ड का प्यार और स्नेह मिला। शुरू से ही पंजाबी ड्रामा आयरलैंड के येट्स और लेड़ी ग्रैगरी द्वारा चलाए जा रहे एबी थियेटर के साथ जुड़ गया था। नोरा रिचर्ड, डब्लिन की नई ड्रामा लहर का जोशीला अंग थी। आयरलैंड की जिंदगी, बोली, मिथे के साथ जड़ी कृतियों को मंच पर पेश कर, उनकी अलग पहचान बनाने में नोरा रिचर्ड योगदान दे चुकी थी। लाहौर पहुंचकर नोरा ने अपने प्रोफेसर पति के विद्यार्थियों में नाटक की ज्योति प्रज्जवलित की। उन्होंने उन्हें अपनी मातृ-भाषा में अपने लोहों के बारे में नाचक लिखने के लिए प्रेरित किया। प्रतियोगिताएँ करवाईं। एक प्रतियोगिता में ईश्वर चन्द्र नंदा को ‘दुल्हन’ नाटक के लिए पहला ईनाम मिला। यह ड्रामा बहुत कामयाबी के साथ खेला गया। बेमेल विवाह से संबंधित ग्राम्य भाषा में लिखा ‘दुल्हन’ पंजाबी का पहला यथार्थवादी ड्रामा था। नंदा ने नोरा के निर्देशन तले शेक्सपियर के कई ड्रामे खेले और मंचन के यूरोपिय ढंग सीखे। पंजाबी नाटक की फुलवाड़ी को नोरा ने न केवल रोपा, सींचा, अपितु अपनी लंबी जिंदगी में उसे खिलते-फूलते भी देखा।
नंदा ने मंचन के काबिल तीन-चार और नाटक लिखे। ‘सुभद्रा’ में बेमेल विवाह की समस्या को फिर उठाया। ‘सोशल सर्कल’ में हो रहे मध्यम श्रेणी के पाखण्डों पर व्यंग्य किया। पर, नंदा का यह अच्छा उदाहरण दूसरे पंजाबी नाटककार पूरी तरह नहीं अपना सके। नाटक लिखने की शुरआत जरूर हुई, लेकिन बाहर वाले नाटककार मंच से अनजान रहे। भाई वीर सिंह, संत सिंहल सेखों, हरचरण सिंह, अमरीक सिंह, गुरदयाल सिंह फुल्ल, परितोष गार्गी, गुरदयाल सिंह खोसला, कपूर सिंह धुम्मण जैसे विद्वानों ने उद्यम किए। इक्का-दुक्का मंचन के प्रयास भी हुए। पर इन काव्य-कृतियों को लाइब्रेरी की शेल्फ में उठाकर मंच तक पहुंचाना मुश्किल है।
रंगमंच की दृष्टि से सबसे ज्यादा सफलता बलवंत गार्गी को मिली। गार्गी हिन्दुस्तान के हर हिस्से की रंगमंच परम्परा से वाकिफ हैं। पश्चिमी नाटक के साथ भी गार्गी का गहरा ताल्लुक रहा है। अपने ड्रामे ‘लोहा कूट’ में गार्गी ने इब्सन और बर्नाड शा के समस्या-प्रधान नाटकों का अच्छा उदाहरण पेश किया है। मां अपनी बेटी की निडरता से शिक्षा लेती है। निर्दयी पति को छोड़कर अपने आशिक के घर चली जाती है। ‘कनक दी बल्ली’ (गेहूं की बाली), ‘धूणी दी अग’ (धूनी की आग) और ‘सौंतन’ में बलवंत गार्गी मनोवैज्ञानिक बनकर घरेलू संबंधों की चीर-फाड़ करती है। पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ के रंगमंच विभाग के अध्यक्ष के तौर पर लगभग दस बरस रहकर गार्गी खूबसूरत तजुर्बे किए। विद्यार्थियों को देशीय और विदेशीय तकनीकों का प्रयोग करना सिखाया।
बलवंत गार्गी की इस प्रथा के पंजाबी यूनिवर्सिटी पटियाला में सुरजीत सिंह सेठी ने बढ़वा दिया। सेठी ने अपने बहुत-से नाटक (‘किंग मिर्जा़ और सपेरा’, ‘मर्द-मर्द नहीं, औरत-औरत नहीं’, ‘नंगी सड़क की ओर’ आदि) एब्सर्ड शैली में लिखे, पर इनमें मंचन विधियों का पूरा ध्यान रखा गया। मंच और साहित्य का सुमेल ही अच्छा नाटक पेश कर सकता है, इसका कामयाब उदाहरण पेश किया दिल्ली में शीला भाटिया ने और लुधियाना में हरपाल टिवाणा ने। रंगकर्मी और लेखक की साझेदारी के इस नये दौर में पंजाबी नाटक को कई नए नाटककार, निर्देशक और ग्रुप दिए। तरक्की का यह दौर सन् 1965 से गतिशील है। इसकी मुख्य प्राप्तियां हैं-गुरचरन सिंह जसूजा, अजमेर सिंह औलख, आत्मजीत सिंह और चरन दास सिद्धू। औलख, आत्मजीत और सिद्धू कालेज में अध्यापन करते हैं और लेखक-निर्देशक-अदाकार होने के साथ-साथ अपने नाटक ग्रुपों की बानी और चालक हैं। वे अपने विद्यार्थियों और परिवार के लोगों के साथ मिलकर नाटक खेलेते हैं। पंजाब के गांवों और दूर-दराज शहरों में नाटक को बार-बार खेलकर, सुधारते, परखते हैं। प्रकाशित होने से पूर्व, नाटक को दर्शकों की भट्टी के भीतर तपाकर खरा सोना बनाते हैं। पंजाबी नाट्य कुंदन के ये तीन गहने इस संग्रह में हाजिर हैं।
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गुरचरन सिंह जसूजा दो पीढ़ियों को जोड़ने वाले नाटककार हैं-पिछली पीढ़ी,
जो साहित्यिक नाटक या शब्द-प्रधान नाटकीय कहानियां लिखती थी और नई पीढ़ी
जो रंगमंच की ओर ज्यादा ध्यान देती है। जसूजा का ‘रचना राम
बनाई’ सन् 1975 के बाद रंगमंच की उपयुक्त अगुआई करता है। सचेत
होकर
पंजाबी मंच को अपने प्रति रवैया उकेरता है। अपनी दिशा, तकनीक विचारता है
और पंजाबी नाटक को दिशा देता है।
‘रचना राम बनाई’ नाटक में जिन्दगी के बारे में फलसफा है, धर्म पर चर्चा है। कलाकार का अपनी कृति के साथ क्या रिश्ता होता है ? सृजन का संसार के साथ क्या संबंध है ? क्या राम ने अपनी रचना को मात्र कठपुतली बना रखी है ? क्या सृदक की सवारी-तराशी पुतली अपनी मंशा के मुताबिक कभी अपने अंग नहीं हिला सकती ? क्या नाटककार के पात्र अपने लिखे, तय किए हुए चरित्र से, रोल से, वार्तालाप से कभी अलग नहीं हो सकते ? क्या खलनायक हमेशा के लिए अपने जालिम रूप में कैद हो गया है ? जसूजा ने इस तरह के रोचक प्रश्नों को अपने ड्रामें के भीतर उठाया है। उनका गंभीर हाल सुझाने की कोशिश की है।
जसूजा के लेखक-निर्देशक राम अपने किरदारों को लिखित शब्दों के साथ नहीं बांधता। स्थिति के अनुसार अपने शब्द खुद तलाशने और सुनने के लिए प्रेरित करता है। जसूजा नायक-नायिका-खलनायक के घिसे-पिटे दृश्य को विचार कर, दर्शन के फ्रेम में फिट करता है और दर्शकों को मजबूर करता है कि वे पारंपरिक त्रिकोण को, घिसी-पिटी घटना को, अलग-अलग नजरिए से देखें। नाटक के टकराव जरूरी है- वर्ना दर्शक उबासियां लेंगे। स्टेज पर अंडे और पत्थर फेंकेंगे। अगर नाटककार जोरदार टक्कर पेश कर सके, तो दर्शक और आलोचक नाटक का आनन्द लेंगे, तालियां बजाएंगे, कलाकारों की तारीफ करेंगे। लेकिन नाटकीय टकराव को लेखक या निर्देशक पात्रों की डोर खींचकर पैदा नहीं कर सकता। हर पात्र को छूट देनी जरूरी है ताकि वह जरूरत के अनुसार स्थिति संभाल सके। इस छूट को किरदार की आजादी को, नाटककार राम एक यंत्र का नाम देता है। यह यंत्र प्रौंपटिंग सैट है जो हर पात्र की जेब में रखा है। है यह पात्र की जमीर, उसका विवेक। अगर किरदार जिंदगी के मंच पर खड़ा डायलाग भूल जाए, अनिश्चितता से घिर जाए, अपना रोल समझने के लिए सुझाव चाहे, तब वह जेब के भीतर पड़े प्रौपटिंग सैट का उपयोग कर सकता है। राम या ‘कांशस’ या जमीर उसे सही कार्य सुझा देंगे। पात्र को, व्यक्ति को, पूर्ण आजादी है कि वह अपनी कोशिशों द्वारा किस्मत के चक्कर से निकल सके। भाग्य की, ग्रहों की कैद तोड़ सके। लेकिन इस जमीर का प्रयोग हर व्यक्ति नहीं कर सकता। विलेन भूल जाता है कि उसके पास जमीर भी है। हीरों के पत्थर दिल को दया नहीं पिघला सकी-बेशक मोहिनी ने रो-रो कर सुध गंवा दी। हीरा चाटकर मर गई।
इस दार्शनिक बहस को जसूजा अपने किरदारों पर हावी नहीं होने देते। पिगंडैलों के ‘छह पात्र नाटककार की तलाश में’ की तरह, जसूजा का ड्रामा पात्रों की भिडंत दिखाता है-उनकी आपस में लड़ाई, और इकट्ठे मिलकर सबकी अपने सृजक के साथ लड़ाई। एक ही दृश्य को अलग-अलग ढंग से दिखाकर, जसूजा यथार्थ के बहुपक्षीय होने का प्रमाण देता है। गहरे फलसफे को जसूजा सरल नाटकीय ढंग से पेश करता है। भारतीय सृजन मिथ का प्रयोग राम, ब्रह्मा, स्त्री, पुरुष-जसूजा के विषय को आसान बनाकर दर्शकों तक पहुंचा देता है। नाटकार का बहुपक्षीय मैटाफर आसानी से ही दर्शक-पाठक को सही जिंदगी जीने का तरीका समझा जाता है। और, अच्छे नाटक के गुण भी बता जाता है। जसूजा का नाटक शिक्षा और मनोरंजन के दोनों उद्देश्य पूरे करता है। ‘रचना राम बनाई’ की मंच पर सफलता जसूजा की कला-रहित कला का प्रमाण है। नवें गुरु तेग बहादुर जी के शब्दों के शीर्षक तले, जसूजा एक साथ ही प्राचीन दर्शन शास्त्रों, जातक कथाओं और सखियों को लेकर आज के प्रयोगात्मक रंगमंच तक का सफर तय करता है।
‘रचना राम बनाई’ नाटक में जिन्दगी के बारे में फलसफा है, धर्म पर चर्चा है। कलाकार का अपनी कृति के साथ क्या रिश्ता होता है ? सृजन का संसार के साथ क्या संबंध है ? क्या राम ने अपनी रचना को मात्र कठपुतली बना रखी है ? क्या सृदक की सवारी-तराशी पुतली अपनी मंशा के मुताबिक कभी अपने अंग नहीं हिला सकती ? क्या नाटककार के पात्र अपने लिखे, तय किए हुए चरित्र से, रोल से, वार्तालाप से कभी अलग नहीं हो सकते ? क्या खलनायक हमेशा के लिए अपने जालिम रूप में कैद हो गया है ? जसूजा ने इस तरह के रोचक प्रश्नों को अपने ड्रामें के भीतर उठाया है। उनका गंभीर हाल सुझाने की कोशिश की है।
जसूजा के लेखक-निर्देशक राम अपने किरदारों को लिखित शब्दों के साथ नहीं बांधता। स्थिति के अनुसार अपने शब्द खुद तलाशने और सुनने के लिए प्रेरित करता है। जसूजा नायक-नायिका-खलनायक के घिसे-पिटे दृश्य को विचार कर, दर्शन के फ्रेम में फिट करता है और दर्शकों को मजबूर करता है कि वे पारंपरिक त्रिकोण को, घिसी-पिटी घटना को, अलग-अलग नजरिए से देखें। नाटक के टकराव जरूरी है- वर्ना दर्शक उबासियां लेंगे। स्टेज पर अंडे और पत्थर फेंकेंगे। अगर नाटककार जोरदार टक्कर पेश कर सके, तो दर्शक और आलोचक नाटक का आनन्द लेंगे, तालियां बजाएंगे, कलाकारों की तारीफ करेंगे। लेकिन नाटकीय टकराव को लेखक या निर्देशक पात्रों की डोर खींचकर पैदा नहीं कर सकता। हर पात्र को छूट देनी जरूरी है ताकि वह जरूरत के अनुसार स्थिति संभाल सके। इस छूट को किरदार की आजादी को, नाटककार राम एक यंत्र का नाम देता है। यह यंत्र प्रौंपटिंग सैट है जो हर पात्र की जेब में रखा है। है यह पात्र की जमीर, उसका विवेक। अगर किरदार जिंदगी के मंच पर खड़ा डायलाग भूल जाए, अनिश्चितता से घिर जाए, अपना रोल समझने के लिए सुझाव चाहे, तब वह जेब के भीतर पड़े प्रौपटिंग सैट का उपयोग कर सकता है। राम या ‘कांशस’ या जमीर उसे सही कार्य सुझा देंगे। पात्र को, व्यक्ति को, पूर्ण आजादी है कि वह अपनी कोशिशों द्वारा किस्मत के चक्कर से निकल सके। भाग्य की, ग्रहों की कैद तोड़ सके। लेकिन इस जमीर का प्रयोग हर व्यक्ति नहीं कर सकता। विलेन भूल जाता है कि उसके पास जमीर भी है। हीरों के पत्थर दिल को दया नहीं पिघला सकी-बेशक मोहिनी ने रो-रो कर सुध गंवा दी। हीरा चाटकर मर गई।
इस दार्शनिक बहस को जसूजा अपने किरदारों पर हावी नहीं होने देते। पिगंडैलों के ‘छह पात्र नाटककार की तलाश में’ की तरह, जसूजा का ड्रामा पात्रों की भिडंत दिखाता है-उनकी आपस में लड़ाई, और इकट्ठे मिलकर सबकी अपने सृजक के साथ लड़ाई। एक ही दृश्य को अलग-अलग ढंग से दिखाकर, जसूजा यथार्थ के बहुपक्षीय होने का प्रमाण देता है। गहरे फलसफे को जसूजा सरल नाटकीय ढंग से पेश करता है। भारतीय सृजन मिथ का प्रयोग राम, ब्रह्मा, स्त्री, पुरुष-जसूजा के विषय को आसान बनाकर दर्शकों तक पहुंचा देता है। नाटकार का बहुपक्षीय मैटाफर आसानी से ही दर्शक-पाठक को सही जिंदगी जीने का तरीका समझा जाता है। और, अच्छे नाटक के गुण भी बता जाता है। जसूजा का नाटक शिक्षा और मनोरंजन के दोनों उद्देश्य पूरे करता है। ‘रचना राम बनाई’ की मंच पर सफलता जसूजा की कला-रहित कला का प्रमाण है। नवें गुरु तेग बहादुर जी के शब्दों के शीर्षक तले, जसूजा एक साथ ही प्राचीन दर्शन शास्त्रों, जातक कथाओं और सखियों को लेकर आज के प्रयोगात्मक रंगमंच तक का सफर तय करता है।
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अजमेर सिंह औलख का ‘पराए बरगद की छाया तले’ के साथ
पंजाबी
रंगमंच लंबी उड़ान भर कर कला की बुलंदियों को छू लेता है। अच्छी कला की एक
पहचान है-कलाकार अपने समय की जिंदगी को सही तस्वीर ले सके और बेहतर बनाने
के लिए व्याकुल हो। औलख के नाटक में इस पहलू से बड़ी ताकत है।
छोटे किसानों की आर्थिक, सामाजिक और घरेलू मुश्किलों को औलख ने रोचक ढंग से मंच पर पेश किया है। औलख ने बचपन और जवानी गांवों में बिताई। उसे गांववासियों की गरीबी का गहरा अहसास है। विशाल ज्ञान है। दिल में गरीबों के लिए कुछ कर गुजरने की चाह है। जवानी के दिनों में मार्क्सवादी सिद्धांतों पर चलते हुए, औलख ने किसानों की बेहतरी के लिए जद्दो-जहद की। पत्रिका निकाली। कविता लिखी। यह दर्द औलख की हर पंक्ति में महसूस होता है। औलख के पास मालवा की ग्रामीण बोली का, रूखे फबते मुहावरे का, ताजा तशबीह का, स्वयमेव चश्मा है। अटूट भंडार है। वह पात्र को मात्र चार शब्दों के सहारे मंच पर कील की तरह ठोक सकता है। कम्मी कमीण सीरी दौला होस और चाहे अस्सी बरस की निपूती बूढ़ी बिशनी हो-इनके अमिट चेहरे औलख की कलम के मात्र कुछ ही शब्द हमारे दिलों पर अपना निशान छोड़ जाते हैं।
औलख की कला में दर्शक को, बारीक छेद में से पूरे ब्रह्माण्ड की झलक दिखा देने की सामर्थ्य है। गज्जन सिंह जट्ट की जिंदगी में से दोपहर का एक घंटा लें। उसका पराएँ बरगद की छाया तले चारपाई बिछा कर हल्का-सा नींद लेने का यत्न देखें। इस चलचित्र में सदियों से मुसीबतों से जूझ रहे गज्जन सिंह का काफिला आ जाता है। पराए बरगद की छाया तले नींद कहां ? गज्जन सिंह सदियों से भ्रमों में भटकता आया है। पराओं के सहारे, बेटे नहीं पढ़ाए जाते, बेटियां नहीं ब्याही जातीं। जमींन की कमी, पैसे का अभाव, गज्जन सिंह की टांग तोड़ चुका है। उसके भीतर अपने सहारे खड़े होने की सामर्थ्य नहीं रही। गांव का साहूकार गज्जन को दिवालिया बनाने के लिए कमर कसे बैठा है। उसके घर की दीवारों की सफेदी तक उतार कर निगल चुका है। सोसायटी के कर्जे की किश्त गज्जन के सिर पर वैसे ही वैसी बनी हुई है। गज्जन की छोटी भाभी रोज जमीन के बटवारे को कलह डाले रखती है। खेतों में, पानी के बटवारे के लिए, गज्जन का परिवार लाठियां, तलवारें लेकर शरीफों के साथ जा उलझता है। गज्जन को कहीं सहारा नजर नहीं आता है। वाणी का पाठ भी उसकी जिंदगी के देव-दानव को नहीं भगा सकता। सपने में भी गज्जन को कर्जे, घर की जरूरतें, झगड़े सताए रखते हैं। कोल्हू के बैल की तरह संघर्षों के चक्कर के भीतर उलझाए रखते हैं। सरमायेदारी के दौर में शोषित किसान को कोई राहत नहीं। गज्जन सिंह का भतीजा पीता अमली सही कहता है :
ओए हम जट्टो का तो, बेटी का यारा, यही हाल रहेगा। अपना नहीं होता, अगर तुम कहो कि कभी हाल खुला होता हो। तुम देख लो, इतनी उम्र तुम्हारी बीत गई, चालीस के करीब मैं होऊंगा, वही बाजू, वही कुल्हाड़ी।....नए बीज भी आ गए। यूरिया भी आ गई.....टैक्टर भी आ गए पर बछड़े को मन दूध से क्या फायदा ? क्या कहते हो ? कमी-तो किसी विवाह-शगुन पर लग जाएगी...परनाला वहीं का वहीं। अपनी तो वह हिसाब है चाचा सियां, भई चाहे सिरहाने की ओर सोएं या पायताने की ओर, पीठ तो बीच में ही आनी है....हें-क्या कहते हो ? वैसे तुम खुद सयाने हो.....
औलख को तोज कार्य सृजन में महारत हैं। यथार्थ बोली और शैली को वह गीत की पंक्तियों के साथ पृष्ठिभूमि की आवाजों के साथ, गुज्जन सिंह के सपनों के दौरान शोर-गुल द्वारा नाटक को रोचक बनाए रखता है। नाटक के विषय को, शोषण के थीम को, दर्शकों पर बोझ नहीं बनने देता। हां, गज्जन की कहानी को किसी शिखर पर ले जाना, ‘’प्लाट को क्लाईमैक्स पर पहुंचाना, शायद औलख का मकसद नहीं। प्रचार से, शुष्क भाषण से, औलख कोसों दूर रहता’ है। फिर भी औलख के गज्जन और बिशनी, पीता और दौला, दर्शकों को हमेशा के लिए झंझोड़ जाते हैं-और इस मुल्क में करोड़ों गरीबों के लिए कुछ कर सकने के लिए झकझोर जाते हैं।
छोटे किसानों की आर्थिक, सामाजिक और घरेलू मुश्किलों को औलख ने रोचक ढंग से मंच पर पेश किया है। औलख ने बचपन और जवानी गांवों में बिताई। उसे गांववासियों की गरीबी का गहरा अहसास है। विशाल ज्ञान है। दिल में गरीबों के लिए कुछ कर गुजरने की चाह है। जवानी के दिनों में मार्क्सवादी सिद्धांतों पर चलते हुए, औलख ने किसानों की बेहतरी के लिए जद्दो-जहद की। पत्रिका निकाली। कविता लिखी। यह दर्द औलख की हर पंक्ति में महसूस होता है। औलख के पास मालवा की ग्रामीण बोली का, रूखे फबते मुहावरे का, ताजा तशबीह का, स्वयमेव चश्मा है। अटूट भंडार है। वह पात्र को मात्र चार शब्दों के सहारे मंच पर कील की तरह ठोक सकता है। कम्मी कमीण सीरी दौला होस और चाहे अस्सी बरस की निपूती बूढ़ी बिशनी हो-इनके अमिट चेहरे औलख की कलम के मात्र कुछ ही शब्द हमारे दिलों पर अपना निशान छोड़ जाते हैं।
औलख की कला में दर्शक को, बारीक छेद में से पूरे ब्रह्माण्ड की झलक दिखा देने की सामर्थ्य है। गज्जन सिंह जट्ट की जिंदगी में से दोपहर का एक घंटा लें। उसका पराएँ बरगद की छाया तले चारपाई बिछा कर हल्का-सा नींद लेने का यत्न देखें। इस चलचित्र में सदियों से मुसीबतों से जूझ रहे गज्जन सिंह का काफिला आ जाता है। पराए बरगद की छाया तले नींद कहां ? गज्जन सिंह सदियों से भ्रमों में भटकता आया है। पराओं के सहारे, बेटे नहीं पढ़ाए जाते, बेटियां नहीं ब्याही जातीं। जमींन की कमी, पैसे का अभाव, गज्जन सिंह की टांग तोड़ चुका है। उसके भीतर अपने सहारे खड़े होने की सामर्थ्य नहीं रही। गांव का साहूकार गज्जन को दिवालिया बनाने के लिए कमर कसे बैठा है। उसके घर की दीवारों की सफेदी तक उतार कर निगल चुका है। सोसायटी के कर्जे की किश्त गज्जन के सिर पर वैसे ही वैसी बनी हुई है। गज्जन की छोटी भाभी रोज जमीन के बटवारे को कलह डाले रखती है। खेतों में, पानी के बटवारे के लिए, गज्जन का परिवार लाठियां, तलवारें लेकर शरीफों के साथ जा उलझता है। गज्जन को कहीं सहारा नजर नहीं आता है। वाणी का पाठ भी उसकी जिंदगी के देव-दानव को नहीं भगा सकता। सपने में भी गज्जन को कर्जे, घर की जरूरतें, झगड़े सताए रखते हैं। कोल्हू के बैल की तरह संघर्षों के चक्कर के भीतर उलझाए रखते हैं। सरमायेदारी के दौर में शोषित किसान को कोई राहत नहीं। गज्जन सिंह का भतीजा पीता अमली सही कहता है :
ओए हम जट्टो का तो, बेटी का यारा, यही हाल रहेगा। अपना नहीं होता, अगर तुम कहो कि कभी हाल खुला होता हो। तुम देख लो, इतनी उम्र तुम्हारी बीत गई, चालीस के करीब मैं होऊंगा, वही बाजू, वही कुल्हाड़ी।....नए बीज भी आ गए। यूरिया भी आ गई.....टैक्टर भी आ गए पर बछड़े को मन दूध से क्या फायदा ? क्या कहते हो ? कमी-तो किसी विवाह-शगुन पर लग जाएगी...परनाला वहीं का वहीं। अपनी तो वह हिसाब है चाचा सियां, भई चाहे सिरहाने की ओर सोएं या पायताने की ओर, पीठ तो बीच में ही आनी है....हें-क्या कहते हो ? वैसे तुम खुद सयाने हो.....
औलख को तोज कार्य सृजन में महारत हैं। यथार्थ बोली और शैली को वह गीत की पंक्तियों के साथ पृष्ठिभूमि की आवाजों के साथ, गुज्जन सिंह के सपनों के दौरान शोर-गुल द्वारा नाटक को रोचक बनाए रखता है। नाटक के विषय को, शोषण के थीम को, दर्शकों पर बोझ नहीं बनने देता। हां, गज्जन की कहानी को किसी शिखर पर ले जाना, ‘’प्लाट को क्लाईमैक्स पर पहुंचाना, शायद औलख का मकसद नहीं। प्रचार से, शुष्क भाषण से, औलख कोसों दूर रहता’ है। फिर भी औलख के गज्जन और बिशनी, पीता और दौला, दर्शकों को हमेशा के लिए झंझोड़ जाते हैं-और इस मुल्क में करोड़ों गरीबों के लिए कुछ कर सकने के लिए झकझोर जाते हैं।
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