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साथ सहा गया दुख

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2002
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4446
आईएसबीएन :9788170282662

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एक सामाजिक उपन्यास....

Sath Saha Gaya Dukh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दिल्ली प्रशासन के ‘शलाका सम्मान’ के सम्मानित सुप्रतिष्ठित उपन्यासकार नरेन्द्र कोहली का यह सामाजिक उपन्यास उनकी अन्य रचनाओं की भांति अत्यंत मार्मिक और प्रभावी है, यह इस उपन्यास से स्पष्ट है। बच्चे की बीमारी और मृत्यु की घटना में पति और पत्नी के साथ रहा और एक-दूसरे में बांटा गया दुख उपन्यास का विषय है - जो पाठक के अन्तरंग को छू लेता है।

साथ सहा गया दुख

दिन-भर वे दोनों एक-दूसरे से खीझे-खीझे रहे।
सवेरे से शाम तक कितने ही अवसर आए, जब झगड़ा बहुत अधिक बढ़ सकता था। कई बार सुमन का जी चाहा कि वह अमित के व्यवहार पर चीख पड़े; और कितनी बार ही अमित के मन में आया कि वह सुमन को उसके व्यवहार के लिए डांट दे, पर दोनों ही अपने-आपको किसी न किसी प्रकार संभालते रहे थे। घर में वे दोनों अकेले होते हुए भी अकेले नहीं थे। नौकर के सामने की झगड़ पड़ना, एक-दूसरे को बुरा-भला कहना-दोनों में से किसी को भी ठीक नहीं जंचा था। और ऐसी कोई स्थिति भी नहीं आई थी, जब वे आपे से बाहर हो, मर्यादा को भूल, तीसरे आदमी के सामने ही चीखने-चिल्लाने लगते।

रात का खाना मेज़ पर लग गया था। अमित जानता था कि आमने-सामने बैठकर खाना खाते समय उनकी एक-दूसरे के प्रति उपेक्षा, नौकर के मन में सन्देह उत्पन्न करेगी। वे दोनों स्वयं भी एक दूसरे का सामना करने और कुछ औपचारिक बातें करने में अटपटा जाएंगे। इसी स्थिति से बचने के लिए, उसने ट्रांजिस्टर चलाकर मेज़ पर रख दिया था, और उसका स्वर पर्याप्त ऊंचा भी कर दिया था। सामान्य स्थिति में वह इसे फूहड़पन ही मानता, पर इस समय उस ध्वनि की ओट में वे परस्पर एक-दूसरे से बोले बिना भी खाना खाने की औपचारिकता निभा सकते थे। खाना समाप्त कर वे बेड़-रूम में आए तो दोनों का ही धैर्य चुक गया था। अब बात को खुलना ही था। दो व्यक्तियों के परिवार में, यदि वे एक-दूसरे से नाराज़ हो जाएं, तो उस तनाव का बोझ असह्य हो जाता है। सुमन सह जाए तो सह जाए, अमित अब एकदम नहीं सह सकता।
कमरे का दरवाजा भीतर से बंद कर, चिटकनी चढ़ाते हुए, अमित अपनी उग्रता को दबाकर, घुटी हुई चीख की-सी आवाज़ में बोला, ‘‘आखिर तुम चाहती क्या हो ?’’

आज सुमन अपनी आदत के अनुसार आगे से तेज़ नहीं पड़ी। वह अपनी नाराज़गी को क्रोध तथा क्षोभ से भी आगे बढ़ाकर उदासीनता और असम्पृक्तता तक खींचकर ले गई थीं। अमित की झल्लाहट का उस पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा था।
‘‘मैं तुमसे कुछ नहीं चाहती।’’ वह अत्यन्त भावहीन, उष्णताशून्य स्वर में बोली, ‘‘मैं मर जाना चाहती हूँ।’’
अमित खड़ा-खड़ा उसे घूरता रहा। वह उसे क्या उत्तर देता। उत्तर उसने चाहा भी नहीं था।

सुमन का इस प्रकार का उदासीन मूड़ उसे क्षुब्ध कर देता था। वह उसे जताना चाहती है कि वह इतना पशु है कि उसकी अपनी पत्नी उसके व्यवहार से तंग आकर उसके साथ जीने की उपेक्षा मर जाना ज़्यादा अच्छा समझती है; जबकि वह अपने-आपकों एक अत्यन्त सहानुभूतिपूर्ण तथा प्रेम करनेवाला पति मानता था। सुमन के द्वारा दिया गया यह अहसास उसे सह्य नहीं था। यदि वह उसे अपनी नाराज़गी का कारण बताती, उस कारण को समाप्त करवाने के लिए उससे लड़ती; तो शायद उसे तनिक बुरा नहीं लगता। शायद वह उसकी नाराजगी दूर करने का भरपूर प्रयत्न करता। पर जब वह अपनी बात कहने के बदले, अपने व्यवहार से उस पर आक्षेप लगाने लगती है, तो वह अपना सन्तुलन खो बैठता है।......और ऐसा तब है, जब वह अपने मन में बहुत साफ-साफ समझ रहा है कि हर झगड़े में ज़्यादती सुमन की ओर से ही होती है.......  
अमित के जी में आया कि वह चीखकर कहे, ‘‘तो मरती क्यों नहीं ? मेरा पीछा छूटे।’

पर उसने कहा नहीं। वह इस तनाव से पहले ही परेशान हो चुका था। झगड़ा बढ़ाकर कोई लाभ नहीं था; और ऐसे अपशब्दों से झगड़ा बढ़ ही सकता था, उसके कम होने की कोई सम्भावना नहीं थी।
झगड़ा बढ़ जाने से सुमन और कितनी अधिक नाराज़ हो उठेगी-यह बाद की बात है। शादी से पहले और शादी के बाद हुए अब तक के सारे झगड़ों के पश्चात् वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि सुमन और उसके बीच का ज़रा-सा भी तनाव उसे परेशान कर देता है। वह उससे लड़कर, उसे डांटकर, उसे दबाकर प्रसन्न नहीं रह सकता; प्रसन्न वह उसी स्थिति में रह सकता है, जब सुमन खुश हो।

पर सुमन को खुश रखने के लिए, वह उसकी हर उचित-अनुचित बात को नहीं मान सकता। सुमन को यह समझना चाहिए कि वह उससे कितना प्रेम करता है और यदि वह उसकी किसी बात का विरोध करता है तो उसकी भलाई के लिए ही करता है। पर सुमन समझती ही नहीं है। वह उसे किसी काम से टोक देता है, या उसकी कोई बात मानने से इनकार कर देता है तो सुमन नाराज़ हो जाती है। नाराज़गी में अमित उसे मनाता नहीं है। पहले नाराज़ कर, फिर उसे मनाना ही होता तो अमित उसे नाराज़ ही नहीं करता। अमित मनाता ही नहीं है, सुमन अधिक से अधिक नाराज़ हो जाती है; और फिर झगड़ा हो जाता है.....

सुमन की अनुचित बात को वह सह नहीं सकता- उसकी बुद्धि, उसका तर्क उसे सहने नहीं देता। बौद्धिक व्यवहार में प्रेम की क्षमाशील दृष्टि रह नहीं पाती; वह अधिक से अधिक कठोर हो जाता है। पर जब सुमन उससे नाराज़ हो जाती है तो उसके भीतर कुछ तड़पने लगता है। एक भारी बोझ आकर उसकी छाती पर जम जाता है। पेट की अंटड़ियां जैसे परस्पर उलझ जाती हैं और वह परेशान हो उठता है। सुमन को नाराज कर देने पर, जैसे उसके मन के भीतर सुमन के समर्थन में आंदोलन छिड़ जाता है.........

वह सुमन को मरने के लिए कैसे कह सकता है ? जिसकी दिन-दो दिन की नाराज़गी उसे बीमार-सा करके रख देती है- उसके मरने की बात यह अक्रोध की स्थिति में कैसे सोच सकता है ?
आए दिन होने वाले इन झगड़ों से कभी-कभी वह परेशान हो उठता है, बहुत परेशान। उस परेशानी में वह सोचा करता है; रोज़ के झगड़ों से क्या यह अच्छा नहीं है कि वे दोनों यह मान लें कि उनकी आपस में निभ नहीं सकती, इसलिए वे दोनों अलग हो जाएं ? पर अलग-अलग, एक-दूसरे के अभाव में वे अपनी जिंदगी के साथ निभा पाएंगे ?-इसका उत्तर वह कभी ‘हां’ में नहीं दे पाया था।

उसने अपना गाउन उतारकर किल्ली पर टांग दिया और रजाई में घुस गया।
सुमन उसकी ओर पीठ किए हुए, पलंग के दूसरे छोर पर पड़ी थी और वह अपने पलंग के इस छोर पर औंधा लेटा हुआ था। एक-दूसरे के प्रति नाराज़गी जताने का उनका यही ढंग था। नाराजगी में सोते हुए वे यथासंभव एक-दूसरे से दूर रहते थे। छ: फुट चौड़े पलंगों में भी, उन दोनों के बीच चार-साढ़े चार फुट की दूरी थी। उससे अधिक दूरी संभव नहीं थी, नहीं तो वे लोग दूर सरक जाते। और सरकने के परिणाम स्वरूप दोनों में से एक अवश्य ही पलंग से नीचे गिर पड़ता...
अमित के मन में आया, वह सुमन को बस जरा-सा धकेल दे, और जब वह पलंग से नीचे गिरकर उससे नाराज़ हो, तो अमित ज़ोर से हँस पड़े। उसे उठाकर पलंग पर लेटा दे और अपनी शरारत के लिए मांफी मांग ले।.....पर तभी उसकी बुद्धि ने चुहल का गला घोंट दिया। अमित के ऐसे व्यवहार का अर्थ होगा कि उसने संधि करने के लिए पहल की है, जिसका कहीं भी यहीं अर्थ होगा कि झगड़ा आरंभ करने का दोषी भी वहीं है; नहीं तो उसने समझौते का हाथ क्यों बढ़ाया ? उसके ऐसे व्यवहार से तो सुमन हर बार अड़ जाया करेगी और हर बार अमित को ही झुकना पड़ेगा।.......वह झुकेगा नहीं-झुककर वह सुमन की आदतें और अधिक नहीं बिगाड़ेगा। वे आगे ही कम बिगड़ी हुई नहीं हैं।

उसने सुमन को धकेलने का विचार छोड़ दिया।
सुमन ने बहुत धीरे-से मुड़कर अमित की ओर देखा : वह अपनी हथेलियों में चेहरा छिपाए औंधा पड़ा था।
सुमन का मन सहसा एकदम पसीज गया। जी में आया, उसके हाथों को हटाकर, अमित का चेहरा अपने हाथों में ले ले।
बेच्चारे, कितने दुखी होंगे।–उसने सोचा। वह जानता है कि अमित ऊपर से कितनी भी नाराजगी दिखाए, उसे डांटे-डपटे, उसके रोने की उपेक्षा कर जाए- पर उससे झगड़कर अमित की ऐसी ही हालत हो जाती है। उसे तब तक चैन नहीं मिलता, जब तक दोनों फिर से सहज ना हो जाएं।

हो सकता है अमित अपनी हथेलियों में चेहरा छिपाए रो रहा हो।
सुमन भीतर से तरल ही तरल हो गई। एकदम तरल।
जब कभी उसे लगता है कि अमित उससे प्यार करता है, अमित उसके बिना नहीं रह सकता, अमित उससे झगड़कर दुखी होता है-तो कैसी पिघल जाती है सुमन ! उसे लगता है, जीवन में कहीं कोई समस्या नहीं है। उन दोनों में कभी मतभेद हो ही नहीं सकता।

पर कितना अकड़ू है यह अमित ! स्वयं चाहे कितना भी कष्ट उठाए, पर मजाल है कभी सुमन को मना ले। भीतर ही भीतर चाहे कितना पछताता रहे, दुखी होता रहे, रोता रहे, पर कभी अपनी भूल को स्वीकार नहीं करेगा, कभी हार नहीं मानेगा।
और जब अमित इतना कठोर हो जाता है, तो सुमन को जीवन में कोई सुख नज़र नहीं आता। अंमित से अलग होने की बात वह नहीं सोचती। परित्यक्ता का जीवन वह नहीं चाहती। दूसरे विवाह की वह कल्पना भी नहीं कर करती-जब अमित के साथ जीवन सुखी नहीं रहा, तो वह किसी भी प्रकार सुखी नहीं होगा। और दुखी जीवन वह नहीं चाहती- घुट-घुटकर जीना वह नहीं चाहती।
तब ?

वह केवल मर जाना चाहती है।
सुमन का मन कड़वा गया। वह भी नहीं मनाएगी उसे। आखिर रुठने का लाभ ही क्या, यदि हर बार उसी को मनाना पडे़।
उसने करवट बदल ली और आँखें बंद कर लीं।
अच्छा है कि अब वह सो ही जाए।

2


शादी के पहले अपनी कोर्टशिप के दिनों में अमित ने सुमन की कभी किसी भी प्रकार की उपेक्षा नहीं की थी। जितनी देर उसे कॉलेज में लगती थी- वही अमित का अपना समय हुआ करता था; या फिर काफी रात गए उसे अपने घर लौटना पड़ता था। घर अकेला था, दिन-भर तो अमित बाहर रहता ही था, यदि रात को भी नहीं लौटता तो चोरी-चकारी का भय था। नहीं तो वह शायद रात को भी उसकी आज्ञाओं का पालन करता रहता। शेष सारा समय सुमन का हुआ करता था। वह जब बुलाती, अमित आता। जो कहती, अमित करता। ऐसा कभी नहीं हुआ था कि सुमन का एक भी काम, उसने समय की कमी या अन्य किसी कारण से न किया हो। वह अपने काम कब करता था-सुमन नहीं जानती थी। अपने कामों के लिए उसने कभी समय चाहा ही नहीं था। वह तो अलादीन का चिराग रगड़ने पर तुरंत उपस्थित हो जाने वाला ‘देव’ था- जिसका अपना पृथक कुछ नहीं था। सुमन के साथ समय व्यतीत करने से बड़ी खुशी की बात भी कोई हो सकती है, यह उसने कभी सोचा हो-ऐसा भी सुमन नहीं मानती थी।

सुमन बचपन से ही एक विशेष प्रकार के वातावरण में पली थी। पढ़ने-लिखने में वह सारे भाई-बहनों से होशियार समझी जाती थी, इसलिए लाड़ली थी। उसके मम्मी-डैडी ने पढ़ाई के बदले उसे सारी सुविधाएं दी थीं। सुमन पढ़ रही है, इसलिए उसके कपड़े कोई धो देगा, कोई स्त्री कर देगा। उसके लिए बाज़ार का काम कोई और कर देगा। उसके लिए चाय और खाना उसके पलंग पर आ जाएगा। उसकी बिखरी हुई चीजें समेट देगा। उसके जूते को पालिश कर देगा। उसके सिर में तेल कोई लगा देगा। उसकी कंघी कोई कर देगा। उसके नहाने के लिए पानी गर्म कोई गुसलखाने में रख आएगा।,/div>
 

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