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कालिदास और उसकी काव्य-कला

वागीश्वर विद्यालंकार

प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स प्रकाशित वर्ष : 1998
पृष्ठ :276
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4520
आईएसबीएन :8120721831

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कालिदास का जीवन व उनका काव्य...

kalidas aur uski kavya-kala.

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

भूमिका

गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय में 40 वर्ष तक संस्कृत-साहित्य का प्राध्यापक रहते हुए, मुझे, समय-समय, कालिदास, भवभूति आदि महाकवियों के सम्बन्ध में अनेक व्याख्यान देने पड़े। वे व्याख्यान, अपने सहयोगी प्राध्यापकों तथा छात्रों को बहुत रोचक तथा नवीनतापूर्ण प्रतीत हुए। उन्होंने आग्रह किया कि उक्त व्यख्यानों को ग्रन्थ रूप में अवश्य प्रकाशित किया जाये, जिससे कि अन्य विद्वानों को भी उन पर विचार-विमर्श करने का अवसर मिल सके। किंतु गुरुकुल में सेवा करते हुए अत्यधिक कार्यव्यग्र रहने के कारण, इसमें कुछ प्रगति न हो सकी।

सन् 1959 में, जब मैं वहां से कार्यमुक्त होकर अपने घर आ गया, तब प्राच्य साहित्य के सुप्रसिद्ध तथा उत्साही प्रकाशक अपने मित्र श्रीसुन्दरलाल, मालिक, मोतीलाल बनारसीदास फर्म ने आग्रह किया कि मैं उन्हें सकुन्तला नाटक का हिन्दी-अनुवाद तथा उसकी विस्तृत भूमिका लिखकर दूँ। मैं स्वयं इस कार्य को करना चाहता था और अब मुझे इसके लिए अवकाश भी था। अनुवाद तो शीघ्र ही तैयार हो गया और भूमिका का कार्य प्रारम्भ हुआ। मेरी इच्छा थी कि मैं कालिदास के सम्बन्ध में अपने सब विचार इसमें संग्रहीत कर दूँ। परिणाम यह हुआ कि भूमिका का कलेवर बहुत बढ़ गया। यह देखकर, एक दिन, लालाजी ने मुझसे पूछा इस भूमिका को ‘कालिदास और उसकी काव्यकला’ के नाम से पृथक् ग्रन्थ के रूप में क्यों न प्रकाशित कर दिया जाए। मुझे उनका यह विचार बहुत पसन्द आया और ऐसा करने के लिए मैंने उन्हें अपनी स्वीकृति दे दी।

कालिदास भारत की मूर्धन्य कवि है और उसके विषय में देशी तथा विदेशी विद्वान् इतना अधिक लिख चुके हैं कि अब तत्सम्बन्धी किसी विचार को नवीन कहना दुस्साहस मात्र प्रतीत होता है, अतः मैं ऐसा न करूँगा। इसमें कुछ भी नवीन या उपयोगी है अथवा नहीं, इसका निर्णय सुजन पाठक ही कर सकते हैं। स्वयं कालिदास ने लिखा है :

तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः।
हेम्नः संलक्ष्यते ह्यग्नौ विशुद्धिः श्यामिकापि वा।। 10।।
                                                                                         -रघु., सर्ग 1, पद्य 10।

कालिदास के काल के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है और मैंने उनके मतों को बिना किसी पक्षपात के रखने का यत्न किया है। यद्यपि मेरा झुकाव उस पक्ष की ओर अधिक है, जो उसका जन्म विक्रमीय संवत् के आरंभ के आसपास मानता है, और उसके लिए मैंने अनेक कारण भी यहाँ प्रस्तुत कर दिए हैं, तथापि उसके लिए मेरा उत्कट आग्रह नहीं है। इसीलिए, मैंने विक्रमोर्शीय नाटक के वे उद्धरण यहाँ एकत्र कर दिए हैं, जिनसे कुछ अन्य ध्वनि निकलती प्रतीत होती है। विद्वज्जन उन पर विचार करने की कृपा करें।

कालिदास के जन्मस्थान का प्रश्न भी कुछ कम विवादास्पद नहीं। मैंने उसके सम्बन्ध में अपना सुझाव उपस्थित किया है। मेरी मान्यता है कि कवि का जन्म हिमालय के किसी ऐसे प्रदेश में हुआ था, जहाँ भगवती भागीरथी भी साथ-साथ बहती है और वह प्रदेश गढ़वाल ही है, अतः कालिदास गढ़वाल का निवासी था। मगध तथा उज्जयनी के प्रति उसका विशेष लगाव अवश्य है, किन्तु वे मुझे उसके जन्म स्थान नहीं प्रतीत होते। इस सम्बन्ध में मैंने जो कुछ लिखा है उसके पक्ष या विपक्ष में यदि विद्वज्जन अपने विचार प्रकट करेंगे, तो मैं उनसे लाभ उठाने का यत्न अवश्य करूँगा।
प्रसिद्ध है कि कालिदास श्रृंगार रस का कवि है, किन्तु उसका श्रृंगार सुसंयत तथा सालीन है। इस पर भी मैंने कुछ प्रकाश डालने का यत्न किया है। कालिदास की सौन्दर्य-भावना कितनी सूक्ष्म, सरल तथा मधुर है, इस पर भी पाठकों को यहाँ कुछ सामग्री उपलब्ध हो सकेगी, साथ ही प्रसिद्ध प्राचीन उक्ति ‘उपमा कालिदासस्य’ की भी यत्किंचित् चर्चा यहाँ प्रसंगवाश आ गई है, आशा है कि उससे सहृदयों का कुछ मनोरंजन अवश्य होगा।

यद्यपि ग्रन्थ का आकार बढ़ गया है तथापि इसमें मेरे सब अभिमत विषयों का समावेश न हो सका, इसका मुझे दुःख है। ‘शकुन्तला का अनुवाद तथा कालिदास की नाट्यकला’, अलग प्रकाशित हो रही है। आशा है कि कुछ विषय तो उसमें स्थान पा जायेंगे, किन्तु फिर भी जो बच रहेगा, उसका क्या हो यह भाविष्याधीन है।
अन्त में, उन लेखकों का धन्यावद करना अपना कर्तव्य समझता हूँ, जिनके ग्रन्थों से मैंने लाभ उठाया है। ‘विक्रम-स्मृति ग्रन्थ’ में मुझे एक जगह बहुत-सी सामग्री मिल गई। अतः उसके प्रकाशक महोदय का मैं ऋणी हूँ। ऐतिहासिक विषय का प्रतिपादन करते हुए मेरे सामने जो कठिनाई आई है; उसके लिए मैंने अपने सुयोग्य शिष्य श्री देवेन्द्र कुमार वेदालंकार एम.ए. द्वारा डॉ. श्री दशरथ शर्मा, रीडर, इतिहास-विभाग, दिल्ली-विश्वविद्यालय की सहायता चाही, जो उन्होंने बड़े प्रेम और उदारता से दी। उक्त दोनों माहानुभाव भी मेरे विशेष धन्यवाद के पात्र हैं। अन्त में, यह लिखने की आवश्यकता नहीं कि यदि श्रीसुन्दरलाल का सहयोग मुझे न मिलता, तो सम्भवतः मेरा यह परिश्रम मेरी अलमारी में ही बन्द पड़ा रह जाता।

वागीश्वर विद्यालंकार

15-7-1973

महाकवि कालिदास : काल-निर्णय


1.कालिदास के वंश काल आदि का प्रश्न एक समस्या है :

महाकवि कालिदास कब तथा कहाँ उत्पन्न हुआ, किन पारिवारिक सामाजिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों में उसका जीवन व्यतीत हुआ, किन संघर्षों, विफलताओं और सफलताओं ने उनके विचारों एवं भावनाओं के निर्माण में योगदान किया—इन प्रश्नों का उत्तर आज भी एक कठिन समस्य बना हुआ है।

2.कवि-सम्बन्धी कुछ जनश्रुतियों तथा कहानियों से सहृदयों की सन्तुष्टि :

सहृदय जन शताब्दियों से इस महाकवि की रचनाओं  का रसास्वाद करते आ रहे थे, किन्तु उनके जीवन-वृत्तान्त के सम्बन्ध में कुछ जानने की उत्सुकता ने उन्हें कभी आकुल नहीं किया। कर्ण-परम्परा से चली आ रही है कुछ असत्य या अर्धसत्य जनश्रुतियों और रोचक कहानियों से ही उनका हृदय सन्तुष्ट हो जाया करता था।

3. कवि के सम्बन्ध में प्रसिद्ध किंवदन्तियाँ :

रसिकवर्ग बहुत दिनों से यह अनुभव किया करता था कि जिस अद्भुत मधुर तथा सुकुमार कला का दर्शन इस कलाकार की कृतियों में होता है, वह मानवीय नहीं है, अतः अवश्य ही किसी देवता की कृपा का फल होगी। और, देवता की कृपा के लिए मानव किसी विशेष विपत्ति में ही आतुर होता है। सम्भवतः इसी आधार पर यह कल्पना की गई कि कालिदास अपने जीवन के पूर्व भाग में अशिक्षित ही नहीं, किंतु अत्यन्त मूर्ख भी था। तभी विवाह की सुहागरात में अपनी विदुषी पत्नी से अपमानित होकर उसे काली देवी की शरण में जाना पड़ा और उसके वरदान से वह महाकवि बन गया। फिर, देवता की वह कृपा भी भला क्या, जो एक वज्र मूर्ख को एक अद्भुत प्रतिभा न दे सके। अतः देवता के वरदान का महत्त्व प्रकट करने के लिए बेचारे कालिदास को वृक्ष की उस शाखा को काटता हुआ दिखाया गया, जिसके सहारे वह बैठा था। वरदान का श्रेय कालीदेवी को दिलवाने में कवि के नाम ने भी सहायता की होगी, क्योंकि किंवदन्ती–जगत में यह प्रश्न ही नहीं उठता कि कवि का नाम ‘कालिदास’ तो सम्भवतः उसके माता-पिता ने उक्त तथाकथित घटना के पूर्व ही रख दिया होगा। यह भी कहा जा सकता है कि कवि का पहला नाम कुछ और ही रहा हो तथा काली से वरदान-प्राप्ति के अन्नतर ही उसका यह नाम पड़ गया हो।

4. ‘अस्ति कश्चिद्वाग् विशेषः’ वाली सूझ :

इसके साथ ही किसी चतुर सहृदय की संयोजक कल्पना ने कवि के काव्यों के प्रथम शब्दों—अस्ति, कश्चित् तथा वाक् को मिलाकर, पत्नी द्वारा पीछे से उसके अभिनन्दन की सुन्दर कथा को भी जन्म दे दिया।

5. कवि ने अपने सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा :

महाकवि बाणभट्ट ने अपने आश्रयदाता सम्राट् हर्ष का चरित लिखते हुए अपने वंश, जन्म, स्थान तथा जीवन के विषय में भी पर्याप्त प्रकाश डाल दिया। महाकवि भवभूति ने भी अपने नाटकों की प्रस्तावना में अपने वंश, माता-पिता, जन्मस्थान इत्यादि के विषय में मौनावलम्बन नहीं किया। पर, संस्कृत-साहित्य के सर्वश्रेष्ठ महाकवि कालिदास ने अपना कुछ भी परिचय देने में इतनी कृपणता क्यों की, यह समझ में नहीं आता। कवि ने कहीं भी यह स्पष्ट निर्देश नहीं दिया कि वह कब, किस राजा के समय तथा कहाँ निवास करता था।

6. बाणभट्ट तथा रविकीर्ति द्वारा कालिदास का स्मरण :

ईसा की सातवीं सताब्दी के पूर्वार्ध में सम्राट हर्ष (604 ई. पू. से 642 ई. पू. तक) के राजकवि बाणभट्ट ने हर्षचरित1 में कालिदास को स्मरण किया है, किन्तु उसके समय, स्थान, तथा आश्रयदाता का उल्लेख नहीं किया। उस समय तक कालिदास को हुए कुछ ही शताब्दियाँ बीती थीं, और बहुत सम्भव है कि उस सम्बन्ध में लोगों का ज्ञान निश्चयात्मक था। शायद इसीलिए बाणभट्ट ने उस विषय में कुछ लिखना सर्वथा आनावश्यक समझा। लगभग उन्हीं दिनों सम्राट् पुलकेशी द्वितीय के राजकवि रविकीर्ति2 ने एक शिलालेख3 में अपनी तुलना कालिदास तथा भारवि से की, किन्तु उसने भी अप्रासंगिक होने के कारण वहाँ इन कवियों के देश-काल आदि के विषय में कुछ नहीं लिखा।

7. दण्डी आदि आचार्यों ने कवि के विषय में कुछ प्रकाश नहीं डाला :

दण्डी, वामन आदि अलंकारशास्त्र के आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में कालिदास की रचनाओं का आश्रय लेते हुए भी  कवि के सम्बन्ध में कुछ नहीं लिखा। वे भी सम्भवतः यही समझते रहे कि ‘यह तो सभी जानते हैं,’ अतः इस विषय में कुछ लिखना पिष्टपेषण मात्र होगा। यहाँ हमें यह भी स्वाकार करना चाहिए कि भारतीय सहृदय की विशेष रुचि काव्य के प्रति ही रही, काव्यकर्ता के प्रति नहीं। वह समझता था कि उसे तो आम चूसने हैं, आमों के वृक्ष नहीं गिनने।

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1. निर्गतासु न वा कस्य कालिदासस्य सूक्तिषु।
प्रीतिर्मधुरसान्द्रासु मञ्जरीष्विव जायते।
2. येनाऽयोजि नवेऽश्म स्थिरमर्थविधौ विवेकिना जिनवेश्म।
स विजयतां रविकीर्त्तः कविताश्रितकालिदासभारविकीर्तिः।।

3. इस शिलालेख का लेखकाल

पञ्चाशत्सु कलौ काले षट्सु पञ्चशतासु च।
समायु समतीतासु शकानापि भूभुजाम्।।—(556 शब्दकाश या 634 ई.पू.)।

8. अपने महापुरुषों के विषय में भारतीय लेखकों की उपेक्षा :

यह भी आश्चर्य का विषय है कि भारतीय लेखकों ने सिकंदर जैसे जगद्विजेताओं का मुँह तोड़ देने वाले वीरों का, कहीं नाम तक नहीं लिया और अशोक, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त जैसे महापुरुषों को स्मरण रखने के लिए ग्रन्थ नहीं लिखे। फिर, बेचारे कवि किस गिनती में आ सकते थे। इस उपेक्षा का दुष्परिणाम यह हुआ कि कुछ काल पश्चात् जाति के इन महापुरुषों के सम्बन्ध में प्रमाणिक तथ्यों के जानने वाले व्यक्तियों का सर्वथा अभाव हो गया और आनेवाली सन्ततियों के लिए, इन उज्जवल ज्योतियों पर अन्धकार का पर्दा पड़ गया।

9. कालिदास के काल के सम्बन्ध में मतभेद :

महाकवि कालिदास के प्रामाणिक जीवन-परिचय के अभाव में जनता की कल्पना शक्ति ने विकृत जनश्रुतियों और किंदंतियों के आधार पर विचित्र कथाओं की सृष्टि करनी प्रारम्भ की इनमें से किसी कथा के अनुसार यदि यह कवि ईसा से 57 वर्ष पूर्व, उज्जयिनी में किसी मालवेश, शकारि विक्रमादित्य1 की राजसभा के नवरत्नों में सर्वश्रेष्ठ था तो किसी दूसरे के अनुसार वह ईसा के पश्चात 11 सताब्दी में धारानरेश राजा भोज2 (सन् 1018-1060 ई.) के दरबार का राजकवि था। किन्तु, बहुत-से ऐतिहासिक विद्वान् उसे चौथी-पाँचवीं शताब्दी में चन्द्रगुप्त द्वितीय3 विक्रमादित्य
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1.    (क) धन्वन्तरिक्षपणकामरसिंहशङ्कुवेतालभट्टघटकर्परकालिदासाः।
ख्यातो वामिहिरो नृपतेः सभायां रत्नानि वै वररुचिनव विक्रमस्य।।
(ख) हालेनोत्तमपूजया कतिवृषः श्रीपालितो लालितः
ख्यातिं कामापि कालिदासकवयो नीताः शकारातिना।
श्रीहर्षो विततार गद्यकवये बाणाय वाणीफलं
सद्यः सत्क्रिययाभिनन्दमपि च श्रीहारवर्षोऽग्रहीत्।।

रामचरित में अभिनन्दन
(ग) सर विलियम जोन्स कालिदास का काल ईसवीं-पूर्व प्रथम शताब्दी निर्धारित करते हैं तथा डॉ. पीटर्सन का मत है कि कालिदास का काल ईसवी सन् के प्रारम्भ के आस-पास है (डॉ. राधाकृष्णन द्वारा लिखित, साहित्य-अकादिमी, दिल्ली द्वारा प्रकाशित मेघदूत की भूमिका के पृ. 7 पर फुट नोट।)
2. बल्लाल पण्डित-कृत भोजप्रबन्ध।
3. कालिदास का काल अश्वघोष तथा भास के पश्चात् ही मानना चाहिए। उसे ग्रीक ज्योतिषशास्त्र के जामित्र आदि पारिभाषिक शब्दों का ज्ञान है। उसके नाटकों की प्राकृत से निश्चय ही अर्वाचीन है। उसे गुतकाल से पूर्वोत्तरी नहीं स्वीकार किया जा सकता...यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि चन्द्रगुप्त द्वितीय ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी और कालिदास का सम्बन्ध भारतीय परम्परा के अनुसार विक्रमादित्य से प्रसिद्ध है।
बैरीडेल कीथ-कृत हिस्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर का हिन्दी-अनुवाद, पृ. 80।
का समसामियक स्वीकार करते हैं। किसी कथा में उसे पहले, अत्यन्त मूर्ख और पीछे महाविद्वान कवि, किन्तु विषय लम्पट चित्रित किया गया है और उसकी मृत्यु भी किसी वेश्या के घर में हुई बतलाई गई है। तो कोई उसे सब शास्त्रों में परांगत, प्रतिभासम्पन्न ब्रह्मण के रूप में अपने आश्रयदाता सम्राट् की राजसभा का प्रधान रत्न मानते हैं। विविधता की इस खिचड़ी में से सत्य को ढूँढ़ निकालना टेढ़ी खीर है।

10. चीनी यात्री भी कालिदास के विषय में चुप रहे :

किन्तु आज का पाठक इन परस्पर विरोधी किंवदन्तियों से सन्तुष्ट नहीं होता और वह कवि के देश, काल, जीवन-वृत्तान्त आदि के सम्बन्ध में सत्य की खोज करना चाहता है। यह दुःख का विषय है कि स्वयं कवि ने तथा अन्य भारतीय लेखकों ने तो इस विषय में चुप्पी साधी ही, पर उन चीनी यात्रियों ने भी इस महाकवि के लिए दो शब्द तक नहीं लिखे, जिन्होंने अपनी यात्रा का विस्तृत विवरण तथा उस समय के भारत का बहुत कुछ आँखो-देखा अपने यात्रा-वृत्तान्तों में लिखा है। फाहियान सन् 404 ई. में चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल में भारत आया तथा 6, 7 वर्ष पश्चात् 411 ई. में वापस लौट गया। वह 3, 4 वर्ष तक तो पाटिल पुत्र में ही रह। जो उन दिनों गुप्त सम्राटों  की राजधानी था। यदि कालिदास का समय वही माना जाय, तो कुछ आश्चर्य नहीं कि इन वर्षों में फाहियान का साक्षात् परिचय भी उससे हुआ। सातवीं सताब्दी के प्रारम्भ में (सन् 604 ई. से 642 ई. तक) सम्राट् हर्षवर्धन के राजकवि बाणभट्ट ने कालिदास की कविता की प्रशंसा की है, किन्तु उन्ही दिनों भारत में आए यात्री ह्वेन-त्सांग ने कालिदास का कुछ भी जिकर नहीं किया।

11. कवि के काल के विषय में केवल अन्तःसाक्ष्यों का ही आधार शेष रह जाता है

इस प्रकार कवि के जीवन-वृत्तान्त के सम्बन्ध में प्रामाणिक बहिःसाक्षियों का प्रायः अभाव होने के कारण केवल अनुश्रुतियों तथा अन्तःसाक्ष्यों का ही आधार शेष रह जाता है। कठिनाई यह है कि यह दोनों आधार भी विचारक को किसी निर्विवाद निर्णय पर नहीं पहुँचा पाते। तथापि, इन्ही आधारों पर श्रीलक्ष्मीधर कल्ला ने अपने निबन्ध ‘कालिदास का जन्मस्थान’ में ठीक ही लिखा है कि कवि तथा उसके जन्मस्थान के विषय में किसी निर्णय पर पहुँचने के लिए आवश्यक है विचारक उसकी रचनाओं का निरन्तर स्वाध्याय करे, जहाँ कवि जाता है, वह भी उसके साथ पहुँचे, कवि जो कुछ देखता है, वह भी उसे देखे, कवि जो कुछ चिन्तन करता है, वह भी उसी का चिन्तन करे। (बर्थ प्लेस ऑव कालिदास, पृ.3 पंक्ति 6-9) अतः, इसी पद्धति पर कवि के ग्रन्थों का अनुशीलन करके यहाँ कुछ विचार करने का यत्न किया जा रहा है।

12. कवि का विक्रम से सम्बन्ध

विक्रमोवर्शीय नाटक के नाम का साक्ष्य : ऊपर ऐसे दो श्लोक उद्धृत किए जा चुके हैं। जिनकी रचना उस अनुश्रुति के आधार पर हुई प्रतीत होती है, जिसके अनुसार कालिदास किसी विक्रमादित्य के सभा रत्न थे। इस अनुश्रुति का समर्थन कवि के एक नाटक ‘विक्रमोर्शीय’ नाम से भी होता है। इस नाम का अर्थ पाणिन-व्यारकरण के नियम के अनुसार वह ग्रन्थ है, जिसकी रचना विक्रम तथा उर्वशी के विषय में की गई हो। किन्तु, पूरे नाटक में विक्रम नाम का कोई पात्र नहीं है। नाटक का नायक चंद्रवंशी राजा पुरुरवा है, और नायिका उर्वशी। अतः नाटक का नाम पुरुरव-उर्वशी’ होना चाहिए शी, था। कोई कह सकता है कि विक्रम से प्राप्त उर्वशी=विक्रमोर्व और इस सम्बन्ध में लिखा गया ग्रन्थ विक्रमोर्वशीय। किन्तु यह योजना क्लिष्ट कल्पना मात्र है; क्योंकि ग्रन्थ के नाम में ‘छ’ प्रत्यय तभी हो सकता है, जब उसका विषय शिशुक्रन्द, यमसभा, द्वन्द्व (दो व्यक्तियों के नाम) या इन्द्रजन आदि में कोई हो। किन्तु, उक्त योजना इनमें से किसी भी शर्त को पूरा नहीं करती। प्रतीत होता है कि कवि ने अपने आश्रयदाता विक्रम के जीवन की किसी घटना को चिरस्मरणीय बनाने के लिए या उसके लिए किये गये, किसी मांगलिक समारोह के अवसर पर खेलने अथवा राजा को भेंट करने के लिए उन्हीं दिनों लिखे गये इस नाटक का नाम ‘विक्रमोर्वशीय’ रख दिया और व्याकरण के आचार्य का मन रखने के लिए विक्रम तथा पुरुरवा का अभेद मान लिया।

12-(ख) विक्रमोर्वशीय नाटक में किसी विक्रम का स्मरण

इसी नाटक के प्रथमांक के पन्द्रहवें श्लोक के आगे गन्धर्वराज चित्ररथ का वाक्य ‘विक्रम की उस महिमा के लिए मैं आपको बधाई देता हूँ, जिसके कारण आप इन्द्र का भी उपकार करने की क्षमता1 रखते हैं।’ तथा उससे कुछ ही आगे उसका दूसरा वाक्य ‘ठीक है। यह नम्रता ही विक्रम की शोभा है।’ ध्यान देने योग्य है। दोनों ही जगह विक्रम शब्द का प्रयोग वाक्यों के वाच्यार्थ के प्रतिपादन के लिए आवश्यक न था। ‘आप (अर्थात् विक्रमादित्य) ऐसे शक्तिशाली हैं कि इन्द्र को भी अपका आभार स्वीकार करना पड़ता है’ तथा ‘विनय ही आपका भूषण2 है।’ ऐसा भी कहा जा सकता है। किन्तु किसी व्यंग्य अर्थ को प्रकट करने के लिए ही कवि ने दोनों वाक्यों में जान-बूझकर ‘विक्रम’ शब्द का प्रयोग किया है कि जब यह नाटक विक्रमादित्य
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1.    ‘महेन्द्रोपकारपर्याप्तेन विक्रममहिम्ना वर्धते भवान्।’ (विक्रमोवर्शीय, अंक 9, श्लोक 15 के आगे।)
2. ‘युक्तमेतत्, अनुत्सेकः खलु विक्रमालङ्कारः।’ (विक्रमो, अंक 1, श्लोक 17 के आगे।)
की उपस्थिति में उसके दरबार में खेला गया होगा और जब एक के बाद एक करके दो बार, पास-पास ही यह विक्रम शब्द बोला गया होगा, तब दर्शक-मण्डली में उसकी कैसी उल्लासपूर्ण प्रतिक्रिया हुई होगी।
13. (क) जीवानन्द विद्यासागर प्रकाशित अभिज्ञानशाकुन्तलम की प्रस्तावना में विक्रम का स्मरण
श्रीजीवानन्द विद्यासागर द्वारा कलकत्ता में सन् 1914 ई.  में प्रकाशित अभिज्ञान शाकुन्लम नाटक की प्रस्तावना1 से प्रतीत होता है कि उक्त नाटक का काव्यमर्मज्ञ श्रीविक्रमादित्य की राजसभा में खेलने के लिए लिखा गया था।

13.(ख) श्रीकेशवप्रसाद मिश्र की हस्तलिखित प्रति का साक्ष्य :

काशी-विश्वविद्यालय में हिन्दी-विभाग के अध्यक्ष पण्डित केशव प्रसाद के पास सुरक्षित अभिज्ञानशाकुन्तलम की एक हस्तलिखित प्रति (इस प्रति का लेखनकाल अगहन सुदि पंचमी, संवत् 1699 विक्रमीय, अर्थात् ईसवीं सन् 1942 है। की प्रस्तावना से ज्ञात होता है कि कालिदास के आश्रयदाता राजा का वैयक्तिक नाम ‘विक्रमादित्य’ था और उपाधि साहसांक2। विक्रमादित्य उसकी उपाधि न थी, जैसी की गदुप्तवंशी सम्राटों की। चन्द्रगुप्त द्नितीय तथा स्कन्दगुप्त के नाम तो और थे, किन्तु उपाधि विक्रमादित्य थी।

13.(ग) अभिज्ञान शाकुन्तलम की प्रस्तावना में विक्रम का निर्देश होना आवश्यक है, न होना अश्वाभाविक :

मालविकाग्निमित्र3 नाटक कवि की प्रथम रचना प्रतीत होती है; क्योंकि उसकी प्रस्तावना में उसने अपना परिचय नये तथा अप्रसिद्ध कवि के रूप में दिया है और पुराने कवियों—भास आदि के नाटकों के सामने उसकी सफलता में सन्देह प्रकट किया है। विक्रमोवर्शीय की प्रस्तावना में इस प्रकार के सन्देह को स्थान नहीं मिला। तब तक, कवि में कुछ आत्मविश्वास उत्पन्न हो चुका था। उसने समझ लिया था कि पहले कवियों के प्रबन्धों  के साथ तुलना करने में उसका रचना उन्तीस नहीं, तो भी उसने दर्शकों से उस उदारता तथा सहानुभूति की याचना की है, जो अपने प्रेमियों से की जाती है। यह तो ऊपर लिखा जा चुका है कि इस नाटक की रचना विक्रमादित्य की किसी विजय के उपलक्ष में ही की गयी होगी, और इसीलिए उक्त नाटक का नामकरण भी विक्रम के नाम पर किया गया।
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1.    ‘‘सूत्रधारः—आर्ये इयं हि रसभावविशेषदीक्षागुरोर्विक्रमादित्यस्याभिरूपभूयिष्ठा परिषत्। अस्यां च कालिदासग्रथितवस्तुना नवेनाभिज्ञानशकुन्तलनामधेयेन नाटकेनोपस्थातव्यमस्माभिः।’’ अभिज्ञानशाकुन्तल के जीवानन्द विद्यासागरवाले संस्करण की प्रस्तावना, सन् 1914 ई., कलकत्ता)
2.    ‘‘सूत्रधारः-आर्ये रसभावविशेषदूक्षागुरोर्विक्रदित्यसाहसाङ्कभिरूपभूयिष्ठयं परिषत्। अस्यां च’’.....(कालिदास के ग्रन्थावली के परिशिष्ट में डॉ. राजबली पाण्डेय का लेख : ‘विक्रमादित्य’, पृ. 11)
3. ‘‘अभिहितोऽस्मि विद्वत्परिषदा, कालिदासग्रन्थिवस्तु मालविकाग्निमित्रं नाम नाटकमस्मिन् वसन्तोत्सवे प्रयोक्तिव्यमिति....।’ पारिपार्श्वकः-मा तावत्। प्रथितयशसां भाससौमिलककविपुत्रादीनां प्रबन्धानतिक्रम्य वर्त्तमानकवेः कालिदासस्य क्रियायां कथं बहुमानः।’’ (मालविकाग्निमित्र की प्रस्तावना)
तब यह बिल्कुल स्वाभाविक ही है कि इसके अनेक वर्षों पश्चात अपने आश्रयदाता सम्राट से अनेक प्रकार के सम्मान प्राप्त कर चुकने पर, वह अगले नाटक में उसको उचित गौरव प्रदान करे। इसलिए आभिज्ञानशाकुन्तल की प्रस्तावना में विक्रमादित्य नाम का निर्देश न होना ही कुछ विचित्र लग सकता है, न कि उसका होना। अतः, किन्ही प्रतियों में विक्रमादित्य का नाम न देखकर जीवानन्द विद्यासागर वाली अथवा श्रीकेशवमिश्र वाली हस्तलिखित प्रति की प्रामाणिकता  पर सन्देह करना उचित नहीं।

14 रघुवंश में पाण्ड्यों की राजधानी उरगपुर कही गई है। अतः कवि का काल ईसा की प्रथम शताब्दी से पूर्व होना चाहिए।

कालिदास ने रघुवंश के सातवें सर्ग में इन्दुमती की स्वयंवर-सभा में आये पाण्ड्य नरेश की राजधानी उरगपुर2 (कावेरी के तट पर स्थित उराइयूर) लिखी है। श्रूचिन्तामणि विनायक वैद्य का कथन है कि इस प्रसंग में दक्षिण भारत के चोल तथा पल्लवराजाओं का उल्लेख नहीं है। परन्तु इतिहास से सिद्ध है कि चोलनरेश कारिंकाल ने ईसवी-सन् की पहली शताब्दी में पाण्ड्यों को परास्त कर दिया था, और इसके बाद तीसरी शताब्दी में एक बार फिर पाण्ड्यों ने प्रबलता प्राप्त कर अपनी राजधानी मदुरा में स्थापित की। तीसरी शताब्दी के पश्चात् पाण्ड्यों की राजधानी उरगपुर कभी न बनी। अतः कालिदास का काल तीसरी शताब्दी से पूर्व ही होना
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1.    ‘‘सूत्रधारः— मारिष, परिषदियं पूर्वेषां कवीनां दृष्टरसप्रबन्धा। अहमस्यां कालिदासग्रथितवस्तुना नवेन नाटकेनोपस्थास्ये। उच्यतां पात्रवर्गः स्वेषु स्वेषु पाठेष्ववहितैर्भवितव्यमिति।’’
‘‘पारिपार्श्वकः—यथाऽऽज्ञापयति भावः। (इति निष्क्रान्तः)’’
‘‘सूत्रधारः—यावदिदानीमार्यविदग्धमिश्रान् विज्ञापयामि (प्रणिपत्य)
प्रणयिषु या दाक्षिण्यादथवा सद्वस्तुपुरुषबहुमानात्।
श्रृणुत जना अवधानात् क्रियामिमां कालिदासस्य।।
                  -विक्रमो. प्रस्तावना, श्लोक 2।।
2. (क) अथोरगाख्यस्य पुरस् नाथं दौवारिकी देवसरुमेत्य।
इतश्चकोराक्षि विलोकयेति पूर्वानुशिष्टां निजगाद भोज्याम्।।
(ख) पाण्ड्योऽमंसार्पितलम्बाहारः क्लृप्ताङ्गरागो हरिचन्दनेन।
आभाति बालातपरक्तसानुः सनिर्झरोद्गार इवाद्रिराजः।।
               -रघु, सर्ग 6, श्लोक 59, 60।
(ग) दिशि मन्दायते तेजो दक्षिणस्यां रवेरपि।
तस्यामेव रघोः पाणड़याः प्रतापं न विषेहिरे।।—रघु, सर्ग 4, पद्य 49।

चाहिए यदि कालिदास का काल चन्द्रगुप्त द्वितीय का समय माना जाय, तो पाण्ड्यों की राजधानी के रूप में मदुरा का नाम आना उचित था। रघु की दिग्विजय के प्रसंग में भी पाण्ड्यों का ही उल्लेख है, चोल तथा पल्लवों तथा नहीं। इससे भी यह सिद्ध होता है कि कालिदास ईसा की पहली शताब्दी से पूर्व ही विद्यमान रहा होगा।
(विक्रम-स्मृतिग्रन्थ में पृष्ठ 272 पर महामहोपाध्याय श्रीविश्वेश्वरनाथ रेऊ का लेख।)    

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