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संस्मरण >> स्मरामि

स्मरामि

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :176
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4532
आईएसबीएन :9789350009086

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नरेन्द्र कोहली के संस्मरणों का पहला संकलन

Smarami

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘स्मरामि’ नरेन्द्र कोहली के संस्मरणों का पहला संकलन है। ये संस्मरण एक लम्बे अन्तराल में विभिन्न समयों और अवसरों पर लिखे गये हैं। इनमें से कुछ किसी अवसर की माँग पर लिखे गये हैं; किन्तु अधिकांश शुद्ध स्मरण के रूप में सृजन की माँग पर ही लिखे गये हैं। प्रवरता की शर्त भी इन पर लागू नहीं होती। कुछ संस्मरण अपने समवयस्कों और कुछ अवस्था में स्वयं से छोटे लेखकों पर भी लिखे गये हैं।

नरेन्द्र कोहली कथाकार हैं। घटनाएँ और चरित्र उनके मूल उपादान हैं, जिनके माध्यम से वे अपने विचार पाठकों तक संप्रेषित करते हैं। अतः उनके संस्मरण भी जीवन्त कथाएँ ही हैं। अंतर केवल इतना ही है कि इन चरित्रों को उनके पते ठिकाने के साथ अन्य लोग भी जानते हैं। उन चरित्रों के विषय में कहते हुए, लेखक ने बहुत कुछ अपने परिवेश और अपने संबंधों के विषय में भी कहा है। उनके जिज्ञासु पाठकों के अनेक प्रश्नों के उत्तर तो इन रचनाओं में उपलब्ध हैं ही, उनकी पठनीयता भी अपने आप में कम मोहक नहीं है।
 

मुखौटा और मन

मैंने ऑनर्स जमशेदपुर से किया था। ऑनर्स की परीक्षा की तैयारी के दिनों में जो कुछ पढ़ा था, उसमें नगेन्द्रजी की पुस्तकों ने काफी प्रभावित किया था। अतः उन्हें पढ़ने का लोभ था। 1961 की जुलाई में एम.ए. में प्रवेश लिया था। तभी डॉ. नगेन्द्र को क्लास में लेक्चर देते हुए देखा होगा। जब पहले दिन उन्हें देखा तो मन पर क्या प्रभाव पड़ा, यह अब याद नहीं है। पर दिल्ली में कौन जानता था कि मैं यहाँ क्यों आया हूँ। लोगों ने बेहद डरा दिया था कि डॉ. नगेन्द्र बड़े सख्त आदमी हैं। बचकर ही रहना। तुम्हारे अध्यापक भी वे ही हैं, परीक्षक भी वे ही हैं और एम.ए. के पश्चात् यदि लेक्चररशिप चाहिए, तो नौकरी देनेवाले भी वे ही हैं। यह सब कुछ सोचकर तो डरना ही चाहिए। पर सुनी–सुनाई बातों से डरना उन दिनों मेरा स्वभाव नहीं था, एम.ए. के आरंभ के दिनों की घटनाएँ याद हैं। एक रोज़ एक छात्र का लंच बाक्स उठाकर यह देखने के लिए सूँघ लिया कि उसमें आमलेट तो नहीं है।

वह बहुत बिगड़ी थी और उसने ‘डॉक्टर साहब’ से शिकायत कर देने की धमकी भी दी थी। फिर किसी और संदर्भ में किसी अन्य लड़की से कोई झगड़ा हो गया था। उसने बड़े इतराकर कहा, ‘‘थप्पड़ मार दूँगी।’’ मैंने कहा था, ‘‘मैं भी चाँटा लगा दूँगा।’’ उसने चुनौती दी, ‘‘मारो तो।’’ और मैंने चाँटा लगा दिया। एक अध्यापक ने पढ़ाते हुए कहा था, ‘‘महात्मा बुद्ध पूनर्जन्म को नहीं मानते थे।’’ मैंने उठकर जोश में कहा, ‘‘मानते थे।’’ वे मुस्कराए, ‘‘वे आपको बता गए होंगे।’’ मैंने अपनी ज्ञान-गरिमा  में उनकी बात को परिहास के रूप में स्वीकार नहीं किया। अकड़कर कहा, ‘‘वे न मुझे बता गए हैं, न आपको। पर मैंने पुस्तकों में पढ़ा है।...’’ यारों ने बाँह पकड़कर घसीट लिया, ‘‘क्याकर रहा है पागल। कैरियर खराब हो जाएगा।’’ बाद में अलग से भी लोगों ने समझाया, ‘‘जहाँ से तुम आए हो, वहाँ का वातावरण अवश्य ही बहुत खुला रहा होगा। पर यहाँ सँभलकर रहो। किसी ने शिकायत कर दी या डॉक्टर साहब को पता लग गया, तो तुम गए।’’

लगा, डॉ. नगेन्द्र का आतंक काफी है; और उस आतंक को कम करने का उनकी ओर से कोई प्रयास भी नहीं है। उन्होंने अपनी ओर से उसे पढ़ाया ही है, कम नहीं किया। डॉ. नगेन्द्र हमारे लिए एक ‘भय’ थे, जो अपनी गरिमा में बँधे आते थे, अनुशासन के वायुंडल में साँस लेते थे, तेज आँखों से देखते थे, माथे पर त्यौरियाँ चढ़ाकर बात करते थे और डाँटने के लिए कुछ अतिरिक्त रूप से उद्यत रहते थे। उनको हँसते-मुस्कराते हमने कहीं नहीं देखा था। उनके तेवर देखकर कभी साहस नहीं हुआ कि अपनी आदत के अनुसार उनसे बार-बार प्रश्न किए जाएँ, बहस की जाए।

एक रोज़ निराला की आलोचना करते-करते उन्होंने बताया कि निराला पुरुष-भावना के कवि हैं, उनमें अन्य अनेक कवियों के समान नारी-भावना नहीं है। मेरे मन में उथल-पुथल मच गई। कोई भीतर से ठेलता, ‘पूछ।’ पर सामने डॉ. नगेन्द्र बैठे थे—गहन गंभीर, साक्षात् शास्त्र, मर्यादा तथा अनुशासन। कैसे पूछूँ।  पर रहा नहीं गया। जब वे अपना व्याख्यान समाप्त कर चुके और अपने ऐनकों की अदला-बदली कर, एक ऐनक केस में रख रहे थे, मैं अपनी सीट से उठकर उनकी मेज़ के पास जा पहुँचा, ‘‘सर ! ‘तुम और मैं’ में निराला नारी बने हुए हैं।’’ उन्होंने आँखें उठाकर स्थिर दृष्टि से मुझे देखा। अपनी आदत के अनुसार खँखारा और बोले, ‘‘अपवाद है।’’ मैं लौट आया। आगे बहस करने का साहस नहीं हुआ।

तो सारे परिवेश ने उनका आतंक मेरे मन में बिठा दिया था। उनकी क्लास में श्रोता बनकर सुना तो जा सकता था, किंतु गुरु-शिष्य का एक आत्मीय संबंध स्थापित कर, उनके व्यक्तित्व से कुछ अतिर्कित नहीं पाया जा सकता था। उनके और हमारे बीच की दूरी स्पष्ट थी। पर यह व्यक्ति पढ़ाता कितना अच्छा है। भारतीय काव्यशास्त्र पढ़ा, पाश्चात्य काव्यशास्त्र पढ़ा, महादेवी की दीपशिखा पढ़ी, प्रसाद की कामायनी पढ़ी, निराला की राम की शक्तिपूजा पढ़ी...अद्भुत। सदा यही पाया कि डॉ. नगेन्द्र ने जो कुछ पढ़ा दिया, वह अपने-आप में पूर्ण। सैकड़ों पुस्तकें भी उससे अधिक कुछ नहीं दे सेकेंगी। उनका पढ़ाया हुआ, अन्य पुस्तकों से पढ़ा हुआ तोता-रटंत व्याख्यान नहीं है : वह पढ़ाना उस रचना और रचना की आत्मा का सजीव साझात्कार कराना है। जो डॉ. नगेन्द्र ने पढ़ा दिया सो पढ़ा दिया। उससे बाहर और कुछ नहीं है। और पढ़ाया भी कैसे ? एक-एक भाव को तीन-तीन, चार-चार बार विभिन्न शब्दों में, विभिन्न प्रकार की मँजी हुई परिष्कृत शब्दावली में बताकर छात्रों के मन में उतार दिया। कक्षा के घटिया से घटिया और बढ़िया से बढ़िया विद्यार्थी— सब एक स्वर से कहेंगे कि ऐसा व्यक्ति उन्होंने और कोई नहीं देखा। अध्यापक और भी हैं पर वे इस प्रकार के मौलिक-सृजनात्मक-आलोचक-विद्वान नहीं हैं; विद्वान् और भी हैं, पर ऐसे बढ़िया अध्यापक नहीं हैं। डॉ. नगेन्द्र के व्यक्तित्व में विद्वान् अध्यापक तथा प्रशासक का असाधारण मिश्रण है... और फिर कभी ऐसा नहीं हुआ कि अपने प्रोफेसर होने के दंभ में वे लेक्चरर तैयार किए बिना क्लास में आ गए हों। जब भी आए, पूरी तैयारी के साथ। इस व्यक्ति का अनुशासन...

एम.ए. के आठवें पत्र के रूप में लघु शोध-प्रबंध लिखना था। विषय निर्धारित हो रहे थे। सारी कक्षा हम छः-सात विद्यार्थियों से ईर्ष्या का अनुभव कर रही थी। हमें डॉ. नगेन्द्र के कमरे में जाकर रू-ब-रू बात करनी थी। वे ही हमें विषय देने वाले थे। मैं भी धड़कते दिल से उनके कमरे में गया। बोले, ‘बैठो।’ हम लोग बैठ गए, पर इस भाव से कि यदि वे कहें, ‘उठो।’ तो वे उठ जाएँ।
पूछा, ‘‘क्या विषय लोगे ?’’
मैंने कहा, ‘‘जी। अज्ञेय का कथा-साहित्य दे दीजिए।’’
बोले, ‘‘नहीं मिल सकता।’’
मैं चुप। साहस नहीं हुआ कि कहूँ, ‘‘क्यों नहीं मिल सकता ?’’
‘‘दूसरा विषय बोलो।’’
मैं चुप।
‘‘प्रेमचंद के साहित्य-सिद्धांत दे दें?’’
‘‘दे दीजिए।’’
‘‘काम कर लोगे ?’’

मेरी खीझ मुखर हुई, ‘‘जब आपने मेरा विषय नहीं दिया तो अन्य सारे विषय मेरे लिए एक समान हैं। जो भी आप देंगे, उसी पर काम कर लूँगा।’’
उन्होंने फिर उसी प्रकार स्थिर दृष्टि से देखा। लगा— अधिक बोल गया हूँ।
बोले, ‘ठीक है। यही विषय रहेगा।’’
मैं चला आया।
होली के दिन सेठ1 हमारे होस्टल में आया, ‘‘चलो होली खेलने चलते हैं।’’
‘‘कहाँ ?’’
‘‘सब टीचर के घर।’’
होस्टल के हिन्दी के अन्य छात्र भी साथ चल पड़े। हम लोग डॉ. ओमप्रकाश के घर गए, डॉ. सावित्री के घर गए; पर जब हमें डॉ. नग्रेन्द्र के घर ले चला तो, हम सब अटपटा गए। इस लड़के का दिमाग खराब है, यह हमें पिटवाएगा। पर उसी के साहस पर चलते रहे। इसी बहाने डॉ. नगेन्द्र से अनौपचारिक रूप से मिल पाएँगे।

कैवेलरी लाइंस में घुसते ही दिल धड़का, उनके घर के भीतर घुसते ही पैर घिसटने लगे। पर खैर, डॉ. नग्रेन्द्र मिल गए। अब मुझे याद नहीं कि उनसे कैसे बात हुई, किसने की। टोली का नेता सेठ था। उसी ने की होगी। इतना ही याद है कि रंग लगाया था, पर यह भी याद नहीं कि रंग उनके पैरों पर ही लगाया था या माथे तक हाथ ले जाने का भी साहस किया था।
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1.डॉ.रवीन्द्र कुमार सेठ, अब पी.जी.डी.ए.वी. सांध्य कालेज में प्राध्यापक।


उन्होंने ज़ोरदार आवाज़ लगाई, ‘‘लड़के।’’
हम सब घबरा गए—किसे डाँटा जा रहा है। यह तो बाद में पता चला कि यह घर के भीतर से भृत्य को बुलाने की शैली है। इसके साथ ही याद आता है कि मनमोहन1 कहा करता था कि किसी संदर्भ में वह उनसे मिलने गया और उन्होंने इसी शैली में आवाज़ लगाई तो उसके मन में आया कि कहे, ‘‘डॉक्टर साहब ! नाराज़ न हो, मैं चला जाता हूँ।’’
खैर, लड़का आया और डाक्टर साहब ने उसे खाद्य पदार्थ लाने के लिए कहा।
अब ?
वे खड़े थे। हम भी खड़े थे। होली हो चुकी थी।
अब ?
आखिर सेठ ने ही पूछा, ‘‘डॉक्टर साहब ! पश्चिम में भी होली होती है क्या ?
लो अब यह पाश्चात्य काव्यशास्त्र भी पढ़कर ही जाएगा। हम इधर-उधर हो गए। पता नहीं उन्होंने उसे क्या बताया। अब कुछ याद नहीं है। तभी भीतर से ‘लड़का’ सूखे मेवों की प्लेट ले आया। डॉ. नगेन्द्र किसी कारण से भीतर चले गए थे, ‘लड़का’ भी प्लेट रख कर जा चुका था। हमने मुट्ठियां भर-भर कर जेब में डाल लीं, ‘‘जिसे फर्स्ट क्लास चाहिए, वह डॉ. नगेन्द्र के घर का सूखा मेवा खाए।’’
कुछ इसी ढंग से उनसे पढ़ते, उनकी विद्वता पर मुग्ध होते, उनके अध्यापक से डरते-भय खाते एम.ए. के दो वर्ष व्यतीत हो गए।
एम.ए. की परीक्षा समाप्त कर जमशेतपुर लौट रहा था। जाने से पूर्व सोचा-जाने कभी दिल्ली लौटना हो या न हो। अपने अध्यापकों से तो मिलता जाऊँ। सरोज जी2 से मिल आया। डॉ. सावित्री सिन्हा से मिल आया। और....? जाने कोई और मुझे पहचानता भी है या नहीं। छोड़ो...मैं जमशेदपुर लौट गया।
जमशेदपुर में सेठ का तार मिला। परिणाम लिखा था उसने। प्रथम सुषमा3 थी। उससे मेरे (शायद) आठ अंक कम थे। मैं द्वितीय था। बिना कुछ सोचे-समझे, बोरिया-बिस्तर बाँधा और दिल्ली के लिए चल पड़ा। प्रथम श्रेणी आ गई थी,
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1, सैमित्र मोहन—हिन्दी के युवा कवि।
2.श्री भारतभूषण ‘सरोज’ रामजस कॉलेज के हिन्दी विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष।
3. डॉ. सुषमा पाल, आजकल जानकीदेवी महिला महाविद्यालय में प्राध्यापिका।


विश्वविद्यालय में द्वितीय स्थान था। लेक्चररशिप तो मिल ही जानी चाहिए।
दिल्ली में एक रिश्तेदार के घर टिका।
दूसरे दिन प्रातः डॉ. नगेन्द्र से मिलने गया। मन में प्रश्न था, वे मुझे पहचानते भी हैं ? वे घर पर ही थे। उन्होंने अपना परिचय नहीं दिखाया। कुछ आश्वस्त हुआ। मैंने बात आरंभ की, मेरा परीक्षा-फल आ गया है और मैं चाहता हूँ कि मुझे कहीं लेक्चररशिप मिल जाए।
उन्होंने मुझे देखा, ‘‘तुम्हें लेक्चररशिप नहीं मिल सकती।’’
मैं सन्न रह गया। मैं कुछ पूछूँ, उससे पूर्व ही वे बोले, नये नियमों के अनुसार लेक्चररशिप के लिए दो वर्षों का अध्ययन-अनुभव अनिवार्य है।’’
बात मेरी समझ में आ गई। बोला, ‘‘असिस्टेंट लेक्चररशिप ही सही।’’
‘‘एप्लाई करो।’’
मैं प्रणाम करके चला आया।

अगली भेंट पी.जी.डी.ए.वी. कॉलेज में इंटरव्यू के दिन हुई। वे कार से उतरे तो मैं सामने पड़ गया। नमस्कार किया।
‘‘तुम दयालसिंह के इंटरव्यू में क्यों नहीं आए ?’’
मन में कई बातें एक साथ उठीं। डॉक्टर साहब मुझे न केवल पहचानते हैं, वरन् उन्हें मेरा ध्यान भी है। वे जानते हैं कि दयालसिंह कॉलेज के इंटरव्यू में मैं नहीं था। मन की आशंकाएं कहीं विलीन हो गईं। संदेह तथा अनिश्चितता समाप्त हो गई। अब मैं जमशेदपुर से आया हुआ दिल्ली जाने के लिए अनजान-अपरिचित विद्यार्थी नहीं था, जिसका ध्यान रखने वाला वहाँ कोई न हो। मन में आत्मविश्वास जागा। ऑनर्स में राँची विश्वविद्यालय में प्रथम आया था, एम.ए. में दिल्ली विश्वविद्यालय में द्वितीय—मुझे नौकरी मिल जानी चाहिए।
बोला, ‘‘उन्होंने मुझे बुलाया ही नहीं था।’’

‘‘तुम्हें नहीं बुलाया ? बुलाना चाहिए था।’’ वे चले गए।
इंटरव्यू अच्छा हुआ और मुझे नौकरी मिल गई।
कुछ लोगों ने मुझे सुझाया कि आगे यदि ‘उपन्यास’ के क्षेत्र में शोध करना है तो सीधे प्री-पी-एच.डी. कर शोध-प्रबंध लिखने के स्थान पर, मैं पहले अँग्रेज़ी में एम.ए. कर लूँ। उपन्यास पाश्चात्य विधा है : अंग्रेजी में एम.ए. कर, इस क्षेत्र में शोध करने की क्षमता बढ़ जाएगी। उसके लिए आवश्यक था कि विभागाध्यक्ष डॉ. नगेन्द्र से अनुमति तथा आश्वासन ले लिया जाए कि दो वर्षों के पश्चात् जब मैं प्री-पी-एच.डी. में प्रवेश चाहूँगा तो मेरे मार्ग में कोई बाधा नहीं आएगी।
मैं उनके पास, घर पर पहुँचा।


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