इतिहास और राजनीति >> इतिहास दर्शन इतिहास दर्शनपरमानन्द सिंह
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इतिहास दर्शन का बोध कराने वाली पुस्तक....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अतीत एवं वर्तमान के मध्य निरंतरता को बनाये रखने के लिए इतिहास एक
प्रभावी माध्यम है। इसकी सहायता से मानव समाज के विविध पक्षों जैसे धर्म,
समाज, राजनीति, अर्थ, विज्ञान आदि के विषय में सम्यक् ज्ञान एवं दृष्टि का
निर्माण होता है और यह प्रक्रिया निरन्तर अग्रसर होती रहती है। उपलब्ध
तथ्यों का संकलन एक कठिन कार्य है। इस समस्या के समाधान में इतिहास चिंतन
या दर्शन की प्रमुख भूमिका है। इतिहास दर्शन के अभाव में इतिहास का वपु
निर्जीव जैसा है। इतिहास में प्राणतत्व अथवा सजीवता का निर्माण इतिहास
दर्शन के आधार पर होता है।
इतिहास मानव समाज की प्रगति एवं मानव समाज को समझने का ही नहीं उसे बदलने का भी अनिवार्य उपकरण है। इतिहास की प्रयोगशाला में ही नवीन पथ का सर्जन सम्भव है। इतिहास एक विषय ही नहीं अपितु अस्तित्व का बोध है।
इतिहास-चिन्तन का सत्य इतिहास-बोध का आधार है। इतिहास बोध के बिना कोई भी ज्ञान परिपूर्ण नहीं है। व्यष्टि और समष्टि के लिए समान रूप से इतिहास-बोध आवश्यक है।
इतिहास दर्शन के ज्ञान से पाठक को एक सही दृष्टि और एक नया आलोक मिलेगा, जिसके सहारे वह स्वयं अपनी सांस्कृतिक अस्मिता प्रतिष्ठित कर सकेगा। इसकी आज कितनी आवश्यकता है यह बताने की जरूरत नहीं है। यह भी जानी हुई बात है कि भारतीय इतिहास और संस्कृति का विषय हमारे विश्वविद्यालयों में जिस रूप में पढ़ाया जा रहा, उससे अपनी सांस्कृतिक अस्मिता की न कोई पहचान बनती है और न उसके लिए कोई सम्यक् दृष्टि मिलती है।
यह पुस्तक विद्वानों को नहीं अपितु सामान्य पाठक एवं छात्रों को दृष्टि में रखकर लिखी गयी है। इस पुस्तक में इतिहास के आयाम, इतिहासकार एवं सिद्धान्त का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत है।
इतिहास मानव समाज की प्रगति एवं मानव समाज को समझने का ही नहीं उसे बदलने का भी अनिवार्य उपकरण है। इतिहास की प्रयोगशाला में ही नवीन पथ का सर्जन सम्भव है। इतिहास एक विषय ही नहीं अपितु अस्तित्व का बोध है।
इतिहास-चिन्तन का सत्य इतिहास-बोध का आधार है। इतिहास बोध के बिना कोई भी ज्ञान परिपूर्ण नहीं है। व्यष्टि और समष्टि के लिए समान रूप से इतिहास-बोध आवश्यक है।
इतिहास दर्शन के ज्ञान से पाठक को एक सही दृष्टि और एक नया आलोक मिलेगा, जिसके सहारे वह स्वयं अपनी सांस्कृतिक अस्मिता प्रतिष्ठित कर सकेगा। इसकी आज कितनी आवश्यकता है यह बताने की जरूरत नहीं है। यह भी जानी हुई बात है कि भारतीय इतिहास और संस्कृति का विषय हमारे विश्वविद्यालयों में जिस रूप में पढ़ाया जा रहा, उससे अपनी सांस्कृतिक अस्मिता की न कोई पहचान बनती है और न उसके लिए कोई सम्यक् दृष्टि मिलती है।
यह पुस्तक विद्वानों को नहीं अपितु सामान्य पाठक एवं छात्रों को दृष्टि में रखकर लिखी गयी है। इस पुस्तक में इतिहास के आयाम, इतिहासकार एवं सिद्धान्त का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत है।
तृतीय संस्करण की भूमिका
अतीत एवं वर्तमान के मध्य निरंतरता को बनाये रखने के लिए इतिहास एक
प्रभावी माध्यम है। इसकी सहायता से मानव समाज के विविध पक्षों जैसे, समाज,
धर्म, संस्कृत, राजनीति, कृषि, अर्थ, विज्ञान आदि के विषय में सम्यक ज्ञान
एवं दृष्टि का निर्माण होता है और यह प्रक्रिया निरंतर अग्रसर होती रहती
है। उपलब्ध तथ्यों की व्याख्या एवं समकालीन तथ्यों का संकलन एक कठिन कार्य
है। इस समस्या के समाधान में इतिहास चिंतन या दर्शन की प्रमुख भूमिका है।
इतिहास दर्शन के अभाव में इतिहास का वपु निर्जीव जैसा है। इतिहास में
प्राणत्त्व अथवा सजीवता का निर्माण इतिहास दर्शन के आधार पर होता है।
इतिहास दर्शन जैसे गूढ़ एवं रोचक विषय को विद्यार्थियों की आवश्यकता के अनुरूप प्रस्तुत करना एक कठिन कार्य है। इस पुस्तक के दो संस्करण अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। क्रमशः विद्यार्थियों के मध्य लोकप्रिय बनने के कारण इसके नये संस्करण के लिए देश के विभिन्न भागों से अनुरोध आए। कुछ अध्यापक मित्रों ने भी सुझाव एवं अनुरोध भेजे। इस प्रकार अब तक उपलब्ध समस्त सुझावों एवं अनुरोधों के अनुरूप यह तृतीय संस्करण आपके सम्मुख प्रस्तुत हो रहा है। इस संस्करण के प्रकाशन में प्रिय शिष्य श्री अरविंद सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही एवम् इस तृतीय संस्करण को आप तक उपलब्ध कराने में सेतु की भूमिका इसके प्रकाशक मोतीलाल बनारसी दास प्रकाशन, वाराणसी की रही। इनका मैं विशेष आभारी हूँ।
अंत में मैं उन सभी विद्वज्जनों एवं सहयोगियों का आभारी हूँ जिनका सहयोग मुझे बराबर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मिलता रहा है। इसके साथ ही आशा करता हूँ कि भविष्य में भी पाठकगण का सुझाव और स्नेह मिलता रहेगा।
इतिहास दर्शन जैसे गूढ़ एवं रोचक विषय को विद्यार्थियों की आवश्यकता के अनुरूप प्रस्तुत करना एक कठिन कार्य है। इस पुस्तक के दो संस्करण अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। क्रमशः विद्यार्थियों के मध्य लोकप्रिय बनने के कारण इसके नये संस्करण के लिए देश के विभिन्न भागों से अनुरोध आए। कुछ अध्यापक मित्रों ने भी सुझाव एवं अनुरोध भेजे। इस प्रकार अब तक उपलब्ध समस्त सुझावों एवं अनुरोधों के अनुरूप यह तृतीय संस्करण आपके सम्मुख प्रस्तुत हो रहा है। इस संस्करण के प्रकाशन में प्रिय शिष्य श्री अरविंद सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही एवम् इस तृतीय संस्करण को आप तक उपलब्ध कराने में सेतु की भूमिका इसके प्रकाशक मोतीलाल बनारसी दास प्रकाशन, वाराणसी की रही। इनका मैं विशेष आभारी हूँ।
अंत में मैं उन सभी विद्वज्जनों एवं सहयोगियों का आभारी हूँ जिनका सहयोग मुझे बराबर प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से मिलता रहा है। इसके साथ ही आशा करता हूँ कि भविष्य में भी पाठकगण का सुझाव और स्नेह मिलता रहेगा।
डॉ. परमानन्द सिंह
प्राक्कथन
(प्रथम संस्करण से)
इतिहास-लेखन निरंतर चलने वाली एक प्रक्रिया है। इतिहास की जिस स्थूल
अवधारणा का ज्ञान हमारे बीच है, उसके लेखन का आरम्भ कब हुआ, इसके संबंध
में ठीक-ठीक कुछ कह पाना कठिन है। मानव जीवन एवं समाज से संबंधित लेखन के
विविध आयाम आरंभ से परस्पर संकुल थे। वे अलग-थलग नहीं थे। सभ्यता के विकास
के साथ-साथ उनमे पृथक विकास की प्रक्रिया आरंभ हुई और आज का इतिहास लेखन
उसी का परिणाम है। इतिहास लेखन के जो स्थूल आधार हमारे सामने है, उसके
इतिहास ज्ञान से अब काम चलने वाला नहीं है।
इतिहास दर्शन की अवधारणा अब बदल रही है। मानव-समाज ने अपने परिवेश के दबाव को जिस दिन से लिपिबद्ध करना आरम्भ किया है, उसी दिन से इतिहास लेखन का कार्य आरंभ हो गया। इस प्रकार पुष्प में सुगंध की भांति इतिहास विभिन्न मानव-विचार-संग्रहों में अन्तर्भुक्त है, जिसे देखने-परखने की आवश्यकता है। आँखों देखा हाल और घटनेवाली स्थूल घटनाएँ ही इतिहास हैं, जब इसे अन्तिम सत्य के रूप में स्वीकार करने के लिए मनीषी प्रस्तुत नहीं हैं, तब इसकी सही परख करने के लिए अन्य तदयुगीन मानव संरचनाओं के पास जाना होगा। उपलब्ध महान साहित्यकारों के चिन्तनों से सम्बन्धित रचना इस दिशा में विशेष सहायक सिद्ध हो सकती हैं। राजाओं, महाराजाओं तथा आक्रमणकारियों तक ही इतिहास सीमित न कर मानव संस्कृति, सभ्यता एवं आर्थिक विकास को रेखांकित करने वाली रचनाओं को आधार बनाकर इतिहास का पुनर्लेखन आवश्यक है।
उल्लेखनीय है कि इतिहास अन्धानुकरण एवं अन्ध विश्वास की वस्तु नहीं, बल्कि व्याख्या की वस्तु है। इसके लिए स्रोत के रूप में न केवल काल-कवलित जमींदोज खण्डरों एवं कलाकृतियों को ही चुनना चाहिए, बल्कि विविध साहित्य रूपों में संचित मानव संवेदनाओं को भी महत्त्व देना चाहिए। किसी भी देश का साहित्य अपने युग का वास्तविक इतिहास-वाहक होता है, जिनके पहचानने की दृष्टि विकसित करने की आवश्यकता है। अतः विश्वसनीय एवं पूर्ण इतिहास की कल्पना को साकार करने के लिए इतिहासदर्शन का आज जो तेवर बदल रहा है वह एक शुभ संकेत है, जिससे निकट भविष्य में इतिहास लेखन को बल मिलेगा।
इधर कुछ इतिहासवेत्ताओं का ध्यान इतिहासदर्शन को आलोक में दिशा निर्देश देने की आवश्यककताओं की ओर गया है। इस दिशा में जो भी कार्य सामने आये हैं उनसे ही सन्तुष्ट हो जाने की आवश्यकता नहीं है। डॉ. परमन्दर सिंह ने सही समय पर अपने इतिहास लेखन के क्रम में इतिहास दर्शन की ओर ध्यान दिया है। इतिहास के व्यापक फलक पर शोध निर्देशन का कार्य करने और अध्ययन और अध्यापन में बहुआयामी चिन्तन को आधार बनाने के कारण डॉ. परमन्दर सिंह ने जो दृष्टि विकसित की है। उससे निश्चित रूप में उनका प्रयास सार्थक होगा और इस क्षेत्र में कार्य करने वाले विद्वानों एवं पाठकों में उनका यह ग्रन्थ सम्मान का अधिकारी हो।
एक पाठक के रूप में मेरा विश्वास है कि इस रचना से डॉ. सिंह के यश की वृद्धि होगी।
इतिहास दर्शन की अवधारणा अब बदल रही है। मानव-समाज ने अपने परिवेश के दबाव को जिस दिन से लिपिबद्ध करना आरम्भ किया है, उसी दिन से इतिहास लेखन का कार्य आरंभ हो गया। इस प्रकार पुष्प में सुगंध की भांति इतिहास विभिन्न मानव-विचार-संग्रहों में अन्तर्भुक्त है, जिसे देखने-परखने की आवश्यकता है। आँखों देखा हाल और घटनेवाली स्थूल घटनाएँ ही इतिहास हैं, जब इसे अन्तिम सत्य के रूप में स्वीकार करने के लिए मनीषी प्रस्तुत नहीं हैं, तब इसकी सही परख करने के लिए अन्य तदयुगीन मानव संरचनाओं के पास जाना होगा। उपलब्ध महान साहित्यकारों के चिन्तनों से सम्बन्धित रचना इस दिशा में विशेष सहायक सिद्ध हो सकती हैं। राजाओं, महाराजाओं तथा आक्रमणकारियों तक ही इतिहास सीमित न कर मानव संस्कृति, सभ्यता एवं आर्थिक विकास को रेखांकित करने वाली रचनाओं को आधार बनाकर इतिहास का पुनर्लेखन आवश्यक है।
उल्लेखनीय है कि इतिहास अन्धानुकरण एवं अन्ध विश्वास की वस्तु नहीं, बल्कि व्याख्या की वस्तु है। इसके लिए स्रोत के रूप में न केवल काल-कवलित जमींदोज खण्डरों एवं कलाकृतियों को ही चुनना चाहिए, बल्कि विविध साहित्य रूपों में संचित मानव संवेदनाओं को भी महत्त्व देना चाहिए। किसी भी देश का साहित्य अपने युग का वास्तविक इतिहास-वाहक होता है, जिनके पहचानने की दृष्टि विकसित करने की आवश्यकता है। अतः विश्वसनीय एवं पूर्ण इतिहास की कल्पना को साकार करने के लिए इतिहासदर्शन का आज जो तेवर बदल रहा है वह एक शुभ संकेत है, जिससे निकट भविष्य में इतिहास लेखन को बल मिलेगा।
इधर कुछ इतिहासवेत्ताओं का ध्यान इतिहासदर्शन को आलोक में दिशा निर्देश देने की आवश्यककताओं की ओर गया है। इस दिशा में जो भी कार्य सामने आये हैं उनसे ही सन्तुष्ट हो जाने की आवश्यकता नहीं है। डॉ. परमन्दर सिंह ने सही समय पर अपने इतिहास लेखन के क्रम में इतिहास दर्शन की ओर ध्यान दिया है। इतिहास के व्यापक फलक पर शोध निर्देशन का कार्य करने और अध्ययन और अध्यापन में बहुआयामी चिन्तन को आधार बनाने के कारण डॉ. परमन्दर सिंह ने जो दृष्टि विकसित की है। उससे निश्चित रूप में उनका प्रयास सार्थक होगा और इस क्षेत्र में कार्य करने वाले विद्वानों एवं पाठकों में उनका यह ग्रन्थ सम्मान का अधिकारी हो।
एक पाठक के रूप में मेरा विश्वास है कि इस रचना से डॉ. सिंह के यश की वृद्धि होगी।
प्रो. त्रिभुवन सिंह
अपनी बात
(प्रथम संस्करण से)
समय की शिला पर मधुर चित्र कितने, किसी ने बनाये, किसी ने मिटाये।
किसी ने लिखी आँसुओं की कहानी, किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूंद पानी।।
किसी ने लिखी आँसुओं की कहानी, किसी ने पढ़ा किन्तु दो बूंद पानी।।
प्रातः स्मरणीय साहित्यकार डॉ. शम्भुनाथ सिंह का यह गीत साहित्य की दृष्टि
से कितना ओजपूर्ण है, सरस, संवेदनशील एवं कलात्मकता से युक्त है इसका आकलन
करना एक साहित्यकार का ही कार्य हो सकता है। परन्तु इस गीत का भाव और
गीतकार की दृष्टि मेरे लिए प्रेरणा का स्रोत बन गयी है। मैं इतिहास का
विद्यार्थी हूँ, परन्तु इतिहास है क्या ? इसके लेखन क्या है ? उसके अध्ययन
की पद्धतियाँ क्या हैं, इसकी उपयोगिता क्या है आदि मैलिक प्रश्न मेरे युवा
जिज्ञासु मन को उद्वेलित करते रहते हैं। मैंने अनुभव किया है कि इतिहास
दर्शन और लेखन के परिचय के बिना इतिहास का ज्ञान अव्यावहारिक एवं
शब्दशून्य है। यही अनुभूति मुझको इतिहास परिचय, लेख और दर्शन के क्षेत्र
में चिन्तन एवं मनन करने को विवश कर सकी।
इतिहास-बोध के अभाव में इतिहास के अध्ययन या लेखन का कोई अर्थ नहीं। आज अनेक इतिहास लेखन वाले विद्वान अभिलेखागारों से व्यापक विवरण संकलित कर उन्हें अपने लेखों के रूप में प्रस्तुत करते हैं जो तथ्य-संग्रह है, न कि इतिहास। इतिहासकार को अपनी ऐतिहासिक सामग्री का चयन करते हुए कलात्मक परिप्रेक्ष्य के सुदृढ़ नियमों के अनुसार आनुपातिक रूप से अपनी सामग्री सजानी सँवारनी चाहिए। विश्व के इतिहास निर्माण के इस सुदीर्घ पथ में जिन बातों की वस्तुतः उपेक्षा की जानी चाहिए उन्हें सदा अपनी दृष्टि से ओझल ही बनाये रखें। आवश्यक और अनावश्यक अथवा उपयोगी और अनुपयोगी तत्व को पहचान सकने की यह क्षमता वास्तव में बहुत महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि इसी से एक इतिहासकार एवं वृत्त-लेखक में अन्तर-स्पष्ट हो जाता है। वृत्त-लेख की दृष्टि में प्रत्येक बात महत्त्वपूर्ण होती है जिसका पता स्वयं उसने लगया हो। कारलाइल ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा था कि हमने सम्पूर्ण इतिहास-ग्रन्थ खोज डाले किन्तु मुझे एक भी पुस्तक या लेखक ऐसे नहीं मिले, जिनकी चर्चा हम आने वाली पीढ़ी के समक्ष कर सकें। इसी सन्दर्भ में मजे की बात यह है कि फेड्रिक मान ने स्वयं यह आलोचना की थी कि एशिया का इतिहास लिखने वाले विद्वान उसकी वर्दी के बटनों तक का वर्णन करना नहीं भूलते।
हम इतिहास क्यों पढ़ना चाहते हैं ? इतिहास को हमारे सामान्य ज्ञान का एक आवाश्यक अंग क्यों माना जाता है ? यह इसलिए कि आज जो कुछ हम हैं, वह कैसे बन पाये। अपने पूर्वजों के अनुभवों से लाभ उठाकर उच्चतम गन्तव्य और श्रेष्ठ लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा प्राप्त हो सके। इतिहास मानव समाज की प्रगति का प्रमाण एवं मानव समाज को समझाने का ही नहीं उसे बदलने का भी अनिवार्य उपकरण है। इतिहास की प्रयोगशाला में ही नवीन पथ का सर्जन सम्भव है। इतिहास एक विषय नहीं अपितु अस्तित्व बोध है। जैसे प्रत्येक व्यक्ति के लिए विज्ञान की सामान्य जानकारी आवश्यक है उसी तरह इतिहास की भी।
इतिहास के प्रति समाज में जो अरुचि है उसका कारण क्या है ? सामान्य व्यक्ति इतिहास को गड़े मुर्दे उखाड़ना कहता है, छात्र को हिस्ट्री ‘‘बेवफा’’ लगती है; यह सत्य है परन्तु अरुचि अस्वाभाविक है। दुनिया के विकशित देशों में इतिहास बोध एवं इतिहास की जानकारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। इतिहास की यह दुर्दशा भारत जैसे देश में स्वाभाविक है। हम पराधीन थे। इतिहास अपने अनुसार विकृति किया गया। तथ्यों की व्याख्या तदनुरूप की गयी। हमारे मूल-स्थान पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया। जाति सम्प्रदाय-क्षेत्रियता आदि को जानबूझकर बिगाड़ना है तो उसके इतिहास को भ्रामक बना दो। इसके अतिरिक्त इतिहास का जो स्वाभाविक दोष है वह भी अरुचि उत्पन्न करता है। इस समस्या के निराकरण के लिए आवश्यक है कि इतिहास के विद्यार्थी को इतिहासबोध हो। वह इतिहास दर्शन, चिन्तन और लेखन से परिचित हो तथा इस तथ्य को समझ सके कि इतिहास के साथ न्याय हो रहा है या अन्याय। यह समझदारी हमें व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन में नया परिप्रेक्ष्य नयी दृष्टि, नया प्रोत्साहन एवं नयी शक्ति देगी जो व्यवहारिक, नैतिक एवं सौन्दर्य बोध की दृष्टि से सत्य एवं सकारात्मक होगी। इसी संदर्भ में यह आवश्यक है कि इतिहास के मार्ग में जो अवरोध उत्पन्न किये गये हैं उसे सम्माप्त किया जाय, अस्वीकार किया जाय इस इतिहास-बोध, दर्शन, चिन्तन से पल्लवित किया जाय। भारत का सही इतिहास लेखन आदि से अन्त तक किया जाय। भारतीय इतिहास का विद्यार्थी अधिकांशतः मासूम अनिश्चय का, ढुलमुल और कमजोर होने के कारण कोई स्टैण्ड नहीं ले पाता। वह हवा का रुख देखता है। वह अपनी कोई दृष्टि नहीं बना पाता।
इसके लिए यह आवश्यक है कि इतिहास के विद्याथियों को यह विश्वास हो कि अतीत वर्तमान में जीवित है और इतिहास का विषय मृत्यु नहीं जीवन है। इतिहासबोध के अभाव में इतिहास के छात्र किस्सा अथवा वृत्त लेखन बनकर रह जाता है। जिस विद्यार्थी में स्वयं यह बोध होगा उसे ही इस लक्ष्य के लिए कृतसंकल्प होना होगा।
इसी दृष्टि से इस पुस्तक का लेखन प्रारम्भ किया गया। यह पुस्तक विद्वानों को नहीं अपितु सामान्य पाठक एवं छात्रों की दृष्टि में रख कर लिखी गयी है। इस पुस्तक के इतिहास के आयाम, इतिहासकार एवं सिद्धान्त का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत है।
इस पुस्तक के माध्यम से छात्रों को एक नयी दृष्टि इतिहास बोध की दी गयी है। इतिहास दर्शन अपने आपमें स्वयं गूढ़ है और विचारकों ने इसे और अधिक गूढ़ बना दिया है। फिर भी मेरा प्रयास रहा है कि यह पुस्तक छात्रोपयोगी हो। इस पुस्तक की जो भी सार्थकता होगी उससे स्वयं का कुछ भी नहीं है, महत्त्वपूर्ण इतिहासकारों एवं इतिहासप्रेमियों का सहयोग है। मैं इतिहास का विद्यार्थी हूँ, इसलिए इस पुस्तक को और अधिक उपयोगी बनाने हेतु जो भी सुझाव एवं निर्देश प्राप्त होंगे वह स्तुत्य होंगे। इस पुस्तक में कमी का होना स्वाभाविक है, क्योंकि शीघ्रता में छात्रहित में प्रकाशित की जी रही है। इसी क्रम में इसका दूसरा खण्ड भी यथाशीघ्र प्रकाशित किया जायेगा।
जिसके प्रोत्साहन से इस ग्रन्थ की रचना हो पायी है यह कृतज्ञता का मोहताज नहीं फिर भी अपने दायित्व का निर्वाह करना अपना परम कर्तव्य मानता हूँ। श्रद्धेय अग्रज डॉ. विजय नारायण सिंह, उपाचार्य ही वह व्यक्ति हैं जो बराबर मुझे प्रेरित करते हैं और उनका स्नेह मिलता रहा है।
मेरा यह निश्चित मत रहा है कि इतिहास लेखन और दर्शन से परिचय इतिहास की किसी भी ‘उपाधि’ के लिए अनिवार्य होना चाहिए। इस इतिहास के आदर्श को सगुण रूप देने का महत्वपूर्ण श्रेय प्रो.त्रिभुवन सिंह कुलपति, काशी विद्यापीठ को है जिन्होंने एम.ए. (इतिहास) द्वितीय वर्ष में इसे अनिवार्य विषय के रूप में विद्यापरिषद् से स्वीकृत कराया। उनके प्रति मैं विनयावनत हूँ।
अपने गुरुवर श्रद्धेय प्रो.महेन्द्र प्रताप सिंह, अध्यक्ष इतिहास विभाग का विशेष आभारी हूँ जिनकी प्रेरणा ने ही इस कार्य को पूर्णता प्रदान की। उन्होंने न केवल विषयगत अभिरुचि का सर्जन किया बल्कि इतिहास दर्शन सम्बन्धित समस्याओं को समुचित समाधान में महत्वपूर्ण सहयोग एवं निर्देशन दिया है। इसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना एक औपचारिकता मात्र है। इसी के साथ डॉ. शैलेन्द्र प्रसाद पान्थारी का सहयोग उत्साहवर्धक एवं प्रेरणादायक रहा है। मैं उनके बहुमूल्य सुझावों के लिए अत्याधिक आभारी हूँ।
विभागीय सहयोगी एवं मित्र डॉ. बी.डी. मिश्र, डॉ. राघवेन्द्र पन्थारी, डॉ. महेश विक्रम सिंह, डॉ. राजीव द्विवेदी को उनके सहयोग एवं सद्भावना के लिए हार्दिक धन्यवाद देता हूँ।
अपने विभाग के सहयोगी डॉ. अशोक सिंह की इतिहास दर्शन के प्रति विशेष रुचि होने के कारण उन्हें इस पुस्तक की पाण्डुपलिपि को बारंबार देखा और सँवारा। वे धन्यवाद के पात्र हैं। इसी प्रसंग में विभागीय सहयोगी साथी डॉ. कैलाश नाथ सिंह, डॉ. दिवाकर लालश्रीवास्तव, डॉ. योगेन्द्र सिंह, डॉ. राकेश सिंह धन्यवाद के पात्र हैं।
श्री अमरेन्द्र प्रताप सिंह, जूनियर रिसर्च फेलो का बराबर सहयोग मिलता रहा इसके लिए वे बाधाई के पात्र हैं। साथ ही सर्वश्री बसन्त सिंह, अनिल कुमार सिंह, अरविन्द कुमार सिंह, सच्चिदानन्द सिंह (राजेश) साधुवाद के पात्र हैं।
इस कार्य को पूरा करने में मेरे मित्र समुदाय की अविस्मरणीय भूमिका रही है जो मेरे सुख-दुःख में भी निरन्तर साथी रहे और मेरे अन्तर्मन में उत्तरदायित्व का मन्त्र फूँका। वे अपने उन मित्रों में सर्वश्री डॉ. धर्मनाथ सिंह, डॉ. शम्भुनाथ उपाध्याय, डॉ. राजेन्द्र सिंह , डॉ. ओमप्रकाश लहरी के प्रति आभारी हूँ।
प्रातः स्मरणीय मातेश्वरी राजेशवरी देवी एवं अन्य पूज्य काका श्री रामसमुझ सिंह के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने हेतु मेरे पास शब्द नहीं हैं जिनके आशीर्वचन ने मुझे इस योग्य बनाया। अपनी पत्नी शान्ति सिंह (एम.ए.) के प्रति आभार व्यक्ति करना एक औपचारिकता ही है जिन्होंने राहुल के साथ अपनी प्रज्ञा एवं हलधर के प्रयास से प्रस्तुत पुस्तक के लेखन में भरपूर सहयोग प्रदान किया।
प्रस्तुत पुस्तक की पांडुलिपि को सजाने-सँवारने एवं टंकण करने का कार्य साथी रामलालजी ने किया। उनको आभार व्यक्त करते हुए मैं हर्षित हो रहा हूँ। मैं अपने मित्र श्रीप्रकाश पाण्डेय के प्रति भी आभारी हूँ जिन्होंने इसका प्रकाशन किया। अन्त में उन समस्त इतिहासकार एवं लेखकों के प्रति नतमस्तक हूँ जिनके लेखन का सहयोग इस पुस्तक में लिया गया है। साथ ही अपने उन शुभेच्छुओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिनका प्रत्यक्ष रूप से सहयोग प्राप्प्त हुआ। पुस्तक को सुन्दर, सुस्पष्ट एवं शुद्ध छापने में चिनगारी प्रेस के कर्मचारियों का सहयोग सराहनीय रहा जिसके परिणामस्वरूप यह पुस्तक पाठकों के समक्ष पहुँच पायी।
इतिहास-बोध के अभाव में इतिहास के अध्ययन या लेखन का कोई अर्थ नहीं। आज अनेक इतिहास लेखन वाले विद्वान अभिलेखागारों से व्यापक विवरण संकलित कर उन्हें अपने लेखों के रूप में प्रस्तुत करते हैं जो तथ्य-संग्रह है, न कि इतिहास। इतिहासकार को अपनी ऐतिहासिक सामग्री का चयन करते हुए कलात्मक परिप्रेक्ष्य के सुदृढ़ नियमों के अनुसार आनुपातिक रूप से अपनी सामग्री सजानी सँवारनी चाहिए। विश्व के इतिहास निर्माण के इस सुदीर्घ पथ में जिन बातों की वस्तुतः उपेक्षा की जानी चाहिए उन्हें सदा अपनी दृष्टि से ओझल ही बनाये रखें। आवश्यक और अनावश्यक अथवा उपयोगी और अनुपयोगी तत्व को पहचान सकने की यह क्षमता वास्तव में बहुत महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि इसी से एक इतिहासकार एवं वृत्त-लेखक में अन्तर-स्पष्ट हो जाता है। वृत्त-लेख की दृष्टि में प्रत्येक बात महत्त्वपूर्ण होती है जिसका पता स्वयं उसने लगया हो। कारलाइल ने अपना मत प्रकट करते हुए कहा था कि हमने सम्पूर्ण इतिहास-ग्रन्थ खोज डाले किन्तु मुझे एक भी पुस्तक या लेखक ऐसे नहीं मिले, जिनकी चर्चा हम आने वाली पीढ़ी के समक्ष कर सकें। इसी सन्दर्भ में मजे की बात यह है कि फेड्रिक मान ने स्वयं यह आलोचना की थी कि एशिया का इतिहास लिखने वाले विद्वान उसकी वर्दी के बटनों तक का वर्णन करना नहीं भूलते।
हम इतिहास क्यों पढ़ना चाहते हैं ? इतिहास को हमारे सामान्य ज्ञान का एक आवाश्यक अंग क्यों माना जाता है ? यह इसलिए कि आज जो कुछ हम हैं, वह कैसे बन पाये। अपने पूर्वजों के अनुभवों से लाभ उठाकर उच्चतम गन्तव्य और श्रेष्ठ लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर होने की प्रेरणा प्राप्त हो सके। इतिहास मानव समाज की प्रगति का प्रमाण एवं मानव समाज को समझाने का ही नहीं उसे बदलने का भी अनिवार्य उपकरण है। इतिहास की प्रयोगशाला में ही नवीन पथ का सर्जन सम्भव है। इतिहास एक विषय नहीं अपितु अस्तित्व बोध है। जैसे प्रत्येक व्यक्ति के लिए विज्ञान की सामान्य जानकारी आवश्यक है उसी तरह इतिहास की भी।
इतिहास के प्रति समाज में जो अरुचि है उसका कारण क्या है ? सामान्य व्यक्ति इतिहास को गड़े मुर्दे उखाड़ना कहता है, छात्र को हिस्ट्री ‘‘बेवफा’’ लगती है; यह सत्य है परन्तु अरुचि अस्वाभाविक है। दुनिया के विकशित देशों में इतिहास बोध एवं इतिहास की जानकारी संस्कृति का अभिन्न अंग है। इतिहास की यह दुर्दशा भारत जैसे देश में स्वाभाविक है। हम पराधीन थे। इतिहास अपने अनुसार विकृति किया गया। तथ्यों की व्याख्या तदनुरूप की गयी। हमारे मूल-स्थान पर प्रश्न चिन्ह लगाया गया। जाति सम्प्रदाय-क्षेत्रियता आदि को जानबूझकर बिगाड़ना है तो उसके इतिहास को भ्रामक बना दो। इसके अतिरिक्त इतिहास का जो स्वाभाविक दोष है वह भी अरुचि उत्पन्न करता है। इस समस्या के निराकरण के लिए आवश्यक है कि इतिहास के विद्यार्थी को इतिहासबोध हो। वह इतिहास दर्शन, चिन्तन और लेखन से परिचित हो तथा इस तथ्य को समझ सके कि इतिहास के साथ न्याय हो रहा है या अन्याय। यह समझदारी हमें व्यक्तिगत जीवन और सामाजिक जीवन में नया परिप्रेक्ष्य नयी दृष्टि, नया प्रोत्साहन एवं नयी शक्ति देगी जो व्यवहारिक, नैतिक एवं सौन्दर्य बोध की दृष्टि से सत्य एवं सकारात्मक होगी। इसी संदर्भ में यह आवश्यक है कि इतिहास के मार्ग में जो अवरोध उत्पन्न किये गये हैं उसे सम्माप्त किया जाय, अस्वीकार किया जाय इस इतिहास-बोध, दर्शन, चिन्तन से पल्लवित किया जाय। भारत का सही इतिहास लेखन आदि से अन्त तक किया जाय। भारतीय इतिहास का विद्यार्थी अधिकांशतः मासूम अनिश्चय का, ढुलमुल और कमजोर होने के कारण कोई स्टैण्ड नहीं ले पाता। वह हवा का रुख देखता है। वह अपनी कोई दृष्टि नहीं बना पाता।
इसके लिए यह आवश्यक है कि इतिहास के विद्याथियों को यह विश्वास हो कि अतीत वर्तमान में जीवित है और इतिहास का विषय मृत्यु नहीं जीवन है। इतिहासबोध के अभाव में इतिहास के छात्र किस्सा अथवा वृत्त लेखन बनकर रह जाता है। जिस विद्यार्थी में स्वयं यह बोध होगा उसे ही इस लक्ष्य के लिए कृतसंकल्प होना होगा।
इसी दृष्टि से इस पुस्तक का लेखन प्रारम्भ किया गया। यह पुस्तक विद्वानों को नहीं अपितु सामान्य पाठक एवं छात्रों की दृष्टि में रख कर लिखी गयी है। इस पुस्तक के इतिहास के आयाम, इतिहासकार एवं सिद्धान्त का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत है।
इस पुस्तक के माध्यम से छात्रों को एक नयी दृष्टि इतिहास बोध की दी गयी है। इतिहास दर्शन अपने आपमें स्वयं गूढ़ है और विचारकों ने इसे और अधिक गूढ़ बना दिया है। फिर भी मेरा प्रयास रहा है कि यह पुस्तक छात्रोपयोगी हो। इस पुस्तक की जो भी सार्थकता होगी उससे स्वयं का कुछ भी नहीं है, महत्त्वपूर्ण इतिहासकारों एवं इतिहासप्रेमियों का सहयोग है। मैं इतिहास का विद्यार्थी हूँ, इसलिए इस पुस्तक को और अधिक उपयोगी बनाने हेतु जो भी सुझाव एवं निर्देश प्राप्त होंगे वह स्तुत्य होंगे। इस पुस्तक में कमी का होना स्वाभाविक है, क्योंकि शीघ्रता में छात्रहित में प्रकाशित की जी रही है। इसी क्रम में इसका दूसरा खण्ड भी यथाशीघ्र प्रकाशित किया जायेगा।
जिसके प्रोत्साहन से इस ग्रन्थ की रचना हो पायी है यह कृतज्ञता का मोहताज नहीं फिर भी अपने दायित्व का निर्वाह करना अपना परम कर्तव्य मानता हूँ। श्रद्धेय अग्रज डॉ. विजय नारायण सिंह, उपाचार्य ही वह व्यक्ति हैं जो बराबर मुझे प्रेरित करते हैं और उनका स्नेह मिलता रहा है।
मेरा यह निश्चित मत रहा है कि इतिहास लेखन और दर्शन से परिचय इतिहास की किसी भी ‘उपाधि’ के लिए अनिवार्य होना चाहिए। इस इतिहास के आदर्श को सगुण रूप देने का महत्वपूर्ण श्रेय प्रो.त्रिभुवन सिंह कुलपति, काशी विद्यापीठ को है जिन्होंने एम.ए. (इतिहास) द्वितीय वर्ष में इसे अनिवार्य विषय के रूप में विद्यापरिषद् से स्वीकृत कराया। उनके प्रति मैं विनयावनत हूँ।
अपने गुरुवर श्रद्धेय प्रो.महेन्द्र प्रताप सिंह, अध्यक्ष इतिहास विभाग का विशेष आभारी हूँ जिनकी प्रेरणा ने ही इस कार्य को पूर्णता प्रदान की। उन्होंने न केवल विषयगत अभिरुचि का सर्जन किया बल्कि इतिहास दर्शन सम्बन्धित समस्याओं को समुचित समाधान में महत्वपूर्ण सहयोग एवं निर्देशन दिया है। इसके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना एक औपचारिकता मात्र है। इसी के साथ डॉ. शैलेन्द्र प्रसाद पान्थारी का सहयोग उत्साहवर्धक एवं प्रेरणादायक रहा है। मैं उनके बहुमूल्य सुझावों के लिए अत्याधिक आभारी हूँ।
विभागीय सहयोगी एवं मित्र डॉ. बी.डी. मिश्र, डॉ. राघवेन्द्र पन्थारी, डॉ. महेश विक्रम सिंह, डॉ. राजीव द्विवेदी को उनके सहयोग एवं सद्भावना के लिए हार्दिक धन्यवाद देता हूँ।
अपने विभाग के सहयोगी डॉ. अशोक सिंह की इतिहास दर्शन के प्रति विशेष रुचि होने के कारण उन्हें इस पुस्तक की पाण्डुपलिपि को बारंबार देखा और सँवारा। वे धन्यवाद के पात्र हैं। इसी प्रसंग में विभागीय सहयोगी साथी डॉ. कैलाश नाथ सिंह, डॉ. दिवाकर लालश्रीवास्तव, डॉ. योगेन्द्र सिंह, डॉ. राकेश सिंह धन्यवाद के पात्र हैं।
श्री अमरेन्द्र प्रताप सिंह, जूनियर रिसर्च फेलो का बराबर सहयोग मिलता रहा इसके लिए वे बाधाई के पात्र हैं। साथ ही सर्वश्री बसन्त सिंह, अनिल कुमार सिंह, अरविन्द कुमार सिंह, सच्चिदानन्द सिंह (राजेश) साधुवाद के पात्र हैं।
इस कार्य को पूरा करने में मेरे मित्र समुदाय की अविस्मरणीय भूमिका रही है जो मेरे सुख-दुःख में भी निरन्तर साथी रहे और मेरे अन्तर्मन में उत्तरदायित्व का मन्त्र फूँका। वे अपने उन मित्रों में सर्वश्री डॉ. धर्मनाथ सिंह, डॉ. शम्भुनाथ उपाध्याय, डॉ. राजेन्द्र सिंह , डॉ. ओमप्रकाश लहरी के प्रति आभारी हूँ।
प्रातः स्मरणीय मातेश्वरी राजेशवरी देवी एवं अन्य पूज्य काका श्री रामसमुझ सिंह के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने हेतु मेरे पास शब्द नहीं हैं जिनके आशीर्वचन ने मुझे इस योग्य बनाया। अपनी पत्नी शान्ति सिंह (एम.ए.) के प्रति आभार व्यक्ति करना एक औपचारिकता ही है जिन्होंने राहुल के साथ अपनी प्रज्ञा एवं हलधर के प्रयास से प्रस्तुत पुस्तक के लेखन में भरपूर सहयोग प्रदान किया।
प्रस्तुत पुस्तक की पांडुलिपि को सजाने-सँवारने एवं टंकण करने का कार्य साथी रामलालजी ने किया। उनको आभार व्यक्त करते हुए मैं हर्षित हो रहा हूँ। मैं अपने मित्र श्रीप्रकाश पाण्डेय के प्रति भी आभारी हूँ जिन्होंने इसका प्रकाशन किया। अन्त में उन समस्त इतिहासकार एवं लेखकों के प्रति नतमस्तक हूँ जिनके लेखन का सहयोग इस पुस्तक में लिया गया है। साथ ही अपने उन शुभेच्छुओं के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ जिनका प्रत्यक्ष रूप से सहयोग प्राप्प्त हुआ। पुस्तक को सुन्दर, सुस्पष्ट एवं शुद्ध छापने में चिनगारी प्रेस के कर्मचारियों का सहयोग सराहनीय रहा जिसके परिणामस्वरूप यह पुस्तक पाठकों के समक्ष पहुँच पायी।
परमानन्द सिंह
पुरोवाक्
(द्वितीय संस्करण से)
इतिहास का वास्तविक स्वरूप एक विश्वव्यापी गति की सर्वमान्य उपलब्धियों
एवं मूल्यों के समुच्चय पर आधृत मानवता के व्यापक प्रवाह का उद्घाटन है।
वतर्मान इतिहास में आधुनिकातावाद योरोप के औपनिवेशिकतावाद एवं साम्राज्य
विस्तार के कारण हुए पारस्परिक संघर्ष के प्रतिफल हैं-जातीयता एवं
राष्ट्रीयता।
इस सन्दर्भ में लार्ड एक्टन का यह कथन कितना समीचीन है कि ‘तीन हजार वर्षों को नजरअन्दाज कर केवल चार सौ वर्षों के अध्ययन पर किसी दर्शन की स्थापना नहीं हो सकती। ऐसा करना नितान्त दोषपूर्ण एवं भ्रामक होगा।’’ साथ ही ‘एक राष्ट्र पर बल देना’ हीगल के विचारों के अनुकूल है। इतिहास की भौतिकवादी धारणा एवं मार्क्सवादी आर्थिक निश्चयवाद-दोनों ही हीगल के विचारवाद से अनुप्रेरित हैं। दोनों ही मानवीय विकास भव्य किन्तु भ्रमोत्पादक संश्लेषण हैं। मानवजीवन की घटनाएँ क्योंकि बहुमुखी होती हैं अतः इसका इतिहास भी बहुआयामी ही होगा।
एक प्रकार से इतिहास कल्पनाओं की महत्ता इस तथ्य में है कि उनके सर्जक अनाम हैं, अतः व्यक्तिविशेष की विशिष्ट मनोवृत्तियाँ एवं विश्लेषणताएँ इनमें नहीं हैं। कल्पनाएँ दैनिक अनुष्ठानों, धर्म-संस्कारों एवं तीर्थ-यात्राओं में व्याप्त होती हैं, तथा ये ही भारत में सत्य, शिव एवं न्याय की अदृश्य व्यवस्था है स्थिर करती हैं जो दृष्टिगत ऋतुचक्र से सम्बन्धित हैं। वास्तव में सुदूर्घ परम्परा के अनुभव एवं ज्ञान का सार इसमें निहित रहता है। ये ही विचार वंशपरम्परा उत्तराधिकार में प्राप्त सामाजिक प्रथाओं तथा जीवन-पद्धतियों की नींव डालते हैं।
व्यक्तियों की भाँति किसी देश के निवासियों की समष्टि के इतिहास में कुछ महत्वपूर्ण युग होते हैं। भारतीय सन्दर्भ में ये दो युग हैं –वैदिकयुग, धर्म-दर्शनयुग, अशोकयुग, प्रथम एशियाई एकतायुग द्वितीय एशियाई एकता युग, वेदान्त युग, तन्त्रिकायुग, एवं भक्तियुग। भारतीय इतिहास के ये स्वर्ण युग रहे है। ये भारतीय सभ्यता के प्रवाह का निर्देश देते हैं। प्रत्येक स्वर्णयुग के अपने स्वतंत्र विचार, मूल्य एवं आदर्श होते हैं, जिन्होंने भारत का निर्माण किया।
भारतीय इतिहास दर्शन के अनुसार, इतिहास मानवता एवं महापुरुषों के जीवन चरित्र का नहीं, अपितु समय के चक्र में धर्म के निरन्तर स्पन्दनों का होता है। इतिहास का यह चक्रीय दृष्टिकोण असत्य भ्रम को समाप्त करता है। सत्-असत् अनन्त चक्र में बार-बार आते हैं। यही कारण है कि विवेकशील पुरुष सत्-असत् दोनों से निःसंङ्ग रहते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि दर्शन की भाँति इतिहास से हमें परम निःसंगता की ही शिक्षा मिलती है।
डॉ. परमन्दर सिंह ने अपने इस इतिहास-दर्शन में इतिहास-दर्शन के उन सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है जो दीर्घकाल से इस विषय के प्रतिष्ठित मनीषियों द्वारा सुचिन्तित सुविचारित एवं सुसमीक्षित होते रहे हैं। इतना ही नहीं, उन पक्षों की गम्भीर समीक्षा करते हुए लेखन ने कुछ भ्रान्त धारणाओं का खण्डन किया है, वहीं उचित पक्ष की ईमानदारी के साथ अपनी तटस्थता बनाये रखते हुए प्रबल समर्थ भी किया है। आपकी विषय प्रतिपादन शैली बहुत ही सरल, सहज, सुरुचियुक्त एवं विद्वाता पूर्ण है। आपके निरन्तर अध्यवसाय गम्भीर अध्ययन का ही यह फल है कि इतिहास-दर्शन जैसे गूढ़ विषय पर ऐसा सांगोपांग वर्णनयुक्त ग्रन्थ विद्वतसमाज के सम्मुख प्रस्तुत हो सका है।
आशा है इतिहास विषय में रुचि रखने वाले पाठकों को इस ग्रन्थ से अत्यधिक सहयोग मिलेगा। डॉ. सिंह से शिक्षा-जगत् में किये गये स्तुत्य प्रयास का मैं स्वागत करता हूँ।
इस सन्दर्भ में लार्ड एक्टन का यह कथन कितना समीचीन है कि ‘तीन हजार वर्षों को नजरअन्दाज कर केवल चार सौ वर्षों के अध्ययन पर किसी दर्शन की स्थापना नहीं हो सकती। ऐसा करना नितान्त दोषपूर्ण एवं भ्रामक होगा।’’ साथ ही ‘एक राष्ट्र पर बल देना’ हीगल के विचारों के अनुकूल है। इतिहास की भौतिकवादी धारणा एवं मार्क्सवादी आर्थिक निश्चयवाद-दोनों ही हीगल के विचारवाद से अनुप्रेरित हैं। दोनों ही मानवीय विकास भव्य किन्तु भ्रमोत्पादक संश्लेषण हैं। मानवजीवन की घटनाएँ क्योंकि बहुमुखी होती हैं अतः इसका इतिहास भी बहुआयामी ही होगा।
एक प्रकार से इतिहास कल्पनाओं की महत्ता इस तथ्य में है कि उनके सर्जक अनाम हैं, अतः व्यक्तिविशेष की विशिष्ट मनोवृत्तियाँ एवं विश्लेषणताएँ इनमें नहीं हैं। कल्पनाएँ दैनिक अनुष्ठानों, धर्म-संस्कारों एवं तीर्थ-यात्राओं में व्याप्त होती हैं, तथा ये ही भारत में सत्य, शिव एवं न्याय की अदृश्य व्यवस्था है स्थिर करती हैं जो दृष्टिगत ऋतुचक्र से सम्बन्धित हैं। वास्तव में सुदूर्घ परम्परा के अनुभव एवं ज्ञान का सार इसमें निहित रहता है। ये ही विचार वंशपरम्परा उत्तराधिकार में प्राप्त सामाजिक प्रथाओं तथा जीवन-पद्धतियों की नींव डालते हैं।
व्यक्तियों की भाँति किसी देश के निवासियों की समष्टि के इतिहास में कुछ महत्वपूर्ण युग होते हैं। भारतीय सन्दर्भ में ये दो युग हैं –वैदिकयुग, धर्म-दर्शनयुग, अशोकयुग, प्रथम एशियाई एकतायुग द्वितीय एशियाई एकता युग, वेदान्त युग, तन्त्रिकायुग, एवं भक्तियुग। भारतीय इतिहास के ये स्वर्ण युग रहे है। ये भारतीय सभ्यता के प्रवाह का निर्देश देते हैं। प्रत्येक स्वर्णयुग के अपने स्वतंत्र विचार, मूल्य एवं आदर्श होते हैं, जिन्होंने भारत का निर्माण किया।
भारतीय इतिहास दर्शन के अनुसार, इतिहास मानवता एवं महापुरुषों के जीवन चरित्र का नहीं, अपितु समय के चक्र में धर्म के निरन्तर स्पन्दनों का होता है। इतिहास का यह चक्रीय दृष्टिकोण असत्य भ्रम को समाप्त करता है। सत्-असत् अनन्त चक्र में बार-बार आते हैं। यही कारण है कि विवेकशील पुरुष सत्-असत् दोनों से निःसंङ्ग रहते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि दर्शन की भाँति इतिहास से हमें परम निःसंगता की ही शिक्षा मिलती है।
डॉ. परमन्दर सिंह ने अपने इस इतिहास-दर्शन में इतिहास-दर्शन के उन सभी पक्षों पर प्रकाश डाला है जो दीर्घकाल से इस विषय के प्रतिष्ठित मनीषियों द्वारा सुचिन्तित सुविचारित एवं सुसमीक्षित होते रहे हैं। इतना ही नहीं, उन पक्षों की गम्भीर समीक्षा करते हुए लेखन ने कुछ भ्रान्त धारणाओं का खण्डन किया है, वहीं उचित पक्ष की ईमानदारी के साथ अपनी तटस्थता बनाये रखते हुए प्रबल समर्थ भी किया है। आपकी विषय प्रतिपादन शैली बहुत ही सरल, सहज, सुरुचियुक्त एवं विद्वाता पूर्ण है। आपके निरन्तर अध्यवसाय गम्भीर अध्ययन का ही यह फल है कि इतिहास-दर्शन जैसे गूढ़ विषय पर ऐसा सांगोपांग वर्णनयुक्त ग्रन्थ विद्वतसमाज के सम्मुख प्रस्तुत हो सका है।
आशा है इतिहास विषय में रुचि रखने वाले पाठकों को इस ग्रन्थ से अत्यधिक सहयोग मिलेगा। डॉ. सिंह से शिक्षा-जगत् में किये गये स्तुत्य प्रयास का मैं स्वागत करता हूँ।
प्रो.रामकुमार त्रिपाठी
अपनी बात
(द्वितीय संस्करण के अवसर पर)
भारतीय इतिहास चिन्तन का आधुनिक युग पाश्चात्य चिन्तन का युग है। आज
पश्चिम से विविध प्रकार के अन्तर्विरोधी प्रवृत्तियों का अभ्युदय हो रहा
है। ऐसी संक्रमणकालीन स्थिति में भारतीय परिवेश में इतिहास चिन्तन की महती
आवश्यकता है। इतिहास के विद्यार्थी का एक दायित्व होता है कि इन
प्रवृत्तियों को पहचाने और पहचानकर अपने अस्तित्व के संरक्षण हेतु इतिहास
को दूसरों का हथियार न बनने दे।
इतिहास व्यक्ति के क्रिया-कलापों का उल्लेख करता है और व्यक्ति ही उसे इतिहासबद्ध करता है, अतः यह स्वाभाविक है कि इतिहास में विवादों का घेरा उत्पन्न होगा। इसके साथ ही यह भी उतना ही सत्य है कि इतिहास का सम्बन्ध मनुष्य के अतीत से है। मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है, वह अतीत को अपनी दृष्टि से अवलोकित करता रहा है और इतिहास विवादों की परिधि में घिरता रहा है।
इतिहास व्यक्ति के क्रिया-कलापों का उल्लेख करता है और व्यक्ति ही उसे इतिहासबद्ध करता है, अतः यह स्वाभाविक है कि इतिहास में विवादों का घेरा उत्पन्न होगा। इसके साथ ही यह भी उतना ही सत्य है कि इतिहास का सम्बन्ध मनुष्य के अतीत से है। मनुष्य एक चिन्तनशील प्राणी है, वह अतीत को अपनी दृष्टि से अवलोकित करता रहा है और इतिहास विवादों की परिधि में घिरता रहा है।
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