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पुनरारम्भ

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1997
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4548
आईएसबीएन :0000

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एक प्राणवान स्त्री की संघर्ष-कथा....

Punrarambh

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

जीवन न जड़ है, न उसकी गति कभी रुकती है। कठिन से कठिन परिस्थियों में भी, जब मनुष्य अपने जीवन को सर्वथा रुद्ध और निरर्थक मान चुकता है, जिजीविषा की वेगवती धारा अपने लिए नया मार्ग, नवीन केन्द्र अथवा नवीन उद्देश्य खोज लेती है और आगे बढ़ती चली जाती है। नरेन्द्र कोहली का यह उपन्यास एक ऐसी ही प्राणवान स्त्री की संघर्ष-कथा है, जो नितांत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी जीवन के प्रति अपनी आस्था बनाये रखती है और भयंकर कठिनाइयों में अपने सर्वथा निराधार जीवन का पुनरारम्भ करने की क्षमता रखती है। लगभग पौन शताब्दी पूर्व के पंजाब के नागरिक जीवन की यह कथा आपको एक ऐसे नवीन लोक में ले जायगी, जो अत्यन्त अद्भुत होते हुए भी, ऐतिहासिक दृष्टि से पूर्णतः यथार्थ है।

 

1

 

 

अमृतसर से पठानकोट तक रेल की लाइन थी और पठानकोट से आगे नूरपुर और शाहपुर होते हुए पालमपुर तक तांगा-सड़क थी। किंतु पालमपुर से तांगे से भी नहीं जा सकते थे। बैजनाथ, मंडी, सकेत, कुल्लू और नगर जाने के लिए या तो पैदल चलना पड़ता था, या खच्चरों पर यात्रा की जी सकती थी। और किसी प्रकार की सवारी के आने का प्रबंध नहीं था।
नगर में महकमा जंगलात का बड़ा सरकारी दफ्तर था, इसलिए वहां खच्चरों द्वारा भी आवागमन काफी थी। सड़क चलती ही रहती थी। नगर, समुद्र तल से काफी ऊँचाई पर थी। चारों ओर घने जंगल थे। फलों के कुछ बाग थे और कहीं-कहीं छोटे-छोटे पहाड़ी खेत थे। साल भर में ही एक फसल होती थी, मक्की की। कम ऊंचाई के स्थानों पर थोड़ा धान भी पैदा होता था। अक्तूबर से  सर्दियां आरंभ हो जाती और कभी-कभी अक्तूबर में बर्फ भी पड़नी शुरू हो जाती थी। और फिर अप्रैल तक सारे खेत और जंगल बर्फ से ढके पड़े रहते थे। यह सारा समय घरों की चारदीवारी में ही कटता था। इस समय के लिए अन्न, ईंधन, पशुओं का चारा—और आवश्यकता की अन्य वस्तुएं, बर्फ पड़ने से पहले ही काफी मात्रा में जमा कर लेनी पड़ती थीं।

पर अभी बर्फ पड़ने की समय नहीं था। अभी तो बसंत ऋतु आरंभ हुई थी।
जंगलों में सैकड़ों प्रकार के फूल झुंड के झुंड खिल आए थे। पर बनफशा के फूलों की गंध उन सबके ऊपर छाई हुई थी। जैसे बनफशा का ही जंगल हो। जिस ओर हवा चलती, उस ओर को गंध बहा कर ले जाती। बागों में सेब, नाशपाती, बग्गूगोशा, हाड़ी, खरमानी, बटंग, आलूचा और आलूबुखारा आदि के पेड़ फलों से लद चुके थे।
सरकारी दफ्तर के हैडक्लर्क बाबू गोकुलचंद का क्वार्टर जरनैली सड़क के साथ लगती हुई सरकारी क्वार्टरों की बस्ती में था। नीचे एक कमरा था और उसके सामने खुला बरामदा था। ऊपर भी ठीक उसी प्रकार से एक कमरा और बरामदा था। ऐसे ही एक दूसरे से सटे हुए, यहां दर्जन भर क्वार्टर थे। इन सब में सरकारी दफ्तर के बाबू रहते थे। कुछ अपने बाल बच्चों के साथ थे कुछ अकेले।

 ये क्वार्टर देवदार के घने जंगल के मध्य, कुछ थोड़े से स्थान को साफ करके बनाए गए थे। क्वार्टरों के चारों ओर ऊंचे देवदार के पेड़ प्राकृतिक घेरा बना रहे थे ऊपर जंगल में एक कूल बहता था, जो क्वार्टरों से कुछ दूरी पर झरने के रूप में नीचे गिरता था। उसी झरने से पीने का पानी लिया जाता था। फिर वही पानी, क्वार्टरों के सामने बने हुए छोटे-छोटे बगीचों को सींचता हुआ, आगे निकल जाता था।
घने जंगल से परे, कुल्लू के मार्ग पर कुछ बस्तियाँ थीं। पर उनका सरकारी दफ्तर और बाबुओं से कोई सम्बन्ध न था।
क्वार्टरों से दफ्तर मील भर की दूरी पर था। चार बजे दफ्तर से छुट्टी हो गयी थी और गोकुलचंद सबसे पहले टहलते हुए दफ्तर से निकल आए थे। उनको स्यालकोट से बदलकर यहां आए हुए कुछ सप्ताह ही हुए थे। नौकरी पर अकेले ही चले आए थे। पत्नी और बच्चे अभी घर पर ही थे।

शाम को उन्हें घर आने की कोई जल्दी नहीं होती थी। जल्दी किसके लिए होती ! घर पर उनका नौकर होता था—जेठूराम। जेठूराम से मिलने की क्या उतावली ? वे आराम से दफ्तर से उठते और जंगल में से होकर, लम्बे रास्ते से टहलते हुए क्वार्टर की ओर लौटते थे। जब तक वे लौटते थे, सारे क्वार्टरों के बच्चे बाहर, अपने अपने घरों के सामने खुले स्थान में खेल रहे होते थे। सारी स्त्रियां भी चारपाई बिछाकर बैठी कुछ काढ़-बुन रही होतीं। कोई-कोई पास पीढ़ी रखकर चर्खा कात रही होती या काते हुए सूत को अटेरन पर अटेर रही होती।

अपने ये काम बाबुओं की स्त्रियां अपने साथ मैदानी क्षेत्रों से लाई थीं। पहाड़ों की स्त्रियों को अपने आवश्यक कार्यों से अवकाश नहीं था। गोकुलचंद ने इतने ही दिनों में देख लिया था कि स्थानीय पुरुष केवल एक बार हल चलाकर ही निश्चिंत हो जाते थे और शेष सारा कार्य स्त्रियां करती थीं। पशुओं को चराना, जंगल से घास, लकड़ी इत्यादि लाना, पशुओं का गोबर इकट्ठा करना, खेतों में खाद देना, बुवाई करना, नलाई कराना, फसल काटना इत्यादि स्त्रियां ही करती थीं।
गोकुलचंद क्वार्टर में जाने से पहले थोड़ी देर के लिए, बाहर खुली हवा में बैठे बाबुओं के पास ठहरते। उनसे थोड़ी-सी गपशप करते। बच्चों पर कोई वक्तव्य कसते और स्त्रियों को चोर दृष्टि से देखते हुए क्वार्टर में चले जाते थे।

आज गोकुलचंद दफ्तर से उठकर जंगल की ओर न जाकर, आनजाने ही जनरैली सड़क की ओर चल पड़े थे। सड़क नीचे की ओर जा रही थी। यदि वे उस पर चले जाते तो कुल्लू से कुछ पहले पड़ने वाले कटराई जा पहुंचते। पर उन्हें कटराईं नहीं जाना था। वैसे उन्हें जाना तो कहीं भी नहीं था। एक बेध्यानी में ही चल पड़े थे। कटराईं से बहुत पहले ही खच्चर सड़क पर एक चौड़ी पगडंडी ऊंचे पहाड़ों की ओर से नीचे उतरकर मिलती थी। उनके ध्यान में अचानक ही वह पगडंडी आ गई थी। वह उस पगडंडी पर कभी चले नहीं थे और न जानते ही थे कि पगडंडी कहां और कैसे स्थानों से होकर चलती है। पर इतना तो उन्होंने आती बार देख ही लिया था कि वह एक काफी चौड़ी पगडंडी थी, जो कुछ ही आगे जाकर संकरी हो जाती थी और पहाड़ों पर चढ़कर, उनके पीछे खड़े घने जंगल में कहीं खो जाती थी।

यह उनको बाद में पता चला था कि उस पगडंडी पर चलकर कहीं आगे जाकर ऊंचे पहाड़ों में घिरा एक गांव जगतसुख है और उनका नौकर जेठूराम उस गांव का रहने वाला है। इस गांव का नाम भी महत्त्वपूर्ण तब हुआ था, जब जेठूराम छुट्टी लेकर गांव चला गया था।
गोकुलचंद ने जेठूराम के चले जाने को इस रूप में पहले कभी नहीं लिया था। पर आज सवेरे से ही बार-बार उनके ध्यान में यह बात आ रही थी कि जेठूराम उनसे छुट्टी लेकर गांव गया हुआ है और आज शाम को उसे लौट आना चाहिए।
जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था, उनके मन में जैसे जेठूराम की प्रतीक्षा अधिक तीव्र होती जा रही थी। और अब वह अनजाने ही खच्चर सड़क पर दूर तक निकल आए थे। क्या वह जेठूराम की अगवानी करने चले आए थे ?—उन्होंने अपने आप से पूछा—या फिर वह शायद देखने आये हैं कि जेठूराम लौट रहा है कि नहीं।

पर जहाँ तक नजर जाती थी, वहां तक जेठूराम नहीं था। वह चलकर काफी दूर आ गये थे। इससे आगे जाने का कोई अर्थ नहीं था। यदि वह जगतसुख गांव तक जाने की बात सोचकर चले होते, तो और बात थी। पर वह तो टहलते हुए इधर आ निकले थे कि सैर की सैर हो जाएगी और यदि जेठूराम आता हुआ दीख गया तो मन की उतावली कम हो जाएगी।
वह रुक गए। अगला मोड़ दूर था और खच्चर-सड़क जहां से घूम कर पहाड़ी-टीले के पीछे गुम हो गई थी, वहां तक जाने का उनका मन नहीं था। वैसे जाने में कोई कठिनाई नहीं थी। सड़क ढलान पर थी। ढलान काफी तीखी थी, वह आराम से, बिना अपने शरीर को थकाए हुए, लुढ़कते-पुढ़कते कुछ ही समय में वहां तक पहुंच सकते थे। पर लौटते हुए कठिनाई होती। जाना जितना सरल था, आना उतना ही कठिन था। वापस लौटते हुए, वह ढलान तीखी ऊंचाई के रूप में उनके सामने होती। चढ़ाई में दुगने से अधिक समय लगता है और थकावट भी काफी हो जाती है। फिर वैसे भी वह काफी दूर तक आ चुके थे।

क्वार्टर तक पहुंचना था। उनके पास टार्च या लालटेन में से कुछ भी नहीं था और अंधेरा छाने से पहले का पहाड़ी धुँधलापन चारों ओर घिर आया था। अंधेरे में इन ऊबड़-खाबड़ खच्चर-सड़कों पर कोई कम ही यात्रा करता है। ऊंचे-नीचे रास्ते और खडों के अतिरिक्त भी आदमियों और जानवरों का डर होता है। जानवरों में कुछ हिंस्र भी होते हैं। उन्होंने लोगों से सुना था कि लकड़बग्घों और भेड़िये के साथ-साथ कभी-कभी शेर की दहाड़ भी रात के सन्नाटे में सुनी जाती है। अब उनकी आंखे बहुत दूर तक नहीं देख पा रही थीं।
उन्होंने अपनी श्रवण-शक्ति को एकाग्र किया। कान लगाकर सुना, शायद कहीं खच्चर के गले में घंटी की धीमी-सी टन् टन् सुनाई पड़ जाए। हो सकता है कि जेठूराम खच्चर के साथ आ रहा हो।
खच्चर की बात सोचते ही उनकी रीढ़ की हड्डी में गुदगुदी-सी हुई और सारे शरीर में सिरहन दौड़ गई। पर खच्चर की घंटी का कोई स्वर नहीं था।

उनका मन बुझ गया। सिरहन सहसा ही निराशा में बदल गई। उन्हें अपनी छाती पर एक बड़ा-सा पत्थर पड़ा हुआ लगा। या फिर हृदय को जैसे किसी ने रस्सी के फंदे में फांस लिया हो और प्रतिक्षण कसता जा रहा है। सांस लेने में उन्हें कठिनाई-सी होने लगी थी। उन्होंने अपना सर झटका। मुट्ठियां कसीं और खोल दीं। वह अपने भारी-भारी पैरों को घसीटते हुए वापस मुड़कर, क्वार्टर की ओर चल पड़े।

वापसी में चढ़ाई ही अधिक थी। ढलान कहीं-कहीं आती थी और वह भी बहुत संक्षिप्त-सी। अंधेरा बहुत तेजी से घिर रहा था, जैसे सड़क के किसी मोड़ पर, पहाड़ी के पीछे छिपा बैठा हो और अब ओट से निकलकर सड़क पर आ गया हो। इन पहाड़ों में किसी का विश्वास नहीं करना चाहिए—उनके मन ने कहा—कम्बख्त अंधेरे का भी नहीं।
और उन्हें लगा कि सारी गलती तो उनकी अपनी थी। उन्हें किसने कहा था कि अपने नौकर की बात का इतना विश्वास कर लें और वह भी पहाड़ी नौकर का, जिसका कोई दीन-ईमान ही नहीं होता। वह तो सड़क पर इतनी दूरी तक दौड़ते चले आए थे, जैसे एकदम निश्चित बात हो। गोकुलचंद जब से यहां आए थे, दिन भर उदास रहते, और शाम को चोर नज़रों से पड़ोसी बाबुओं की पत्नियों को देखा करते थे, तभी जेठूराम ने उनके सामने प्रस्ताव रखा था कि वह यदि उसे छुट्टी दें तो वह अपने गांव जाकर उनके मन बहलाव का प्रबंध कर देगा। गोकुलचंद ने उसे छुट्टी भी दे दी और उसका विश्वास भी कर लिया। कितने भोले हैं वह ! और जेठूराम यह सब क्यों करेगा—केवल अपनी नौकरी पक्की करने के लिए। बस इतनी-सी बात ! नौकरी तो उसकी वैसे भी पक्की थी !

उन्होंने अब सोचना छोड़ दिया था। उसका सारा ध्यान रास्ता खोजने में केन्द्रित हो चुका था। वह नहीं चाहते थे कि कहीं उनकी आंखें या पैर धोखा खा जाएं और वह मुंह के बल औंधे गिरें। वह सड़क के बीचें-बीच होकर चल रहे थे, इसलिए किसी खड्डे में गिरने का भय उनको नहीं था, पर मुंह के बल तो वह सड़क पर भी गिर सकते थे और तब छिले हुए नाक-मुंह को लेकर दफ्तर जाना उन्हें पसन्द नहीं था। क्वार्टर के रास्ते के अंतिम मोड़ के पास वह पहुंच चुके थे। इस मोड़ के बाद वह जंगल के बाहर खुले हिस्से में आ जाते। जंगल के बीच में से गुजरते हुए, बनफशा के फूलों की तेज गंध, अब उतनी तेज नहीं रह गई थी। हवा में मिली हुई गंध, अब भी उनके नथुने अनुभव कर रहे थे और उनके शरीर में एक अकड़ाव-सा पैदा कर रहे थे। देवदार के पेड़ भी कुछ बिरले हो रहे थे।

मोड़ पार कर वह खुले स्थान में आ गए थे। खच्चर-सड़क उन्होंने छोड़ दी थी और क्वार्टरों को सीचने वाले कूल के साथ-साथ आगे बढ़ रहे थे। बाहर मैदान में अब कोई नहीं था। औरतें अपनी चारपाइयां और पीढ़ियां उठाकर घरों के भीतर जा चुकी थीं। बच्चे शायद अब तक खा-पीकर सो भी चुके हों। किसी क्वार्टर में से एक बच्चे के रोने की आवाज का धीमा-धीमा स्वर हवा में कांप रहा था। जाने उन्हें क्यों बच्चे के राने का स्वर भी वैसा ही भयंकर लगा जैसे इस सन्नाटे में कभी-कभी जंगल की ओर से आ जाने वाली हिंस्र पशुओं की आवाजें। जो स्वयं ही अपने आपको कुछ बदले-बदले-से लगे। वह उन लोगों में से नहीं थे, जो इस प्रकार के वातावरण से ही अभिभूत होकर कांप जाते। पर आज उनके भीतर का साहस जैसे चुक गया था। उन्हें लगा कि वह चिड़ियाघर में कैद किसी छटपटाते हुए सिंह के समान हैं, जो अपने सामने खड़े हुए जीवित मांस को पाने के लिए दहाड़े, झपटे पर सींखचों से बार-बार टकराकर परास्त हो जाए और सींखचों से ही डरने लगे। उनके भीतर भी जैसे कुछ बार-बार उग्र होकर बार-बार परास्त हुआ था और निराशा में वह बहुत दुर्बल हो गए थे।
सहसा उनके भीतर कहीं आशा जागी। उन्हें लगा हो सकता है कि जेठूराम घर पर आया बैठा हो। उन्होंने ध्यान से देखा, पर उनके क्वार्टर में प्रकाश नहीं था। वह तो अंधेरे में पूरी तरह लिपटा पड़ा था, जैसे भयंकर सर्दी में कोई रजाई में लिपटा पड़ा हो।

फिर उन्हें हंसी आ गई। अवश्य ही उनके मस्तिष्क को जोर का धक्का लगा है। वह स्वयं ही, अपने हाथों सवेरे अपने क्वार्टर में ताला लगा कर गए थे, और शाम को अभी तक लौटे नहीं थे। फिर उनके घर के भीतर प्रकाश कहां से हो सकता है। जेठूराम आया भी होगा तो बाहर दरवाजे से लगा बैठा होगा। वह भीतर जा ही कैसे सकता है।
उनकी चाल तेज हो गई। उनकी रगों में खून तेजी से चलने लगा था और गर्म हो गया था। लोगों के क्वार्टरों के सामने लगे बगीचों का उनको ध्यान नहीं रहा। वह पौधों को रौंदते, उनसे उलझते, छोटे-से-छोटे रास्ते से अपने क्वार्टर तक पहुंच गए थे। पर जेठूराम वहां नहीं था।
गोकुलचंद अब एकदम निराश हो गए। गलती उन्हीं की थी—उन्होंने स्वयं को समझाया। उन्हें इतनी जल्दी किसी का विश्वास नहीं कर लेना चाहिए और न ही इतनी जल्दी आशा बाँध लेनी चाहिए। वह ताला खोलकर भीतर आए और बिना बाहर का दरवाजा बन्द किए पैर पटकते हुए सीढ़ियां चढ़कर ऊपर चले गए। उपरी कमरे का दरवाजा खोलकर वह निढाल होकर चारपाई पर गिर पड़े।

उनका सारा शरीर ऐंठ रहा था और वह अपनी छाती पर अब भी काफी बोझ का अनुभव कर रहे थे। सहसा उनके मन में एक वहशी इच्छा जागी और वह जोर-जोर से अपनी छाती पीटनी शुरू कर दें और जंगलियों की तरह धाड़े मार-मार कर रोने लगें। या फिर अपना मुंह नोच लें और कपड़े तार-तार कर फेंक दें।
पर उन्होंने कुछ नहीं किया। वह चुपचाप अपने बिस्तर पर पड़े रहे। धीरे-धीरे उन्हें सांस लेने के लिए, अपने शरीर द्वारा किये जाते प्रयास का अनुभव होने लगा। वे विधिवत प्रयत्न करके सांस ले रहे थे। वह सांस लेने और छोड़ने में काफी आवाज कर रहे थे, जो धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। फिर उनके हाथ उठकर छाती पर आ गए और अचेतन रूप से जैसे हृदय को सहलाने लगे और उनके मुंह से हल्के-हल्के हाय-हाय का स्वर निकलने लगा। थोड़ी देर में वह बाकायदा कराह रहे थे।

वीरां को स्यालकोट में छोड़कर उन्होंने गलती की थी—उनके मस्तिष्क में यह बात घूमती आ रही है।—किसी को अकेले नहीं आना चाहिए। वह क्या जानते थे कि यह ऐसी जगह है...उन्हें लगा कि नीचे कोई खटका हुआ था। शायद कोई उनके क्वार्टर का बाहरी दरवाजा खोलकर भीतर आया था। वह दरवाजा भिड़ा कर चले आए थे, उन्होंने अन्दर से चिटकनी नहीं लगाई थी। कौन आया है ? उनके हाथों ने छाती को दबाना बन्द कर दिया और उनका कराहना अपने-आप रुक गया ? पर इस समय इतने अंधेरे में जेठूराम कैसे आएगा ? रात के इस समय पहाड़ों में कोई यात्रा नहीं करता।
पर कोई आया भी है ? उन्हें लगा कि कोई नहीं आया। यह उनका भ्रम था। पर तभी नीचे किसी के बहुत धीरे से बोलने की आवाज का स्वर हुआ। कोई आया जरूर था। पर यह जेठूराम के अलावा कोई और भी हो सकता था। पैरों की आहट हो रही थी। यदि कोई और हुआ तो अच्छी बात नहीं। रात के इस अंधेरे में, बिना आवाज दिए, किसी का इस प्रकार चला आना शुभ बात नहीं हो सकती। इस जंगल में पशु केवल चौपाए ही नहीं हैं। हिंस्र पशु मनुष्य के रूप में भी घूमते हैं। किसी ने सोच लिया होगा, अंग्रेजी सरकार के इस महकमा जंगलात के बड़े बाबू का घर है। खूब रुपया होगा।
गोकुलचंद के हृदय का फंदा फिर कस गया था।
पर सहसा वह उठकर खड़े हो गए। आने वाले की पगध्वनि सीढ़ियों से ऊपर चढ़ रही थी और निश्चित रूप से वह एक से अधिक व्यक्ति थे।

गोकुलचंद ने टटोलकर माचिस ढूंढ़ी और लालटेन जला दी। उन्होंने लौ ऊंची की और कमरे में उजाला भर गया।
तभी दरवाजे के बीचों-बीच जेठूराम आ खड़ा हुआ। उसके ठीक पीछे, उसके साथ सटकर कोई और खड़ा था।
गोकुल की मस्तिष्क की खिंची नसें एकदम ढीली पड़ गईं। किसी दो पैर वाले हिंस्र पशु का भय, जो खून के समान उनके दिमाग को चढ़ गया था, पिघल कर बह गया। और फिर जेठूराम के आ जाने की प्रसन्नता।
‘‘नमस्ते बाबूजी !’’ जेठूराम ने धीरे से कहा।
‘‘आ गये।’ गोकुलचंद के स्वर में किसी प्रिय व्यक्ति को अनपेक्षित रूप से पाने का सहज उल्लास था, ‘‘काफी अंधेरा कर दिया तुमने।’’
‘‘जी ?’’ जेठूराम का स्वर और भी धीमा हो गया, ‘‘मैं जल्दी ही आ गया था, पर बस्ती के बाहर ठहर गया था। जान-बूझकर अंधेरा होने पर आया।’’
फिर वह एक किनारे हो गया। उसके पीछे छिपा व्यक्ति अब गोकुलचंद के सामने था। गोकुलचंद ने धुंधलके में एक नारी मूर्ति को देखा।

‘‘इसे लेकर दिन के उजाले में आना नहीं चाहता था।’’ जेठूराम बोला, ‘‘इसीलिए जान-बूझकर अंधेरा घना होने दिया।’’
गोकुलचंद के शरीर में खून तेजी से दौड़ने लगा था। उन्हें अपने भीतर फूट पड़ने को व्याकुल गर्मी का एहसास हो रहा था। शरीर के पेशियों में अकड़ाव-सा आने लगा था। हृदय पर अब रस्सी का फंदा नहीं था। अब हृदय की धड़कन बहुत तेज हो गई थी।
‘‘भीतर आ जाओ।’’ वह बोले।
जेठूराम एक ओर हट गया। उसने उस स्त्री को भीतर आने का मार्ग दे दिया था।
‘‘अच्छा ! मैं खाने की तैयारी करता हूं।’’ जेठूराम ने कहा और वह कमरे से निकल कर बाहर चला गया।
जाते हुए वह पीछे से दरवाजा भिड़ा गया था। उसके पैरों की आवाज सीढ़ियाँ उतर गयी थीं। फिर गोकुलचंद ने क्वार्टर का बाहरी दरवाज़ा बन्द होने की आवाज सुनी।

उन्हें याद आया कि दोपहर के खाने के बाद से उन्होंने कुछ नहीं खाया और शाम को किसी के घर जाकर खाना खाने की बात ही उन्हें नहीं सूझी थी।
पर शीघ्र ही खाने की बात उनके ध्यान से निकल गई। उन्होंने लालटेन हाथ में लेकर ऊँची की और उस स्त्री पर पूरा प्रकाश डाला। उसकी आयु चौदह-पंद्रह वर्षों से अधिक नहीं थी। कद उसका छोटा था और रंग, गालों पर हल्की-सी लाली लिए हुए, बहुत गोरा था। आंखें न बहुत बड़ी थीं, न छोटी। गोल चेहरे पर छोटी-सी नाक थी। कपड़े उसके काफी गंदे थे और चेहरे पर दूर से चलकर आने की थकान थी।
वह उसे देख रहे थे। उसने आंखें नीची कर रखी थीं। पर उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं था, न उल्लास का, न भय का, न लज्जा का। जैसे उसने हर कृत्य की अनिवार्यता स्वीकार कर ली थी और अब किसी कार्य की अपेक्षा अथवा प्रतिक्रिया उसके चेहरे पर प्रकट होने वाली नहीं थी।   


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