पत्र एवं पत्रकारिता >> प्रतिनाद प्रतिनादनरेन्द्र कोहली
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नरेन्द्र कोहली को लिखे गये पत्रों का संग्रह...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपनी ओर से
अन्य ग्रहों में चेतना संपन्न प्राणी हैं या नहीं, यह जानने के लिए हमारे
वैज्ञानिक प्रायः अंतरिक्ष में अपने संदेश प्रसारित करते रहते हैं कि शायद
कहीं कोई हो, जो उन संदेशों को समझकर उत्तर दे। लेखक के रूप में हम भी
प्रायः अपने मन और अपनी आत्मा को लगातार वायुमंडल में ध्वनित करते रहते
हैं। पर हम जानते हैं कि इस वायुमंडल में पृथ्वी पर चैतन्य प्राणी हैं। हम
जानते हैं कि हमारा लिखा हुआ पढ़ा़ जाएगा, हमारा कहा हुआ सुना जाएगा,
किंतु उसका कब, कहाँ, कैसे और कितना प्रभाव होगा यह हम भी नहीं जानते।
इतना ही जानते हैं कि हमारा जो अनवरत नाद चला आ रहा है, उसका प्रतिनाद भी
होगा। उसी प्रतिनाद की आशा में हम अपना एकतारा बजाए चलते हैं। यह प्रतिनाद
व्यंग्य संग्रह है।
यह प्रतिनाद साक्षात् वार्तालाप और आलोचकों की समीक्षाओं-आलोचनाओं में होता है। (प्रशस्तियों और पुरस्करों में भी होता है); किन्तु उसका एक महत्वपूर्ण रूप हमारी डाक भी है। जो पत्र आते हैं; उनका वर्गीकरण सरल नहीं है। मैंने केवल मोटे तौर पर उनमें से तीन वर्ग उठा लिए हैं। पहला वर्ग अपने से वरिष्ठ साहित्यकारों का है। साहित्यकार पाठकों के लिए आशुतोष शिव है; किन्तु अपने कनिष्ठ साहित्यकारों के लिए वह प्रायः रुद्र ही बना रहता है। किन्तु वरदान तो रुद्र से भी मिलता ही है।
जब कभी किसी वरिष्ठ साहित्यकार का कोई पत्र मुझे मिला है मैंने उसे वरदान-स्वरूप ही ग्रहण किया है—उसमें प्रशंसा हो या अभिशंसा, शाबासी हो या प्रताड़ना—उनकी मुद्रा वरदान की ही लगी है। उनसे कुछ पाया ही जा सकता है—प्रतिनाद के लिए वहाँ अवकाश नहीं है। इसीलिए मैंने वरिष्ठ साहित्यकारों के खंड को ‘वरदान’ नाम दिया है।
समवयस्क साहित्यकार मित्रों के पत्र मैंने इस संकलन में नहीं लिए हैं—वे किसी अन्य अवसर पर लूँगा।
दूसरा वर्ग संपादकों का है। संपादकीय कार्यालय से आने वाला पत्र फरमान की तरह आता है। वह रचनाओं की स्वीकृति हो तब भी फरमान होता है, अस्वीकृत हो, माँग हो, कुछ हो; ऊपर से चाहे विनीत प्रार्थना का रुप हो, किन्तु उसकी आत्मा-फरमान की ही आत्मा होती है। दरबार कृपा करता है तो भी फरमान ही जारी करता है और सूली पर टाँगता है, तो भी !
पाठकों के पत्रों को मैं लेखक के प्रति सम्मान की श्रेणी में रखता हूँ। यह सम्मान प्रायः धनात्मक होता है, पर कभी-कभी ऋणात्मक भी होता है। मैंने इस चुनाव में ऋणात्मक सम्मान की केवल बानगी ही पेश की है।
मेरे एक बहुत घनिष्ठ पाठक हैं—बरेली के डॉ. राजेन्द्र कुमार पंत। मेरी रचनाओं के प्रकाशन-काल के आरंभ से ही उनके पत्र प्राप्त हो रहे हैं; किन्तु आज तक उनके दर्शन नहीं हुए हैं। उनके पत्र आरंभ से ही बड़े रोचक और जानदार रहे हैं, शायद इसलिए मैं उन्हें सँभाल कर रखता चला गया। उन्होंने प्रायः मेरी सारी पुस्तकें पढ़ी हैं और उन पर अपनी राय दी है। दूसरे पाठक के रूप में मैंने सुरेश कांत को लिया है—जो मेरे निकट संपर्क में रहे हैं और हैं। निकट संपर्क के पाठक के रूप में प्रेम जनमेजय को भी लिया जा सकता था पर उन्होंने मुझे पत्र ही नहीं लिखे। सुरेश मेरे छात्र रहे हैं। आज वे नयी पीढ़ी के प्रतिष्ठित व्यंग्यकार हैं। किन्तु, मैंने उन्हें एक जिज्ञासु पाठक से लेखक में परिणत होते देखा है। इसलिए पाठक के रूप में मैंने उनके पत्र लिए हैं।
पत्रों के साथ एक बहुत बड़ा संकट यह है कि पत्र लेखक अनेक बार अपने पत्रों में ऐसी बातें लिखता है, जिन्हें वह सार्वजनिक रूप से प्रकाशित करना नहीं चाहेगा। डा. राजेन्द्र कुमार पंत ने पहले भी अपने पत्रों को प्रकाशित करने से मना किया है। एक पत्र तो उन्होंने बाकायदा प्रकाशन-वर्जित लिखकर भेजा था। किन्तु मैंने पत्र-लेखकों की इस प्रकार की इच्छा का सम्मान नहीं किया है। हाँ ! जिन प्रसंगों से कुछ अन्य लोगों से उसका मनमुटाव हो सकता था, या जिन पंक्तियों में कुछ अन्य साहित्यकार बंधुओं के प्रति उनकी अप्रसन्नता झलकती थी, वे पंक्तियाँ मैंने निकाल दी हैं।
यह प्रतिनाद साक्षात् वार्तालाप और आलोचकों की समीक्षाओं-आलोचनाओं में होता है। (प्रशस्तियों और पुरस्करों में भी होता है); किन्तु उसका एक महत्वपूर्ण रूप हमारी डाक भी है। जो पत्र आते हैं; उनका वर्गीकरण सरल नहीं है। मैंने केवल मोटे तौर पर उनमें से तीन वर्ग उठा लिए हैं। पहला वर्ग अपने से वरिष्ठ साहित्यकारों का है। साहित्यकार पाठकों के लिए आशुतोष शिव है; किन्तु अपने कनिष्ठ साहित्यकारों के लिए वह प्रायः रुद्र ही बना रहता है। किन्तु वरदान तो रुद्र से भी मिलता ही है।
जब कभी किसी वरिष्ठ साहित्यकार का कोई पत्र मुझे मिला है मैंने उसे वरदान-स्वरूप ही ग्रहण किया है—उसमें प्रशंसा हो या अभिशंसा, शाबासी हो या प्रताड़ना—उनकी मुद्रा वरदान की ही लगी है। उनसे कुछ पाया ही जा सकता है—प्रतिनाद के लिए वहाँ अवकाश नहीं है। इसीलिए मैंने वरिष्ठ साहित्यकारों के खंड को ‘वरदान’ नाम दिया है।
समवयस्क साहित्यकार मित्रों के पत्र मैंने इस संकलन में नहीं लिए हैं—वे किसी अन्य अवसर पर लूँगा।
दूसरा वर्ग संपादकों का है। संपादकीय कार्यालय से आने वाला पत्र फरमान की तरह आता है। वह रचनाओं की स्वीकृति हो तब भी फरमान होता है, अस्वीकृत हो, माँग हो, कुछ हो; ऊपर से चाहे विनीत प्रार्थना का रुप हो, किन्तु उसकी आत्मा-फरमान की ही आत्मा होती है। दरबार कृपा करता है तो भी फरमान ही जारी करता है और सूली पर टाँगता है, तो भी !
पाठकों के पत्रों को मैं लेखक के प्रति सम्मान की श्रेणी में रखता हूँ। यह सम्मान प्रायः धनात्मक होता है, पर कभी-कभी ऋणात्मक भी होता है। मैंने इस चुनाव में ऋणात्मक सम्मान की केवल बानगी ही पेश की है।
मेरे एक बहुत घनिष्ठ पाठक हैं—बरेली के डॉ. राजेन्द्र कुमार पंत। मेरी रचनाओं के प्रकाशन-काल के आरंभ से ही उनके पत्र प्राप्त हो रहे हैं; किन्तु आज तक उनके दर्शन नहीं हुए हैं। उनके पत्र आरंभ से ही बड़े रोचक और जानदार रहे हैं, शायद इसलिए मैं उन्हें सँभाल कर रखता चला गया। उन्होंने प्रायः मेरी सारी पुस्तकें पढ़ी हैं और उन पर अपनी राय दी है। दूसरे पाठक के रूप में मैंने सुरेश कांत को लिया है—जो मेरे निकट संपर्क में रहे हैं और हैं। निकट संपर्क के पाठक के रूप में प्रेम जनमेजय को भी लिया जा सकता था पर उन्होंने मुझे पत्र ही नहीं लिखे। सुरेश मेरे छात्र रहे हैं। आज वे नयी पीढ़ी के प्रतिष्ठित व्यंग्यकार हैं। किन्तु, मैंने उन्हें एक जिज्ञासु पाठक से लेखक में परिणत होते देखा है। इसलिए पाठक के रूप में मैंने उनके पत्र लिए हैं।
पत्रों के साथ एक बहुत बड़ा संकट यह है कि पत्र लेखक अनेक बार अपने पत्रों में ऐसी बातें लिखता है, जिन्हें वह सार्वजनिक रूप से प्रकाशित करना नहीं चाहेगा। डा. राजेन्द्र कुमार पंत ने पहले भी अपने पत्रों को प्रकाशित करने से मना किया है। एक पत्र तो उन्होंने बाकायदा प्रकाशन-वर्जित लिखकर भेजा था। किन्तु मैंने पत्र-लेखकों की इस प्रकार की इच्छा का सम्मान नहीं किया है। हाँ ! जिन प्रसंगों से कुछ अन्य लोगों से उसका मनमुटाव हो सकता था, या जिन पंक्तियों में कुछ अन्य साहित्यकार बंधुओं के प्रति उनकी अप्रसन्नता झलकती थी, वे पंक्तियाँ मैंने निकाल दी हैं।
नरेन्द्र कोहली
175, वैशाली
दिल्ली—110034
दिल्ली—110034
12-3-72
प्रिय कोहली जी,
दिल्ली में आपने ‘पाँच एब्सर्ड उपन्यास’ दिया था। मैंने इस पुस्तक को पढ़ लिया है। इन तथाकथित ‘अवश्रद्ध’ कहानियों को पढ़कर बड़ी प्रसन्नता हुई और आपको बधाई देने की इच्छा हुई है।
अत्यन्त सहज भाव से आपने आधुनिक समाज की विसंगतियों को उजागर किया है। इतना सहज भाव और ऐसी भेदक दृष्टि क्वाचित् कदाचित् ही देखने को मिलती है।
आपकी उपमाएँ भी बड़ी बेधक हैं। यद्यपि मुझे लगा है कि कभी-कभी आपने अनावश्यक रूप से उपमानों का प्रयोग किया है पर जहाँ अतिरेक है वहाँ भी कोई-न-कोई मर्मभेदी व्यंग्य मिल ही जाता है। फिर भी व्यंग्य के लिए थोड़ा भी मोह खटकता ही है, भले ही वह उपमान के माध्यम से गुणीभूत होकर आया हो।
आपकी ये रचनाएँ उच्च कोटि का व्यंग्य प्रस्तुत करती हैं। मेरी हार्दिक बाधाई स्वीकार करें।
उस दिन भीड़भाड़ में आपसे अधिक बातचीत करने का अवसर न मिल सका इसका अफसोस है। पर प्रसन्नता भी है कि अब फिर कभी मिलने का अवसर मिलेगा तो आपके स्रष्टा रूप से अधिक परिचित रहूँगा।
दिल्ली में आपने ‘पाँच एब्सर्ड उपन्यास’ दिया था। मैंने इस पुस्तक को पढ़ लिया है। इन तथाकथित ‘अवश्रद्ध’ कहानियों को पढ़कर बड़ी प्रसन्नता हुई और आपको बधाई देने की इच्छा हुई है।
अत्यन्त सहज भाव से आपने आधुनिक समाज की विसंगतियों को उजागर किया है। इतना सहज भाव और ऐसी भेदक दृष्टि क्वाचित् कदाचित् ही देखने को मिलती है।
आपकी उपमाएँ भी बड़ी बेधक हैं। यद्यपि मुझे लगा है कि कभी-कभी आपने अनावश्यक रूप से उपमानों का प्रयोग किया है पर जहाँ अतिरेक है वहाँ भी कोई-न-कोई मर्मभेदी व्यंग्य मिल ही जाता है। फिर भी व्यंग्य के लिए थोड़ा भी मोह खटकता ही है, भले ही वह उपमान के माध्यम से गुणीभूत होकर आया हो।
आपकी ये रचनाएँ उच्च कोटि का व्यंग्य प्रस्तुत करती हैं। मेरी हार्दिक बाधाई स्वीकार करें।
उस दिन भीड़भाड़ में आपसे अधिक बातचीत करने का अवसर न मिल सका इसका अफसोस है। पर प्रसन्नता भी है कि अब फिर कभी मिलने का अवसर मिलेगा तो आपके स्रष्टा रूप से अधिक परिचित रहूँगा।
आपका,
हजारी प्रसाद द्विवेदी
हजारी प्रसाद द्विवेदी
7-3-73
प्रिय भाई कोहली जी,
मैंने आपका ‘आतंक’ नामक उपन्यास आते ही पढ़ लिया था। लिखने की सोच रहा था पर नाना जंजालों में फँसा हुआ लिख नहीं पाया। ‘आतंक’ मुझे बहुत अच्छा लगा है। वर्तमान समाज की विषम परिस्थितियों में मनुष्य किस प्रकार बेबसी से लाचार है, इसका बड़ा ही जीवन्त चित्रण आपने किया है। इसमें एक चरित्र ऐसा शक्तिशाली है जो परिस्थिति के दबाव को साहसपूर्वक अस्वीकार सकता है। मुझे इसका नाम इस समय याद नहीं आ रहा है। वह राजपूत पुलिस अफसर है। मैं चाहता था कि कुछ और चरित्र भी और अधिक दबंग होते। यथार्थ तो शायद यही है। प्रायः हर आदमी आतंक से जर्जर हो उठा है लेकिन एकाध चरित्र ऐसे शक्तिशाली अवश्य होने चाहिए जिनको देखकर कमजोर भले आदमियों को साहस और शक्ति मिले। इस उपन्यास में आपने बड़े शहर के आतंकमय जीवन को बहुत अच्छी तरह चित्रित किया है। इसके लिए मैं आपको हार्दिक बधाई देता हूँ। हर क्षेत्र में और हर तबके में दृढ़ तथा इच्छा-शक्ति-सम्पन्न कुछ मनुष्य अब भी अवश्य मिलते हैं उनमें से एक को आपने ढूँढ़ निकाला है। मेरा अनुमान है कि और भी मिलेंगे। आपकी सफलता के लिए फिर एक बार बधाई देता हूँ। आशा करता हूँ स्वस्थ और सानन्द होंगे।
मैंने आपका ‘आतंक’ नामक उपन्यास आते ही पढ़ लिया था। लिखने की सोच रहा था पर नाना जंजालों में फँसा हुआ लिख नहीं पाया। ‘आतंक’ मुझे बहुत अच्छा लगा है। वर्तमान समाज की विषम परिस्थितियों में मनुष्य किस प्रकार बेबसी से लाचार है, इसका बड़ा ही जीवन्त चित्रण आपने किया है। इसमें एक चरित्र ऐसा शक्तिशाली है जो परिस्थिति के दबाव को साहसपूर्वक अस्वीकार सकता है। मुझे इसका नाम इस समय याद नहीं आ रहा है। वह राजपूत पुलिस अफसर है। मैं चाहता था कि कुछ और चरित्र भी और अधिक दबंग होते। यथार्थ तो शायद यही है। प्रायः हर आदमी आतंक से जर्जर हो उठा है लेकिन एकाध चरित्र ऐसे शक्तिशाली अवश्य होने चाहिए जिनको देखकर कमजोर भले आदमियों को साहस और शक्ति मिले। इस उपन्यास में आपने बड़े शहर के आतंकमय जीवन को बहुत अच्छी तरह चित्रित किया है। इसके लिए मैं आपको हार्दिक बधाई देता हूँ। हर क्षेत्र में और हर तबके में दृढ़ तथा इच्छा-शक्ति-सम्पन्न कुछ मनुष्य अब भी अवश्य मिलते हैं उनमें से एक को आपने ढूँढ़ निकाला है। मेरा अनुमान है कि और भी मिलेंगे। आपकी सफलता के लिए फिर एक बार बधाई देता हूँ। आशा करता हूँ स्वस्थ और सानन्द होंगे।
आपका,
हजारी प्रसाद द्विवेदी
हजारी प्रसाद द्विवेदी
25-1-74
प्रिय नरेन्द्र जी, आपने साहित्य अकादमी के पुरस्कार के लिए जो बधाई का
पत्र भेजा है। उसके लिए बहुत अनुगृहीत हूँ। उसमें प्रसन्नता होने की बात
का प्रमाण तो मिल ही जाता है कि ग्रह प्रसन्न हैं। मेरे ग्रहों में लड़ाई
है। एक कुछ ऐसा काम कर जाता है कि कुछ प्रसन्नता हो और दूसरा कुछ ऐसा कर
देता है कि उतना ही या उससे ज्यादा कष्ट हो। यह लड़ाई बराबर चलती रहती है।
जिस दिन साहित्य अकादमी की पुरस्कार की घोषणा हुई उसी दिन मेरे 96 वर्षीय
पिताजी परलोकवासी हुए सो,
‘है पतझर बसन्त दुहूँ, घन आनन्द एक ही साथ हमारे।’’
आशा है कि स्वस्थ एवं और सानन्द हैं।
‘है पतझर बसन्त दुहूँ, घन आनन्द एक ही साथ हमारे।’’
आशा है कि स्वस्थ एवं और सानन्द हैं।
आपका
हजारी प्रसाद द्विवेदी
हजारी प्रसाद द्विवेदी
3-9-74
प्रिय कोहली जी,
‘साथ सहा गया दुख’ नामक उपन्यास मिल गया है। मैंने उसे पढ़ भी लिया है। आपकी कृपा के लिए अत्यन्त अनुगृहीत हूँ। पहले मैंने समझा था कि यह भी कुछ व्यंग्य जैसा होगा। पहले-पहले आपने मुझे अवश्रद्ध (एब्सर्ड) कहानियाँ ही भेजी थीं। उससे मेरे मन में यह धारणा बनी थी कि आप तीक्ष्ण व्यंग्य विनोद के बहुत सफल लेखक हैं। परन्तु यह उपन्यास पढ़ने के बाद मुझे इस बात से बहुत प्रसन्नता हुई कि आप व्यंग्य और गंभीर दोनों प्रकार की रचनाओं के सिद्धहस्त लेखक हैं। इस उपन्यास में ‘सुमन और अमित’ के माध्यम से एक अत्यन्त परिचित दाम्पत्य समस्या को उपस्थित किया है। आपके मनोवैज्ञानिक विश्लेषण बहुत सटीक हुए हैं। आपने जीवन की उस गहराई में प्रवेश किया है जिसकी आजकल प्रायः उपेक्षा होती है। दुःख के भीतर से किस प्रकार की उलझनें तिरोहित हो जाती हैं और अन्तरतर का मिलन-विधायक देवता जाग उठता है, इस बात को आपने अत्यन्त सहज और सुन्दर शैली में उपस्थित किया है। पुन्नी का जन्म और मृत्यु दोनों ही उस सत्य के साक्षी हैं जो दुःख के भीतर से प्रेम के उज्जवल स्वरूप को निखार देते हैं। मैं इस उपन्यास का नाम ‘सुख दुःखात्मको रसः’ सुझाता हूँ। यह नाट्यदर्पणकार की उक्ति है। आपने इस उपन्यास से उस बात को उजागर कर दिया है जिसकी स्थापना नाट्यदर्पणकार करना चाहते थे। मेरी हर्दिक बधाई स्वीकार करें।
आशा है स्वस्थ सानन्द हैं।
‘साथ सहा गया दुख’ नामक उपन्यास मिल गया है। मैंने उसे पढ़ भी लिया है। आपकी कृपा के लिए अत्यन्त अनुगृहीत हूँ। पहले मैंने समझा था कि यह भी कुछ व्यंग्य जैसा होगा। पहले-पहले आपने मुझे अवश्रद्ध (एब्सर्ड) कहानियाँ ही भेजी थीं। उससे मेरे मन में यह धारणा बनी थी कि आप तीक्ष्ण व्यंग्य विनोद के बहुत सफल लेखक हैं। परन्तु यह उपन्यास पढ़ने के बाद मुझे इस बात से बहुत प्रसन्नता हुई कि आप व्यंग्य और गंभीर दोनों प्रकार की रचनाओं के सिद्धहस्त लेखक हैं। इस उपन्यास में ‘सुमन और अमित’ के माध्यम से एक अत्यन्त परिचित दाम्पत्य समस्या को उपस्थित किया है। आपके मनोवैज्ञानिक विश्लेषण बहुत सटीक हुए हैं। आपने जीवन की उस गहराई में प्रवेश किया है जिसकी आजकल प्रायः उपेक्षा होती है। दुःख के भीतर से किस प्रकार की उलझनें तिरोहित हो जाती हैं और अन्तरतर का मिलन-विधायक देवता जाग उठता है, इस बात को आपने अत्यन्त सहज और सुन्दर शैली में उपस्थित किया है। पुन्नी का जन्म और मृत्यु दोनों ही उस सत्य के साक्षी हैं जो दुःख के भीतर से प्रेम के उज्जवल स्वरूप को निखार देते हैं। मैं इस उपन्यास का नाम ‘सुख दुःखात्मको रसः’ सुझाता हूँ। यह नाट्यदर्पणकार की उक्ति है। आपने इस उपन्यास से उस बात को उजागर कर दिया है जिसकी स्थापना नाट्यदर्पणकार करना चाहते थे। मेरी हर्दिक बधाई स्वीकार करें।
आशा है स्वस्थ सानन्द हैं।
आपका
हजारी प्रसाद द्विवेदी
हजारी प्रसाद द्विवेदी
13-2-76
प्रिय कोहली जी, आपका कृपा पत्र मिला। इधर आवश्यक कार्यों में अस्त-व्यस्त
रहने के कारण पुस्तक नहीं पढ़ सका। दो-चार दिनों में पुस्तक पढ़कर अपनी
प्रतिक्रया भेज दूँगा।
आशा है स्वस्थ और प्रसन्न हैं।
आशा है स्वस्थ और प्रसन्न हैं।
भवदीय
हजारी प्रसाद द्विवेदी
हजारी प्रसाद द्विवेदी
3-11-76
प्रियवर कोहली जी,
‘अवसर’ मिल गया। मैंने पढ़ भी लिया है। रामकथा को आपने एकदम नयी दृष्टि से देखा है। ‘अवसर’ में राम के चरित्र को आपने नयी मानवीय दृष्टि से चित्रित किया है। इसमें सीता जी का जो चरित्र आपने अंकित किया है, वह बहुत ही आकर्षक है। अब तक सीता का चरित्र इस प्रकार तेजोदृप्त रूप में नहीं चित्रित किया गया था। साथ ही सुमित्रा का चरित्र आपने बहुत तेजस्वी नारी के रूप में उरेहा है। जो लोग परंपरा से राम और भरत के विशुद्ध अविशंकित भ्रातृ-भाव को, जिसे तुलसीदास जी ने अपनी चरम सीमा पर पहुँचा दिया है मन में स्थान दे रखा है, वे इससे थोड़ा चौंकेंगे। उन्हें यह बात शायद नहीं पसन्द आयेगी कि रामचन्द्र ने सिर्फ भरत और कैकेयी की गतिविधियों की जानकारी के लिए ही चित्रकूट में कुछ काल तक प्रतीक्षा की थी। क्योंकि वे राम को ऐसी शंकाओं से ग्रस्त नहीं देखना चाहेंगे। लेकिन मानव रूप में राम का सावधान रहना असंगत नहीं होना चाहिए।
कुछ दिन पहले मैं कलकत्ते में था। वहाँ श्री माधव प्रसाद जी गोयनका ने मुझसे एक प्रश्न पूछा था। प्रश्न यह था कि भरत और शत्रुघ्न को राम के राज्याभिषेक के अवसर पर ननिहाल से क्यों नहीं बुला लिया गया था। मैंने जैसा-तैसा कुछ उत्तर तो दिया था लेकिन उससे उनको संतोष नहीं हुआ और सच बात तो यह है कि मुझे भी संतोष नहीं हुआ। अब सोचता हूँ कि गोयनका जी को आपकी पुस्तक पढ़ने के लिए कह दूँ। इस पुस्तक से मानवीय धरातल पर इस प्रश्न का उत्तर मिल जाता है।
कैकेयी का चरित्र भी इसमें इस प्रकार अंकित किया गया है कि उसके भीतर की प्रतिहिंसा का स्वरूप और उसकी मानसिक क्रिया-प्रतिक्रियाओं का रूप संगत हो जाता है। दशरथ का चरित्र अवश्य ही ऐसा है जिसे परंपरा प्रेमी स्वीकार करने में थोड़ा हिचकिचाएँगे। वे लोग यह भी नहीं स्वीकार करना चाहेंगे कि कौशल्या और उनके पुत्र राम, दशरथ के द्वारा सदा उपेक्षित रहे। लेकिन आपने अन्तःपुर के ईर्ष्या द्वेष से जर्जरित अवस्थाओं का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है।
इस बात की प्रसन्नता है कि यथा-सम्भव रामायण कथा की मूल घटनाओं को परिवर्तित किये बिना आपने उसकी एक मनोग्राही व्याख्या की है। ‘यथा-सम्भव’ इसलिए कह रहा हूँ कि लक्ष्मण का उस समय तक विवाह नहीं हुआ था यह बात कदाचित् लोगों के गले से न उतरे। हिन्दी साहित्य में तो उर्मिला को लेकर जितनी चर्चा हुई हैं वह इस कल्पना से एकदम व्यर्थ हो जाती हैं। इधर माण्डवी पर भी कई पुस्तकें लिखी गयी हैं। रवीन्द्रनाथ ने भी काव्य की उपेक्षिताओं में उर्मिला की चर्चा की है। इस प्रकार लक्ष्मण के अविवाहित रहने वाली बात कदाचित् आसानी से नहीं स्वीकार की जायेगी। लेकिन राम कथा के इतने रूप हैं कि इसे भी ‘कल्पभेद’ से ‘हरिकथा’ की अनेकरूपता का ही संधान मिलेगा। ‘कल्प’ वस्तुतः रचयिता की परिकल्पना का ही नाम है। रचयिता यहाँ अवश्य ही आदिसृष्टा है।
सबसे ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसमें राम का वनवास ‘अवसर’ के रूप में ही चित्रित किया गया है। राम ऐसा ही अवसर खोजते थे और वह अवसर उन्हें कैकेयी के प्रकोप के द्वारा अनायास मिल गया। पुस्तक का नाम ‘अवसर’ देकर आपने इसी तथ्य को ध्यातव्य बना दिया है।
सीता का जो नया तेजस्वी रूप आपने उभारा है उसकी अन्तिम परिणति किस रूप में होने जा रही है, इसकी बड़ी प्रतीक्षा रही। पुस्तक आपके अध्ययन, मनन और चिन्तन को उजागर करती है। मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
‘अवसर’ मिल गया। मैंने पढ़ भी लिया है। रामकथा को आपने एकदम नयी दृष्टि से देखा है। ‘अवसर’ में राम के चरित्र को आपने नयी मानवीय दृष्टि से चित्रित किया है। इसमें सीता जी का जो चरित्र आपने अंकित किया है, वह बहुत ही आकर्षक है। अब तक सीता का चरित्र इस प्रकार तेजोदृप्त रूप में नहीं चित्रित किया गया था। साथ ही सुमित्रा का चरित्र आपने बहुत तेजस्वी नारी के रूप में उरेहा है। जो लोग परंपरा से राम और भरत के विशुद्ध अविशंकित भ्रातृ-भाव को, जिसे तुलसीदास जी ने अपनी चरम सीमा पर पहुँचा दिया है मन में स्थान दे रखा है, वे इससे थोड़ा चौंकेंगे। उन्हें यह बात शायद नहीं पसन्द आयेगी कि रामचन्द्र ने सिर्फ भरत और कैकेयी की गतिविधियों की जानकारी के लिए ही चित्रकूट में कुछ काल तक प्रतीक्षा की थी। क्योंकि वे राम को ऐसी शंकाओं से ग्रस्त नहीं देखना चाहेंगे। लेकिन मानव रूप में राम का सावधान रहना असंगत नहीं होना चाहिए।
कुछ दिन पहले मैं कलकत्ते में था। वहाँ श्री माधव प्रसाद जी गोयनका ने मुझसे एक प्रश्न पूछा था। प्रश्न यह था कि भरत और शत्रुघ्न को राम के राज्याभिषेक के अवसर पर ननिहाल से क्यों नहीं बुला लिया गया था। मैंने जैसा-तैसा कुछ उत्तर तो दिया था लेकिन उससे उनको संतोष नहीं हुआ और सच बात तो यह है कि मुझे भी संतोष नहीं हुआ। अब सोचता हूँ कि गोयनका जी को आपकी पुस्तक पढ़ने के लिए कह दूँ। इस पुस्तक से मानवीय धरातल पर इस प्रश्न का उत्तर मिल जाता है।
कैकेयी का चरित्र भी इसमें इस प्रकार अंकित किया गया है कि उसके भीतर की प्रतिहिंसा का स्वरूप और उसकी मानसिक क्रिया-प्रतिक्रियाओं का रूप संगत हो जाता है। दशरथ का चरित्र अवश्य ही ऐसा है जिसे परंपरा प्रेमी स्वीकार करने में थोड़ा हिचकिचाएँगे। वे लोग यह भी नहीं स्वीकार करना चाहेंगे कि कौशल्या और उनके पुत्र राम, दशरथ के द्वारा सदा उपेक्षित रहे। लेकिन आपने अन्तःपुर के ईर्ष्या द्वेष से जर्जरित अवस्थाओं का मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है।
इस बात की प्रसन्नता है कि यथा-सम्भव रामायण कथा की मूल घटनाओं को परिवर्तित किये बिना आपने उसकी एक मनोग्राही व्याख्या की है। ‘यथा-सम्भव’ इसलिए कह रहा हूँ कि लक्ष्मण का उस समय तक विवाह नहीं हुआ था यह बात कदाचित् लोगों के गले से न उतरे। हिन्दी साहित्य में तो उर्मिला को लेकर जितनी चर्चा हुई हैं वह इस कल्पना से एकदम व्यर्थ हो जाती हैं। इधर माण्डवी पर भी कई पुस्तकें लिखी गयी हैं। रवीन्द्रनाथ ने भी काव्य की उपेक्षिताओं में उर्मिला की चर्चा की है। इस प्रकार लक्ष्मण के अविवाहित रहने वाली बात कदाचित् आसानी से नहीं स्वीकार की जायेगी। लेकिन राम कथा के इतने रूप हैं कि इसे भी ‘कल्पभेद’ से ‘हरिकथा’ की अनेकरूपता का ही संधान मिलेगा। ‘कल्प’ वस्तुतः रचयिता की परिकल्पना का ही नाम है। रचयिता यहाँ अवश्य ही आदिसृष्टा है।
सबसे ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसमें राम का वनवास ‘अवसर’ के रूप में ही चित्रित किया गया है। राम ऐसा ही अवसर खोजते थे और वह अवसर उन्हें कैकेयी के प्रकोप के द्वारा अनायास मिल गया। पुस्तक का नाम ‘अवसर’ देकर आपने इसी तथ्य को ध्यातव्य बना दिया है।
सीता का जो नया तेजस्वी रूप आपने उभारा है उसकी अन्तिम परिणति किस रूप में होने जा रही है, इसकी बड़ी प्रतीक्षा रही। पुस्तक आपके अध्ययन, मनन और चिन्तन को उजागर करती है। मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
भवदीय
हजारी प्रसाद द्विवेदी
हजारी प्रसाद द्विवेदी
12-11-76
प्रिय भाई कोहलीजी,
आपका 8 नवम्बर का कृपापत्र मिला। मैंने लक्ष्मण के अविवाहित चित्रित करने पर कोई आपत्ती नहीं की है। आपका ध्यान सिर्फ इस बात की तरफ आकृष्ट किया था कि हिन्दी में उर्मिला और माण्डवी को लेकर अनेक काव्यादि लिखे गये हैं। वे इस मान्यता से व्यर्थ हो जायेंगे। तर्क सम्मत तो आपका ही मत लग रहा है। इतनी सी बात है।
‘दीक्षा’ पर मैंने आपको एक पत्र लिखा था और मेरा विश्वास था कि वह आपको मिल गया होगा। लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ी है। मैं उस पत्र को खोज रहा हूँ। मिलने पर फिर भेज दूँगा।
आशा है स्वस्थ और सानन्द हैं।
आपका 8 नवम्बर का कृपापत्र मिला। मैंने लक्ष्मण के अविवाहित चित्रित करने पर कोई आपत्ती नहीं की है। आपका ध्यान सिर्फ इस बात की तरफ आकृष्ट किया था कि हिन्दी में उर्मिला और माण्डवी को लेकर अनेक काव्यादि लिखे गये हैं। वे इस मान्यता से व्यर्थ हो जायेंगे। तर्क सम्मत तो आपका ही मत लग रहा है। इतनी सी बात है।
‘दीक्षा’ पर मैंने आपको एक पत्र लिखा था और मेरा विश्वास था कि वह आपको मिल गया होगा। लगता है कि कहीं कुछ गड़बड़ी है। मैं उस पत्र को खोज रहा हूँ। मिलने पर फिर भेज दूँगा।
आशा है स्वस्थ और सानन्द हैं।
आपका
हजारी प्रसाद द्विवेदी
हजारी प्रसाद द्विवेदी
29-11-77
प्रिय कोहली जी, आपका कृपापत्र यथासमय मिल गया था। लेकिन उत्तर देने में
विलम्ब हुआ। कुछ ऐसे पारिवारिक झंझट आ गये जिससे बहुत से पत्रों का उत्तर
नहीं दे पाया। मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि ‘अनामदास का
पोथा’ आपको अच्छा लगा। अनामदास कोई बुरे आदमी नहीं हैं। लिखते
भी
कुछ काम की ही बातें हैं। लेकिन जरा पुरानेपन की बू उनके लेखों में मिल ही
जाती है। वैसे आपने पसन्द किया तो अच्छा ही होगा; क्योंकि उन्होंने बताया
है कि—आ परितोषात् विदुषां न साधु मन्ये प्रयोग विज्ञानम्।
आपके नाम के साथ जो ‘कोहली’ जुड़ा हुआ है वह भरतपुत्र कोहल के साथ संबद्ध है कि नहीं, यह मैं नहीं कह सकता। भरत के नाट्य शास्त्र में ऐसे बहुत से शब्द आये हैं जो लोक-भाषाओं में प्रचलित थे और फिर संस्कृत में ले लिये गये हैं। बहुत-सी वृत्तियों के साथ प्रदेश विशेष का नाम जोड़ा गया है। तत्काल प्रचलित विभिन्न प्रदेशों की नाटकीय विशेषताओं को भी उसमें स्वीकार किया गया है। इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर कुछ विद्वानों ने अनुमान किया है कि ‘कोहल’ वस्तुतः ‘कोसल’ का प्राकृत रूप है जो फिर से संस्कृत में ग्रहण कर लिया गया है। और बाद में कोसल देश की शैली के साथ ‘कोहल’ नामक भरतपुत्र का नाम जोड़ दिया गया। संस्कृत में अन्यत्र भी ऐसा बहुत हुआ है। इसलिए यह संभावना बनी हुई है कि ‘कोहली’ शब्द ‘कोसल’ से आयी हुई किसी जाति (ट्राइब’ विशेष का वाचक हो। परन्तु इन बातों को केवल अटकल के हिसाब से नहीं ग्रहण करना चाहिए। जब तक कोहली लोगों की पुरानी परंपरा का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक यह अंदाजि़या बात ही कही जायेगी। भरत-पुत्र कोहल से इस शब्द का इस अर्थ में ही संबंध हो सकता है कि वे भी कोसल देश की शैली के प्रतीक हैं और यह जाति भी कोसल से आयी हुई जाति ही है। पंजाब की अनेक जातिवाचक उपाधियाँ देश-विदेश से संबद्ध हैं। इससे अधिक कुछ कहने लायक स्थिति में नहीं हूँ।
आशा है, आप स्वस्थ एवं सानन्द होंगे।
आपके नाम के साथ जो ‘कोहली’ जुड़ा हुआ है वह भरतपुत्र कोहल के साथ संबद्ध है कि नहीं, यह मैं नहीं कह सकता। भरत के नाट्य शास्त्र में ऐसे बहुत से शब्द आये हैं जो लोक-भाषाओं में प्रचलित थे और फिर संस्कृत में ले लिये गये हैं। बहुत-सी वृत्तियों के साथ प्रदेश विशेष का नाम जोड़ा गया है। तत्काल प्रचलित विभिन्न प्रदेशों की नाटकीय विशेषताओं को भी उसमें स्वीकार किया गया है। इन दोनों बातों को ध्यान में रखकर कुछ विद्वानों ने अनुमान किया है कि ‘कोहल’ वस्तुतः ‘कोसल’ का प्राकृत रूप है जो फिर से संस्कृत में ग्रहण कर लिया गया है। और बाद में कोसल देश की शैली के साथ ‘कोहल’ नामक भरतपुत्र का नाम जोड़ दिया गया। संस्कृत में अन्यत्र भी ऐसा बहुत हुआ है। इसलिए यह संभावना बनी हुई है कि ‘कोहली’ शब्द ‘कोसल’ से आयी हुई किसी जाति (ट्राइब’ विशेष का वाचक हो। परन्तु इन बातों को केवल अटकल के हिसाब से नहीं ग्रहण करना चाहिए। जब तक कोहली लोगों की पुरानी परंपरा का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक यह अंदाजि़या बात ही कही जायेगी। भरत-पुत्र कोहल से इस शब्द का इस अर्थ में ही संबंध हो सकता है कि वे भी कोसल देश की शैली के प्रतीक हैं और यह जाति भी कोसल से आयी हुई जाति ही है। पंजाब की अनेक जातिवाचक उपाधियाँ देश-विदेश से संबद्ध हैं। इससे अधिक कुछ कहने लायक स्थिति में नहीं हूँ।
आशा है, आप स्वस्थ एवं सानन्द होंगे।
आपका
हजारी प्रसाद द्विवेदी
हजारी प्रसाद द्विवेदी
20-11-78
प्रिय भाई कोहली जी,
नमस्कार।
पत्र मिल गया था। कुछ अस्वस्थता और उसके बाद कुछ बेमतलब के काम, इन्हीं से आक्रान्त होकर पत्र नहीं लिख सका। ‘संघर्ष की ओर’ प्रायः पढ़ गया हूँ। पर बीच में एक साहित्य रसिक उसे उठा ले गये। लौटा देंगे, यह सोचकर अभी तक रुका रहा। पर वे अभी कहीं अन्यत्र गये हैं। डर है कि पुस्तक लौटाने के भय से देश ही न छोड़ दें।
जिनता पढ़ा है उससे बहुत प्रसन्न हूँ। आपकी नयी व्याख्याएँ अच्छी लगती हैं। हालाँकि सब समय उनसे सहमत नहीं होता। जरा और रुक कर फिर लिखूँगा। आपकी सशक्त लेखनी का प्रशंसक हूँ।
आशा है सानंद हैं।
नमस्कार।
पत्र मिल गया था। कुछ अस्वस्थता और उसके बाद कुछ बेमतलब के काम, इन्हीं से आक्रान्त होकर पत्र नहीं लिख सका। ‘संघर्ष की ओर’ प्रायः पढ़ गया हूँ। पर बीच में एक साहित्य रसिक उसे उठा ले गये। लौटा देंगे, यह सोचकर अभी तक रुका रहा। पर वे अभी कहीं अन्यत्र गये हैं। डर है कि पुस्तक लौटाने के भय से देश ही न छोड़ दें।
जिनता पढ़ा है उससे बहुत प्रसन्न हूँ। आपकी नयी व्याख्याएँ अच्छी लगती हैं। हालाँकि सब समय उनसे सहमत नहीं होता। जरा और रुक कर फिर लिखूँगा। आपकी सशक्त लेखनी का प्रशंसक हूँ।
आशा है सानंद हैं।
आपका
हजारी प्रसाद द्विवेदी
हजारी प्रसाद द्विवेदी
प्रिय कोहली जी,
मैंने आपका दीक्षा उपन्यास पढ़ डाला, मैंने अपने कुछ मित्रों से उसका जिक्र भी किया। रामकथा के आदि वाले अंश का कुछ भाग आपने बड़ी कुशलता के साथ प्रस्तुत किया है, उसमें औपन्यासिकता है, कहानी की पकड़ है। वैसे एक जानी-मानी कहानी को एक दूसरी बार कहने में कहानी के कुतूहल तत्व पर आघात होता है, फिर भी उसका जो बौद्धिक तत्व है वह तो साहित्य की निधि है ही।
उपन्यास स्वभावतः सैद्धांतिक एवं बौद्धिक स्थापनाओं से बोझिल हो गया है, साधारण पाठक के लिए, यह दोष है। व्यक्तिगत रूप से मैं उपन्यास को दार्शनिक या बौद्धिक स्थापनाओं से मुक्त भले ही न मानूँ, लेकिन इन स्थापनाओं की प्रमुखता को मैं कला कृति की कमज़ोरी समझता हूँ। रामायण जानी-मानी कहानी होने के कारण कथा... का गौण हो जाता है—स्थापना और आरोपण का तत्व प्रमुख हो जाता है।
मैंने आप में वह प्रतिभा देखी है जो आपको हिन्दी के अग्रणी साहित्यकारों की पंक्ति में ला देती है और इसलिए मैंने आपको यह सब लिखा है।
मैं 19 या 20 को एक सप्ताह के लिए दिल्ली जा रहा हूँ। संपर्क स्थापित करने का प्रयत्न करूँगा। वैसे आप अगर 20 फरवरी या दो एक दिन के बाद राजकमल प्रकाशन में फोन कर लें तो अच्छा हो। दिल्ली में मेरा पुत्र वसन्त विहार में है—उसका फोन नम्बर 670122 है, वहाँ पूछ लीजिएगा।
आशा है आप सानन्द एवं स्वस्थ होंगे।
मैंने आपका दीक्षा उपन्यास पढ़ डाला, मैंने अपने कुछ मित्रों से उसका जिक्र भी किया। रामकथा के आदि वाले अंश का कुछ भाग आपने बड़ी कुशलता के साथ प्रस्तुत किया है, उसमें औपन्यासिकता है, कहानी की पकड़ है। वैसे एक जानी-मानी कहानी को एक दूसरी बार कहने में कहानी के कुतूहल तत्व पर आघात होता है, फिर भी उसका जो बौद्धिक तत्व है वह तो साहित्य की निधि है ही।
उपन्यास स्वभावतः सैद्धांतिक एवं बौद्धिक स्थापनाओं से बोझिल हो गया है, साधारण पाठक के लिए, यह दोष है। व्यक्तिगत रूप से मैं उपन्यास को दार्शनिक या बौद्धिक स्थापनाओं से मुक्त भले ही न मानूँ, लेकिन इन स्थापनाओं की प्रमुखता को मैं कला कृति की कमज़ोरी समझता हूँ। रामायण जानी-मानी कहानी होने के कारण कथा... का गौण हो जाता है—स्थापना और आरोपण का तत्व प्रमुख हो जाता है।
मैंने आप में वह प्रतिभा देखी है जो आपको हिन्दी के अग्रणी साहित्यकारों की पंक्ति में ला देती है और इसलिए मैंने आपको यह सब लिखा है।
मैं 19 या 20 को एक सप्ताह के लिए दिल्ली जा रहा हूँ। संपर्क स्थापित करने का प्रयत्न करूँगा। वैसे आप अगर 20 फरवरी या दो एक दिन के बाद राजकमल प्रकाशन में फोन कर लें तो अच्छा हो। दिल्ली में मेरा पुत्र वसन्त विहार में है—उसका फोन नम्बर 670122 है, वहाँ पूछ लीजिएगा।
आशा है आप सानन्द एवं स्वस्थ होंगे।
आपका
भगवती चरण वर्मा
भगवती चरण वर्मा
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