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देश के शुभचिंतक - समग्र व्यंग्य 1

नरेन्द्र कोहली

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :356
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4582
आईएसबीएन :81-7055-584-1

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नरेन्द्र कोहली के व्यंग्यों का यह नवीन संग्रह, वक्रता और प्रखरता की अपनी परंपरा का निर्वाह करते हुए

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Desh Ke Shubhchintak Narendr kohli

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नरेन्द्र कोहली के सृजन में कथा तथा व्यंग्य दोनों का ही संयोग है। उसकी आरंभिक कहानियों में भी व्यंग्य की झलक देखी जा सकती है, किन्तु इस संकलन में केवल वे ही रचनाएँ सम्मिलित की गई हैं, जो व्यंग्य के रूप में ही लिखी गई हैं-उनका शिल्प चाहें निबन्ध का हो, संस्मरण का हो, कथा का हो, आत्मकथा का हो, उपन्यास का हो, नाटक का हो। उनकी रचनाओं में मौलिक प्रयोगों का अपना महत्त्व है। वे प्रयोग आश्रितों का विद्रोह जैसी फंतासी के रूप में भी हो सकते हैं और पाँच एब्सर्ड उपन्यास जैसे नवीन और मौलिक अवश्रद्ध कथा-रूप में भी।
इस पुस्तक में पहली बार उनकी सारी व्यंग्य-रचनाएँ, एक स्थान पर उपलब्ध कराई जा रही हैं।

 

देश के शुभचिंतक
व्यंग्य रचनाएँ
(व्यंग्य कथाएँ तथा व्यंग्य निबन्ध)

संस्कृति से बिछुड़ने का रोग, कथा पुरानी मैत्री की, हिडिंबा का घर, प्रेम का देवता, मैं और एक वरदान, महिमा एक नाम की उर्फ परम्परा संतों की, प्रेम, ब्लड बैंक की अप्सरा, लैमन-सैट, नौकरी और नोबेल प्राइज, डिग्रियाँ, सरकार का पति, बच्चों की कहानी : एडल्ट एडीशन, विदेश-यात्रा, कुतरने वाले चूहे, बदतमीज बर्तन, कबूतर, अंगद का दोष, नाम-चर्चा, ठंड और रजाई, डाकूजी का आगमन, नये ब्रह्म की शरण में, रुस्तम के बाद, उसका ऑपरेशन, एक और लाल तिकोन, भगवान की औकात, इश्क एक शहर का, संदर्भ प्रेम-प्रसंग का, कथा अग्निकांड की, जगाने का अपराध, अनागत, संकट और संस्कृति, रिसर्च एक्सपीरिएन्स बात, रिश्तों से बढ़कर, आत्महत्या, रस-सिद्धान्तः पुनर्मूल्यांकन, बाढ़ का नियन्त्रण, नमस्ते, अकाल पीड़ित देश और दूध का मेढ़क, प्रेम और राजनीति, कर्त्तव्यनिष्ठ पड़ोसी, अन्तरंग परिचय, एक आधुनिक व्यक्ति की संहिता, अंगूरों की बेल, समर्पण, मिट्टी में सड़ते नोट, जीवन का मिशन, स्मार्टनेस का मूल्य, बोर कथा, भविष्य के आदर्शों का निर्माण, कुश्ती और भक्ति, रेडीमेड युद्ध-विराम, मन्दिर और स्कूल, तीन लघु कथाएँ खबरें: अपनी और उनकी, चाँदी की दीवार और निर्धन का सिर, कैनोपी का स्वयंवर, खोज गरीबी के कारणों की, अमरीकन जाँघिया, साहित्य के मुजाविर, संतों की बिल्लियाँ और चूजे, हिसाब-किताब, लोक कथा में गतिरोध, हलवाई की शरारत, जीवन और महानता, कला और जमींदारी, घंटियाँ सुनने वाले, सलाम करने वाला मोची, साहित्यकार की घोषणाएँ, लैफ्ट और राइट की राजनीति, सापेक्ष-दर्शन, लाल फीताशाही ऐसे ही बढ़ते गए तो...., राजनीति के संदर्भ में, डाक्टर की अमानुषिकता, धर्म पत्नी और पिक्चर पत्नी, राहुओं की बेकारी, एक परंपरागत घरेलू झगड़ा, पाथेय, आधुनिक लड़की की पीड़ा, त्रासदी एक घर की, त्रासदियाँ प्रेम की, मेरे जीवन की नाटकीय त्रासदियाँ, साहित्यिक त्रासदियाँ, मेरे बचपन की त्रासदियाँ, त्रासदियाँ अनिवार्य सेवा की, त्रासदियाँ राष्ट्रप्रेम के दुख की, त्रासदी उज्ज्वल भविष्य की, त्रासदी लिखे हुए भाग्य की, त्रासदियाँ खाली हाथ की, त्रासदियाँ टेलीफोन की, त्रासदियाँ चिपकने की, त्रासदियाँ खंभा लेखन की, त्रासदियाँ एक परीक्षक की, त्रासदियाँ एक नये वनवास की, त्रासदियाँ संबंधों की, त्रासदियाँ एक कामना की, त्रासदी कहने वाले की, त्रासदी एक धोबन की, परेशानियाँ, मैं मेरी पत्नी और चमेली का फूल, मेरी परेशानी और रहीम खानखाना, काटने की संस्कृति, अपनी-अपनी जरूरत, आ बैल मुझे मार, बहुत बड़ा आदमी, दिल का दौरा, भौगोलिक परिवर्तन राष्ट्रीय शोक, त्राहि-त्राहि, ज्यामिति के निष्कर्ष देशभक्ति और आत्मा का उत्थान, धक्का, दुर्घटना, एक और सूरदास, बयालीसवीं वर्षगाँठ पर, द्वन्द्वात्क भौतिकवाद, उनके घर आग लगी, मैं कहाँ रहता हूँ, उपहार, आदर्श शिक्षा-पद्धति पर एक निबंध आदर्श पुलिस व्यवस्था पर एक भाषण, स्मार्ट लड़के का दर्द, नालायक पीढ़ी, तर्क, हत्या एक प्रकार की, नाटक: एक प्रयोग, गालिबः राष्ट्रीयताः दिलः ईंटे, आदर्श फिल्मी कॉटेज।

 

संस्कृति से बिछुडने का रोग

बच्चा रात भर नहीं सोया। थोड़ी देर सोता भी तो फिर जागकर रोने लगता। रोता तो बहुत जोर से रोता। वह इतना रोया कि मुझे शक हो गया कि उसके भीतर किसी बहुत ही सबल राष्ट्रीय आत्मा का निवास है। क्योंकि इतना अधिक तो देश की दुर्दशा पर रोने वाले भी बहुत मुश्किल से ही रोएँगे। मैं रात भर सोचता रहा कि बच्चा यदि इस अभ्यास को बनाए रखेगा तो उसे राष्ट्र मंत्रालय में एक अच्छी सी नौकरी मिल सकती है। वे लोग उसे संयुक्त राष्ट्र में अपने देश का पक्ष लेकर रोने की नौकरी दे सकते हैं। विदेशों में अपने देश के लिए चन्दा इकट्ठा करने के लिए रोने का काम सौंप सकते हैं, या फिर शत्रु-राष्ट्रों के दूतावासों के गेट पर बैठकर निरन्तर रोने की ड्यूटी लगाई जा सकती है। पर पता नहीं वह बड़ा होने तक इसी प्रकार रो भी सकेगा कि नहीं।
सुबह मैं बच्चे को अपने वैद्य जी के पास ले गया। सुबह-सुबह ही मेरे मन में यह सन्देह जागा था कि बच्चा अभ्यास, से नहीं, किसी रोग की पीड़ा से रोता रहा है। अच्छा था कि वैद्यराज को दिखा ही लिया जाए।
वैद्यराज बड़ी देर तक उसकी नब्ज पकड़कर बैठे रहे और आँखें मिचमिचाते रहे और मैं डरता रहा कि कहीं वे भी न रो पड़ें। पर वे रोए नहीं। थोड़ी देर बाद बड़ी करुण आवाज में बोले, ‘‘इस बालक को अपने देश की संस्कृति से बिछुड़ जाने का रोग है।’’

मैंने मन ही मन अपने घर में पड़ी हजारों रुपयों की मेडिकल बुक्स को तीली दिखाई और पूछा, ‘‘यह कौन-सा रोग है, महाराज ?’’
‘‘होता है, यह भी एक होता है।’’ वे अपने हाथ की अँगूठी को फिराते हुए बोले, ‘‘अभी बताता हूँ कि यह क्या होता है।’’
फिर वे थोड़ी देर तक सोचते रहे कि वह क्या होता है और तब बोले, ‘‘हम अपने देश की संस्कृति से इतनी दूर चले आए हैं कि हमारे यहां पैदा होने वाले बच्चों की आत्माएँ भूखी रह जाती हैं। जिस प्रकार बच्चे का भूखा पेट रोता है, वैसे ही बच्चे की भूखी आत्मा भी रोती है।’’
‘‘इसका उपचार क्या है, महाराज ?’’ मैंने पूछा।
वे बोले, ‘‘उपचार भी करता हूँ।’’

वैद्यराज अपने स्थान से उठकर दुकान के पिछवाड़े में स्थित अपने घर में चले गए। मैं यह सोचकर बैठा रहा कि वैद्यराज का लंच-टाइम हो गया होगा। भोजन पा लेंगे तो आ जाएँगे। सोचा, मैं भी उनके कुछ चूर्ण और भस्म खाकर सो रहूँ। पर कैसे सोता, बच्चा मेरी गोद में लेटा, मुझे बिटर-बिटर देख रहा था। मैं यदि सोने का प्रयत्न करता तो वह रोने लगता।
वैद्यराज बहुत जल्दी लौटे। उनके हाथ में बहुत पुराना-सा ग्रामोफोन था। यह शायद ग्रामोफोन का सबसे पुराना मॉडल था। उन्होंने ग्रामोफोन में धड़ा-धड़ चाबी दी और ढूँढ़-ढाँढ़कर एक पुराना-सा रिकार्ड उस पर लगा दिया।
रिकार्ड में से शास्त्रीय संगीत की रीं-रीं, टीं-टीं निकली तो बच्चे ने चौंककर गर्दन उठा दी।
वैद्यराज ने ताली बजाई, ‘‘देखो, संस्कृति का पान कर रहा है।’’
और थोड़ी ही देर में बच्चा बोर होकर सो गया।
मैं भौचक होकर कभी वैद्यराज को देख रहा था और कभी बच्चे को। जो बच्चा रात भर नहीं सोया था और चीखता रहा था, उसे शास्त्रीय संगीत ने कितनी जल्दी सुला दिया। मुझे उसकी विदेश मंत्रालय वाली नौकरी पर यह बड़ा भारी खतरा लगा। उसे जहाँ कहीं भी रोने वाली नौकरी पर भेजा जाएगा, वहाँ शत्रु शास्त्रीय संगीत उसे सुला देंगे।
‘‘यह कैसे हुआ, महाराज ?’’ मैंने पूछा।
‘‘आत्मा तृप्त हो गई।’’ वैद्यराज बोले।
‘‘मैं शास्त्रीय संगीत की इस शक्ति से परिचित नहीं था, महाराज !’’ मैं बोला, अनिद्रा रोग के रोगी होते होंगे, जो गायकों को अपने दरबारों में रखते थे।’’

‘‘नहीं, उसका दूसरा कारण था।’’ वैद्यराज ने प्रकाश डाला, ‘‘वे लोग अनिद्रा रोग के रोगी नहीं थे। वस्तुतः वे लोग अपने दरबार के इन गायकों के संगीत के माध्यम से दरबारियों को सुलाकर या उनींदा करके अपनी बात मनवा लिया करते थे। दरबार में सोने की परम्परा का शुभारम्भ उन्हीं दिनों हुआ था। तभी तो आज भी लोग भवन में जाकर सो जाते हैं। एक उपयोग और भी था। जिस प्रकार राजा लोग विष-कन्या पालते थे, पहलवान पालते थे, उसी प्रकार गायकों को भी पालते थे, ताकि अपने शत्रुओं को अपने गायकों के आलापों से सुला दें। और बाद में तो बाजी ही पलट गई थी....’’
वे अपनी बात बीच में ही छोड़कर हँसने लगे।
मैंने ग्रामोफोन में और भी चाबी भर दी ताकि देश की संस्कृति चलती रहे और बच्चा सोया रहे, कहीं ऐसा न हो कि वैद्यराज की हँसी से वह जाग जाए और मेरा ज्ञान अधूरा ही रह जाए।
‘‘बाजी कैसे पलट गई थी ?’’ मैंने पूछा।

‘‘हुआ यह कि गायकों को अपने संगीत का मूल्य ज्ञात हो गया और उन्होंने अपने ही राजा को सुलाने की धमकी दी। तानसेन ने अपना अभ्यास अकबर के सामने करना आरम्भ कर दिया और अकबर सदा ही उनींदा रहने लगा। उन्हीं दिनों उसके उनींदेपन से लाभ उठाकर शहजादा सलीम विद्रोह कर बैठा था। तब अकबर ने तानसेन को बहुत समझाया। उसने बहुत सारा धन दिया और उसे बीरबल के साथ वाला कमरा दे दिया। उससे उसे दुबरा लाभ हुआ। एक तो फिर उसे तानसेन ने सुलाया नहीं और दूसरे, बीरबल बहुत ज्यादा सोने लगा और अकबर को राज-काज के लिए अधिक समय मिलने लगा, नहीं तो ‘आइने अकबरी’ में भी अकबर को चुटकुले ही लिखवाने पड़ते। औरंगजेब ज्यादा चालाक था, उसने अपने दरबार में ही नहीं, अपने आसपास कहीं भी कोई गायक नहीं रहने दिया था।
‘‘पर यह संस्कृति से बिछुड़ने का रोग कब से चला है ?’’ मैंने बात बदल दी।

‘‘औरंगजेब के समय से ही चला है। उसने सारे जीवन में एक बार भी संगीत नहीं सुना था। पर अब यह रोग जड़ से समाप्त हो जाएगा।’’ उसके नयनों में तेज उतर आया, ‘‘मैं इसे जड़ से उखाड़ दूँगा। मैंने संगीतमयी गोलियाँ बनाई हैं। एक गोली खा लो, आत्मा तृप्त होकर सो जाती है। मैंने कालिदास के नाटकों का भस्म बनाया है, कथाकली का चूर्ण बनाया है। कोई चीज नहीं छोड़ी। संस्कृति का प्रत्येक तत्त्व मैंने अपनी औषधियों में प्रस्तुत कर दिया है। अब कोई भी राष्ट्रीय आत्मा भूखी रहकर रातभर नहीं रोएगी। रोने वाली आत्माएँ, स्वतन्त्रता से पहले-पहले ही मर गईं। अब सारी आत्माएँ मेरी औषधियाँ खाकर संस्कृति से भरपूर होकर सो जाती हैं। मैंने देश के हर बड़े नेता को, जिला लेबल तक शास्त्रीय संगीत की गोलियाँ खिलाई हैं और हमारा हर नेता सो रहा है। सोना हमारी संस्कृति है। है न चमत्कार। देखोगे ?’’ उन्होंने मुझसे पूछा।
मैं बिना कुछ समझे, उनकी ओर देखता रहा और उन्होंने एक शीशी से एक गोली निकाली, अपने मुँह में डाली और कुर्सी पर ही सो गए।

 

कथा पुरानी मैत्री की

उन दोनों की मैत्री बहुत पुरानी थी।
जान-पहचान जरा-सी गहरी होने लगी थी कि पहले ही दिन लड़की ने बात साफ कर देना उचित समझा। कहीं यह न हो कि यह हजरत प्रेम का दमन भरने लगें। ऐसी गलतफहमियाँ कष्टकर होती हैं। उसने बता दिया कि दूर के कोई रिश्तेदार हैं उसके। दूर के ही सही पर हैं तो रिश्तेदार। और उन्हीं के बेटे के साथ रिश्ते की बातचीत चल रही है। जब बातचीत चल रही है तो उसके पक्के हो जाने की भी पूरी संभावना है। कहीं यह न हो कि उधर बातचीत पक्की हो जाए और इधर प्रेम-वेम हो जाए। अच्छा है कि पहले से ही सब-कुछ स्पष्ट रहे।
लड़के के जवान दिल को जरा बुरा लगा। भला यह भी कोई सह सकता है कि कोई लड़की उससे साफ-साफ कह दे कि वह उससे प्रेम नहीं कर सकती ! प्रेम को स्वीकार न करे, पर उसे नकारे तो नहीं। असल में उसका एक भ्रम टूट गया था। अपने मन में तो उसने भी स्पष्ट सोच रखा था कि वह इस लड़की से प्रेम नहीं करता, पर साथ ही यह भी सोच रहा था कि अभी न सही, कभी-न-कभी तो वह उससे प्रेम करेगी, वरन् उस पर बुरी तरह मरने लगेगी। और जब वह अपनी मजबूरी को प्रकट करेगी, उस पर अपना मरना जताएगी तो वह कह देगा कि वह उसे पसन्द तो करता है, पर उससे प्रेम नहीं करता। वह उसके लिए नहीं है। तब आयी हुई चीज को ठुकराने में कितना आनन्द आएगा ! और जो लड़का एक लड़की के निवेदित प्रेम को अस्वीकार कर सकता है, वह क्या नहीं कर सकता !

पर उसकी महानता का स्वप्न लड़की ने तोड़ दिया था। स्वप्न टूटने पर पीड़ा होनी चाहिए, अतः लड़के को भी हुई, पर वह जरा समझदार था। सोचा—चलो, प्रेम नहीं, दोस्ती तो स्वीकार कर रही है। दोस्ती प्रेम नामक वस्तु से कुछ अधिक आधुनिक भी है और जोखिम भी उसमें कम है।
वह इस विषय में घर आकर भी सोचता रहा। ठीक तो है ! उसे उस लड़की से विवाह जब नहीं ही करना है, तो वह प्रेम न भी करे तो क्या हर्ज है। वैसे भी वह जिस लड़की से प्रेम करना चाहता है, वह लड़की कोई और ही होनी चाहिए। इस लड़की के दाँत उसे एकदम पसन्द नहीं थे। वे कुछ उठे हुए थे। फिर जैसा परिवार वह चाहता है, इस लड़की का परिवार भी वैसा नहीं है। फिर प्रेम नहीं ही हुआ तो क्या नुकसान हो गया ?
फिर उनकी दोस्ती कुछ पक्की भी हो गई। कॉलेज के सहपाठियों की दोस्ती से यह कुछ अधिक बढ़ गई। दोनों एक-दूसरे के घर भी आने-जाने लगे। लड़का जरा आदर्शवादी था और लड़की हिन्दुस्तानी, इसलिए दोनों के मिलने-जुलने में किसी प्रकार का खतरा भी नहीं था। दोनों के माँ-बाप इस बात को जानते थे। लड़के के माँ-बाप ने समझ लिया कि लड़की बेवकूफ है, हमारे लड़के पर मरती है (और हमारा लड़का उसे पूछता भी नहीं) जैसे कि शहर की लड़कियाँ मरती हैं। लड़की के माँ-बाप ठीक इसके विपरीत बात सोची और लड़के को मूर्ख तथा अपनी लड़की को ‘एडवांस्ड’ मान लिया। (पर यह एक लड़के-लड़की की कहानी है, माँ-बाप का इससे कोई ताल्लुक नहीं है। वे भूल से आ गए हैं।)

जब बात यहाँ तक आ गई तो लड़के और लड़की दोनों में साहस आ गया। दोनों एकसाथ घूमने भी चले जाते थे। किसी के घर आना-जाना होता, तो भी अलग-अलग न जाते। लड़की ने अपनी दृढ़ता अधिक जताई और लड़के से कह दिया कि वह अन्य भारतीय लड़कियों के समान, अपने विवाह के पश्चात् न तो उसको पहचानने से इनकार करेगी और न ही उसे अपना भाई घोषित करेगी। वह उससे इसी प्रकार मिलती रहेगी और उसे अपने ससुराल में भी बुलाएगी।
लड़का खुश हो गया—मन-ही-मन ऊपर से भी। बात भी खुश होने की ही थी। एक तो उसे इतनी अच्छी मित्र मिली थी, जो जीवन-भर दोस्ती निबाहने का वचन दे रही थी, और फिर वे इस देश में पहली बार यह स्थापित करने जा रहे थे कि लड़की-लड़के में भाई-बहन, प्रेमी-प्रेमिका या पति-पत्नी के अलावा भी कोई सम्बन्ध हो सकता है। देश में सुधार हो जाए इससे बड़ी खुशी की बात किसी देश-प्रेमी के लिए और क्या हो सकती है।
लड़का खुश इसलिए भी था कि उसका आदर्शवादी मन यह कहता था कि देखो, वह कैसे आदर्श चरित्र का व्यक्ति है कि जवान लड़की को—उससे कोई भय नहीं लगता। लड़कियों के नजदीक रहना उसे अच्छा लगता था, पर सबका न तो वह प्रेमी हो सकता था, न भाई। तो अब सब कुछ ठीक था।

लड़की वचन की पक्की निकली। जब वे रिश्तेदार, जिनके बेटे से उसके रिश्ते की बात चल रही थी, मामला पक्का करने आए तो वह लड़के को मिलाने ले आयी। ‘पिताजी’ या ‘बाबूजी’ कहकर उसने लड़के का परिचय अपने दोस्त के रूप में करा दिया। ‘पिताजी’ या बाबूजी’ को लड़के से मिलकर बहुत खुशी हुई जैसी कि हर परिचय के बाद होती है। और खुशी इतनी हुई कि वे दूसरे दिन ही रिश्ते की बातचीत तोड़कर चले गए। बातचीत टूटने का दुःख उस रिश्तेदार के बेटे को ही हुआ—बाकी सबको खुशी-ही-खुशी थी। लड़के को तो खुशी होनी ही थी। लड़की को भी हुई और लड़की के माँ-बाप को भी। माँ बाप को इसलिए कि एकाएक उन्हें लगा था, उनकी लड़की गलत लड़के के पल्ले पड़ते-पड़ते रह गई।
पर एक बात बीच में आ खड़ी हुई थी। अब तक लड़के और लड़की और लड़की में बहुत देर तक—कई-कई घंटे करके दिनों तक—यह चर्चा हुई थी कि लड़की की शादी पर लड़का उसे क्या भेंट करेगा। लड़की जीवन में अपनी तरह की एक ही दोस्त थी, इसलिए लड़का उसे कोई ऐसी भारी-भरकम भेंट देना चाहता था, जो लड़की को बरसों तक उसकी याद दिलाए और उसके पति के मन में हमेशा शक बनाए रखे। यदि कहीं उस भेंट के कारण उनमें अनबन हो जाए और वैवाहिक बंधन टूट जाएँ तो इससे बढ़कर खुशी की और क्या बात हो सकती थी।

लड़की के मस्तिष्क में ये सारी बातें नहीं थीं। वह तो एक ही बात जानती थी कि लड़का उसका दोस्त है और उसे कोई बहुत अच्छी भेंट देना चाहता है। भला किसी दोस्त से कुछ लेने में क्या बुराई ! बहुत सोच-समझकर दोनों ने पहले से ही मिलकर एक टाइम-पीस खरीदी थी। उसके अलार्म के रूप में एक बड़ी अच्छी धुन बजती थी। लड़के ने सोचा था, रोज सवेरे लड़की अलार्म सुनकर उठेगी और अलार्म के कारण उसे याद कर लिया करेगी, उसी अलार्म के कारण उसका पति सुबह से ही खिन्न हो जाएगा, दिन भर नाराज रहेगा और रात को करवट बदलकर सो जाएगा !
दोनों ने इकट्ठे जाकर घड़ी पहले ही खरीद ली थी कि कहीं विवाह के समय लड़की न जा सकी तो मुश्किल न हो। शादी की बात अब टूट चुकी थी, घड़ी खरीदी जा चुकी थी—और वह सिर्फ लड़की को देने के लिए थी। लड़की चाहती थी कि लड़का घड़ी उसके जन्मदिन पर दे दे, क्योंकि अब शादी न जाने कब होगी ! लड़का उसे जीवन में दो बार भेंट देना नहीं चाहता था। जन्मदिन पर घड़ी दी तो विवाह पर न जाने क्या देना पड़े !

उसे एक और खतरा भी महसूस हो रहा था। लड़की का रिश्ता रिश्तेदारों के बीच टूट गया था। अब कहीं यह अपनी दोस्ती से पीछे न हट जाए। बहुत ज्यादा बेतक्कलुफ होकर कहीं यह न कह दे कि जब हम एक-दूसरे को इतना पसन्द करते हैं, जात-पाँत को भी नहीं मानते, दहेज भी हमें पसन्द नहीं है, तो फिर हम ही आपस में शादी क्यों नहीं कर लेते ? लड़का लड़की से शादी करना नहीं चाहता था। शादी कर लेने पर उन नये आदर्शों की स्थापना नहीं हो सकती थी, जिन्हें वह इस देश में स्थापित करना चाहता था।
पर लड़की ने शादी का प्रस्ताव नहीं रखा। वह जब भी मिलती, यह जरूर बताती कि किसने उसे क्या ‘कॉप्लीमेंट’ दिया, किसके यहाँ से विवाह का प्रस्ताव आया है, किसने प्रेम-निवेदन किया....वह उसे रोज जताती है कि यह दुनिया कितनी बुरी है। विशेषकर इस देश का पुरुष वर्ग कितना पतित है। यहाँ प्रत्येक लड़की का सम्मान खतरे में है। उसे बचाए रखने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ता है ! फिर वह लड़के से कहती है इस घोर पतित संसार में तुम एक आदर्श पुरुष हो। तुम जिसका हाथ पकड़ोगे, वह लड़की निहाल हो जाएगी।
पर लड़के ने उसका हाथ पकड़ने की इच्छा कभी जाहिर नहीं की। उल्टे कहा, लड़की को बिना बताए, अपने लिए कोई और लड़की ढूँढ़ने लगा। पता लगा कि लड़की उसके माँ-बाप ने (लीजिए, फिर माँ-बाप आ गए !) पहले से ढूँढ़ रखी है और उसकी हाँ होने भर की देर है। उसने हाँ कह दी। झट उसका विवाह हो गया।

विवाह के उपलक्ष्य में मंगल समारोह हुआ। लड़की समारोह में आयी। लड़की को देखते ही लड़का एकदम डर गया। कहीं वह उसकी पत्नी से न कह बैठे कि वह उसकी दोस्त है। ऐसा हुआ तो मुश्किल हो जाएगी। कहीं उसकी पत्नी भी किसी मर्द को अपना दोस्त कहकर मिलाने लगे तो ? पर लड़की समझदार थी। उसने ऐसी कोई हरकत नहीं की। उसने लड़के तथा उसकी पत्नी को बहुत-बहुत बधाई दी और बड़े प्रेम से एक पैकेट में सुन्दर-सा एक गुड्डा और ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ भेंट कर गई। लड़के को लगा कि लड़की ने उसे ठग लिया है। बड़ी ‘एडवांस्ड’ बनी फिरती है ! प्लास्टिक का गुड्डा देकर टरका गई ! खैर, देख लेंगे।

कुछ दिनों के बाद लड़की फिर लड़के से मिलने आयी। अपने साथ वह चार तस्वीरें लायी थी। वे उन चार व्यक्तियों की तसवीरें थीं, जिनकी ओर से विवाह के प्रस्ताव आए थे। एक सच्ची दोस्त के नाते वह लड़के से सलाह लेने आयी थी कि इनमें से किसको चुना जाए, या किसी को चुना जाए भी या नहीं। उसने अपनी दोस्ती की कसम दोहराई और कहा कि वह लड़के की अनुमति और इच्छा के बिना किसी से शादी नहीं करेगी। लड़के के मन में आया कि उसे शादी करने से मना कर दे, पर स्वयं शादी करके उसे रोकना उचित नहीं था। लड़के ने उसे सहर्ष शादी करने की अनुमति दे दी। अब प्रश्न लड़के के चुनाव का था। चूंकि वह लड़की का दोस्त था, लड़की के लिए अच्छे-से-अच्छा वर चुनना उसका कर्तव्य था। उन चारों में से एक इंजीनियर था, एक डॉक्टर, एक लेक्चरर और एक सरकारी अफसर। लड़का बहुत देर तक उन्हें देखता रहा और सोचता रहा। फिर सोचता रहा और देखता रहा। अन्त में उसने बात टालने के लिए लड़की से ही उसकी पसन्द पूछी। लड़की को सरकारी अफसर सबसे ज्यादा पसन्द था। लड़का उस सरकारी अफसर को जानता था। सरकारी अफसर एक सच्चा सरकारी अफसर था। ऊँचे लोगों में उसका उठना-बैठना था, इसलिए शराब पीता था। लड़के ने लड़की को यह बताने की आवश्यकता नहीं समझी और उसकी पसन्द की खूब प्रशंसा करके जल्दी-जल्दी शादी कर लेने की सलाह दी।

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