हास्य-व्यंग्य >> इश्क एक शहर का - समग्र व्यंग्य 3 इश्क एक शहर का - समग्र व्यंग्य 3नरेन्द्र कोहली
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समग्र व्यंग्य का तीसरा भाग
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iSQ EK SHAHAR KA
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कहानीकार नरेन्द्र कोहली ने 1995 ई. में व्यंग्य लिखना आरंभ किया तो वे व्यंग्यकार ही हो गए। पहला संकलन ‘एक और तिकोन’ 1970 ई. में आया। था तो प्रथम संग्रह, किंतु व्यंग्य में पर्याप्त प्रौढ़ता थी। 1972 ई. में पाँच एब्सर्ड उपन्यास के प्रकाशन के साथ ही यह अनुभव किया गया कि हिंदी में व्यंग्य-लेखन के नए आयाम उद्घाटित हुए हैं। यह शिल्प अभूतपूर्व था। कार्टून शैली में लिखी गई औपन्यासिक रचनाएँ उपमाएँ और रूपक मौलिक थे और जीवन की तर्कहीनता अपने नग्न रूप में पाठकों के सम्मुख थी। एक व्यंग्यकार की दृष्टि से अपनी समग्रता में देखा गया समाज। 1973 ई. में ‘आश्रितों का विद्रोह’ का प्रकाशन हुआ। यह उपन्यास के शिल्प में लिखा गया व्यंग्य था। महानगर दिल्ली के जीवन की अपनी आवश्यकताओं-राशन, दूध, यातायात इत्यादि-के लिए जूझने की एक फंतासीय कथा। इसमें समाज का वर्तमान भी था और भविष्य भी।
उसमें उसकी दुर्दशा भी विचित्र हुई थी और उससे मुक्त होने के मार्ग का संकेत भी था। स्वाधीनता और आत्मनिर्भरता का संदेश देनेवाला यह अद्भुद उपन्यास अपने प्रकार की एक ही रचना है। 1973 ई, में ही आया ‘जगाने का अपराध’। यहाँ व्यंग्य कुछ और तीखा और धारदार हो गया है। सामाजिक चेतना कुछ अधिक आधुनिक जीवन संबंधी व्यंग्य नाटक ‘शंबुक की हत्या’ प्रकाशित हुआ, जिसमें राजनीतिक प्रशासनिक, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था को उधेड़कर, उसमें बहुत गहरे झाँका गया है। 1978 ई. में ‘आधुनिक लड़की की पीड़ा’, 1982 ई. में ‘त्रासदियाँ’ और 1986 ई. में ‘परेशानियाँ’ व्यंग्य संकलन प्रकाशित हुए। इनमें नए विषयों पर तीव्र व्यंग्यात्मक शैली में अपने समसामयिक समाज का विश्लेषण किया गया है। दस वर्षों के अंतराल के पश्चात् 1996 ई. में ‘आत्मा की पवित्रता’ आया और 1997 ई. में ‘गणतंत्र का गणित’।
इन बत्तीस वर्षों में नरेन्द्र कोहली ने कभी व्यंग्य की अवहेलना नहीं कि। समय के साथ उनका व्यंग्य और प्रखर और पैना हुआ। ‘अट्टाहास’ और चकल्लस’ पुरस्कारों से सम्मानित नरेन्द्र कोहली के व्यंग्य लेखन में पिछले दिनों राजनीति का रंग कुछ गहरा हुआ है। वे दूसरों की बनाई रूढ़ सीमाओं में बँध कर, फैशनेबल नारों को ध्यान में रखकर,रचना स्वीकृति की चिंता करते हैं। इसलिए वे उन विसंगतियों पर भी लिखते हैं, जिन्हें लोगों ने देखा और भोगा तो है, किंतु जिसके विषय में लिखने का साहस वे नहीं कर पाते।
उसमें उसकी दुर्दशा भी विचित्र हुई थी और उससे मुक्त होने के मार्ग का संकेत भी था। स्वाधीनता और आत्मनिर्भरता का संदेश देनेवाला यह अद्भुद उपन्यास अपने प्रकार की एक ही रचना है। 1973 ई, में ही आया ‘जगाने का अपराध’। यहाँ व्यंग्य कुछ और तीखा और धारदार हो गया है। सामाजिक चेतना कुछ अधिक आधुनिक जीवन संबंधी व्यंग्य नाटक ‘शंबुक की हत्या’ प्रकाशित हुआ, जिसमें राजनीतिक प्रशासनिक, सामाजिक तथा आर्थिक व्यवस्था को उधेड़कर, उसमें बहुत गहरे झाँका गया है। 1978 ई. में ‘आधुनिक लड़की की पीड़ा’, 1982 ई. में ‘त्रासदियाँ’ और 1986 ई. में ‘परेशानियाँ’ व्यंग्य संकलन प्रकाशित हुए। इनमें नए विषयों पर तीव्र व्यंग्यात्मक शैली में अपने समसामयिक समाज का विश्लेषण किया गया है। दस वर्षों के अंतराल के पश्चात् 1996 ई. में ‘आत्मा की पवित्रता’ आया और 1997 ई. में ‘गणतंत्र का गणित’।
इन बत्तीस वर्षों में नरेन्द्र कोहली ने कभी व्यंग्य की अवहेलना नहीं कि। समय के साथ उनका व्यंग्य और प्रखर और पैना हुआ। ‘अट्टाहास’ और चकल्लस’ पुरस्कारों से सम्मानित नरेन्द्र कोहली के व्यंग्य लेखन में पिछले दिनों राजनीति का रंग कुछ गहरा हुआ है। वे दूसरों की बनाई रूढ़ सीमाओं में बँध कर, फैशनेबल नारों को ध्यान में रखकर,रचना स्वीकृति की चिंता करते हैं। इसलिए वे उन विसंगतियों पर भी लिखते हैं, जिन्हें लोगों ने देखा और भोगा तो है, किंतु जिसके विषय में लिखने का साहस वे नहीं कर पाते।
शम्बूक की हत्या
रंगशाला में पूर्ण अंधकार हो जाता है।
रंगशाला के पृष्ठ द्वार के पास प्रकाश उभरता है और मंच की ओर खिसकने लगता है। उस प्रकाश में घिरा हुआ एक ब्राह्मण, जो जन्म, कर्म, आचार-विचार, आस्था और पहनने-ओढ़ने से पूरी तरह ब्राह्माण लगता है। आगे बढ़ रहा है उसकी बाँहों में एक बड़ा बंडल रहता है, जो पूरी तरह से सफेद कपड़े में लिपटा हुआ है।
उसके आस-पास से अनेक लोग पैदल तथा विभिन्न वाहनों पर जाने का अभिनय करते हुए निकल रहे हैं, जैसे किसी व्यस्त खुली सड़क पर यातायात आ-जा रहा हो
सब लोग उस ब्राह्मण को देखते अवश्य हैं, किंतु उससे कहते कुछ नहीं। उससे बचकर कतराकर निकल जाते हैं।
ब्राह्मण भी बिना किसी को पहचाने आगे बढ़ता जा रहा है। ब्राह्मण का चेहरा एकदम भावशून्य है-पत्थर के समान सपाट। वैसा सपाट¸ जैसा जबड़ों को भींच लेने से एक आम चेहर हो जाता है। उसकी आँखें शून्य में घूर रही हैं। उसके लिए जैसे सब कुछ पारदर्शी हो गया है।
प्रकाश मंच के पास पहुँचता है, तो वहाँ चौराहे का दृश्य है। लकड़ी के एक ऊँचे स्टैंड पर ट्रैफिक कांस्टेबल खड़ा ट्रैफिक संचालन कर रहा है। उसके साथ ही कुछ हटकर, बाँह पर तीन फीते चिपकाए, एक हेड कांस्टेबल खड़ा है, जो समय-असमय कांस्टेबल की कुछ सहायता कर देता है। उन की नजरें आगे बढ़ते आते ब्राह्मण पर पड़ती हैं।
कांस्टेबल ब्राह्मण की दिशा में चलने वाले यातायात को रोककर, दूसरी दिशा को चलने का संकेत देता है।
ब्राह्मण अपनी आँखें शून्य में गड़ाए, जड़ बनाए, बिना रुके आगे बढ़ता है। विपरीत दिशा से तेजी से आती हुई कार में आने का अभिनय करता हुआ एक व्यक्ति, उसे लगभग झटककर आगे बढ़ जाता है। ब्राह्मण उसकी झपट में आते-आते बच जाता है।
कांस्टेबल: (ब्राह्मण पर उपेक्षा की दृष्टि डालता है।) साला आदमी होकर अपने आपको बुलडोजर समझता है। सिगनल देखता नहीं है, और बाप की सड़क पर आगे बढ़ता जाता है। क्या है यह ? राष्ट्रपति का जलूस ! समझता है बाकी ट्रैफिक रुक जाएगा। हाथ में तानपूरा लिए बढ़ता जा रहा है !
हेड कांस्टेबलः अबे अन्धे की औलाद ! तेरी आँखें हैं कि कौलडोडे ! सड़क तुझे दहेज में मिली है कि हटेगा ही नहीं। अबे माँ के खसम ! अभी तेरे बाप की कार तेरा कीमा बना जाती, तो उसे हम झटकेवाली दुकान पर भेजते या हलालवाली दुकान पर ? बोल ! अबे यहाँ मीट खाने में भी साम्प्रदायिकता है। समझा ? तेरे एक्सिडेंट के पीछे शहर में साम्प्रदायिक दंगा हो जाता ।
ब्राह्मण न उसकी आवाज सुनता है, न उसकी ओर देखता है। वह पुरानी गति से आगे बढ़ता जाता है।
हेड कांस्टेबलः (बढ़कर क्रोध में ब्राह्मण का हाथ पकड़ लेता है।) सुन, बेटी के....।
ब्राह्मणः (डाँटता है) मुझे स्पर्श मत करो।
हेड कांस्टेबलः (क्षणभर हतप्रभ रहकर) क्यों न छुएँ तुझे ? तू किसी मिनिस्टर की रखैल है ? सेठ का काला-धन है ? संसद सदस्य के छिपे अन्न का गोदाम है ? फिक्स्ड-डिपाजिट है ? क्या है बे तू ? ऐं....मुझे स्पर्श मत करो !
ब्राह्मणः मैं इनमें से कुछ भी नहीं हूँ। मैं एक साधारण, ईमानदार, धार्मिक ब्राह्मण हूँ। और साधारण ईमानदार जनता से अड़ने पर रावण जैसा राक्षस भी नष्ट हो जाता है। इसलिए मुझसे अड़ो मत।....वैसे इस समय मेरी भुजाओं में मेरे एकमात्र बेटे का शव है। मुझे छुओ मत जाने दो।
हेड कांस्टेबल उसकी बाँह कुछ इस प्रकार झटकर छोड़ता है, जैसे उसने ब्राह्मण की बाँह नहीं, छिपकली की पूछ पक़ड़ रखी हो।
ब्राह्मण चुपचाप उसी प्रकार स्थिर पगों से चलता हुआ आगे बढ़ जाता है।
ब्राह्मण के साथ चलता हुआ प्रकाश बुझ जाता है। मंच का पहला पर्दा उठता है। मंच में पाँच सशस्त्र सैनिक की एक टोली पहरा दे रही है। चार सैनिक एक साथ खड़े हैं,
पाँचवा उनसे अलग कुछ हटकर खड़ा है। ब्राह्मण सीढ़ियाँ चढ़कर मंच पर पहुँच जाता है।
विशिष्ट सैनिकः (आगे बढ़ते हुए ब्राह्मण के मार्ग में खड़ा होकर) यह प्रेजेण्ट किसके लिए है ?
ब्राह्मणः (विशिष्ट सैनिक को ठोकर, शुष्क रेगिस्तानी दृष्टि से घूरता है, और एक वाणी में भाव शून्य, तटस्थ ठंडापन भर कर कहता है।) यह मेरे एक मात्र बेटे का शव है।
विशिष्ट सैनिक (चौंक उठता है फिर सँभल जाता है।) तो बौड़म ! इसे लेकर इधर क्यों आया है ? हट यहाँ से !
ब्राह्मणः (दृढ़ स्वर में) नहीं हट सकता।
विशिष्ट सैनिकः क्यों नहीं हट सकता ? तू क्या देश की गरीबी है कि हट नहीं सकता।
ब्राह्मणः नहीं। मैं वह नहीं हूँ। देश की गरीबी को पहले हटा लो, फिर मुझे हटाना।
विशिष्ट सैनिकः गरीबी को हटाने का सरकारी आर्डर हो चुका है। पर तुम जानते हो न कि अपने देश में, सरकारी ऑर्डर को कोई इम्पार्टेंस नहीं है। ऑर्डर आते रहते हैं जाते रहते हैं ऑर्डर मतलब कागज। भाषण मतलब शब्द। इनका कोई अर्थ नहीं है। अर्थ केवल दो चीजों में हैः एक पैसे में दूसरे चाकू,. छुरी, बन्दूक में। बाकी सब बेकार। साली जनता में अब सरकारी आर्डर तो क्या, कानून पुलिस कचहरी-किसी का भी सम्मान नहीं रह गया है। नहीं तो प्रधानमन्त्री कह देतीं और लोग गरीबी नहीं हटाते तो उनकी चमडी़ उधेड़कर भुस भर दिया जाता।
ब्राह्मणः तो क्यों नहीं उधेडी चमड़ी ?
विशिष्ट सैनिकः बात यह है, बड़े भाई ! कि एक-दो होते सरकारी आर्डर न मानने वाले, तो उनकी चमड़ी उधेड़ ही ली जाती। पर इस देश में करोड़ों लोग गरीब हैं। वे सारे के सारे हरामजादे प्रधानमन्त्री की बात की उपेक्षा कर रहे हैं। अपनी गरीबी हटाते नहीं हैं। उन सबकी चमड़ी उधेड़ी जाए-यह बात हमारी प्रधानमन्त्री को पसन्द नहीं है। उनका हृदय बड़ा कोमल है। दया का भण्डार है। पहले समय के महात्मा बुद्ध जैसा।...और गरीबी कोई झुग्गी-झोपड़ी तो है नहीं कि पुलिस के सिपाही जाकर हटा आएँ।...एक काम हमारी सरकार कर रही है।
ब्राह्मणः क्या ?
विशिष्ट सैनिकः हमारी सरकार महँगाई बढ़ाती जा रही है।
ब्राह्मणः उससे क्या होगा ?
विशिष्ट सैनिकः गरीब भूखे मरने लगेंगे, या इस देश को छोड़कर चले जाएँगे। गरीबी असल में उन जूंओं को कहते हैं, जो गरीबों के सिरों में पायी जाती हैं।
ब्राह्मणः तुम्हारी सरकार धनवानों को ही क्यों नहीं हटाती ?
विशिष्ट सैनिकः (हँसकर) अबे, नहीं घनचक्कर ! धनवानों को सरकार कैसे हटाएगी ! तुम शायद यह नहीं जानते कि पैसे और सरकार में अवैध सम्बन्ध है। पैसा इस रजनीतिक वेश्या का यार है। पैसे ने सरकार बनाई है और सरकार ने धनवान बनाए हैं। फिर यार....धनवान लोग शरीफ आदमी हैं, साफ-सुथरे लोग हैं रोज मन्दिर जाते हैं, घर में जुए का अण्डा चलाते हैं, अपने बच्चों को पब्लिक स्कूल में पढ़ाते हैं और लड़कियों के क्रय-विक्रय का धन्धा चलाते हैं; गोदाम में चीजें छिपाकर देश की चीजों की बचत करते हैं। नहीं तो तुम्हारी भुक्खड़ जनता तो एक दिन में सब कुछ खा-पीकर बराबर कर दे। तुम ही बताओ, तब सरकारी बचत –योजनाओं का क्या होगा !
ब्राह्मणः तो तुम....!
विशिष्ट सैनिक- चुप रह। पूछता ही जा रहा है। अबे, तू क्या मेरा इण्टरव्यू लेने आया है !
ब्राह्मणः नहीं।
विशिष्ट सैनिकः तो फिर प्रश्न पूछना बन्द कर, और बात का उत्तर दे।
ब्राह्मणः पूछो। मेरा तुमसे कोई झगड़ा नहीं है। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मैं दूंगा।
विशिष्ट सैनिकः (अपने पद के पूरे रौब के साथ) क्यों नहीं हटाएँ ? बता, तुझे यहाँ से क्यों नहीं हटाएँ ? अब तेरे-जैसे कूड़े-कर्कट का भी इतना साहस हो गया है कि कहता है, तुझे न हटाएँ।
ब्राह्मणः (कुछ उग्रस्वर में) हां। मैं कूड़ा-कर्कट हूँ, जड़ता हूँ, बेईमानी हूँ, चोर-बाजारी हूँ, देश-द्रोह हूँ, एप्रोच हूँ...और भी बहुत कुछ हूँ। तुम्हारी सरकार ने कहा है-केवल गरीबी हटाओ। इन चीजों को हटाने के लिए तुम्हें किसने कहा है ? उस देश में जहाँ आँखों के सामने हत्या हो जाने पर भी ऊपर से आदेश पाए बिना, पुलिस का सिपाही हत्य़ारे को नहीं पकड़ता है, वहाँ तुम इतने साहसी हो बिना ऊपर के आदेश के काम करते हो। तुम ससुर ! मुझे हटाने का साहस कैसे कर सकते हो ?
विशिष्ट सैनिकः (बौखलाया-सा) भाषा कैसी बोलता है बे तू ? मेरी समझ में तेरी बात नहीं आयी।
ब्राह्मणः तू कोई शब्कोश है या विश्वकोश, कि तेरी समझ में सब कुछ आ जाये ! या यह भारत के संविधान में लिखा है कि जो शब्द तेरी समझ में नहीं आये, वह इस देश में नहीं बोला जायेगा। तू क्या भारत माता है ?....मैं एक प्राचीन विचार हूँ, इसलिए मेरी भाषा ऐसी ही होगी। हटो-मार्ग दो !
विशिष्ट सैनिकः तुम मुर्दा लेकर इधर से नहीं जा सकते। श्मशान का रास्ता राष्टपति भवन से होकर नहीं जाता है।
ब्राह्मणः तुम कैसे जानते हो कि श्मशान का रास्ता इधर से होकर नहीं है। तुम भारत का सर्वेक्षण हो क्या ? मैं कहता हूँ कि सारा देश इसी रास्ते से होकर श्मशान जा रहा है। बल्कि सारा देश श्मशान बनता जा रहा है। आदमी मर रहा है भूत पिशाच उसे खा रहे हैं, चुड़ैलें उसे नोच रही हैं। कोई रक्त पी रहा है, कोई मांस नोच रहा है, कोई हड्डियाँ चबा रहा है। और यह सब सरकार की अनुमति से हो रहा है-सरकारी लाइसेंस लेकर। समझे ? सरकार विष फैलाने का परमिट देती है और विष फैलानेवालों से उसका टैक्स लेती है-शारीरिक विष, मानसिक विष, चारित्रिक विष....तुम यदि कुछ पढ़े-लिखे होते, तो मैं तुम्हें बताता कि तुम्हारी सरकार ने देश को बीभत्स रस का सुन्दर उदाहरण बना दिया है। अब रसवादी आचार्य काव्यशास्त्र में बीभत्स रस के लक्षण के पश्चात् कविता की पंक्तियां उदाहरण के रूप में उद्धत नहीं करते। वे सीधे-सीधे लिख देते है-1973 ई. का भारत।....तुम्हें कुछ मालूम भी है कि राजस्थान में अकाल पड़ा है, महाराष्ट्र में अकाल पड़ा है, बिहार में अकाल पड़ा है अन्न का; और सारे देश में अकाल पड़ गया है बुद्धि और चरित्र का। तुम....
विशिष्ट सैनिकः (तुनककर) तुम साले या तो पार्लियामेंट के मेम्बर बन जाओ, या किसी स्कूल में टीचर हो जाओ। भाषण दे देकर भेजा चाट गया। अबे, अब तू अकाल, सूखे, अन्न की उपज के आंकड़े भी देगा ?
ब्राह्मणः आंकड़े देगी तुम्हारी सरकार। जो अन्न नहीं दे सकती, वह आंकड़े देती है। मैं तो केवल भीतर जाना चाहता हूँ।
विशिष्ट सैनिकः किससे मिलना है ?
ब्राह्मणः तुम्हारे राष्ट्रपति से, जो अब भगवान राम के स्थान पर भारतवर्ष पर शासन कर रहा है।
विशिष्ट सैनिक काफी देर तक अपना सिर खुजलाता है, फिर अपना सिर दबाना आरम्भ कर देता है। वह जगह-जगह से इतना पिलपिला लगता है, जैसे पका हुआ पपीता हो। उसके भीतर कर्तव्य से अधिक स्वार्थ जगाता है। वह समझ जाता है कि ब्राह्मण से और अधिक बातचीत,उसके अपने स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है।
विशिष्ट सैनिकः इतने में ही मेरा भेजा पिलपिला गया है, यदि बातचीत चलती रही तो मेरा सिर मोम के समान पिघलकर बह जायेगा; तब मैं कंधों तक वाली, कुषाण सम्राट कनिष्क की मूर्ति बनकर रह जाऊँगा। इसलिए तुम भीतर जरूर जाओ, पर एक मिनट ठहरो। पहले मैं भीतर से पूछ आऊँ।
ब्राह्मणः पूछ आयो।
विशिष्ट सैनिक भीतर चला जाता है
ब्राह्मणः भीतर से पूछ आऊँ, अर्थात् पत्नी से पूछ आऊँ। यह सैनिक पता नहीं भीतर किससे पूछने गया है। उसकी पत्नी तो निश्चित रूप से भीतर नहीं होगी। ऐसा सम्भव नहीं है कि पत्नी भीतर राष्ट्रपति हो और पति बाहर सन्तरी। पर क्या कहा जा सकता है। यह देश बड़ा विचित्र है, यहाँ कुछ भी असंम्भव नहीं।
प्रकाश बुझकर फिर से जल उठता है। इस बीच दूसरा विशिष्ट सैनिक ब्राह्मण को एक कमरे में पहुँचाकर जा चुका होता है। वह कमरा न बहुत बड़ा है, न बहुत छोटा। सामने एक मेज और एक कुर्सी है, उस पर बैठा हुआ एक व्यक्ति ब्राह्मण को घूर रहा है। मेज पर कई प्रकार की चीजें पड़ी हुई हैं, जिनको पहचानने की चेष्टा ब्राह्मण नहीं करता। कमरे में दो-एक कुर्सियां इधर-उधर बिखरी हुई हैं।
ब्राह्मण चमत्कृत है। क्या भारत सम्राट का दरबार इस कक्ष में लगता है। न राजसी अलंकरण हैं, न सभासद। निश्चिय ही आज के भारत का शासक काफी सादा व्यक्ति है। ब्राह्मण का मन श्रद्धा-भक्ति से आप्लावित है।
(शव को भूमि पर रख देता है।) भगवान् ! यह मेरा बेटा है....।
(उसे बात पूरी नहीं करने देता) जमींदारी उन्मूलन, प्रिवी पर्स-समाप्ति तथा बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् भगवान को आजकल ‘सर’ कहते हैं, या तो ‘योर हाइनेस’ भी वह कह सकते हो।
ब्राह्मण (निस्तेज नहीं होता। अपनी दृढ़ आवाज में पहले से ही आत्मविश्वास के साथ) कहते होंगे। मुझे इससे बहस नहीं है कि आजकल ‘ईमानदारी’, परिश्रम’ तथा ‘त्याग’-तीनों भावों के लिए एक शब्द प्रचलित है-‘मूर्खता’ और बेईमानी’, ‘आलस्य’ तथा ‘स्वार्थ’ को आजकल ‘समझदारी’ कहा जाता है। पर मुझे उससे क्या, मुझे विभिन्न युगों का तुलनात्मक भाषा-विज्ञान नहीं लिखना है, न ही मेरा कोई शब्दकोश रचने का विचार है।...... मैं जो कुछ कहने आया हूँ, मुझे वह कहने दो।
व्यक्तिः (ब्राह्मण को अपनी इच्छानुसार सब कहने नहीं देता। अपनी सेंसरवादी प्रवृत्ति के अनुसार दूसरे को चुप कराने के लिए स्वयं बोलने लगता है।) तुम्हारा एप्रोच मुझे बहुत ही ! ‘उपयोगितावादी’ लगता है, कला का रंच मात्र भी स्पर्श नहीं है तुम्हारे वक्तव्य में।, सुनो, यह उपयोगितावादी दौर प्रेमचन्द के साथ ही मर गया था; और प्रेमचन्द की मृत्यु 1936 में हुई थी। तुम चाहो तो मैं उनके जन्म, के विषय में भी कुछ कहूँ; पर तब मैं अपने विषय से शायद बहक जाऊँ। मुझे बहकने की बड़ी बीमारी है। यह दोष मुझमें हिन्दी एम. ए. करने के कारण आया है खैर...। (आँख भर ब्राह्मण को देखता है।) अब फैशन नहीं है कि आदमी जो कुछ कहना चाहे उसे वह कहने दिया जाये। जो आदमी ऐसा करने का प्रयत्न करता है, उसे ‘प्रेमचन्दीय’ कह कर उसका ऐसे तिरस्कार किया जाता है जैसे ‘प्रेमचन्द’ टी.बी. या कैंसर के रोग का डॉक्टरी नाम हो।
हमने प्रेमचन्द का अर्थ फैशन में पिछ़डा हुआ मान लिया है तो मैं यह कह रहा था कि आजकल फैशन यह है कि जिसके पास कहने को कुछ न हो उसे तो सब कुछ कहने दिया जाये। उसकी बकवास शब्द-विलास है। वह किसी को नहीं चुभती। पर जिसके पास कहने को कुछ है, उस कहना चाहनेवाले व्यक्ति को एक ऐसी सुपरफीशियल कलावादी बहस में उलझा लिया जाये कि वह भूल जाये कि वह क्या कहना चाहता था।....और मैं यहां शासन के प्रतीक के रूप में बैठा हूँ। यह मैं जानता हूँ कि जनता कहना चाहती है कि वह भूखी है। पर मेरा कर्तव्य है कि मैं उसे यह कहने का अवसर न दूँ, इसलिए मैं उसे एक कलावादी बहस में उलझाये रखता हूँ। वह बहस अभी भी चल रही है। बहस का विषय है कि ‘सुख’ क्या है। जनता कहती है सुख से तात्पर्य है कि साधारण आदमी को रोटी मिले, उसे कपड़ा मिले, मकान मिले बीमारी में दवा मिले, पढ़ने को पुस्तक मिलें, बच्चों को शिक्षा मिले। उसे सुरक्षा मिले, उसके श्रम का सम्मान हो –और न जाने ऐसी ही कितनी ऊल-जलूल बातें कहती है जनता। पर शासन जनता से सहमत नहीं होता।
वह शासन ही क्या, जो जनता से सहमत हो जाए। शासन कहता है, सुख से तात्पर्य है देश में अधिक अन्न उपजाने के आंकड़े, उन्हें खाने के लिए फाइव-स्टार होटल, मँहगे रेस्टराँ, डिस्काथेक, कैबरे डांस, बड़े-बड़े पिक्चर हॉल, नंगी फिल्म तारिकाएँ; भद्दे, अशिष्ट, ग्राम्य प्रेम-दृश्य, शराब के ठेके, मल्टीस्टोरी बिल्डिंगें, नेताओं की आलीशान समाधियाँ, विदेशी टूरिस्ट, गाँजा, नशा, व्यभिचार, चाकू और छुरे और वेश्यालय-और योगीराज-योगेश्वर, बाल योगेश्वर, बड़े-छोटे, पतले-मोटे कई प्रकार के ईश्वर, साधु, महात्मा, संत, पीर, फकीर, चोर, पुलिस, डाकू, मंत्री काला बाजारिया, व्यापारी, जमाखोर, नेशनल सेविंग स्कीम, आई मीन राष्ट्रीय बचत योजना.....
ब्राह्मणः पर इस बहस का लाभ क्या होगा ?
व्यक्तिः इस बहस का बहुत लाभ है, ब्राह्मण ! उसे तुम नहीं समझ पाओगे शासन समझता है उस बहस का लाभ, इसलिए वह ऐसी बहसे चलाये रखता है।....तुम इसे इस प्रकार समझो कि जब तक यह निर्णय नहीं हो पाएगा कि ‘सुख’ क्या है, तब तक, यह निर्णय भी नहीं हो पाएगा कि दुख क्या है। जब तक यही निर्णय नहीं होगा कि ‘दुख’ क्या है, तब तक कोई कैसे कह सकता
है कि वह दुखी है। इसलिए हम इस बहस को अनंतकाल तक चलाए रखना चाहते हैं। (सहसा रुककर) पर मैं अभी यह जान नहीं पाया कि तुम क्या कहने आये हो। इसलिए तुम्हें बहस में उलझा लेने की कोई सार्थकता अभी मेरी समझ में आयी नहीं है। कहो, क्या कहना चाहते हो ?
ब्राह्मणः अब तो पहले मैं यह जानना चाहूँगा कि तुम कौन हो ?
व्यक्तिः तुम अपने विषय में जानते हो कि तुम कौन हो ?
ब्राह्मणः देखो पिछली बहस में मत उलझाओ। हजारों वर्षों तक मेरा देश इसी प्रकार की बहसों में उलझा रहा, पर यह जान नहीं पाया कि वह कौन है। विदेशी जान गये कि तुम कौन हो। मुझे बताओ कि तुम कौन हो। ऐसी बहसों का लाभ व्यापारी अधिक उठाता है, संत कम। मुझे बताओ, तुम कौन हो ?
व्यक्तिः तुम किससे मिलने आये हो ?
ब्राह्मणः मैं भगवान राम से मिलने आया हूँ।
व्यक्तिः कौन से राम ? रामचन्द्र, परशुराम, बलराम, जगजीवनराम या माँगेराम ?
रंगशाला के पृष्ठ द्वार के पास प्रकाश उभरता है और मंच की ओर खिसकने लगता है। उस प्रकाश में घिरा हुआ एक ब्राह्मण, जो जन्म, कर्म, आचार-विचार, आस्था और पहनने-ओढ़ने से पूरी तरह ब्राह्माण लगता है। आगे बढ़ रहा है उसकी बाँहों में एक बड़ा बंडल रहता है, जो पूरी तरह से सफेद कपड़े में लिपटा हुआ है।
उसके आस-पास से अनेक लोग पैदल तथा विभिन्न वाहनों पर जाने का अभिनय करते हुए निकल रहे हैं, जैसे किसी व्यस्त खुली सड़क पर यातायात आ-जा रहा हो
सब लोग उस ब्राह्मण को देखते अवश्य हैं, किंतु उससे कहते कुछ नहीं। उससे बचकर कतराकर निकल जाते हैं।
ब्राह्मण भी बिना किसी को पहचाने आगे बढ़ता जा रहा है। ब्राह्मण का चेहरा एकदम भावशून्य है-पत्थर के समान सपाट। वैसा सपाट¸ जैसा जबड़ों को भींच लेने से एक आम चेहर हो जाता है। उसकी आँखें शून्य में घूर रही हैं। उसके लिए जैसे सब कुछ पारदर्शी हो गया है।
प्रकाश मंच के पास पहुँचता है, तो वहाँ चौराहे का दृश्य है। लकड़ी के एक ऊँचे स्टैंड पर ट्रैफिक कांस्टेबल खड़ा ट्रैफिक संचालन कर रहा है। उसके साथ ही कुछ हटकर, बाँह पर तीन फीते चिपकाए, एक हेड कांस्टेबल खड़ा है, जो समय-असमय कांस्टेबल की कुछ सहायता कर देता है। उन की नजरें आगे बढ़ते आते ब्राह्मण पर पड़ती हैं।
कांस्टेबल ब्राह्मण की दिशा में चलने वाले यातायात को रोककर, दूसरी दिशा को चलने का संकेत देता है।
ब्राह्मण अपनी आँखें शून्य में गड़ाए, जड़ बनाए, बिना रुके आगे बढ़ता है। विपरीत दिशा से तेजी से आती हुई कार में आने का अभिनय करता हुआ एक व्यक्ति, उसे लगभग झटककर आगे बढ़ जाता है। ब्राह्मण उसकी झपट में आते-आते बच जाता है।
कांस्टेबल: (ब्राह्मण पर उपेक्षा की दृष्टि डालता है।) साला आदमी होकर अपने आपको बुलडोजर समझता है। सिगनल देखता नहीं है, और बाप की सड़क पर आगे बढ़ता जाता है। क्या है यह ? राष्ट्रपति का जलूस ! समझता है बाकी ट्रैफिक रुक जाएगा। हाथ में तानपूरा लिए बढ़ता जा रहा है !
हेड कांस्टेबलः अबे अन्धे की औलाद ! तेरी आँखें हैं कि कौलडोडे ! सड़क तुझे दहेज में मिली है कि हटेगा ही नहीं। अबे माँ के खसम ! अभी तेरे बाप की कार तेरा कीमा बना जाती, तो उसे हम झटकेवाली दुकान पर भेजते या हलालवाली दुकान पर ? बोल ! अबे यहाँ मीट खाने में भी साम्प्रदायिकता है। समझा ? तेरे एक्सिडेंट के पीछे शहर में साम्प्रदायिक दंगा हो जाता ।
ब्राह्मण न उसकी आवाज सुनता है, न उसकी ओर देखता है। वह पुरानी गति से आगे बढ़ता जाता है।
हेड कांस्टेबलः (बढ़कर क्रोध में ब्राह्मण का हाथ पकड़ लेता है।) सुन, बेटी के....।
ब्राह्मणः (डाँटता है) मुझे स्पर्श मत करो।
हेड कांस्टेबलः (क्षणभर हतप्रभ रहकर) क्यों न छुएँ तुझे ? तू किसी मिनिस्टर की रखैल है ? सेठ का काला-धन है ? संसद सदस्य के छिपे अन्न का गोदाम है ? फिक्स्ड-डिपाजिट है ? क्या है बे तू ? ऐं....मुझे स्पर्श मत करो !
ब्राह्मणः मैं इनमें से कुछ भी नहीं हूँ। मैं एक साधारण, ईमानदार, धार्मिक ब्राह्मण हूँ। और साधारण ईमानदार जनता से अड़ने पर रावण जैसा राक्षस भी नष्ट हो जाता है। इसलिए मुझसे अड़ो मत।....वैसे इस समय मेरी भुजाओं में मेरे एकमात्र बेटे का शव है। मुझे छुओ मत जाने दो।
हेड कांस्टेबल उसकी बाँह कुछ इस प्रकार झटकर छोड़ता है, जैसे उसने ब्राह्मण की बाँह नहीं, छिपकली की पूछ पक़ड़ रखी हो।
ब्राह्मण चुपचाप उसी प्रकार स्थिर पगों से चलता हुआ आगे बढ़ जाता है।
ब्राह्मण के साथ चलता हुआ प्रकाश बुझ जाता है। मंच का पहला पर्दा उठता है। मंच में पाँच सशस्त्र सैनिक की एक टोली पहरा दे रही है। चार सैनिक एक साथ खड़े हैं,
पाँचवा उनसे अलग कुछ हटकर खड़ा है। ब्राह्मण सीढ़ियाँ चढ़कर मंच पर पहुँच जाता है।
विशिष्ट सैनिकः (आगे बढ़ते हुए ब्राह्मण के मार्ग में खड़ा होकर) यह प्रेजेण्ट किसके लिए है ?
ब्राह्मणः (विशिष्ट सैनिक को ठोकर, शुष्क रेगिस्तानी दृष्टि से घूरता है, और एक वाणी में भाव शून्य, तटस्थ ठंडापन भर कर कहता है।) यह मेरे एक मात्र बेटे का शव है।
विशिष्ट सैनिक (चौंक उठता है फिर सँभल जाता है।) तो बौड़म ! इसे लेकर इधर क्यों आया है ? हट यहाँ से !
ब्राह्मणः (दृढ़ स्वर में) नहीं हट सकता।
विशिष्ट सैनिकः क्यों नहीं हट सकता ? तू क्या देश की गरीबी है कि हट नहीं सकता।
ब्राह्मणः नहीं। मैं वह नहीं हूँ। देश की गरीबी को पहले हटा लो, फिर मुझे हटाना।
विशिष्ट सैनिकः गरीबी को हटाने का सरकारी आर्डर हो चुका है। पर तुम जानते हो न कि अपने देश में, सरकारी ऑर्डर को कोई इम्पार्टेंस नहीं है। ऑर्डर आते रहते हैं जाते रहते हैं ऑर्डर मतलब कागज। भाषण मतलब शब्द। इनका कोई अर्थ नहीं है। अर्थ केवल दो चीजों में हैः एक पैसे में दूसरे चाकू,. छुरी, बन्दूक में। बाकी सब बेकार। साली जनता में अब सरकारी आर्डर तो क्या, कानून पुलिस कचहरी-किसी का भी सम्मान नहीं रह गया है। नहीं तो प्रधानमन्त्री कह देतीं और लोग गरीबी नहीं हटाते तो उनकी चमडी़ उधेड़कर भुस भर दिया जाता।
ब्राह्मणः तो क्यों नहीं उधेडी चमड़ी ?
विशिष्ट सैनिकः बात यह है, बड़े भाई ! कि एक-दो होते सरकारी आर्डर न मानने वाले, तो उनकी चमड़ी उधेड़ ही ली जाती। पर इस देश में करोड़ों लोग गरीब हैं। वे सारे के सारे हरामजादे प्रधानमन्त्री की बात की उपेक्षा कर रहे हैं। अपनी गरीबी हटाते नहीं हैं। उन सबकी चमड़ी उधेड़ी जाए-यह बात हमारी प्रधानमन्त्री को पसन्द नहीं है। उनका हृदय बड़ा कोमल है। दया का भण्डार है। पहले समय के महात्मा बुद्ध जैसा।...और गरीबी कोई झुग्गी-झोपड़ी तो है नहीं कि पुलिस के सिपाही जाकर हटा आएँ।...एक काम हमारी सरकार कर रही है।
ब्राह्मणः क्या ?
विशिष्ट सैनिकः हमारी सरकार महँगाई बढ़ाती जा रही है।
ब्राह्मणः उससे क्या होगा ?
विशिष्ट सैनिकः गरीब भूखे मरने लगेंगे, या इस देश को छोड़कर चले जाएँगे। गरीबी असल में उन जूंओं को कहते हैं, जो गरीबों के सिरों में पायी जाती हैं।
ब्राह्मणः तुम्हारी सरकार धनवानों को ही क्यों नहीं हटाती ?
विशिष्ट सैनिकः (हँसकर) अबे, नहीं घनचक्कर ! धनवानों को सरकार कैसे हटाएगी ! तुम शायद यह नहीं जानते कि पैसे और सरकार में अवैध सम्बन्ध है। पैसा इस रजनीतिक वेश्या का यार है। पैसे ने सरकार बनाई है और सरकार ने धनवान बनाए हैं। फिर यार....धनवान लोग शरीफ आदमी हैं, साफ-सुथरे लोग हैं रोज मन्दिर जाते हैं, घर में जुए का अण्डा चलाते हैं, अपने बच्चों को पब्लिक स्कूल में पढ़ाते हैं और लड़कियों के क्रय-विक्रय का धन्धा चलाते हैं; गोदाम में चीजें छिपाकर देश की चीजों की बचत करते हैं। नहीं तो तुम्हारी भुक्खड़ जनता तो एक दिन में सब कुछ खा-पीकर बराबर कर दे। तुम ही बताओ, तब सरकारी बचत –योजनाओं का क्या होगा !
ब्राह्मणः तो तुम....!
विशिष्ट सैनिक- चुप रह। पूछता ही जा रहा है। अबे, तू क्या मेरा इण्टरव्यू लेने आया है !
ब्राह्मणः नहीं।
विशिष्ट सैनिकः तो फिर प्रश्न पूछना बन्द कर, और बात का उत्तर दे।
ब्राह्मणः पूछो। मेरा तुमसे कोई झगड़ा नहीं है। तुम्हारे प्रश्न का उत्तर मैं दूंगा।
विशिष्ट सैनिकः (अपने पद के पूरे रौब के साथ) क्यों नहीं हटाएँ ? बता, तुझे यहाँ से क्यों नहीं हटाएँ ? अब तेरे-जैसे कूड़े-कर्कट का भी इतना साहस हो गया है कि कहता है, तुझे न हटाएँ।
ब्राह्मणः (कुछ उग्रस्वर में) हां। मैं कूड़ा-कर्कट हूँ, जड़ता हूँ, बेईमानी हूँ, चोर-बाजारी हूँ, देश-द्रोह हूँ, एप्रोच हूँ...और भी बहुत कुछ हूँ। तुम्हारी सरकार ने कहा है-केवल गरीबी हटाओ। इन चीजों को हटाने के लिए तुम्हें किसने कहा है ? उस देश में जहाँ आँखों के सामने हत्या हो जाने पर भी ऊपर से आदेश पाए बिना, पुलिस का सिपाही हत्य़ारे को नहीं पकड़ता है, वहाँ तुम इतने साहसी हो बिना ऊपर के आदेश के काम करते हो। तुम ससुर ! मुझे हटाने का साहस कैसे कर सकते हो ?
विशिष्ट सैनिकः (बौखलाया-सा) भाषा कैसी बोलता है बे तू ? मेरी समझ में तेरी बात नहीं आयी।
ब्राह्मणः तू कोई शब्कोश है या विश्वकोश, कि तेरी समझ में सब कुछ आ जाये ! या यह भारत के संविधान में लिखा है कि जो शब्द तेरी समझ में नहीं आये, वह इस देश में नहीं बोला जायेगा। तू क्या भारत माता है ?....मैं एक प्राचीन विचार हूँ, इसलिए मेरी भाषा ऐसी ही होगी। हटो-मार्ग दो !
विशिष्ट सैनिकः तुम मुर्दा लेकर इधर से नहीं जा सकते। श्मशान का रास्ता राष्टपति भवन से होकर नहीं जाता है।
ब्राह्मणः तुम कैसे जानते हो कि श्मशान का रास्ता इधर से होकर नहीं है। तुम भारत का सर्वेक्षण हो क्या ? मैं कहता हूँ कि सारा देश इसी रास्ते से होकर श्मशान जा रहा है। बल्कि सारा देश श्मशान बनता जा रहा है। आदमी मर रहा है भूत पिशाच उसे खा रहे हैं, चुड़ैलें उसे नोच रही हैं। कोई रक्त पी रहा है, कोई मांस नोच रहा है, कोई हड्डियाँ चबा रहा है। और यह सब सरकार की अनुमति से हो रहा है-सरकारी लाइसेंस लेकर। समझे ? सरकार विष फैलाने का परमिट देती है और विष फैलानेवालों से उसका टैक्स लेती है-शारीरिक विष, मानसिक विष, चारित्रिक विष....तुम यदि कुछ पढ़े-लिखे होते, तो मैं तुम्हें बताता कि तुम्हारी सरकार ने देश को बीभत्स रस का सुन्दर उदाहरण बना दिया है। अब रसवादी आचार्य काव्यशास्त्र में बीभत्स रस के लक्षण के पश्चात् कविता की पंक्तियां उदाहरण के रूप में उद्धत नहीं करते। वे सीधे-सीधे लिख देते है-1973 ई. का भारत।....तुम्हें कुछ मालूम भी है कि राजस्थान में अकाल पड़ा है, महाराष्ट्र में अकाल पड़ा है, बिहार में अकाल पड़ा है अन्न का; और सारे देश में अकाल पड़ गया है बुद्धि और चरित्र का। तुम....
विशिष्ट सैनिकः (तुनककर) तुम साले या तो पार्लियामेंट के मेम्बर बन जाओ, या किसी स्कूल में टीचर हो जाओ। भाषण दे देकर भेजा चाट गया। अबे, अब तू अकाल, सूखे, अन्न की उपज के आंकड़े भी देगा ?
ब्राह्मणः आंकड़े देगी तुम्हारी सरकार। जो अन्न नहीं दे सकती, वह आंकड़े देती है। मैं तो केवल भीतर जाना चाहता हूँ।
विशिष्ट सैनिकः किससे मिलना है ?
ब्राह्मणः तुम्हारे राष्ट्रपति से, जो अब भगवान राम के स्थान पर भारतवर्ष पर शासन कर रहा है।
विशिष्ट सैनिक काफी देर तक अपना सिर खुजलाता है, फिर अपना सिर दबाना आरम्भ कर देता है। वह जगह-जगह से इतना पिलपिला लगता है, जैसे पका हुआ पपीता हो। उसके भीतर कर्तव्य से अधिक स्वार्थ जगाता है। वह समझ जाता है कि ब्राह्मण से और अधिक बातचीत,उसके अपने स्वास्थ्य के लिए हितकर नहीं है।
विशिष्ट सैनिकः इतने में ही मेरा भेजा पिलपिला गया है, यदि बातचीत चलती रही तो मेरा सिर मोम के समान पिघलकर बह जायेगा; तब मैं कंधों तक वाली, कुषाण सम्राट कनिष्क की मूर्ति बनकर रह जाऊँगा। इसलिए तुम भीतर जरूर जाओ, पर एक मिनट ठहरो। पहले मैं भीतर से पूछ आऊँ।
ब्राह्मणः पूछ आयो।
विशिष्ट सैनिक भीतर चला जाता है
ब्राह्मणः भीतर से पूछ आऊँ, अर्थात् पत्नी से पूछ आऊँ। यह सैनिक पता नहीं भीतर किससे पूछने गया है। उसकी पत्नी तो निश्चित रूप से भीतर नहीं होगी। ऐसा सम्भव नहीं है कि पत्नी भीतर राष्ट्रपति हो और पति बाहर सन्तरी। पर क्या कहा जा सकता है। यह देश बड़ा विचित्र है, यहाँ कुछ भी असंम्भव नहीं।
प्रकाश बुझकर फिर से जल उठता है। इस बीच दूसरा विशिष्ट सैनिक ब्राह्मण को एक कमरे में पहुँचाकर जा चुका होता है। वह कमरा न बहुत बड़ा है, न बहुत छोटा। सामने एक मेज और एक कुर्सी है, उस पर बैठा हुआ एक व्यक्ति ब्राह्मण को घूर रहा है। मेज पर कई प्रकार की चीजें पड़ी हुई हैं, जिनको पहचानने की चेष्टा ब्राह्मण नहीं करता। कमरे में दो-एक कुर्सियां इधर-उधर बिखरी हुई हैं।
ब्राह्मण चमत्कृत है। क्या भारत सम्राट का दरबार इस कक्ष में लगता है। न राजसी अलंकरण हैं, न सभासद। निश्चिय ही आज के भारत का शासक काफी सादा व्यक्ति है। ब्राह्मण का मन श्रद्धा-भक्ति से आप्लावित है।
(शव को भूमि पर रख देता है।) भगवान् ! यह मेरा बेटा है....।
(उसे बात पूरी नहीं करने देता) जमींदारी उन्मूलन, प्रिवी पर्स-समाप्ति तथा बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पश्चात् भगवान को आजकल ‘सर’ कहते हैं, या तो ‘योर हाइनेस’ भी वह कह सकते हो।
ब्राह्मण (निस्तेज नहीं होता। अपनी दृढ़ आवाज में पहले से ही आत्मविश्वास के साथ) कहते होंगे। मुझे इससे बहस नहीं है कि आजकल ‘ईमानदारी’, परिश्रम’ तथा ‘त्याग’-तीनों भावों के लिए एक शब्द प्रचलित है-‘मूर्खता’ और बेईमानी’, ‘आलस्य’ तथा ‘स्वार्थ’ को आजकल ‘समझदारी’ कहा जाता है। पर मुझे उससे क्या, मुझे विभिन्न युगों का तुलनात्मक भाषा-विज्ञान नहीं लिखना है, न ही मेरा कोई शब्दकोश रचने का विचार है।...... मैं जो कुछ कहने आया हूँ, मुझे वह कहने दो।
व्यक्तिः (ब्राह्मण को अपनी इच्छानुसार सब कहने नहीं देता। अपनी सेंसरवादी प्रवृत्ति के अनुसार दूसरे को चुप कराने के लिए स्वयं बोलने लगता है।) तुम्हारा एप्रोच मुझे बहुत ही ! ‘उपयोगितावादी’ लगता है, कला का रंच मात्र भी स्पर्श नहीं है तुम्हारे वक्तव्य में।, सुनो, यह उपयोगितावादी दौर प्रेमचन्द के साथ ही मर गया था; और प्रेमचन्द की मृत्यु 1936 में हुई थी। तुम चाहो तो मैं उनके जन्म, के विषय में भी कुछ कहूँ; पर तब मैं अपने विषय से शायद बहक जाऊँ। मुझे बहकने की बड़ी बीमारी है। यह दोष मुझमें हिन्दी एम. ए. करने के कारण आया है खैर...। (आँख भर ब्राह्मण को देखता है।) अब फैशन नहीं है कि आदमी जो कुछ कहना चाहे उसे वह कहने दिया जाये। जो आदमी ऐसा करने का प्रयत्न करता है, उसे ‘प्रेमचन्दीय’ कह कर उसका ऐसे तिरस्कार किया जाता है जैसे ‘प्रेमचन्द’ टी.बी. या कैंसर के रोग का डॉक्टरी नाम हो।
हमने प्रेमचन्द का अर्थ फैशन में पिछ़डा हुआ मान लिया है तो मैं यह कह रहा था कि आजकल फैशन यह है कि जिसके पास कहने को कुछ न हो उसे तो सब कुछ कहने दिया जाये। उसकी बकवास शब्द-विलास है। वह किसी को नहीं चुभती। पर जिसके पास कहने को कुछ है, उस कहना चाहनेवाले व्यक्ति को एक ऐसी सुपरफीशियल कलावादी बहस में उलझा लिया जाये कि वह भूल जाये कि वह क्या कहना चाहता था।....और मैं यहां शासन के प्रतीक के रूप में बैठा हूँ। यह मैं जानता हूँ कि जनता कहना चाहती है कि वह भूखी है। पर मेरा कर्तव्य है कि मैं उसे यह कहने का अवसर न दूँ, इसलिए मैं उसे एक कलावादी बहस में उलझाये रखता हूँ। वह बहस अभी भी चल रही है। बहस का विषय है कि ‘सुख’ क्या है। जनता कहती है सुख से तात्पर्य है कि साधारण आदमी को रोटी मिले, उसे कपड़ा मिले, मकान मिले बीमारी में दवा मिले, पढ़ने को पुस्तक मिलें, बच्चों को शिक्षा मिले। उसे सुरक्षा मिले, उसके श्रम का सम्मान हो –और न जाने ऐसी ही कितनी ऊल-जलूल बातें कहती है जनता। पर शासन जनता से सहमत नहीं होता।
वह शासन ही क्या, जो जनता से सहमत हो जाए। शासन कहता है, सुख से तात्पर्य है देश में अधिक अन्न उपजाने के आंकड़े, उन्हें खाने के लिए फाइव-स्टार होटल, मँहगे रेस्टराँ, डिस्काथेक, कैबरे डांस, बड़े-बड़े पिक्चर हॉल, नंगी फिल्म तारिकाएँ; भद्दे, अशिष्ट, ग्राम्य प्रेम-दृश्य, शराब के ठेके, मल्टीस्टोरी बिल्डिंगें, नेताओं की आलीशान समाधियाँ, विदेशी टूरिस्ट, गाँजा, नशा, व्यभिचार, चाकू और छुरे और वेश्यालय-और योगीराज-योगेश्वर, बाल योगेश्वर, बड़े-छोटे, पतले-मोटे कई प्रकार के ईश्वर, साधु, महात्मा, संत, पीर, फकीर, चोर, पुलिस, डाकू, मंत्री काला बाजारिया, व्यापारी, जमाखोर, नेशनल सेविंग स्कीम, आई मीन राष्ट्रीय बचत योजना.....
ब्राह्मणः पर इस बहस का लाभ क्या होगा ?
व्यक्तिः इस बहस का बहुत लाभ है, ब्राह्मण ! उसे तुम नहीं समझ पाओगे शासन समझता है उस बहस का लाभ, इसलिए वह ऐसी बहसे चलाये रखता है।....तुम इसे इस प्रकार समझो कि जब तक यह निर्णय नहीं हो पाएगा कि ‘सुख’ क्या है, तब तक, यह निर्णय भी नहीं हो पाएगा कि दुख क्या है। जब तक यही निर्णय नहीं होगा कि ‘दुख’ क्या है, तब तक कोई कैसे कह सकता
है कि वह दुखी है। इसलिए हम इस बहस को अनंतकाल तक चलाए रखना चाहते हैं। (सहसा रुककर) पर मैं अभी यह जान नहीं पाया कि तुम क्या कहने आये हो। इसलिए तुम्हें बहस में उलझा लेने की कोई सार्थकता अभी मेरी समझ में आयी नहीं है। कहो, क्या कहना चाहते हो ?
ब्राह्मणः अब तो पहले मैं यह जानना चाहूँगा कि तुम कौन हो ?
व्यक्तिः तुम अपने विषय में जानते हो कि तुम कौन हो ?
ब्राह्मणः देखो पिछली बहस में मत उलझाओ। हजारों वर्षों तक मेरा देश इसी प्रकार की बहसों में उलझा रहा, पर यह जान नहीं पाया कि वह कौन है। विदेशी जान गये कि तुम कौन हो। मुझे बताओ कि तुम कौन हो। ऐसी बहसों का लाभ व्यापारी अधिक उठाता है, संत कम। मुझे बताओ, तुम कौन हो ?
व्यक्तिः तुम किससे मिलने आये हो ?
ब्राह्मणः मैं भगवान राम से मिलने आया हूँ।
व्यक्तिः कौन से राम ? रामचन्द्र, परशुराम, बलराम, जगजीवनराम या माँगेराम ?
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