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समसामयिक हिंदी कहानियाँ

धनंजय वर्मा

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :268
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4596
आईएसबीएन :81-237-1489-0

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नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हिंदी कहानियों के संकलन का संपादन डॉ. नामवार सिंह ने किया था। संकलित कथाकार थे : सर्वश्री चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, जैनेंद्रकुमार,

Samsamayik Hindi Kahaniyan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित हिंदी कहानियों के संकलन का संपादन डॉ. नामवार सिंह ने किया था। संकलित कथाकार थे : सर्वश्री चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, जैनेंद्रकुमार, यशपाल, रांगेय राघव, फणीश्वरनाथ (रेणु), निर्मल वर्मा, अमरकांत, ज्ञानरंजन, काशीनाथ सिंह, राजेन्द्रयादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, श्रीकांत वर्मा।

यह संग्रह डॉ. धनंजय वर्मा द्वारा संपादित है। इसे हिन्दी कहानी का दूसरा भाग कहने की बजाय समसामयिक हिंदी कहानियां नाम दिया गया है। अर्थात् यह अनुवर्ती की बजाय पहले संकलन सहित हिंदी कहानी का संपूर्ण चित्र प्रस्तुत कर पाएगी। डॉ. धनंजय वर्मा के शब्दों में ‘हमारी भरसक कोशिश रही है कि यथा संभव वस्तुपरक ढंग से हिन्दी कहानी के समसामयिक परिदृश्य को उसकी मुमकिन समग्रता में प्रस्तुत किया जाय।’ इस संकलन के कथाकार हैं : सर्वश्री गजानन माधव मुक्तिबोध, हरिशंकर परसाई, धर्मवीर भारती, अमृता राय, भीष्म साहनी, रामकुमार, कृष्ण बलदेव वैद, महीप सिंह, शानी, कामता नाथ, राजीसेठ, रमेश बक्षी, गिरिराज किशोर, रामनारायण शुक्ल, ओमप्रकाश मेहरा, गोविंद मिश्र, रमाकांत श्रीवास्तव, सत्येन कुमार, स्वयं प्रकाश, मंजूर एहतेशाम।

समसामायिक कहानी की पहचान


समसामायिक कहानी की प्राथमिकता की जाँच का एक सीधा तरीका यह हो सकता है कि हम उनमें से उभरने वाले की आदमी तस्वीर का जायजा लें और यह तय करे कि वह समकालीन मनुष्य की तस्वीर नहीं। समसामायिस कहानी के जरिये सही आदमी की पहचान या उस पहचान जरिये समसामायिक कहानी की प्रामाणिकता की पड़ताल जितनी आसान, ऊपर से, नजर आती है, उनमें उतने ही खतरे भी हैं, क्योंकि इस रास्ते हमको-आपको बहुत सारी उलझी हुई बातों और मुद्दों को साफ करना है।

सबसे पहले यही तय किया जाए कि समसामयिक कहानियों में से जिस आदमी की तस्वीर उभरती है वह कौन और कैसा है ? वह समकालीन वास्तविक मनुष्य के रूपों से कितना मिलता-जुलता है या कि अलग है ? अव्वल तो आप कह सकते हैं कि लेखक ही व आदमी हो सकता है जो अपनी रचनाओं में से उभरता है। जो लेखक अपनी रचनाओं में खुद को उभारते, रचते और बुनते है वो आत्म-अभिव्यक्तिवादी कहे जाते हैं, वे खुद को व्यक्ति-स्वातंत्र्य के अलमबरदार भी कहते हैं, लेकिन वे समकालीन और सामान्य मनुष्य को उतनी भी स्वतंत्रता देना नहीं चाहते कि वह इनकी रचनाओं में से झांक सके। उसे याने अपनी रचना को तो वे अपनी मूर्ति घड़ने और  फिर-फिर कर घड़ने माध्यम मानते हैं जोकि मानव मूल्य और नियति कि चिंता की मुद्रा उनकी भी होती है। बहरहाल, अब हममें से अधिकांश इस बात की ताईद नहीं करेंगे कि कहानी को इतना आत्म-सीमित  और व्यक्तिवादी बना दिया जाय।

कहानी इस रुख और नजरिये को काफी पहले छोड़ चुकी है। अब तो वह अपने माध्यम से समय, समाज, परिस्थिति और पूरे परिवेश को मूर्त करने, उनके आमने-सामाने आने और उसमें शामिल होकर उसकी चुनौतियों को स्वीकार करने और उनसे टकराने का हथियार हो गयी है। इस दिशा में वह लगातार विकसित हुई और हो रही है। अपने समय, अपने आज, अपनी चौतरफा और जद्दोजहद करती दुनिया के उभारने वाले अक्स से ही अब कहानी की प्रामाणिकता की जाँच हो सकती है। लेखक ने जो भी यथार्थ देखा- भोगा है, उनका अनुभव कितना ही प्रामाणिक हो हम उनकी जांच–परख समकालीन और सामान्य मनुष्य के भोगे जाते यथार्थ और अनुभव के सामानांतर ही करेंगे। इस बहाने हम कोई निर्देश देना नहीं चाहते, वह आपको समय देता है और देगा हम तो उसे सिर्फ रेखांकित ही कर सकते है फिर यह अक्स ही काफी नहीं होता। जरूरी यह भी है कि उसके प्रति आपका एप्रोच आपका रुख-नजरिया क्या है और आप उसके जरिये जुड़े किससे हैं।.....

यह बात खासी अहम और समसामायिक कहानीकार इस मामले में खासा चौकस भी है। वह अपनी हैसियत और दर्जा एक साधारण नागरिक से अलग नहीं मानता। हर दिन और हर क्षण होने वाले अंतर्वाह्य अनुभव उसे बार-बार और लगातार एक भायानक युद्ध के बीच ला पटकते हैं। उसकी कोशिश है कि उसकी बात केवल उसकी न रहकर उसके चारों तरफ के उन सब लोगों की हो जिनके बीच वह रहता है और रचता है। इसलिए आप गौर करें समसामायिक कहानी में जो बदलाव आया है उसका बुनियादी आधार ही है कि उनमें कहानीकार स्थितियों का महज चश्मदीद गवाह नहीं है, उससे आगे बढ़कर वह उनमें शामिल है और उससे उपजी विसंगतियों और त्रासदियों का वह समभोक्ता है समकालीन संदर्भों में प्रमाणिक कहानी वही हो सकती है जो समकालीन आदमी की तरह आज की स्थितियों में शामिल और उनसे जूझते हुए पाये पाये गये अनुभव को रचे।

 मानव अभिव्यक्ति की सारी विधायें जो नयी ताकत और सार्थकता पाती हैं, सामान्य मनुष्य की जिंदगी की जमीन पर आकर ही पा सकती है। हम जो जी रहे हैं यदि उसका बिंब-प्रतिबिंब उनमें न हुआ तो किसी भी व्यवस्था के षड्यंत्र को तोड़ा नहीं जा सकता। वह चाहे संबंधों की जड़ता हो या मूल्यों का अवमूल्यन हो, यह सब हवा में नहीं हो रहा है। उससे साफ-साफ कारण और जड़े व्यवस्था में है।

सममायिक प्रमाणिक कहानी इस बात से वाकिफ लगती है। उसमें विरोध की राजनीति और राजनीति-हीनता के अवसरवाद का नकाब भी उलटा हुआ मिलेगा। चीजों और संबंधों के बदले हुए सरगम को उभारकर उनमें समकालीन जिंदगी की केन्द्रीयता भी मिलेगी। उसमें खासी और तल्ख तकरार है, सामान्य की केन्द्रियता भी मिलेगी। उनमें खासी और, सामान्य मनुष्य की खीझ बदहवासी और आक्रमकता भी उनमें हैं। सममायिक कहानी प्रतिवाद और प्रतिरोध की कहानी हैं।.....उसका प्रतिवाद और प्रतिरोध हर उस चीज से है जो समकालीन मनुष्य के संकट का कारण है। ऐसा नहीं कि इसमें पहले असहमति की कहानियां नहीं लिखी गयीं, लेकिन समसामायिकता असहमति की मानसिकता भी बदली हुई है। पहले इन्कार की मुद्रा थी और उसके बाद पीछे था अतीत से लगाव का संस्कार और उससे एक अजब सी दुविधा पैदा हो गयी थी। उसने कृत्रिक द्वद्वों और विरोधों को भी जन्म दिया था।

परिवेश के माध्यम से व्यक्ति और व्यक्ति के माध्यम से परिवेश को पाने या सामायिक यथार्थ के बीच व्यक्ति को प्रतिष्ठित करने की पुरानी प्रतिज्ञा से क्या यह नहीं लगता कि इसमें परिवेश और व्यक्ति को अलग-अलग मान लिया गया है और सामाजिक यथार्थ और वैयक्तितक यथार्थ को दो खानों में बाँट दिया गया हैं। इसी को तो नतीजा है कि लोकप्रिय और साहित्यिक कहानी के भी खाने खिंच गये और फिर साहित्य की राजनीति में वक्तव्यों की खासी दिलचस्प लड़ाई छिड़ गयी। यथार्थ की कायल लोग चुपके से अभिव्यक्ति के यथार्थ की शरण चले गये ।.... लेकिन वह दौर भी गुजर गया। अब न तो अतीत से लगाव का कोई मोह रह गया है कि किसी का मोह भंग हो और न यथार्थ को सामाजिक और वैयक्तितक के खानों में बांट कर देखा जा सकता है। उनमें एक संश्लिष्टता और आंगिकता का नजरिया विकसित हुआ है और कहानी की चेतना सारी सामाजिक चेतना का अंग और अंश होकर अभिव्यक्त हो रही हैं।

समसामायिक कहानी में कृमिक द्वंद्वों और विरोधों में से मुक्त का एक और स्तर व्यक्त हुआ हैं। वह कहानी व्यापक छदम से संघर्ष। यह छदम हैं विद्रोह, अक्रामकता और आक्रोश का। अभी बहुत दिन नहीं हुए जबकि सारा वातावरण संवाद-हीनता, अकेलेपन, अजनबीपन और संत्रास के शब्दोंच्चारों से गूँज रहा था। कुछ तो अभी भी उसी उसी की माला जप रहे है। इस जाप के साथ एक आक्रोश और आक्रामकता की मुद्रा भी इस बीच कहानी में उभरी और उसका केन्द्र था सिर्फ स्त्री-पुरुष संबंध। इन संबंधों में आये तनाव और ठंडेपन को लेकर कहानियाँ धीरे-धीरे टूटती हुई एक भयानक दुनिया में उतरने का दावा लेकर आयी और उनके लेखकों की सारी कोशिश अपनी खोई –हुई अस्मिता की तलाश थी। उनका दावा था कि वे ही सही मायनों में समसामायिक हैं लेकिन सच तो यह है कि थीं सिर्फ उन लेखकों की नितांत निजी दुनिया की, उनके अपने अंधेरे लोकों की या फिर एक विशेष काट और सांचे में ढले आदमियों की जो आदमी नहीं सिर्फ व्यक्ति’ होता है और काफी जल्दी यह मालूम होता गया कि चीजों और संबंधों और स्थितियों की बदलाहट या वर्तमान की  क्रूरता और भयावहता का नाम लेकर इन कहानियों में लेखकों  के सपाट चेहरे ही अधिक उभर रहे थे। ऐसे चेहरे जिन पर जीवन की सीधी रगड़ के निशानात तो गायब थे, था सिर्फ एक बौद्धिक पोज। हम नहीं कहते कि अकेलापन, अजनबीपन या संत्रास परिवेश में कभी –कभी नही रहा; लेकिन सवाल यह है कि उसे आप कहां केन्द्रित कर रहे है ?

किस परिप्रेक्ष्य में उसे देख रहे है ? उसके प्रति आपका एप्रोच और रुख क्या है ? मजे की बात तो यह है कि जहाँ सब हो रहा है वहाँ से तो वो कहानियाँ और उनके लेखक कटे हुए थे और अपनी व्यक्तिवादी खोल में दुबके एक  रहस्यमय और अनाम संत्रास का जाप कर रहे थे या फिर उस सबकों आध्यात्मिक और दार्शनिक जामा पहना रहे थे। वो समझना ही नहीं चाहते थे कि आधुनिक स्थितियों में हो रहे समसामायिकता अमानवीकरण, अजनबीयता, अलगाव, अकेलेपन और संत्रास के पीछे एक व्यवस्था है और यह सब पंजीवाद देशों में अपनी स्थिति पर है क्योकि वहां बावजूद औद्यौगिकरण और यान्त्रिक प्रगति के सामान्य मनुष्य की भागीदारी नहीं है। वह तो वहाँ अपने ही श्रम से कटा हुआ और अजनबी है।  

हमारे यहाँ तो सामान्य मनुष्य चौराहों बसो, ट्रामों, कारखानों, आफिसों, झुग्गी-झोपड़ियों और राशन की लम्बी-लम्बी कतारों में आर्थिक अभावों से जूझता, पारिवारिक संकट झेलता रहा लेकिन इसे लेखकों ने भीड़’ समझा और उससे सम्बद्धता को राजनीति कह  कर अपनी नाक भौं सिकोड़ी। उसकी नियति को अपनी नियति से अलग मानकर वे अपनी अस्मित की तलाश करते रहे-कला के सुरक्षित लोक में। उन्होंने विद्रोंह किया-अपने बूढ़े माँ-बाप या प्रेमिका से, वे अक्रामक हुए-सूने बिस्तरों पर और उनका आक्रोश निकला-पत्नियों पर।

 मध्यम वर्ग से आये इन लेखकों की वर्गचेतना को लकवा मार गया और वर्ग संघर्ष की एवज में उन्होंने सामान्जस्य और सह-अस्तित्व को चुन लिया अनुभव और लेखन को धारातल पर उनकी मानसिकता में इसलिए एक खाई आयी जिसे वे कलाकार की तटस्था या भोक्ता रचनाकार और सर्जक मनीष के अलगाव की कलावादी धारणा का नाम लेकर छिपाते रहे। जिन्दगी के खांटी तीखे औरत तल्ख अनुभवों से गुजरने वाला कथाकार अपनी चौतरफा क्रूरताओं से सिर्फ विचार के स्तर पर ही नहीं, जीवन के स्तर पर भी लड़ता है। तटस्थ नहीं रह सकता। फिर तो विचार के स्तर पर लड़ने की ताकत भी तो जीवन के स्तर पर लड़ी जाने वाली लड़ाई से ही आती है।

समसामायिक कहानी के इस परिदृश्य में एक अर्से तक जिस ‘सामांतर कहानी’ का आंदोलन चला उसका परचम लहाराते हुए एक लेखक महोदय ने कहा था- ‘आज का लेखक कलावादी-सौन्दर्यवादी मूल्यों के लिए नहीं लड़ रहा है। वह लड़ रहा हैं अपने विचारों के लिए क्योंकि यह नहीं भूलना चाहिए कि सामान्य जन की नियति का विर्णय अभी होना हैं और इसके लिए आज का लेखक मोर्चें पर सबसे आगे है’ ।....

यह खासी सामरिक शब्दावली हैं और किसका मंशा नहीं होगा कि ऐसा हो और यदि यही समसायिकता कहानी की पहचान हैं तो फिर हम-आपमें इतना साहस और ईमानदारी होनी चाहिए कि वह सीधे-सीधे यह घोषित करें कि जो कहानियाँ सामान्य जन की नियति और उसके निर्णययक संघर्ष में शामिल नहीं हैं वो समसामायिक कहानियाँ नहीं है। आज भी जो लेखक कलावादी और सौन्दर्यवादी मूल्यों की रक्षा में छाती पीट रहे है और भूख अकाल जैसे व्यापक भारतीय अनुभव और वास्तविकता को कविता की अमूर्त और थरथराती भाषा में पेश करना चाहते हैं उन्हें आप किस हद तक समसामायिकता कह सकते हैं ? क्या इस बात से इनकार कर सकते है ? कि आज का आदमी विचारों के लिए नहीं, अपने अस्तितिव की रक्षा के लिए लड़ रहा है।

 आज उसका संघर्ष दार्शनिक नहीं आर्थिक हैं और फिर ऊपर से  जो लडाई विचारधारा की आइडियालाजी की और विचारों की नजर आती है उसके पीछे भी तो वर्ग-हित सक्रिय है। चुनांचे जो लोग दार्शनिक और वैचारिक संघर्ष को शब्द की प्रथम प्रतिश्रुति मानते हैं उनकी राजनीतिक सामाजिक संघर्ष को शब्द की प्रथम प्रतिश्रुति मानते हैं उनकी राजनीतिक और आर्थिक विचारधारात्मक सम्बन्धताओं को भी हमें समझना होगा। लेखक में से नुमायां होते उनके वर्ग हितों को भी देखना होगा। क्या अब भी वक्त नहीं आ गया है कि लेखक अपनी सम्बद्धतायें और प्रतिबद्धतायें घोषित करें और लेखन में अपनी रचनात्मकता प्रतिश्रुतियां साफ करें।

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