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नारी विमर्श >> भारत की गरिमामयी नारियाँ

भारत की गरिमामयी नारियाँ

लालबहादुर सिंह चौहान

प्रकाशक : आत्माराम एण्ड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :260
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4638
आईएसबीएन :81-7043-406-8

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प्राचीन काल से आज तक अनेक भारतीय नारी-रत्नों ने संसार में कई उच्चतम आदर्शों की स्थापना की है और अपने सुकृत्यों एवं सेवाओं से नारी जाति के नाम को उज्जवल किया है।

Bharat Ki Garimamyi Nariyan a hindi book by Lalbhadur Singh Chauhan - भारत की गरिमामयी नारियाँ - लालबहादुर सिंह चौहान

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

प्राक्कथन

प्राचीन काल से आज तक अनेक भारतीय नारी-रत्नों ने संसार में कई उच्चतम आदर्शों की स्थापना की है और अपने सुकृत्यों एवं सेवाओं से नारी जाति के नाम को उज्जवल किया है। भारतीय नारी प्रारंभ से ही पृथ्वी के समान क्षमाशील समुद्र के समान गंभीर शशि के समान शीतल, रवि के समान तेजस्वी तथा पर्वत के समान मानसिक रूप से उन्नत रही है; वहीं वह आवश्यकता पड़ने पर रणचंडी का विशाल विकराल रूप भी धारण कर सकती है। वास्तव में स्त्री तथा पुरुष दोनों गाड़ी के दो पहिए हैं जो जीवन-क्षेत्र में परस्पर एक-दूसरे के पूरक हैं। एक के अभाव में दूसरे का व्यक्तित्व अपूर्ण है। नारी राष्ट्र की निर्माता है, स्त्री पत्नी के रूप में पुरुष की परामर्शदात्री एवं शुभेच्छु होती है तथा माता के रूप में उसकी गुरु है।

वैदिक पुरातन समय में भारतीय नारी को समाज में अत्यधिक श्रेष्ठ व उच्च स्थान प्राप्त था। उसके अभाव में व्यक्ति अपने धार्मिक कार्य तथा अनुष्ठान आदि को पूर्ण नहीं कर पाता था। तब नारी न केवल धार्मिक कार्यों में ही, अपितु युद्ध के समय रणक्षेत्र में भी पुरुष की सहायक होती थी। हर घर का सौंदर्य थी। उसे दैवी शक्ति का प्रतीक माना जाता था। मनु के शब्दों में "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता" अर्थात् जहां नारी का सम्मान होता है, वहां देवता निवास करते हैं। भारतीय संस्कृति में नारी त्याग विश्वास तथा श्रद्धा की प्रतीक रही है। विश्व में भारतीय संस्कृति व सभ्यता का मूल कारण नारीत्व का उच्च तथा महान आदर्श ही रहा है।

भारत के गौरवमय अतीत तथा जीवन के विविध क्षेत्रों में विशिष्ट उपलब्धियां प्राप्त करने वाली गरिमामयी नारियों के प्रति छात्राओं व महिलाओं के मन-मस्तिष्क में समादर का भाव विकसित करने और उनमें देश-प्रेम, राष्ट्रीय एकता-अखण्डता, समाज-सेवा, स्वातंत्र्य-प्रेम, परोपकार, सदाचार और त्याग की भावना जैसे पावन मूल्यों का विकास उत्पन्न करने के उद्देश्य को दृष्टिगत् रखते हुए अपनी कृति ‘भारत की गरिमामयी नारियां’, पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूं। मुझे आशा ही नहीं, वरन् पूर्ण विश्वास है कि ‘भारत की गरिमामयी नारियां’ पुस्तक सुविज्ञ पाठक सहर्ष पसंद करेंगे, तभी मैं अपने प्रयास को सफल समझूंगा।

डॉ. लालबहादुर सिंह चौहान


अरुणा आसफअली


भारत के स्वतंत्रता-आंदोलन में अग्रणी भूमिका अदा करने वाली क्रांतिकारी-जुझारू नेता श्रीमती अरुण आसफअली का नाम कौन नहीं जानता ? श्रीमती अरुणा आसफअली के सन् 1942 ई. के ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ आंदोलन में दिए गए महत्त्वपूर्ण योगदान को कभी स्वप्न में भी विस्मृत नहीं किया जा सकता। देश को आजाद कराने के लिए अरुणा जी जान की बाजी लगाकर निरंतर वर्षों अंग्रेजों से संघर्ष करती रही थीं।

अरुणा जी का जन्म बंगाली परिवार में सन् 1909 ई. में हुआ था। जाति से यह ब्राह्मण परिवार था। इनका मूल नाम अरुणा गांगुली था। अरुणा जी ने स्कूली शिक्षा-दीक्षा नैनीताल में प्राप्त की। यह कुशाग्र बुद्धि और पढ़ाई-लिखाई में बहुत होशियार थीं और बाल्यकाल से ही कक्षा में सर्वोच्च स्थान पाती थीं। बचपन में ही उन्होंने अपनी बुद्धिमत्ता और तेज-तर्राफी की धाक जमा दी थी।

अरुणा जी पढ़-लिखकर जब वयस्क हुईं तो उन्होंने सन् 1928 ई. में अपना अंतर्जातीय प्रेम-विवाह अपनी मन-मर्जी से सुविख्यात वकील आसफअली से कर लिया। यद्यपि उनके पिता इस अंतर्जातीय विवाह के बहुत विरुद्ध थे और मुस्लिम युवक मि. आसफअली के साथ अपनी बेटी की शादी किसी भी कीमत पर करने को राजी नहीं थे। परंतु अरुणा जी बहुत स्वतंत्र विचारों की और स्वतः निर्णय लेने वाली युवती थीं। अस्तु, माता-पिता के सख्त विरोध के बावजूद भी स्वेच्छा से शादी कर ली और पति के पास आ गईं, और पति के पास प्रेमपूर्वक रहने लगीं।

परतंत्र भारत की दुर्दशा और अंग्रेजी शासन के अत्याचार देखकर अपनी शादी के उपरांत श्रीमती अरुणा आसफअली स्वतंत्रता-संग्राम में कूद पड़ीं। वह सक्रियता से आंदोलन में भाग लेने लगीं। उन्होंने महात्मा गांधी और मौलाना अबुल कलाम आजाद की सभाओं में जाना शुरू कर दिया। इन दोनों नेताओं के निकट संपर्क में आईं और उनके साथ कर्मठता, से राजनीति में भाग लेने लगीं, वे फिर लोकनायक जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और अच्युत पटवर्द्धन के साथ कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी से संबद्ध हो गईं।

श्रीमती अरुणा आसफअली सन् 1930 ई. में सविनय अवज्ञा आंदोलन सिलसिले में पहली बार गिरफ्तार होकर जेल गईं। अरुणाजी सन् 1932 ई. और सन् 1941 ई. में भी अंग्रेजी सरकार द्वारा गिरफ्तार कराई गईं थीं और जेल भेजी गई थीं। अंग्रेजी सरकार उन दिनों उनसे बहुत परेशान थी, क्योंकि उनकी गणना तब खतरनाक क्रांतिकारियों में हो रही थी। इसीलिए ब्रिटिश सरकार उन्हें जेल के सींखचों में बंद रखना चाहती थी।

सन् 1942 ई. बंबई के ग्वालिया टेंक मैदान में पुलिस को चुनौती देकर अरुणा आसफअली ने निर्भीक होकर साहसपूर्वक तिरंगा झंडा फहराया था और उसके तुरंत बाद वे तेजी से भूमिगत हो गई थीं। ब्रिटिश सरकार पता लगाते-लगाते परेशान होती रही पर श्रीमती अरुणा आसफअली उनके हाथ नहीं लगीं।
और फिर दो वर्ष के अंतराल के पश्चात् सन् 1946 ई. में भूमिगत जीवन से बाहर आ गईं। भूमिगत जीवन से बाहर आने उपरांत सन् 1947 ई. में श्रीमती अरुणा आसफअली दिल्ली-प्रदेश कांग्रेस कमेटी की अध्यक्षा चुनी गईं। दिल्ली में कांग्रेस संगठन को इन्होंने सुदृढ़ किया।

सन् 1948 ई. में श्रीमती अरुणा आसफअली सोशलिस्ट पार्टी में सम्मिलित हो गईं और दो साल पश्चात् सन् 1950 ई. में उन्होंने अलग से ‘लेफ्ट स्पेशलिस्ट पार्टी’ बनाई और वे सक्रिय होकर मजदूर-आंदोलन में जी जान से जुट गईं। अंत में सन् 1955 ई. में इस पार्टी का भारतीय कम्यनिस्ट पार्टी में विलय हो गया।

श्रीमती अरुणा आसफअली भाकपा की केंद्रीय समिति की सदस्या और ‘ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस’ की उपाध्यक्षा बनाई गई थीं। परंतु सन् 1958 ई. में उन्होंने मार्क्सावादी कम्युनिस्ट पार्टी भी छोड़ दी। और फिर सन् 1964 ई. में पं. जवाहरलाल नेहरू के निधन के पश्चात् वे पुनः कांग्रेस पार्टी से जुड़ीं जरूर, परंतु अधिक सक्रिय नहीं रहीं।
श्रीमती अरुणा आसफअली सन् 1958 ई. में दिल्ली नगर निगम की प्रथम महापौर (Mayor) चुनी गईं। मेयर के बतौर उन्होंने दिल्ली के विकास सफाई व स्वास्थ्य आदि के लिए अच्छा कार्य किया और नगर निगम की कार्य प्रणाली में भी उन्होंने यथेष्ट सुधार किए।

श्रीमती अरुणा आसफअली ‘इंडो सोवियत कल्चरल सोसाइटी’, ‘ऑल इंडिया पीस काउंसिल’, तथा ‘नेशनल फैडरेशन ऑफ इंडियन वू मैन’, आदि संगठनों से संबद्ध रही थीं। वे लगातार इन संस्थाओं में विभिन्न पदों पर वर्षों आसीन रहीं और इन संस्थाओं में उन्होंने बड़ी लगन, निष्ठा, ईमानदारी और सक्रियता से कार्य किया। दिल्ली प्रवास काल में मुझे उनसे कई बार मिलने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। वे वृद्धावस्था में बहुत शांत और गंभीर स्वभाव की हो गई थीं। मैं उनकी आत्मीयता और स्नेह को कभी भुला नहीं सकता। वास्तव में वे महान देशभक्त थीं।

श्रीमती अरुणा आसफअली को ‘लेनिन शांति पुरस्कार’ और ‘इंदिरा गांधी अवार्ड’ (राष्ट्रीय एकता के लिए) से सम्मालित किया गया था। दिल्ली से प्रकाशित वामपंथी अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र ‘पेट्रियट’ से वे जीवनपर्यंत कर्मठता से जुड़ी रहीं।
वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी श्रीमती अरुणा आसफअली 87 वर्ष की आयु में दिनांक 29 जुलाई, सन् 1996 ई. को इस असार संसार को छोड़कर हमेशा हमेशा के लिए दूर-बहुत दूर चली गईं। उनकी सुकीर्ति आज भी अमर है।


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