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रहिमन पानी राखिए

विद्यानिवास मिश्र

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :198
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4696
आईएसबीएन :81-8143-493-5

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निबंध, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत आदि रचनाओं का संकलन है ‘रहिमन पानी राखिए’...

Rahiman pani rakhiye

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

विद्यानिवास मिश्र ने आजीवन एक अनथक जिज्ञासु की भाँति जीवन और ज्ञान के विवध क्षेत्रों को देखा-परखा। उनकी रुचि बहुआयामी थी, जिसके कारण वे एक सहृदय, रसिक, यात्री, तत्व विश्लेषक, संस्कृतिविद्, लोकविद् और न जाने कितने रूपों में हमारे सामने आते थे। उन्हें भारतीय संस्कृति और परम्परा का अगाध ज्ञान था, जिसे उन्होंने हमेशा पांडित्य के बोझ से मुक्त रखते हुए लोकग्राही बनाकर पाठकों के सामने रक्खा।

वस्तुतः उन्होंने परम्परावादी कहे जाने का खतरा उठाकर भी हमें अतीत और परम्परा के उन महत्वपूर्ण निधियों से परिचित कराया, जिससे युक्त होकर हमारी भविष्य दृष्टि को नींव मजबूत होती है।
‘रहिमन पानी राखिए’ उनकी ऐसी रचनाओं का संकलन है जो उनकी पूर्वप्रकाशित कृतियों मे उपलब्ध नहीं हैं। इसमें उनके, निबंध, संस्मरण, यात्रा वृत्तांत आदि शामिल हैं, जो अलग-अलग होते हुए भी पंडित जी के चिंतन-सूत्र से परस्पर जुड़कर एक समग्र परिदृश्य रचते हैं।

जल अव्यक्त अनंत आकार है, सरस्वती नाम उस अनन्त भावना का है, जो प्रसुप्त है हममें से प्रत्येक के भीतर, जो हममें से प्रत्येक को भाषा के माध्यम से, भाव के माध्यम से एक दूसरे से जोड़ती है, यह बतलाती हुई कि तुम सब जीवन प्रवाह के अंग हो। पानी हमारे देश का जीवन है। प्रत्येक-व्यक्ति की लाचारी है कि एक पानी की छोटी धारा बने, प्रत्येक धारा की एक लाचारी है कि एक बड़े धारा की अंग बने, बड़ी धारा की लाचारी है एक अनंत में मिले, अनंत की भी लाचारी है कि हर प्रकाश से तपे बिन्दु बिन्दु खिंचे, कभी भाप बने, भाप बनकर बादल बने, कभी बस पूर्णिमा के दिन धवल फेनों की झालदार ज्वार-माला बन जाए। पानी होने का एक ही तो अर्थ है, दूसरे के लिए होना।

ऐसा पानी केवल द्रव नहीं है, वह दीप्ति भी है। हमारे देश के कविकुल गुरु कालिदास धूप को पानी के रूप में देखते हैं, साँझ होती है, झलमल रोशनी पेड़ों की चोटियों पर दिखती हैं, मोर उस रोशनी को बूँद-बूँद पीते हैं। अंधकार पूरब की ओर से गहराता हुआ आता है पर पश्चिम दिगंत में थोड़ी से रोशनी झलमलाती रहती है, ऐसा लगता है आकाश एक बड़ा मानसरोवर है जो सूख रहा है, करीब-करीब सूख भी गया है, बस थोड़ा-सा जल पश्चिम की ओर शेष रह गया है, सिमटती हुई धूप की यह प्यास जिस देश के कवि की होती है, मुहाविरा ही कुछ दूसरा होता है, यहाँ आँख में पानी भर जाए तो आदमी समाज में निंदा का पात्र बन जाता है, अगर मोती का पानी उतर जाए तो उसकी कोई कीमत नहीं लगती, अगर चूने का पानी मर जाए तो पान का रंग बिगाड़ दे, अगर तलवार में पानी न चढ़ाया जाए तो वह बस केवल एक पोशाक बनकर रह जाए, अगर आदमी अपने पानी की चिंता छोड़ दे तो उसको कोई भी पूछेगा नहीं।
इस देश के रँग में पूरी तरह रँग कर ही रहीम ने कहा-


रहिम पानी राखिए पानी बिन सब सून।
पानी गए न ऊबरैं, मोती मानुस चूर।।


हर जतन से पानी राखिए, पानी चले जाने पर फिर उबरने की कोई आशा नहीं रहती। कष्ट सहिए पर पानी राखिए।

 

इसी पुस्तक से

 

निवेदन

 

‘रहिमन पानी राखिए’ आदरणीय पंडित विद्यानिवास मिश्र की उन रचनाओं का संकलन है जो उनकी पूर्व प्रकाशित कृतियों में उपलब्ध नहीं हैं। पंडित जी जीवन और साहित्य की व्यस्तताओं में इन्हें स्वयं व्यवस्थित कर पाठकों तक पहुँचाने के पहले ही हम सब से विदा ले लिए। सब कुछ अकल्पनीय ढंग से हुआ। जीवन की आपाधापी अंत तक बनी रही और इस क्रम में उनकी भौतिक शरीर यात्रा अनंत की यात्रा में तब्दील हो गई पर उनकी जीवंतता सदैव उनके साथ बनी रही। उनकी अनेक रचनाएँ अभी तक अप्रकाशित हैं। उन्हें प्रस्तुत करने के प्रयास में यह प्रथम कड़ी है।

पंडित जी की रुचि बहुआयामी थी और उसमें जीवन रस को अपनी समग्रता में, गहने और थहाने की तीव्र आकांक्षा थी। उनकी रचनाओं में एक सहृदय, रसिक यात्रा तत्त्व विश्लेषक संस्कृतिविद की संश्लिष्ट छवि उभरती है। जीवन के निकट जाना, उसमें डूबना उतराना और अपने साथ अपने पाठकों और श्रोताओं को उसका रख चखाना श्रुति की वाचिक पंरपरा का स्मरण दिलाता है। रस का संचार और संवाद ही उनका प्रमुख संबोध्य है। उनकी इस छवि की यहाँ पुष्टि होती है।

इस संग्रह की रचनाओं को पाँच शीर्षकों में रखा गया है। ये शीर्षक पंडित जी की पूर्व प्रकाशित रचनाओं से लिए गए हैं और उन्हें व्यवस्थित करने का आधार उनमें निहित भाव और विषय हैं। व्यक्ति व्यंजना में उनके वे निबंध हैं जो भारतीय संस्कृति को पहिचनवाते हुए वे अपनी और अपने राम की स्मृति भी ताजी करते हैं। अतीत, वर्तमान और अनागत भविष्य के बीच हमारी अपनी पहचान किस तरह बनती बिगड़ती है, उसके सामने क्या चुनौतियाँ हैं ऐसे प्रश्नों से हमारा सामना होता है। इनमें हमारे खोने, पाने, बनने और बिगड़ने और संगति-विसंगति इन सबका विश्लेषण सहज भाव से किया गया है।
 
‘चिड़िया रैन बसेरा’ में पंडित जी के संस्मरण है। गाँव, घर, शहर, देश, विदेश में विभिन्न स्थितियों में रहते हुए पंडित जी के अनुभव विशिष्ट देशकाल की छवि उकेरते हैं। इन संस्मरणों के साथ विचरते हुए हमें एक काल के सांस्कृतिक इतिहास की झलक मिलती है। शहरों का अपना व्यक्तित्व होता है जो वहाँ रहना वालों की तासीर और वहाँ के माहौल से बनता है। उनमें घुल मिलकर आदमी नई रंगत पाता है। घर बाहर व्यक्ति और समय के तालमेल से हमारे अनुभव जगत की बुनावट होती हैं।

मानवीय रिश्तों की गर्माहट कैसे-कैसे रूप धरती है और हमारा परिवेश उन्हें किस साँचे में ढाँलता है इसकी व्याख्या करते हुए जीवन के खट्टे-मीठे सभी रूप पंडित जी को अपनी ओर खींचते हैं। इस भाग का अंतिम लेख बड़ा ही मार्मिक है। ‘ओझल होता साहचर्य’ संगिनी के विछोह में प्रीति का उद्रेक है। भावों से सराबोर यह लेख निजी पीड़ा को एक व्यापक मानवीय फलक पर रख कर उपस्थित करता है। पंडितजी का आत्म मंथन निजता के स्वर में आज के समय की, विशेषतः टूटते बिखरते समाज की विडंबना को रूपायित करता है। इसे पढ़कर साहचर्य परस्पर साकांक्ष जुड़ाव और मानवीय चेतना के लिए उसका उद्दाम आकर्षण और अकेले होते, सबसे कटते और टूटते आदमी की, उसकी असहायता की, संबंधों की विषमता का तीखा अहसास होता है।
 
पंडित जी की यात्रा अनवरत चलती थी। शायद अस्मिता की तलाश और उसे पहचानने की उत्कट जिजीविषा उन्हें यात्राओं पर ले जाती थी। यात्राओं से जुड़े अगले खंड़ में यात्रा वृत्तांत हैं जो हमें लेखक के साथ भावात्मक यात्रा पर ले जाते हैं।

उनमें घटनाएँ, मानव स्वभाव परिस्थिति, प्रकृति आदि में रमते पंडित जी आम आदमी की साधारण जिंदगी की जद्दोजहद से लेकर अध्यात्म के शिखर तक ले जाते हैं। अपने साथ बाँध कर वे एक तरल प्रवाह का अंग बना हमारे अस्तित्व के अनेक पक्षों का स्पर्श करते हैं। चौथा खंड साहित्य और समाज की उन विभूतियों के लिए स्मरणांजलि है जो पंडित जी के प्रेरक रहे, सहचर रहे और जिनके संस्पर्श से उनके कार्य क्षेत्र, निष्ठा और सरोकारों का रूप बना और निखरा। पंडित जी का स्वर इन सबके प्रति कृतज्ञता का है। स्नेह संबंधों में रचे-बसे ये संस्मरण संबंधों की ऊष्मा और भावों की उच्छल तंरगों से अनुप्राणित हैं। पंडित जी की संश्लिष्ट बनावट का रहस्य कदाचित इन्हीं प्रभावों में निहित है।

संग्रह के अंतिम भाग में आज की सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थिति पर व्यंग्यात्मक रचनाएँ हैं। पंडित जी की पैनी निगाह आज की विसंगतियों की गहरी पैमाइश करती है और सोचने के लिए झकझोरती है।

कुल मिलाकर यह संग्रह पंडित जी के कई रूपों को एक साथ उकेरता है। सामग्री को एकत्र कर व्यवस्थित कर इस रूप में ढालने का कठिन कार्य भाई डॉ. दयानिधि मिश्र ने सतत प्रयास से साधा। अरुण माहेश्वरी जी ने सुरुचि से तत्काल प्रकाशन का बीड़ा उठाया। ब्रजेंद्र त्रिपाठी और राघवेंद्र पाठक ने इस उपक्रम में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इन सबके समवेत प्रयास से हमारा प्रयास यह आकार ले सका। आशा है सुधी पाठकों को यह प्रयास रुचेगा और पंडित जी के विचार और भाव जीवंत बने रहेंगे। उनकी अन्य अप्रकाशित रचनाओं को सामने लाने का हमारा प्रयास चल रहा है और शीघ्र ही कई अन्य कृतियाँ भी प्रस्तुत होंगी।


दिल्ली

 

गिरीश्वर मिश्र


विरथ रघुवीरा

 


मैं राम के धर्ममय रथ के बारे में लिख रहा हूँ। पहली बार ‘सदा धरममय अस रथ जाके इस शीर्षक से 1948 में लेख लिखा था, लिखा क्या था, मेरे अग्रज पं. बदभद्र प्रसाद मिश्र ने यह लेख मुझसे लिखवा लिया था। उसे स्वर्गीय श्रद्धेय टंडन जी ने पढ़ कर सराहा था। तब गाँधी की चिता की आग तो बुझ चुकी थी पर उस आहुति की आँच अभी सिरायी नहीं थी। आज उस लेख को लिखे पैंतीस वर्ष हो गये। आज अस्त्रहीन लड़ाई वाले व्यक्ति यकायक अप्रासंगिक हो गये और धर्म का रथ संशय के कुहासे में ऐसा घिर गया है कि वह दिखता ही नहीं।

पुनः उस शीर्षक का उपयोग करते समय बहुत ग्लानि होती है, अपने ऊपर अपने समाज के ऊपर और समझदारी के नशे में डूबे हुए हिंदुस्तान के बुद्धिजीवी वर्ग के ऊपर लगता है कोई धिक्कार रहा हो कि तुम यह बात करने लायक नहीं। दूसरी ओर कोई ललकार रहा है कि क्या हिमाकत की बात करते हो, क्षेप्यास्त्रों और अणुबमों के इस युग में तुम धरममय रथ से विजय करने चले हो, प्रगति के उन्माद ने धर्म को पिछड़ेपन की निशानी मानकर दूर फेंक दिया है किसी कोने में, जहाँ कभी-कभी लोगों को भरमाने के लिए जाना होता है।
सदा धरममय अस रथ जाके पाठ करने वाले गाँधी केवल अनुष्ठान होकर रह गए हैं, उनका जीवनदर्शन ताबीज में बध गया है, उनकी राममय आहुति बस पुरातत्व की प्रदर्शिनी हो गयी है; ऐसे में बात करने चले हो रथहीन राम की विजय यात्रा की। एक ओर तीसरा मन है जो आजकल बहुत उदास रहता है, पहले वह ऐसा नहीं था, वह कुछ करना चाहता है, पर वह साहस नहीं जुटा पा रहा है कि जवाब दें, केवल और भीतर डूबता है और सोचता है कि विभीषण ने भी तो मन संदेह प्रकट किया था :


रावन रथी विरथ रघुवीरा। देखि विभीषण भयेउ अधीरा।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।
नाथ न रथ नाहिं तन पद त्राना। केहि विधि जितब वीर बलवाना।


राम पैदल हैं, न शरीर पर कोई कवच है, न शिर पर जटा के अलावा कोई शिरस्त्राण है, न पैरों में जूते हैं, संगठित प्रशिक्षित सेना है, केवल हु हु करने वाली बानरों की अनियंत्रित भीड़ है, उधर रावण रथ पर पूरी रण सज्जा के साथ आ रहा है, उसके पास चतुरंगिणी सेना है, स्वर्ग के नन्दनकानन को धूलि में मिलाने वाले महान योद्धा हैं, युद्ध को संचालित करने वाली सेना की अद्भुत संपदा है, ऐसे बलवान् के ऊपर राम कैसे विजय प्राप्त कर सकेंगे ? आज के सन्देही विभीषण से उस विभीषण में एक अन्तर जरूर है, आज के सन्देही विभीषण के मन में यह सन्देह प्रीतिवश नहीं उठता, वह उठता है बुद्धि के अपच के कारण। विभीषण राम के साथ इतने जुड़े हुए हैं, राम की करुणा के साथ इतने जुड़े हैं कि वे राम के पराक्रम को जानते हुए भी चिंतित होते हैं, काश राम के पास भी ये युद्ध के साधन होते तो विजय और निश्चित होती। आज का विभीषण राम से एकदम उदासीन है, वह धर्म से भी उदासीन है, उसने उसे अनुवाद बनाकर धर्म का अर्थ ही घटा दिया है। उसे जीत हार से अब कुछ लेना देना नहीं, उसे प्रश्न करके जतलाना है कि मैं कितना समझदार हूँ, मैं कितना अपने देश से निरपेक्ष रहकर, अपनी संस्कृति से निरपेक्ष रहकर लम्बी-लम्बी बात कर सकता हूँ ? इस विभीषण को उत्तर देने का उत्साह नहीं होता क्योंकि उत्तर तो है पर उस उत्तर को ग्रहण करने वाला नहीं है, क्योंकि वह उत्तर पाना नहीं चाहता, वह प्रश्न छोड़कर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहता है। वह सिद्ध करना चाहता है सब मूल्य ढह गये, सत्यशील ढोंग हो गये, अब न जीत का महत्त्व है, न हार का, यह जीवन न कुछ है, व्यर्थ है, यह जीवन बस केवल मसखरा है जो कभी दर्शन की मुद्रा में शांति का पाठ करता है, कभी गाकर भीख माँगता है, कभी गाली की मुद्रा में आ जाता है, कभी केवल मुँह बनाता रहता है, और मंगनी के ढीले-ढाले कपड़ों को बेढँगे तरीके से पहन कर दूसरों का मनोरंजन करता रहता है। यह जानते हुए भी उत्तर दिए बिना रहा नहीं जाता, क्योंकि व्यर्थता की चुनौती सही नहीं जाती।


 

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