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हास्य-व्यंग्य >> काका के व्यंग्य बाण

काका के व्यंग्य बाण

काका हाथरसी

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4742
आईएसबीएन :81-288-0695-5

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इस पुस्तक में काका के उन व्यंग्यबाणों को संगृहित किया गया है, जिन्होंने समाज की विडंबनाओं और कुरूपताओं पर व्यापक प्रहार किया है, साथ ही समाजसुधार का व्यापक प्रयास भी।

Kaka Ke Vyanga Ban

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश


चाहे सामाजिक कुरीतियाँ हों अथवा आधुनिक कृत्रिम सभ्यता की विसंगतियां, धार्मिक दुराग्रह हो अथवा आर्थिक विषमताएं और शोषण की वृत्तियां, देश में व्याप्त राजनीतिक विडंबनाएं एवं विद्रूपताएं हों अथवा असंगत साहित्यिक परिस्थितियां, काका को सूक्ष्म दृष्टि से कोई नहीं बच पाता। उन्होंने समाज को बड़ी गहराई से तथा पैनी दृष्टि से देखा है। इसी कारण उन्होंने सभी पर व्यंग्य बाण छोड़े हैं, जिनका संबंध सामाजिक जीवन से है।

व्यंग्य एक नश्तर है
ऐसा नश्तर, जो समाज के सड़े-गले अंगों की
शल्यक्रिया करता है
और उसे फिर से स्वस्थ बनाने में सहयोग भी।
काका हाथरसी यदि सरल हास्यकवि हैं
तो उन्होंने व्यंग्य के तीखे बाण भी चलाए हैं।
उनकी कलम का कमाल कार से बेकार तक
शिष्टाचार से भ्रष्टाचार तक
विद्वान से गँवार तक
फ़ैशन से राशन तक
परिवार से नियोजन तक
रिश्वत से त्याग तक
और कमाई से महँगाई तक
सर्वत्र देखने को मिलता है।

इस पुस्तक में हम काकाजी के व्यंग्य-बाणों की उस तेज धार और घातक मार को देखेंगे जिसने समाज और राजनीति को तिल-तिलकर तिलमिलाने के लिए विवश किया है।


काका की बात


विगत चालीस वर्षों तक काव्य-मंचों पर सारे देश में धूम मचाई। फिर विदेशों में भी हिंदी-हास्य-व्यंग्य की पताका फहराई। थाईलैंड में भी प्रवासी भारतीयों ने कई बार बुलाकर सम्मानित किया, अर्थ से भी समर्थ किया। फलस्वरूप पाँच लाख का काका हाथरसी पुरस्कार ट्रस्ट खड़ा हो गया।
अब तक हमारी चवालीस पुस्तकें प्रकाशित होकर देशी-विदेशी पाठकों का मनोरंजन कर रही हैं। यह पैंतालीसवीं पुस्तक हमने डा.गिरिराजशरण के सुपुर्द कर दी है और उनसे कह दिया है कि जो लोग या आलोचक यह शिकायत किया करते हैं कि काका की रचनाओं में हास्य तो भरपूर है किंतु व्यंग्य का अभाव खटकता है, उन्हें यह पुस्तक दी जाए। मैं कहना चाहूँगा कि मेरी हज़ारों कविताओं में व्यंग्य-यत्र-तत्र-सर्वत्र चिपके हुए हैं।
‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ की पटरी पर चलकर खोजी पाठक ही उन्हें पकड़ पाते हैं अथवा गिरिराजशरण जैसे लगनशील एवं परिश्रमी विद्वान जहाँ-तहाँ से चुनकर उन्हें एक पुस्तक का रूप देकर जन-गण-मन को व्यंग्य के रंग में सराबोर कर सकते हैं।

एक बार बंबई से श्री रामावतार चेतन का पत्र आया था। उन्होंने लिखा था-
चकल्लस के बीस हज़ारी पुरस्कार के लिए जो नाम निर्णायकों के सामने हैं, उनमें आपका नाम भी है। अपनी रचनाओं की कुछ पुस्तकें भेज दीजिए। हमने उनको काका रचनावली के पाँच भाग भेज दिए।
कुछ दिनों बाद चेतन जी का दूसरा पत्र आया। उन्होंने सुझाव दिया था कि काका जी आप अपने समस्त साहित्य से कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ चुनकर प्रकाशित कीजिए, जिनमें हास्य के साथ व्यंग्य भी हो। चेतन जी तो भगवान् को प्यारे हो गए किंतु हमारे अंदर बीज हो गए, जो अंकुरित होकर प्रस्तुत पुस्तक के रूप में पाठकों के सामने आ रहे हैं।
हास्य-व्यंग्य को मैं गाड़ी के दो पहिए मानता हूँ। अकेला व्यंग्य चुभन पैदा करता है और अकेला हास्य गुदगुदी। यदि रचना में इन दोनों का पुट हो तो वह पाठक को गुदगुदाएगी भी, व्यंग्य-बाण भी चुभाएगी।
प्रस्तुत संग्रह में जितनी रचनाएँ हैं, सुधी पाठक देखेंगे कि उनमें व्यंग्य-रंग के साथ हास्य की पतंगें भी लहरा रही हैं। मेरा विश्वास है कि इन रचनाओं के द्वारा व्यंग्य-प्रेमी पाठकों का भरपूर मनोरंजन होगा।
मेरा निवेदन है कि इसका श्रेय मुझे न देकर डा.गिरिराजशरण अग्रवाल को दें, जिन्होंने परिश्रमपूर्वक हास्य-सागर से व्यंग्य के मोती निकालकर आप तक पहुँचाए हैं।
काका हाथरसी


काका हाथरसी के काव्य में व्यंग्य


तेजी से भागते हुए इस भौतिकवादी युग में साँस लेने वाले समाज के जीवन में किसी-न-किसी प्रकार के असुंतलन, बेडौलपन अथवा असंगत भाव का आ जाना स्वाभाविक है। समाज-चेतना से संपन्न और आदर्श का आकांक्षी साहित्यकार इन विसंगतियों को अनदेखा नहीं कर सकता। वह हमेशा ऐसे अवसर की तलाश में रहता है, जबकि वह इन परिस्थितियों अथवा उनके कारणों पर प्रहार कर सके, सड़ी-गली रूढ़ियों और मान्यताओं को समाप्त कर सके। सामान्य रूप से यह कार्य व्यंग्य के माध्यम से किया जाता है। व्यंग्य एक ऐसा नश्तर है, जो समाज के सड़े—गले अंगों की शल्य चिकित्सा करके उसे पुन: स्वस्थ बनाता है। उसकी तेज धार कुशल व्यंग्यकार का सहयोग प्राप्त कर समाज की जातिगत कुरीतियों, रूढ़िगत संस्कारों, मिथ्या विश्वासों, पारस्परिक कलह, थोथी प्रतिष्ठा और सांस्कृतिक-राजनीतिक विकृतियों को समाज रूपी शरीर से दूर करने का निरंतर प्रयत्न करती है।

डा.हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार, ‘सच्चा व्यंग्यकार समाज की कुरीतियों को सही रूप में देखता और अपने व्यंग्यबाण से उसे बेधता रहता है। उसका उद्देश्य समाज का परिशोधन होता है। वह व्यक्ति को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहता, बल्कि उन छिछली मान्यताओं का पर्दाफाश करता है, जिनमें औसत या उससे नीचे का मनुष्य उलझकर असत् आचरण से विरत होने के प्रलोभन का शिकार होता रहता है।’

वस्तुत: व्यंग्य के मूल में सामाजिक हित-कामना मुख्य है, इसलिए व्यंग्यकार की दृष्टि पूरी तरह मानवीय कल्याण से ओतप्रोत होती है। जीवन के कड़वे-सत्यों और यथार्थ को काव्य में अभिव्यक्त करने के लिए व्यंग्य से अधिक सफल कोई माध्यम नहीं है। अपनी प्रहार-क्षमता, शब्दों की मितव्ययिता, विचारों की तीक्ष्णता, यथार्थ की उद्घाटन-क्षमता, ईमानदारी, विद्रूपता के प्रति खड्गहस्तता के कारण व्यंग्यात्मक रचनाएँ साहित्य और समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान बनाती रही हैं।

व्यंग्य मात्र मनोरंजनी वृत्ति का विकास नहीं है। यह कार्य हास्य का है। इसमें प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से करुणा की धारा भी प्रवाहित रहती है और अधिक स्पष्ट रूप में कहा जाए तो कहा जा सकता है कि जिसने जितना अधिक कटु सहा है, सुना है, पचाया है, वह उतना ही अधिक प्रखर व्यंग्यकार हो सकता है। वास्तव में व्यंग्य अंतर की गहराई से उभरकर आता है, जहाँ आघात कसमसाते हैं, दर्द टीसते हैं, भूख खलबली मचाती है, नग्नता बेशर्म हो जाती है और जहाँ नैतिकता हमारी व्यथा-कथा बन जाती है। इसलिए ‘व्यंग्य इस सीमा तक कटु हो सकता है कि वह किंचित भी हास्यजनक न हो। यह बहुत तीखा वार  करता है। इसमें कोई नैतिक बोध नहीं होता। इसमें दया, विनम्रता एवं उदारता का लेश भी नहीं होता। यह व्यक्ति के शारीरिक गठन पर कभी-कभी पूरी निर्दयता से प्रहार करता है। यह व्यक्तियों के चरित्र पर आक्रमण करता है। यह युग की समूची परिस्थितियों की धज्जियाँ किसी को भी क्षमा किए बगैर उड़ाता है।’

ऐसी परिस्थिति में व्यंग्य के खतरे का अनुभव सरलता से किया जा सकता है। यह व्यंग्यकार को भी खतरे की घंटी सुनवा सकता है और स्वयं भी तनिक-सी देर में, अश्लीलता की सीमा में प्रवेश कर सकता है, अत: इसके प्रयोक्ता को सतर्क रहने की आवश्यकता होती है।
परंतु समाज-सापेक्ष और विशेष रूप से सुधारवादी लक्ष्य के कारण सदैव से व्यंग्य का प्रयोग होता रहा है। हिंदी-साहित्य में कबीर से प्रारंभ यह व्यंग्यधारा भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र द्वारा गतिशील की गई और आज तक प्रवाहित है। कबीर, भारतेंदु आदि व्यंग्यकार तत्कालीन समाज की विकृतियों, विडंबनाओं विसंगतियों और राजनीतिक भ्रष्टाचार को गंभीरता से अनुभव करते रहे हैं और उन्होंने व्यंग्य के माध्यम से इनको समाप्त करने का अप्रतिम प्रयास किया है।

इस दृष्टि से काका की व्यंग्य-रचनाएँ अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती रही हैं। उन्होंने भी छिछली शिष्टता एवं मान्यता, कृत्रिमता, प्रदर्शनवृत्ति, सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक, आर्थिक, राजनीति क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार और अतिचार, रूढ़िवादिता अथवा श्रेष्ठ परंपराओं को खंडित करने की प्रवृत्ति आदि पर डटकर व्यंग्य-बाणों का प्रहार किया है। ये वे प्रवृत्तियां हैं, जिनसे समाज का अधिकांश भाग मुक्त नहीं हो पाता है।
यहाँ यह कह देना भी समीचीन होगा कि काका जी ने मात्र व्यंग्य के लिए व्यंग्य नहीं किया है। उनके व्यंग्य में खुरखुरेपन, विखंडनवृत्ति, तोड़-फोड़ की ही प्रधानता नहीं है, वे मात्र कटु वक्ता ही नहीं है, उनके व्यंग्य में निहित प्रयोजनीयता भी हास्य के आकर्षक और मायावी आवरण में से इस प्रकार झिलमिलाती है, जिस प्रकार बिहारी की सहज-सलज्ज, सरल नायिका के चंचल नयन घूँघट-पट से झाँकते हैं। उन्होंने अपने व्यंग्य को कबीर के भीगे कोड़े नहीं बनाया वरन् अपनी बात कुछ इस अंदाज में व्यक्त की कि व्यंग्य का प्रहार तीखा होते हुए भी उसका आलंबन व्यंग्य को कटुता से ग्रहण नहीं करता वरन् मन-ही-मन मुस्कराता रहता है। इस प्रकार शिष्टता की सीमा में रहते हुए समाज की वास्तविकता को उद्घाटित करनेवाला, हास्य-मिश्रित व्यंग्य लिखना बहुत मुश्किल काम है।

इस संबंध में काका जी बेढ़व बनारसी के इस दृष्टिकोण से पूर्णत: सहमत थे कि ‘व्यंग्य इस प्रकार होना चाहिए, जिस प्रकार खुजली हाथ को काटती है, जिससे हाथ नहीं कटता, किंतु मनुष्य अनुभव करता है कि कोई चीज़ धीरे-धीरे उसके हाथ को काट रही है। वास्तव में इस कटन में भी एक प्रकार के सुख की अनुभूति होती है और व्यक्ति बार-बार हाथ खुजाता है। इस प्रकार के व्यंग्य से ही मनुष्य और समाज का सुधार संभव है।
हम जो कुछ भी भोगते हैं, वह समाज में और समाज के कारण ही भोगते हैं। समाज में निहित अनेकानेक असंगतियाँ हमारे दर्द और द्वंद्व का कारण बनती हैं। काका जी ने इनमें से लगभग सभी पर व्यंग्य-प्रहार किया है। ये चाहे सामाजिक कुरीतियाँ हों अथवा आधुनिक कृत्रिम सभ्यता की विसंगतियाँ, धार्मिक दुराग्रह हो अथवा आर्थिक विषमताएँ और शोषण की वृत्तियाँ, देश में व्याप्त राजनीतिक विडंबनाएँ एवं विद्रूपताएँ हों अथवा असंगत साहित्यिक परिस्थितियाँ। अब हम यह देखेंगे कि काका की रचनाओं में उक्त विसंगतियों पर किस प्रकार का और कितना व्यंग्य किया गया है ?

सामाजिक कुरीतियों पर व्यंग्य



सामाजिक व्यंग्य के क्षेत्र में काका के काव्य में शाश्वत और सामयिक दोनों प्रकार की समस्याएँ प्रस्तुत हुई हैं। उनकी रचनाओं में समाज में व्याप्त कुरीतियों, कुनीतियों और रूढ़ियों पर करारी चोट की गयी है। कहीं-कहीं हास्य के आवरण में भी व्यंग्य इतना तीक्ष्ण होता है कि वह अपने आलंबन को तिलमिलाकर रख देता है। आधुनिक समाज ऐसी विसंगतियों और विडंबनाओं से भर गया है कि उसका छोटे-से-छोटा घटक भी इन विसंगतियों और विंडबनाओं का प्रतिपालक अथवा उनका कारण बन गया है। इसी कारण सामाजिक क्षेत्र की प्रत्येक व्यंग्योक्ति सामान्यकृत-सी प्रतीत होती है। प्रत्येक व्यक्ति उसको अपने से संबंधित मानता है और चुप रहता है। काका की कलम का कमाल कार से लेकर बेकार तक, शिष्टाचार से भ्रष्टाचार तक, परिवार से पत्रकार तक, विद्वान से गँवार तक, फ़ैशन से राशन तक, परिवार से नियोजन तक, रिश्वत से त्याग तक और कमाई से महँगाई तक देखने को मिलता है। तात्पर्य यह है कि काका ने प्रत्येक क्षेत्र में प्रवेश किया और धड़ल्ले से किया।
सर्वप्रथम न्याय की कुर्सी पर आसीन न्यायाधीशों और दंडाधिकारियों के कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार को देखें। आधुनिक न्यायालय विचित्र विद्रूपताओं से भर गए हैं। वे न्यायालय हैं अथवा भ्रष्टालय, इसमें भेद करना कठिन है। इन स्थलों पर न्याय प्राप्त होगा, यह सोचना दुराशा मात्र है, अथवा न्याय मिलेगा तो वह कितने समय बाद, इसका कोई निश्चय नहीं है। न्याय तो बाद में मिलेगा किंतु इस प्रक्रिया के बीच जो दुर्दशा अथवा धन की छीनाझपटी होती है, उस पर काका ने कितना स्पष्ट व्यंग्य किया है :
न्याय प्राप्त करने गए, न्यायालय के द्वार
इसी जगह सबसे अधिक, पाया भ्रष्टाचार
पाया भ्रष्टाचार, मिसल को मसल रहे हैं
ईंट-ईंट से रिश्वत के स्वर निकल रहे हैं
कहँ काका, जब पेशकार जी घर को आए
तनखा से भी तिगुने नोट दबाकर लाए


केवल पेशकार ही नहीं, यहाँ तो वकील, मुंशी, मुहर्रिर और चपरासी तक ‘समभाव ?’ प्रेमी हैं। प्रत्येक अपने-अपने ‘हक ?’ को प्राप्त करने के लिए लालायित है। हाँ, न्याय के द्वार पर दस्तक देनेवाला बेचारा व्यक्ति इनके दुष्चक्र में फँसकर लाचार हो जाता है। यदि वह किसी प्रकार न्याय प्राप्त करने में सफल हो भी गया तो उसकी दशा हारे हुए खिलाड़ी से कम नहीं होती। काका के शब्दों में व्यक्त यह स्थिति अपने व्यंग्य के कारण कितनी मार्मिक बन गई है :

प्लीडर, मुंशी, मुहर्रिर, सब निचोड़ लें अर्क
सायल को घायल करे, फायल वाला क्लर्क
फायल वाला क्लर्क, अगर कुछ बच जाएगा
वह चपरासी के इनाम में पच जाएगा
कहँ काका, जो जीत गया सो हारा समझो
हार गया, सो पत्थर से दे मारा समझो


चोरों, अन्यायियों अथवा अपराधियों को दंडित करनेवाले दंडाधिकारी अथवा पुलिस-कर्मचारी स्वयं अपराध में संलग्न हैं। अपराधी को न्याय के कटघरे में खड़ा करने का निवेदन करनेवाले को ही धन के अभाव में अपराधी घोषित कर दिया जाता है। अपने साधनों के बल पर बड़े-से-बड़ा अपराधी सरलतापूर्वक अपनी क्रियाओं में लगा रहता है। ग़रीब की ‘चोरी की रपट’ भी पैसों के अभाव में अलिखी रह जाती है। इस परिस्थिति पर काका का व्यंग्य द्रष्टव्य है :

घूरे खाँ के घर हुई, चोरी आधी रात
कपड़े-बर्तन ले गए, छोड़े तवा-परात
छोड़े तवा-परात, सुबह थाने को धाए
क्या-क्या चीज़ गई है, सबके नाम लिखाए
आँसू भरकर कहा, ‘महरबानी यह कीजै
तवा-परात बचे हैं, इनको भी लिख लीजै



कोतवाल कहने लगा, करके आँखें लाल
‘उसको क्यों लिखवा रहा, नहीं गया जो माल’
नहीं गया जो माल, मियाँ मिमियाकर बोला
‘मैंने अपना दिल हजूर के आगे खोला
मुंशी जी का इंतजाम, किस तरह करूँगा ?
तवा-परात बेचकर ‘रपट-लिखाई दूँगा


घूरे खां की उक्त मासूम उक्ति में कितना बड़ा व्यंग्य छिपा है ? ‘मुंशी जी का इंतजाम किस तरह करूँगा ?’ वाक्य में अर्थ की परतें प्याज के छिलकों की तरह उतरती हुई दिखाई देती हैं। ‘रपट-लिखाई’ देने के लिए उसे अपना तवा-परात बेचना ही होगा। इस एक वाक्य में वक्रोक्ति, वाक्वैदग्ध्य और उपहास के अंतर से प्रकट हुआ व्यंग्य कितना सटीक है !
‘रिश्वत’ हमारे देश के लिए अभिशाप बन गई है। इससे अभिशप्त समाज का अंग-अंग भ्रष्टाचार के कोढ़ से गल रहा है। सरकारी विभाग ही क्यों, हर कार्यालय, घर, यहाँ तक कि शिक्षा-संस्थान भी उसके इंद्रजाल में अपने को नंगा करते हुए सौभाग्यशाली समझ रहे हैं। अब तो ऐसा प्रतीत होने लगा है कि रिश्वत के बिना दो कदम आगे बढ़ना भी असंभव है। असंभव से असंभव कार्य भी रिश्वत द्वारा सुलभता से संपन्न हो जाता है। रिश्वत से रहित दफ्तर सूना-सा लगता है, अफसर को भी और निदेवक को भी। अगणित नामों से पुकारी जानेवाली रिश्वतदेवी की, वक्रोक्ति के माध्यम से की गई इस प्रशंसा में निहित व्यंग्य को देखिए :
रिश्वतरानी धन्य तू, तेरे अगणित नाम
हक, पानी, उपहार औ’ बख्शिश, घूस, इनाम
बख्शिश, घूस, इनाम, भेंट, नजराना, पगड़ी
तेरे कारण ‘खाऊमल’ की इनकम तगड़ी
कहँ काका कविराय, दौर-दौरा दिन दूना
जहाँ नहीं तू देवि, महकमा है वह सूना
इसके महत्त्व और लाभ का प्रतिपादन इन शब्दों में किया गया है :
जिनको नहीं नसीब थी, टूटी-फूटी छान
आज वहाँ भन्ना रही, कोठी आलीशान
कोठी आलीशान, भिनकती मुँह पर मक्खी
उनके घर में घूम रही चाँदी की चक्की
कहँ काका कवि, जो रिश्वत का हलवा खाते
सूखे-चिपके गाल, कचौड़ी-से हो जाते



परंतु रिश्वत के पंक में खिले हुए ये कमल क्या कभी उससे सने हुए दिखाई देते हैं ? ऊपर से तो ये पूरी तरह निर्मल और स्वच्छ प्रतीत होते हैं, बड़े सरल और मासूम-से। यदि कोई व्यक्ति इन पर कलंक-कालिमा लगाने का असफल प्रयास करता भी है तो रिश्वत महारानी की सहायता प्रतिपल तैयार रहती है। अपने पुजारी के लिए यह साध्य भी है और साधन भी। रिश्वत लेनेवाला यदि पकड़ा भी जाए तो उसका बाल-बाँका नहीं हो सकता। रिश्वत की इस दुधारी वृत्ति पर काका जी ने कितना करारा व्यंग्य किया है :
कूटनीति मंथन करी, प्राप्त हुआ यह ज्ञान,
लोहे से लोहा कटे, यह सिद्धांत प्रमान।
यह सिद्धांत प्रमान, जहर से ज़हर मारिए,
चुभ जाए काँटा, काँटे से ही निकालिए।
कहँ काका कवि, काँप रहा क्यों रिश्वत लेकर,
रिश्वत पकड़ी जाए, छूट जा रिश्वत देकर।


समय का चक्र कुछ इस तरह घूम रहा है कि बड़े-बड़े रिश्वती भी मौज की छान रहे हैं, लंबी तान रहे हैं परंतु छोटे-छोटे भ्रष्टाचारी आसानी से कानून की ज़द में आ जाते हैं :
एक रुपया रिश्वत लेने पर
बुद्धूराम जेलखाने में
फटे हुए भाग्य को सी रहा है,
किंतु-
दस हज़ार के नोट दाबकर
एक लाख टैक्स छोड़ देनेवाला अफसर
सोफासैट पर सिगार पी रहा है।


रिश्वत के इस डंडे से समाजवाद लाने में भी मदद मिल रही है। प्रजातंत्र का युग है। जिनकी संख्या अधिक है, उनको वरीयता मिलनी भी चाहिए। इसी कारण थर्डक्लास बी.ए. का चुनाव हो जाता है, बेचारा फर्स्टक्लास एम.ए.टापता रह जाता है; और यह सब कुछ होता है जनसेवा के नाम पर :
फर्स्टक्लास एम.ए.रिजेक्ट कर, ले लें थर्डक्लास बी.ए. को
साहब नहीं छुएँगे पैसा, दो हज़ार दे दो पी.ए.को
जनसेवा का लगा मुखौटा, दाग दनादन गोलियाँ


गणपति बप्पा मोरिया


यदि किसी कार्यालय में राष्ट्रीयता की भावनाओं से ओतप्रोत, भ्रष्टाचार से पलायन करनेवाला ईमानदार अधिकारी पहुँच जाता है तो सहयोगी कर्मचारी उसके सम्मुख बाधाओं का पहाड़-सा खड़ा कर देते हैं अथवा उसे भी उन्हीं के रंग में रँगना पड़ता है :
ईमानी अफसर को नीचे वाले बेईमान बना दें
लालच का पैट्रोल छिड़ककर, नैतिकता में आग लगा दें
तू भी खा और हमें खिला, या बाँध बिस्तरा-बोरिया


गणपति बप्पा मोरिया


रिश्वत लेनेवालों के तर्क भी वाग्विदग्धता से भरे हुए हैं। उनके विचार से रिश्वत तो अनादिकाल से चल रही है। इसके लिए वे ही दोषी नहीं है। रिश्वती तो ऋषिवत् हैं। इन पंक्तियों के अंतर से उभरते व्यंग्य को देखिए :
रिश्वतख़ोरी, पदलिप्सा औ’ भ्रष्टाचार
यह धंधा तो आदिकाल से चला आ रहा-
आज चल रहा और चलेगा
इन पर अंकुश नहीं लग सका
नहीं लगा है, नहीं लगेगा
रिश्वत खानेवाले तो ‘ऋषिवत्’ हैं भैया !
इनके तेज और तप से ही
चलती है शासन की नैया


रिश्वत तो लोग भगवान को भी देते हैं और भगवान् भी उनकी मनोकामना पूरी करते हैं। जब ईश्वर भी रिश्वत स्वीकार कर लेता है तो मानव पर प्रतिबंध कैसे लग सकता है :
हाँ-हाँ भेंट और उपहार
इन्हें तो ईश्वर भी कर लेता है स्वीकार
पाँच आने के पेड़ों का प्रसाद बोलकर
काम करा लो पाँच रुपे का
अनुष्ठान कर रेस जीत लो
कथा बोलकर केस जीत लो
खुलेआम यह धार्मिक रिश्वत
आदिकाल से चली आ रही
हो सकती है बंद ?
फिर क्यों मानव पर प्रतिबंध ?


तात्पर्य यह है कि रिश्वत वर्तमान समाज का एक ऐसा मधुर पाप बन गई है, जिसमें हर व्यक्ति को सुख की प्रतीति होती है परंतु यह अंदर से समाज रूपी वृक्ष की जड़ों को घुन के समान खोखला कर रही है। इसे अपनाने के लिए विभिन्न प्रकार के तर्क-कुतर्क दिए जाते हैं परंतु इसकी वास्तविकता से प्रत्येक व्यक्ति अवगत है। काका ने पक्ष और विपक्ष दोनों दृष्टियों से इस पर विचार किया है।



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