हास्य-व्यंग्य >> काका तरंग काका तरंगकाका हाथरसी
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3 पाठकों को प्रिय 157 पाठक हैं |
इस महाकवि के कृतित्व के विशाल सागर से बटोरी गई कुछ तरंगें इस पुस्तक में सँजोई गई हैं। आशा है, हमारे पाठक इनमें डुबकी लगाकर स्वयं को तरोताजा महसूस करेंगे।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
विशिष्ट व्यक्तितत्व के स्वामी काका हाथरसी अपने अनूठे अंदाज़ के लिए
प्रसिद्ध रहे।
उन्होंने अपने ख़ास अंदाज़ में श्रोताओं के हज़ारों प्रश्नों के उत्तर
दिए। अपनी अलगा-अलग काव्य शैली में
आम आदमी की समझ में आ सकने वाली बात कहना उनकी विशेषता थी। बनावटीपन और
शब्दजाल से कोसों दूर काकाजी की आसान भाषा ने उन्हें जन-जन का प्रिय
बनाया।
उनकी कविता में जनता को बाँध लेने की असाधारण क्षमता थी।
हास्य-व्यंग्य के संग
काका तरंग
गतवर्ष 1989 में मेरी 42वीं पुस्तक ‘काका की महफिल’
पाठकों द्वारा इतनी पसंद की गई कि उसका लाइब्रेरी संस्करण भी छपकर
देश-विदेश के पुस्तकालयों में पहुँच गया।
जब इस नई पुस्तक का नामकरण संस्कार करने पर विचार चल रहा था तो बेटा डॉ.लक्ष्मीनारायण गर्ग ने सुझाव दिया कि आपका प्रोग्राम दूरदर्शन के हास्य सीरियल ‘रंग-तरंग’ में जब से प्रसारित हुआ है, प्रशंसा-पत्रों का तांता लग गया है। इस पुस्तक का नाम ‘काका तरंग’ रख दीजिए।
बुढ़ापे में बच्चों की सीख मान लेनी चाहिए, क्योंकि उनकी अक्ल-शक्ल तरोताजा होती है, पिता या बाबा-दादा की बुद्धि बासी हो जाती है। इसलिए हमने मान ली पुत्तर की बात।
शासन द्वारा 58 वर्ष के बाद कर्मचारी को रिटायर कर दिया जाता है भले ही उसमें अभी कार्यकुशलता या दम-खम में कमी न आई हो लेकिन नियम तो नियम हैं साब ! हम भी अब रिटायर जीवन बिता रहे हैं।
रिटायमेंट का लेबिल मन-मस्तिष्क के ऊपर चिपक जाने के बाद व्यक्ति की शक्ति खुद-ब-खुद कम होने लगती है, वह समझने लगता है कि अब हम बूढ़े हो गए, युवकों की निगाह में कूड़े हो गए। ऐसी मनोवृत्ति बन जाने के कारण दिनों-दिन ढीला-ढाला होकर निष्क्रियता के चंगुल में फँसता जाता है। निराशावादी व्यक्तियों को मैं यही सलाह देता रहता हूँ, कितनी भी उम्र हो जाए, 70-80 को पार कर जाओ, किंतु मन को बूढ़ा मत होने दो। यार, इसी इच्छा-शक्ति के बल पर अपन क्रियाशील अब तक बने हुए हैं, उन राजनेताओं की भाँति जो बुढ़ापे में भी शासन के आसन पर चिपके हुए हैं और हम-तुम उनको झेल रहे हैं इसे मजबूरी कहिए या सहनशीलता। इस विचारधारा पर यह छोटी-सी रचना दृष्टव्य है-
जब इस नई पुस्तक का नामकरण संस्कार करने पर विचार चल रहा था तो बेटा डॉ.लक्ष्मीनारायण गर्ग ने सुझाव दिया कि आपका प्रोग्राम दूरदर्शन के हास्य सीरियल ‘रंग-तरंग’ में जब से प्रसारित हुआ है, प्रशंसा-पत्रों का तांता लग गया है। इस पुस्तक का नाम ‘काका तरंग’ रख दीजिए।
बुढ़ापे में बच्चों की सीख मान लेनी चाहिए, क्योंकि उनकी अक्ल-शक्ल तरोताजा होती है, पिता या बाबा-दादा की बुद्धि बासी हो जाती है। इसलिए हमने मान ली पुत्तर की बात।
शासन द्वारा 58 वर्ष के बाद कर्मचारी को रिटायर कर दिया जाता है भले ही उसमें अभी कार्यकुशलता या दम-खम में कमी न आई हो लेकिन नियम तो नियम हैं साब ! हम भी अब रिटायर जीवन बिता रहे हैं।
रिटायमेंट का लेबिल मन-मस्तिष्क के ऊपर चिपक जाने के बाद व्यक्ति की शक्ति खुद-ब-खुद कम होने लगती है, वह समझने लगता है कि अब हम बूढ़े हो गए, युवकों की निगाह में कूड़े हो गए। ऐसी मनोवृत्ति बन जाने के कारण दिनों-दिन ढीला-ढाला होकर निष्क्रियता के चंगुल में फँसता जाता है। निराशावादी व्यक्तियों को मैं यही सलाह देता रहता हूँ, कितनी भी उम्र हो जाए, 70-80 को पार कर जाओ, किंतु मन को बूढ़ा मत होने दो। यार, इसी इच्छा-शक्ति के बल पर अपन क्रियाशील अब तक बने हुए हैं, उन राजनेताओं की भाँति जो बुढ़ापे में भी शासन के आसन पर चिपके हुए हैं और हम-तुम उनको झेल रहे हैं इसे मजबूरी कहिए या सहनशीलता। इस विचारधारा पर यह छोटी-सी रचना दृष्टव्य है-
सहनशीलता
साहब हो गए 58 पर रिटायर
क्योंकि, कानून की दृष्टि में
उनकी बुद्धि हो गई थी ऐक्सपायर
लेकिन हमारे सिर पर सवार हैं-
साठोत्तर प्रधानमंत्री और 81 वर्षीय राष्ट्रपति
वे क्यों नहीं होते रिटायर ?
चुप रहो, तुम नहीं जानते इसका कारण,
यह है हमारी सहनशीलता का प्रत्यक्ष उदाहरण
क्योंकि, कानून की दृष्टि में
उनकी बुद्धि हो गई थी ऐक्सपायर
लेकिन हमारे सिर पर सवार हैं-
साठोत्तर प्रधानमंत्री और 81 वर्षीय राष्ट्रपति
वे क्यों नहीं होते रिटायर ?
चुप रहो, तुम नहीं जानते इसका कारण,
यह है हमारी सहनशीलता का प्रत्यक्ष उदाहरण
नेताओं की भाँति कवि और शायर भी कभी नहीं होते रिटायर। अपन 85 में चल रहे
हैं, फिर भी कविता लिख रहे हैं। इस उम्र में भी काका पर फिदा हैं आकाशवाणी
और दूरदर्शन।
कवि अशोक चक्रधर ने हमको दो बार ‘कहकहे’ में दिखाया तो ‘रंग-तरंग’ में देशपांडे जी ने आधा घंटा तक हमारी रचनाओं को विजुअल यानी दृश्यावली के साथ दूरदर्शन पर दिखाया। इसकी शूटिंग बंबई में होनी थी, इसलिए विमान द्वारा देशपांडे जी हमको बंबई ले गए।
वहाँ सुसज्जित मंच पर हमारे दाएँ-बाएँ कविवर शैल चतुर्वेदी और रामरिख मनहर को सुशोभित करके शूटिंग कराई। इस प्रोग्राम में एक कविता जो दर्शकों को अधिक पसंद आई उसे यहाँ इसलिए दे रहे हैं कि हमारे बहुत से प्रशंसक या पाठक उसे नोट करके अपने पास रखना चाहते हैं, तो देखें-
कवि अशोक चक्रधर ने हमको दो बार ‘कहकहे’ में दिखाया तो ‘रंग-तरंग’ में देशपांडे जी ने आधा घंटा तक हमारी रचनाओं को विजुअल यानी दृश्यावली के साथ दूरदर्शन पर दिखाया। इसकी शूटिंग बंबई में होनी थी, इसलिए विमान द्वारा देशपांडे जी हमको बंबई ले गए।
वहाँ सुसज्जित मंच पर हमारे दाएँ-बाएँ कविवर शैल चतुर्वेदी और रामरिख मनहर को सुशोभित करके शूटिंग कराई। इस प्रोग्राम में एक कविता जो दर्शकों को अधिक पसंद आई उसे यहाँ इसलिए दे रहे हैं कि हमारे बहुत से प्रशंसक या पाठक उसे नोट करके अपने पास रखना चाहते हैं, तो देखें-
कार के करिश्मे
रोजाना हम बंबा पर ही घूमा करते
उस दिन पहुँचे नहर किनारे
वहाँ मिल गए बर्मन बाबू
बाँह गले में डाल कर लिया दिल पर काबू
कहने लगे-
क्यों भई काका, तुम इतने मशहूर हो गए
फिर भी अब तक कार नहीं ली ?
ट्रेनों में धक्के खाते हो, तुमको शोभा देता ऐसा,
कहाँ धरोगे जोड़-जोड़कर इतना पैसा ?
बेच रहे हैं अपनी (पुरानी) गाड़ी-
साँवलराम सूतली वाले
दस हजार वे माँग रहे हैं
पट जाएँगे, आठ-सात में
हिम्मत हो तो करूँ बात मैं ?
हमने कहा-
नहीं मित्रवर, तुमको शायद पता नहीं है
छोटी कारें बना रहा है, हमारे दोस्त का बेटा संजय
जय हो उसकी,
सर्वप्रथम अपना न्यू मॉडल
काका कवि को भेंट करेगा।
हमने भी तो जगह-जगह कविसम्मेलन में कविता गाई
एलेक्शन में जीत कराई।
हँसकर बोले बर्मन भाई-
वाह, वाह जी,
जब तक कार बनेगी उनकी,
तब तक आप रहेंगे जिंदा ?
भज गोविंदा, भज गोविंदा।
तो बर्मन जी,
हम तो केवल पाँच हजार लगा सकते हैं,
इतने में करवा दो काम,
जय रघुनंदन, जय सियाराम।
तोड़ फैसला हुआ कार का छह हजार में,
घर्र-घर्र का शोर मचाती कार हमारे घर पर आई
भीड़ लग गई, मच गया हल्ला,
हुए इकट्ठे लोग-लुगाई, लल्ली-लल्ला।
हमने पूछा-
‘क्यों बर्मन जी, शोर बहुत करती है गाड़ी ?’
‘शोर बहुत करती है गाड़ी ? कभी खरीदी भी है मोटर,
जितना ज्यादा शोर करेगी, उतनी कम दुर्घटना होगी
भीड़ स्वयं ही हटती जाए,
काई-जैसी फटती जाए,
बहरा भी भागे आगे से,
बिना हॉर्न के चले जाइए सर्राटे से।
‘बिना हॉर्न के ? तो क्या इसमें हॉर्न नहीं है ?’
‘हॉर्न बिचारा कैसे बोले,
काम नहीं कर रही बैटरी’
‘काम नहीं कर रही बैटरी ?
लाइट कैसे जलती होगी ?’
‘लाइट से क्या मतलब तुमको,
यह तो क्लासीकल गाड़ी है,
देखो कक्कू,
सफर आजकल दिन का ही अच्छा रहता है
कभी रात में नहीं निकलना।
डाकू गोली मार दिया करते टायर में
गाड़ी का गोबर हो जाए इक फायर में
रही हॉर्न की बात,
पाँच रुपए में लग जाएगा
पौं-पौं वाला (रबड़ का)
लेकिन नहीं जरूरत उसकी
बड़े-बड़े शहरों में होते,
साइलैंस एरिया ऐसे
वहाँ बजा दे कोई हौरन,
गिरफ्तार हो जाए फौरन
नाम गिरफ्तारी का सुनकर बात मान ली।
‘एक प्रश्न और है भाई,
उसकी भी हो जाए सफाई।’
‘बोलो-बोलो, जल्दी बोलो ?’
ड्राइवर बाबूसिंह कह रहा-
तेल अधिक खाती है गाड़ी ?’
‘काका जी तुम बूढ़े हो गए,
फिर भी बातें किए जा रहे बच्चों जैसी।
जितना ज्यादा खाएगा वह उतना ज्यादा काम करेगा’
तार-तार हो गए तर्क सब, रख ली गाड़ी।
उस दिन घर में लहर खुशी की ऐसी दौड़ी
जैसे हमको सीट मिल गई लोकसभा की
कूद रहे थे चकला-बेलन,
उछल रहे थे चूल्हे-चाकी
खुश थे बालक, खुश थी काकी
हुआ सवेरा-
चलो बालको तुम्हें घुमा लाएँ बाजार में
धक्के चार लगाते ही स्टार्ट हो गई।
वाह-वाह,
कितनी अच्छी है यह गाड़ी
धक्कों से ही चल देती है
हमने तो कुछ मोटरकारें
रस्सों से खिंचती देखी हैं
नएगंज से घंटाघर तक,
घंटाघर से नएगंज तक
चक्कर चार लगाए हमने।
खिड़की से बाहर निकाल ली अपनी दाढ़ी,
मालुम हो जाए जनता को,
काका ने ले ली है गाड़ी
खबर दूसरे दिन की सुनिए-
अखबारों में न्यूज आ गई-
नए बजट में पैट्रोल पर टैक्स बढ़ गया।
जय बमभोले, मूंड मुड़ाते पड़ गए ओले।
फिर भी साहस रक्खा हमने-
सोचा, तेल मिला लेंगे मिट्टी का पैट्रोल में
धूआँ तो कुछ बढ़ जाएगा,
औसत वह ही पड़ जाएगा।
दोपहर के तीन बजे थे-
खट-खट की आवाज सुनी, दरवाजा खोला-
खड़ा हुआ था एक सिपाही वर्दीधारी,
हमने पूछा,
कहिए मिस्टर
क्या सेवा की जाए तुम्हारी ?
बाएँ हाथ से दाई मूँछ ऐंठ कर बोला-
कार आपकी इंस्पेक्टर साहब को चाहिए,
मेमसाहब को आज आगरा ले जाएँगे फिल्म दिखाने,
पैट्रोल डलवाकर गाड़ी,
जल्दी से भिजवा दो थाने।
हमने सोचा-
वाह वाह यह देश हमारा
गाड़ी तो पीछे आती है, खबर पुलिस को
पहले से ही लग जाती है।
कितने सैंसिटिव हैं भारत के सी.आई.डी.
तभी ‘तरुण’ कवि बोले हमसे-
बड़े भाग्यशाली हो काका !
कोतवाल ने गाड़ी माँगी, फौरन दे दो
क्यों पड़ते हो पसोपेश में ?
मना करो तो फँस जाओगे किसी केस में।
एक कनस्तर तेल पिलाकर
कार रवाना कर दी थाने
चले गए हम खाना खाने।
आधा घंटा बाद सिपाही फिर से आया, बोला-
‘स्टैपनी दीजिए।’
हमने आँख फाड़कर पूछा-
स्टैपनी क्या ?
‘क्यों बनते हो,
गाड़ी के मालिक होकर भी नहीं जानते
हमने कहा-
सिपाही भइया
अपनी गाड़ी सिर्फ चार पहियों से चलती
कोई नहीं पाँचवा पहिया,
लौट गया तत्काल सिपहिया।
मोटर वापस आ जानी थी, अर्धरात्रि तक,
घर्र-घर्र की उत्कंठा में कान लगाए रहे रातभर ऐसे
अपना पूत लौटकर आता हो विदेश से जैसे
सुबह 10 बजे गाड़ी आई
इंस्पेक्टर झल्लाकर बोला-
शर्म नहीं आती है तुमको-
ऐसी रद्दी गाड़ी दे दी
इतना धूआँ छोड़ा इसने,
मेमसाहब को उल्टी हो गई।
हमने कहा-
उल्टी हो गई, तो हम क्या करें हुजूर
थाने को भेजी थी तब बिल्कुल सीधी थी।
उस दिन पहुँचे नहर किनारे
वहाँ मिल गए बर्मन बाबू
बाँह गले में डाल कर लिया दिल पर काबू
कहने लगे-
क्यों भई काका, तुम इतने मशहूर हो गए
फिर भी अब तक कार नहीं ली ?
ट्रेनों में धक्के खाते हो, तुमको शोभा देता ऐसा,
कहाँ धरोगे जोड़-जोड़कर इतना पैसा ?
बेच रहे हैं अपनी (पुरानी) गाड़ी-
साँवलराम सूतली वाले
दस हजार वे माँग रहे हैं
पट जाएँगे, आठ-सात में
हिम्मत हो तो करूँ बात मैं ?
हमने कहा-
नहीं मित्रवर, तुमको शायद पता नहीं है
छोटी कारें बना रहा है, हमारे दोस्त का बेटा संजय
जय हो उसकी,
सर्वप्रथम अपना न्यू मॉडल
काका कवि को भेंट करेगा।
हमने भी तो जगह-जगह कविसम्मेलन में कविता गाई
एलेक्शन में जीत कराई।
हँसकर बोले बर्मन भाई-
वाह, वाह जी,
जब तक कार बनेगी उनकी,
तब तक आप रहेंगे जिंदा ?
भज गोविंदा, भज गोविंदा।
तो बर्मन जी,
हम तो केवल पाँच हजार लगा सकते हैं,
इतने में करवा दो काम,
जय रघुनंदन, जय सियाराम।
तोड़ फैसला हुआ कार का छह हजार में,
घर्र-घर्र का शोर मचाती कार हमारे घर पर आई
भीड़ लग गई, मच गया हल्ला,
हुए इकट्ठे लोग-लुगाई, लल्ली-लल्ला।
हमने पूछा-
‘क्यों बर्मन जी, शोर बहुत करती है गाड़ी ?’
‘शोर बहुत करती है गाड़ी ? कभी खरीदी भी है मोटर,
जितना ज्यादा शोर करेगी, उतनी कम दुर्घटना होगी
भीड़ स्वयं ही हटती जाए,
काई-जैसी फटती जाए,
बहरा भी भागे आगे से,
बिना हॉर्न के चले जाइए सर्राटे से।
‘बिना हॉर्न के ? तो क्या इसमें हॉर्न नहीं है ?’
‘हॉर्न बिचारा कैसे बोले,
काम नहीं कर रही बैटरी’
‘काम नहीं कर रही बैटरी ?
लाइट कैसे जलती होगी ?’
‘लाइट से क्या मतलब तुमको,
यह तो क्लासीकल गाड़ी है,
देखो कक्कू,
सफर आजकल दिन का ही अच्छा रहता है
कभी रात में नहीं निकलना।
डाकू गोली मार दिया करते टायर में
गाड़ी का गोबर हो जाए इक फायर में
रही हॉर्न की बात,
पाँच रुपए में लग जाएगा
पौं-पौं वाला (रबड़ का)
लेकिन नहीं जरूरत उसकी
बड़े-बड़े शहरों में होते,
साइलैंस एरिया ऐसे
वहाँ बजा दे कोई हौरन,
गिरफ्तार हो जाए फौरन
नाम गिरफ्तारी का सुनकर बात मान ली।
‘एक प्रश्न और है भाई,
उसकी भी हो जाए सफाई।’
‘बोलो-बोलो, जल्दी बोलो ?’
ड्राइवर बाबूसिंह कह रहा-
तेल अधिक खाती है गाड़ी ?’
‘काका जी तुम बूढ़े हो गए,
फिर भी बातें किए जा रहे बच्चों जैसी।
जितना ज्यादा खाएगा वह उतना ज्यादा काम करेगा’
तार-तार हो गए तर्क सब, रख ली गाड़ी।
उस दिन घर में लहर खुशी की ऐसी दौड़ी
जैसे हमको सीट मिल गई लोकसभा की
कूद रहे थे चकला-बेलन,
उछल रहे थे चूल्हे-चाकी
खुश थे बालक, खुश थी काकी
हुआ सवेरा-
चलो बालको तुम्हें घुमा लाएँ बाजार में
धक्के चार लगाते ही स्टार्ट हो गई।
वाह-वाह,
कितनी अच्छी है यह गाड़ी
धक्कों से ही चल देती है
हमने तो कुछ मोटरकारें
रस्सों से खिंचती देखी हैं
नएगंज से घंटाघर तक,
घंटाघर से नएगंज तक
चक्कर चार लगाए हमने।
खिड़की से बाहर निकाल ली अपनी दाढ़ी,
मालुम हो जाए जनता को,
काका ने ले ली है गाड़ी
खबर दूसरे दिन की सुनिए-
अखबारों में न्यूज आ गई-
नए बजट में पैट्रोल पर टैक्स बढ़ गया।
जय बमभोले, मूंड मुड़ाते पड़ गए ओले।
फिर भी साहस रक्खा हमने-
सोचा, तेल मिला लेंगे मिट्टी का पैट्रोल में
धूआँ तो कुछ बढ़ जाएगा,
औसत वह ही पड़ जाएगा।
दोपहर के तीन बजे थे-
खट-खट की आवाज सुनी, दरवाजा खोला-
खड़ा हुआ था एक सिपाही वर्दीधारी,
हमने पूछा,
कहिए मिस्टर
क्या सेवा की जाए तुम्हारी ?
बाएँ हाथ से दाई मूँछ ऐंठ कर बोला-
कार आपकी इंस्पेक्टर साहब को चाहिए,
मेमसाहब को आज आगरा ले जाएँगे फिल्म दिखाने,
पैट्रोल डलवाकर गाड़ी,
जल्दी से भिजवा दो थाने।
हमने सोचा-
वाह वाह यह देश हमारा
गाड़ी तो पीछे आती है, खबर पुलिस को
पहले से ही लग जाती है।
कितने सैंसिटिव हैं भारत के सी.आई.डी.
तभी ‘तरुण’ कवि बोले हमसे-
बड़े भाग्यशाली हो काका !
कोतवाल ने गाड़ी माँगी, फौरन दे दो
क्यों पड़ते हो पसोपेश में ?
मना करो तो फँस जाओगे किसी केस में।
एक कनस्तर तेल पिलाकर
कार रवाना कर दी थाने
चले गए हम खाना खाने।
आधा घंटा बाद सिपाही फिर से आया, बोला-
‘स्टैपनी दीजिए।’
हमने आँख फाड़कर पूछा-
स्टैपनी क्या ?
‘क्यों बनते हो,
गाड़ी के मालिक होकर भी नहीं जानते
हमने कहा-
सिपाही भइया
अपनी गाड़ी सिर्फ चार पहियों से चलती
कोई नहीं पाँचवा पहिया,
लौट गया तत्काल सिपहिया।
मोटर वापस आ जानी थी, अर्धरात्रि तक,
घर्र-घर्र की उत्कंठा में कान लगाए रहे रातभर ऐसे
अपना पूत लौटकर आता हो विदेश से जैसे
सुबह 10 बजे गाड़ी आई
इंस्पेक्टर झल्लाकर बोला-
शर्म नहीं आती है तुमको-
ऐसी रद्दी गाड़ी दे दी
इतना धूआँ छोड़ा इसने,
मेमसाहब को उल्टी हो गई।
हमने कहा-
उल्टी हो गई, तो हम क्या करें हुजूर
थाने को भेजी थी तब बिल्कुल सीधी थी।
इस रचना की दृश्यावली की शूटिंग में, बर्मन जी की भूमिका निभाई थी कवि शैल
चतुर्वेदी (‘कक्का जी कहिन’ सीरियल के गजानन बाबू) ने
और कवि तरुण की भूमिका हमारे साथी कवि वीरेंद्र तरुण ने।
पूरा दिन लग गया था इस तमाशे को फिल्माने में। बाद में संयोजक भी खुश और दर्शक भी प्रसन्न। पाँच हजार का चैक पाकर काका भी धन्य।
हमारे पुत्र लक्ष्मीनारायण का कहना है-अब कविसम्मेलनों में जाना बंद कर दो काका। काकी ने भी इसका समर्थन करके सुर में सुर मिला दिए। तब हमने एक छक्का लिखकर कविसम्मेलनों के उन संयोजकों को भेजना आरंभ कर दिया जो हमें आमंत्रित करते हैं-इसे सार्वजनिक रूप से भी प्रकाशित कर रहे हैं।
पूरा दिन लग गया था इस तमाशे को फिल्माने में। बाद में संयोजक भी खुश और दर्शक भी प्रसन्न। पाँच हजार का चैक पाकर काका भी धन्य।
हमारे पुत्र लक्ष्मीनारायण का कहना है-अब कविसम्मेलनों में जाना बंद कर दो काका। काकी ने भी इसका समर्थन करके सुर में सुर मिला दिए। तब हमने एक छक्का लिखकर कविसम्मेलनों के उन संयोजकों को भेजना आरंभ कर दिया जो हमें आमंत्रित करते हैं-इसे सार्वजनिक रूप से भी प्रकाशित कर रहे हैं।
क्षमा प्रार्थना
मिला निमंत्रण आपका, धन्यवाद श्रीमान,
किंतु हमारे हाल पर कुछ तो दीजे ध्यान।
कुछ तो दीजे ध्यान, हुक्म काकी का ऐसा,
बहुत कर चुके प्राप्त, प्रतिष्ठा-पदवी-पैसा।
खबरदार, अब कविसम्मेलन में मत जाओ,
लिखो पुस्तकें, हास्य-व्यंग्य के फूल खिलाओ।
किंतु हमारे हाल पर कुछ तो दीजे ध्यान।
कुछ तो दीजे ध्यान, हुक्म काकी का ऐसा,
बहुत कर चुके प्राप्त, प्रतिष्ठा-पदवी-पैसा।
खबरदार, अब कविसम्मेलन में मत जाओ,
लिखो पुस्तकें, हास्य-व्यंग्य के फूल खिलाओ।
तो उनकी आज्ञानुसार कविसम्मेलनों को धता बताकर पुस्तकें लिख रहे हैं। यह
44वीं पुस्तक अपने उन कृपालु प्रशंसकों को भेंट कर रहे हैं, जिनके हार्दिक
प्यार, वाह-वाही और तालियों की गड़गड़ाहट पाकर इस मंजिल तक पहुँच पाए हैं।
एक बात और बता दें अंत में उन आलोचकों को, जो काका काव्य को तुकबंदी या चुटकुला बताकर अपनी ईर्ष्यालु प्रवृत्ति का परिचय देते हैं। उनसे निवेदन है कि वे 2 शोधग्रंथ पढ़ लें जो काका के हास्य-व्यंग्य को तर्क की कसौटी पर कसकर लिखे गए हैं और जिनके लेखक पी-एच.डी.प्राप्त करके सम्मानित हो चुके हैं-
1. काका हाथरसी : व्यक्तित्व और साहित्य
डॉ.अमरेंद्र प्रसाद अग्रवाल एम.ए.
राँची विश्वविद्यालय
2. काका हाथरसी : एक समीक्षा यात्रा
डॉ.मिथलेश माहेश्वरी
रुहेलखंड विश्वविद्यालय
यह शोधग्रंथ हिंदी साहित्य निकेतन, बिजनौर द्वारा प्रकाशित हो चुका है। मूल्य है 125 रुपए।
इस समय जो पुस्तक आपके हाथ में है, इसमें मैंने अपनी वे रचनाएँ भी दे दी हैं, जो ‘काका की महफिल’ के बाद लिखी गई हैं। साथ ही आकाशवाणी पर ‘मीठी-मीठी हँसाइयाँ’ के प्रोग्राम में आए हुए प्रश्नोत्तर भी हैं, जो मुग़ली घुट्टी 555 के पिता श्री अरोड़ा जी की आज्ञा से राजेंद्र ननचाहल द्वारा प्रत्येक रविवार को रात्रि 9.30 पर ‘विविध भारती’ दिल्ली से प्रसारित होते हैं। इनको सुनकर लाखों श्रोता, ठहाके लगा-लगाकर अपनी सेहत में चार-चाँद लगा रहे हैं। जो नहीं सुन सके हैं वे इस पुस्तक में पढ़कर हास्य का लाभ उठा लें और प्रकाशक श्री नरेंद्र जी को धन्यवाद भिजवा दें।
पुस्तकों की रॉयल्टी, कविसम्मेलन, दूरदर्शन आदि कार्यकलापों से जो धन मुझे प्राप्त होता है, उसका एक भाग ‘काका हाथरसी पुरस्कार ट्रस्ट’ को अर्पण करके आत्मानंद प्राप्त करता रहता हूँ। अब तक इस ट्रस्ट में 4 लाख रुपए स्टेट बैंक आफ इंडिया (हाथरस) के फ़िक्स डिपॉज़िट में सर्वदा के लिए जमा कर दिए गए हैं और बैंक को हिदायत कर दी है कि इस राशि (मूलधन) को मैं या मेरा कोई संबंधी कभी नहीं निकाल सकेगा। इसके ब्याज से ट्रस्ट का पुरस्कार चलता रहेगा। मूलधन जीवित रहेगा तब तक, भारत सरकार और भारतीय स्टेट बैंक हैं जब तक।
;
एक बात और बता दें अंत में उन आलोचकों को, जो काका काव्य को तुकबंदी या चुटकुला बताकर अपनी ईर्ष्यालु प्रवृत्ति का परिचय देते हैं। उनसे निवेदन है कि वे 2 शोधग्रंथ पढ़ लें जो काका के हास्य-व्यंग्य को तर्क की कसौटी पर कसकर लिखे गए हैं और जिनके लेखक पी-एच.डी.प्राप्त करके सम्मानित हो चुके हैं-
1. काका हाथरसी : व्यक्तित्व और साहित्य
डॉ.अमरेंद्र प्रसाद अग्रवाल एम.ए.
राँची विश्वविद्यालय
2. काका हाथरसी : एक समीक्षा यात्रा
डॉ.मिथलेश माहेश्वरी
रुहेलखंड विश्वविद्यालय
यह शोधग्रंथ हिंदी साहित्य निकेतन, बिजनौर द्वारा प्रकाशित हो चुका है। मूल्य है 125 रुपए।
इस समय जो पुस्तक आपके हाथ में है, इसमें मैंने अपनी वे रचनाएँ भी दे दी हैं, जो ‘काका की महफिल’ के बाद लिखी गई हैं। साथ ही आकाशवाणी पर ‘मीठी-मीठी हँसाइयाँ’ के प्रोग्राम में आए हुए प्रश्नोत्तर भी हैं, जो मुग़ली घुट्टी 555 के पिता श्री अरोड़ा जी की आज्ञा से राजेंद्र ननचाहल द्वारा प्रत्येक रविवार को रात्रि 9.30 पर ‘विविध भारती’ दिल्ली से प्रसारित होते हैं। इनको सुनकर लाखों श्रोता, ठहाके लगा-लगाकर अपनी सेहत में चार-चाँद लगा रहे हैं। जो नहीं सुन सके हैं वे इस पुस्तक में पढ़कर हास्य का लाभ उठा लें और प्रकाशक श्री नरेंद्र जी को धन्यवाद भिजवा दें।
पुस्तकों की रॉयल्टी, कविसम्मेलन, दूरदर्शन आदि कार्यकलापों से जो धन मुझे प्राप्त होता है, उसका एक भाग ‘काका हाथरसी पुरस्कार ट्रस्ट’ को अर्पण करके आत्मानंद प्राप्त करता रहता हूँ। अब तक इस ट्रस्ट में 4 लाख रुपए स्टेट बैंक आफ इंडिया (हाथरस) के फ़िक्स डिपॉज़िट में सर्वदा के लिए जमा कर दिए गए हैं और बैंक को हिदायत कर दी है कि इस राशि (मूलधन) को मैं या मेरा कोई संबंधी कभी नहीं निकाल सकेगा। इसके ब्याज से ट्रस्ट का पुरस्कार चलता रहेगा। मूलधन जीवित रहेगा तब तक, भारत सरकार और भारतीय स्टेट बैंक हैं जब तक।
काका के हँसगुल्ल
अंग-अंग फड़कन लगे, देखा ‘रंग-तरंग’
स्वस्थ-मस्त दर्शक हुए, तन-मन उठी उमंग
तन-मन उठी उमंग, अधूरी रही पिपासा
बंद सीरियल किया, नहीं थी ऐसी आशा
हास्य-व्यंग्य के रसिक समर्थक कहाँ खो गए
मुँह पर लागी सील, बंद कहकहे हो गए
जिन मनहूसों को नहीं आती हँसी पसंद
हुए उन्हीं की कृपा से, हास्य-सीरियल बंद
हास्य-सीरियल बंद, लोकप्रिय थे यह ऐसे
श्री रामायण और महाभारत थे जैसे
भूल जाउ, लड्डू पेड़ा चमचम रसगुल्ले
अब टी.वी.पर आएँ काका के हँसगुल्ले
स्वस्थ-मस्त दर्शक हुए, तन-मन उठी उमंग
तन-मन उठी उमंग, अधूरी रही पिपासा
बंद सीरियल किया, नहीं थी ऐसी आशा
हास्य-व्यंग्य के रसिक समर्थक कहाँ खो गए
मुँह पर लागी सील, बंद कहकहे हो गए
जिन मनहूसों को नहीं आती हँसी पसंद
हुए उन्हीं की कृपा से, हास्य-सीरियल बंद
हास्य-सीरियल बंद, लोकप्रिय थे यह ऐसे
श्री रामायण और महाभारत थे जैसे
भूल जाउ, लड्डू पेड़ा चमचम रसगुल्ले
अब टी.वी.पर आएँ काका के हँसगुल्ले
प्रतीक्षा कीजिए और अब पुस्तक की हँसाइयों का मजा लीजिए।
काका हाथरसी
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