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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस पंचामृत

मानस पंचामृत

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2000
पृष्ठ :217
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4752
आईएसबीएन :00-0000-000-0

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काम, क्रोध, लोभ, दया-दान, कृपा तथा कथा का स्वरूप और उसकी महिमा, इस ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय हैं...

Manas Panchamrit

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

।। मानस पंचामृत ।।

प्रस्तुत पुस्तक का विषय या केन्द्र एक न होकर अनेक हैं। संभव है कि पाठकों को इसमें विशेष रस आये। काम, क्रोध, लोभ, दया, दान, कृपा तथा कथा का स्वरूप और उसकी महिमा, इस ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय हैं। इन संदर्भों में तुलसीदसजी की अवधारणा या दृष्टि क्या है, इस पुस्तक में प्राप्त होगा।

तुलसी की दृष्टि समन्वय, सन्तुलन और उद्देश्यपरक है। आदर्श और यथार्थ को भी उन्होंने इन तीन मापदण्डों पर प्रस्तुत किया है। शायद यही कारण है कि तुलसीदास को ग्रहण कर पाना अत्यन्त सुगम है।

रामकिंकर

।। श्री गणेशाय नमः ।।
।। श्री राम: शरणं मम ।।

काम


भक्तिमती देवियो एवं महानुभावों।
इस व्याख्यानमाला के लिए भिन्न-भिन्न विषयों को चुना गया है, अतः स्वाभाविक है कि उन पर संक्षेप में ही विचार करना होगा। पहला विषय जो आज के लिए चुना गया है, वह है-‘काम’।
‘काम’ शब्द बड़ा अनोखा है और इस शब्द को लेकर अनेक मत और अर्थ हमारे समाने आते हैं। परम्पर्या तो काम की निन्दा की गई है पर यदि हम गहराई से दृष्टि डालें तो देखते हैं कि रामचरितमानस तथा हमारे अन्य धर्मग्रन्थों में काम की प्रवृत्ति और उसके स्वरूप का जो विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, वह बड़ा ही गंभीर है।

 यदि हम विचार करके देखें तो यहाँ उपस्थित हम सब एवं सम्पूर्ण समाज के मूल में ईश्वर को तो है ही, पर संसार के निर्माण में हमें काम की वृत्ति ही दिखाई देती है। काम की वृत्ति के विविध पक्ष हैं। काम क्या दुष्ट वृत्ति ही है ? क्या वह खल और निंदनीय है ? जैसा कि मानस और अन्य ग्रन्थों में, अनेकानेक स्थलों में उसके बारे में वर्णन करते हुए कहा गया है। निसंदेह काम का एक पक्ष यह भी है। पर हम देखते हैं कि काम सृष्टि के सृजन और विस्तार में सहायक तो है ही मनुष्य के अंतःकरण में जो आनंद और रस की पिपासा है, उसकी अनुभूति का मानो एक साकार रूप भी है। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि काम निंदनीय ही नहीं, वंदनीय भी है। इसलिए यदि किसी प्रसंग विशेष में काम की निंदा की गई है तो उसका एक उद्देश्य है, और उसी प्रकार उसकी प्रशंसा के पीछे भी एक निहित उद्देश्य ही उसका कारण है।

जिन तीन विकारों का नाम प्रमुखता से लिया जाता है वे हैं-‘काम, क्रोध और लोभ। आप देखेंगे कि उनमें से क्रोध और लोभ से जुड़ा हुआ नाम रखना लोग पसन्द नहीं करते। किसी का नाम लोभचन्द्र या लोभशर्मा यह सुनने को नहीं मिलता। इसी तरह क्रोध या उसके समानार्थी शब्दों से संयुक्त नाम भी नहीं सुने जाते। पर काम शब्द इतना लोकप्रिय है कि इससे जुड़े हुए नाम रखने में कोई संकोच नहीं दिखाई देता। काम या उसके पर्यायवाची शब्दों के नामवाले अनेकानेक व्यक्ति समाज में मिलते हैं। मदनमोहन मदनलाल, मनोज आदि नाम बहु प्रचलित हैं। इसका अर्थ है कि काम की अच्छाई बुराई और उसकी आवश्यकता एवं उपयोगिता पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए। मनुष्य शान्ति और सुख की खोज में सदैव सचेष्ट रहा है। इन्हें प्राप्त करने के लिए प्राचीन परंपरा में वर्णित जिन दो मार्गों की चर्चा की गयी है वे हैं। प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग। धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में दोनों ही पक्षों को विस्तार से प्रयुक्त किया गया है। मानस में भी कई प्रसंगों में इन पर विचार किया गया है।

सनक, सनंदन सनातन और सनत्कुमार ये चारों तथा नारदजी आदि अनेक नाम निवृत्ति परायण महात्मा के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनकी मान्यता है कि संसार की वस्तुओं में कोई आनंद नहीं है और वे वस्तुएँ क्षणिक हैं, नाशावान हैं। दूसरा मार्ग प्रवृत्ति का मार्ग है। इस परंपरा में भी अनेक महापुरुषों के नाम लिए जा सकते हैं। जहाँ तक व्यक्तिगत आत्मकल्याण की बात है, निवृत्ति मार्ग की ही प्रशंसा की गई है। पर संसार में सृजन निर्माण और विस्तार का क्रम निवृत्ति मार्ग से तो हो नहीं सकता। इन दोनो पर विचार करने की दृष्टि से मानस में भगवान शंकर का जो प्रसंग है, हम उसे ले सकते हैं। भगवान शंकर का एक नाम ‘कामारि’ भी है। इससे तो यही लगता है कि वे काम के शत्रु हैं विरोधी हैं, पर इसे जिस रूप में रखा गया वह बड़े महत्व का है।



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