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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> लक्ष्मण चरित्र

लक्ष्मण चरित्र

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :192
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4754
आईएसबीएन :00-0000-00-0

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रामकिंकरजी महाराज के द्वारा धर्म के ऊपर लोगों को उपदेश देने के सम्बन्ध में पुस्तक....

Lakshman Charitra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अर्पण

रामानुज लक्ष्मण का चरित्र बहिरंग दृष्टि से भ्रम उत्पन्न करने वाला है। लगता है वे आवेश और उतावलेपन से भरे हुए हैं वाणी पर उनका नियन्त्रण नहीं है। ऐसी धारणा साहित्यकारों और प्रवचन कर्ताओं में भी प्रचलित थी। लक्ष्मण चरित्र का चिन्तन करते हुए मुझे जो अनुभूतियाँ हुई उन्हें मैंने प्रसिद्ध धार्मिक पत्रिका ‘कल्याण में चातक चतुर राम श्याम घन के शीर्षक से प्रकाशन के लिए भेजा। क्रमशः तीन या चार अकों में वह प्रकाशित हुआ। उसकी सराहना हुई। अनेक लोगों ने पत्र लिखकर प्रसन्नता प्रकट की। कुछ ऐसे भी लोग थे जिन्हें पूर्व धारणाओं के कारण, इसे स्वीकार करने में कठिनाई हुई। पर उनके सामने जो तर्क और प्रमाण प्रस्तुत किए गए थे, वे गोस्वामी जी की रचना के आधार पर थे। अतः उन्हें अस्वीकार करना भी सम्भव नहीं था।

मेरे लिए यह विषय शास्त्रार्थ या खण्डन-मण्डन की धारणा से मुक्त था। ‘श्री लक्ष्मण’ मेरे लिए आराध्य  से अभिन्न हैं। अतः उपासना के क्रम से उन्हें जो स्थान दिया गया था, वह अनुभव के आधार पर था। बाद में उपासना के ग्रन्थों में भी उसी क्रम को देखकर सन्तोष और प्रसन्नता की अनुभूति हुई।
लक्ष्मण चरित्र के प्रवचन में अपनी जिस भाव स्थिति का अनुभव करता हूँ; वह मेरे लिए भी चकित करने वाली होती है। श्रीराम के प्रति एक ही चरित्र में सभी भावनाएं और सम्बन्धों की पूर्णता यदि किसी एक पात्र में हैं तो वे श्री लक्ष्मण हैं।
प्रभु के चरणों में अर्पित है।

रामकिंकर

सम्पादकीय


हिन्दी-भाषी धर्म-जिज्ञासुओं और साहित्य-पिपासुओं में सम्भवतः ऐसा कोई न होगा, जिसने ‘रामचरित मानस’ के उद्भट विद्वान् और रामकथा के अप्रतिम व्याख्याकार पण्डित रामकिंकरजी उपाध्याय का नाम न सुना हो। इन कुछ वर्षों में उनकी कृतियों तथा उनके प्रवचन-संग्रहों के प्रकाशन से हिन्दी का धर्म और अध्यात्म साहित्य विशेष समृद्ध हुआ है। उनका ‘मानस’ पर चिन्तन सर्वथा मौलिक है। उनकी व्याख्या बीते हुए कल को आज के परिप्रेक्ष्य में लाकर खड़ा कर देती है और मानव-जीवन की समस्याओं का ऐसा सुचिन्तित समाधान प्रस्तुत करती है कि श्रोता और पाठक उनके विचारों को सुनकर पढ़कर धन्यता का बोध करने लगते हैं। उनकी कथा-शैली ऐसी बेजोड़ है कि वह मानस’ के सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदासजी की उक्ति-‘बुध विश्राम सकल जन रंजनि’ को अक्षरशः चरितार्थ करती है।

यह ग्रन्थ उनके द्वारा दिल्ली के लक्ष्मीनारायण मन्दिर में 4 से 11 अप्रैल, 1973 तक ‘लक्ष्मण-चरित्र’ पर दिए गए आठ प्रवचनों का संग्रह है। महाराजश्री की विवेचना में ‘मानस’ के पात्र ऐतिहासिक नहीं रह जाते, वे तो वर्तमान के जीवन्त सत्य बनकर, मानो हमारे साथ रहकर, हमारा पथ-प्रदर्शन करते हैं। उनके व्याख्यानों को सुनते समय ऐसा लगता है कि रामायण-कालीन परिवेश में चले गए हैं और मानों रामकथा के एक पात्र बन गए हैं। जब वे कथा के पात्रों के अन्तरंग का विश्लेषण करते हैं, और तब हमें  अपने जीवन की समस्याएँ स्पष्ट दीखने लगती हैं तथा साथ ही उनके समाधान भी। यह खूबी श्रद्धेय रामकिंकर जी की अपनी है।

यही कारण है कि आपके प्रवचनों के सम्पादन-कार्य में एक विशेष आत्मिक सुख की अनुभूति करता हूँ, क्योंकि उनके द्वारा मुझे उस दिव्य परिवेश में कुछ समय बिताने का दुर्लभ लाभ मिल जाता है। विश्वास है, ‘लक्ष्मण-चरित्र’ का यह रत्न भी उनके पूर्व प्रकाशित ग्रन्थों की ही भाँति सुधी पाठकों द्वारा आदर और उल्लासपूर्वक गृहीत होगा।  


स्वामी आत्मानन्द


बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिन्धु नररूप हरि।


रामचरितमानस के प्रति प्रेम और आस्था के संस्कार मुझे अपनी माता श्रीमती गोदावरीबेन तथा पिताश्री गोर्धनदास गणात्रा से मिला, पर मानस को रक्त में मिलाकर जीवन को अमृतमय बनाने का कार्य मेरे पूज्य सद्गुरुदेव रामायणमय वाणी के पर्याय श्रीरामकिंकर जी महाराज ने किया।

उनका एक ग्रन्थ पढ़ते ही ऐसा लगा कि मेरे पास नहीं है वह जो मिल गया, अन्धकार से प्रकाश हो गया, घुटन के बाद हवा मिल गई। फिर तो मैं उनको पाने और सुनने के लिए मतवाला हो गया, सबसे पहले मैंने उनको लन्दन से मुम्बई आकर ‘बिरला मातुश्री सभागार’ में अपने बड़े भाई के साथ सुना। ऐसा सुदर्शन उनका दर्शन, ऐसा अमृतमय वचन, कैसी गम्भीर वाणी, अद्वितीय प्रस्तुतिकरण, उस समय मुझे वे ही दिख रहे थे। हम जिस होटल में ठहरे थे, कृपापूर्वक हम लोग के कहने पर वे वहां पर पधारे और हमने उन्हें हनुमानचालीसा सुनाया। कुछ वर्षों तक ऐसे ही भारत जाना-आना लगा रहा, मैं भारत केवल महाराजश्री को ही सुनने जाता था।

 मेरे और मेरी पत्नी अंजू के विशेष आग्रह पर उन्होंने ऐसी कृपा की कि वे एक महीना लन्दन आए और चौदह या पन्द्रह प्रवचन किए। यहाँ जिज्ञासुओं ने उस अवसर पर पूरा लाभ उठाया। यहाँ के निवासियों के लिए वह स्मृति अविस्मरणीय हो गई। महाराजश्री की पुस्तकों में भारत मूल का होने के नाते मुझे वहाँ कि भूमि बहुत आकर्षित करती है और उस आकर्षण का मूल कारण केवल यह है कि जहाँ पर प्रभु श्रीराम ने अवतार लिया, जहाँ पर गंगा और सरयू का तट है जिस भूमि पर एक ऐसे महापुरुष ने जन्म लिया जो मन, वचन और कर्म से राममय हो गए, उनकी कृपामूर्ति का दर्शन कर हजारों वर्षों तक लोग उनको देखते और पढ़ते रहेंगे।

आज मनुष्य को जिस वस्तु की जरूरत है, वह स्वस्थ्य चिन्तन और पवित्र दिशा। इसके अभाव में व्यक्ति कितना भी विकास क्यों न करे उसको नहीं माना जा सकता। रामायणम् ट्रस्ट को पूज्य महाराजश्री का यह वरदान प्राप्त है कि वह उनके चिन्तन को प्रकाशित करने के लिए अधिकृत है। मेरी इच्छा है कि यह साहित्य जिनको प्राप्त हो, वे न केवल पढ़े, अपितु ऐसे जिज्ञासुओं को भी  पढ़ाएं जिनको गोस्वामी तुलसीदास के साहित्य के प्रति अभिरुचि है। रामायणम् ट्रस्ट के अध्यक्ष श्रद्धेय मंदाकिनी श्रीरामकिंकरजी एवं सभी ट्रस्टियों का मैं आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे यह सेवा का अवसर दिया और भविष्य में भी मेरी यही भावना है कि ऐसी सेवा मैं करता रहूँ। आम तौर पर यह जाता है कि बड़े सत्कर्मों के परिणामस्वरूप सम्भव होता है जब गुरु कृपा होती है, पर मेरा मानना यह है कि मेरा तो कोई भी कर्म ऐसा नहीं है जिसके फलस्वरूप मुझे ऐसे अवतार पुरुष की कृपा प्राप्त होती, यह तो उनकी अहैतुकी कृपा ही थी वे बिना कारण ही मुझ पर कृपा करते थे और करते हैं।
अपनी पूज्य माताजी और पूज्य पिताजी की पुण्य स्मृति में मुझे इस सेवा को करके जीवन में धन्यता का अनुभव हो रहा है।


गुरुदेव के चरण सेवक,
श्रीमती अंजू अरुण जी, गणात्रा
लंदन

‘‘श्रीराम शरणं मम’’

महाराजश्री : एक परिचय



प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा जाय, तो वह हैं- प्रज्ञापुरुष, भक्तितत्त्व द्रष्टा, सन्त प्रवर, ‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी अमृतमयी, धीर, गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं बुद्धिजीवियों को, नानापुराण- निगमागम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी मनीषी, मनस के अद्भुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार हैं।

भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-


सर्वपन्थाः गावः सन्तु, दोग्धा तुलसीदासनन्दन।
दिव्यराम-कथा दुग्धः, प्रस्तोता रामकिंकरः।।


जैसे  पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर (मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्जापुर के बरैनी नामक गाँव के निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरा देवी एवं पिता पूज्य श्री शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविज्ञ व्याख्याकार एवं हनुमानजी महाराज के परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमानजी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम सेवक रखा गया।
 
जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।

पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।

आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।

ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।

ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।  

प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’

इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।

सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग  प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।

अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो  जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।

निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।

अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।

प्रभु की शरण में
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी



प्रथम व्याख्यान



गोस्वामी तुलसीदास श्री लक्ष्मणजी की वन्दना करते हुए कहते हैं।

बंदउँ लक्षिमन पद जल जाता।
सीतल सुभग भगत सुख दाता।।
रघुपति कीरति बिमल पताका।
दंड समान भयउ जस जाका।।
सेष सहस्रसीस जग कारन।
जो अवतरेउ भूमि भय टारन।।
सदा सो सानुकूल रह मो पर।
कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर।। 1/16/5-8


लोग लक्ष्मण जी के चरित्र तथा व्यक्तित्व में विरोधाभास देखते हैं। गोस्वामी जी की दृष्टि में भी यह विरोधाभास था और इसी के स्पष्टीकरण के लिए उन्होंने श्री लक्ष्मणजी की वन्दना का थोड़ा अधिक विस्तार किया। उनकी वन्दना में उपर्युक्त चार पंक्तियों का उपयोग किया गया है, जबकि भरतजी की वन्दना में दो ही पंक्तियां  लिखी गई हैं।

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना।
   जासु नेम ब्रत जाइ न बरना।।
   राम चरन पंकज मन जासू।
   लुबुध मधुप इव तजइ न पासू।।1/16/3-4


शत्रुध्नजी की वन्दना भी एक पंक्ति में कर ली गई-

रिपुसूदन पद कमल नमामी।
सूर सुसील भरत अनुगामी।।1/16/9


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