आचार्य श्रीराम किंकर जी >> रामकथा ससि किरन समाना रामकथा ससि किरन समानाश्रीरामकिंकर जी महाराज
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परम पूज्य आचार्य स्वामी रामकिंकर जी महाराज के द्वारा लिखी गई धर्म से सम्बन्धित पुस्तक.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
दो शब्द
संत चकोरों की संख्या वृद्धि से संतोष और प्रसन्नता की अनुभूति हो रही है।
रामकथा की रसमयता किसे अपनी ओर आकृष्ट नहीं करती !
‘‘राम कथा
ससि किरन समाना’’ की प्रथम आवृत्ति शीघ्र समाप्त हो
गई। अब
रसिक चकोरों की भावना की पूर्ति के लिए द्वितीय संस्करण रामायणम् के
द्वारा प्रकाशित हो रही है। आशा है रसिक जनों की रस पिपासा वृध्दगंत होती
रहेगी।
रामकिंकर
राम कथा ससि किरन समाना
श्री गणेशाय नमः
‘‘श्री रामः शरणम् मम’’
श्री गणेशाय नमः
‘‘श्री रामः शरणम् मम’’
सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा
जैसे ‘शिव ताण्डव’ की मंगलकारी वेला में, डमरू के नाद
से
व्याकरण के चौदह सूत्रों का सृजन हुआ, जैसे विष्णु पार्षद श्री गरुणजी
महाराज के पंखों से सामवेद की ऋचाएं प्रस्फुटित होती हैं, वैसे ही यह कहना
अतिशयोक्ति नहीं होगी कि रामभक्ति में तदाकार, उनके सगुण सरोवर में
चिरन्तन रमे हुए ‘‘परम पूज्य श्री रामकिंकर जी
महाराज’’ के श्रीमुख से भगवत्कथा के दिव्य शब्दमय
विग्रह का
अवतरण होता है। जैसे वेदवाणी सनातन है, वैसे ही परम पूज्य रामकिंकर जी
महाराज के द्वारा व्याख्यायित मानस का प्रत्येक सूत्र,
‘‘मन्त्र’’ रूप ग्रहण कर, तत्व,
दर्शन,
सिद्धान्त, शास्त्रों की कोशिकाओं को अनन्तकाल तक अनुप्राणित करता रहेगा,
यह भी सनातन सत्य है।
श्री रामचरितमानस तथा परम पूज्य महाराज श्री रामकिंकर जी एक दूसरे के पर्यावाची बन चुके है। उनके ही शब्दों में—
‘‘मानस तो मेरा श्वास है।’’
जैसे वायु का स्पन्दन ही मनुष्य को जीवनी शक्ति प्रदान करता है, चाहे कोई भी अवस्था हो, जाग्रत, सुषुप्त या तुरीय, परम पूज्य महाराज श्री के रोम-रोम को राम चरित मानस अनुप्राणित करता है वैसे तो मानस का गायन हमारे देश की प्राचीन परम्परा रही है, पर इस वाचिक परम्परा में परम पूज्य महाराज श्री का विशिष्ट योगदान है, वह उनकी मौलिक आध्यात्मिक दृष्टि, मानों वे इस आध्यात्मिक सम्पदा के ‘‘कुबेर’’ हैं। मानस की मधुर चौपाई और सरल प्रतीत होने वाले छन्दों के अन्तराल में छिपे हुए गूढ़ रहस्य, निहित आध्यात्मिक सूत्र एवं गंभीर सिद्धान्तों की खोजपूर्ण व्याख्या, इस युग में मात्र आप ही की देन है।
उन मन्त्रदृष्टा ऋषि मुनियों की तरह, जो अपनी निर्विकल्प समाधि में अवस्थित होकर उस अपौरुषेय शब्द ब्रह्म का साक्षात्कार करते थे, जब परम पूज्य महाराज श्री व्यास आसन पर विराजमान होकर, उस विराट से एकाकार हो जाते हैं तो उनकी ‘‘ऋतम्भरा प्रज्ञा’’ में वह निर्गुण निराकार अपरिच्छि्न्न ब्रह्म, अत्यन्त सुन्दर साकार रूप ग्रहण कर प्रगट हो जाता है, जिसकी शब्दमयी झांकी, मात्र उन्हीं को नहीं बल्कि सम्पूर्ण श्रोता समाज को एक साथ कृतकृत्य बना देती है। परम पूज्य महाराज जी की जिव्हा पर विराजमान सरस्वती मानो उस दिव्य ‘‘कथावतरण’’ की बेला में गद्गद होकर, नृत्य करने लगती हैं, अपनी नित्य नई नृत्य कला से उपस्थित जिज्ञासुओं को अपने प्रेम-पाश में बांध लेती हैं।
उनकी अनुभूति—प्रसूत वाणी से जब शास्त्र और सिद्धान्त का प्रतिपादन होता है, तब बड़े-से-बड़े सन्त, साहित्यकार एवं विद्वान चकित हो जाते हैं। उनके चिंतन में तत्व की गंभीरता और भाव की सरसता का अद्भुत सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है। क्लिष्टतम विषय का प्रतिपादन वे इतनी सरलता एवं रोचकतापूर्ण शैली में करते हैं, मानो ईश्वर की उन्हें यह विशिष्ट देन है। जहाँ अन्य कथावाचक तत्व का स्पर्श करके कथा का विस्तार करते हैं, वहीं परम पूज्य महाराज श्री, कथा का माध्यम बनाकर तत्व का विस्तार करते हैं। निर्विवाद रूप से सबको चमत्कृत करने वाली उनकी इस अनूठी कथन शैली के कारण ही एक महानतम विरक्त सन्त ने आपके लिए यह भावोद्गार प्रकट किए—‘‘पण्डितजी तो रामायण बन गए’’।
निश्चित रूप से इससे अधिक उपयुक्त एवं प्रामाणिक व्याख्या का परमपूज्य महाराजश्री की और कोई भी नहीं हो सकती।
श्री दोहावली रामायण के एक दोहे में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं—
श्री रामचरितमानस तथा परम पूज्य महाराज श्री रामकिंकर जी एक दूसरे के पर्यावाची बन चुके है। उनके ही शब्दों में—
‘‘मानस तो मेरा श्वास है।’’
जैसे वायु का स्पन्दन ही मनुष्य को जीवनी शक्ति प्रदान करता है, चाहे कोई भी अवस्था हो, जाग्रत, सुषुप्त या तुरीय, परम पूज्य महाराज श्री के रोम-रोम को राम चरित मानस अनुप्राणित करता है वैसे तो मानस का गायन हमारे देश की प्राचीन परम्परा रही है, पर इस वाचिक परम्परा में परम पूज्य महाराज श्री का विशिष्ट योगदान है, वह उनकी मौलिक आध्यात्मिक दृष्टि, मानों वे इस आध्यात्मिक सम्पदा के ‘‘कुबेर’’ हैं। मानस की मधुर चौपाई और सरल प्रतीत होने वाले छन्दों के अन्तराल में छिपे हुए गूढ़ रहस्य, निहित आध्यात्मिक सूत्र एवं गंभीर सिद्धान्तों की खोजपूर्ण व्याख्या, इस युग में मात्र आप ही की देन है।
उन मन्त्रदृष्टा ऋषि मुनियों की तरह, जो अपनी निर्विकल्प समाधि में अवस्थित होकर उस अपौरुषेय शब्द ब्रह्म का साक्षात्कार करते थे, जब परम पूज्य महाराज श्री व्यास आसन पर विराजमान होकर, उस विराट से एकाकार हो जाते हैं तो उनकी ‘‘ऋतम्भरा प्रज्ञा’’ में वह निर्गुण निराकार अपरिच्छि्न्न ब्रह्म, अत्यन्त सुन्दर साकार रूप ग्रहण कर प्रगट हो जाता है, जिसकी शब्दमयी झांकी, मात्र उन्हीं को नहीं बल्कि सम्पूर्ण श्रोता समाज को एक साथ कृतकृत्य बना देती है। परम पूज्य महाराज जी की जिव्हा पर विराजमान सरस्वती मानो उस दिव्य ‘‘कथावतरण’’ की बेला में गद्गद होकर, नृत्य करने लगती हैं, अपनी नित्य नई नृत्य कला से उपस्थित जिज्ञासुओं को अपने प्रेम-पाश में बांध लेती हैं।
उनकी अनुभूति—प्रसूत वाणी से जब शास्त्र और सिद्धान्त का प्रतिपादन होता है, तब बड़े-से-बड़े सन्त, साहित्यकार एवं विद्वान चकित हो जाते हैं। उनके चिंतन में तत्व की गंभीरता और भाव की सरसता का अद्भुत सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है। क्लिष्टतम विषय का प्रतिपादन वे इतनी सरलता एवं रोचकतापूर्ण शैली में करते हैं, मानो ईश्वर की उन्हें यह विशिष्ट देन है। जहाँ अन्य कथावाचक तत्व का स्पर्श करके कथा का विस्तार करते हैं, वहीं परम पूज्य महाराज श्री, कथा का माध्यम बनाकर तत्व का विस्तार करते हैं। निर्विवाद रूप से सबको चमत्कृत करने वाली उनकी इस अनूठी कथन शैली के कारण ही एक महानतम विरक्त सन्त ने आपके लिए यह भावोद्गार प्रकट किए—‘‘पण्डितजी तो रामायण बन गए’’।
निश्चित रूप से इससे अधिक उपयुक्त एवं प्रामाणिक व्याख्या का परमपूज्य महाराजश्री की और कोई भी नहीं हो सकती।
श्री दोहावली रामायण के एक दोहे में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं—
‘‘लहै बड़ाई देवता इष्टदेव जब
होय।।’’
अर्थात् भगवान् तो वही है, पर जिसका भक्त जितना बड़ा होता है, अपने इष्ट
की उतनी ही बड़ी महिमा वह संसार के समक्ष उजागर करता है। मन्दिरों में भी
इस सत्य का दर्शन होता है। प्रत्येक देवस्थान में विग्रह तो भगवान का ही
होता है, जो किसी खण्ड से निर्मित शिल्पी की कल्पना का साकार रूप है।
परन्तु प्रत्येक मूर्ति में समान रूप से आकर्षण की प्रतीत नहीं होती। कहीं
जाकर ऐसा लगता है कि मूर्ति का देवता सुषुप्त है और किसी स्थान पर पहुंचकर
अन्तःकरण में एक ऐसे अनायास खिंचाव की अनुभूति होता है, जिसका बुद्धि से
स्पष्टीकरण नहीं दिया जा सकता। सभी मूर्तियां आस्था का केन्द्र तो होती
हैं, परंतु कबीर के शब्दों में—
‘‘बलिहारी वह घट की जा घट परघट
होय।’’
धन्य है वह, जिसके अन्तःकरण में विराजमान ब्रह्म सक्रिय होकर जीवन की
बागडोर संभालता है। परमपूज्य महाराजश्री, उस असंख्य जन समूह के मध्य में
जब प्रभु की शब्दमयी झांकी प्रगट करते हैं तो कर्ता और कर्म का भेद मिट
जाता है।
उन पूर्ण आत्म-विस्मरण के क्षणों में श्रोता समाज उस अनन्त परम सत्य के साक्षात्कार में लीन हो जाता है। यह वैयक्तिक आनन्द के क्षण नहीं, बल्कि प्रत्येक की सामूहिक प्रतीति है। मंचासीन वक्ता के नए-नए रूप देखकर भाव की अनेकानेक तरंगें हृदय में हिलोरें लेती हैं मानो लगता है क्या यह मन्दिर की मूर्ति के शिल्पकार हैं या द्रवित हृदय वाले भक्ताग्रगण्य, सन्त प्रवर हैं ? या कोई मन्त्रदृष्टा ऋषि मुनि हैं ? नहीं, नहीं—यह तो साक्षात चलता-फिरता तीर्थ है, जिनका लघुतम कृपा प्रसाद, जीवन के त्रिताप और वितिमि को नष्ट कर, धन्यता प्रदान कर सकता है। अनेक श्रोताओं के भावोद्गार जब मैं सुनती हूँ, तो अनुभूतियों की समानता से अत्यधिक प्रसन्नता होती है।
किसी को लगता है कि श्री हनुमानजी महाराज स्वयं आकर उनमें विराजमान हो जाते हैं तो किसी को त्रिभुवन गुरु भगवान शिव का दर्शन उनमें होता है। और किन्हीं को साक्षात् श्रीरामभद्र की प्रतिछाया उनके नेत्र एवं भावभंगिमा में दृष्टिगोचर होती है। ऐसे अवतार पुरुष का परिचय देना क्या किसी के लिए संभव है ? इतिहास और घटनाक्रम की दृष्टि से कुछ संकेतों द्वारा उनके जीवन पर प्रकाश डालने की बाल-चेष्टा, मैंने इससे पूर्व एक लेख में की थी। परन्तु परम पूज्य महाराज श्री के जीवन के नए-नए रूप, उनके स्वभाव के विभिन्न पक्ष, उनके ज्ञान की ऊँचाई और हृदय की अगाधता, जैसी अनेकानेक भिन्नताएं मेरे समक्ष प्रगट होती हैं, तो लगता है कि शास्त्र की वह उक्ति जो ब्रह्म के सन्दर्भ में लिखी गई है—‘‘अखिल विरूद्ध धर्माश्रय’’ उसे परम पूज्य महाराज श्री ने अपनी जीवन लीला द्वारा चरितार्थ करके मुझे समझा दिया।
परम पूज्य महाराज श्री का प्रभाव तो जगत विदित है, पर उनके स्वभाव का परिचय तो उन्हीं सौभाग्यशाली को प्राप्त होता है, जिन्हें उन्होंने जानना चाहा—
उन पूर्ण आत्म-विस्मरण के क्षणों में श्रोता समाज उस अनन्त परम सत्य के साक्षात्कार में लीन हो जाता है। यह वैयक्तिक आनन्द के क्षण नहीं, बल्कि प्रत्येक की सामूहिक प्रतीति है। मंचासीन वक्ता के नए-नए रूप देखकर भाव की अनेकानेक तरंगें हृदय में हिलोरें लेती हैं मानो लगता है क्या यह मन्दिर की मूर्ति के शिल्पकार हैं या द्रवित हृदय वाले भक्ताग्रगण्य, सन्त प्रवर हैं ? या कोई मन्त्रदृष्टा ऋषि मुनि हैं ? नहीं, नहीं—यह तो साक्षात चलता-फिरता तीर्थ है, जिनका लघुतम कृपा प्रसाद, जीवन के त्रिताप और वितिमि को नष्ट कर, धन्यता प्रदान कर सकता है। अनेक श्रोताओं के भावोद्गार जब मैं सुनती हूँ, तो अनुभूतियों की समानता से अत्यधिक प्रसन्नता होती है।
किसी को लगता है कि श्री हनुमानजी महाराज स्वयं आकर उनमें विराजमान हो जाते हैं तो किसी को त्रिभुवन गुरु भगवान शिव का दर्शन उनमें होता है। और किन्हीं को साक्षात् श्रीरामभद्र की प्रतिछाया उनके नेत्र एवं भावभंगिमा में दृष्टिगोचर होती है। ऐसे अवतार पुरुष का परिचय देना क्या किसी के लिए संभव है ? इतिहास और घटनाक्रम की दृष्टि से कुछ संकेतों द्वारा उनके जीवन पर प्रकाश डालने की बाल-चेष्टा, मैंने इससे पूर्व एक लेख में की थी। परन्तु परम पूज्य महाराज श्री के जीवन के नए-नए रूप, उनके स्वभाव के विभिन्न पक्ष, उनके ज्ञान की ऊँचाई और हृदय की अगाधता, जैसी अनेकानेक भिन्नताएं मेरे समक्ष प्रगट होती हैं, तो लगता है कि शास्त्र की वह उक्ति जो ब्रह्म के सन्दर्भ में लिखी गई है—‘‘अखिल विरूद्ध धर्माश्रय’’ उसे परम पूज्य महाराज श्री ने अपनी जीवन लीला द्वारा चरितार्थ करके मुझे समझा दिया।
परम पूज्य महाराज श्री का प्रभाव तो जगत विदित है, पर उनके स्वभाव का परिचय तो उन्हीं सौभाग्यशाली को प्राप्त होता है, जिन्हें उन्होंने जानना चाहा—
सोइ जानई जेहि देहु जनाई।
(2-126-2)
(2-126-2)
अपने प्रभु का शील और संकोच, उदारता और विशालता परम पूज्य महाराज श्री को
मानो विरासत में मिली है। छोटे-से-छोटे व्यक्ति की भावना एवं सम्मान की
रक्षा के लिए वे सदा तत्पर रहते हैं। उनकी कथनी और करनी में मैंने कभी कोई
अन्तर नहीं पाया। जो मंच का सत्य है, व्यासपीठ से जो उपदेश दिया गया, वही
व्यवहार में सर्वदा चरितार्थ होता रहा। उनके जीवन का उद्देश्य चमत्कार
प्रदर्शन कभी नहीं रहा, क्योंकि दंभ और कपट उनसे कोसों दूर रहे। उनके हृदय
की सरलता, शुचिता एवं कोमलता उनके स्वत्व का प्रमाण है।
‘‘साधुता’’ किसी
वेश—भूषा या आश्रम का नाम
नहीं, वह तो एक वृत्ति है जो परम पूज्य महाराज श्री के व्यक्तित्व में सहज
है। बहिरंग जगत में समस्त भोग वैभव की सामग्रियों से घिरे प्रतीत होने पर
भी, अन्तःकरण से एक योगी की भांति वे इतने निर्लिप्त हैं, जिसकी तुलना
‘गीता’ के उस ‘स्थितप्रज्ञ पुरुष से की जा
सकती
है—
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रामापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 3-60)
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी।।
(श्रीमद्भगवद्गीता 3-60)
अर्थ के महत्व से भली प्रकार अवगत होते हुए विशेषकर वर्तमान समय में, परम
पूज्य महाराज श्री जिस मु्क्त हस्त से उसे लुटाते हैं, यह तो उनकी फकीराना
प्रवृत्ति का द्योतक है। जिस आशा से जो भी व्यक्ति उनके पास आया, चाहे
लौकिक हो अथवा पारलौकिक, परम पूज्य श्री महाराज जी ने उसकी पूर्ति की।
उनके दरबार से कभी कोई निराश नहीं लौटा। परम पूज्य महाराज श्री की
कृपालुता एवं क्षमाशीलता का ध्यान, जब भी मुझे एकांत के क्षणों में आ जाता
है, तो आंखों में अश्रु छलक आते हैं। विनय पत्रिका की वह पंक्ति—
ऐसो को उदगार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर, राम सरिस कोउ नहीं।। (162)
बिनु सेवा जो द्रवै दीन पर, राम सरिस कोउ नहीं।। (162)
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