आचार्य श्रीराम किंकर जी >> महारानी कैकेयी महारानी कैकेयीश्रीरामकिंकर जी महाराज
|
4 पाठकों को प्रिय 436 पाठक हैं |
कैकेयी के जीवन चरित्र पर आधारित पुस्तक.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सुनि सीतापति-सील-सुभाऊ ।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल, सो नर खेहर खाउ ।।1।।
सिसुपनतें पितु, मातु, बन्धु, गुरु, सेवक, सचिव, सखाऊ ।
कहत राम-बिधु-बदन रिसोहैं, सपनेहुँ लख्यो न काउ।।2।।
खेलत संग अनुज बालक नित, जोगवत अनट अपाउ।
जीति हारि चुचकारि दुलारत, देत दिवावत दाउ।।3।।
सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ।
दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ।।4।।
भव-धनु भंजि निदरि भूपति, भृगुनाथ खाइ गये ताउ।
छमि अपराध, छमाइ पाँय परि, इतौ न अनत समाउ।।5।।
कह्यो राज, बन दियो नारिबस, गरि गलानि गयो राउ।
ता कुमातुको मन जोगवत ज्यों नित तन मरम कुघाउ।।6।।
देबेको न कछू रिनियाँ हौं धनिक तूँ पत्र लिखाउ।।7।।
अपनाये सुग्रीव बिभीषन, तिन न तज्जो छल-छाउ।
भरत सभा सनमानि, सराहत, होत न हृदय अघाउ।।8।।
निज करुना करतूति भगतपर चपत चलत चरचाउ।
सकृत प्रनाम प्रनत जस बरनत, सुनत कहत फिरि गाउ।।9।।
समुझि समुझि गुनग्राम राम के, उर अनुराग बढ़ाउ।
तुलसिदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम-प्रसाउ।।10।।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल, सो नर खेहर खाउ ।।1।।
सिसुपनतें पितु, मातु, बन्धु, गुरु, सेवक, सचिव, सखाऊ ।
कहत राम-बिधु-बदन रिसोहैं, सपनेहुँ लख्यो न काउ।।2।।
खेलत संग अनुज बालक नित, जोगवत अनट अपाउ।
जीति हारि चुचकारि दुलारत, देत दिवावत दाउ।।3।।
सिला साप-संताप-बिगत भइ परसत पावन पाउ।
दई सुगति सो न हेरि हरष हिय, चरन छुएको पछिताउ।।4।।
भव-धनु भंजि निदरि भूपति, भृगुनाथ खाइ गये ताउ।
छमि अपराध, छमाइ पाँय परि, इतौ न अनत समाउ।।5।।
कह्यो राज, बन दियो नारिबस, गरि गलानि गयो राउ।
ता कुमातुको मन जोगवत ज्यों नित तन मरम कुघाउ।।6।।
देबेको न कछू रिनियाँ हौं धनिक तूँ पत्र लिखाउ।।7।।
अपनाये सुग्रीव बिभीषन, तिन न तज्जो छल-छाउ।
भरत सभा सनमानि, सराहत, होत न हृदय अघाउ।।8।।
निज करुना करतूति भगतपर चपत चलत चरचाउ।
सकृत प्रनाम प्रनत जस बरनत, सुनत कहत फिरि गाउ।।9।।
समुझि समुझि गुनग्राम राम के, उर अनुराग बढ़ाउ।
तुलसिदास अनयास रामपद पाइहै प्रेम-प्रसाउ।।10।।
।। श्रीराम: शरणं मम ।।
भूमिका
महारानी कैकेयी का व्यक्तित्व अद्भुत था। इन्हें लेकर परस्पर विरोधी
धारणाएँ प्रचलित रही हैं। इस सम्बन्ध में श्रीरामचरित मानस को समझने की
अनेक विधाएँ प्रचलित हैं। यदि श्रीरामचरित मानस को भगवान राम के महानाट्य
की दृष्टि से देखें तब अच्छे और बुरे का प्रश्न ही कहाँ आता है। नाट्यशाला
का प्रत्येक पात्र न तो स्वयं में अच्छा होता है न बुरा। ऐसी मान्यता या
धारणा को दृष्टिगत रखकर यदि विचार करें तो प्रत्येक पात्र एक अभिनय कर रहा
है। रावण-कुम्भकर्ण भी उसके अपवाद नहीं हैं। फिर अच्छा या बुरा क्या ?
किन्तु ऐसा मान लेने पर नाटक का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।
यदि गोस्वामीजी की दृष्टि भंगिमा पर विचार करें तो वे प्रत्येक पात्र को उस रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं जिसके माध्यम से भौतिक ही नहीं आध्यात्मिक संकेतों के माध्यम से भी उनकी प्रासंगिकता सिद्ध हो सके। नाट्य के माध्यम से हमें मनोरंजन की उपलब्धि होती है पर कोई बुद्धिसंगत तात्पर्य समझ में नहीं आता। महारानी कैकेयी का चरित्र भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। कई लोग उसे भावुक रूप देने की चेष्टा करते हैं। जहाँ श्रीराम एकान्त क्षणों में माता कैकयी से यह वरदान माँगते हैं कि वे वनवास के द्वारा जो लीला सम्पन्न होनी है उसमें सहायक बनें। उसमें एक अतिरिक्त भावुकता की सृष्टि की जाती है, जिसे पढ़ या सुनकर व्यक्ति द्रवित या श्रवित-सा हो जाता है, निश्चित रूप से गोस्वामी तुलसीदासजी को यह मत अभिप्रेत नहीं है। वे महारानी कैकयी को एक समालोचक की दृष्टि से देखते हैं।
कैकेयीजी ही नहीं अपितु समाज में अनेकों लोग ऐसे दिखाई देते हैं जिनमें अचानक एक परिवर्तन-सा होता है, इसे समझने के लिए गहरे मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की आवश्यकता है। तब ऐसी स्थिति में प्रबुद्ध व्यक्ति के अन्त:करण में यह जिज्ञासा आना स्वाभाविक है कि व्यक्ति में ऐसा परिवर्तन क्यों और कैसे हो जाता है ! मेरा मानना है कि महारानी कैकेयी के भी परिवर्तन की इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। यही समाज और व्यक्ति के लिए कल्याणकारी है।
इसी प्रस्तुतीकरण के पीछे गोस्वामी तुलसीदासजी का एक महान् उद्देश्य यह था कि वे अपने आराध्य प्रभु श्रीराम के शील और औदार्य को भी चित्रित करना चाहते थे और वे इसके द्वारा भक्तों को यह बताकर आश्वस्त करना चाहते थे कि हमारे प्रभु बड़े-से-बड़े अपराध को भी अपने कोमल स्वभाव के कारण क्षमा कर देते हैं। इसलिए गोस्वामीजी हमें श्रीराम की भक्ति करने का सन्देश देते हैं।
इस पुस्तक के सुरुचिपूर्ण प्रकाशन में जिनका महत्त्वपूर्ण योगदान है, वे हैं श्री वी.डी. कानोडिया, जिन्होंने तीस वर्ष तक मुम्बई में जितने प्रवचन सुने सबको टेप से लिपिबद्ध कर जीवन के उत्तरार्ध में मेरे शिष्य मैथिलीशरण को अपने घर शिवाजी पार्क, मुम्बई में बुलाकर सौंपा। वे बड़े सुधी श्रोता रहे हैं। इतने वर्षों तक लगातार इस तरह की भावधारा का प्रवाह बिना प्रभु प्रेरणा के सम्भव नहीं है। श्री कनोडियाजी को मेरा आशीर्वाद। यह पुस्तक उसी संग्रह का कल्याणकारी परिणाम है।
इसके संपादक श्री चन्द्रशेखर तिवारी मेरे निकटस्थ शिष्य हैं। वे निष्काम भाव से लेखन कार्य में सहयोग करते रहते हैं, अत: उन्हें भी मेरा आशीर्वाद।
इन सबकी सेवाओं, सामर्थ्य और भावना को बड़े ही निष्ठा के साथ मैथिलीशरण संयोजन करके क्रियान्वित करते हैं। उनको भी मेरा आशीर्वाद। दिल्ली के श्री मदनमोहन भारद्वाज की साहित्य-सेवाएँ महत्त्वपूर्ण हैं, उन्हें भी मेरा आशीर्वाद।
यदि गोस्वामीजी की दृष्टि भंगिमा पर विचार करें तो वे प्रत्येक पात्र को उस रूप में प्रस्तुत करना चाहते हैं जिसके माध्यम से भौतिक ही नहीं आध्यात्मिक संकेतों के माध्यम से भी उनकी प्रासंगिकता सिद्ध हो सके। नाट्य के माध्यम से हमें मनोरंजन की उपलब्धि होती है पर कोई बुद्धिसंगत तात्पर्य समझ में नहीं आता। महारानी कैकेयी का चरित्र भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए। कई लोग उसे भावुक रूप देने की चेष्टा करते हैं। जहाँ श्रीराम एकान्त क्षणों में माता कैकयी से यह वरदान माँगते हैं कि वे वनवास के द्वारा जो लीला सम्पन्न होनी है उसमें सहायक बनें। उसमें एक अतिरिक्त भावुकता की सृष्टि की जाती है, जिसे पढ़ या सुनकर व्यक्ति द्रवित या श्रवित-सा हो जाता है, निश्चित रूप से गोस्वामी तुलसीदासजी को यह मत अभिप्रेत नहीं है। वे महारानी कैकयी को एक समालोचक की दृष्टि से देखते हैं।
कैकेयीजी ही नहीं अपितु समाज में अनेकों लोग ऐसे दिखाई देते हैं जिनमें अचानक एक परिवर्तन-सा होता है, इसे समझने के लिए गहरे मनोवैज्ञानिक विश्लेषण की आवश्यकता है। तब ऐसी स्थिति में प्रबुद्ध व्यक्ति के अन्त:करण में यह जिज्ञासा आना स्वाभाविक है कि व्यक्ति में ऐसा परिवर्तन क्यों और कैसे हो जाता है ! मेरा मानना है कि महारानी कैकेयी के भी परिवर्तन की इसी पृष्ठभूमि में देखा जाना चाहिए। यही समाज और व्यक्ति के लिए कल्याणकारी है।
इसी प्रस्तुतीकरण के पीछे गोस्वामी तुलसीदासजी का एक महान् उद्देश्य यह था कि वे अपने आराध्य प्रभु श्रीराम के शील और औदार्य को भी चित्रित करना चाहते थे और वे इसके द्वारा भक्तों को यह बताकर आश्वस्त करना चाहते थे कि हमारे प्रभु बड़े-से-बड़े अपराध को भी अपने कोमल स्वभाव के कारण क्षमा कर देते हैं। इसलिए गोस्वामीजी हमें श्रीराम की भक्ति करने का सन्देश देते हैं।
इस पुस्तक के सुरुचिपूर्ण प्रकाशन में जिनका महत्त्वपूर्ण योगदान है, वे हैं श्री वी.डी. कानोडिया, जिन्होंने तीस वर्ष तक मुम्बई में जितने प्रवचन सुने सबको टेप से लिपिबद्ध कर जीवन के उत्तरार्ध में मेरे शिष्य मैथिलीशरण को अपने घर शिवाजी पार्क, मुम्बई में बुलाकर सौंपा। वे बड़े सुधी श्रोता रहे हैं। इतने वर्षों तक लगातार इस तरह की भावधारा का प्रवाह बिना प्रभु प्रेरणा के सम्भव नहीं है। श्री कनोडियाजी को मेरा आशीर्वाद। यह पुस्तक उसी संग्रह का कल्याणकारी परिणाम है।
इसके संपादक श्री चन्द्रशेखर तिवारी मेरे निकटस्थ शिष्य हैं। वे निष्काम भाव से लेखन कार्य में सहयोग करते रहते हैं, अत: उन्हें भी मेरा आशीर्वाद।
इन सबकी सेवाओं, सामर्थ्य और भावना को बड़े ही निष्ठा के साथ मैथिलीशरण संयोजन करके क्रियान्वित करते हैं। उनको भी मेरा आशीर्वाद। दिल्ली के श्री मदनमोहन भारद्वाज की साहित्य-सेवाएँ महत्त्वपूर्ण हैं, उन्हें भी मेरा आशीर्वाद।
-रामकिकंर
महाराजश्री : एक परिचय
प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा
जाय, तो वह हैं- प्रज्ञापुरुष, भक्तितत्त्व द्रष्टा, सन्त प्रवर,
‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी
अमृतमयी, धीर,
गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं
बुद्धिजीवियों को, नानापुराण- निगमागम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान
कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित
मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक
साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी
मनीषी, मनस के अद्भुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार
हैं।
भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-
भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-
धेनवः सन्तु पन्थानः दोग्धा हुलसिनन्दनः
दिव्यराम-कथा दुग्धं प्रस्तोता रामकिंकरः।।
दिव्यराम-कथा दुग्धं प्रस्तोता रामकिंकरः।।
जैसे पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका
जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही
श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा
में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर
(मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्जापुर के बरैनी नामक गाँव के
निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरा देवी एवं पिता पूज्य श्री
शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविज्ञ व्याख्याकार एवं हनुमानजी महाराज के
परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमानजी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं
अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक
सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति
दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम
सेवक
रखा गया।
जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।
पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।
आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।
ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।
ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।
प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’
इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।
सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।
अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका �
जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।
पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।
आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।
ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।
ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।
प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’
इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।
सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।
अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका �
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book