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आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस एवं गीता का तुलनात्मक विवेचन - 1

मानस एवं गीता का तुलनात्मक विवेचन - 1

श्रीरामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : रामायणम् ट्रस्ट प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :152
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4760
आईएसबीएन :00-00-0000-0

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परम पूज्य स्वामी रामकिंकरजी महाराज के द्वारा लिखी गई धर्म पर आधारित पुस्तक....

Manas Evam Geeta Ka Tulnatamak Vivechan

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


मेरी दृष्टि में व्यक्तित्व और कृतित्व का गौरवशाली रूप वह है कि जब व्यक्ति अपनी साधना को, चाहे वह ज्ञानमार्ग की हो अथवा भक्तिमार्ग की, सम्पूर्ण रूप से लोकमंगल के लिए मोड़ दे। गोस्वामी जी की भी यही मान्यता है कि-

कीरति भनिति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई।।


पंडित रामकिकंकर जी के अम्रत महोत्सव के इस पर्व पर मैं कहना चाहूँगा कि यह बात उन पर पूरी तरह चरितार्थ होती है।

पण्डितजी ने प्ररम्भ से ही अपनी आध्यात्मिक और दार्शनिक चेतना की मूल-भूत प्रकृति को रामचरितमानस के सरोवर में इस तरह उतार दिया कि वह उत्तरोत्तर वर्धमान होती हुई असंख्य श्रोताओं की समवेत श्रद्धा का अमृत-स्रोत बन गई। आप तुलसी काव्य की पवित्र नौका को जिस प्रकार अनायास-अप्रयास खेते जा रहे हैं, रामचरितमानस का यह दिव्य सरोवर उतना ही गहरा और अपरम्पार दिखाई दे रहा है। पण्डित जी ज्ञानामृत की प्रकृति में रहकर अब उसकी एक परात्पर कृति बन चुके हैं। हम आपकी प्रकृति, आकृति और कृति को प्रणाम करते हैं।

पण्डित जी के कृतित्व का पक्ष बड़ा उज्जवल और विषद है। आपने अपने श्रोताओं का भी निर्माण किया है। पन्द्रह-बीस वर्ष की युवावस्था में जब आपका कथामंच अविर्भाव हुआ, उस काल में कथा-कारों का लीला-शैली में कही जाने वाली कथा के लिए श्रोता-समुदाय मिल जाया करते थे। क्योंकि उस समय मनोरंजनी कथा का तुरत घूँट पीने वाले श्रोताओं की संख्या बहुत अधिक थी। पर पण्डितजी प्रारम्भ से ही गम्भीर एवं चिन्तनशील शैली के कथावाचक रहे हैं। और न तब (और न आज ही) उनके पास कोई स्वर-लहरी थी, न वाद्ययन्त्र थे, न संगीत था और न ही कथा में सुनने के लिए अटपटे-चटपटे, कहानी-किस्से ही थे। अतः प्रारम्भ में श्रोताओं की संख्या की समस्या तो आपके सामने थी ही। पर आपकी कथा में जो भी एक बार आया, वह आपकी भाव-प्रवण शैली तथा आपके अनूठे विचारों से इतना अभिभूत हुआ कि ‘अरथ अमित अरु आखर थोरे’ को चरितार्थ करने वाला आपका अद्भुत एवं प्रभायुक्त ज्ञानमण्डप ऐसे असंख्य यात्रियों का तीर्थ-स्थल बनता चला गया।

भारतवर्ष एक ऐसा देश है, जहाँ आदिकाल से ईश्वरीय अवतारों और शास्त्रीय ग्रन्थों की भरमार रही है। कोई पण्डितप्रवर एक ही अवतार, एक ही सन्त के एक ही ग्रन्थ में समाहित होकर पचास-पचपन वर्षों से अनवरत उस रसनाभूति की धारा से असंख्य श्रोताओं को आप्लावित करता रहे, यह एक दुर्लभ संयोग है, पर पण्डित रामकिंकर जी उपाध्याय इसके मूर्तिमान रूप हैं।

रामचरितमानस आपके जीवन के मनोवैज्ञानिक विचारधारा का मानो एक विश्वकोष ही बन गया है। इस महान ग्रन्थ के मन्थन से आप तुलसी की उन विलक्षणताओं, विशेषताओं और ऊँचाइयों का दिग्दर्शन कराते हैं, जिन तक किसी की दृष्टि का पैठ पाना सम्भव ही नहीं है। पर पण्डितजी न तो अपने आपको ज्ञानी मानते हैं, न दार्शनिक मानते हैं और न ही मौलिक चिन्तक मानते हैं, वे तो अपने आपको केवल ‘राम किंकर’ मानते हैं, इसलिए वे इसे अपनी किसी विशेषता के रूप में न देखकर प्रभु की कृपा का ही प्रसाद मानते हैं। यह सत्य ही है क्योंकि रामनाम आपकी प्रत्येक साँस का पर्याय बन चुका है। आपके आराध्य केवल भगवान राम हैं। राम का अनन्त रूप ही आपकी सृष्टि है और राम का शील ही आपकी दृष्टि है। आपकी कृतित्व की ब्रह्मरूपता के पीछे तुलसीदास की भाँति आपकी भी यही अनन्यता है।


एक भरोसे एक बल एक आस विस्वास।
एक राम घनस्याम हित चातक तुलसीदास।।


पण्डित जी का यह कथन कि ‘मानस’ के प्रत्येक शब्द में विपुल अर्थ-राशियाँ सन्निहित हैं। उनके लेखन और प्रवचन से स्वतः सिद्ध ही है, पर पराकाष्ठा तो यह है कि गोस्वामी जी ने जितने अधिक शब्दों का प्रयोग किया है, हिन्दी के किसी कवि ने आज तक नहीं किया है, इसी प्रकार ‘मानस’ के दोहे और चौपाइयों के जितने भावार्थ तथा मानवीय जीवन की नीति-अनीति, युगानुकूल यश-अपयश का जैसा विश्लेषण-निरूपण करने वाला विद्वान विगत चार सौ वर्षों में पैदा नहीं हुआ है। सन्त डोंगरे जी ने भी एक बार कहा था कि ‘पण्डित राम किंकर जी को तो बस सुनो और गुनो।’

मेरा तो यह अटूट विश्वास है कि पण्डित रामकिंकरजी  की वाणी इस युग में रामकथा का सर्वसिद्ध पंचांग है, जिसे बाँचकर अपने गृहस्थ जीवन की कुण्डली बनाने से हमारा जीवन मोह, भ्रम और दुःख की समस्याओं से मुक्त होगा और भगवान राम से आत्यन्तिक निकटता की अनुभूति से हमारा कल्याण होगा।

रामनिवास जाजू


साधना



स्वरूप ज्ञान के लिए मुख्य साधन विचार है। भक्ति का मुख्य साधन सत्संग है। कर्म का मुख्य साधन शास्त्र है। और प्रभु के स्वभाव को जानने के लिए मुख्य साधन विश्वास है। नाम-जप की साधना में भी यही क्रम है। ज्ञान के नाम-जप में निरूपण की प्रधानता है। उसकी दृष्टि में नाम रत्न है। उसका मुख्य उद्देश्य रत्न से मूल्य को प्रकट करना है। भक्त के जीवन में रस की प्रधानता है।


सकल कामनाहीन जे रामभगति रस लीन।
नाम सप्रेम पियूष हृद तिन्हहुँ किए मन मीन।।


अतः वह मन को मछली बनाकर उसमें डूबता है। धार्मिक व्यक्ति के जप में विधि की प्रधानता है, क्योंकि उसकी दृष्टि में राम नाम सर्व सामर्थ्य युक्त अक्षर मन्त्र है।


चहुँ जुग तिनि काल तिहुँ लोका।
भये नाम जपि जीव बिसोका।।


पर दीन के जीवन में नाम जपने का आग्रह ही नहीं है, उसके लिए तो रत्न, रस और मन्त्र की अपेक्षा विश्वास की प्रधानता है, वह सदैव अपने को एक अबोध बालक के रूप में देखता है और उसके अन्तःकरण में यह विश्वास है कि कभी भी, किसी भी स्थिति में वह जब अपनी माँ को पुकारेगा तो माँ सब कुछ छोड़ उसके निकट आकर बालक को गोद में उठा लेगी।

महाराजश्री की डायरी से


नास्ति तत्वं गुरोः परम्



स्वप्ने यस्तिलकीकृतो हनुमता व्यासासने कर्हिचित्
दिव्यां रामकथां प्रवक्तुमजिरे रामस्य गातुं सदा।
तद्वाणी मनुसृत्य तत्प्रभुकथां गायन लिखन राघवीं
चक्रे ग्रन्थमथाञ्जनेय चरितं तद्ब्रह्मणे स्यान्नमः।।1।।

यच्छब्दस्वर एक एव कलुषाऽच्छन्नं जगज्जीवनम्,
युक्तीकृत्य पवित्र पुण्यनिचयैः सम्पोष्य संस्पन्दित !
लोकेऽस्मिन् सततं सुधारसमयी सा सत्यधर्माश्रयी
श्रीमत्पण्डित रामकिंकरकथा कादम्बनी वर्षतु।।2।।

मानसकाराऽदिष्टो गाथां गायन् यो मानसीं रमते।
अपरं हनुमद्रुपं गुरुवर्यं रामकिंकर नौमि।।3।।


गुरुचरणानुरागी
गिरिजाशंकर शास्त्री


श्रद्धा भावना



बलिहारी गुरु आपकी जो गोविन्द दियो बताय


प्रातः स्मरणीय श्री रामकिंकर जी महाराज हमारे छोटे से परिवार के गुरु हैं। बचपन में मेरे पिता पूज्य श्री जमनालाल सिंहानिया महाराजश्री के प्रवचनों में मुझे जबरदस्ती उँगली पकड़कर ले जाते थे। जब मैं बड़ा हो गया तो वही हाथ उन्होंने गुरु के हाथ में दे दिया। महाराजश्री की कृपा को शब्दों में लिखना न सम्भव है न कोई इस समय उसका प्रयोजन ही है। मैं तो बस इतना ही कहूँगा कि जो हाथ गुरुजी ने पकड़ा है उसके द्वारा यथासम्भव कुछ कल्याणकारी कार्य होते रहें ताकि यह शरीर और जीवन धन्य हो सके।

प्रस्तुत पुस्तक का प्रकाशन मेरे समस्त परिवार के योगदान से सम्भव। यदि प्रभु कृपा करेंगे तो भविष्य में भी इसी प्रकार की सेवाएँ होती रहेंगी।


गुरु कृपाकांक्षी
पुरुषोत्तम सिंहानिया


भूमिका


भूमिका प्रारम्भ करते समय एक सम्मेलन की स्मृतियाँ मुखर हो उठी हैं। देश-विदेश के अनेक विद्वान और विचारक मञ्च पर उपस्थित थे। उन्होंने जो विचार प्रस्तुत किये, उनमें भिन्नता हो यह स्वाभाविक ही है। श्रोता विविध रसों के रूप में उनका आस्वादन करते हुए आनन्दित हो रहे थे। कुछ भाषणों में कटु-तिक्त का आधिक्य था तो कुछ में मधुरता के बोल थे। फिर भी ऐसा लगा कि कटु-तिक्त अधिक मुखर हो उठा है। उसमें आलोचना थी, प्रश्नचिह्न थे और नैराश्य की अभिव्यक्ति थी। उसमें बढ़ते हुए भ्रष्टाचार पर चिन्ता थी। वे बातें उपयोगी और युक्ति संगत थीं। फिर भी मुझे लगा कि जीवन को देखने की यह दृष्टि अधूरी है। घोर निराशा उसी का परिणाम है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि हम विरोधाभासों से ग्रस्त हैं। एक ओर सन्त हैं, विचारक और प्रचारक हैं और उनके विचार सुनने के लिए भीड़ उमड़ पड़ती है। धार्मिक ग्रन्थों का प्रकाशन और उसके पाठकों की संख्या भी कम नहीं है। पर इसका दूसरा पक्ष भी है।  जीवन और व्यवहार में अनैतिकता की वृद्धि हो रही है। समाज संघर्ष से संत्रस्त है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उठाना स्वाभाविक ही है क्या इन ग्रन्थों और महापुरुषों की कोई सार्थकता है ? इस उमड़ती हुई भीड़ का कोई मूल्य है ? झुँझलाहट भरे स्वर में बोल उठते हैं यह सब कुछ व्यर्थ है, बकवास है। पर मुझे यह यथार्थ प्रतीत नहीं होता। कभी-कभी मेरे मन में यह प्रश्न भी उठता है कि भ्रष्टाचार के प्रति हमारा यह आक्रोश यथार्थ भी है या नहीं ? राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक मञ्चों से आक्रोश प्रगट करने वाले महानुभव क्या सचमुच ही उतने व्यथित या चिन्तित हैं जितने वे मञ्च पर भाषणों के माध्यम से प्रतीत होते हैं ? वस्तुतः यह आक्रोश बौद्धिक ही होता है, जो बहुधा सभा मात्र पर ही अधिक मुखर होता है। पर जिसमें यह आक्रोश यथार्थ है वे क्या करें ? मैं चाहता हूँ कि ऐसे महानुभाव पौराणिक काल की धारणा के सत्य को भी सामने रखें।

प्रति क्षण परिवर्तित होने वाले काल में एकरसता की आशा करना व्यर्थ है। कोई भी मनःस्थिति या परिस्थिति, भले ही वह हमें कितनी भी प्रिय क्यों न हो, स्थिर नहीं रहती। यद्यपि उसे स्थिर रखने की आकांक्षा और प्रयत्न सर्वथा मानवोचित हैं। वस्तुतः सत्य और मानवीय प्रयत्नों के बीच एक विचित्र विरोधाभास है। अनादि काल से अगणित पत्नों के बाद भी मानवीय समस्याओं का कोई शाश्वत समाधान, जो सर्वथा मनःस्थितियों और परिस्थितियों को अपरिवर्तित रख सके, प्राप्त नहीं हुआ। इससे व्यक्ति में कभी-कभी घोर नैराश्य का जन्म होता है, उसे लगने लगता है कि क्या मूल्य है इस मानवीय प्रयत्नों का ? इसलिए प्राचीन परम्परा में ऐसे मनीषियों की कमी नहीं रही जो इसे असमाधेय मानकर इससे पूरी तरह उदासीन हो जाते हैं। वैराग्य की यह परम्परा बड़ी पुरानी है। ऋषभदेव और जड़भरत जैसे महापुरुष बहिरंग विश्व से उदासीन होकर अपने आत्मस्वरूप में स्थित हो जाते हैं। कुछ लोगों को उसमें पलायनवादी वृत्ति का साक्षात्कार होता है, वे अनवरत प्रयत्न और पुरुषार्थ पर विश्वास रखते हैं। श्रीमद्भागवद्गीता और श्रीरामचरितमानस में इन दोनों के सामञ्जस्य का प्रयास दृष्टिगोचर होता है। इस दिशा में इनमें प्रगट किये गये विचार सामाजिक दृष्टि से बड़े स्वस्थ और सन्तुलित हैं। इस प्रसंग में जीवन और मृत्यु से सम्बद्ध एक चिकित्सक की दृष्टि को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। रोग के विरुद्ध औषधियों के माध्यम से वह व्यक्ति के जीवन के लिए अन्तिम क्षण तक प्रयत्नशील रहता है। कई बार ऐसा प्रतीत होता है कि उसने व्यक्ति को मृत्यु के मुख से उबार लिया। रोगी और उसके परिवार के सदस्य वैद्य के प्रति कृतज्ञ होते हैं। पर एक क्षण ऐसा आता है जब चिकित्सक के सारे प्रयत्न व्यर्थ हो जाते हैं और तब उसे जीवन के उस छोर का साक्षात्कार होता है जिसे हम मृत्यु के रूप में जानते हैं, जिसे टाला नहीं जा सकता। चिकित्सक को इस कटु का साक्षात्कार करने के लिए भी प्रस्तुत रहना चाहिए। किन्तु मृत्यु का यह सत्य उसे अपने प्रयत्न से विमुख न कर दे तभी वह सन्तुलित व्यक्ति कहा जा सकता है। गीता और रामायण में यही दृष्टिकोण विद्यमान है।

मानस में लक्ष्मण जी की पुरुषार्थ प्रेरकवाणी विद्यमान है, वे ‘दैव या नियति’ के समक्ष सिर झुकाने के लिए प्रस्तुत नहीं हैं। वे दैव और नियति की बातों को आलस्य तथा कायरता का प्रतीक मानते हैं-


मन्त्र न यह लछिमन मन भावा।
राम बचन सुनि अति दु:ख पावा।।
नाथ दैव कर कवन भरोसा।
सोषिअ सिन्धु करिअ मन रोषा।।
कादर मन कहुँ एक अधारा।
दैव दैव आलसी पुकारा।।


5/50/2-4


भगवान् राम लक्ष्मण की इस ओजस्वी वाणी से आनन्दित होते हैं। फिर भी वे दैव को सर्वथा अस्वीकार करने के लिए प्रस्तुत नहीं होते। इस विषय में वे अपना दृष्टिकोण पहले ही प्रकट कर चुके हैं। वे प्रयत्न के साथ दैव को जोड़े बिना नहीं रहते-


सखी कही तुम नीकि उपाई।
करिअ दैव जौं होइ सहाई।।

5/50/1


वे लक्ष्मण के अग्रज के साथ-साथ गुरु वशिष्ठ के शिष्य भी तो थे। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ एक ऐसे महापुरुष के रूप में प्रतिष्ठित थे जिनके विषय में यह प्रसिद्ध था कि उनके लिए कुछ भी अशक्य नहीं था। बहुधा लोगों को ऐसा प्रतीत हुआ कि वे विधि-व्यवस्था को भी परिवर्तित करने में समर्थ हैं। उनकी स्तुति इन शब्दों में की गयी –


सो गोसाइँ बिधि गति जेहिं छेंकी।
सकइ को टारि टेक जो टेकी।।
                                                    2/254/8




उनके विषय में लोगों की चाहे कैसी भी धारणा क्यों न रही हो, पर ब्रह्मार्षि विनम्रतापूर्वक उसे अस्वीकार करते हुए दिखाई देते हैं। वे विधि की अनिवार्यता का प्रतिपादन करते हैं। अन्ततोगत्वा अयोध्या में विपत्ति के जो बादल उमड़ आये थे उसे रोक पाने में वे स्वयं को समर्थ नहीं पाते। जब महाराजश्री दशरथ ने उनसे रामभद्र के राज्याभिषेक के सन्दर्भ में प्रश्न किया तब वे उत्साहित होकर बोल पड़े-


बेगि बिलम्ब न करिअ नृप सजिअ सबुइ समाजु।
सदिन सुमंगल तबहिं जब रामु होहिं जुबराजु।।2/4


किन्तु यह कैसी विधि विडम्बना थी कि उनका यह उतावला प्रयास ही अनर्थों का हेतु बन बैठा। यदि राज्याभिषेक की घड़ी में इतनी शीघ्रता न की जाती तो उस प्रतिक्रिया का प्रश्न ही न उठता जो मन्थरा और कैकई के मन में उत्पन्न हुई, जिसका अन्तिम परिणाम राम के वनगमन और महाराजश्री दशरथ की मृत्यु के रूप में हुआ। भरत को यह आश्चर्य था कि गुरु वशिष्ठ जैसे महापुरुष के रहते हुए भी इतने बड़े अनर्थ की सृष्टि कैसे हुई ? ब्रह्मर्षि नि:संकोच भान से उनके समक्ष विधि की अनिवार्यता का प्रतिपादन करते हैं-


सनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ।
हानि लाभु जीवनु मरनु जस अपजसु बिधि हाथ।।2/179


भरत इस अनिवार्यता को स्वीकार करते हुए भी रामराज्य की स्थापना के प्रयास से विरत नहीं होते। वे अयोध्या के सारे समाज को लेकर चित्रकूट की यात्रा करते हैं, राम को लौटाने में उन्हें तत्काल सफलता प्राप्त नहीं होती, पर चौदह वर्ष के अन्तराल के पश्चात् उनका संकल्प साकार होता है। इस तरह प्रयत्न और काल की अनिवार्यता के सिद्धान्त का सामांजस्य मानस में दृष्टिगोचर होता है।

महाभारत में भी काल की अनिवार्यता का प्रतिपादन बार-बार किया गया है। काल कि इस अनिवार्यता के प्रतिपादन से मनुष्य के अन्त:करण में निरुपायता का बोध होता है, लगता है कि व्यक्ति के सारे प्रयत्न व्यर्थ हैं। कभी-कभी यह प्रश्न उठना भी स्वाभाविक ही है। क्या यह काल ईश्वर का प्रतिद्वन्द्वी है, जो ईश्वर की सृष्टि को अपनी इच्छा के अनुरूप चलाने की चेष्टा करता है ? क्या उसकी यथ्चेछाचारिता को रोकने की क्षमता ईश्वर में नहीं है ? अन्य कुछ धर्मों में ईश्वर के एक प्रतिद्वंद्वी की कल्पना की गयी जिसे बहुधा शैतान का नाम दिया गया है, जो व्यक्ति को अपनी दिशा में प्रेरित करता है। दूसरी ओर ईश्वर के दूत उसे सन्मार्ग की दिशा में प्रेरित करते हैं। यह प्रतिद्वन्द्विता शाश्वत है। एक स्तर में हिन्दू धर्म ने भी इसे स्वीकार किया है। गीता में अर्जुन के द्वारा यह पूछे जाने पर कि ‘न चाहते हुए भी व्यक्ति पाप की ओर क्यों प्रवृत्त होता है, ऐसा लगता है कि जैसे बलपूर्वक पाप की दिशा में ले जाने की चेष्टा करता है’-


अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष:।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:।। गीता/3/36


भगवान् श्रीकृष्ण इसका उत्तर देते हुए कहते हैं कि अर्जुन, ये काम और क्रोध हैं, जो व्यक्ति को पाप की दिशा में ले जाते हैं। ये व्यक्ति के महाशत्रु हैं और इनका वध किया जाना चाहिए-


काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्।। गीता/3/37

किन्तु एक स्तर ऐसा आता है जहाँ वे यह कहते हैं कि ईश्वर ही सबकी अन्तरात्मा में बैठा हुआ उन्हें कठपुतली की तरह नचा रहा है-


ईश्वर: सर्वभूतानाम् हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। गीता/18/61


इन दोनों प्रकार की विचारधाराओं में परस्पर विसंगति-सी प्रतीत होती है, पर भिन्न स्तरों पर विचार करने पर इस विरोधाभास का सामंजस्य मिल जाता है। इसे रंगमंच पर प्रयुक्त किये जाने वाले नाटक के माध्यम से हृदयंगम किया जा सकता है। नाट्य-मंच पर नायक और खलनायक परस्पर विरोधी प्रतीत होते हैं और दर्शक के लिए इस विरोध को वास्तविक माने बिना नाट्य-रस की अनुभूति नहीं हो सकती, पर नाट्य-मंच के पीछे का सत्य इससे भिन्न है। वहाँ देखने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि नायक और खलनायक सूत्रधार की इच्छा के द्वारा ही संचालित होते हैं। जीवन और व्यवहार का सत्य तो नाट्यशाला का ही सत्य है, किन्तु जो व्यवहार जगत् से ऊपर उठकर विचार और मुक्ति में जीवन की सार्थकता मानते हैं, वे परदे की आड़ में छिपे हुए सूत्रधार की ओर दृष्टि डालते हैं। इससे उनका अन्त:करण राग-द्वेष से मुक्त हो जाता है। किन्तु यह विचार जगत् की व्यक्तिगत अनुभूति के रूप में ही देखा जाना चाहिए। व्यवहार में इसकी स्वीकृति जटिलताओं की सृष्टि करती है।


 

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