आचार्य श्रीराम किंकर जी >> मानस मंथन-1 मानस मंथन-1श्रीरामकिंकर जी महाराज
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स्वामी रामकिंकर जी महाराज के द्वारा धर्म पर आधारित पुस्तक.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
एक अन्तरंग दृष्टि
हम तुलसी के कार्य का पूर्ण परिचय और उस कार्य पर पड़े युग-प्रभाव की
गहराई तक न झाँके तो पण्डितजी के कार्य का पूर्ण परिचय हम पा नहीं सकते।
तुलसी युग में हिन्दू समाज की, दूसरे शब्दों में भारतीय समाज की स्थिति
ऐसी थी कि उसका वर्तमान तो विश्रृंखलित था ही, भविष्य इतना डावाँडोल था कि
उसका कोई चित्र ही न बनता था। इस स्थिति में कोई समाज बहुत दिनों तक
आत्महीन होने से बच नहीं सकता और आत्महीन होकर किसी समाज का स्वरूप कैसा
हो सकता है, इसे कोई समझना चाहे, तो दयानन्द, विवेकानन्द और गाँधी के
क्रान्तिकारी कार्यों से पहले के भारतीय अछूत समाज की मानसिक-सामाजिक
स्थिति का उसे अन्तरंग अध्ययन करना चाहिए।
इस स्थिति में पहुँचने से पूरे समाज को बचाने के लिए तुलसी ने रामचरित मानस के रूप में जो संजीवन रसायन तैयार किया, उसमें सामाजिक सम्मान और विकास के अवसर से वंचित नागरिक का परिवार-भावना, संस्कार को सुरक्षित रख स्वाभिमान से सिंचित रखने के लिए धर्म-भावना और उज्जवल भविष्य की सामूहिक प्रगति के संकल्प को दृढ़ रखने के लिए रामराज्य के रूप में राष्ट्र-भावना के शक्ति-स्रोतों का समावेश किया। लम्बे समय और बदलती परिस्थितियों के प्रभाव से रामचरित मानस समाज के मानस में राष्ट्रभावना से दूर धर्म भावना के अन्धे विश्वास में उलझा, परिवार भावना में जड़रूप से आबद्ध हो गया। पिता का पुत्रों पर निरंकुश अधिकार, पुत्रों द्वारा पिता के आदेशों का अविचारित पालन, भाई का भाई के प्रति आस्थाहीन आदर आदि-आदि ही हमारी पारिवारिकता के जीवनतत्त्व रह गए और धर्म भावना पहुँच गई इस स्थिति में कि कथा का एक अक्षर भी भीड़ के कोलाहल में सुनाई न दे, तब भी हम घन्टों शान्ति से चुप बैठे रह सकें, यह समझ कर कि पुण्य कार्य में संलग्न हैं। इससे समाज जड़ता कि किस सीमा में जा धँसा, इसका पता इससे चलता है कि जिन्हें आगे चलकर हमने राष्ट्रपिता और राष्ट्रपुरुष मान कर पूजा, वे सब समुद्रयात्रा जैसे कामों के लिए जातिच्युत किए गए थे।
पंडित रामकिंकरजी ने अपने को ‘बढ़ा धोता, बड़ा पोथा, पण्डता पगड़ा बड़ा’ के कथावाचकत्व से बचाकर अपने वक्तृत्व को, प्रवचन को ऐसे वृक्ष का स्वरूप दिया, जिसका हर टहनी में एक न एक जीवनतत्त्व प्रतिष्ठित है—पारिवारिकता का, नागरिकता का, धार्मिकता का, राष्ट्रीयता का और मानवीयता का जीवन तत्त्व ! यह कोई साधारण काम नहीं था। इसे हम यों समझें कि लोकमान्य तिलक ने (माण्डला जेल में लिखे अपने ‘गीता-रहस्य’ के द्वारा) गीता को नकली वैराग्य के बीहड़ जंगल से निकाल कर कर्म संघर्ष के मोर्चे पर ला बैठाया था, आचार्य श्री पंडित रामकिंकरजी ने अपने प्रवचनों की विशाल परिकल्पना से उसी तरह रामचरितमानस का वैचारिक कायाकल्प किया है। यह निश्चय ही धर्म को कर्म-काण्ड के मायाजाल से निकालकर अध्यात्म और सामाजिक नैतिकता के आसन पर बैठाने जैसा राष्ट्रीय कार्य है।
कथा वर्णनात्मक होती है, प्रवचन भावात्मक, यह लेख और निबन्ध जैसा अन्तर है। इसे यों समझें कि इतिहास मे भी पुराण है और पुराण में भी इतिहास। इतिहास वर्णनात्मक है, पर पुराण भावात्मक। पण्डितजी उस भावात्मकता के प्रवक्ता है, जो ज्ञानवर्धक होकर भी ज्ञान मात्र नहीं हैं, वह संस्कार के सम्वर्धक हैं और संस्कार, जिससे व्यक्ति और राष्ट्र दोनों संजीवनी शक्ति प्राप्त करते हैं—
इस स्थिति में पहुँचने से पूरे समाज को बचाने के लिए तुलसी ने रामचरित मानस के रूप में जो संजीवन रसायन तैयार किया, उसमें सामाजिक सम्मान और विकास के अवसर से वंचित नागरिक का परिवार-भावना, संस्कार को सुरक्षित रख स्वाभिमान से सिंचित रखने के लिए धर्म-भावना और उज्जवल भविष्य की सामूहिक प्रगति के संकल्प को दृढ़ रखने के लिए रामराज्य के रूप में राष्ट्र-भावना के शक्ति-स्रोतों का समावेश किया। लम्बे समय और बदलती परिस्थितियों के प्रभाव से रामचरित मानस समाज के मानस में राष्ट्रभावना से दूर धर्म भावना के अन्धे विश्वास में उलझा, परिवार भावना में जड़रूप से आबद्ध हो गया। पिता का पुत्रों पर निरंकुश अधिकार, पुत्रों द्वारा पिता के आदेशों का अविचारित पालन, भाई का भाई के प्रति आस्थाहीन आदर आदि-आदि ही हमारी पारिवारिकता के जीवनतत्त्व रह गए और धर्म भावना पहुँच गई इस स्थिति में कि कथा का एक अक्षर भी भीड़ के कोलाहल में सुनाई न दे, तब भी हम घन्टों शान्ति से चुप बैठे रह सकें, यह समझ कर कि पुण्य कार्य में संलग्न हैं। इससे समाज जड़ता कि किस सीमा में जा धँसा, इसका पता इससे चलता है कि जिन्हें आगे चलकर हमने राष्ट्रपिता और राष्ट्रपुरुष मान कर पूजा, वे सब समुद्रयात्रा जैसे कामों के लिए जातिच्युत किए गए थे।
पंडित रामकिंकरजी ने अपने को ‘बढ़ा धोता, बड़ा पोथा, पण्डता पगड़ा बड़ा’ के कथावाचकत्व से बचाकर अपने वक्तृत्व को, प्रवचन को ऐसे वृक्ष का स्वरूप दिया, जिसका हर टहनी में एक न एक जीवनतत्त्व प्रतिष्ठित है—पारिवारिकता का, नागरिकता का, धार्मिकता का, राष्ट्रीयता का और मानवीयता का जीवन तत्त्व ! यह कोई साधारण काम नहीं था। इसे हम यों समझें कि लोकमान्य तिलक ने (माण्डला जेल में लिखे अपने ‘गीता-रहस्य’ के द्वारा) गीता को नकली वैराग्य के बीहड़ जंगल से निकाल कर कर्म संघर्ष के मोर्चे पर ला बैठाया था, आचार्य श्री पंडित रामकिंकरजी ने अपने प्रवचनों की विशाल परिकल्पना से उसी तरह रामचरितमानस का वैचारिक कायाकल्प किया है। यह निश्चय ही धर्म को कर्म-काण्ड के मायाजाल से निकालकर अध्यात्म और सामाजिक नैतिकता के आसन पर बैठाने जैसा राष्ट्रीय कार्य है।
कथा वर्णनात्मक होती है, प्रवचन भावात्मक, यह लेख और निबन्ध जैसा अन्तर है। इसे यों समझें कि इतिहास मे भी पुराण है और पुराण में भी इतिहास। इतिहास वर्णनात्मक है, पर पुराण भावात्मक। पण्डितजी उस भावात्मकता के प्रवक्ता है, जो ज्ञानवर्धक होकर भी ज्ञान मात्र नहीं हैं, वह संस्कार के सम्वर्धक हैं और संस्कार, जिससे व्यक्ति और राष्ट्र दोनों संजीवनी शक्ति प्राप्त करते हैं—
‘‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
दुश्मन रहा है बरसों दौरे जमाँ हमारा।’’
दुश्मन रहा है बरसों दौरे जमाँ हमारा।’’
महान् उर्दू शायर इकबाल ने जिसे कुछ बात कहकर अज्ञेय मान लिया था, वह
संस्कार की यही संजीवनी शक्ति है। हिमालय में एक नन्हीं घास होती है।
सर्दियों में धुनी हुई रुई-सा मुलायम बर्फ बरसता है, घास बर्फ से ढक जाती
है, बर्फ जम जाता है, ठण्डा इतना कि उस पर चलो तो उँगलियाँ गलकर गिर जाएँ
और सख्त इतना कि पत्थर ! अप्रैल-मई की गर्मी में बर्फ पिघल कर नदियों का
पानी बन जाती है पर आश्चर्य कि वह घास लहराती मिलती है। यह घास हमारी
संस्कृति का सर्वोत्तम प्रतीक है जो अपने अनेकान्त दृष्टि से बाहरी
तत्त्वों को आत्मसात् कर शीतलता और कठोरता में भी पनपती रहती है। पण्डितजी
इसी संस्कृति के ‘व्याख्या कवि’ हैं।
मैं आर्य-समाज सनातन-धर्म के जागरण युग में, फिर राजनीति के जागरण युग में, फिर राष्ट्रीयता के संघर्ष युग में जिया हूँ, द्रष्टा नहीं, सक्रिय कार्यकर्ता रहा हूँ। बहुत सोचकर मैं कह सकता हूँ कि आर्य-समाज के पण्डित रामचन्द्र देहलवी, सनातन धर्म के व्याख्यान वाचस्पति पण्डित दीनदयाल शर्मा, साहित्य के पण्डित माखनलाल चतुर्वेदी और राजनीति के आसफ अली का नाम ही अभिव्यक्ति के सौन्दर्य, विषय की उदात्तता और शैली के माधुर्य की दृष्टि से पण्डितजी के साथ लिया जा सकता है। यह तुलनात्मक परीक्षा नहीं है, क्योंकि सबके विषय भिन्न हैं। समीक्षा की भाषा में कहना हो तो आचार्य मम्मट को स्मरण करना होगा—‘राम रावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव’। राम और रावण का युद्ध कैसा था ? प्रश्न उठा, तो उत्तर आया—जैसे राम और रावण थे !
स्व.कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’
मैं आर्य-समाज सनातन-धर्म के जागरण युग में, फिर राजनीति के जागरण युग में, फिर राष्ट्रीयता के संघर्ष युग में जिया हूँ, द्रष्टा नहीं, सक्रिय कार्यकर्ता रहा हूँ। बहुत सोचकर मैं कह सकता हूँ कि आर्य-समाज के पण्डित रामचन्द्र देहलवी, सनातन धर्म के व्याख्यान वाचस्पति पण्डित दीनदयाल शर्मा, साहित्य के पण्डित माखनलाल चतुर्वेदी और राजनीति के आसफ अली का नाम ही अभिव्यक्ति के सौन्दर्य, विषय की उदात्तता और शैली के माधुर्य की दृष्टि से पण्डितजी के साथ लिया जा सकता है। यह तुलनात्मक परीक्षा नहीं है, क्योंकि सबके विषय भिन्न हैं। समीक्षा की भाषा में कहना हो तो आचार्य मम्मट को स्मरण करना होगा—‘राम रावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव’। राम और रावण का युद्ध कैसा था ? प्रश्न उठा, तो उत्तर आया—जैसे राम और रावण थे !
स्व.कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’
महाराजश्री : एक परिचय
प्रभु की कृपा और प्रभु की वाणी का यदि कोई सार्थक पर्यायवाची शब्द ढूँढ़ा
जाय, तो वह हैं- प्रज्ञापुरुष, भक्तितत्त्व द्रष्टा, सन्त प्रवर,
‘परमपूज्य महाराजश्री रामकिंकर उपाध्याय’। अपनी
अमृतमयी, धीर,
गम्भीर-वाणी-माधुर्य द्वारा भक्ति-रसाभिलाषी-चातकों को, जनसाधारण एवं
बुद्धिजीवियों को, नानापुराण- निगमागम, षट्शास्त्र, वेदों का दिव्य रसपान
कराकर रससिक्त करते हुए, प्रतिपल निज व्यक्तित्व व चरित्र में रामचरित
मानस के ब्रह्मराम की कृपामयी विभूति एवं दिव्यलीला का भावात्मक
साक्षात्कार कराने वाले पूज्य महाराजश्री, आधुनिक युग के परम तेजस्वी
मनीषी, मनस के अद्भुद शिल्पकार, रामकथा के अद्वितीय अधिकारी व्याख्याकार
हैं।
भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-
भक्त-हृदय, रामानुरागी पूज्य महाराजश्री ने अपने अनवरत अध्यवसाय से श्रीरामचरितमानस की मर्मस्पर्शी भावभागीरथी बहाकर अखिल विश्व को अनुप्राणित कर दिया है। आपने शास्त्रदर्शन, मानस के अध्ययन के लिए जो नवीन दृष्टि और दिशा प्रदान की है वह इस युग की तरफ की एक दुर्लभ अद्वितीय उपलब्धि है-
धेनवः सन्तु पन्थानः दोग्धा हुलसिनन्दनः
दिव्यराम-कथा दुग्धं प्रस्तोता रामकिंकरः।।
दिव्यराम-कथा दुग्धं प्रस्तोता रामकिंकरः।।
जैसे पूज्य महाराजश्री का अनूठा भाव दर्शन है, वैसे ही उनका
जीवन-दर्शन अपने आपमें एक सम्पूर्ण काव्य है। आपके नामकरण में ही
श्रीहनुमानजी की प्रतिच्छाया दर्शित होती है। वैसे ही आपके जन्म की गाथा
में ईश्वर कारण प्रकट होता है। आपका जन्म 1 नवम्बर सन् 1924 को जबलपुर
(मध्यप्रदेश) में हुआ। आपके पूर्वज मिर्जापुर के बरैनी नामक गाँव के
निवासी थे। आपकी माता परमभक्तिमयी श्रीधनेसरा देवी एवं पिता पूज्य श्री
शिवनायक उपाध्यायजी रामायण के सुविज्ञ व्याख्याकार एवं हनुमानजी महाराज के
परम भक्त थे। ऐसी मान्यता है कि श्री हनुमानजी के प्रति उनके सम्पूर्ण एवं
अविचल भक्तिभाव के कारण उनकी बढ़ती अवस्था में श्री हनुमन्तयंती के ठीक
सातवें दिन उन्हें एक विलक्षण प्रतिभायुक्त पुत्ररत्न की प्राप्ति
दैवीकृपा से हुई। इसलिए उनका नाम ‘रामकिंकर’ अथवा राम
सेवक
रखा गया।
जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।
पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।
आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।
ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।
ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।
प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’
इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।
सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।
अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।
निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।
अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।
रामायणम ट्रस्ट पूज्य महाराजश्री रामकिंकरजी द्वारा संस्थापित एक ऐसी संस्था है जो तुलसी साहित्य और उसके महत् उद्देश्यों को समर्पित है। मेरा मानना है कि परम पूज्य महाराजश्री की लेखनी से ही तुलसीदास जी को पढ़ा जा सकता है और उन्हीं की वाणी से उन्हें सुना भी जा सकता है। महाराजश्री के साहित्य और चिन्तन को समझे बिना तुलसीदास के हृदय को समझ पाना असम्भव है।
रामायणम् आश्रम अयोध्या जहाँ महाराजश्री ने 9 अगस्त सन् 2002 को समाधि ली वहाँ पर अनेकों मत-मतान्तरों वाले लोग साहित्य प्राप्त करने आते हैं, तो महाराजश्री के प्रति वे ऐसी भावनाएं उड़ेलती हैं मानों कि मन होता है कि महाराजश्री को इन्हीं की दृष्टि से देखना चाहिए। वे अपना सबकुछ न्यौछावर करना चाहते हैं उनके चिन्तन पर। महाराजश्री के चिन्तन ने रामचरित मानस के पूरे घटनाक्रम को और प्रत्येक पात्र की मानसिकता को जिस तरह से प्रस्तुत किया है उसको पढ़कर आपको ऐसा लगेगा कि आप उस युग के एक नागरिक हैं और घटनाएँ आपके जीवन का सत्य हैं। हम उन सभी श्रेष्ठ वक्ताओं के प्रति भी अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं तो महाराजश्री के चिन्तन को पढ़कर प्रवचन करते हैं और मंच से उनका नाम बोलकर उनकी भावनात्मक आरती उतारकर अपने बड़प्पन का परिचय देते हैं।
रामायणम, ट्रस्ट के सचिव श्री मैथिलीशरण शर्मा ‘भाईजी’ विगत 29 वर्षों से महाराजश्री की साहित्यिक सेवा का प्रमुख कार्य देख रहे हैं। इतने वर्षों से मैं यही देखती हूँ कि वे प्रतिदिन यही सोचते रहते हैं कि किस तरह महाराजश्री के विचार अधिक लोगों तक पहुँचें। साथ ही उनके सहयोगी डा. चन्द्रशेखर तिवारी इस महत्कार्य को पूर्ण करने में अपना योगदान देते हैं, उनको भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूँ। रामायणम् भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूं। रामायणम् ट्रस्ट से सभी ट्रस्टीगण इस भावना से ओत-प्रोत हैं कि ट्रस्ट की सबसे प्रमुख सेवा यही होनी चाहिए कि वह एक स्वस्थ चिन्तन के प्रचार प्रसार-प्रसार में जनता को दिशा एवं दृष्टि दे और ऐसा सन्तुलित चिन्तन पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज में प्रकाशित होता और प्रकाशित करता दिखता है। पाठकों के प्रति मेरी हार्दिक मंगलकामनाएं !
जन्म से होनहार व प्रखर बुद्धि के आप स्वामी रहे हैं। आपकी शिक्षा-दीक्षा जबलपुर व काशी में हुई। स्वभाव से ही अत्यन्त संकोची एवं शान्त प्रकृति के बालक रामकिंकर अपने उम्र के बच्चों की अपेक्षा अधिक गम्भीर थे। एकान्तप्रिय, चिन्तनरत, विलक्षण प्रतिभा वाले सरल बालक अपनी शाला में अध्यापकों के भी अत्यन्त प्रिय पात्र थे। बाल्यावस्था से ही आपकी मेधाशक्ति इतनी विकसित थी कि क्लिष्ट एवं गम्भीर लेखन, देश-विदेश का विशद साहित्य अल्पकालीन अध्ययन में ही आपके स्मृति पटल पर अमिट रूप से अंकित हो जाता था। प्रारम्भ से ही पृष्ठभूमि के रूप में माता-पिता के धार्मिक विचार एवं संस्कारों का प्रभाव आप पर पड़ा, परन्तु परम्परानुसार पिता के अनुगामी वक्ता बनने का न तो कोई संकल्प था, न कोई अभिरुचि।
पर कालान्तर में विद्यार्थी जीवन में पूज्य महाराजश्री के साथ एक ऐसी चामत्कारिक घटना हुई जिसके फलस्वरूप आपके जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया। 18 वर्ष की अल्पआयु में जब पूज्य महाराजश्री अध्ययनरत थे, तब अपने कुल देवता श्री हनुमानजी महाराज का आपको अलौकिक स्वप्न दर्शन हुआ जिसमें उन्होंने आपको वट वृक्ष के नीचे शुभासीन करके दिव्य तिलक का आशीर्वाद देकर कथा सुनाने का आदेश दिया। स्थूल रुप में इस समय आप विलासपुर में अपने पूज्य पिता के साथ छुट्टियां मना रहे थे। जहाँ पिताश्री की कथा चल रही थी। ईश्वर संकल्पानुसार परिस्थिति भी अचानक कुछ ऐसी बन गयी कि अनायास ही पूज्य महाराजश्री के श्रीमुख से भी पिताजी के स्थान पर कथा कहने का प्रस्ताव एकाएक निकल गया।
आपके द्वारा श्रोता समाज के सम्मुख यह प्रथम भाव-प्रस्तुति थी, किन्तु कथन व शैली वैचारिक श्रृंखला कुछ ऐसी मनोहर बनी कि श्रोतासमाज विमुग्ध होकर, तन-मन व सुध-बुध खोकर उनमें अनायास ही बँध गया। आप तो रामरस की भावमाधुरी की बानगी बनाकर, वाणी का जादू करके मौन थे, किन्तु श्रोतासमाज आनन्दमयी होने पर भी अतृप्त था। इस प्रकार प्रथम प्रवचन से ही मानस प्रेमियों के अन्तर में गहरे पैठकर आपने अभिन्नता स्थापित कर ली।
ऐसा भी कहा जाता है कि बीस वर्ष की अल्पायु में आपने एक और स्वप्न देखा, जिसकी प्रेरणा से गोस्वामी तुलसीदास के ग्रन्थों के प्राचार एवं उनकी खोजपूर्ण व्याख्या में ही अपना समस्त जीवन समर्पित कर देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। यह बात अकाट्य है कि प्रभु की प्रेरणा और संकल्प से जिस कार्य का शुभारम्भ होता है, वह मानवीय स्तर से कुछ अलग ही गति-प्रगति वाला होता है। शैली की नवीनता व चिन्तनप्रधान विचारधारा के फलस्वरूप आप शीघ्र ही विशिष्टतः आध्यात्मिक जगत् में अत्यधिक लोकप्रिय हो गये।
ज्ञान-विज्ञान के पथ में पूज्यपाद महाराजश्री की जितनी गहरी पैठ थी, उतना ही प्रबल पक्ष, भक्ति साधना का, उनके जीवन में दर्शित होता है। वैसे तो अपने संकोची स्वभाव के कारण उन्होंने अपने जीवन की दिव्य अनुभूतियों का रहस्योद्घाटन अपने श्रीमुख से बहुत आग्रह के बावजूद नहीं किया, पर कही-कहीं उनके जीवन के इस पक्ष की पुष्टि दूसरों के द्वारा जहाँ-तहाँ प्राप्त होती रही। उसी क्रम में उत्तराखण्ड की दिव्यभूमि ‘ऋषिकेश’ में श्रीहनुमाजी महाराज का प्रत्यक्ष साक्षात्कार, निष्काम भाव से किये गये एक छोटे से अनुष्ठान के फलस्वरूप हुआ !! वैसे ही श्री चित्रकूट धाम की दिव्यभूमि में अनेकानेक अलौकिक घटनाएँ परमपूज्य महाराजश्री के साथ घटित हुईं जिसका वर्णन महाराजश्री के निकटस्थ भक्तों के द्वारा सुनने को मिला !! परमपूज्य महाराजश्री अपने स्वभाव के अनुकूल ही इस विषय में सदैव मौन रहे।
प्रारम्भ में भगवान् श्रीकृष्ण की दिव्य लीलाभूमि वृन्दावन धाम के परमपूज्य महाराज, ब्रह्मलीन स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज के आदेश पर आप कहाँ कथा सुनाने गए। वहाँ एक सप्ताह तक रहने का संकल्प था। पर यहाँ के भक्त एवं साधु-सन्त समाज में आप इतने लोकप्रिय हुए कि उस तीर्थधाम ने आपको ग्यारह माह तक रोक लिया। उन्हीं दिनों मैं आपको वहाँ के महान सन्त अवधूत श्री उड़िया बाबाजी महाराज भक्त शिरोमणि श्रीहरिबाबाजी महाराज, स्वामी श्रीअखण्डानन्दजी महाराज को भी कथा सुनाने का सौभाग्य मिला। कहा जाता है कि अवधूत पूज्य श्रीउड़िया बाबा, इस होनबार बालक के श्री मुख से निःसृत, विस्मित कर देने वाली वाणी से इतने अधिक प्रभावित थे कि यह मानते थे कि यह किसी पुरुषार्थ या प्रतिभा का परिणाम न होकर के शुद्ध भगत्वकृपा का प्रसाद है। उनके शब्दों में- ‘‘क्या तुम समझते हो, कि यह बालक बोल रहा है ? इसके माध्यम से तो साक्षात् ईश्वरीय वाणी का अवतरण हुआ है।’’
इसी बीच अवधूत श्रीउड़िया बाबा से संन्यास दीक्षा ग्रहण करने का संकल्प आपके हृदय में उदित और परमपूज्य बाबा के समाज के समक्ष अपनी इच्छा प्रकट करने पर बाबा के द्वारा लोक एवं समाज के कल्याण हेतु शुद्ध संन्यास वृत्ति से जनमानस सेवा की आज्ञा मिली।
सन्त आदेशानुसार एवं ईश्वरीय संकल्पानुसार मानस प्रचार-प्रसार की सेवा दिन-प्रतिदिन चारों दिशाओं में व्यापक होती गई। उसी बीच काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से आपका सम्पर्क हुआ। काशी में प्रवचन चल रहा था। उस गोष्ठी में एक दिन भारतीय पुरातत्त्व और साहित्य के प्रकाण्ड विद्वान एवं चिन्तन श्री वासुदेव शरण अग्रवाल आपकी कथा सुनने के लिए आए और आपकी विलक्षण एवं नवीन चिन्तन शैली से इतने अधिक प्रभावित हुए कि उन्होंने काशी हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति श्री वेणीशंकर झा एवं रजिस्ट्रार श्री शिवनन्दनजी दर से Prodigious (विलक्षण प्रतिभायुक्त) प्रवक्ता के प्रवचन का आयोजन विश्वविद्यालय प्रांगण में रखने का आग्रह किया। आपकी विद्वत्ता इन विद्वानों के मनोमस्तिष्क को ऐसे उद्वेलित कर गई कि आपको अगले वर्ष से ‘विजिटिंग प्रोफेसर’ के नाते काशी हिन्दू विश्वविद्यलय व्याख्यान देने के लिए निमंत्रित किया गया। इसी प्रकार काशी में आपका अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकार जैसे श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी, श्री महादेवी वर्मा से साक्षात्कार हुआ एवं शीर्षस्थ सन्तप्रवर का सन्निध्य प्राप्त हुआ।
अतः पूज्य महाराजश्री परम्परागत कथावाचक नहीं हैं, क्योंकि कथा उनका साध्य नहीं, साधना है। उनका उद्देश्य है भारतीय जीवन पद्धति की समग्र खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त खोज अर्थात भारतीय मानस का साक्षात्कार। उन्होंने अपने विवेक प्रदीप्त मस्तिष्क से, विशाल परिकल्पना से श्री रामचरितमानस के अन्तर्रहस्यों का उद्घाटन किया है। आपने जो अभूतपूर्व एवं अनूठी दिव्य दृष्टि प्रदान की है, जो भक्ति-ज्ञान का विश्लेषण तथा समन्वय, शब्द ब्रह्म के माध्यम से विश्व के सम्मुख रखा है, उस प्रकाश स्तम्भ के दिग्दर्शन में आज सारे इष्ट मार्ग आलोकित हो रहे हैं ! आपके अनुपम शास्त्रीय पाण्डित्य द्वारा, न केवल आस्तिकों का ही ज्ञानवर्धन होता है अपितु नयी पीढ़ी के शंकालु युवकों में भी धर्म और कर्म का भाव संचित हो जाता है। ‘कीरति भनिति भूति भलि सोई’.....के अनुरूप ही आपने ज्ञान की सुरसरि अपने उदार व्यक्तित्व से प्रबुद्ध और साधारण सभी प्रकार के लोगों में प्रवाहित करके ‘बुध विश्राम’ के साथ-साथ सकल जन रंजनी बनाने में आप यज्ञरत हैं। मानस सागर मैं बिखरे हुए विभिन्न रत्नों को सँजोकर आपने अनेक आभूषण रूपी ग्रन्थों की सृष्टि की है। मानस-मन्थन, मानस-चिन्तन, मानस-दर्पण, मानस-मुक्तावली, मानस-चरितावली जैसी आपकी अनेकानेक अमृतमयी अमर कृतियां हैं जो दिग्दिगन्तर तक प्रचलित रहेंगी। आज भी वह लाखों लोगों को रामकथा का अनुपम पीयूष वितरण कर रही हैं और भविष्य में भी अनुप्राणित एवं प्रेरित करती रहेंगी। तदुपरान्त अन्तर्राष्ट्रीय रामायण सम्मेलन नामक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था के भी आप अध्यक्ष रहे।
निष्कर्षतः आप अपने प्रवचन, लेखन और शिष्य परम्परा द्वारा जिस रामकथा पीयषू का मुक्तहस्त से वितरण कर रहे हैं, वह जन-जन के तप्त एवं शुष्क मानस में नवशक्ति का सिंचन कर रही है, शान्ति प्रदान कर समाज में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक चेतना जाग्रत् कर रही है।
अतः परमपूज्य महाराजश्री का स्वर उसी वंशी में भगवान का स्वर ही गूंजता है। उसका कोई अपना स्वर नहीं होता। परमपूज्य महाराजश्री भी एक ऐसी वंशी हैं, जिसमें भगवान् के स्वर का स्पन्दन होता है। साथ-साथ उनकी वाणी के तरकश से निकले, वे तीक्ष्ण विवेक के बाण अज्ञान-मोह-जन्य पीड़ित जीवों की भ्रांतियों, दुर्वृत्तियों एवं दोषों का संहार करते हैं। यों आप श्रद्धा और भक्ति की निर्मल मन्दाकिनी प्रवाहित करते हुए महान् लोक-कल्याण कारी कार्य सम्पन्न कर रहे हैं।
रामायणम ट्रस्ट पूज्य महाराजश्री रामकिंकरजी द्वारा संस्थापित एक ऐसी संस्था है जो तुलसी साहित्य और उसके महत् उद्देश्यों को समर्पित है। मेरा मानना है कि परम पूज्य महाराजश्री की लेखनी से ही तुलसीदास जी को पढ़ा जा सकता है और उन्हीं की वाणी से उन्हें सुना भी जा सकता है। महाराजश्री के साहित्य और चिन्तन को समझे बिना तुलसीदास के हृदय को समझ पाना असम्भव है।
रामायणम् आश्रम अयोध्या जहाँ महाराजश्री ने 9 अगस्त सन् 2002 को समाधि ली वहाँ पर अनेकों मत-मतान्तरों वाले लोग साहित्य प्राप्त करने आते हैं, तो महाराजश्री के प्रति वे ऐसी भावनाएं उड़ेलती हैं मानों कि मन होता है कि महाराजश्री को इन्हीं की दृष्टि से देखना चाहिए। वे अपना सबकुछ न्यौछावर करना चाहते हैं उनके चिन्तन पर। महाराजश्री के चिन्तन ने रामचरित मानस के पूरे घटनाक्रम को और प्रत्येक पात्र की मानसिकता को जिस तरह से प्रस्तुत किया है उसको पढ़कर आपको ऐसा लगेगा कि आप उस युग के एक नागरिक हैं और घटनाएँ आपके जीवन का सत्य हैं। हम उन सभी श्रेष्ठ वक्ताओं के प्रति भी अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं तो महाराजश्री के चिन्तन को पढ़कर प्रवचन करते हैं और मंच से उनका नाम बोलकर उनकी भावनात्मक आरती उतारकर अपने बड़प्पन का परिचय देते हैं।
रामायणम, ट्रस्ट के सचिव श्री मैथिलीशरण शर्मा ‘भाईजी’ विगत 29 वर्षों से महाराजश्री की साहित्यिक सेवा का प्रमुख कार्य देख रहे हैं। इतने वर्षों से मैं यही देखती हूँ कि वे प्रतिदिन यही सोचते रहते हैं कि किस तरह महाराजश्री के विचार अधिक लोगों तक पहुँचें। साथ ही उनके सहयोगी डा. चन्द्रशेखर तिवारी इस महत्कार्य को पूर्ण करने में अपना योगदान देते हैं, उनको भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूँ। रामायणम् भी मैं हार्दिक मंगलकामनाएं एवं आशीर्वाद प्रदान करती हूं। रामायणम् ट्रस्ट से सभी ट्रस्टीगण इस भावना से ओत-प्रोत हैं कि ट्रस्ट की सबसे प्रमुख सेवा यही होनी चाहिए कि वह एक स्वस्थ चिन्तन के प्रचार प्रसार-प्रसार में जनता को दिशा एवं दृष्टि दे और ऐसा सन्तुलित चिन्तन पूज्य श्रीरामकिंकरजी महाराज में प्रकाशित होता और प्रकाशित करता दिखता है। पाठकों के प्रति मेरी हार्दिक मंगलकामनाएं !
प्रभु की शरण में
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी
मन्दाकिनी श्रीरामकिंकरजी
प्रथम प्रवचन
भगवान् की महती अनुकम्पा से यह सुअवसर प्राप्त हुआ है कि उनके चरित्र की
कुछ चर्चा आप लोगों के बीच कर सकूँ। आइए ! सबसे पहले गोस्वामीजी की भगवान्
राम के प्रति जो दृष्टि है, उस पर विचार कर लें। गोस्वामीजी की जो
मान्यताएँ हैं, उन्हें रखने के पश्चात् मैं आपके समक्ष भगवान् श्रीराम के
चरित्र की एक संक्षिप्त झाँकी रखने का प्रयास करूँगा।
पूज्य स्वामी आत्मानन्दजी ने पृष्ठभूमि के रूप में उस दृष्टि का संकेत आपको दिया है। उन्होंने उस पद का उद्धरण भी आपको दिया है जिसमें कहा गया है कि वाल्मीकि ही तुलसी के रूप में अवतरित होते हैं। वाल्मीकि तुलसी के रूप में क्यों अवतरित होते हैं, यदि इस प्रश्न पर विचार करें तो हमारा ध्यान चला जाता है श्रीमद्भागवत के एक प्रसंग की ओर। भगवान् व्यास विपाशा नदी के तट पर गम्भीर मुद्रा में विराजमान थे। देवर्षि नारद उनके पास आए। व्यासजी ने उनका स्वागत किया। उसके पश्चात बड़े ही सांकेतिक शब्दों में देवर्षि नारद ने भगवान् व्यास से पूछा—आपने महाभारत जैसे महान् ग्रन्थ की रचना की है जो ज्ञान का अप्रतिम कोष है। आपको इस रचना के पश्चात् तो सन्तोष एवं शान्ति की अनुभूति हो रहीं होगी ? आप स्वयं में कृतकृत्यता और पूर्णता का अनुभव कर रहे होंगे ? देवर्षि के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् व्यास ने कहा कि महाभारत की रचना को रचना की दृष्टि से महत् मानते हुए भी मैं ऐसा अनुभव नहीं करता कि उसकी रचना के बाद मुझे समग्र शान्ति या सन्तोष का अनुभव हुआ हो। उन्होंने देवर्षि से पूछा कि इसका कारण क्या है ?
देवर्षि नारद ने कहा कि महाभारत की रचना उत्कृष्ट होते हुए भी आपने जिस दृष्टि से वह रचना की है, समग्र अर्थों में वह आपको सन्तोष और शान्ति नहीं दे सकती है। आप पुनः श्रीकृष्ण के चरित्र की रचना करें और उस रचना के पश्चात् आपको सन्तोष एवं शान्ति का अनुभव होगा। और फिर देवर्षि की प्रेरणा से भगवान् व्यास ने श्रीमद्भागवत की रचना की, तब उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि उस रचना के पश्चात उन्हें परम शान्ति की उपलब्धि हुई। बड़ी अद्भुत बात है कि महाभारत इतना महत् ग्रन्थ है, इतना अप्रतिम है, पर उसके पश्चात् भी भगवान् व्यास को ऐसा प्रतात होता है कि उन्हें सन्तोष की उपलब्धि नहीं हुई, इसलिए वे उसके बाद श्रीमद्भागवत की रचना करते हैं। तो, मैं कहूँगा कि जिस प्रेरणा से महर्षि व्यास ने महाभारत के बाद श्रीमद्भागवत की रचना की, उसी प्रेरणा से वाल्मीकि भी तुलसी के रूप में अवतरित हो गए। और तब वे भगवान् राम के चरित्र को नई दृष्टि से सामने रखते हैं। महर्षि व्यास ने तो अपना कार्य तत्काल कर लिया जबकि महर्षि वाल्मीकि ने उसके लिए कलियुग का चुनाव किया। लेकिन दोनों स्थानों पर दृष्टि एक ही है। भगवान् श्रीकृष्ण महाभारत में भी हैं और श्रीमद्भागवत में भी किन्तु रचनाकार की दृष्टि दोनों जगह अलग-अलग है।
वाल्मीकि रामायण के प्रतिपाद्य हैं श्रीराम। वाल्मीकि तुलसीदास के रूप में अवतरित होकर जब श्रीराम के चरित्र का वर्णन करते हैं तब भी उनके ग्रन्थ के नायक श्रीराम हैं, पर दोनों में दृष्टि का पार्थक्य है। जो बात महाभारत और श्रीमद्भागवत की रचना को अलग बनाती है, वह वाल्मीकि एवं तुलसीकृत रामायण की तुलना करने पर स्पष्ट हो जाती है। वह दृष्टि क्या है जिसकी ओर पूज्य स्वामी आत्मानन्दजी ने संकेत किया है ?—वह है ऐतिहासिक दृष्टि और भावदृष्टि। महाभारत इतिहास को प्रधानता देता है तथा श्रीमद्भागवत भाव को। और यही बात रामचरितमानस के विषय में है। वाल्मीकि का काव्य इतिहास-प्रधान है, और जब वे तुलसीदास के रूप में रामचरितमानस की रचना करते हैं तो भाव-प्रधान हो जाता है।
इतिहास और भाव की दृष्टि में अन्तर कहाँ है ? इतिहास की दृष्टि व्यक्ति के ज्ञान की वृद्धि तो कर सकती है पर व्यक्ति के अन्तःकरण को सन्तुष्ट नहीं कर सकती। वह तो भावदृष्टि है जो व्यक्ति के अन्तःकरण को सन्तोष या शान्ति का अनुभव कराती है। वाल्मीकि ने भगवान् राम का वर्णन भले ही सांकेतिक रूप में किया हो किन्तु वे मुख्य रूप से मानवचरित्र की दृष्टि से, मानव के रूप में श्रीराम का प्रतिपादन करते हैं।
पूज्य स्वामी आत्मानन्दजी ने पृष्ठभूमि के रूप में उस दृष्टि का संकेत आपको दिया है। उन्होंने उस पद का उद्धरण भी आपको दिया है जिसमें कहा गया है कि वाल्मीकि ही तुलसी के रूप में अवतरित होते हैं। वाल्मीकि तुलसी के रूप में क्यों अवतरित होते हैं, यदि इस प्रश्न पर विचार करें तो हमारा ध्यान चला जाता है श्रीमद्भागवत के एक प्रसंग की ओर। भगवान् व्यास विपाशा नदी के तट पर गम्भीर मुद्रा में विराजमान थे। देवर्षि नारद उनके पास आए। व्यासजी ने उनका स्वागत किया। उसके पश्चात बड़े ही सांकेतिक शब्दों में देवर्षि नारद ने भगवान् व्यास से पूछा—आपने महाभारत जैसे महान् ग्रन्थ की रचना की है जो ज्ञान का अप्रतिम कोष है। आपको इस रचना के पश्चात् तो सन्तोष एवं शान्ति की अनुभूति हो रहीं होगी ? आप स्वयं में कृतकृत्यता और पूर्णता का अनुभव कर रहे होंगे ? देवर्षि के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् व्यास ने कहा कि महाभारत की रचना को रचना की दृष्टि से महत् मानते हुए भी मैं ऐसा अनुभव नहीं करता कि उसकी रचना के बाद मुझे समग्र शान्ति या सन्तोष का अनुभव हुआ हो। उन्होंने देवर्षि से पूछा कि इसका कारण क्या है ?
देवर्षि नारद ने कहा कि महाभारत की रचना उत्कृष्ट होते हुए भी आपने जिस दृष्टि से वह रचना की है, समग्र अर्थों में वह आपको सन्तोष और शान्ति नहीं दे सकती है। आप पुनः श्रीकृष्ण के चरित्र की रचना करें और उस रचना के पश्चात् आपको सन्तोष एवं शान्ति का अनुभव होगा। और फिर देवर्षि की प्रेरणा से भगवान् व्यास ने श्रीमद्भागवत की रचना की, तब उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि उस रचना के पश्चात उन्हें परम शान्ति की उपलब्धि हुई। बड़ी अद्भुत बात है कि महाभारत इतना महत् ग्रन्थ है, इतना अप्रतिम है, पर उसके पश्चात् भी भगवान् व्यास को ऐसा प्रतात होता है कि उन्हें सन्तोष की उपलब्धि नहीं हुई, इसलिए वे उसके बाद श्रीमद्भागवत की रचना करते हैं। तो, मैं कहूँगा कि जिस प्रेरणा से महर्षि व्यास ने महाभारत के बाद श्रीमद्भागवत की रचना की, उसी प्रेरणा से वाल्मीकि भी तुलसी के रूप में अवतरित हो गए। और तब वे भगवान् राम के चरित्र को नई दृष्टि से सामने रखते हैं। महर्षि व्यास ने तो अपना कार्य तत्काल कर लिया जबकि महर्षि वाल्मीकि ने उसके लिए कलियुग का चुनाव किया। लेकिन दोनों स्थानों पर दृष्टि एक ही है। भगवान् श्रीकृष्ण महाभारत में भी हैं और श्रीमद्भागवत में भी किन्तु रचनाकार की दृष्टि दोनों जगह अलग-अलग है।
वाल्मीकि रामायण के प्रतिपाद्य हैं श्रीराम। वाल्मीकि तुलसीदास के रूप में अवतरित होकर जब श्रीराम के चरित्र का वर्णन करते हैं तब भी उनके ग्रन्थ के नायक श्रीराम हैं, पर दोनों में दृष्टि का पार्थक्य है। जो बात महाभारत और श्रीमद्भागवत की रचना को अलग बनाती है, वह वाल्मीकि एवं तुलसीकृत रामायण की तुलना करने पर स्पष्ट हो जाती है। वह दृष्टि क्या है जिसकी ओर पूज्य स्वामी आत्मानन्दजी ने संकेत किया है ?—वह है ऐतिहासिक दृष्टि और भावदृष्टि। महाभारत इतिहास को प्रधानता देता है तथा श्रीमद्भागवत भाव को। और यही बात रामचरितमानस के विषय में है। वाल्मीकि का काव्य इतिहास-प्रधान है, और जब वे तुलसीदास के रूप में रामचरितमानस की रचना करते हैं तो भाव-प्रधान हो जाता है।
इतिहास और भाव की दृष्टि में अन्तर कहाँ है ? इतिहास की दृष्टि व्यक्ति के ज्ञान की वृद्धि तो कर सकती है पर व्यक्ति के अन्तःकरण को सन्तुष्ट नहीं कर सकती। वह तो भावदृष्टि है जो व्यक्ति के अन्तःकरण को सन्तोष या शान्ति का अनुभव कराती है। वाल्मीकि ने भगवान् राम का वर्णन भले ही सांकेतिक रूप में किया हो किन्तु वे मुख्य रूप से मानवचरित्र की दृष्टि से, मानव के रूप में श्रीराम का प्रतिपादन करते हैं।
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