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मीराबाई
मीराबाई
प्रकाशक :
इंडिया बुक हाउस |
प्रकाशित वर्ष : 2006 |
पृष्ठ :32
मुखपृष्ठ :
पेपरबैक
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पुस्तक क्रमांक : 4795
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आईएसबीएन :81-7508-495-2 |
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119 पाठक हैं
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कृष्ण भक्तिमयी कावियित्री मीरा के जीवन का सचित्र वर्णन....
Mirabai A Hindi Book by Anant Pai
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मीराबाई
कृष्ण के सारे भक्त भारत में पाये जाते हैं। कुछ उनकी बाल-लीलाओं के गुण-गान करते हैं तो कुछ उन्हें गीता के उपदेशक के रूप में पूजते हैं।
कृष्ण का सबसे लोकप्रिय रूप कदाचित रास-बिहारी का है जिसमें वे चाँदनी रातों में यमुना के तट पर बंशी बजाते हैं। मीरा के भजनों में उनके इस रूप के हमें दर्शन होते हैं।
भारत को सन्त-महात्माओं की खान कहा जा सकता है। परन्तु उन सब में मीरा का अपना अलग स्थान है। मीरा ने राजघराने में जन्म लिया औऱ विवाह राजघराने में हुआ। परन्तु उन्होंने अपने लिए राज्य चुना वह था कृष्ण का। कृष्ण को अपना लेने के बाद जीवन भर वे उस पथ से डिगीं नहीं।
ऐसी अनन्य भक्ति थी उनकी। नासमझ और क्रूर सम्बन्धी उन्हें भक्ति के मार्ग से मोड़ न सके। वे तो स्वयं को कृष्ण के अर्पण कर चुकी थीं। और पूर्णतया कृष्ण की हो चुकी थीं।
उनके अन्तस से निकले हुए भजन कृष्ण की भक्ति से ओत-प्रोत हैं। अपनी मधुरता और सहजता के कारण ये भजन सारे देश में लोकप्रिय हुए। भारतीय सन्त-साहित्य इन भजनों से बहुत समृद्ध हुआ है।
मीरा जब पाँच वर्ष की थी, एक दिन उनके महल के सामने से एक बरात निकली।
माँ मेरा वर कहां है ?
चल, मैं तुझे उसके पास ले चलती हूँ।
माँ उसे पूजा-गृह में कृष्ण की मूर्ति के सामने ले गयी। मीरा को यह मूर्ति बहुत अच्छी लगी।
ये तेरे पति हैं ! स्वयं गोपाल। तू इन्हीं की सेवा और भक्ति कर जैसे पत्नी अपने पति की करती है।
मीरा ने अपनी माँ की बात गाँठ बाँध ली।
मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई !
अब मेरी रक्षा तुम्हीं करोगे क्योंकि मैं तुम्हारी वधू हूँ।
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