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सिक्खों के दस गुरु

महेन्द्र मित्तल, लखवीर सिंह

प्रकाशक : मनोज पब्लिकेशन प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4804
आईएसबीएन :81-8133-576-7

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इस पुस्तक में सिक्खों के गुरुओं के विषय का वर्णन हुआ है......

Sikkhon Ke Dus Guru

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

दस गुरु

सिक्ख धर्म के महान गुरुओं के तप व बलिदान की  गाथा

धर्म की रक्षा के लिए अवतार होते हैं। दसों गुरु भी इस धराधाम पर इसी उद्देश्य के लिए अवतरित हुए थे सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों और पाखण्ड को जहाँ इन्होंने अपनी सीधी-सच्ची वाणी से उधेड़ा वहीं उन आततायियों का भी खात्मा किया, जिन्होंने निरीह जनता को तलवार की ताकत से गुलाम बनाना चाहा। तथाकथित शास्त्र का जवाब जहाँ इन्होंने तप और अनुभव की संजोई थाती से दिया वहीं तलवार का जवाब देन के लिए हाथों में तलवार भी थाम ली। गुरुमुखों के लिए इनका हृदय जहां वात्सल्य से भरा था। वहीं दुष्टों के लिए ये साक्षात् रुद्र का अवतार थे।
 
क्या था इन महान गुरुओं का जीवन-दर्शन इसे आम लोगों तक पहुँचाने का प्रयास है यह पुस्तक। बच्चे पवित्र गाथाओं द्वारा अपने अतीत के त्याग, बलिदान को जानें, यह भी हमारा लक्ष्य रहा है। शैली को सुगम बनाने के लिए कई स्थानों पर ‘नैरेशन’ का सहारा लिया है। विद्वान गुरुमुख इन प्रसंगों को इतिहास के संदर्भ में न देखें की यही बातचीत हुई होगी। प्रमुख घटनाओं की तिथियों की पुष्टि हमने विभिन्न स्रोतों से की है लेकिन भूल को हम नकार भी नहीं सकते। अगर कहीं ऐसी भूल होती है तो उसे हम जानना जरूर चाहेंगे ताकि अगले संस्करण में उसे सुधारा जा सके !
आप मनमुख नहीं, गुरुमुख बनें यहीं अकाल पुरुष के चरणों में विनती है हमारी-

प्रकाशक

सवैया


देहि सिवा बर मोहि इहे
सुभ करमन ते कबहुं न टरों।।
न डरों अरि सो जब जाए लरों,
निश्चै कर अपनी जीत करों।।
अरु सिख हो आपने ही मन को
इह लालच हउ गुन तउ उचरों ।।
जब आव की अउध निदान बनैं,
अत ही रन मै तब जूझ मरों।।

दो शब्द



संत कबीर का एक प्रसिद्ध दोहा है-


‘‘गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागू पांय
बलिहारी गुरु आपणे, गोविन्द दिओ मिलाय।’’


अर्थात मेरे सामने गुरु और गोविन्द (निराकार ब्रह्म) दोनों खड़े हैं। मैं दोनों को ही पाना चाहता हूं। लेकिन मैं उस गुरु पर बलिहारी जाता हूँ, जिन्होंने मुझे गोविन्द से मिला दिया।

भारतीय-संस्कृति में गुरु का स्थान परमेश्वर से भी ऊँचा माना गया है। बिना गुरु के परमात्मा को पाना असम्भव हैं। क्योंकि गुरु ही होता है, जो हमारी समस्त इच्छाओं को नियंत्रित करता है। हमारे मन पर लगाम कसता है और हमें संसार के इस मायावी प्रपंच से बचाकर, उस परम ‘सत्य’ की ओर ले जाता है। गुरु एक ओर हमें संसार से परिचित कराता है तो दूसरी ओर अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को भी खोलकर प्रकट हमारे सम्मुख रखता है। वह ‘सत्य’ और असत्य’ के मर्म को प्रकट करता है।

सिक्ख-धर्म में, गुरुओं की एक अद्भुत और पवित्र परंपरा है। ये गुरु एक ओर शान्ति के उपासक हैं तो दूसरी ओर धर्म की रक्षा में अपने प्राणों तक को बलिदान कर देते हैं। इसलिए जरूरत पड़ने पर आततायी मुगलों का सिर कलम करने में भी उन्होंने परहेज नहीं किया।

सिक्खों की प्रथम पातशाही गुरु नानक देव जी से लेकर दशवीं पातशाही गुरु गोविन्द सिंह जी का काल हिन्दुओं के उत्पीड़न का काल था। एक ओर मुस्लिम आक्रान्ता हिन्दू सभ्यता और संस्कृति को जड़ से नष्ट करने के लिए कटिबद्ध थे तो दूसरी ओर सम्पूर्ण हिन्दू समाज ब्राह्माणवाद के कर्मकाण्डों में उलझा, मानव जाति को रसातल की ओर ले जा रहा था। अंध-विश्वास, भेद-भाव, ऊंच-नीच, अवतारवाद, सती-प्रथा, छूआछूत आदि ने पूरे समाज को ही दूषित कर डाला था।

ऐसे में इन दस गुरुओं ने हिन्दुस्तान की अस्मिता और पहचान को बचाने का महत् कर्म किया था। ये सभी गुरु परम संत थे। इस पुस्तक में सिक्ख धर्म के इन्हीं दस महान गुरुओं के जीवन-दर्शन को उजागर करने का मैंने अकिंचन प्रयास किया है। गीता में श्री कृष्ण ने कहा है, ‘‘मेरे दिव्य जन्म और कर्मों के रहस्य को जानने वाला संसार-चक्र से मुक्त हो जाता है।’’ संतों का जन्म भी दिव्य होता है। अनिर्वचनीय होता है वह फिर भी टूटे-फूटे शब्दों में बांधने का प्रयास किया है मैंने। गुरुमुख मेरी भूलों को नजर अंदाज करेंगे। उनके सुझाव सिर आँखों पर। इस महत् में गुरुद्वारा सिंह सभा, शादीपुर के प्रमुख ग्रंथी ज्ञानी सविन्दर सिंह जी का आभार प्रकट करता हूँ, जिन्होंने इस प्रयास में मेरा मार्गदर्शन किया।
खालसा कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) मॉर्निग, में कार्यरत जनरनैल सिंह जी के सहयोग के बिना इसे प्रकाशित कर पाना असंभव-सा था। गुरुचरणों में उनकी अन्नय निष्ठा रहे। यही अकाल पुरुख के श्री चरणों में प्रार्थना है।

आपको महान सिक्ख धर्म के गुरुओं के जीवन से प्रेरणा की एक भी किरण मिल सकी तो मैं अपने इस प्रयास को सफल समझूंगा।


आपका शुभेच्छु
महेन्द्र मित्तल


सतिनामु करता पुरुख निरुभउ निरवैर
अकाल मीरति अजूनी सैभं गुरुप्रसादि
जपि आदि सचु जुगादि सचु है भी सचु
नानक होसी भी सचु ।।1।।

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