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एक गोंड गाँव में जीवन

वेरियर एल्विन, नरेन्द्र वशिष्ठ

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :136
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4810
आईएसबीएन :81-267-1296-1

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यह पुस्तक Leaves from the Jungle : Life in a Gond Village को हिन्दी अनुवाद के रूप में प्रस्तुत की गई है

EK GOND GAON MEIN JEEVAN

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

वेरियर एलविन एक युवा अंग्रेज थे जो मिशनरी बनकर भारत आए और बाद में भारत के एक महत्त्वपूर्ण मानव-विज्ञानी बने। गांधीजी की प्रेरणा और जमनालाल बजाज के मार्गदर्शन में वेरियर एलविन ने मैकाल पहाड़ी पर बसे एक गोंड गांव करंजिया में बसने का निर्णय लिया और उस क्षेत्र के लोगों के कल्याण के लिए खुद को समर्पित कर दिया।

‘एक गोंड गांव में जीवन’ उनके करंजिया में बिताए 1932 से 1936 के जीवन का रोजनामचा है जहाँ वे गोंड लोगों की तरह ही स्वयं और कुछ मित्रों की सहायता से बनाई गई एक झोपड़ी में रहते थे। यह जीवंत, मर्मस्पर्शी और उपख्यानात्मक पुस्तक है जिसमें एलविन ने निरीक्षण की अपनी मानव-विज्ञानी क्षमता और स्वाभाविक विनोदप्रियता के संयोग से गोंड जीवन की बहुरंगी छवि और आश्रम, जिसमें हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, गोंड आदि सभी शामिल हैं, की आन्तरिक उपलब्धि का उत्कृष्ट वर्णन किया है।...

भूमिका


यह निर्विवाद है कि जनजातीय समाज अपने स्वभाव से ही संस्कृति, परम्परा और प्रकृति की धरोहर को सहेजते-सँवारते रहा है। और यह भी कि चाहे प्रदेश हो या फिर देश, सभी अपनी जनजातीय विशिष्टता से एक पहचान और पूर्णता पाते हैं। हर एक सभ्य समाज की यह सर्वोपरि आवश्यकता है कि वह अपनी जनजातीय संस्कृति, परम्परा आख्यान, मिथक, विश्वास और जीवन से एक आत्मीय परिचय एवं रिश्ता कायम करे। समय-समय पर देश और दुनिया के सम्वेदनशील तथा गुणी लेखकों मानव समाज के अध्येताओं ने जनजातीय समाज के सरल और गूढ़ रहस्यों को समझने के प्रयास किए हैं।

वेरियर एलविन ग्रिग्सन, रसेल हीरालाल आदि के अध्ययन हमारी मूल्यवान सम्पदा हैं। परन्तु इन अध्ययनकर्ताओं की पुस्तकें अब प्रायः दुर्लभ हो चली हैं। और दूसरे ये अध्ययन अधिकतर अंग्रेजी भाषा में हैं। यह जतलाने की आवश्यकता नहीं है कि हमारे समाज का एक व्यापक हिस्सा और स्वयं जनजातीय समाज भी अपनी भाषायी सीमा के कारण इन मूल्यवान अध्ययनों और उनमें संचित अपरिहार्य ज्ञान वैभव से वंचित ही है। वन्याप्रकाशन ने काफी समय पहले वेरियर एलविन सहित अनेक अध्येताओं के शोधकार्यों को अंग्रेजी में प्रकाशित किया था। अब इन बहुमूल्यवान अध्ययनों को हिन्दी में अनूदित कर आदि सन्दर्भ पुस्तकमाला अन्तर्गत व्यापक लोक समाज तक पहुँचाने की दृष्टि से पहल की है। महत्त्व के ही साथ हिन्दी में ही मूल से किए गए कार्यों को भी लोक उपलब्ध कराने का प्रयास भी किया जाएगा।
हमारा विश्वास है कि आदि सन्दर्भ पुस्तकमाला से जनजातीय समाज की एक बेहतर समझ बन सकेगी।

-आर.एन.बैरवा

अध्यक्ष, वन्या प्रकाशन

दूसरे संस्करण की प्रस्तावना


बीस बरस से ऊपर बीत चुके हैं जब यह डायरी ‘एक गोंड गाँव में जीवन’ पहले पहल प्रकाशित हुई और ठीक 25 बरस हुए हैं जब मैं आदिवासी भारत के कार्य से सम्बद्ध हुआ। यह एक लम्बा अन्तराल है और पुस्तक के नए संस्करण का अवलोकन करते समय मुझे इसका एहसास होता है कि अब कुछ बातों की व्याख्या करने की जरूरत है। बतौर उदाहरण पुलिस और विशपों के साथ हुए झगड़ों के प्रसंग के पीछे कोई सटीक कारण नहीं दिया गया। इसी प्रकार मेरे साहसिक कार्यों से जुड़ी मेरी धार्मिक भूमिका का बखान भी अगर मैं इस पुस्तक में लिखता तो यह अप्रासंगिक हो जाती। अतएव कहानी को सभी परिप्रेक्ष्य देने के लिए कुछ आत्मकथात्मक वर्णन निहायत जरूरी है। 1936 में जब जॉन मरे ने मूल संस्करण प्रकाशित किया था तब मैं पूरी तरह ऐसा नहीं कर पाया।

मैं नवम्बर 1927 में भारत आया। बहुधा लोग मेरे यहाँ आने का कारण पूछते हैं। इसके अनेक कारण थे। ऑक्सफोर्ड में भारतीय मित्रों ने मुझे महात्मा गांधी के अहिंसक आदर्शवाद, रवीन्द्रनाथ ठाकुर की अन्तर्राष्ट्रीय संस्कृति और भारतीय रहस्यवाद के उन्नायक प्रतीकवाद के प्रति बहुत उत्साहित किया। मैं जानता था भारत एक निर्धन देश है और यद्यपि मैं ऑक्सफोर्ड में प्राध्यापक बनना चाहता था, मुझे यह एहसास होने लगा कि मात्र शैक्षिक जीवन ही पर्याप्त नहीं। मुझमें यह इच्छा घर कर गई कि मेरे देश और मेरी जाति ने जो भारत की हानि की है उसकी कुछ भरपाई कर सकूँ। बचपन से ही मुझे सेवा और साहसिक कार्यों के संस्कार मिले थे। मेरे पिता अफ्रीका के बीहड़ों के खोजी थे।

मेरी माता को एक आदमखोर शेर ने खा लिया था। भारत में ऐसा कुछ होने की मुझे लेशमात्र भी आशा न थी। आज भी मेरे तईं यह स्पष्ट था कि यही वह देश था जो मेरे स्वभाव के अनुकूल था और जहाँ मुझे मस्तिष्क और आत्मा के क्षेत्र में साहसिक कार्यों के अवसर मिल सकते थे।

मैं अपने लिए ‘मिशनरी’ शब्द के सामान्य अर्थ में कोई भूमिका नहीं चाहता था लेकिन आश्रमीय जीवन व्यतीत करने में मेरी गहन रुचि थी। उन्हीं दिनों उदार क्रिश्चियन विचारों पर आधारित एक आश्रम पूना में खोला गया जिसमें भारतीय और यूरोपीय लोगों को पूर्ण समानता के आदर्श पर सदस्यता देने का प्रावधान था (उन दिनों में यह असामान्य था) और जिसका लक्ष्य धर्म परिवर्तन न होकर विशुद्ध विद्यानुराग था। इसमें शामिल होकर मेरा मुख्य उद्देश्य ईसाई और हिन्दू धर्मों के सम्बन्धों का अध्ययन करना था और यह देखना भी कि किस सीमा तक ईसाई धर्म के एक अधिक सटीक पूर्वदेशीय जामा पहनाया जा सकता था। पूना में हम सरल भारतीय ढंग से रहते थे-खादी के कपड़े, नंगे पाँव अथवा चप्पलें, भूमि-शयन और भारतीय भोजन हमने हिन्दू मन्दिर की शैली पर एक छोटा सा सुन्दर गिरजाघर बनाया जिसमें ईस्टर्न आरथोडोक्स चर्च की पूजा पद्धति का अनुसरण होता था और इसमें अनेक पूर्वदेशी तत्त्वों का समावेश था। पूर्वी और पाश्चात्य रहस्यवाद के गहरे सम्बन्धों को दिखाने के लिए मैंने स्वयं अनेक पुस्तिकाएँ लिखीं : उनमें से एक ‘क्रिश्चियन ध्यान’ में मैंने योग का चौदहवीं सदी के एक अनाम रहस्यवादी द्वारा रचित ‘द क्वाउड ऑफ अननोइंग’ के साथ तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया। दूसरी पुस्तिका में रिचर्ड रोले के विचारों को भारतीय भक्ति की शब्दवली में व्याख्यायित किया। इसी प्रकार तीसरी पुस्तिका में मैंने यह दिखाने का प्रयास किया कि किस प्रकार असीसी के सेंट फ्रांसिस भारतीय परिदृश्य के अनुकूल हैं। तब मैं चर्च ऑफ इंग्लैंड का एक पादरी था।

जनवरी 1928 में एक विशिष्ट घटना के कारण मेरा जीवन ही बदल गया। मैं साबरमती आश्रम में महात्मा गांधी से मिला था।
इस समय भारत का राष्ट्रीय आन्दोलन निष्ठा और समर्पण के उस स्तर पर पहुँच चुका था जिसकी संसार के राजनीतिक उथल-पुथलों में दूसरी मिसाल मिलनी नामुनकिन है। साबरमती के ऊँचे किनारों पर खड़े आश्रम में जिसमें रहने वाले कुछ सौ व्यक्ति शान्त और अनुशासित ढंग से कठिन कार्य और निर्धनों के प्रति समर्पित थे जो सदैव श्रेष्ठ कांग्रेसजन का लक्षण रहा है। उनके बीच गांधीजी लगभग एक अपार्थिव गरिमा और सौंन्दर्य की सजीव मूर्ति जान पड़ते थे। मुझ पर उनकी पहली छाप थी-उनकी सुन्दरता आध्यात्मिक शक्ति जिसने उनकी दुर्बल काठी और समूचे वातावरण को दया और प्रेम में रूपान्तरित कर दिया था।

उसके बाद मैं एक सहिष्णु हमराही के स्थान पर उनकी निष्ठावान शिष्य बन गया। मैंने चर्खा कातने का काम शुरू कर दिया; कांग्रेस का झंडा पूना आश्रम में फहराया; प्रवचनों में ईसाई और गांधीवादी आदर्शों का मिश्रण किया, ‘‘क्राइस्ट और सत्याग्रह’ नामक पुस्तिका लिखी जिसमें कहा गया कि मुख्यतः सत्य और अहिंसा के ईसाई आदर्शों पर आधारित भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन में ईसाइयों को भागीदार बनना चाहिए। यह बात निश्चित ही स्थाई धर्म के विरोध में जाती थी। यह सब बातें सहज ही राज्य और चर्च ने नज़रअन्दाज कर दीं और इनके प्रति कोई उत्साहजनक प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की गई।
चर्च पर तत्कालीन राज्य के आधिपत्य की सबसे ज्यादा जानकारी मुझे तब मिली जब मैंने रेजीनाल्ड रेनाल्ड्स को गांधीवाद पर भाषण देने के लिए आश्रम में निमन्त्रित किया। पुलिस अधीक्षक आर्कडेकन के द्वारा मेरी निन्दा की गई। कहा गया कि क्रिस्टा सेवा संघ चर्च नेताओं के निरन्तर दबाव को नहीं मानता और न ही बढ़ते हुए सी.आई.डी. के भड़काऊँ प्रयासों को जो उसको अपने लक्ष्य से भटकना चाहते हैं।

ध्यातव्य है कि दूसरे सदस्यों की पूर्ण स्वीकृति लेकर ही मैंने सुभाषचन्द्र बोस को यहाँ ठहराया था और 1929 के अन्त में मुझे स्वीकृति मिली थी कि मैं सरदार वल्लभभाई के निमन्त्रण पर गुजरात जाऊँ और वहाँ चल रहे ‘कर न चुकाओं’ आन्दोलन में पुलिस की दमनकारी कार्यवाही का जायजा लूँ। यह आन्दोलन अत्यन्त व्यापक था जिसको रोकने के लिए सरकार ने बहुत कठोर कदम उठाए थे, इतने कठोर कि बहुत से स्थानों से पूर्ण जनसंख्या निकटवर्ती बड़ौदा राज्य को पलायन कर गई। मैंने पाँच तालुकों-आनन्द, नादियाड, बोरसाड, बारडोली और जलालपुर के साठ से अधिक गाँवों का दौरा किया। मैंने जाँच पड़ताल करने के बाद एक रिपोर्ट लिखी जो पहले बॉम्बे क्रोनिकल में प्रकाशित हुई और तदुपरान्त ‘इन द डेजरटेड विलीजेज़ ऑफ़ गुजरात’ नामक पुस्तिका के रूप में छपी। इसमें मैंने ‘क्रिश्चियन’ सरकार से निवेदन किया कि वह ईसा के सिद्धान्तों का गुजरात के सार्वजनिक आन्दोलन में प्रयोग करे मुद्दा चाहे जो भी हो। इस प्रकार वह कानून के प्रभुत्व और न्याय की पवित्रता को सुरक्षित रख सकेगी और अपने पीछे कटु स्मृतियों की विरासत को छोड़ने से बच सकेगी।

मैंने अपना अधिकतर समय साबरमती आश्रम में बिताना शुरू कर दिया और अगले बरस ही मुझे यह अहसास होने लगा कि मेरे कारण पूनावाले मित्र उत्तरोत्तर मानसिक रूप से उद्वेलित रहने लगे थे। मैंने निर्णय लिया कि मुझे क्राइस्टा सेवा संघ से नाता तोड़कर स्वयं ही कुछ करना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं हुआ।
मैं पूना में ही था कि साबरमती आश्रम में अनेक विलक्षण भारतीयों ने सदस्यता ग्रहण की। उनमें से एक आजीवन मेरा मित्र और साथी बना। उसका नाम शामराव हिलावे था जिसका जिक्र इस पुस्तक में बार-बार आएगा। इसीलिए उसका संक्षिप्त परिचय देना अनिवार्य हो जाता है।

शामराव का शोलापुर के निकट माधे में जन्म हुआ था और जब यह डायरी शुरू की गई उसकी उम्र तीस बरस थी। मुम्बई के विल्सन हाई स्कूल और कोल्हापुर के राजाराम कॉलिज में शिक्षा पाई थी। उसके भाई डॉक्टर बी.पी. हिवाले अहमदनगर में एक प्रसिद्ध कॉलिज के संस्थापक के रूप में विख्यात हैं। 1929 में गुजरात जाँच के लिए शामराव मेरे साथ था और तब से हम दोनों ने मिलकर कार्य किया है। 1931 के एक संक्षिप्त अन्तराल को छोड़कर वह हमेशा साथ रहा। उस समय वह मीरफील्ड से ईसाई धर्म की शिक्षा प्राप्त करने इंग्लैंड गया था।

यह पता चलते ही कि मैंने क्राइस्टा सेवा संघ से नाता तोड़ लिया है, उसने भी अपनी योजना त्याग दी। गांधीजी गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन पहुँचे तो वह भी कांग्रेस का सदस्य बन गया और अपने नेता के साथ भारत वापस आ गया।
शामराव में असाधारण आत्मीयता और मानवता थी। करंजिया में आने के कुछ समय बाद ही वह छोटा भाई के नाम से विख्यात हो गया। एक ऐसा छोटा भाई जो लोगों का मित्र, दार्शनिक और पथप्रदर्शक था। शीघ्र ही प्रत्येक आदिवासी उस पर भरोसा करने लगा और छोटी-मोटी तकलीफ या कष्ट में छोटा भाई को पुकारने लगा। शामराव ने हजारों की जिन्दगी में सुख और नया विश्वास दिया है। एक बार की बात है अपनी अन्तिम साँस लेती हुई एक वृद्ध स्त्री अपने सम्बन्धियों से नहीं, शामराव से मिलने का आग्रह कर रही थी। एक दिन छोटा भाई के गोंड मित्र ने उससे कहा, ‘तुम्हारे यहाँ आने से पूर्व हमें सतानेवालों की मूँछें आसमान की ओर उठी होती थीं किन्तु अब वे धरती पर झुक गई हैं।’ वह आदिवासियों के लिए परदेसी नहीं था। उन्हीं के समान, उन्हीं की तरह का। उसकी दृष्टि में हरेक व्यक्ति एक संसार है और वह हर बच्चे या किशोर अथवा निर्धन बूढ़ी स्त्री को ‘केस’ के रूप में नहीं, एक मानवीय व्यक्तित्व, एक पवित्र जीवन मानता है जिसको प्रेम और सम्मान दिया जाना चाहिए और जिसके दुख और चिन्ताओं में उसे स्वयं भागीदार होना चाहिए। उस तक हमेशा सबकी पहुँच है और करंजिया में उसकी तुलना एक हिन्दू विधवा से की जाती थी जाने जरूरतमन्दों के पास तुरन्त पहुँच जाती थी और जिसके लिए कोई काम छोटा निम्न और अरुचिकर नहीं था।

कुछ बरस, बीते, शामराव ने गोड़ों से सम्बन्धित कबीले पर एक सजीव लेख लिखा, ‘द प्रधान्स ऑफ द अपर नर्मदा वैली’ ऐसा सजीव चित्रण वह इसलिए कर सका क्योंकि वह व्यवसायिक नृतत्त्वशास्त्री से बेहतर इस सबको समझ पाता था। उसे आदिवासियों का विश्वास प्राप्त है, वह उनके बीच रहकर उनके बरस दर बरस उतार-चढ़ाव का साक्षी है, वह उनकी भाषा को पूर्ण अधिकार के साथ बोलता है और उसके हृदय में इन लोगों के लिए अपार सहानुभूति है। यदि मैंने डायरी में कई बार दबे ढंग से शामराव की आलोचना की है तो यह बरसों मित्रता का विशेषाधिकार है।

1931 के दौरान मैं शामराव की सलाह से वंचित रहा जब मैं यह निर्णय लेने की कोशिश कर रहा था कि मुझे क्या करना चाहिए। मेरे कुछ मित्र सी.ए. एन्डरूज़ की भाँति स्वतन्त्र अर्थ-राजनीतिक कार्यकर्ता बनाना चाहते थे। मेरा स्वयं का विचार था कि अस्पृश्य लोगों के बीच रहकर उनके लिए कुछ करूँ। उस समय अस्पृश्यता एक ज्वलन्त मुद्दा था। तब एक दिन मैं सरदार वल्लभभाई पटेल और सेठ जमनालाल बजाज के साथ अहमदाबाद की गलियों से कार से गुजर रहा था। जमनालालजी के अधरों से एक जादू भरा शब्द निकला गोंड जो मैंने अपने जीवन में प्रथम बार सुना। उन्होंने मुझे सेन्ट्रल प्रोविन्सेज जाकर उपेक्षित आदिवासियों के कल्याणार्थ कार्य करने को प्रेरित किया। हमने इस सम्बन्ध में गांधीजी से विचार विमर्श किया और उन्होंने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी।

अतः अक्टूबर में आचार्य कृपलानी के साथ मैं एक लम्बे दौरे पर निकला। इसके दो लक्ष्य थे। पहला बैतूल और छिंदवाड़ा के गोंड क्षेत्र में आबादी बसाने के लिए उचित स्थान की खोज और दूसरा, खादी और गांधीजी के आदर्शों का सन्देश लोगों तक पहुँचाना। हम सेन्ट्रल और यूनाइटेड प्रोविन्सेज में दूर-दूर तक घूमे। हमारे पीछे पुलिस, लगी हुई थी और सी.आई.डी. ने हमारी गतविधियों की सामान्यतया गलत रिपोर्ट सरकार को भेजी। बैतूल और छिंदवाड़ा में अधिकारियों का विरोध इतना अधिक था कि किसी भी जमींदार ने सहानुभूति होते हुए भी हमें जमीन देने का साहस नहीं किया। अक्टूबर अन्त में अपना दौरा समाप्त कर हम मुम्बई पहुँचे ताकि वहाँ गांधीजी और शामराव के इंग्लैंड से लौटने पर उनका स्वागत कर सकें।
तब जो घटित हुआ वह मेरी स्मृति में पूरी तरह आज भी अंकित है और मैंने उस समय जो लिखा उसका उद्धरण मैं यहाँ दूँगा क्योंकि गांधीजी की गिरफ्तारी ने मेरी सोच पर एक गहरी छाप छोड़ी थी।

मुम्बई में गांधीजी मणिभवन नामक मकान में ठहरे थे और उन्होंने शामराव और मुझे अपने साथ ही रहने का प्रस्ताव दिया। नगर में बहुत उत्तेजना थी; वायसराय ने गांधीजी के शान्ति प्रस्ताव को अन्तिम रूप से ठुकरा दिया था और किसी भी क्षण राष्ट्रीय नेताओं को गिरफ्तार किया जा सकता था।

मणिभवन की छत से हमने स्थिति का जायजा लिया तो हमें आश्चर्यजनक शान्ति का अनुभव हुआ जो निश्चय ही बाहरी भीड़ और उसकी उत्तेजना के विपरीत थी। छत एक आकर्षक स्थान था। छोटी ऊँचाई के शामियाने खड़े कर लिए गए थे। वहाँ ताड़ और दूसरी प्रकार के पौधे थे: कम-से-कम तीन सौ लोग वहाँ इकट्ठा हो सकते थे। ठंडा होने के अलावा यहाँ से आसमान के तारे साफ दीख पड़ते थे। बापू शान्त भाव से चर्खा कात रहे थे। उनका साप्ताहिक मौसम शुरू हो गया था। मैंने उनसे एकतरफा संवाद किया और उन्होंने कागज पर प्रश्न और उनके उत्तर लिख दिए। शामराव ने समुद्री यात्रा के दौरान बापू के सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार पर उनको धन्यवाद दिया। तत्पश्चात शामराव और मैं एक छोटे शामियाने में चले गए और बापू अपने शामियाने में जो मात्र तीन गज के दूरी पर था, लेट गए। तीस अन्य लोगों ने छत पर लगे कैन्वस के नीचे शरण ली। कस्तूरबा गांधी और मीराबेन ने हमें खजूर, अखरोट और फलों का स्वादिष्ट भोजन दिया। किन्तु मैं सो न सका। मैंने महसूस किया कि मुझे घंटों तक एक के पीछे एक चमकते सुन्दर तारों के नीचे जागना होगा जबकि हमारे नजदीक बापू मानो परमपिता का हाथ थामे एक शिशु की भांति सो रहे थे। मैंने येरुशलम को जाते हुए ईसा के बारे में सोचा जिनकी आँखों में निश्चय और साहस भरा था ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे सदियों को लाँघकर ईसा की आत्मा एक चमकती तलवार लेकर जुल्म और अन्याय के विरोध में प्रकट हो गई हो। हमारे सोते हुए प्रिय मित्रों की बहादुरी शुद्ध हृदयता, निष्ठा और प्रेम की भावना निश्चय अजेय थी।

आखिरकार मैंने जल्दी में बिस्तर तैयार किया और गहरी नींद में सो गया ऐसा प्रतीत होता था जैसे मैं आजीवन सोया हूँ। तभी अचानक किसी स्वप्न आगमन की तरह मुझे कुछ आवाज और फुसफुसाहट सुनाई पड़ी, ‘‘पुलिस आ गई है।’’ हम उठ बैठे और सामने वह दृश्य देखा जो मैं कभी नहीं भूलूँगा-पूर्ण सरकारी वर्दी में बापू की चारपाई के पायताने पुलिस अधीक्षक और बापू निद्रा से उठते हुए कुछ भ्रमित, बूढ़े, कमज़ोर और दयनीय से दीखते हुए और चेहरे पर नींद का कोहरा अभी तक तैरता हुआ। ‘‘मिस्टर गांधी, आपको गिरफ्तार करना मेरी ड्यूटी है।’’ स्वागत की सुन्दर मुस्कान बापू के चेहरे पर खिल उठी अब वह युवा, सशक्त और आत्मविश्वास से परिपूर्ण दीख पड़ते थे। उन्होंने इशारे से बताया कि उन्होंने मौन धारण किया हुआ है। अधीक्षक मुस्कराया और बहुत शालीनता से बोला, ‘‘मैं चाहूँगा कि आप आधा घंटे में तैयार हो जाएँ।’’ रात्रि के तीन बजकर पाँच मिनट हुए थे। बापू ने अपनी घड़ी देखी और अधीक्षक ने कहा आह वही प्रसिद्ध घड़ी।’ इस पर वे दोनों खूब खुलकर हँसे। बापू ने पेंसिल से कागज पर लिखा, ‘‘मैं आधा घंटे में आपके साथ चलने को तैयार हो जाऊँगा।’’

अधीक्षक ने बाबू के कन्धे पर अपना हाथ इतने स्नेहपूर्वक रखा मानो यह कार्य आलिंगन से कम न हो। किन्तु कुछ देर बाद मैं समझ गया यह गिरफ्तारी का औपचारिक संकेत था। बाबू ने अपने दाँतों को साफ किया और कुछ क्षण विश्राम किया। दरवाजे पर पहरा था लेकिन हम सब जो छत पर थे एक दायरा बनाकर बैठ गए। हमने देखा कि सड़क पर जहाँ कुछ लोगों ने सारी रात जागकर बिताई थी और जहाँ शान्त किन्तु अनुशासित छोटी सी भीड़ इकट्ठा हो चुकी थी वहाँ पुलिस ने कोई विशेष पूर्वचिन्तित उपायों का प्रबन्ध नहीं किया था। बापू दायरे के अन्दर बैठ गए और सबके साथ विशुद्ध वैष्णव भजन गाने लगे। तदुपरान्त बापू ने कागज पर पेंसिल से अपने अनुयायियों के लिए कुछ सन्देश लिखे, जेल जाने से पूर्व अपने अन्तिम सन्देश। एक पत्र उन्होंने वल्लभभाई के नाम लिखा जो एक प्रकार था, ‘‘प्रभु की दया असीम है’’ (ये गिरफ्तारी के बाद उनके पहले शब्द थे। ‘‘कृपया लोगों को बताएँ कि वे सत्य और अहिंसा के रास्ते से न हटें। कभी न हटें, चाहे स्वराज प्राप्ति के लिए अपने प्राण और सर्वस्व ही क्यों न देना पड़े।’’ फिर उन्होंने एक छोटा सा पत्र लिखकर मुझे थमा दिया :
‘‘मेरे प्यारे एल्विन,
आपके पधारने से मैं अति प्रसन्न हूँ। मैं चाहूँगा कि आप स्वयं अपने देशवासियों को बताएँ कि मैं उन्हें उतना ही प्रेम करता हूँ जितना अपने देशवासियों को। मैंने उनके प्रति कभी घृणा या द्वेष का व्यवहार नहीं किया और ईश्वर ने चाहा तो भविष्य में भी नहीं करूँगा। मैंने इन हालात में उनके प्रति अपने लोगों से कोई भिन्न व्यवहार नहीं किया।


सस्नेह तुम्हारा

एम.के.गांधी’’


‘तदुपरान्त बापू विदा लेने के लिए उठ खड़े हुए। यह एक अनोखा दृश्य था। दरवाजे पर पुलिस थी, मीराबेन और देवदास इधर से उधर बँधे सामान के लिए दौड़ रहे थे, बापू अपने मित्रों से घिरे थे जिनमें से ज्यादातर के नयन गीले थे। गीले नयनों वाली कस्तूरबा गांधी ने कहा, ‘‘क्या आप मुझे अपने साथ नहीं ले जा सकते ?’’ बारी-बारी से सबने बाबू के पाँव छुए और जब मैंने उनसे कहा विदा तो उन्होंने मुस्कराते हुए मेरा कान खींचा और मेरे गाल पर एक चपत सा लगा जड़ दिया। वह प्रसन्न थे और हँस रहे थे। तब वह सीढ़ियों से नीचे उतरे। उनके पीछे दूसरे लोग चल रहे थे। वह लघु आकृति कार में बैठ गई और चारों ओर भी एकत्र हो गई। यह भारत की अहिंसा के लिए वास्तव में सम्मानजनक था। चन्द पुलिस वाले भीड़ के बीच खतरे के भय बिना उपस्थित थे। तभी हमें सूचना मिली कि कांग्रेस अध्यक्ष वल्लभभाई भी गिरफ्तार कर लिए गए थे। जैसे ही भारत की आत्मा को अपने साथ लेकर कार अँधेरे और सुनसान रास्तों की ओर चली तो भीड़ भी तितर-बितर हो गई।

बापू के अन्दर हो जाने पर महादेव देसाई ने बताया कि मुझे नार्त वैस्ट फ्रन्टीयर प्रोविन्स जाकर वहाँ की स्थिति का जायजा लेना होगा। मुम्बई में वहाँ की जो सूचनाएँ मिल रही थीं वह चिन्ता में डालनेवाली थीं। वहाँ लालकुतीं आन्दोलन को कठोरता से कुचला जा रहा था और चूँकि वहाँ पत्रकारों के प्रवचन पर रोक थी और प्रेस समाचारों को काँट छाँटकर पेश किया जा रहा था, बापू अहिंसा को समर्पित वीर योद्धा पठानों के बारे में अतिशय चिन्ता होनी स्वाभाविक थी। अगले सप्ताह शामराव और मैंने पेशावर के लिए प्रस्थान किया।

हमारे साहसिक और उत्तेजित करनेवाले कार्यों; हमारी खोजों के लिए स्थानीय पुलिस और मिलिटरी को किंचित श्रेय नहीं जाता। हमारे कोहाट उतमनजयी के अलावा कुछ गाँवों का भी दौरा किया और अन्तिम दिन हम ख़ैबर पास तक गए। वहाँ से लौटते ही मुझे गिरफ्तार कर लिया गया, मेरे सामान की तलाशी ली गई और एक दर्जन सशस्त्र सिपाहियों के संरक्षण में हमें उस से बाहर भेज दिया गया।

एक बात से मुझे बहुत सन्तोष मिला। मैं अपने ब्रेकफास्ट के अन्न के पैकेट में अपनी खोज के नोट्स छिपाने में सफल रहा। यदि वे सेना के हाथ लग जाते तो पेशावर के कुछ लोग संकट में पड़ सकते थे। मैंने इस रिपोर्ट को विजयी भाव से मुम्बई जाकर प्रकाशित कर दिया। तुरन्त ही उसे सम्राट के नाम पर जब्त कर लिया गया और यद्यपि यह कालान्तर में लंदन में छपी, कई बरसों तक मैं इसकी मूल प्रतिलिपि पाने में असमर्थ रहा।

अब मुम्बई में हमें दूसरी समस्या का सामना करना पड़ा। शामराव इंग्लैंड लौट आया था और आदिवासियों के हित में कार्य करने के लिए उसने अपनी शिक्षा का बलिदान कर दिया था। मेरी स्वयं की भी यही इच्छा थी। लेकिन गांधी जी की गिरफ्तारी और सेन्ट्रेल प्रोविन्सेज से मेरे निकाले जाने के बाद ऊपर राजनीति में आने के लिए बहुत दबाव डाला जाने लगा। उदाहरण के लिए कांग्रेस अब अध्यक्षों को नियुक्त करने के लिए योजना बना रही थी जिसमें हर जाति और वर्ग को शामिल किया जाना था, और जमनालालजी ने मुझसे पूछा कि जब किसी अंग्रेज की यह उच्च पद ग्रहण करने की बारी आएगी तो क्या मैं अपनी स्वीकृति दे दूँगा। उन्होंने बताया कि अध्यक्ष को अधिक कार्य नहीं करना होता क्योंकि नियुक्ति के एक सप्ताह के अन्दर ही मुझे गिरफ्तार कर लिया जाएगा। मैंने उन्हें अपनी स्वीकृति दे दी और कभी-कभी मैं आश्चर्यपूर्वक सोचता हूँ कि यदि यह सब क्रियान्वित हो जाता तो मेरे साथ क्या गुज़रती।


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