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गजलें और शायरी >> मौसम आते जाते हैं

मौसम आते जाते हैं

निदा फाजली

प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :159
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4844
आईएसबीएन :81-288-0941-5

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निदा फाजली की गजलों व नज्मों का बेहतरीन संकलन...

Mausam Aate Jate Hain

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

हिन्दी-उर्दू काव्य प्रेमियों के बीच समान रूप से लोकप्रिय और सम्मानित निदा फाजली समकालीन उर्दू साहित्य के उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं।
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं जमीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता

जैसे कालजयी शे’र कहने वाले निदा फाजली की गजलें और नज्में वर्तमान युग की सभी विसंगतियों को रेखांकित करती हुई, अँधेरे रास्तों में उम्मीदों की नयी किरणें बिखेरती हैं।
निदा फाजली की गजलों और नज्मों का बेहतरीन संकलन।

प्राक्कथन

हिन्दी-उर्दू काव्य प्रेमियों के बीच समान रूप से लोकप्रिय और सम्मानित निदा फाजली शायरी के क्षेत्र में इतना महत्वपूर्ण स्थान बना चुके हैं कि उनके उल्लेख के बिना समकालीन उर्दू शायरी का प्रामाणिक इतिहास लिखा जाना सम्भव नहीं है।

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता

जैसे कालजयी शे’र कहने वाले निदा फ़ाज़ली उन दिनों से हिन्दी पाठकों के प्रिय हैं, जिन दिनों हिन्दी के पाठक मीर, ग़ालिब, इकबाल फ़िराक़, आदि के अलावा शायद ही किसी नये उर्दू शायर को जानते हों। आठवें दशक के आरम्भ में ही उनके अनेक शे’र हिन्दी की लाखों की संख्या में छपने वाली पत्रिकाओं धर्मयुग, सारिका आदि के माध्यम से हिन्दी पाठकों के बीच लोकप्रिय हो चुके थे और अधिकांश हिन्दी पाठक उन्हें हिन्दी का ही कवि समझते थे।

नक़्शा उठा के कोई नया शहर ढूँढ़िये
इस शहर में तो सबसे मुलाक़ात हो गयी
रस्ते में वो मिला था, मैं बचकर गुज़र गया
उसकी फटी कमीज़ मिरे साथ हो गयी

वर्तमान युग की सभी विसंगतियों के बीच से रास्ता निकालती हुई, निदा फ़ाज़ली की ग़ज़लें और नज्म़ें अपने युग को इस तरह रेखांकित करती हैं कि पाठक को उनकी शायरी अपने अंतर्मन की अभिव्यक्ति तो लगती ही है, साथ ही उसे निराशा के अँधेरों से बाहर लाकर आशाओं के उजालों की ओर अग्रसर होने को प्रेरित भी करती है। तमसो मा ज्योतिर्गमय।
हिन्दी के महाकवियों ने ब्रज और अवधी में दोहे को इतनी ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया कि आधुनिक हिन्दी कवियों को उसमें अब और सम्भावनाएँ नज़र नहीं आयीं, विशेष रूप से हिन्दी की खड़ी बोली के लिए तो इसे उपयुक्त ही नहीं समझा गया। यद्यपि उर्दू के कुछ समकालीन कवियों ने इसे अपनाया लेकिन इस का रूप प्रायः विकृत हो गया। 13+11=24 मात्राएँ अंत में गुरु लघु का क्रम, इस अनुशासन का पालन नहीं हो सका। एक अलग रूप बन गया, जिसे बहुत से उर्दू वाले आज भी दोहा जानते हैं। पिछले एक दशक से हिन्दी में फिर दोहे की बहार है। लेकिन इस बहार में एक भी फूल ऐसा नहीं खिला, जिसकी रंग-ओ-खुशबू किसी काव्य प्रेमी को अपनी ओर आकृष्ट कर सके। जोर आज़माइशो आज भी जारी है। हिन्दी के इसी छन्द में जब निदा फ़ाज़ली ने कहा-
मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की, बिन चिट्ठी, बिन तार

तो लगा कि खड़ी बोली में भी उच्चकोटि के दोहे लिखे जा सकते हैं और निदा से प्रेरित होकर बहुत से हिन्दी कवि इस ओर दौड़ पड़े। ग़ज़ल न सही, दोहा ही सही।
फ़रवरी 1997 के प्रथम सप्ताह में कोलकाता के साल्ट लेक स्टेडियम में आयोजित जनवादी लेखक संघ के अखिल भारतीय अधिवेशन में निदा फ़ाज़ली से पहली बार मुलाक़ात हुई, तो ऐसा लगा जैसे बरसों की जान-पहचान हो। उस अवसर पर आयोजित मुशायरे का संचालन उन्होंने ही किया। एक अपूर्व साहित्यिक वातावरण, अविस्मरणीय शाम गुज़री। उसके बाद जब भी फोन पर बात हुई, वही आत्मीयता, वही अपनापन। बड़ा रचनाकार, बड़ा व्यक्ति। सोना और सुगंधयुक्त।
‘मौसम आते जाते हैं’ में उनकी प्रसिद्ध और प्रतिनिधि ग़ज़लों और नज़्मों को शामिल किया गया है। बहुत-सी रचनाएँ हिन्दी के पाठकों को पहली बार पढ़ने को मिलेंगी। प्रयास किया गया है कि उनकी श्रेष्ठ रचनाओं का एक प्रामाणिक संकलन देवनागरी में सामने आए। इस प्रयास में कितनी सफलता मिली है, इसका निर्णय तो आप ही करेंगे।
सुरेश कुमार

ग़ज़लें

(1)

कभी किसी को मुकम्मल1 जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आस्माँ नहीं मिलता

बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता

तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो
जहाँ उमीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता

कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें
छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता

ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं
ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता

चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है
खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता

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1.सम्पूर्ण

(2)

(पाकिस्तान से लौटने के बाद)

इन्सान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी
अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहाँ भी

खूँख़्वार दरिन्दों के फ़क़त नाम अलग हैं
शहरों में बयाबान यहाँ भी है वहाँ भी

रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत
हर खेल का मैदान यहाँ भी है वहाँ भी

हिन्दू भी मज़े में है मुसलमाँ भी मज़े में
इन्सान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी

उठता है दिल-ओ-जाँ से धुआँ दोनों ही तरफ़
ये ‘मीर’ का दीवान1 यहाँ भी है वहाँ भी

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1.उर्दू के महान कवि मीर तक़ी मीर, जिनका प्रसिद्ध शेर है-

देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ-सा कहाँ से उठता है

(3)

बदला न अपने आपको जो थे वही रहे
मिलते रहे सभी से अजनबी रहे

अपनी तरह सभी को किसी की तलाश थी
हम जिसके भी क़रीब रहे दूर ही रहे

दुनिया न जीत पाओ तो हारो न खुद को तुम
थोड़ी बहुत तो जे़हन में नाराज़गी रहे

गुज़रो जो बाग़ से तो दुआ माँगते चलो
जिसमें खिले हैं फूल वो डाली हरी रहे

हर वक़्त हर मकाम पे हँसना मुहाल1 है
रोने के वास्ते भी कोई बेकली रहे

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1.कठिन।

(4)

सफ़र में धूप तो होगी जो चल सको तो चलो
सभी हैं भीड़ में तुम भी निकल सको तो चलो

यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता
मुझे गिरा के अगर तुम सँभल सको तो चलो

हर इक सफ़र को है महफूज़1 रास्तों की तलाश
हिफ़ाज़तों की रवायत बदल सको तो चलो

यही है ज़िन्दगी, कुछ ख़्वाब, चन्द उम्मीदें
इन्हीं खिलौनों से तुम भी बहल सको तो चलो

किसी के वास्ते राहें कहाँ बदलती हैं
तुम अपने आपको खुद ही बदल सको तो चलो

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1.सुरक्षित।

(5)

हम हैं कुछ अपने लिए कुछ हैं ज़माने के लिए
घर से बाहर की फ़ज़ा हँसने-हँसाने के लिए
यूँ लुटाते न फिरो मोतियों वाले मौसम
ये नगीने तो हैं रातों को सजाने के लिए

अब जहाँ भी हैं वहीं तक लिखो रूदाद-ए-सफ़र1
हम तो निकले थे कहीं और ही जाने के लिए

मेज़ पर ताश के पत्तों-सी सजी है दुनिया
कोई खोने के लिए है कोई पाने के लिए

तुमसे छुट कर भी तुम्हें भूलना आसान न था
तुमको ही याद किया तुमको भुलाने के लिए

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1.यात्रा वृत्तान्त।

(6)

कहीं-कहीं से हर चेहरा तुम जैसा लगता है
तुम को भूल न पायेंगे हम, ऐसा लगता है

ऐसा भी इक रंग है जो करता है बातें भी
जो भी इसको पहन ले वो अपना-सा लगता है

तुम क्या बिछड़े भूल गये रिश्तों की शराफ़त हम
जो भी मिलता है कुछ दिन ही अच्छा लगता है

अब भी यूँ मिलते हैं हमसे फूल चमेली के
जैसे इनसे अपना कोई रिश्ता लगता है

और तो सब कुछ ठीक है लेकिन कभी-कभी यूँ ही
चलता-फिरता शहर अचानक तनहा लगता है

(7)

बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता

सब कुछ तो है क्या ढूँढ़ती रहती हैं निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यों नहीं जाता

वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में
जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता

मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता

वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा, न बदन है
वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता

(8)

हर तरफ़ हर जगह बेशुमार आदमी
फिर भी तनहाइयों का शिकार आदमी

सुबह से शाम तक बोझ ढोता हुआ
अपनी ही लाश का खुद मज़ार आदमी

हर तरफ़ भागते-दौड़ते रास्ते...!
हर तरफ़ आदमी का शिकार आदमी

रोज़ जीता हुआ रोज़ मरता हुआ
हर नये दिन, नया इन्तज़ार आदमी

ज़िन्दगी का मुकद्दर सफ़र-दर-सफ़र1
आख़िरी साँस तक बेक़रार आदमी

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1.यात्रा पर यात्रा।

(9)

मन बैरागी, तन अनुरागी, क़दम-क़दम दुश्वारी है
जीवन जीना सहल न जानो, बहुत बड़ी फ़नकारी1 है

औरों जैसे होकर भी हम बाइज़्ज़त हैं बस्ती में
कुछ लोगों का सीधापन है, कुछ अपनी अय्यारी2 है

जब-जब मौसम झूमा हमने कपड़े फाड़े, शोर किया
हर मौसम शाइस्ता3 रहना कोरी दुनियादारी है

ऐब नहीं है उसमें कोई, लाल-परी ना फूल-गली
ये मत पूछो वो अच्छा है या अच्छी नादारी है

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1.कलाकारी। 2.चालाकी, धूर्तता। 3.सभ्य, शिष्ट।

(10)

अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं
रुख़ हवाओं का जिधर का है, उधर के हम हैं

पहले हर चीज थी अपनी मगर अब लगता है
अपने ही घर में, किसी दूसरे घर के हम हैं

वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों से
किसको मालूम, कहाँ के हैं, किधर के हम हैं

जिस्म से रूह तलक अपने कई आलम हैं
कभी धरती के, कभी चाँद-नगर के हम हैं

चलते-रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं किस राहगुज़र के हम हैं

गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम
हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं

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