गजलें और शायरी >> फूलों की कश्तियाँ फूलों की कश्तियाँमंजूर हाशमी
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मंजूर हाशमी की गजलें
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
समकालीन उर्दू शायरी में अपनी एक अलग पहचान
बनाने वाले मंजूर हाशमी की
गजलों को भारत ही में नहीं, अपितु पाकिस्तान सहित समस्त उर्दू जगत् में
बेहद सम्मान और लोकप्रियता प्राप्त है।
कभी-कभी तो वो इतनी रसाई देता है
कि सोचता है तो मुझको सुनाई देता है
कि सोचता है तो मुझको सुनाई देता है
जैसा लोकप्रिय शे’र कहने वाले
मंजूर हाशमी मूलरूप से प्रकृति,
प्रेम और सौंदर्य के शायर हैं, फिर भी उनके शे’रों में आज की
सामाजिक विसंगतियों की आहट स्पष्ट सुनाई देती है। घोर निराशा के क्षणों
में भी इनकी गजलें जीवन के प्रति आस्था और उम्मीद जगाती हैं।
मंजूर हाशमी की मर्मस्पर्शी गजलों का हिन्दी में पहला संकलन।
मंजूर हाशमी की मर्मस्पर्शी गजलों का हिन्दी में पहला संकलन।
प्राक्कथन
समकालीन उर्दू शायरी के उपवन में एक अलग रंग
और ख़ुशबू
वाले फूल खिलाने वाले मंजूर हाशमी का नाम हिन्द-ओ-पाक में बड़े सम्मान के
साथ लिया जाता है।
आज से कोई पच्चीस बरस पहले अलीगढ़ की राजकीय औद्योगिक एवं कृषि प्रदर्शनी में आयोजित कुल हिन्द मुशायरे का संचालन करते हुए कुँवर मोहिन्दर सिंह बेदी की नज़र श्रोताओं की दूसरी कतार में बैठे हुए एक शख़्स पर पड़ी और उन्होंने एक शे’र पढ़ा-
आज से कोई पच्चीस बरस पहले अलीगढ़ की राजकीय औद्योगिक एवं कृषि प्रदर्शनी में आयोजित कुल हिन्द मुशायरे का संचालन करते हुए कुँवर मोहिन्दर सिंह बेदी की नज़र श्रोताओं की दूसरी कतार में बैठे हुए एक शख़्स पर पड़ी और उन्होंने एक शे’र पढ़ा-
कभी-कभी तो वो इतनी रसाई देता है
कि सोचता है तो मुझको सुनाई देता है
कि सोचता है तो मुझको सुनाई देता है
फिर बोले-‘ये शे’र जिस
शायर का है, उसकी
ख्याति हिन्दोस्तान की सरहदों को पार कर चुकी है। मैं श्रोताओं में बैठे
हुए मंजूर हाशमी साहब का इस्तिकबाल करता हूँ।’ मंजूर हाशमी बड़ी
विनम्रता के साथ खड़े हो गये। पण्डाल तालियों से गूँज उठा। यहीं मैंने
मंजूर हाशमी को पहली बार देखा था। उनसे और उनकी शायरी से आत्मीय परिचय बाद
में हुआ।
मंजूर हाशमी को मैं एक सीधे-सच्चे दोस्त और नेक इन्सान के रूप में जानता हूँ। वे जितने सरल और सहृदय अपनी शायरी में नज़र आते हैं उतने ही व्यवहार में भी हैं। अपने और अपनी शायरी के प्रचार-प्रसार से दूर वे शायरी करते नहीं बल्कि उसे जीते हैं। अपनी बेहतरीन शायरी के दम पर वे उर्दू जगत में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। दुबई, दोहा, कतर, पाकिस्तान, अमरीका आदि की साहित्यिक यात्राएँ कर चुके मंजूर हाशमी कभी किसी जोड़-तोड़ या साहित्यिक खेमेबन्दी में शामिल नहीं होते।
मंजूर हाशमी मूल रूप से ग़ज़ल के शायर हैं। उनका शे’र कहने का अपना एक अलग अन्दाज़ है।
मंजूर हाशमी को मैं एक सीधे-सच्चे दोस्त और नेक इन्सान के रूप में जानता हूँ। वे जितने सरल और सहृदय अपनी शायरी में नज़र आते हैं उतने ही व्यवहार में भी हैं। अपने और अपनी शायरी के प्रचार-प्रसार से दूर वे शायरी करते नहीं बल्कि उसे जीते हैं। अपनी बेहतरीन शायरी के दम पर वे उर्दू जगत में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। दुबई, दोहा, कतर, पाकिस्तान, अमरीका आदि की साहित्यिक यात्राएँ कर चुके मंजूर हाशमी कभी किसी जोड़-तोड़ या साहित्यिक खेमेबन्दी में शामिल नहीं होते।
मंजूर हाशमी मूल रूप से ग़ज़ल के शायर हैं। उनका शे’र कहने का अपना एक अलग अन्दाज़ है।
उसे ख़बर भी नहीं इस क़दर तअल्लुक़ की
वो धूप में है, पसीने में हम नहाते हैं
वो धूप में है, पसीने में हम नहाते हैं
उनके शे’र घोर निराशा के अँधेरों
में भी उम्मीद की एक किरण जगा
जाते हैं।
शाख़ें रहीं तो फूल भी पत्ते भी आयेंगे
ये दिन अगर बुरे हैं तो अच्छे भी आयेंगे
यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी लेकर चिराग़ जलता है
ये दिन अगर बुरे हैं तो अच्छे भी आयेंगे
यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी लेकर चिराग़ जलता है
प्रेम, सौंदर्य और प्रकृति इनकी ग़ज़लों का
मूल स्वर है,
फिर भी आज की सामाजिक और राजनीतिक विसंगतियों से भी उनकी शायरी बेनियाज़
नहीं है।
उन्हीं पत्तों पे मिट्टी मल रही है
हवा जिनकी बदौलत चल रही है
वो तीर छोड़ा हुआ तो उसी कमान का था
अगरचे हाथ किसी और मेहरबान का था
हवा जिनकी बदौलत चल रही है
वो तीर छोड़ा हुआ तो उसी कमान का था
अगरचे हाथ किसी और मेहरबान का था
‘फूलों की कश्तियाँ’
मंजूर हाशमी की ग़ज़लों
का देवनागरी में पहला संकलन है। उर्दू में प्रकाशित उनके ग़ज़ल संग्रहों
‘बारिश’ और ‘आब’ से तो इनका चयन
किया ही है साथ
ही उनकी कुछ ताज़ा ग़ज़लों को भी इसमें शामिल किया गया है।
मुझे यक़ीन है कि हिन्दी के पाठकों को यह संग्रह बेहद पसन्द आयेगा और वे मंजूर हाशमी की ग़ज़लों में अपने दिल की धड़कनें महसूस करेंगे।
मुझे यक़ीन है कि हिन्दी के पाठकों को यह संग्रह बेहद पसन्द आयेगा और वे मंजूर हाशमी की ग़ज़लों में अपने दिल की धड़कनें महसूस करेंगे।
सुरेश कुमार
(1)
कभी-कभी तो वो इतनी रसाई1 देता है
कि सोचता है तो, मुझको सुनायी देता है
कभी वो हिज्र के मौसम में दिल में खिलता है
कभी विसाल की सूरत जुदाई देता है
न जाने देख लिया क्या, हमारी आँखों ने
कि अब तो एक ही मंज़र दिखायी देता है
अजीब बात है, वो एक-सी ख़ताओं पर
किसी को कै़द, किसी को रिहाई देता है
अगर वो नाम तुम्हारा नहीं, तो किस का है ?
हवा के शोर में अक्सर सुनायी देता है
चलो वो झूट था, जो कुछ सुना था कानों ने
तो फिर इन आँखों को, ये क्या दिखायी देता है
---------------------------------------------------------------------------------कि सोचता है तो, मुझको सुनायी देता है
कभी वो हिज्र के मौसम में दिल में खिलता है
कभी विसाल की सूरत जुदाई देता है
न जाने देख लिया क्या, हमारी आँखों ने
कि अब तो एक ही मंज़र दिखायी देता है
अजीब बात है, वो एक-सी ख़ताओं पर
किसी को कै़द, किसी को रिहाई देता है
अगर वो नाम तुम्हारा नहीं, तो किस का है ?
हवा के शोर में अक्सर सुनायी देता है
चलो वो झूट था, जो कुछ सुना था कानों ने
तो फिर इन आँखों को, ये क्या दिखायी देता है
1.पहुँच, प्रवेश।
(2)
शाख़ें रहीं तो फूल भी पत्ते भी आयेंगे
ये दिन अगर बुरे हैं तो अच्छे भी आयेंगे
इस घर में फूल जैसे फ़रिश्ते भी आयेंगे
स्कूल जब ख़ुलेंगे, तो बच्चे भी आयेंगे
सूरज, निकल तो आयेगा उस शब के बाद भी
इसका यक़ीं नहीं कि उजाले भी आयेंगे
टूटी हुई कमान को अब तक ये आस है
इक दिन उसे सँभालने वाले भी आयेंगे
खु़शबू बता रही है ये सूखी ज़मीन की
इस दश्त ही में सब्ज़ इलाक़े भी आयेंगे
शाख़-ए-बदन1 फूल खिलाने की रुत तो आए
बादल ज़मीन-ए-दिल2 पे बरसने भी आयेंगे
----------------------------------------------------------------------------------ये दिन अगर बुरे हैं तो अच्छे भी आयेंगे
इस घर में फूल जैसे फ़रिश्ते भी आयेंगे
स्कूल जब ख़ुलेंगे, तो बच्चे भी आयेंगे
सूरज, निकल तो आयेगा उस शब के बाद भी
इसका यक़ीं नहीं कि उजाले भी आयेंगे
टूटी हुई कमान को अब तक ये आस है
इक दिन उसे सँभालने वाले भी आयेंगे
खु़शबू बता रही है ये सूखी ज़मीन की
इस दश्त ही में सब्ज़ इलाक़े भी आयेंगे
शाख़-ए-बदन1 फूल खिलाने की रुत तो आए
बादल ज़मीन-ए-दिल2 पे बरसने भी आयेंगे
1.शरीर की डाली। 2.हृदय की धरा।
(3)
अजीब रंग, मिरे धूप के दियार1 में था
शजर, खुद अपने ही साये के इन्तज़ार में था
न जाने, कौन से मौसम में, फूल खिलते हैं
यही सवाल ख़िज़ाँ2 में, यही बहार में था
हर एक सम्त हवा के अज़ीम3 लश्कर थे
और इक चिराग़ ही, मैदान-ए-कारज़ार4 में था
खिंची हुई थी मिरे गर्द, वाहिमों5 की लकीर
मैं क़ैद, अपने बनाये हुए हिसार6 में था
कोई मकीं था, न मेहमान आने वाला था
तो फिर किवाड़ खुला, किस के इन्तज़ार में था
मिरे शजर पे, मगर फूल-फल नहीं आये
वो यूँ तो फलते दरख़्तों ही की क़तार में था
---------------------------------------------------------------------------------शजर, खुद अपने ही साये के इन्तज़ार में था
न जाने, कौन से मौसम में, फूल खिलते हैं
यही सवाल ख़िज़ाँ2 में, यही बहार में था
हर एक सम्त हवा के अज़ीम3 लश्कर थे
और इक चिराग़ ही, मैदान-ए-कारज़ार4 में था
खिंची हुई थी मिरे गर्द, वाहिमों5 की लकीर
मैं क़ैद, अपने बनाये हुए हिसार6 में था
कोई मकीं था, न मेहमान आने वाला था
तो फिर किवाड़ खुला, किस के इन्तज़ार में था
मिरे शजर पे, मगर फूल-फल नहीं आये
वो यूँ तो फलते दरख़्तों ही की क़तार में था
1.स्थान। 2.पतझड़। 3.विशाल। 4.युद्धस्थल। 5.भ्रमों, कल्पनाओं। 6.परिधि, घेरा।
(4)
अंगारों को फूल बनाना, फ़न1 मेरा
भरा रहा, हर मौसम में दामन मेरा
रात हुई थी छत पर बारिश चाँदी की
सुबह भरा था सोने से आँगन मेरा
उस के नाम का इक इक हर्फ़ चमकता है
उस के इस्म2 से, हर रस्ता रोशन मेरा
खिला हुआ है फूल-सा चेहरा आँखों में
महक उठा है, ख़ुशबू से तन-मन मेरा
बारिश के, हर मौसम में, ये सोचता हूँ
शायद अब के आ जाये सावन मेरा
सब कहते हैं, बड़ा ख़ज़ाना निकलेगा !
कोई नहीं करता लेकिन मन्थन मेरा
अब इस उम्र में, देख के, कितना हैराँ हूँ
हमक3 रहा है घर में फिर बचपन मेरा
-----------------------------------------------------------------------------------भरा रहा, हर मौसम में दामन मेरा
रात हुई थी छत पर बारिश चाँदी की
सुबह भरा था सोने से आँगन मेरा
उस के नाम का इक इक हर्फ़ चमकता है
उस के इस्म2 से, हर रस्ता रोशन मेरा
खिला हुआ है फूल-सा चेहरा आँखों में
महक उठा है, ख़ुशबू से तन-मन मेरा
बारिश के, हर मौसम में, ये सोचता हूँ
शायद अब के आ जाये सावन मेरा
सब कहते हैं, बड़ा ख़ज़ाना निकलेगा !
कोई नहीं करता लेकिन मन्थन मेरा
अब इस उम्र में, देख के, कितना हैराँ हूँ
हमक3 रहा है घर में फिर बचपन मेरा
1.कला, गुण। 2.नाम, संज्ञा। 3.उछलना।
(5)
मुझ से वो चाल चल गया कैसे
पास आकर बदल गया कैसे
था तिरा लम्स1 मो’जज़ा2 वरना
सूखता पेड़ फल गया कैसे
एक लम्हे को आँख झपकी थी
सारा मंज़र बदल गया कैसे
जिसके आने का इन्तज़ार रहा
बस वही लम्हा टल गया कैसे
वक़्त जादूगरी दिखाता है
वरना ये दिल बहल गया कैसे
कैफ़-ओ-मस्ती3 में झूमता मौसम
जिस्म में तेरे ढल गया कैसे
----------------------------------------------------------------------------------पास आकर बदल गया कैसे
था तिरा लम्स1 मो’जज़ा2 वरना
सूखता पेड़ फल गया कैसे
एक लम्हे को आँख झपकी थी
सारा मंज़र बदल गया कैसे
जिसके आने का इन्तज़ार रहा
बस वही लम्हा टल गया कैसे
वक़्त जादूगरी दिखाता है
वरना ये दिल बहल गया कैसे
कैफ़-ओ-मस्ती3 में झूमता मौसम
जिस्म में तेरे ढल गया कैसे
1.स्पर्श। 2.चमत्कार। 3.आनन्द और उन्माद।
(6)
दामन-ए-शौक़1 को, फूलों से भरा रखना था
कोई मौसम हो, हर इक ज़ख़्म हरा रखना था
जीत मुमकिन थी, हमारी तो उसी सूरत में
दाँव पर और भी, कुछ जाँ के सिवा रखना था
याद आता है बहुत, बे-सर-ओ-सामानी2 में
खो दिया वो भी, जो इक हर्फ़-ए-दुआ3 रखना था
शहर-ए-उम्मीद4 में, अब बन्द पड़े सोचते हैं
वापसी का, कोई दरवाज़ा खुला रखना था
साथ देना था हवाओं का भी कुछ देर तलक
और चिराग़ों को भी, ता-सुबह5 जला रखना था
------------------------------------------------------------------------------कोई मौसम हो, हर इक ज़ख़्म हरा रखना था
जीत मुमकिन थी, हमारी तो उसी सूरत में
दाँव पर और भी, कुछ जाँ के सिवा रखना था
याद आता है बहुत, बे-सर-ओ-सामानी2 में
खो दिया वो भी, जो इक हर्फ़-ए-दुआ3 रखना था
शहर-ए-उम्मीद4 में, अब बन्द पड़े सोचते हैं
वापसी का, कोई दरवाज़ा खुला रखना था
साथ देना था हवाओं का भी कुछ देर तलक
और चिराग़ों को भी, ता-सुबह5 जला रखना था
1.अभिलाषा का आँचल। 2.जीवन की आवश्यक सामग्री। 3.प्रार्थना का शब्द। 4.आशाओं का नगर। 5.प्रातःकाल तक।
(7)
खुलता नहीं, वो उसका रवैया अजीब है
मेरे क़रीब है कभी उसके क़रीब है
घर से निकल पड़े हैं, तो क्या दश्त, क्या चमन
अब रास्ता है, और हमारा नसीब है
अब तो मिरे बक़ा1 की ज़मानत-सी हो गयी
यूँ तो फ़क़त दुखों की अलामत सलीब है
जब अपने आप से भी बहुत दूर हो गये
तब ये पता चला कि वो कितना क़रीब है
यूँ देखिए तो कोई बड़ी बात भी नहीं
पर सोचिए, तो वाक़या कितना अजीब है
लाखों बरस की अपनी विरासत के बावजूद
आदम-नज़ाद2 आज भी कितना ग़रीब है
------------------------------------------------------------------------------मेरे क़रीब है कभी उसके क़रीब है
घर से निकल पड़े हैं, तो क्या दश्त, क्या चमन
अब रास्ता है, और हमारा नसीब है
अब तो मिरे बक़ा1 की ज़मानत-सी हो गयी
यूँ तो फ़क़त दुखों की अलामत सलीब है
जब अपने आप से भी बहुत दूर हो गये
तब ये पता चला कि वो कितना क़रीब है
यूँ देखिए तो कोई बड़ी बात भी नहीं
पर सोचिए, तो वाक़या कितना अजीब है
लाखों बरस की अपनी विरासत के बावजूद
आदम-नज़ाद2 आज भी कितना ग़रीब है
1.अस्तित्व। 2.मूल पुरुष का वंश।
(8)
जानता हूँ, कि मिरे हाथ तो जल जायेंगे
राख में दफ़्न जो शोले हैं, निकल जायेंगे
ये जो इक तुम से तअल्लुक़ है, उसे तोड़ना मत
वरना इस लफ़्ज के मा’नी ही बदल जायेंगे
कोई आवाज़, इसी सम्त से फिर आयेगी
हम भी, फिर इसके तअक़्क़ुब1 में निकल जायेंगे
फिर कोई चेहरा, अँधेरे में किरन की सूरत
फैलता जायेगा, और दीप से जल जायेंगे
लौट कर आने से पहले, कभी सोचा भी न था
हम किसी और सफ़र पर भी, निकल जायेंगे
डूबने वालों से, दरिया ने कहा था ‘आओ’
मेरे पानी से, सभी पार निकल जायेंगे
शाहराहें2 तो, उसी शहर तलक जाती थीं
फिर भी डर था, कि कहीं और निकल जायेंगे
चन्द क़तरे भी, समन्दर में अगर ज़िन्दा है
बढ़ते-बढ़ते वही,तूफ़ान में ढल जायेंगे
----------------------------------------------------------------------------------राख में दफ़्न जो शोले हैं, निकल जायेंगे
ये जो इक तुम से तअल्लुक़ है, उसे तोड़ना मत
वरना इस लफ़्ज के मा’नी ही बदल जायेंगे
कोई आवाज़, इसी सम्त से फिर आयेगी
हम भी, फिर इसके तअक़्क़ुब1 में निकल जायेंगे
फिर कोई चेहरा, अँधेरे में किरन की सूरत
फैलता जायेगा, और दीप से जल जायेंगे
लौट कर आने से पहले, कभी सोचा भी न था
हम किसी और सफ़र पर भी, निकल जायेंगे
डूबने वालों से, दरिया ने कहा था ‘आओ’
मेरे पानी से, सभी पार निकल जायेंगे
शाहराहें2 तो, उसी शहर तलक जाती थीं
फिर भी डर था, कि कहीं और निकल जायेंगे
चन्द क़तरे भी, समन्दर में अगर ज़िन्दा है
बढ़ते-बढ़ते वही,तूफ़ान में ढल जायेंगे
1.पीछा करना। 2.राजपथ।
(9)
निकालता है अँधेरों से रोशनी की किरन
बुझे दिलों को ज़ियाबार1 भी बनाता है
कोई सफ़ीना जो मौजों के नाम करता है
तू एक इस्म को पतवार भी बनाता है
बदलता रहता है वो इख़्तियार के मौसम
कि बादशाह को लाचार भी बनाता है
सुलगने लगते हैं जब धूप की तमाज़त2 से
धुएँ को अब्र-ए-गुबरबार3 भी बनाता है
---------------------------------------------------------------------------------बुझे दिलों को ज़ियाबार1 भी बनाता है
कोई सफ़ीना जो मौजों के नाम करता है
तू एक इस्म को पतवार भी बनाता है
बदलता रहता है वो इख़्तियार के मौसम
कि बादशाह को लाचार भी बनाता है
सुलगने लगते हैं जब धूप की तमाज़त2 से
धुएँ को अब्र-ए-गुबरबार3 भी बनाता है
1.प्रकाश फैलाने वाला। 2.सूरज की गर्मी। 3.मोती बरसाने वाला बादल।
(10)
जाने किस-किस को मददगार बना देता है
वो तो तिनके को भी पतवार बना देता है
इक इक ईंट गिराता हूँ मैं दिन भर लेकिन
रात में फिर कोई दीवार बना देता है
वो कुछ ऐसा है गुज़रता है उधर से जब भी
शहर को मिस्र का बाज़ार बना देता है
लफ़्ज उन होंटों पे, फूलों की तरह खिलते हैं
बात करता है तो गुलज़ार बना देता है
मस्अला1 ऐसा नहीं है, मिरा हमदर्द मगर
कुछ उसे और भी दुश्वार बना देता है
जंग हो जाए हवाओं से तो हर एक शजर2
नर्म शाख़ों को भी तलवार बना देता है
---------------------------------------------------------------------------------वो तो तिनके को भी पतवार बना देता है
इक इक ईंट गिराता हूँ मैं दिन भर लेकिन
रात में फिर कोई दीवार बना देता है
वो कुछ ऐसा है गुज़रता है उधर से जब भी
शहर को मिस्र का बाज़ार बना देता है
लफ़्ज उन होंटों पे, फूलों की तरह खिलते हैं
बात करता है तो गुलज़ार बना देता है
मस्अला1 ऐसा नहीं है, मिरा हमदर्द मगर
कुछ उसे और भी दुश्वार बना देता है
जंग हो जाए हवाओं से तो हर एक शजर2
नर्म शाख़ों को भी तलवार बना देता है
1.समस्या। 2.वृक्ष।
(11)
एक मौहूम-से1 मंज़र की तरह लगता है
दश्त2, अब बिछड़े हुए घर की तरह लगता है
मेरे हाथों की लकीरों में नहीं लिक्खा था
अब जो अहवाल3, मुकद्दर की तरह लगता है
कुछ इस अन्दाज़ से होती है नवाज़िश भी कभी
फूल भी आये, तो पत्थर की तरह लगता है
जब हवाओं में, कोई जलता दिया देखता हूँ
वो मिरे उठे हुए सर की तरह लगता है
शिद्दत-ए-तश्नालबी4, ज़र्फ़-ए-तलब5 ले डूबी
अब तो क़तरा भी समन्दर की तरह लगता है
तेज़ होता है, तो सीने में उतर जाता है
लफ्ज़ का वार भी, ख़ंज़र की तरह लगता है
---------------------------------------------------------------------------------------दश्त2, अब बिछड़े हुए घर की तरह लगता है
मेरे हाथों की लकीरों में नहीं लिक्खा था
अब जो अहवाल3, मुकद्दर की तरह लगता है
कुछ इस अन्दाज़ से होती है नवाज़िश भी कभी
फूल भी आये, तो पत्थर की तरह लगता है
जब हवाओं में, कोई जलता दिया देखता हूँ
वो मिरे उठे हुए सर की तरह लगता है
शिद्दत-ए-तश्नालबी4, ज़र्फ़-ए-तलब5 ले डूबी
अब तो क़तरा भी समन्दर की तरह लगता है
तेज़ होता है, तो सीने में उतर जाता है
लफ्ज़ का वार भी, ख़ंज़र की तरह लगता है
1.भ्रमात्मक-से। 2.जंगल। 3.स्थितियाँ (हाल का बहुवचन)। 4.तीव्र प्यास का कष्ट। 5.याचना का पात्र।
|
लोगों की राय
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