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भूतनाथ - भाग 1

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : शारदा प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1995
पृष्ठ :284
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4853
आईएसबीएन :81-85023-56-5

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भूतनाथ - भाग 1

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Bhootnath - Part 1 - A hindi book by Devkinandan Khatri


भूतनाथ, इक्कीस भाग व सात खण्डों में, ‘चन्द्रकान्ता’ व ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ की ही परम्परा और श्रृंखला का, बाबू देवकीनन्दन खत्री विरचित एक अत्यन्त लोकप्रिय और बहुचर्चित प्रसिद्ध उपन्यास है। ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ में ही बाबू देवकीनन्दन खत्री के अद्भुत पात्र भूतनाथ (गदाधर सिंह) ने अपनी जीवनी (जीवन-कथा) प्रस्तुत करने का संकल्प किया था। यह संकल्प वस्तुतः लेखक का ही एक संकेत था कि इसके बाद ‘भूतनाथ’ नामक बृहत् उपन्यास की रचना होगी। देवकीनन्दन खत्री की अद्भुत कल्पना-शक्ति को शत-शत नमन है। लाखों करोड़ों पाठकों का यह उपन्यास कंठहार बना हुआ है। जब यह कहा जाता है कि ‘चन्द्रकान्ता’ और ‘चन्द्रकान्ता-सन्तति’ उपन्यासों को पढ़ने के लिए लाखों लोगों ने हिन्दी भाषा सीखी तो इस कथन में ‘भूतनाथ’ भी स्वतः सम्मिलित हो जाता है क्योंकि ‘भूतनाथ’ उसी तिलिस्मी और ऐयारी उपन्यास परम्परा ही नहीं, उसी श्रृंखला का प्रतिनिधि उपन्यास है। कल्पना की अद्भुत उड़ान और कथारस की मार्मिकता इसे हिन्दी साहित्य की विशिष्ट रचना सिद्ध करती है। मनोरंजन का मुख्य उद्देश्य होते हुए भी इसमें बुराई और असत् पर अच्छाई और सत् की विजय का शाश्वत विधान ऐसा है जो इसे एपिक नॉवल (Epic Novel) यानी महाकाव्यात्मक उपन्यासों की कोटि में लाता है। ‘भूतनाथ’ का यह शुद्ध पाठ-सम्पादन और भव्य नवप्रकाशन, आशा है, पाठकों को विशेष रुचिकर प्रतीत होगा।

खण्ड-एक

पहिला भाग

 

मेरे पिता ने तो मेरा नाम गदाधरसिंह रक्खा था और बहुत दिनों तक मैं इसी नाम से प्रसिद्ध भी था परन्तु समय पड़ने पर मैंने अपना नाम भूतनाथ रख लिया था और इस समय यही नाम बहुत प्रसिद्ध हो रहा है. आज मैं श्रीमान् महाराज सुरेन्द्रसिंह जी की आज्ञानुसार अपनी जीवनी लिखने बैठा हूँ, परन्तु मैं इस जीवनी को वास्तव में जीवन के ढंग और नियम पर न लिख कर उपन्यास के ढंग पर लिखूँगा, क्योंकि यद्यपि लोगों का कथन यही है, ‘‘तेरी जीवनी से लोगों को नसीहत होगी’’ परन्तु ऐबों और भयानक घटनाओं से भरी हुई मेरी नीरस जीवनी कदाचित लोगों को रुचिकर न हो, इस खयाल से जीवनी का रास्ता छोड़ इस लेख को उपन्यास के रूप में लाकर रस पैदा करना ही मुझे आवश्यक जान पड़ा. प्रेमी पाठक महाशय यही समझें कि किसी दूसरे ही आदमी ने भूतनाथ का हाल लिखा है, स्वयं भूतनाथ ने नहीं, अथवा इसका लेखक कोई और ही है.

जेठ का महीना और शुक्ल-पक्ष की चतुर्दशी का दिन है. यद्यपि रात पहर-भर से कुछ ज्यादे जा चुकी है और आँखों में ठण्ढक पहुँचाने वाले चन्द्रदेव भी दर्शन दे रहे हैं परन्तु दिन भर की धूप और लू की बदौलत गरम भई हुई जमीन, मकानों की छतें और दीवारें अभी तक अच्छी तरह ठण्डी नहीं हुईं, अब भी कभी-कभी सहारा दे देने वाले हवा के झपटे में गर्मी मालूम पड़ती है और बदन से पसीना निकल रहा है. बाग में सैर करने वाले शौकीनों को भी पंखे की जरूरत है, और जंगल में भटकने वाले मुसाफिरों को भी पेड़ों की आड़ बुरी मालूम पड़ती है.

ऐसे समय में मिर्जापुर से बाईस कोस दक्खिन की तरफ हट कर छोटी-सी पहाड़ी के ऊपर जिस पर बड़े-बड़े घने पेड़ों की कमी तो नहीं है मगर इस समय पत्तों की कमी के सबब से जिसकी खूबसूरती नष्ट हो गई है, एक पत्थर की चट्टान पर हम ढाल-तलवार तथा तीर-कमान लगाए हुए दो आदमियों को बैठे देखते हैं जिनमें से एक औरत और दूसरा मर्द है. औरत की उम्र चौदह या पन्द्रह वर्ष की होगी मगर मर्द की उम्र बीस वर्ष से कम मालूम नहीं होती. यद्यपि इन दोनों की पोशाक मामूली सादी और बिल्कुल ही साधारण ढंग की है मगर सूरत-शक्ल से यही जान पड़ता है कि ये दोनों साधारण व्यक्ति नहीं हैं बल्कि किसी अमीर बहादुर और क्षत्री खानदान के होंनहार हैं. जिस तरह मर्द चपकन, पायजामा, कमरबन्द और मुड़ासा पहिरे हुए है उसी तरह औरत ने भी चपकन, पायजामा, कमरबन्द और मुड़ासे से अपनी सूरत मर्दाने ढंग की बना रक्खी है. यकायक सरसरी निगाह से देख कर कोई यह नहीं कह सकता कि यह औरत है, मगर हम खूब जानते हैं कि यह कमसिन औरत नौजवान लड़की है जिसकी खूबसूरती मर्दानी पोशाक पहिरने पर भी यकताई का दावा करती है, मगर जिसकी शर्मीली आँखें कहे देती हैं कि इसमें ढिठाई और दबंगता बिल्कुल नहीं हैं. इस समय ये दोनों परेशान और बद-हवास हैं, दिन-भर के चले और थके हुए हैं, चेहरे पर गर्द पड़ी है, सुस्त होकर पत्थर की चट्टान पर बैठ गए हैं. तथा रात्रि का समय भी है, इसलिए यहाँ पर इन दोनों की खूबसूरती तथा नखशिख का वर्णन करके हम श्रृंगार रस पैदा करना उचित नहीं समझ कर केवल इतना ही कह देना काफी समझते हैं कि ये दोनों सौ-दो-सौ खूबसूरतों में खूबसूरत हैं. इन दोनों की अवस्था इनकी बातचीत से जानी जायगी अस्तु आइए और छिप कर सुनिए कि इन दोनों में क्या बातें हो रही हैं.
औरत: वास्तव में हम लोग बहुत दूर निकल आए.

मर्द: अब हमें किसी का डर भी नहीं है.
औरत: है तो ऐसा ही परन्तु घोड़ों की तरफ से जरा-सा खुटका होता है, क्योंकि हम दोनों के मरे हुए घोड़े अगर कोई जान-पहिचान का आदमी देख लेगा तो जरूर इसी प्रान्त में हम लोगों को खोजेगा.
मर्द: फिर भी कोई चिन्ता नहीं, क्योंकि उन घोड़ों को भी हम लोग कम-से-कम दो कोस पीछे छोड़ आए हैं.
औरत: बेचारे घोड़े अगर मर न जाते तो हम लोग और भी कुछ दूर आगे निकल गए होते.
मर्द: यह गर्मी का जमाना, इतने कड़ाके की धूप और इस तेजी के साथ इतना लम्बा सफर करने पर भी घोड़े जिन्दा रह जायं तो बड़े ताज्जुब की बात है !!
औरत: ठीक है, अच्छा यह बताइए कि अब हम लोगों को क्या करना होगा ?
मर्द: इसके सिवाय और किसी बात की जरूरत नहीं है कि हम लोग किसी दूसरे राज्य की सरहद में जा पहुँचें. ऐसा हो जाने पर फिर हमें किसी का डर न रहेगा, क्योंकि हम लोग किसी का खून करके नहीं भागे हैं, न किसी की चोरी की है, और न किसी के साथ अन्याय या अधर्म करके भागे हैं, बल्कि एक अन्यायी हाकिम के हाथ से अपना धर्म बचाने के लिए भागे हैं. ऐसी अवस्था में किसी न्यायी राजा के राज्य में पहुँच जाते ही हमारा कल्याण होगा.
औरत: निःसन्देह ऐसा ही है, फिर आपने क्या विचार किया, किसके राज्य में जाने का इरादा है ?
मर्द: मुझे तो राजा सुरेन्द्रसिंह का राज्य बहुत ही पसन्द है, वह राजा धर्मात्मा और न्यायी हैं तथा उनका राज्य भी बहुत दूर नहीं है, यहाँ से केवल तीन ही चार कोस और आगे निकल चलने पर उनकी सरहद में पहुँच जायेंगे.
औरत: वाह वाह ! तो इससे बढ़ कर और क्या बात हो सकती है ! आप यहाँ क्यों अटके हुए हैं ? आगे बढ़ कर चलिए, जहाँ इतनी तकलीफ उठाई वहाँ थोड़ी और सही.

मर्द: मैं भी इसी खयाल में हूँ मगर अपने नौकरों का इन्तजार कर रहा हूँ क्योंकि उन्हें अपने से मिलने के लिए यही ठिकाना बताया हु्आ है.
औरत: जब राजा सुरेन्द्रसिंह की सरहद इतनी नजदीक है और रास्ता आपका देखा हुआ है तो ऐसी अवस्था में यहाँ ठहर कर नौकरों का इन्तजार करना मेरी राय में तो ठीक नहीं है.
मर्द: तुम्हारा कहना ठीक है और नौगढ़ का रास्ता भी मेरा देखा हुआ है परन्तु रात का समय है और इस तरफ का जंगल बहुत ही घना और भयानक है तथा रास्ता भी पथरीला और पेचीदा है, सम्भव है कि रास्ता भूल जाऊँ और किसी दूसरी ही तरफ जा निकलूँ. यदि मैं अकेला होता तो कोई गम न था मगर तुमको साथ लेकर रात्रि के समय भयानक जानवरों से भरे हुए ऐसे घने जंगल में घुसना उचित नहीं जान पड़ता. मगर देखो तो सही (गर्दन उठा कर और गौर से नीचे की तरफ देख कर) वे शायद हमारे ही आदमी तो आ रहे हैं ! मगर गिनतीमें कम मालूम होते हैं.
औरत: (गौर से देख कर) ये तो केवल तीन ही चार आदमी हैं, शायद कोई और हों.
मर्द: देखो ये लोग भी इसी पहाड़ी के ऊपर चले आ रहे हैं, अगर ये कोई और हैं तो उनका यहाँ आकर तुम्हें देख लेना अच्छा न होगा ! इसलिए मैं जरा आगे बढ़ कर देखता हूँ कि कौन हैं.

इतना कह कर वह नौजवान उठ खड़ा हुआ और उसी तरफ बढ़ा जिधर से वे लोग आ रहे थे. कुछ ही दूर आगे बढ़ने और पहाड़ी के नीचे उतरने पर उन लोगों का सामना हो गया. यद्यपि रात का समय था और केवल चांदनी ही का सहारा था, तथापि सामना होते ही एक ने दूसरे को पहिचान लिया. हमारे नौजवान को मालूम हो गया कि ये हमारे दुश्मन के आदमी हैं और उन लोगों को निश्चय हो गया कि हमारे मालिक को इसी नौजवान के गिरफ्तारी की जरूरत है.
ये लोग जो दूर से गिनती में तीन-चार मालूम पड़ते थे वास्तव में छः आदमी थे जो हर तरह से मजबूत और लड़ाई के सामान से दुरुस्त थे. ढाल-तलवार के अलावे सभों के कमर में खञ्जर और हाथ में नेजा था. उन सभों में से एक ने आगे बढ़कर नौजवान से कहा, ‘‘बड़ी खुशी की बात है कि आप स्वयम् हम लोगों के सामने चले आए. कल से हम लोग आपकी खोज में परेशान हो रहे हैं बल्कि सच तो यों है कि ईश्वर ही ने हम लोगों को यहाँ तक पहुंचा दिया और यहाँ आपका सामना हो गया. क्षमा कीजिएगा, आप हमारे अफसर और हाकिम रह चुके हैं इसलिए हम लोग आपके साथ बेअदबी नहीं करना चाहते मगर क्या करें मालिक के हुक्म से लाचार हैं, जिसका नमक खाते हैं. इस बात को हम लोग खूब जानते हैं कि आप बिल्कुल बेकसूर हैं और आप पर व्यर्थ ही जुल्म किया जा रहा है, परन्तु.....

नौजवान: ठीक है, ठीक है, मेरे प्यारे गुलाबसिंह ! मैं तुम्हें अभी तक वैसा ही समझता हूं और प्यार करता हूँ क्योंकि तुम वास्तव में नेक हो और मुझ से मुहब्बत रखते हो. तुम बेशक मुझे गिरफ्तार करने के लिए आये हो और मालिक के नमक का हक अदा किया चाहते हो, अस्तु मैं खुशी से तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि मुझे गिरफ्तार करके अपने मालिक के पास ले चलो, परन्तु क्षत्रियों का धर्म निबाहने के लिए मैं गिरफ्तार न होकर तुमसे लड़ाई अवश्य करूँगा, इसी तरह तुम्हें भी मेरा मुलाहिजा न करना चाहिए.
गुलाब.: ठीक है, बेशक ऐसा ही चाहिए, परन्तु (कुछ सोच कर) मेरा हाथ आपके ऊपर कदापि न उठेगा ! मुझे अपने जालिम मालिक की तरफ से बदनामी उठाना मंजूर है परन्तु आप ऐसे बहादुर और धर्मात्मा के आगे लज्जित होना स्वीकार नहीं है. हाँ मैं अपने साथियों को ऐसा करने के लिए मजबूर न करूँगा, ये लोग जो चाहें करें.
यह सुनते ही गुलाबसिंह के साथियों में से एक आदमी बोल उठा, ‘‘नहीं नहीं, कदापि नहीं, हम लोग आपके विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकते और आपकी ही आज्ञापालन अपना धर्म समझते हैं. सज्जनों और धर्मात्माओं की आज्ञा पालने का नतीजा कभी बुरा नहीं होता !’’
इसके साथ ही गुलाबसिंह के बाकी साथी भी बोल उठे, ‘‘बेशक ऐसा ही है, बेशक ऐसा ही है !’’

गुलाब: (प्रसन्नता से) ईश्वर की कृपा है कि मेरे साथी लोग भी मेरी इच्छानुसार चलने के लिए तैयार हैं. (नौजवान से) अब आप ही आज्ञा कीजिए कि हम लोग क्या करें ? क्योंकि अब भी मैं अपने को आपका दास ही समझता हूँ.
नौजवानः मेरे प्यारे गुलाबसिंह, शाबाश ! इसमें सन्देह नहीं कि तुम्हारे ऐसे नेक और बहादुर आदमी का साथ बड़े भाग्य से होता है. मैं तुम्हें अपने आधीन पाकर बहुत ही प्रसन्न था और अब भी यही इच्छा रहती है कि ईश्वर तुम्हें मेरा साथी बनाये, मगर क्या करूँ, लाचार हूँ, क्योंकि आज मेरा वह समय नहीं है. आज मुसीबत के फन्दे में फंस जाने से मैं इस योग्य नहीं रहा कि तुम्हारे ऐसे बहादुरों का साथ.....(लम्बी साँस लेकर) अस्तु ईश्वर की मर्जी, जो कुछ वह करता है अच्छा ही करता है, कदाचित् इसमें भी मेरी कुछ भलाई ही होगी. (कुछ सोच कर) मैं तुम्हें क्या बताऊँ कि क्या करो ? तुम्हारे मालिक ने बेशक धोखा खाया कि मेरी गिरफ्तारी के लिए तुम्हें भेजा, इतने दिनों तक साथ रहने पर भी उसने तुम्हें और मुझे नहीं पहिचाना. मुझे इस समय कुछ भी नहीं सूझता कि तुम्हें क्या नसीहत करूं और किस तरह उस दुष्ट का नमक खाने से तुम्हें रोकूँ !

गुलाब: (कुछ सोच कर) खैर कोई चिन्ता नहीं, जो होगा देखा जायगा. इस समय मैं आपका साथ कदापि न छोड़ूँगा और इस मुसीबत में आपको अकेले भी न रहने दूँगा. जो कुछ आप पर बीतेगी उसे मैं भी सहूँगा. (अपने साथियों से) भाइयो, अब तुम लोग जहाँ चाहे जाओ और जो मुनासिब समझो करो, मैं तो अब इनके दुःख-सुख का साथी बनता हूँ. यद्यपि ये (नौजवान) उम्र में मुझसे बहुत छोटे हैं परन्तु मैं इन्हें अपना पिता समझता हूँ और पिता ही की तरह इन्हें मानता हूँ, अस्तु जो कुछ पुत्र का धर्म है मैं उसे निबाहूँगा. मैं इनको गिरफ्तार करने की आज्ञा पाकर बहुत प्रसन्न था और यही सोचे हुआ था कि इस बहाने से इन्हें ढूँढ़ निकालूँगा और सामना होने पर इनकी सेवा स्वीकार करूँगा.
गुलाबसिंह की बातें सुन कर उसके साथियों ने जवाब दिया, ‘‘ठीक है, जो कुछ उचित था आपने किया परन्तु आप हम लोगों का तिरस्कार क्यों कर रहे हैं ? क्या हम लोग आपकी सेवा करने के योग्य नहीं हैं ? या हम लोगों को आप बेईमान समझते हैं ?’’
गुलाब.: नहीं-नहीं, ऐसा कदापि नहीं है, मगर बात यह है कि जो कोई मुसीबत में पड़ा हो उसका साथ देने वाले को भी मुसीबत झेलनी पड़ती है, अस्तु मुझ पर तो जो कुछ बीतेगी उसे झेल लूँगा, तुम लोगों को जान-बूझ कर क्यों मुसीबत में डालूँ ! इसी ख्याल से कहता हूँ कि जहाँ जी में आवे जाओ और जो कुछ मुनासिब समझो करो.
गुलाबसिंह के साथी: नहीं-नहीं, ऐसा कदापि न होगा और हम लोग आपका साथ कभी न छोड़ेंगे. आप आज्ञा दें कि अब हम लोग क्या करें.

गुलाब: (कुछ सोच कर) अच्छा, अगर तुम लोग हमारा साथ देना ही चाहते हो तो जो कुछ हम कहते हैं उसे करो. यहाँ से इसी समय चले जाओ, (नौजवान की तरफ बता कर) इनके मकान में जिसे राजा साहब ने जब्त कर लिया है रात के समय जिस तरह सम्भव हो घुस कर जहाँ तक दौलत हाथ लगे और उठा सको निकाल कर ले आओ और पिपलिया घाटी में जहां का पता तुम लोगों को मालूम है हमसे मिलो, अगर वहाँ हमसे मुलाकात न हो तो टिक कर हमारा इन्तजार करो.
गुलाबसिंह की बात सुन कर उसके साथियों ने ‘‘जो आज्ञा’’ कह कर सलाम किया और वहाँ से चले गए. उनके जाने के बाद गुलाबसिंह ने नौजवान से कहा, ‘‘इस समय इन लोगों को बिदा कर देना ही मैंने उचित जाना. यद्यपि ये लोग मेरे साथ रहने में प्रसन्नता प्रकट करते हैं परन्तु कुछ टेढ़ा काम लेकर जाँच कर लेना जरूरी है.’’
नौजवान: ठीक है, तुम्हारे ऐसे होशियार आदमी के लिए यह कोई नई बात नहीं है.
गुलाब.: अच्छा अब यह बताइए कि आपको मुझ पर विश्वास है या नहीं ? या इस विषय में आपको कुछ जांच करने की आवश्यकता है ?
नौज.: नहीं-नहीं, मुझे कुछ जांच करने की जरूरत नहीं है, मुझे तुम पर पूरा-पूरा विश्वास और भरोसा है, मैं तुमसे मिलकर बहुत ही प्रसन्न हुआ. ऐसी अवस्था में यकायक सामना हो जाने पर भी मुझे किसी तरह का खुटका नहीं हुआ था.
गुलाब: ईश्वर आपका मंगल करे, अब कृपा कर यह बताइए कि आप मुझे अकेले क्यों दिखाई देते हैं और अब आपका इरादा क्या है ?
नौज.: मैं अकेला नहीं हूँ, मेरी स्त्री भी मेरे साथ है (हाथ का इशारा करके) उस पहाड़ी के ऊपर उसे अकेला छोड़ आया हूँ. हम दोनों आदमी वहाँ बैठे अपने नौकरों का इंतजार कर रहे थे कि यकायक तुम लोगों पर निगाह पड़ी, अस्तु उसे उसी जगह छोड़ कर तुम लोगों का पता लगाने के लिए मैं नीचे उतर आया था, अब तुम मेरे साथ वहाँ चलो और उससे मिलो, वह तुम्हें देखकर बहुत ही प्रसन्न होगी. इस आफत में भी वह तुम्हें बराबर याद करती रही.

गुलाब.: चलिए, शीघ्र चलिए.
गुलाबसिंह को साथ लेकर नौजवान उस तरफ रवाना हुआ जहाँ अपनी स्त्री को अकेला छोड़ आया था.
गुलाबसिंह क्षत्री खानदान का एक बहादुर और ताकतवर आदमी था, वह बहुत ही नेक, रहमदिल और धर्म का सच्चा पक्षपाती था, साथ-ही-साथ वह बदमाशों की चालबाजियों को खूब समझता था और अच्छे लोगों में से बेईमानों और दगाबाजों को छाँट निकालने में भी विचित्र कारीगर था. वह उस नौजवान और उसकी स्त्री से सच्ची मुहब्बत और हमदर्दी रखता था. जिसका बहुत बड़ा सबब यह था कि उस स्त्री के पिता ने बहुत संकट के समय गुलाबसिंह की सच्ची सहायता की थी और गुलाबसिंह को लड़के की तरह मानता था.
इस जगह पर इस नौजवान और इसकी सुशीला स्त्री का नाम खोल देना उचित समझते हैं, मगर इस बात को अभी न खोलेंगे कि ये दोनों कौन हैं और इनके इस तरह बेसरोसामान भागने का सबब क्या है.
नौजवान का नाम प्रभाकरसिंह है और स्त्री का नाम इन्दुमति. प्रभाकरसिंह की शादी इन्दुमति के साथ भये हुए आज एक वर्ष और सात महीने हो चुके हैं.
प्रभाकरसिंह और गुलाबसिंह बातचीत करते हुए इन्दुमति की तरफ रवाना हुए और बहुत जल्द वहाँ पहुँचे जहाँ इन्दुमति चिन्ता-निमग्न बैठी हुई अपने पति का इन्तजार कर रही थी. पति को देखकर वह प्रसन्नता के साथ उठ बैठी और जब उसने गुलाबसिंह को पहिचाना तो बहुत खुश होकर बोली—

इन्दु.: मैं पहिले ही कहती थी कि गुलाबसिंह को हम लोगों के विषय में बड़ी चिन्ता होगी और वे जरूर हमारी सुध लेंगे.
गुलाब.: बेशक ऐसा ही है. इसीलिए जिस समय राजा साहब ने आप लोगों की गिरफ्तारी का काम मेरे सुपुर्द किया तो मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ और.......
गुलाबसिंह अपनी बात पूरी न करने पाये थे कि लगभग चालीस-पचास गज की दूरी पर से सीटी बजने की आवाज आई जिसे सुनते ही तीनों चौंक पड़े और उसी तरफ देखने लगे. बेचारी इन्दु को दुश्मन का ख्याल आ गया और वह डरी हुई आवाज से बोली, ‘‘यहाँ तक भाग आने पर भी हम लोगों का खुटका न गया, इसी से मैं कहती थी कि जहाँ तक जल्द हो सके नौगढ़ की सरहद में हमें पहुँच जाना चाहिए !’’

गुलाब.: (इन्दु से) डरो मत, हम दोनों क्षत्रियों के रहते किसकी मजाल है कि तुम्हें किसी तरह की तकलीफ पहुँचा सके. इसके अतिरिक्त इस बात को भी समझ रक्खो कि आज दिन सिवाय उस बेईमान राजा के और कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं है और उसकी तरफ से इस काम के लिए मैं ही भेजा गया हूँ, ऐसी अवस्था में किसी वास्तविक दुश्मन का ध्यान लगाना वृथा है, हाँ चोर-डाकू में से यदि कोई हो तो मैं नहीं कह सकता.
इन्दु.: खैर पेड़ों की आड़ में तो हो जाइए.
गुलाब.: हाँ इसके लिए कोई हर्ज नहीं.
इतने ही में पुनः सीटी की आवाज आई, मगर अबकी दफे की आवाज कुछ अजीब ढंग की थी. मालूम होता था कि कोई बंधे हुए इशारे के साथ झिरनी की आवाज देकर सीटी बुला रहा है. इस आवाज को सुनकर गुलाबसिंह हँस पड़ा और इन्दु तथा प्रभाकरसिंह की तरफ देख के बोला, ‘‘बस मालूम हो गया, डरने की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि यह मेरे एक दोस्त की बजाई हुई सीटी है, मैं अभी जरूरी बातों से छुट्टी पाकर थोड़ी ही देर में आप लोगों से कहने वाला था कि यहाँ मेरे एक दोस्त का मकान है जिससे मिल कर आप बहुत प्रसन्न होंगे, और उनसे आपको सहायता भी पूरी-पूरी मिल सकती है. मैं अब इस सीटी का जवाब देता हूँ. बहुत अच्छा हुआ जो अकस्मात वे खुद यहाँ आ पहुँचे. मालूम होता है कि मेरा यहाँ आना उन्हें मालूम हो गया !’’

इतना कह कर गुलाबसिंह ने भी कुछ अजीब ढंग की सीटी बजाई अर्थात् उस सीटी की जवाब दिया.
प्रभा.: भला अपने इस अनूठे दोस्त का नाम तो बता दो ?
गुलाब.: आजकल इन्होंने अपना नाम भूतनाथ रख छोड़ा है.
प्रभा.: (कुछ सोच कर) यह नाम तो कई दफे मेरे कानों में पड़ चुका है और एक दफे ऐसा भी सुन चुका हूँ कि इस नाम का एक आदमी बड़ा ही भयानक है जिसके रहन-सहन का किसी को कुछ पता नहीं चलता.
गुलाब.: ठीक है, आपने ऐसा ही सुना होगा, परन्तु यह केवल दुष्टों और पापियों के लिए भयानक है.
गुलाबसिंह इससे ज्यादा कुछ कहने न पाया था कि सीटी बजाने वाला अर्थात् भूतनाथ वहाँ आ पहुँचा. प्रभाकरसिंह को सलाम करने के बाद भूतनाथ गुलाबसिंह के गले मिला और इसके बाद चारों आदमी पत्थर की चट्टानों पर बैठ कर इस तरह बातचीत करने लगे:-

गुलाब.: (भूतनाथ से) यहाँ यकायक आपका इस तरह आ पहुँचना बड़े आश्चर्य की बात है !!
भूतनाथ: आश्चर्य काहे का ! यहाँ तो मेरा ठिकाना ही ठहरा, या यों कहिये कि यह दिन-रात का मेरा रास्ता ही है.
गुलाब: ठीक है, मगर फिर भी आपका घर यहाँ से आधे घंटे की दूरी पर होगा ऐसी अवस्था में क्या जरूरी है कि आप दिन-रात इसी पहाड़ी पर दिखाई दें ?
भूत.: (हँस कर) हाँ सो तो सच है, मगर आप जो यहाँ आ पहुँचे तो फिर क्या किया जाय, आखिर मुलाकात करना भी तो जरूरी ठहरा !
गुलाब.: (हँसी के साथ) बस तो सीधे यही क्यों नहीं कहते कि मेरा यहाँ आना आपको मालूम हो गया.
भूत.: बेशक आपका आना मुझे मालूम हो गया बल्कि और भी कई बातें मालूम हुईं हैं जिनसे आप लोगों को होशियार कर देना जरूरी है. (प्रभाकरसिंह की तरफ देखकर) अभी तक दुश्मनों से आपका पीछा नहीं छूटा, खाली गुलाबसिंह ही आपकी गिरफ्तारी के लिए नहीं भेजे गये बल्कि इनको भेजने के बाद आपके राजा साहब ने और भी बहुत से आदमी आप लोगों को पकड़ने के लिए भेजे जो इस समय इस पहाड़ी के इधर-उधर आ गये हैं और आपके आदमियों को भी उन लोगों ने गिरफ्तार कर लिया है जिनका शायद आप इन्तजार करते होंगे.

प्रभा.: (ताज्जुब में आकर) आपकी जुबानी बहुत-सी बातें मालूम हुईं ! मुझे इन सब की कुछ भी खबर न थी. आप तो इस तरह बयान कर रहे हैं जैसे कोई जादूगर आइने के अन्दर जमाने भर की हालत देख-देख कर सभा में बयान करता हो !
गुलाब.: यही तो इनमें एक अनूठी बात है जिससे बड़े-बड़े नामी ऐयार दंग रहा करते हैं. इनसे किसी भेद का छिपा रहना बहुत ही कठिन है. (भूतनाथ से) अच्छा तो मेरे प्यारे दोस्त, मैं प्रभाकरसिंह और इन्दुमति को आपके सुपुर्द करता हूं. जिससे इनका कल्याण हो सो कीजिए. यह बात आपसे छिपी हुई नहीं है कि मैं इन्हें कैसा मानता हूँ.
भूत.: मैं सब जानता हूँ और इसीलिए यहाँ आया भी हूँ, परन्तु अब विशेष बातचीत करने का मौका नहीं, आप उठिए और मेरे पीछे आइए.
प्रभा.: (उठते हुए) मुझे अपने लिए कुछ भी फिक्र नहीं है, केवल बेचारी इन्दु के लिए मुझे नामर्दों की तरह भागने और अदने-अदने आदमियों से छिपकर चलने.......
भूत.: (बात काट कर) मैं खूब जानता हूँ, मगर क्या कीजिएगा, समय पर सब कुछ करना पड़ता है, आँख रहते भी टटोलना पड़ता है !
सब कोई उठ कर भूतनाथ के पीछे-पीछे रवाना हुए.
जो कुछ हाल हम ऊपर बयान कर चुके हैं इसमें कई घंटे गुजर गये.

पिछले पहर की रात बीत रही है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, इन चारों के पैरों के तले दबने वाले सूखे पत्तों की चरमराहट के सिवाय और किसी तरह की आवाज सुनाई नहीं देती. भूतनाथ इन तीनों को साथ लिए हुए एक अनूठे और अनजान रास्ते से बात की बात में पहाड़ी के नीचे उतर आया और इसके बाद दक्षिण की तरफ जाने लगा. जंगल ही जंगल लगभग आधा कोस के जाने के बाद ये लोग पुनः एक पहाड़ के नीचे पहुँचे. इस जगह का जंगल बहुत ही घना तथा रास्ता घूमघुमौवा और पथरीला था. भूतनाथ इस तरह घूमता और चक्कर देता हुआ पेचीली पगडंडियों पर जाने लगा कि कोई अनजान आदमी उसकी नकल नहीं कर सकता था, अथवा यों समझना चाहिए कि एक-दो दफे का जानकार आदमी भी धोखे में आकर भटक सकता था, किसी अनजान का जाना तो बहुत ही कठिन बात है.

कुछ ऊपर चढ़ने के बाद घूमता-फिरता भूतनाथ एक ऐसी जगह पहुँचा जहाँ पत्थरों के बड़े-बड़े ढोकों के अन्दर छिपी हुई एक गुफा थी. इन तीनों को लिए हुए भूतनाथ उस गुफा के अन्दर घुसा. आगे-आगे भूतनाथ, उसके पीछे गुलाबसिंह, उसके बाद इन्दुमति और सबसे पीछे प्रभाकरसिंह जाने लगे. कुछ दूर गुफा के अन्दर जाने के बाद भूतनाथ ने अपने ऐयारी बटुए में से सामान निकाल कर मोमबत्ती जलाई और उसकी रोशनी के सहारे अपने साथियों को ले जाने लगा, लगभग पचीस गज के जाने के बाद एक चौमुहानी मिली अर्थात् जहाँ से एक रास्ता सीधी तरफ चला गया था, दूसरा बाईं तरफ, और तीसरी सुरंग दाहिनी तरफ चली गई थी, तथा चौथा रास्ता वह था जिधर से ये लोग आये थे. यहाँ तक तो रास्ता खुलता था मगर आगे का रास्ता बहुत ही बारीक और तंग था जिसमें दो आदमी बराबर से मिल कर नहीं चल सकते थे.
यहाँ पर आकर भूतनाथ अटक गया और मोमबत्ती की रोशनी में आगे की दोनों सुरंगों को बता कर अपने साथियों से बोला, ‘‘हमारे मकान में जाने वाले को इस दाहिनी तरफ वाली सुरंग में घुसना चाहिए. सामने अथवा बाईं तरफ वाली सुरंग में जाने वाला किसी तरह जीता नहीं बच सकता है.’’

इतना कह कर भूतनाथ दाहिनी तरफ वाली सुरंग में घुसा और कुछ दूर जाने के बाद उसने मोमबत्ती बुझा दी.
लगभग दो सौ कदम चले जाने के बाद यह सुरंग खतम हुई और उसका दूसरा मुहाना नजर आया. सबके पहले भूतनाथ सुरंग से बाहर हुआ, इसके बाद गुलाबसिंह और उसके पीछे इन्दुमति रवाना हुई, मगर प्रभाकरसिंह न निकले, तीनों आदमी घूमकर उनका इन्तजार करने लगे कि शायद पीछे रह गए हों मगर कुछ देर इन्तजार करने पर भी वे नजर न आये. इन्दुमति का कलेजा उछलने लगा, उसकी दाहिनी भुजा फड़क उठी और आँखों में आँसू डबडबा आये. भूतनाथ ने इन्दुमति और गुलाबसिंह को कहा, ‘‘तुम जरा इसी जगह दम लो, मैं सुरंग में घुस कर प्रभाकरसिंह का पता लगाता हूँ.’’ इतना कहकर भूतनाथ पुनः उसी सुरंग में घुस गया.

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