गजलें और शायरी >> मैं कहाँ चला गया मैं कहाँ चला गयानासिर काजमी
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नासिर काजमी की गजलें...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पाकिस्तानी शायरी के स्वर्णिम हस्ताक्षर और उर्दू में नयी गजल को स्थापित
करने वाले नासिर काजमी हमारे दौर के उन शायरों में सर्वोपरि हैं, जिन के
शे’रों में हमारे दौर की आहट सुनाई देती है।
अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ
कहने वाले नासिर काजमी की आवाज इस दौर के हर उस शख्स की आवाज हैं जो उदासी
और अकेलेपन के घने जंगल से बाहर आने का रास्ता ढूँढ़ रहा है।
नासिर काजमी की गजलों का एक बेहतरीन संकलन।
नासिर काजमी की गजलों का एक बेहतरीन संकलन।
प्राक्कथन
उदासी और तनहाई दुनिया के हर दौर की और हर
जबान की शायरी में किसी न किसी
रंग में मौजूद रही है, लेकिन नासिर काज़मी के यहाँ ये उदासी और अकेलापन
उनके काव्य व्यक्तित्व का एक हिस्सा बन जाते हैं। सारी ज़िन्दगी नासिर
काज़मी अपने आपको एक अजनबी मुसाफ़िर के रूप में देखते रहे। उनकी इसी
अनुभूति ने शायद उन्हें उदास और अकेला बना दिया था।
नासिर काज़मी पाकिस्तानी शायरी के स्वर्णिम हस्ताक्षर तो हैं ही उर्दू में नयी ग़ज़ल को प्रतिष्ठित करने वाले हमारे दौर के उन शायरों में भी सर्वोपरि हैं, जिनके शे’रों में हमें अपने दौर की आहट सुनाई देती है।
नासिर काज़मी पाकिस्तानी शायरी के स्वर्णिम हस्ताक्षर तो हैं ही उर्दू में नयी ग़ज़ल को प्रतिष्ठित करने वाले हमारे दौर के उन शायरों में भी सर्वोपरि हैं, जिनके शे’रों में हमें अपने दौर की आहट सुनाई देती है।
अपनी धुन में रहता हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ
मैं भी तेरे जैसा हूँ
कहने वाले नासिर काज़मी की आवाज़ इस दौर के
हर उस शख़्स की आवाज़ है, जो
उदासी और अकेलेपन के अँधेरे और घने जंगल से बाहर आने का रास्ता ढूँढ़ रहा
है।
नासिर काज़मी की समकालीनता कुछ दहाइयों तक सीमित नहीं थी। अपनी तनहाई, उदासी और तड़प के अनन्त दायरे में वे कबीर, सूर, मीरा और मीर तक़ी मीर को भी अपना हमअस्र समझते थे। वर्तमान शायरों में वे फ़िराक़ के प्रशंसक थे और उनसे बेहद प्रभावित भी। अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए नासिर काज़मी ने ग़ज़ल को चुना और उसे अपना एक अलग रंग दिया।
नासिर काज़मी की समकालीनता कुछ दहाइयों तक सीमित नहीं थी। अपनी तनहाई, उदासी और तड़प के अनन्त दायरे में वे कबीर, सूर, मीरा और मीर तक़ी मीर को भी अपना हमअस्र समझते थे। वर्तमान शायरों में वे फ़िराक़ के प्रशंसक थे और उनसे बेहद प्रभावित भी। अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए नासिर काज़मी ने ग़ज़ल को चुना और उसे अपना एक अलग रंग दिया।
मैं हूँ, रात का एक बजा है
ख़ाली रस्ता बोल रहा है
हमारे घर की दीवारों पे नासिर
उदासी बाल खोले सो रही है
तनहाई का दुख गहरा था
मैं दरिया-दरिया रोता था
रैन अँधेरी है और किनारा दूर
चाँद निकले तो पार उतर जाएँ
इस शहर-ए-बेचिराग़ में जायेगी तू कहाँ
आ ऐ शब-ए-फ़िराक़ तुझे घर ही ले चलें
ख़ाली रस्ता बोल रहा है
हमारे घर की दीवारों पे नासिर
उदासी बाल खोले सो रही है
तनहाई का दुख गहरा था
मैं दरिया-दरिया रोता था
रैन अँधेरी है और किनारा दूर
चाँद निकले तो पार उतर जाएँ
इस शहर-ए-बेचिराग़ में जायेगी तू कहाँ
आ ऐ शब-ए-फ़िराक़ तुझे घर ही ले चलें
नासिर काज़मी ने ज़िन्दगी की छोटी-छोटी
अनुभूतियों को ग़ज़ल का विषय बनाया
और अपनी अनुभव सम्पदा से उसे समृद्ध करते हुए एक ऐसे नये रास्ते का
निर्माण किया, जिस पर आज एक बड़ा काफ़िला रवाँ-दवाँ है।
उनके जीवन काल में उनका सिर्फ़ एक ही ग़ज़ल संग्रह ‘बर्ग-ए-नै’ सन् 1952 में प्रकाशित हो सका। जिसकी ग़ज़लों ने सभी का ध्यान आकृष्ट किया। इसके बाद वे प्रकाशन के प्रति लगभग विमुख होते हुए लेखन करते रहे।
रात के इस बेनवा मुसाफ़िर ने 2 मार्च 1972 को अपनी आयु के सैंतालीसवें वर्ष में ही संसार को अलविदा कर दिया। उनका दूसरा और महत्वपूर्ण संग्रह ‘दीवान’ उनके निधन के कुछ महीनों बाद प्रकाशित हुआ, जिसकी ग़ज़लों ने उर्दू जगत में धूम मचा दी। एक ही जमीन में कही गयी उनकी पच्चीस ग़ज़लों का संग्रह ‘पहली बारिश’ भी उनकी मृत्यु के बाद ही सामने आया।
‘मैं कहाँ चला गया’ में उनके तीनों संग्रहों से ग़ज़लों का चयन किया गया है। नासिर काज़मी के काव्य व्यक्तित्व को समझने के लिए यह संकलन काफी मददगार साबित होगा, ऐसा मुझे यकीन है और इन ग़ज़लों की शाश्वतता पर संदेह करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता-
उनके जीवन काल में उनका सिर्फ़ एक ही ग़ज़ल संग्रह ‘बर्ग-ए-नै’ सन् 1952 में प्रकाशित हो सका। जिसकी ग़ज़लों ने सभी का ध्यान आकृष्ट किया। इसके बाद वे प्रकाशन के प्रति लगभग विमुख होते हुए लेखन करते रहे।
रात के इस बेनवा मुसाफ़िर ने 2 मार्च 1972 को अपनी आयु के सैंतालीसवें वर्ष में ही संसार को अलविदा कर दिया। उनका दूसरा और महत्वपूर्ण संग्रह ‘दीवान’ उनके निधन के कुछ महीनों बाद प्रकाशित हुआ, जिसकी ग़ज़लों ने उर्दू जगत में धूम मचा दी। एक ही जमीन में कही गयी उनकी पच्चीस ग़ज़लों का संग्रह ‘पहली बारिश’ भी उनकी मृत्यु के बाद ही सामने आया।
‘मैं कहाँ चला गया’ में उनके तीनों संग्रहों से ग़ज़लों का चयन किया गया है। नासिर काज़मी के काव्य व्यक्तित्व को समझने के लिए यह संकलन काफी मददगार साबित होगा, ऐसा मुझे यकीन है और इन ग़ज़लों की शाश्वतता पर संदेह करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता-
ढ़ूँढ़ेंगे लोग मुझको हर महफ़िल-ए-सुख़न
में
हर दौर की ग़ज़ल में मेरा निशाँ मिलेगा
हर दौर की ग़ज़ल में मेरा निशाँ मिलेगा
-सुरेश कुमार
(1)
होती है तेरे नाम से वहशत1 कभी-कभी
बरहम2 हुई है यूँ भी तबीयत कभी-कभी
ऐ दिल किसे नसीब ये तौफ़ीक-ए-इज़्तिराब3
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी
तेरे करम से ऐ अलम-ए-हुस्न-आफ़रीं4
दिल बन गया है दोस्त की ख़लवत कभी-कभी
जोश-ए-जुनूँ में दर्द की तुग़ियानियों5 के साथ
अश्कों में ढल गई तिरी सूरत कभी-कभी
तेरे क़रीब रह के भी दिल मुतमइन न था
गुज़री है मुझ पे ये भी क़यामत कभी-कभी
कुछ अपना होश था न तुम्हारा ख़याल था
यूँ भी गुज़र गई शब-ए-फुरकत6 कभी-कभी
ए दोस्त हमने तर्क-ए-मोहब्बत के बावजूद
महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी-कभी
बरहम2 हुई है यूँ भी तबीयत कभी-कभी
ऐ दिल किसे नसीब ये तौफ़ीक-ए-इज़्तिराब3
मिलती है ज़िन्दगी में ये राहत कभी-कभी
तेरे करम से ऐ अलम-ए-हुस्न-आफ़रीं4
दिल बन गया है दोस्त की ख़लवत कभी-कभी
जोश-ए-जुनूँ में दर्द की तुग़ियानियों5 के साथ
अश्कों में ढल गई तिरी सूरत कभी-कभी
तेरे क़रीब रह के भी दिल मुतमइन न था
गुज़री है मुझ पे ये भी क़यामत कभी-कभी
कुछ अपना होश था न तुम्हारा ख़याल था
यूँ भी गुज़र गई शब-ए-फुरकत6 कभी-कभी
ए दोस्त हमने तर्क-ए-मोहब्बत के बावजूद
महसूस की है तेरी ज़रूरत कभी-कभी
1.पागलपन, भय। 2.अप्रसन्न, अस्त-व्यस्त।
3.बेचैनी की सामर्थ्य। 4.सुन्दरता
प्रदान करने वाले कष्ट। 5.जलप्लावनों, बाढ़ों। 6.वियोग की रात्रि।
(2)
इश्क़ में जीत हुई या मात
आज की रात न छेड़ ये बात
यूँ आया वो जान-ए-बहार1
जैसे जग में फैले बात
रंग, खुले सहरा2 की धूप
ज़ुल्फ़ घने जंगल की रात
कुछ न सुना और कुछ न कहा
दिल में रह गयी दिल की बात
यार की नगरी कोसों दूर
कैसे कटेगी भारी रात
बस्ती वालों से छुपकर
रो लेते हैं पिछली रात
सन्नाटों में सुनते हैं
सुनी-सुनाई कोई बात
आज की रात न छेड़ ये बात
यूँ आया वो जान-ए-बहार1
जैसे जग में फैले बात
रंग, खुले सहरा2 की धूप
ज़ुल्फ़ घने जंगल की रात
कुछ न सुना और कुछ न कहा
दिल में रह गयी दिल की बात
यार की नगरी कोसों दूर
कैसे कटेगी भारी रात
बस्ती वालों से छुपकर
रो लेते हैं पिछली रात
सन्नाटों में सुनते हैं
सुनी-सुनाई कोई बात
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1.बसन्त ऋतु का जीवन। 2.जंगल।
1.बसन्त ऋतु का जीवन। 2.जंगल।
(3)
जब से देखा है तिरे हाथ का चाँद
मैंने देखा ही नहीं रात का चाँद
जुल्फ़-ए-शबरंग1 के सद राहों में
मैंने देखा है तिलिस्मात का चाँद
रस कहीं, रूप कहीं, रंग कहीं
एक जादू है ख़यालात का चाँद
मैंने देखा ही नहीं रात का चाँद
जुल्फ़-ए-शबरंग1 के सद राहों में
मैंने देखा है तिलिस्मात का चाँद
रस कहीं, रूप कहीं, रंग कहीं
एक जादू है ख़यालात का चाँद
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1.काले रंग के केश।
1.काले रंग के केश।
(4)
कौन इस राह से गुज़रता है
दिल यूँ ही इन्तज़ार करता है
देखकर भी न देखने वाले
दिल तुझे देख-देख डरता है
शहर-ए-गुल1 में कटी है सारी रात
देखिए दिन कहाँ गुज़रता है
ध्यान की सीढ़ियों पे पिछले पहर
कोई चुपके से पाँव धरता है
दिल तो मेरा उदास है ‘नासिर’
शहर क्यों साँय-साँय करता है
दिल यूँ ही इन्तज़ार करता है
देखकर भी न देखने वाले
दिल तुझे देख-देख डरता है
शहर-ए-गुल1 में कटी है सारी रात
देखिए दिन कहाँ गुज़रता है
ध्यान की सीढ़ियों पे पिछले पहर
कोई चुपके से पाँव धरता है
दिल तो मेरा उदास है ‘नासिर’
शहर क्यों साँय-साँय करता है
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1.फूलों का नगर
1.फूलों का नगर
(5)
आँखों में हैं दुख भरे फ़साने
रोने के फिर आ गये ज़माने
फिर दर्द ने आज राग छेड़ा
लौट आये वही समय पुराने
फिर चाँद को ले गयीं हवाएँ
फिर बाँसुरी छेड़ दी सबा1 ने
रस्तों में उदास खुशबुओं के
फूलों ने लुटा दिये ख़जाने
रोने के फिर आ गये ज़माने
फिर दर्द ने आज राग छेड़ा
लौट आये वही समय पुराने
फिर चाँद को ले गयीं हवाएँ
फिर बाँसुरी छेड़ दी सबा1 ने
रस्तों में उदास खुशबुओं के
फूलों ने लुटा दिये ख़जाने
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1.प्रातःकालीन मन्द समीर
1.प्रातःकालीन मन्द समीर
(6)
पहुँचे गोर1 किनारे हम
बस ग़म-ए-दौराँ2 हारे हम
सब कुछ हार के रस्ते में
बैठ गए दुखियारे हम
हर मंजिल से गुज़रे हैं
तेरे ग़म के सहारे हम
देख ख़याल-ए-ख़ातिर-ए-दोस्त3
बाज़ी जीत के हारे हम
आँख का तारा आँख में है
अब न गिनेंगे तारे हम
बस ग़म-ए-दौराँ2 हारे हम
सब कुछ हार के रस्ते में
बैठ गए दुखियारे हम
हर मंजिल से गुज़रे हैं
तेरे ग़म के सहारे हम
देख ख़याल-ए-ख़ातिर-ए-दोस्त3
बाज़ी जीत के हारे हम
आँख का तारा आँख में है
अब न गिनेंगे तारे हम
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1.कब्र। 2.सांसारिक दुख। 3.मित्र के सम्मान का विचार।
1.कब्र। 2.सांसारिक दुख। 3.मित्र के सम्मान का विचार।
(7)
रंग बरसात ने भरे कुछ तो
ज़ख़्म दिल के हुए हरे कुछ तो
फुर्सत-ए-बेखुदी1 ग़नीमत है
गर्दिशें हो गयीं परे कुछ तो
कितने शोरीदा-सर2 थे परवाने
शाम होते ही जल मरे कुछ तो
ऐसा मुश्किल नहीं तिरा मिलना
दिल मगर जुस्तजू करे कुछ तो
आओ ‘नासिर’ कोई ग़ज़ल छेड़ें
जी बहल जाएगा अरे कुछ तो
ज़ख़्म दिल के हुए हरे कुछ तो
फुर्सत-ए-बेखुदी1 ग़नीमत है
गर्दिशें हो गयीं परे कुछ तो
कितने शोरीदा-सर2 थे परवाने
शाम होते ही जल मरे कुछ तो
ऐसा मुश्किल नहीं तिरा मिलना
दिल मगर जुस्तजू करे कुछ तो
आओ ‘नासिर’ कोई ग़ज़ल छेड़ें
जी बहल जाएगा अरे कुछ तो
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1.अचैतन्य से मुक्ति। 2.उन्मुक्त।
1.अचैतन्य से मुक्ति। 2.उन्मुक्त।
(8)
ख़त्म हुआ तारों का राग
जाग मुसाफ़िर अब तो जाग
धूप की जलती तानों से
दश्त-ए-फ़लक1 में लग गई आग
दिन का सुनहरा नग्मा सुनकर
अबलक़-ए-शब2 ने मोड़ी बाग
कलियाँ झुलसी जाती हैं
सूरज फेंक रहा है आग
ये नगरी अँधियारी है
इस नगरी से जल्दी भाग
जाग मुसाफ़िर अब तो जाग
धूप की जलती तानों से
दश्त-ए-फ़लक1 में लग गई आग
दिन का सुनहरा नग्मा सुनकर
अबलक़-ए-शब2 ने मोड़ी बाग
कलियाँ झुलसी जाती हैं
सूरज फेंक रहा है आग
ये नगरी अँधियारी है
इस नगरी से जल्दी भाग
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1.आकाश का जंगल। 2.रात्रि का अश्व।
1.आकाश का जंगल। 2.रात्रि का अश्व।
(9)
क़हर से देख न हर आन मुझे
आँख रखता है तो पहचान मुझे
यकबयक आके दिखा दो झमकी
क्यों फिराते हो परेशान मुझे
एक से एक नयी मंजिल में
लिए फिरता है तिरा ध्यान मुझे
सुन के आवाज-ए-गुल1 कुछ न सुना
बस उसी दिन से हुए कान मुझे
जी ठिकाने नहीं जब से ‘नासिर’
शहर लगता है बयाबान मुझे
आँख रखता है तो पहचान मुझे
यकबयक आके दिखा दो झमकी
क्यों फिराते हो परेशान मुझे
एक से एक नयी मंजिल में
लिए फिरता है तिरा ध्यान मुझे
सुन के आवाज-ए-गुल1 कुछ न सुना
बस उसी दिन से हुए कान मुझे
जी ठिकाने नहीं जब से ‘नासिर’
शहर लगता है बयाबान मुझे
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1.फूल का स्वर।
1.फूल का स्वर।
(10)
रौनकें थीं जहाँ में क्या-क्या कुछ
लोग थे रफ़्तगाँ1 में क्या-क्या कुछ
अबकी फ़स्ल-ए-बहार2 से पहले
रंग थे गुलसिताँ में क्या-क्या कुछ
क्या कहूँ अब तुम्हें खिज़ाँ3 वालो
जल गया आशियाँ में क्या-क्या कुछ
दिल तिरे बाद सो गया वरना
शोर था इस मकाँ में क्या-क्या कुछ
लोग थे रफ़्तगाँ1 में क्या-क्या कुछ
अबकी फ़स्ल-ए-बहार2 से पहले
रंग थे गुलसिताँ में क्या-क्या कुछ
क्या कहूँ अब तुम्हें खिज़ाँ3 वालो
जल गया आशियाँ में क्या-क्या कुछ
दिल तिरे बाद सो गया वरना
शोर था इस मकाँ में क्या-क्या कुछ
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1.गये हुए, स्वर्गवासी। 2.बसन्त ऋतु। 3.पतझड़।
1.गये हुए, स्वर्गवासी। 2.बसन्त ऋतु। 3.पतझड़।
|
लोगों की राय
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