कहानी संग्रह >> रांगेय राघव संकलित कहानियां रांगेय राघव संकलित कहानियांवीरेश कुमार
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रांगेय राघव की चुनिन्दा कहानियां
Rangey Raghav Sankalit Kahaniyan
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
रांगेय राघव (1923-1962) ने मात्र उनचालीस वर्ष की अल्पायु में अड़तीस उपन्यास, सात दर्जन से अधिक कहानियां, छह कविता संग्रह, तीन नाटक, उन्नीस आलोचना, इतिहास, संस्कृति और चिंतन संबंधी पुस्तकें लिखीं। इनके अलावा शेक्सपियर के पंद्रह, गॉल्सवर्दी के एक और सोफोक्लीज के दो नाटकों का अनुवाद किया। इनके मूल लेखन के केंद्रीय विषय सन् 1942-1951 की घटनाएं-विश्वयुद्ध की छाया, बंगाल का अकाल, भारत छोड़ो आंदोलन, भारत पाक विभाजन, हिंदू-मुस्लिम दंगे, भारतीय स्वाधीनता, साम्यवादी दलों पर पाबंदी, महात्मा गांधी की हत्या, नेहरू युग की शुरुआत...आदि हैं। इसी आंदोलित वातावरण में रांगेय राघव कहानी लेखन के मैदान में उतरे। जाहिर है कि इनकी कहानियां हमारे समक्ष इतिहास के उस कालखंड का तिलिस्मी दरवाजा खोलती हैं। उस काल की शायद ही कोई बड़ी घटना हो जिसकी अनुगूंज रांगेय राघव की कहानियों में न मिले। उक्त परिस्थितियों के फलस्वरुप देश में महंगाई, बेरोजगारी, आर्थिक शोषण, कालाबाजारी, अभाव दरिद्रता दमन और भ्रष्टाचार का बोलबाला हुआ, जिनका सिलसिलेवार ब्यौरा इनकी कहानियों में मिलता है। ‘गदल’ और ‘पंच परमेश्वर’ जैसी कालजयी कहानियां आज भी जन-जन की जीभ पर बसी हुई हैं, तो इसका मूल कारण कथाकार रांगेय राघव का मौलिक जनसरोकार और गहन जीवन-दृष्टि ही है। अपने समय और समाज के प्रति संपूर्ण रूप से जिम्मेदार कथाकार रांगेय राघव की ऐसी ही कहानियों का चुनिंदा संकलन रांगेय राघव: संकलित कहानियां है।
संकलक वीरेश कुमार हिन्दी साहित्य में काम करने वाले उन थोड़े से लोगों में से हैं, जिनकी निष्ठा काम की गुणवत्ता में है। वे संकलन/संपादन के कार्य की जिम्मेदारी को समझते हैं। करीब सात दर्जन कहानियों में से इक्कीस कहानियों की चयन दृष्टि और उसकी संपादन-कला इनके कौशल का प्रमाण है।
संकलक वीरेश कुमार हिन्दी साहित्य में काम करने वाले उन थोड़े से लोगों में से हैं, जिनकी निष्ठा काम की गुणवत्ता में है। वे संकलन/संपादन के कार्य की जिम्मेदारी को समझते हैं। करीब सात दर्जन कहानियों में से इक्कीस कहानियों की चयन दृष्टि और उसकी संपादन-कला इनके कौशल का प्रमाण है।
भूमिका
रांगेय राघव को जितना पढ़ा गया है, उनके बारे में उससे कम लिखा गया है। हिन्दी साहित्य का इतिहास बताने वाले ग्रंथ्रों में उनकी चर्चा नहीं के बराबर हुई है। जबकि रचना-कला की संक्षिप्तता, रचनात्मक ऊर्जा की मात्रा, सृजित साहित्य की विपुलता और उसके वैविध्य की दृष्टि से उनकी तुलना हम आधुनिक हिन्दी साहित्य के आदिपुरुष भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से कर सकते हैं। मात्र उनचालीस वर्ष की आयु पाकर रांगेय ने अड़तीस उपन्यासों, दस कहानी संग्रहों, छह काव्यों, तीन नाटकों और उन्नीस आलोचना, इतिहास, संस्कृति और चिंतन संबंधी ग्रंथों की रचना की। इसके अलावा उन्होंने शेक्सपीयर के पंद्रह, गॉल्सवर्दी के एक और सोफोक्लीज के दो नाटकों का भी हिन्दी में अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त भी ऐसे कार्य किए, जिनसे हिन्दी साहित्य के भंडार की श्री-वृद्धि हुई।
इतने कम समय में इतना बड़ा रचनात्मक कार्य-विस्तार हमें भारतेन्दु को छोड़कर और कहीं शायद ही मिलता है। ये भी मात्र पैंतीस वर्ष जिए, और विपुल मात्रा में साहित्य की रचना की। अतः रांगेय राघव की कहानियों का विस्तृत भूमिका सहित संकलन तैयार करवाकर नेशनल बुक ट्रस्ट एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति का काम कर रहा है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के बारे में किसी विद्वान ने लिखा है कि शायद वे जानते थे कि उन्हें बहुत कम समय तक जीना है, इसलिए उन्होंने अपने जीवन के एक-एक क्षण को साहित्य-सृजन में लगाया। लिखने की मानो उन्हें जल्दबाजी थी। इस काम में वे इतना लीन रहे कि अपने लिखे को दुबारा देखने और सजाने-संवारने की उन्हें फुरसत ही नहीं मिली। इसलिए उनकी रचनाओं में हम कहीं-कहीं एक प्रकार की अनगढ़ता और बेढबपन भी पाते हैं।
मेरे विचार से इस तरह की बात रांगेय राघव के विषय में भी कही जा सकती है। उन्हें भी मानो अपने अत्यंत संक्षिप्त जीवन के एक-एक पल का सदुपयोग कर हिन्दी साहित्य के कोष को अधिक से अधिक भरने की जल्दी थी।
रांगेय राघव का पूरा नाम तिरुमलै नम्बाकम वीर राघवाचार्य था। इनका जन्म 17 जनवरी, 1923 को आग में हुआ था। उनके पिता श्री रंगाचार्य राजस्थान प्रांत की जयपुर रियासत के अंतर्गत वैर-वारौली नामक स्थान पर स्थापित सीताराम मंदिर के पुजारी थे जहां उन्हें रियासत की तरफ से जागीर भी मिली हुई थी। रांगये राघव की माता का नाम श्रीमति कनक वल्ली था। जैसा कि इनके नामों के समाजशास्त्र और भूगोल से स्पष्ट हैं; ये लोग दाक्षिणात्य (तमिल) ब्राह्मण थे और इनके पूर्वज प्रायः ढाई सौ वर्ष पहले दक्षिण आरकाट से यहां आकर बसे थे।
इनके पिता श्री रंगाचार्य तमिल और संस्कृत के अतिरिक्त राजकाज की पुरानी भाषा फारसी के भी जानकार थे और माता श्रीमती कनक वल्ली तमिल और कन्नड़ के अतिरिक्त ब्रजभाषा भी जानती थीं। इस प्रकार रांगेय राघव एक ऐसी परंपरा के अनायास ही उत्तराधिकारी बने, जिसमें उत्तर और दक्षिण भारतीय मनीषा के विशिष्ट तत्त्वों का मणि-कांचन योग हुआ। इनकी इस विशिष्ट पृष्ठभूमि की जानकारी उनके साहित्य के रूप और उसकी अंतर्वस्तु में निहित उन विशेषताओं को चिह्नित करने में सहायक सिद्ध होती है, जो रांगेय को अपने समकालीन रचनाकारों की अपेक्षा एक अलग व्यक्तित्व और पहचान देती हैं।
इनके पूर्वज पौरोहित्य करते थे, लेकिन वे सिर्फ पुजारी या पुरोहित ही नहीं थे। चूंकि जीवन-यापन के लिए राजा की तरफ से उन्हें जागीर मिली हुई थी, अतः व्यवहार में वे जागीरदार भी थे। संभवतः इसीलिए सामंती परिवेश के सारे गुण-गंभीर सत्याग्रह, व्यक्तिगत वीरता, स्फीत आत्माभिमान और झुकने के बदले टूट जाने की प्रवृत्ति हम अपने आलोच्य लेखक के स्वभाव में कूट-कूटकर भरा हुआ पाते हैं। इसलिए यह स्वाभाविक है कि रांगेय ने सारी अर्हताएं रहते हुए भी नौकरी (नाकरी) करना पसंद नहीं किया और एक बार यह निर्णय कर लेने के बाद आजीवन उस पर डटे रहे और साहित्य की बलि वेदी पर अपने-आप को न्योछावर कर दिया।
यह आकस्मिक नहीं है कि एक कहानीकार के रूप में उनकी सबसे सफल और श्रेष्ठ कहानी ‘गदल’ मानी जाती है, जिसमें एक औरत सशस्त्र पुलिस बल से मोर्चा लेते हुए, गोली खाकर शहीद हो जाती है, किंतु मरते समय भी उसे यह आत्मसंतोष रहता है कि उसने परंपरा द्वारा विहिप अपने कर्त्तव्य-भार को पूरा किया।
रांगेय राघव ने अपनी स्कूली शिक्षा-अंग्रेजी माध्यम से क्वीन विक्टोरिया स्कूल, आगरा में प्राप्त की और वहीं के सेंट जॉन्स कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य, दर्शन और अर्थशास्त्र विषयों के साथ स्नातक की पढ़ाई पूरी की। सन् 1943 में उन्होंने हिन्दी से एम.ए. किया और सन् 1948 में ‘गुरु गोरखनाथ और उनका युग’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। अपने शोध के सिलसिले में वे कुछ दिनों तक तत्कालीन भारत के अद्वितीय ज्ञान-केंद्र शांतिनिकेतन में भी रहे, जहां उन्हें हिन्दी के मूर्धन्य आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का सान्निध्य और मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।
गुरु गोरखनाथ के योगमार्ग का भी कुछ न कुछ प्रभाव इस लेखक के जीवन पर अवश्य दिखाई देता है। लंबे समय तक अविवाहित रहकर उन्होंने अपने को लेखन के लिए समर्पित कर दिया था। रांगेय राघव की रचनाओं के प्रमुख अध्येता श्री मधुरेश ने लिखा है कि वैर जैसे गांव में, जहां बिजली जैसी सामान्य सुविधाओं का भी अभाव था, मच्छरदानी के अंदर लालटेन रखकर गर्मियों में रात-रात भर जाग-जागकर लिखना उनकी आदतों में शुमार हो गया था। दिन में छत से लटकने वाले तब के समय में प्रचलित कपड़े के पंखे की डोरी अपने पैर में बाधकर उसे खींचते हुए पेट के बल लेटकर हठयोग की सी मुद्रा में वे अपना लेखन कार्य करते थे।
इस प्रकार एक योगी की सी कष्ट-साधना और एकाग्रता तथा संकल्प के साथ उन्होंने अपने साहित्य की रचना की। परिजनों के अत्यंत आग्रह और जबाव पर उन्होंने सन् 1965 में सुलोचना जी से विवाह किया। उनकी एक मात्र लड़की का नाम सीमंतिनी है। एक युवा पत्नी, अबोध बच्ची, अपने ढेर सारे शुभचिंतकों और अपने विशाल साहित्य के साथ-साथ उसके अध्ययन और मूल्यांकन की चुनौती अपने पीछे छोड़कर, रक्त कैंसर नामक असाध्य रोग से पीड़ित, यह विलक्षण रचनाकार इस संसार से 12 सितंबर, 1962 को चला गया। उस समय समूचे हिन्दी जगत में लगभग ऐसा ही महसूस किया गया, जैसे भरी दुपहरी में कभी सूरज डूब जाए। शायद इसी कारण रांगेय राघव को उनके समय के एक अध्यापक और प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान प्रो. प्रकाशचंद्र गुप्त ने हिन्दी साहित्याकाश का धूमकेतु कहा है।
श्री अशोक शास्त्री द्वारा संपादित दो खंडों की ‘रांगेय राघव की संपूर्ण कहानियां’ में कुल तिरासी कहानियां हैं। ‘मेरी प्रिय कहानियां’ नामक किताब की प्रस्तावना में रांगेय ने खुद लिखा है, ‘मैंने अधिक कहानियां नहीं लिखी हैं, शायद अस्सी या पचासी।’
ये कहानियां मोटे तौर पर सन् 1944-1958 के मध्य लिखी गई हैं। इनकी पहली कहानी ‘अभिमान’ और अंतिम कहानी ‘ममता की मजबूरी’ मानी जाती है। रांगेय राघव जिन दिनों रचनाशील थे, उस समय अथवा उसके आसपास सक्रिय अन्य रचनाकारों में प्रेमचंद्र, जैनेन्द्र, यशपाल, बेनीपुरी, नागार्जुन, अमृतराय और ओंकार शरद आदि के नाम महत्त्वपूर्ण हैं। उस समय के समालोचकों में डा. रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, शिवदान सिंह चौहान, प्रकाशचंद्र गुप्त, भगवतशरण उपाध्याय और चंद्रबली सिंह आदि प्रमुख हैं। अपने कथ्य की विभिन्नता, वैचारिक मतभेदों और अपनी शैलीगत विशिष्टताओं के कारण रांगेय अपने समकालीनों के मध्य एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। इनकी कहानियों का सामान्य परिवेश भी इन्हें एक अलग पहचान या रंग देता है। इनमें भौगोलिक दृष्टि से राजस्थान के आसपास का क्षेत्र और स्थानीय समाज के रीति-रिवाज तथा उनके शब्द और उनकी समस्याएं-अर्थात् एक पूरा आंचलिक परिवेश अपनी तमाम खूबियों और खामियों के साथ उभरता है।
श्री अशोक शास्त्री ने लिखा है, ‘सन् 1942-1943 से लेकर सन् 1950-1951 तक के बीच भारत में एक साथ इतनी घटनाएं हुईं और परिवर्त्तन हुए जो किसी भी समाज को हिलाकर उसका नक्शा बदलकर रख सकते हैं: विश्वयुद्ध की छाया, बंगाल का अकाल, भारत छोड़ो आंदोलन, भारत-पाक विभाजन, हिन्दू-मुस्लिम दंगे, स्वतंत्रता प्राप्ति, साम्यवादी दलों पर पाबंदी, महात्मा गांधी की हत्या, नेहरू युग की शुरूआत...और यही वह समय है जब युवक रांगेय राघव कहानी के मैदान में अपनी कलम लेकर उतरे थे। आज हम, जैसे ही इन कहानियों के पन्ने खोलते हैं, मानो इतिहास के उस कालखंड का तिलिस्मी दरवाजा खुल जाता है; तत्कालीन शायद ही कोई बड़ी घटना हो जिसकी अनुगूंजें रांगेय राघव की कहानियों में सुनाई न दें।...रांगेय राघव के उपन्यासों की तरह उनकी कहानियों और उनके पात्रों में जबरदस्त वैविध्य है। इन पात्रों की बस्ती पर जब हम नजर दौड़ाते हैं तो जान पड़ता है कि वह एक लघुभारत है।’ सचमुच, दक्षिण के द्रविड़ांचल से लेकर उत्तर के ब्रजमंडल तक के जनजीवन को उन्होंने अपनी कहानियों का विषय बनाया है।
सन् 1947-1963 तक के अंतराल में रांगेय राघव के कुल ग्यारह कथा संग्रह प्रकाशित हुए-‘साम्राज्य का वैभव’, ‘समुद्र के फेन’, ‘देवदासी’, ‘जीवन के दाने’ ‘अधूरी मूरत’, अंगारे न बुझे’, ‘ऐय्यास मुर्दे’, ‘इंसान पैदा हुआ’, ‘पांच गधे’, ‘मेरी प्रिय कहानियां’ और ‘एक छोड़ एक’। उक्त सूची में से पहला संग्रह सन् 1947 में और अंतिम संग्रह लेखक की मृत्यु के बाद सन् 1963 में प्रकाशित हुआ।
द्वितीय विश्व युद्ध के फलस्वरूप विश्व भर में मंहगाई, बेरोज़गारी, आर्थिक शोषण, कालाबाजारी, अभाव, दरिद्रता, दमन और भ्रष्टाचार का बोलबाला हुआ। इनके प्रभाव से भारत जैसे गरीब, अविकसित और गुलाम देश का बचना असंभव था। देश की इस दयनीय दशा की ओर तत्कालीन साहित्यकारों का ध्यानाकर्षण स्वाभाविक तौर पर हुआ। इनमें रांगेय राघव भी अग्रणी थे। इनकी कहानियों में सर्वत्र इन परिस्थितियों के ब्योरे मिलते हैं। ‘गदल’ को रांगेय के समालोचक उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी मानते हैं। मगर मेरी राय में ‘पंच परमेश्वर’ उनकी दूसरी सर्वश्रेष्ठ कहानी है, जो अपने रूप और अपनी अंतर्वस्तु में महान कहानीकार प्रेमचंद्र की इसी नाम की एक प्रसिद्ध कहानी के साथ प्रतिद्वंद्विता करती है।
इस कहानी में एक युवा स्त्री पति को छोड़ अपने जेठ के घर ‘जा बैठती है’-अर्थात उसे ही अपना नया पति स्वीकार कर लेती है। पीड़ित पूर्व पति के अनुरोध पर बुलाई गई पंचायत में बिरादरी का सरपंच बड़े भाई से रिश्वत खाकर उसी के पक्ष में फैसला देता है। और तो और, उस भरी सभा में वह स्त्री अपने पूर्व पति को नामर्द भी ठहरा देती है। और यह काम भी कहीं न कहीं पंच के इशारे या उसकी शह पर ही होता है। वह कहती है, ‘चौधरी भगवान हैं। पंच परमेश्वर हैं। लुगाई मरद की है, मगर जो मरद ही न हो, उसकी कोई लुगाई नहीं है !’ और उसका यह बयान ही फैसला बन जाता है। थोड़े में कहें तो ‘पंच परमेश्वर’ निम्नवर्गीय शहरी जीवन में स्त्री-पुरुष संबंधों और पुरानी पंच आधारित कबीलाई न्याय व्यवस्था की सड़ांध पर आधारित कहानी है, और प्रेमचंद की इसी शीर्षक कथा के विपरीत विधान में लिखी गई है।
अपने पूर्ववर्ती महान कथाकार प्रेमचंद्र की कहानी में दर्शाए गए आदर्शवाद के उलट, अपनी इस कहानी में रांगेय पंच ‘परमेश्वर’ का यथार्थ रूप हमारे सामने लाते हैं ? जिसे देखकर उस पाठक अथवा आलोचक को कोई परेशानी या असुविधा नहीं होती है, जो जनजीवन की सरजमीनी सचाइयों से परिचित हैं। उन्हें यथार्थ के इस नग्न रूप को देखकर कोई खास अचंभा भी नहीं होता।
जबकि इन जमीनी सच्चाइयों से नावाकिफ लोगों को यह न सिर्फ असुविधाजनक और असंभव लगता है, बल्कि उस विरूप को देखकर उन्हें एक प्रकार का सदमा जैसा अनुभव होता है जिससे उबरने के लिए वे या तो इस पर विश्वास ही नहीं करते अथवा लेखक पर अविश्वसनीयता का आरोप लगाते हैं। यह बात इस कहानी सहित रांगेय की अन्य यथार्थवादी कहानियों पर भी लागू होती है।
रांगेय राघव की कहानियों की एक और उल्लेखनीय विशेषता है-उनमें मिलने वाला देसीपन अथवा ग्रामीण परिवेश। यह तत्त्व उनकी उन कहानियों में भी मिलता है जो शहरी अथवा कस्बाई पृष्ठभूमि पर लिखी गई हैं।
इस संकलन की ‘देवदासी’ और ‘प्रवासी’ शीर्षक कहानियां दक्षिण भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। इन दोनों में रूढ़ सामाजिक मान्यताओं की बलि-वेदी पर नारी के बलिदान की कथा कही गई है। जबकि इनके घटना काल में लगभग एक हजार वर्षों का अंतराल है। फिर भी देखने लायक बात यह है कि इतना समय बीत जाने के बावजूद समाज की मूल परिस्थितियां और व्यक्ति की सोच लगभग जस की तस ही है। इन दोनों ही कहानियों की पृष्ठभमि में मंदिर और पुजारी वर्ग है।
‘जाति और पेशा’ कहानी हमें लेव तोल्स्तोय की प्रसिद्ध कहानी ‘दो पड़ोसी’ की याद दिलाती है, लेकिन इसका अंत आदर्शवादी नहीं, यथार्थवादी है।
‘ऊंट की करवट’ में समाज और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार की चर्चा की गई है। ‘नई जिंदगी के लिए’ कहानी में पुरुष प्रधान समाज में पुत्र-प्राप्त की दुर्दमनीय आकांक्षा एवं इसके कारण होने वाले अनर्थ को दर्शाया गया है। ‘घिसटता कंबल’ निम्न मध्यमवर्गीय, नौकरीपेशा एकल परिवार के युवा दंपति की कहानी है, जिसका केंद्र दिल्ली शहर है।
‘पेड़’ एक अत्यंत मार्मिक और दुःखांत कहानी है, जिसमें पुरानी आदर्शवादी मान्यताओं और जीवन की कठोर वास्तविकताओं के बीच व्याप्त अंतर्विरोध और त्रासदी को दर्शाया गया है। ‘बांबी और मंतर’ अल्पसंख्यक वर्ग पर लिखी गई कहानी है जिसमें शहरी निम्नवर्ग के जीवन और विवाहेतर संबंधों को दिखाया गया है। ‘गूंगे’ एक विकलांग बाल-मजदूर की कथा है।
‘भय’ कहानी में नायिका रतनी का ममिया ससुर कुन्दन, खेत में उसके साथ कथित तौर पर बलात्कार करता है, जिसको उसकी सास देख लेती है। सास द्वारा शोर मचाने पर बावेला होता है और मारपीट तथा फौजदारी तक बात पहुंच जाती है। लेकिन इस कांड के पीड़िता का मंतव्य ध्यान देने योग्य है। उसकी सास धूपो जब उसे कुलच्छनी कहकर उसकी भर्त्स्ना करती है, तब वह जवाब देती है, ‘पर मैं क्या करती ? वे तीन थे। दो ने मुझे जबरदस्ती पढ़कर मेरे मुंह में कपड़ा ठूंस दिया। मैं चिल्ला भी नहीं सकी। और तुमने देखा तो हल्ला क्यों किया ? जब बचाने की ताकत न थी तो बेआबरू करके ही तुझे क्या मिल गया ?’
अपने साथ हुई ‘जबरदस्ती’ के प्रति उस स्त्री का कैसा विस्मयकारी दृष्टिकोण है ! लेकिन जब हम-आयु, वित्त, गृह-छिद्र, मैथुन, दान, मान, अपमान आदि को गोपनीय रखने की नैतिकता में विश्वास करने वाले भारतीय सामाजिक परिवेश को ध्यान में लाते हैं, तो रतनी का उक्त दृष्टिकोण हमें असंगत कम और युक्तियुक्त अधिक मालूम होता है।
‘प्रवासी’ इस संग्रह की एक दीर्घ कथा है। जैसा कि इसके शीर्षक से ही स्पष्ट है; यह गोपालन नाम एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण की कहानी है, जो पुजारी बनकर उत्तर भारत में रह रहा है। पूरी कहानी फ्लैशबैक शैली में लिखी गई है। इसमें एक पढ़ी-लिखी विधवा ब्राह्मणी युवती के संघर्षों और युवा गोपालन द्वारा उसको दिए गए निःस्वार्थ सहयोग, समाज में इन संबंधों के फलस्वरूप फैली बदनामी और तत्पश्चात ब्राह्मणी के अनुरोध पर गोपालन द्वारा उस प्रदेश से किए गए निष्क्रमण आदि का मार्मिक चित्रण किया गया है। भारतीय परिवेश में नारी की व्यथा और उसके मनोशारीरिक द्वंद्व की अभिव्यक्ति, इस कहानी में होती है।
‘नारी का विक्षोभ’ इस संग्रह की एक और दीर्घ कथा है। इसका घटनाक्षेत्र लखनऊ और उसके आसपास का क्षेत्र है। उसमें एक सुंदर, शिक्षित और नए विचारों वाली लड़की सविता का संघर्ष चित्रित हुआ है। उसका पति जो पहले उसके साथ ही कॉलेज में पढ़ता था, और उसका दीवाना था; शादी के पहले अपने को बिल्कुल आजाद ख्याल और आधुनिक जाहिर करता था। लेकिन शादी के बाद वह सविता पर हर तरह की बंदिशें लगाने लगा; यहां तक कि उसके साथ मारपीट तक पर उतारू हो गया। लेकिन सविता ने घुटने, मरने की बजाए प्रतिकार करने का निश्चय किया। यह कहानी उसके संकल्प और संघर्ष को उजागर करती है। यह कहानी वस्तुतः भारत की आधुनिक स्त्री या एक नई नारी की भाव-वाहिका है, जो अपनी दादियों और मांओं की तरह स्वीकार और सहनशीलता के पिटे-पिटाए रास्तों पर चलने के लिए तैयार नहीं है। ‘कुत्ते की दुम और शैतान: नए टेकनीक्स’ कहानी के माध्यम से लेखक ने अपने समय की साहित्य-समीक्षा और उसमें प्रचलित विभिन्न प्रवृत्तियों और लेखकीय दुराग्रहों के साथ-साथ अपने कई समकालीन रचनाकारों और समीक्षकों पर व्यंग्य किया है।
यह कहानी हिन्दी आलोचना में व्याप्त अव्यवस्था और भेड़ चाल का अच्छा निदर्शन आम पाठकों को कराती है। कहा जाता है कि यह कहानी हिन्दी में सन् 1945-1955 तक चले प्रखर साहित्यिक विवादों की एक हास्यमय झलकी या झांकी है।
रांगेय राघव प्रगतिवादी दौर के रचनाकार थे, लेकिन इसके बावजूद वे साहित्य को सिर्फ सामयिकता के घेरे में बंद कर देने के हिमायती नहीं थे। शायद यही कारण है कि एक यथार्थवादी रचनाकार के रूप में रांगेय सिर्फ समस्याओं को उठाते हैं; आदर्शोन्मुखी यथार्थवादियों की तरह उनका कोई समाधान प्रस्तुत नहीं करते। इसके पीछे कहीं-न-कहीं यह विचार जरूर कार्यरत है कि समस्याएं ही अपने मूल रूप में शाश्वत होती हैं, समाधान तो युगीन होते हैं और उनकी स्वीकार्यता अथवा अस्वीकार्यता समय के साथ-साथ बदलती रहती है। इन्हीं सब बिंदुओं पर इनका अपने समकालीन रचनाकारों और आलोचकों के साथ सतत संघर्ष चलता रहता था। इस संबंध में मधुरेश ने अपनी पुस्तक ‘रांगेय राघव’ में लिखा है कि समूचे प्रगतिवादी दौर में रांगेय अकेले ऐसे कहानीकार हैं जो शैली, शिल्प और रचनातंत्र की दृष्टि से अपनी प्रयोग-बहुलता के कारण कहानी में उपलब्ध चौखटे को झकझोड़ते और तोड़ते दिखाई देते हैं। पृष्ठों की सीमा निर्धारित होने के कारण कई अन्य कहानियों का समावेश नहीं किया जा सका, जो अन्यथा महत्त्वपूर्ण हो सकती थी।
कहानियों के प्रकाशन अथवा उनके रचनाकाल को इस संकलन में क्रम निर्धारण का आधार बनाया गया है। सिर्फ ‘पंच परमेश्वर’ कहानी इसका अपवाद है। इसी कारण ‘गदल’ जैसी कहानी, जो कदाचित् इस लेखक की सर्वश्रेष्ठ रचना है, विषय-सूची में सत्रहवें स्थान पर है। इस माध्यम से कहानीकार की कला, उसकी सोच और उसके परिणामस्वरूप कहानियों के रूप और उसकी अंतर्वस्तु में हुए विकास अथवा बदलाव का रेखांकन और उसका अध्ययन किया जा सकता है। शोध प्रविधि की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण बात है और प्राकृतिक न्याय की दृष्टि से भी सही है।
इस संकलन में संगृहीत कहानियों में हमारे सुधी पाठकों को लेखक और उसके युगीन संघर्षों, उसकी टूटन और झकझोड़ तथा सामयिकता और उसका अतिक्रमण करती हुई शाश्वतता की थोड़ी-सी भी झलक दिखाई दे जाए और उसकी अहाट तथा सुगबुगाहट को वे यदि थोड़ा-सा भी अपने अंदर या आसपास महसूस करें तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूंगा। सारस्वत कर्म में प्रवृत्त किसी भी व्यक्ति के लिए इससे बढ़कर सांत्वना और क्या हो सकती है।
पुस्तक तैयार करने में जिन मित्रों, लेखक के परिजनों और एन.बी.टी. के पदाधिकारियों का सहयोग मिला, उनकी चर्चा किए बिना यह प्रसंग अधूरा रहेगा। मित्रवर डा. रमेश कुमार, प्रवक्ता, हिन्दी विभाग, श्री वार्ष्णेय कॉलेज, अलीगढ़ (यू.पी.), लेखक पत्नी श्रद्धेया सुलोचना रांगेय राघव, लेखक-पुत्री श्रीमती सीमंतिनी एवं उनके पति श्री अशोक शास्त्री का हृदय से आभारी हूं जिनके सहयोग, आशीर्वाद और मार्गदर्शन से इस कार्य को संपन्न किया गया है।
इतने कम समय में इतना बड़ा रचनात्मक कार्य-विस्तार हमें भारतेन्दु को छोड़कर और कहीं शायद ही मिलता है। ये भी मात्र पैंतीस वर्ष जिए, और विपुल मात्रा में साहित्य की रचना की। अतः रांगेय राघव की कहानियों का विस्तृत भूमिका सहित संकलन तैयार करवाकर नेशनल बुक ट्रस्ट एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति का काम कर रहा है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के बारे में किसी विद्वान ने लिखा है कि शायद वे जानते थे कि उन्हें बहुत कम समय तक जीना है, इसलिए उन्होंने अपने जीवन के एक-एक क्षण को साहित्य-सृजन में लगाया। लिखने की मानो उन्हें जल्दबाजी थी। इस काम में वे इतना लीन रहे कि अपने लिखे को दुबारा देखने और सजाने-संवारने की उन्हें फुरसत ही नहीं मिली। इसलिए उनकी रचनाओं में हम कहीं-कहीं एक प्रकार की अनगढ़ता और बेढबपन भी पाते हैं।
मेरे विचार से इस तरह की बात रांगेय राघव के विषय में भी कही जा सकती है। उन्हें भी मानो अपने अत्यंत संक्षिप्त जीवन के एक-एक पल का सदुपयोग कर हिन्दी साहित्य के कोष को अधिक से अधिक भरने की जल्दी थी।
रांगेय राघव का पूरा नाम तिरुमलै नम्बाकम वीर राघवाचार्य था। इनका जन्म 17 जनवरी, 1923 को आग में हुआ था। उनके पिता श्री रंगाचार्य राजस्थान प्रांत की जयपुर रियासत के अंतर्गत वैर-वारौली नामक स्थान पर स्थापित सीताराम मंदिर के पुजारी थे जहां उन्हें रियासत की तरफ से जागीर भी मिली हुई थी। रांगये राघव की माता का नाम श्रीमति कनक वल्ली था। जैसा कि इनके नामों के समाजशास्त्र और भूगोल से स्पष्ट हैं; ये लोग दाक्षिणात्य (तमिल) ब्राह्मण थे और इनके पूर्वज प्रायः ढाई सौ वर्ष पहले दक्षिण आरकाट से यहां आकर बसे थे।
इनके पिता श्री रंगाचार्य तमिल और संस्कृत के अतिरिक्त राजकाज की पुरानी भाषा फारसी के भी जानकार थे और माता श्रीमती कनक वल्ली तमिल और कन्नड़ के अतिरिक्त ब्रजभाषा भी जानती थीं। इस प्रकार रांगेय राघव एक ऐसी परंपरा के अनायास ही उत्तराधिकारी बने, जिसमें उत्तर और दक्षिण भारतीय मनीषा के विशिष्ट तत्त्वों का मणि-कांचन योग हुआ। इनकी इस विशिष्ट पृष्ठभूमि की जानकारी उनके साहित्य के रूप और उसकी अंतर्वस्तु में निहित उन विशेषताओं को चिह्नित करने में सहायक सिद्ध होती है, जो रांगेय को अपने समकालीन रचनाकारों की अपेक्षा एक अलग व्यक्तित्व और पहचान देती हैं।
इनके पूर्वज पौरोहित्य करते थे, लेकिन वे सिर्फ पुजारी या पुरोहित ही नहीं थे। चूंकि जीवन-यापन के लिए राजा की तरफ से उन्हें जागीर मिली हुई थी, अतः व्यवहार में वे जागीरदार भी थे। संभवतः इसीलिए सामंती परिवेश के सारे गुण-गंभीर सत्याग्रह, व्यक्तिगत वीरता, स्फीत आत्माभिमान और झुकने के बदले टूट जाने की प्रवृत्ति हम अपने आलोच्य लेखक के स्वभाव में कूट-कूटकर भरा हुआ पाते हैं। इसलिए यह स्वाभाविक है कि रांगेय ने सारी अर्हताएं रहते हुए भी नौकरी (नाकरी) करना पसंद नहीं किया और एक बार यह निर्णय कर लेने के बाद आजीवन उस पर डटे रहे और साहित्य की बलि वेदी पर अपने-आप को न्योछावर कर दिया।
यह आकस्मिक नहीं है कि एक कहानीकार के रूप में उनकी सबसे सफल और श्रेष्ठ कहानी ‘गदल’ मानी जाती है, जिसमें एक औरत सशस्त्र पुलिस बल से मोर्चा लेते हुए, गोली खाकर शहीद हो जाती है, किंतु मरते समय भी उसे यह आत्मसंतोष रहता है कि उसने परंपरा द्वारा विहिप अपने कर्त्तव्य-भार को पूरा किया।
रांगेय राघव ने अपनी स्कूली शिक्षा-अंग्रेजी माध्यम से क्वीन विक्टोरिया स्कूल, आगरा में प्राप्त की और वहीं के सेंट जॉन्स कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य, दर्शन और अर्थशास्त्र विषयों के साथ स्नातक की पढ़ाई पूरी की। सन् 1943 में उन्होंने हिन्दी से एम.ए. किया और सन् 1948 में ‘गुरु गोरखनाथ और उनका युग’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की। अपने शोध के सिलसिले में वे कुछ दिनों तक तत्कालीन भारत के अद्वितीय ज्ञान-केंद्र शांतिनिकेतन में भी रहे, जहां उन्हें हिन्दी के मूर्धन्य आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का सान्निध्य और मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।
गुरु गोरखनाथ के योगमार्ग का भी कुछ न कुछ प्रभाव इस लेखक के जीवन पर अवश्य दिखाई देता है। लंबे समय तक अविवाहित रहकर उन्होंने अपने को लेखन के लिए समर्पित कर दिया था। रांगेय राघव की रचनाओं के प्रमुख अध्येता श्री मधुरेश ने लिखा है कि वैर जैसे गांव में, जहां बिजली जैसी सामान्य सुविधाओं का भी अभाव था, मच्छरदानी के अंदर लालटेन रखकर गर्मियों में रात-रात भर जाग-जागकर लिखना उनकी आदतों में शुमार हो गया था। दिन में छत से लटकने वाले तब के समय में प्रचलित कपड़े के पंखे की डोरी अपने पैर में बाधकर उसे खींचते हुए पेट के बल लेटकर हठयोग की सी मुद्रा में वे अपना लेखन कार्य करते थे।
इस प्रकार एक योगी की सी कष्ट-साधना और एकाग्रता तथा संकल्प के साथ उन्होंने अपने साहित्य की रचना की। परिजनों के अत्यंत आग्रह और जबाव पर उन्होंने सन् 1965 में सुलोचना जी से विवाह किया। उनकी एक मात्र लड़की का नाम सीमंतिनी है। एक युवा पत्नी, अबोध बच्ची, अपने ढेर सारे शुभचिंतकों और अपने विशाल साहित्य के साथ-साथ उसके अध्ययन और मूल्यांकन की चुनौती अपने पीछे छोड़कर, रक्त कैंसर नामक असाध्य रोग से पीड़ित, यह विलक्षण रचनाकार इस संसार से 12 सितंबर, 1962 को चला गया। उस समय समूचे हिन्दी जगत में लगभग ऐसा ही महसूस किया गया, जैसे भरी दुपहरी में कभी सूरज डूब जाए। शायद इसी कारण रांगेय राघव को उनके समय के एक अध्यापक और प्रसिद्ध हिन्दी विद्वान प्रो. प्रकाशचंद्र गुप्त ने हिन्दी साहित्याकाश का धूमकेतु कहा है।
श्री अशोक शास्त्री द्वारा संपादित दो खंडों की ‘रांगेय राघव की संपूर्ण कहानियां’ में कुल तिरासी कहानियां हैं। ‘मेरी प्रिय कहानियां’ नामक किताब की प्रस्तावना में रांगेय ने खुद लिखा है, ‘मैंने अधिक कहानियां नहीं लिखी हैं, शायद अस्सी या पचासी।’
ये कहानियां मोटे तौर पर सन् 1944-1958 के मध्य लिखी गई हैं। इनकी पहली कहानी ‘अभिमान’ और अंतिम कहानी ‘ममता की मजबूरी’ मानी जाती है। रांगेय राघव जिन दिनों रचनाशील थे, उस समय अथवा उसके आसपास सक्रिय अन्य रचनाकारों में प्रेमचंद्र, जैनेन्द्र, यशपाल, बेनीपुरी, नागार्जुन, अमृतराय और ओंकार शरद आदि के नाम महत्त्वपूर्ण हैं। उस समय के समालोचकों में डा. रामविलास शर्मा, नामवर सिंह, शिवदान सिंह चौहान, प्रकाशचंद्र गुप्त, भगवतशरण उपाध्याय और चंद्रबली सिंह आदि प्रमुख हैं। अपने कथ्य की विभिन्नता, वैचारिक मतभेदों और अपनी शैलीगत विशिष्टताओं के कारण रांगेय अपने समकालीनों के मध्य एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। इनकी कहानियों का सामान्य परिवेश भी इन्हें एक अलग पहचान या रंग देता है। इनमें भौगोलिक दृष्टि से राजस्थान के आसपास का क्षेत्र और स्थानीय समाज के रीति-रिवाज तथा उनके शब्द और उनकी समस्याएं-अर्थात् एक पूरा आंचलिक परिवेश अपनी तमाम खूबियों और खामियों के साथ उभरता है।
श्री अशोक शास्त्री ने लिखा है, ‘सन् 1942-1943 से लेकर सन् 1950-1951 तक के बीच भारत में एक साथ इतनी घटनाएं हुईं और परिवर्त्तन हुए जो किसी भी समाज को हिलाकर उसका नक्शा बदलकर रख सकते हैं: विश्वयुद्ध की छाया, बंगाल का अकाल, भारत छोड़ो आंदोलन, भारत-पाक विभाजन, हिन्दू-मुस्लिम दंगे, स्वतंत्रता प्राप्ति, साम्यवादी दलों पर पाबंदी, महात्मा गांधी की हत्या, नेहरू युग की शुरूआत...और यही वह समय है जब युवक रांगेय राघव कहानी के मैदान में अपनी कलम लेकर उतरे थे। आज हम, जैसे ही इन कहानियों के पन्ने खोलते हैं, मानो इतिहास के उस कालखंड का तिलिस्मी दरवाजा खुल जाता है; तत्कालीन शायद ही कोई बड़ी घटना हो जिसकी अनुगूंजें रांगेय राघव की कहानियों में सुनाई न दें।...रांगेय राघव के उपन्यासों की तरह उनकी कहानियों और उनके पात्रों में जबरदस्त वैविध्य है। इन पात्रों की बस्ती पर जब हम नजर दौड़ाते हैं तो जान पड़ता है कि वह एक लघुभारत है।’ सचमुच, दक्षिण के द्रविड़ांचल से लेकर उत्तर के ब्रजमंडल तक के जनजीवन को उन्होंने अपनी कहानियों का विषय बनाया है।
सन् 1947-1963 तक के अंतराल में रांगेय राघव के कुल ग्यारह कथा संग्रह प्रकाशित हुए-‘साम्राज्य का वैभव’, ‘समुद्र के फेन’, ‘देवदासी’, ‘जीवन के दाने’ ‘अधूरी मूरत’, अंगारे न बुझे’, ‘ऐय्यास मुर्दे’, ‘इंसान पैदा हुआ’, ‘पांच गधे’, ‘मेरी प्रिय कहानियां’ और ‘एक छोड़ एक’। उक्त सूची में से पहला संग्रह सन् 1947 में और अंतिम संग्रह लेखक की मृत्यु के बाद सन् 1963 में प्रकाशित हुआ।
द्वितीय विश्व युद्ध के फलस्वरूप विश्व भर में मंहगाई, बेरोज़गारी, आर्थिक शोषण, कालाबाजारी, अभाव, दरिद्रता, दमन और भ्रष्टाचार का बोलबाला हुआ। इनके प्रभाव से भारत जैसे गरीब, अविकसित और गुलाम देश का बचना असंभव था। देश की इस दयनीय दशा की ओर तत्कालीन साहित्यकारों का ध्यानाकर्षण स्वाभाविक तौर पर हुआ। इनमें रांगेय राघव भी अग्रणी थे। इनकी कहानियों में सर्वत्र इन परिस्थितियों के ब्योरे मिलते हैं। ‘गदल’ को रांगेय के समालोचक उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी मानते हैं। मगर मेरी राय में ‘पंच परमेश्वर’ उनकी दूसरी सर्वश्रेष्ठ कहानी है, जो अपने रूप और अपनी अंतर्वस्तु में महान कहानीकार प्रेमचंद्र की इसी नाम की एक प्रसिद्ध कहानी के साथ प्रतिद्वंद्विता करती है।
इस कहानी में एक युवा स्त्री पति को छोड़ अपने जेठ के घर ‘जा बैठती है’-अर्थात उसे ही अपना नया पति स्वीकार कर लेती है। पीड़ित पूर्व पति के अनुरोध पर बुलाई गई पंचायत में बिरादरी का सरपंच बड़े भाई से रिश्वत खाकर उसी के पक्ष में फैसला देता है। और तो और, उस भरी सभा में वह स्त्री अपने पूर्व पति को नामर्द भी ठहरा देती है। और यह काम भी कहीं न कहीं पंच के इशारे या उसकी शह पर ही होता है। वह कहती है, ‘चौधरी भगवान हैं। पंच परमेश्वर हैं। लुगाई मरद की है, मगर जो मरद ही न हो, उसकी कोई लुगाई नहीं है !’ और उसका यह बयान ही फैसला बन जाता है। थोड़े में कहें तो ‘पंच परमेश्वर’ निम्नवर्गीय शहरी जीवन में स्त्री-पुरुष संबंधों और पुरानी पंच आधारित कबीलाई न्याय व्यवस्था की सड़ांध पर आधारित कहानी है, और प्रेमचंद की इसी शीर्षक कथा के विपरीत विधान में लिखी गई है।
अपने पूर्ववर्ती महान कथाकार प्रेमचंद्र की कहानी में दर्शाए गए आदर्शवाद के उलट, अपनी इस कहानी में रांगेय पंच ‘परमेश्वर’ का यथार्थ रूप हमारे सामने लाते हैं ? जिसे देखकर उस पाठक अथवा आलोचक को कोई परेशानी या असुविधा नहीं होती है, जो जनजीवन की सरजमीनी सचाइयों से परिचित हैं। उन्हें यथार्थ के इस नग्न रूप को देखकर कोई खास अचंभा भी नहीं होता।
जबकि इन जमीनी सच्चाइयों से नावाकिफ लोगों को यह न सिर्फ असुविधाजनक और असंभव लगता है, बल्कि उस विरूप को देखकर उन्हें एक प्रकार का सदमा जैसा अनुभव होता है जिससे उबरने के लिए वे या तो इस पर विश्वास ही नहीं करते अथवा लेखक पर अविश्वसनीयता का आरोप लगाते हैं। यह बात इस कहानी सहित रांगेय की अन्य यथार्थवादी कहानियों पर भी लागू होती है।
रांगेय राघव की कहानियों की एक और उल्लेखनीय विशेषता है-उनमें मिलने वाला देसीपन अथवा ग्रामीण परिवेश। यह तत्त्व उनकी उन कहानियों में भी मिलता है जो शहरी अथवा कस्बाई पृष्ठभूमि पर लिखी गई हैं।
इस संकलन की ‘देवदासी’ और ‘प्रवासी’ शीर्षक कहानियां दक्षिण भारत की पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। इन दोनों में रूढ़ सामाजिक मान्यताओं की बलि-वेदी पर नारी के बलिदान की कथा कही गई है। जबकि इनके घटना काल में लगभग एक हजार वर्षों का अंतराल है। फिर भी देखने लायक बात यह है कि इतना समय बीत जाने के बावजूद समाज की मूल परिस्थितियां और व्यक्ति की सोच लगभग जस की तस ही है। इन दोनों ही कहानियों की पृष्ठभमि में मंदिर और पुजारी वर्ग है।
‘जाति और पेशा’ कहानी हमें लेव तोल्स्तोय की प्रसिद्ध कहानी ‘दो पड़ोसी’ की याद दिलाती है, लेकिन इसका अंत आदर्शवादी नहीं, यथार्थवादी है।
‘ऊंट की करवट’ में समाज और प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार की चर्चा की गई है। ‘नई जिंदगी के लिए’ कहानी में पुरुष प्रधान समाज में पुत्र-प्राप्त की दुर्दमनीय आकांक्षा एवं इसके कारण होने वाले अनर्थ को दर्शाया गया है। ‘घिसटता कंबल’ निम्न मध्यमवर्गीय, नौकरीपेशा एकल परिवार के युवा दंपति की कहानी है, जिसका केंद्र दिल्ली शहर है।
‘पेड़’ एक अत्यंत मार्मिक और दुःखांत कहानी है, जिसमें पुरानी आदर्शवादी मान्यताओं और जीवन की कठोर वास्तविकताओं के बीच व्याप्त अंतर्विरोध और त्रासदी को दर्शाया गया है। ‘बांबी और मंतर’ अल्पसंख्यक वर्ग पर लिखी गई कहानी है जिसमें शहरी निम्नवर्ग के जीवन और विवाहेतर संबंधों को दिखाया गया है। ‘गूंगे’ एक विकलांग बाल-मजदूर की कथा है।
‘भय’ कहानी में नायिका रतनी का ममिया ससुर कुन्दन, खेत में उसके साथ कथित तौर पर बलात्कार करता है, जिसको उसकी सास देख लेती है। सास द्वारा शोर मचाने पर बावेला होता है और मारपीट तथा फौजदारी तक बात पहुंच जाती है। लेकिन इस कांड के पीड़िता का मंतव्य ध्यान देने योग्य है। उसकी सास धूपो जब उसे कुलच्छनी कहकर उसकी भर्त्स्ना करती है, तब वह जवाब देती है, ‘पर मैं क्या करती ? वे तीन थे। दो ने मुझे जबरदस्ती पढ़कर मेरे मुंह में कपड़ा ठूंस दिया। मैं चिल्ला भी नहीं सकी। और तुमने देखा तो हल्ला क्यों किया ? जब बचाने की ताकत न थी तो बेआबरू करके ही तुझे क्या मिल गया ?’
अपने साथ हुई ‘जबरदस्ती’ के प्रति उस स्त्री का कैसा विस्मयकारी दृष्टिकोण है ! लेकिन जब हम-आयु, वित्त, गृह-छिद्र, मैथुन, दान, मान, अपमान आदि को गोपनीय रखने की नैतिकता में विश्वास करने वाले भारतीय सामाजिक परिवेश को ध्यान में लाते हैं, तो रतनी का उक्त दृष्टिकोण हमें असंगत कम और युक्तियुक्त अधिक मालूम होता है।
‘प्रवासी’ इस संग्रह की एक दीर्घ कथा है। जैसा कि इसके शीर्षक से ही स्पष्ट है; यह गोपालन नाम एक दक्षिण भारतीय ब्राह्मण की कहानी है, जो पुजारी बनकर उत्तर भारत में रह रहा है। पूरी कहानी फ्लैशबैक शैली में लिखी गई है। इसमें एक पढ़ी-लिखी विधवा ब्राह्मणी युवती के संघर्षों और युवा गोपालन द्वारा उसको दिए गए निःस्वार्थ सहयोग, समाज में इन संबंधों के फलस्वरूप फैली बदनामी और तत्पश्चात ब्राह्मणी के अनुरोध पर गोपालन द्वारा उस प्रदेश से किए गए निष्क्रमण आदि का मार्मिक चित्रण किया गया है। भारतीय परिवेश में नारी की व्यथा और उसके मनोशारीरिक द्वंद्व की अभिव्यक्ति, इस कहानी में होती है।
‘नारी का विक्षोभ’ इस संग्रह की एक और दीर्घ कथा है। इसका घटनाक्षेत्र लखनऊ और उसके आसपास का क्षेत्र है। उसमें एक सुंदर, शिक्षित और नए विचारों वाली लड़की सविता का संघर्ष चित्रित हुआ है। उसका पति जो पहले उसके साथ ही कॉलेज में पढ़ता था, और उसका दीवाना था; शादी के पहले अपने को बिल्कुल आजाद ख्याल और आधुनिक जाहिर करता था। लेकिन शादी के बाद वह सविता पर हर तरह की बंदिशें लगाने लगा; यहां तक कि उसके साथ मारपीट तक पर उतारू हो गया। लेकिन सविता ने घुटने, मरने की बजाए प्रतिकार करने का निश्चय किया। यह कहानी उसके संकल्प और संघर्ष को उजागर करती है। यह कहानी वस्तुतः भारत की आधुनिक स्त्री या एक नई नारी की भाव-वाहिका है, जो अपनी दादियों और मांओं की तरह स्वीकार और सहनशीलता के पिटे-पिटाए रास्तों पर चलने के लिए तैयार नहीं है। ‘कुत्ते की दुम और शैतान: नए टेकनीक्स’ कहानी के माध्यम से लेखक ने अपने समय की साहित्य-समीक्षा और उसमें प्रचलित विभिन्न प्रवृत्तियों और लेखकीय दुराग्रहों के साथ-साथ अपने कई समकालीन रचनाकारों और समीक्षकों पर व्यंग्य किया है।
यह कहानी हिन्दी आलोचना में व्याप्त अव्यवस्था और भेड़ चाल का अच्छा निदर्शन आम पाठकों को कराती है। कहा जाता है कि यह कहानी हिन्दी में सन् 1945-1955 तक चले प्रखर साहित्यिक विवादों की एक हास्यमय झलकी या झांकी है।
रांगेय राघव प्रगतिवादी दौर के रचनाकार थे, लेकिन इसके बावजूद वे साहित्य को सिर्फ सामयिकता के घेरे में बंद कर देने के हिमायती नहीं थे। शायद यही कारण है कि एक यथार्थवादी रचनाकार के रूप में रांगेय सिर्फ समस्याओं को उठाते हैं; आदर्शोन्मुखी यथार्थवादियों की तरह उनका कोई समाधान प्रस्तुत नहीं करते। इसके पीछे कहीं-न-कहीं यह विचार जरूर कार्यरत है कि समस्याएं ही अपने मूल रूप में शाश्वत होती हैं, समाधान तो युगीन होते हैं और उनकी स्वीकार्यता अथवा अस्वीकार्यता समय के साथ-साथ बदलती रहती है। इन्हीं सब बिंदुओं पर इनका अपने समकालीन रचनाकारों और आलोचकों के साथ सतत संघर्ष चलता रहता था। इस संबंध में मधुरेश ने अपनी पुस्तक ‘रांगेय राघव’ में लिखा है कि समूचे प्रगतिवादी दौर में रांगेय अकेले ऐसे कहानीकार हैं जो शैली, शिल्प और रचनातंत्र की दृष्टि से अपनी प्रयोग-बहुलता के कारण कहानी में उपलब्ध चौखटे को झकझोड़ते और तोड़ते दिखाई देते हैं। पृष्ठों की सीमा निर्धारित होने के कारण कई अन्य कहानियों का समावेश नहीं किया जा सका, जो अन्यथा महत्त्वपूर्ण हो सकती थी।
कहानियों के प्रकाशन अथवा उनके रचनाकाल को इस संकलन में क्रम निर्धारण का आधार बनाया गया है। सिर्फ ‘पंच परमेश्वर’ कहानी इसका अपवाद है। इसी कारण ‘गदल’ जैसी कहानी, जो कदाचित् इस लेखक की सर्वश्रेष्ठ रचना है, विषय-सूची में सत्रहवें स्थान पर है। इस माध्यम से कहानीकार की कला, उसकी सोच और उसके परिणामस्वरूप कहानियों के रूप और उसकी अंतर्वस्तु में हुए विकास अथवा बदलाव का रेखांकन और उसका अध्ययन किया जा सकता है। शोध प्रविधि की दृष्टि से यह महत्त्वपूर्ण बात है और प्राकृतिक न्याय की दृष्टि से भी सही है।
इस संकलन में संगृहीत कहानियों में हमारे सुधी पाठकों को लेखक और उसके युगीन संघर्षों, उसकी टूटन और झकझोड़ तथा सामयिकता और उसका अतिक्रमण करती हुई शाश्वतता की थोड़ी-सी भी झलक दिखाई दे जाए और उसकी अहाट तथा सुगबुगाहट को वे यदि थोड़ा-सा भी अपने अंदर या आसपास महसूस करें तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूंगा। सारस्वत कर्म में प्रवृत्त किसी भी व्यक्ति के लिए इससे बढ़कर सांत्वना और क्या हो सकती है।
पुस्तक तैयार करने में जिन मित्रों, लेखक के परिजनों और एन.बी.टी. के पदाधिकारियों का सहयोग मिला, उनकी चर्चा किए बिना यह प्रसंग अधूरा रहेगा। मित्रवर डा. रमेश कुमार, प्रवक्ता, हिन्दी विभाग, श्री वार्ष्णेय कॉलेज, अलीगढ़ (यू.पी.), लेखक पत्नी श्रद्धेया सुलोचना रांगेय राघव, लेखक-पुत्री श्रीमती सीमंतिनी एवं उनके पति श्री अशोक शास्त्री का हृदय से आभारी हूं जिनके सहयोग, आशीर्वाद और मार्गदर्शन से इस कार्य को संपन्न किया गया है।
-वीरेश कुमार
पंच परमेश्वर
चंदा ने दालान में खड़े होकर आवाज देने के लिए मुंह खोला, पर एकाएक साहस नहीं हुआ कोठे के भीतर खांसने की आवाज आई। अभी अंधेरा ही था। कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। गधे भी भीतर की तरफ टाट बांधकर बनाई हुई छत के नीचे कान खड़े किए हुए बिल्कुल नीरव खड़े थे। खरपैल पर लाल-सी झलक थी, देखकर ही लगता था, जैसे सब कुछ बहुत ठंडा हो गया था, जैसे स्वयं बर्फ हो। गली की दूसरी तरफ मस्जिद में मुल्ला ने अजान की बांग दी। चंदा कुछ देर खड़ा रहा, फिर उसने धीरे से कहा भैया !
बिस्तर में कन्हाई कुलबुलाया, अपनी अच्छी वाली आंख को मींड़ा। उसे क्या मालूम न था ? फिर भी भारी गले से पड़ा-पड़ा बोला कौन है ?-और कहते में वह स्वयं रुक गया। नहीं जानता तो क्या रात को दरवाजे खुले छोड़कर सोता। उसे खूब पता था कि कल सूरज-नारायन चढ़े न चढ़े मगर चंदा लगी भोर आकर बिसूरेगा।
दोनों भाई असमंजस में थे। इसी समय चौधरी मुरली की बूढ़ी खांसी सड़क पर सुनाई दी। चंदा की जान में जान आई। चौधरी को बहुत सुबह ही उठ जाने की टेव थी। वास्तव में देव-फेव कुछ नहीं। दिन में हुक्का गुड़गड़ाने से रात को ठसका सताता था और फिर उल्लू की तरह रात को जागकर वह सुबह ही बुलबुल की तरह जग जाते और लठिया ठनकाते सड़क से गली, से सड़क पर चक्कर मारते रहते।
इतनी भोर को जो कन्हाई का द्वार खुला देखा, और फिर एक आदमी भी, तो पुकारकर कहा-को है रे ?
चंदा को डूबते में सहारा मिला। लपककर पैर पकड़ लिए।
‘क्यों ? रोता क्यों है ?’ चौधुरी ने अचकचाकर पूछा, ‘रम्पी कैसी है ?’
‘कहां है, चोधरी दादा,’ चन्दा ने रोते-रोते हिचकी लेकर कहा, ‘रात को ही चल बसी।’
‘और तूने किसी को बुलाया भी नहीं ?’
चंदा ने जवाब नहीं दिया। सिसकता रहा। गधे अपने बेफिक्री से मस्ती के आम में खड़े रहे। उनकी दृष्टि में आदमी ने ही अपना नाम उनपर, थोपकर, उनका असली नाम अपने पर लागू कर लिया था।
‘ओह ! कहां है रे कन्हाई !’ चौधरी पंच ने अधिकार से कहा, ‘सुना तूने ! अब काहे की दुसमनी ! दुसमन तो चला गया। मट्टी से बैर कररा सुहाएहा ?’
कन्हाई ने जल्दी-जल्दी धोती पर अपना रुई का पजामा चढ़ाकर, रुई का अंगरखा पहना और बिगड़ी आंख पर हाथ धरकर बाहर निकल आया। चौधरी ने फिर कहा-बिरादरी तो आएगी जब घर का अपना पहले लहास को छुएगा बावले। चली गई बेचारी। अब काहे को अलगाव है बेटा ? देख और क्या चाहिए ? तेरी मां थी न ?
कन्हाई ने दो पग पीछे हटकर कहा-दादा ! जे क्या कही एक ही ? किसकी मां थी ? मेरी महतारी सब कुछ थी, छिनाल नहीं थी, समझे ? अब आया है ? देखा ? कैसा लाड़ला है ? नहीं आऊंगा समझे ? बीघों को छोरा हूं तो नहीं आऊंगा।
चौधरी ने शांति लाने के लिए कहा-हां-हां रे कन्हाई, तू तो बिरादरी की नाक बन गया। पंच मैं हूं कि तू ?
कन्हाई दबका। उसने कहा-तो मैंने कुछ अलग बात कही है दादा ! उसने मेरे खिलाफ क्या नहीं किया ! मैं हड्डी-हड्डी करके उसके चंदा को ज्वान बना दिया। ताऊ मरे थे तब मेरे बाप की आंख फू़ट गई थी। जो धरेजा किया तो भाभी से ही और अपनी ब्याहता को छोड़ दिया। रिसा-रिसाके मारा है मेरी मां को। वह तो मैं कहूं, मैंने फिर भी उसे अपनी मां के बरोबर रखा। तुम तो सब अनजान बन गए ऐसे ! घर छोड़ दिया। अपनी मेहनत के बल पै यह घर नया बनाता है। अपना गधा है। जब सपूती का सुलच्छना बड़ा हुआ तो कैसी आंखें फेर गई। वह दिन मैं भूल जाऊंगा ?
चौधरी निरुत्तर हो गए। फिर भी कहा-पर बेटा, तेरे बाप की बहू थी, यह तेरे बाप का ही बेटा है, तेरा भइया है, दस आदमी नाम धरेंगे। गधा लाद के बाजार से दुकान के लिए सब्जी लाता है। आज वह न सही; अनजाना करके लगा दे कंधा, तेरा जस तेरे हाथ में है। कोई नहीं छूटता, अपनी-अपनी करनी सब भोगते हैं...
कन्हाई निरुतर हो गया। चंदा ने उसके पैर पकड़कर पांवों पर सिर रख दिया, और रोने लगा।
‘मेरी लाज तो तुम्हारे साथ है भैया ! पार लगाओ, डुबा दो। घर तोऽ तुम्हारा, मैं तोऽ तुम्हारा गधा। कान पकड़ा के चाहे इधर कर दो चाहे उधर, पर वह तो बेचारी मर गई...
और उसकी आंखों का पानी कन्हाई के पैरों पर गर्म-गर्म टरक गया। कन्हाई का हृदय एक बार भीतर ही घुमड़ आया।
बिस्तर में कन्हाई कुलबुलाया, अपनी अच्छी वाली आंख को मींड़ा। उसे क्या मालूम न था ? फिर भी भारी गले से पड़ा-पड़ा बोला कौन है ?-और कहते में वह स्वयं रुक गया। नहीं जानता तो क्या रात को दरवाजे खुले छोड़कर सोता। उसे खूब पता था कि कल सूरज-नारायन चढ़े न चढ़े मगर चंदा लगी भोर आकर बिसूरेगा।
दोनों भाई असमंजस में थे। इसी समय चौधरी मुरली की बूढ़ी खांसी सड़क पर सुनाई दी। चंदा की जान में जान आई। चौधरी को बहुत सुबह ही उठ जाने की टेव थी। वास्तव में देव-फेव कुछ नहीं। दिन में हुक्का गुड़गड़ाने से रात को ठसका सताता था और फिर उल्लू की तरह रात को जागकर वह सुबह ही बुलबुल की तरह जग जाते और लठिया ठनकाते सड़क से गली, से सड़क पर चक्कर मारते रहते।
इतनी भोर को जो कन्हाई का द्वार खुला देखा, और फिर एक आदमी भी, तो पुकारकर कहा-को है रे ?
चंदा को डूबते में सहारा मिला। लपककर पैर पकड़ लिए।
‘क्यों ? रोता क्यों है ?’ चौधुरी ने अचकचाकर पूछा, ‘रम्पी कैसी है ?’
‘कहां है, चोधरी दादा,’ चन्दा ने रोते-रोते हिचकी लेकर कहा, ‘रात को ही चल बसी।’
‘और तूने किसी को बुलाया भी नहीं ?’
चंदा ने जवाब नहीं दिया। सिसकता रहा। गधे अपने बेफिक्री से मस्ती के आम में खड़े रहे। उनकी दृष्टि में आदमी ने ही अपना नाम उनपर, थोपकर, उनका असली नाम अपने पर लागू कर लिया था।
‘ओह ! कहां है रे कन्हाई !’ चौधरी पंच ने अधिकार से कहा, ‘सुना तूने ! अब काहे की दुसमनी ! दुसमन तो चला गया। मट्टी से बैर कररा सुहाएहा ?’
कन्हाई ने जल्दी-जल्दी धोती पर अपना रुई का पजामा चढ़ाकर, रुई का अंगरखा पहना और बिगड़ी आंख पर हाथ धरकर बाहर निकल आया। चौधरी ने फिर कहा-बिरादरी तो आएगी जब घर का अपना पहले लहास को छुएगा बावले। चली गई बेचारी। अब काहे को अलगाव है बेटा ? देख और क्या चाहिए ? तेरी मां थी न ?
कन्हाई ने दो पग पीछे हटकर कहा-दादा ! जे क्या कही एक ही ? किसकी मां थी ? मेरी महतारी सब कुछ थी, छिनाल नहीं थी, समझे ? अब आया है ? देखा ? कैसा लाड़ला है ? नहीं आऊंगा समझे ? बीघों को छोरा हूं तो नहीं आऊंगा।
चौधरी ने शांति लाने के लिए कहा-हां-हां रे कन्हाई, तू तो बिरादरी की नाक बन गया। पंच मैं हूं कि तू ?
कन्हाई दबका। उसने कहा-तो मैंने कुछ अलग बात कही है दादा ! उसने मेरे खिलाफ क्या नहीं किया ! मैं हड्डी-हड्डी करके उसके चंदा को ज्वान बना दिया। ताऊ मरे थे तब मेरे बाप की आंख फू़ट गई थी। जो धरेजा किया तो भाभी से ही और अपनी ब्याहता को छोड़ दिया। रिसा-रिसाके मारा है मेरी मां को। वह तो मैं कहूं, मैंने फिर भी उसे अपनी मां के बरोबर रखा। तुम तो सब अनजान बन गए ऐसे ! घर छोड़ दिया। अपनी मेहनत के बल पै यह घर नया बनाता है। अपना गधा है। जब सपूती का सुलच्छना बड़ा हुआ तो कैसी आंखें फेर गई। वह दिन मैं भूल जाऊंगा ?
चौधरी निरुत्तर हो गए। फिर भी कहा-पर बेटा, तेरे बाप की बहू थी, यह तेरे बाप का ही बेटा है, तेरा भइया है, दस आदमी नाम धरेंगे। गधा लाद के बाजार से दुकान के लिए सब्जी लाता है। आज वह न सही; अनजाना करके लगा दे कंधा, तेरा जस तेरे हाथ में है। कोई नहीं छूटता, अपनी-अपनी करनी सब भोगते हैं...
कन्हाई निरुतर हो गया। चंदा ने उसके पैर पकड़कर पांवों पर सिर रख दिया, और रोने लगा।
‘मेरी लाज तो तुम्हारे साथ है भैया ! पार लगाओ, डुबा दो। घर तोऽ तुम्हारा, मैं तोऽ तुम्हारा गधा। कान पकड़ा के चाहे इधर कर दो चाहे उधर, पर वह तो बेचारी मर गई...
और उसकी आंखों का पानी कन्हाई के पैरों पर गर्म-गर्म टरक गया। कन्हाई का हृदय एक बार भीतर ही घुमड़ आया।
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