लेख-निबंध >> आबे हयात आबे हयातमुहम्मद हुसैन आजाद
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उर्दू काव्य का संक्षिप्त परिचय...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
आबे-हयात का यह संक्षिप्त संस्करण, आधुनिक उर्दू आलोचना के क्षेत्र में
उच्च कोटि की साहित्यिक कृति है। साहित्यकार, इतिहासकार एवं समालोचक इसके
मूल्यांकन के संबंध में लगभग सवा सौ वर्षों से वाद-विवाद करते आ रहे हैं।
कुछ इसे उपन्यास की तरह पढ़ते हैं तो कुछ इसकी शैली पर चमत्कृत होते हैं।
उर्दू साहित्य की गंभीरतम जानकारी इस पुस्तक से गुजरे बिना असंभव है।
लगातार पन्द्रह वर्षो से अधिक समय की साधना के बाद लेखक की यह कृति सन्
1880 में प्रकाशित हुई। उर्दू काव्य के विकास की यह कहानी शैली,
अभिव्यक्ति, भंगिमा, ऐतिहासिक एवं क्षेत्रीय प्रभाव के आधार पर पांच दौर
में विभाजित है। उस समय तक के सभी महत्त्वपूर्ण कवि अपने परिवेश और
सामाजिक संदर्भो के साथ इस पुस्तक के पृष्ठ पर जीवित और स्पंदित दिख रहे
हैं।
लेखक मुहम्मद हुसैन आज़ाद (1833-1910) का जन्म दिल्ली में हुआ। इनकी
शिक्षा दीक्षा फ़ारसी और अरबी के माध्यम से हुई। बाद में विज्ञान, दर्शन
इतिहास एवं अन्य विद्याओं की शिक्षा उर्दू माध्यम से प्राप्त की। साहित्य
एवं संस्कृति के क्षेत्र में इनके अवदानों को सदा-सदा याद किया जाता
रहेगा। सन् 1890 में कुछ निजी एवं पारिवारिक त्रासदी के कारण इनका मानसिक
संतुलन खो गया और ये उन्मादित हो गए। गवर्नमेंट कॉलेज; लाहौर में
अरबी-फारसी के प्रोफेसर भी रहे। इन्हें शम्सुल अलैमा की उपाधि मिली। इनकी
अन्य प्रसिद्ध कृतियों में महत्त्वपूर्ण हैं: दरबारे, नरंगे ख़्याल,
क़िसिसे हिन्द, सुखनदाने फ़ारसी, दीबाने जौक, नज़्मे आज़ाद आदि।
भूमिका
मुहम्मद हुसैन आज़ाद की पुस्तक
‘आबे-हयात’
वास्तव में अमृत ही है। इसने उन्हें भी सदैव के लिए जीवन प्रदान किया है
और उन कवियों को भी, जिन्हें अमृत-रस पिलाकर उन्होंने अमर बना दिया। उर्दू
में और शायद बहुत-सी अन्य भाषाओं में भी ऐसी कोई पुस्तक नहीं है, जिसे लोग
त्रुटियों का ढेर भी कहते हों और उच्चकोटि की साहित्यिक कृति भी समझते
हों, शोध एवं आलोचना द्वारा खंडन भी करते हों और उसके उद्धरणों से अपना
कारोबार भी चलाते हों। इसे सर्वप्रथम प्रकाशित हुए शताधिक वर्ष हो गए हैं।
उस समय से कुछ आलोचकों ने अपने सिर पर यही दायित्व ले रखा है कि इसमें
त्रुटियां ढूंढ़ेंगे, परंतु इसकी लोकप्रियता में कोई अंतर नहीं आया।
साहित्य-इतिहासकार एवं समालोचक इसके महत्व एवं कृतित्व-मूल्य निरूपित करने
के संबंध में आपस में ही उलझते और विवाद करते हैं और भाषिक पटुता पर सिर
धुनते हैं। कुछ उपन्यास और कहानी की तरह पढ़ते हैं और प्रसन्न होते हैं।
यही इसकी साहित्यिक प्रवीणता है और यही इसकी शैली एवं अभिव्यक्ति का
चमत्कार !
‘आबे-हयात’ के लेखक मुहम्मद हुसैन आज़ाद हैं, जिनका जन्म सन् 1833 में दिल्ली में हुआ था। उनके पिता मौलाना मुहम्मद बाक़िर एक स्वतंत्र विचारशील विद्वान और धार्मिक नेता थे। उन्होंने सन् 1836 में ‘देहली उर्दू अख़बार’ के नाम से एक समाचारपत्र निकाला, जिसे अधिकांश इतिहासकार उर्दू का प्रथम सुचारु समाचारपत्र कहते हैं। इसकी विशेषता यह थी कि इसमें मात्र समाचारों का संकलन ही नहीं होता था, बल्कि अंग्रेजी कंपनी के दुश्चक्रों की आलोचना भी होती थी और दिल्ली के समस्त महत्वपूर्ण साहित्यकारों और कवियों की कृतियां भी इसी में प्रकाशित होती थीं। जब सन् 1857 में हमारा प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ तो इस समाचार-पत्र ने खुलकर क्रांतिकारियों और भारतीय स्वतंत्रता के सूरमाओं का साथ दिया। परिणाम स्वरूप मौलाना मुहम्मद बाक़िर पर एक अंग्रेज की हत्या करने का आरोप लगाकर फौजी अदालत में मौत का हुक्म दिया गया और बहुत से देशभक्तों के साथ उन्हें भी गोली मार दी गई।
ऐसे पिता के संरक्षण में आज़ाद जैसे सुपुत्र की शिक्षा-दीक्षा प्रारंभ हुई। फारसी और अरबी के माध्यम से जो कुछ सीखा जा सकता था, उसे उन्होंने घर पर ही अपने पिता से ग्रहण किया। फिर दिल्ली कॉलेज में प्रवेश किया। इस कॉलेज में विज्ञान, दर्शन, इतिहास और अन्य विद्याओं की शिक्षा उर्दू के माध्यम से होती थी। इसके अध्यापकों में ऐसे लोग भी थे, जो योरोप से आए हुए नए विचारों के द्वारा अपने शिष्यों के सामने एक नई दुनिया का साकार रूप प्रस्तुत कर रहे थे और उनके भीतर बदलती हुई स्थिति का बोध जाग्रत कर रहे थे। मुहम्मद हुसैन ‘आजाद’ कॉलेज के बहुत होनहार और प्रखर-बुद्धि विद्यार्थियों में थे और प्रारंभ से ही निबंध-लेखन की स्पर्धाओं में पुरस्कार प्राप्त करते थे। शेरो-शायरी के जादू में भी फंस चुके थे। मौलाना बाक़िर ने यह सोचकर कि शायद यह भी इनके व्यक्तित्व निर्माण में सहायक होगा, ‘आजाद’ को ले जाकर अपने अभिन्न मित्र शेख़ मुहम्मद इब्राहिम ‘ज़ौक़’ के सिपुर्द कर दिया कि उनके संक्षरण एवं नेतृत्व में इस होनहार युवक को दिल्ली की मुहावरेदार भाषा और काव्य के मर्मों का ज्ञान हो जाए। ‘जौक़’ उस समय दिल्ली के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि समझे जाते थे। किमें भी उन्हीं का दौरा-दौरा था। बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ और शाहज़ादे सब उन्हीं के शिष्य थे और दिल्ली की भाषा के सबसे बड़े मर्मज्ञ वही समझे जाते थे। ‘आजाद’ ने उनकी सुसंगति में क्या पाया, क्या नहीं, यह बताना तो कठिन है, परंतु उनके स्नेह और उपकारों का बोध उन्हें इतना था कि जब विद्रोह के समय में घर की धन-संपत्ति छोड़कर, और पिता को गोली लगती देखकर दिल्ली से निकलना पड़ा, तो उन्होंने अपने गुरुवर ‘ज़ौक’ की रचनाएं, जो विश्रृंखलित रूप में उनके पास थीं, अपने साथ ले लीं और उन्हें सीने से लगाए, फिरे और जब ‘आबे-हयात’ लिखने बैठे, तो उन्हें ऐसी भाव-भीनी श्रद्धांजलि अर्पित की, मानो, उर्दू भाषा में ‘ज़ौक’ से बड़ा कोई कवि, भाषाविद् और कोई मानव जन्मा ही नहीं ! इस परमानुराग एवं अपूर्व श्रद्धा ने उन्हें बदनाम भी किया। परंतु उन्होंने ‘ज़ौक’ के शिष्यत्व का दायित्व निभाया। विद्रोह के बाद मुहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ गिरफ्तारी से बचने के लिए भेष बदल कर मारे-मारे फिरे। कभी लखनऊ गए, कभी हैदराबाद, परंतु वर्षों तक कहीं ठिकाना न मिला। कई वर्ष बीतने के बाद लाहौर के सरकारी बुकडिपो में नौकरी मिल गई और यहीं से उनके साहित्यिक जीवन का शुभारंभ हुआ। पहले कुछ पाठ्य-पुस्तकें उर्दू, फ़ारसी की लिखीं, फिर ज्ञान-ग्रंथों की ओर आकृष्ट हुए और पचीस वर्ष की अवधि में काव्य एवं साहित्य, इतिहास और भाषाशास्त्र पर बहुत कुछ लिख डाला और इससे भी महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि ‘अंजुमने पंजाब-लाहौर’ के उन मुशायरों की बुनियाद डाली, जिनमें नए रंग की कविताएं पढ़ी जाती थीं। इस प्रकार उनकी स्थिति आधुनिक उर्दू-काव्य एवं साहित्य के निर्माता और प्रवर्तक की हो गई। इसी बीच ‘आज़ाद’ ईरान और अफ़गानिस्तान भी गए। गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में अरबी-फारसी के प्रोफेसर भी रहे और ‘शम्सुल उलेमा’ की उपाधि भी मिली। सन् 1890 के लगभग अपनी युवा एवं प्रतिभाशाली सुपुत्री के दिवंगत हो जाने और अपने निजी पुस्तकालय में आग लग जाने के कारण मानसिक संतुलन खो बैठे और धीरे-धीरे नितांत उन्मादित हो गए। इस उन्माद की स्थिति में भी बहुत कुछ लिखते ही रहे, जिनका संबंध प्रायः दर्शन और धर्म से है। इस प्रकार से वर्षों तक एक दुखपूर्ण जीवन बिताकर उन्होंने सन् 1910 में प्राण त्याग दिए, लाहौर ही में क़ब्र बनी। उनके प्रसिद्ध ग्रंथों में ‘आबे-हयात’, ‘दरबारे-अकबरी’, ‘नरंगे-ख़्याल’, ‘किसिसे-हिंद’, ‘सुख़नदाने-फ़ारस’, ‘दीवाने-ज़ौक’ और ‘नज़्मे-आजाद’ (काव्य-संकलन) हैं।
‘आज़ाद’ ने पूर्वी नियमों के अनुसार अपने घर पर शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की थी। कुछेक नई विधाओं और नवीन विचारों का परिचय दिल्ली कॉलेज में प्राप्त हुआ और वहां ऐसा वातावरण मिला जो भारतीय चिंतन में परिवर्तन ला रहा था। उनके घर से समाचारपत्र निकलता था, जिसने विवेक को विशालता प्रदान की। विद्रोह और पराजय के बोध ने धार्मिक संकीर्णता से बचाकर भारत से प्रेम करना सिखाया। इस प्रकार ‘आज़ाद’ अपने अन्य समकालीनों के अनुपात में एक विशिष्ट विचार-पद्धति के अधिकारी बन गए। सर सैय्यद, हाली, नज़ीर अहमद, शिबली की तुलना में उनके सोचने का ढंग सबसे अधिक ‘अधार्मिक’ था। उर्दू और फ़ारसी के साथ-साथ उन्हें संस्कृत और ब्रजभाषा से भी प्रेम था और गुल-बुलबुल, शीरी-फ़रहाद, तूर-बेसतून जैहून-सैहून के बराबर ही कमल और भौरे, राधा और कृष्ण, हिमालय और विध्यांचल, गंगा और यमुना की चर्चा भी आवश्यक समझते थे और उन उपमाओं एवं रूपकों को प्राथमिकता देते थे जिनमें अपनी धरती का रंग-रूप और महक हो।
‘आबे-हयात’ इसी भंगिमा की सर्जना है। इसकी रचना में उन्हें पंद्रह वर्ष से अधिक समय लगा और इसका पहला संस्करण सन् 1880 में प्रकाशित हुआ, जिसके बाद के संस्करणों में उन्होंने अनेक परिवर्तन किए तथा अनेक महत्वपूर्ण संशोधन किए। इस प्रकार के ग्रंथ की रचना में इतना समय लगना ही चाहिए था। कवियों की जीवनियां कहीं एक स्थान पर प्राप्त न थीं, प्रकाशित पुस्तकें बहुत कम थीं, पांडुलिपियों की उपलब्धि सरल न थी, कवियों की रचनाएं प्राप्त न थीं, फिर ‘आज़ाद’ का रचनाकार स्वभाव भी ऐसा था जो कि कवियों की जीवनी मात्र नहीं लिखना चाहता था, बल्कि उनके चलते-फिरते चित्र, उनके समय का वातावरण और शायरों की छेड़छाड़ से संबंधित प्रसिद्ध गाथाएं और प्रहसन भी एकत्र कर देना चाहते थे। इसलिए कभी पुराने लोगों से भेंट करके, कभी पत्रव्यवहार से, कभी पुस्तकालयों में समय बिताकर, कभी जानेवालों से पूछकर बूंद-बूंद पानी इकट्ठा कर रहे थे, ताकि उसे परिष्कृत करके अमृत बनाएं ! ‘आज़ाद’ अपने पूर्ववर्तियों की त्रुटियों से परिचित थे और उनके काव्य-दोष भी जानते थे लेकिन उनका विचार था कि त्रुटियां और दोष गिनाने के बजाय गुणों पर अधिक बल देना चाहिए और यदि किसी कमी की चर्चा अपरिहार्य भी हो, तो ऐसे ढंग से लिखना चाहिए कि कटुता न उत्पन्न होने पाए। यह सत्य है कि शोध एवं आलोचना के लिए यह पद्धति अपने आप में एक बड़ा दोष है, परंतु अपने अग्रजों की कीर्ति के प्रति उनका श्रद्धाभाव और सहानुभूति की प्रवृत्ति उनकी मार्ग-बाधक है। इसी का परिणाम है कि ‘आज़ाद’ को बहुत-सी आपत्तियों का निशाना बनना पड़ा। लोगों ने उनके उद्देश्य और दृष्टिकोण की ओर ध्यान ही नहीं दिया।
किसी पुस्तक को पढ़ते समय उसके लिखनेवाले, उसके काल और उद्देश्य को ध्यान में रखना चाहिए। ‘आज़ाद’ को तथ्य एकत्र करने के जो साधन उपलब्ध थे, उसमें कमी नहीं दिखती। जो पुस्तकें मिल सकीं, वह उन्होंने देखीं। कुछ के संदर्भ दिए, कुछ के नहीं दिए। बाद के पढ़नेवालों ने जिन्हें वह पुस्तक न मिल सकी, यह विचार स्थापित कर लिया कि सारी बातें ‘आज़ाद’ ने अपनी तरफ़ से गढ़ कर लिख दी हैं। जैसे-जैसे पुरानी पुस्तकें मिलती जाती हैं, ‘आज़ाद’ की बहुत-सी बातें सही साबित होती जाती हैं। कवियों से संबंधित कुछ सुनी-सुनाई घटनाएं ऐसी होती हैं, जिनका किसी पुस्तक में पहले से लिखा होना आवश्यक नहीं होता, इसलिए ऐसी हर बात को गलत कह देना उचित नहीं है, जो केवल ‘आबे हयात’ में मिलती है। यह स्मरण रखना चाहिए कि ‘आबे-हयात’ सन् 1880 में प्रकाशित हुई, उस समय से अब तक सैकड़ों पुस्तकें, प्राचीन कवियों के काव्य-संकलन, जीवनी-संकलन और अन्य प्रकार की सामग्री हाथ आई है और लिखनेवालों के ज्ञान में वृद्धि हुई है। ‘आबे-हयात’ शोध दृष्टि से अंतिम शब्द नहीं है। यह भी ठीक है कि त्रुटियों के बावजूद ‘आबे-हयात’ साहित्यिक और ऐतिहासिक तथ्यों का भंडार है। एक आलोचक का यह मंतव्य अत्यंत उचित दिखता है कि अगर उसकी समस्त घटनाएं और चर्चाएं गलत हो जाएं, तो भी उसकी मनोहरता और साहित्यिकता पर आक्षेप नहीं किया जा सकता।
उर्दू में कवियों की जीवनी लिखने का चयन लगभग डेढ़ सौ साल से जारी था, हालांकि ये जीवनी-संकलन प्रायः फारसी में लिखे जाते थे। ‘आज़ाद’ ने पहली बार उर्दू काव्य का इतिहास लिखने की चेष्टा की। पहली बार भाषा के नियमों को दृष्टि में रखते हुए उर्दू के प्रादुर्भाव पर विचार व्यक्त किए और संस्कृत तथा फारसी के उस भाषिक संबंध का सर्वेक्षण किया, जिसकी चर्चा सिराजुद्दीन अली खां ‘आरज़ू’ ने डेढ़ सौ साल पहले की थी। ‘आज़ाद’ ने ऐतिहासिक घटनाओं और भाषिक समानताओं के आधार पर दोनों आर्य भाषाओं के संबंध की व्याख्या रोचक ढंग से की है। फिर इस समस्या को पुनः विस्तार के साथ अपनी पुस्तक ‘सुख़नदाने-फ़ारस’ में प्रस्तुत किया है। इससे भी अधिक उपयोगी ज्ञानवर्धक और विचारोत्तेजक वह अंश है, जिसमें फारसी, उर्दू और ब्रजभाषा के पारस्परिक आदान-प्रदान की चर्चा की है। इस अंश के अध्ययन से पता चलता है कि ‘आज़ाद’ का भाषाओं का अध्ययन कितना गहरा था और उनके पारस्परिक संबंधों को, जो ऐतिहासिक, सामाजिक और साहित्यिक कारणों से उत्पन्न हुए थे, वे कितनी गहरी निगाह से देखते थे। कवि तो सहस्रों होते हैं, इतिहास में सबको स्थान नहीं मिलता। ‘आज़ाद’ ने भी अपने सामने यही आदर्श रखा है, बहुत से कवियों की सरसरी चर्चा करने के बाद उर्दू काव्य के विकास की कहानी दकनी से शुरू की और शैली, अभिव्यक्ति-भंगिमा और ऐतिहासिक अथवा क्षेत्रीय प्रभाव के आधार पर पूरी गाथा को पांच दौर में विभाजित किया। प्रत्येक दौर की विशिष्ट विशेषता संक्षिप्त भूमिका और समाप्ति में व्यक्त की है। इस प्रकार इस समय तक के सभी महत्वपूर्ण कवि अपने नख-शिख, परिवेश और सामाजिक संबंधों के साथ जीवित तथा स्पंदित रूप में ‘आबे-हयात’ के पृष्ठों पर चलते-फिरते दिखाई देते हैं।
जो व्यक्ति भी इस पुस्तक का अध्ययन करेगा उस पर ‘आज़ाद’ के ज्ञान और अभिव्यक्ति के सौन्दर्य का तुरंत प्रभाव पड़ेगा। ज्ञान की दृष्टि से इसमें बहुत-सी साहित्यिक समस्याएं, ऐतिहासिक घटनाएं, भाषिक नियम और चिंतन के संकेत मिलेंगे, जिनसे विचारोत्तेजक प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं तथा शोध एवं आलोचना की नई राहें खुल सकती हैं। जो बातें गलत मालूम हों, उनकी खोज की जा सकती हैं। जो संकेत अधूरे दिख पड़े, उनको पूर्ण किया जा सकता है और जो बातें गलत मालूम हों, उन पर शोध किया जा सकता है। जहां तक शैली का संबंध है, इसमें दो मत नहीं हो सकते कि उसका सौंदर्य घटनेवाला नहीं है। आज के परिवेश में ऐसा गद्य लिखना संभव न हो सके या रुचिकर न प्रतीत हो, किंतु उसकी साहित्यिकता, प्रभावोत्पादकता तथा संप्रेषणीयता को स्वीकारना ही होगा। सूक्ष्म भाव और मृदुल अनुभूति की अभिव्यक्ति के साथ-साथ ‘आज़ाद’ की वर्णनात्मक शैली भी आकर्षक है। इसी कारण पुस्तक का कोई भाग ऐसा नहीं है, जिसका अध्ययन उकताहट पैदा करे।
‘आबे-हयात’ जैसी पुस्तक का अनुवाद और सारांश दोनों ही बहुत कठिन काम हैं, क्योंकि अनेक साहित्यिक चर्चाएं, भाषा और मुहावरों के सूक्ष्म अंतर के उदाहरण, घटनाओं के विस्तार पूरी पुस्तक में बिखरे पड़े हैं और एक-दूसरे में जुड़े हुए हैं, लेकिन संक्षिप्त करने में उन्हें छोड़ देना आवश्यक था। बहुत से उदाहरण और नमूने छोड़ने पड़े हैं और अनेक रोचक घटनाओं को कम करना पड़ा है। फिर भी इसका ध्यान बराबर रहा है कि क्रम टूटने न पाए और कोई आवश्यक बात छूट न जाए इस प्रकार अब यह सारांश पूरी पुस्तक का एक-तिहाई है। अनुवाद में सबसे बडी रूकावट ‘आबे-हयात’ की अलंकारिक शैली, लहजे की वैयक्तिक भंगिमा और मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग है। यदि इसके वाक्यों को शाब्दिक अर्थ के आधार पर हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में अनूदित किया गया, तो इसका बहुत-सा जादू कम हो सकता है।
मैंने ‘आबे-हयात’ को संक्षिप्त करते समय जिन कुछेक बातों का विशेष ध्यान रखा है, उनकी चर्चा कर देना आवश्यक है, ताकि पढ़नेवाले को किसी प्रकार का भ्रम न हो।
• सभी ऐसे आवश्यक भाग इस संस्करण में ले लिए गए हैं, जिनसे ऐतिहासिक क्रम और जानकारी में अधिक अंतर नहीं आता। शोधप्रधान भाग कम किए गए हैं और रोचक वर्णनात्मक भाग रख लिए गए हैं।
• अशआर के नमूने कम कर दिए गए हैं।
• हिजरी सन् को अधिकतर ईसवी सन् में परिवर्तित कर दिया गया है, ताकि साधारण पढ़नेवाले काल का अनुमान कर सकें
• जहां तक संभव हुआ है फ़ारसी के वाक्य, शेर और शब्द संकलन निकाल दिए हैं।
• कहीं-कहीं फुटनोट में किसी आवश्यक बात की व्याख्या दी गई है कि कोई भ्रामक निष्कर्ष न निकाला जाए।
मुझे विश्वास है कि भारत की अन्य भाषाओं के साहित्यकार भी उर्दू की इस अमर रचना का अध्ययन यह समझकर करेंगे कि सौ वर्ष पूर्व उर्दू में शोध, आलोचना और शैली-भंगिमा की क्या स्थिति थी और एक कुशल कलाकार ने उसे किस प्रकार चित्रित किया है।
-सैयद एहतेशाम हुसैन
‘आबे-हयात’ के लेखक मुहम्मद हुसैन आज़ाद हैं, जिनका जन्म सन् 1833 में दिल्ली में हुआ था। उनके पिता मौलाना मुहम्मद बाक़िर एक स्वतंत्र विचारशील विद्वान और धार्मिक नेता थे। उन्होंने सन् 1836 में ‘देहली उर्दू अख़बार’ के नाम से एक समाचारपत्र निकाला, जिसे अधिकांश इतिहासकार उर्दू का प्रथम सुचारु समाचारपत्र कहते हैं। इसकी विशेषता यह थी कि इसमें मात्र समाचारों का संकलन ही नहीं होता था, बल्कि अंग्रेजी कंपनी के दुश्चक्रों की आलोचना भी होती थी और दिल्ली के समस्त महत्वपूर्ण साहित्यकारों और कवियों की कृतियां भी इसी में प्रकाशित होती थीं। जब सन् 1857 में हमारा प्रथम स्वतंत्रता संग्राम प्रारंभ हुआ तो इस समाचार-पत्र ने खुलकर क्रांतिकारियों और भारतीय स्वतंत्रता के सूरमाओं का साथ दिया। परिणाम स्वरूप मौलाना मुहम्मद बाक़िर पर एक अंग्रेज की हत्या करने का आरोप लगाकर फौजी अदालत में मौत का हुक्म दिया गया और बहुत से देशभक्तों के साथ उन्हें भी गोली मार दी गई।
ऐसे पिता के संरक्षण में आज़ाद जैसे सुपुत्र की शिक्षा-दीक्षा प्रारंभ हुई। फारसी और अरबी के माध्यम से जो कुछ सीखा जा सकता था, उसे उन्होंने घर पर ही अपने पिता से ग्रहण किया। फिर दिल्ली कॉलेज में प्रवेश किया। इस कॉलेज में विज्ञान, दर्शन, इतिहास और अन्य विद्याओं की शिक्षा उर्दू के माध्यम से होती थी। इसके अध्यापकों में ऐसे लोग भी थे, जो योरोप से आए हुए नए विचारों के द्वारा अपने शिष्यों के सामने एक नई दुनिया का साकार रूप प्रस्तुत कर रहे थे और उनके भीतर बदलती हुई स्थिति का बोध जाग्रत कर रहे थे। मुहम्मद हुसैन ‘आजाद’ कॉलेज के बहुत होनहार और प्रखर-बुद्धि विद्यार्थियों में थे और प्रारंभ से ही निबंध-लेखन की स्पर्धाओं में पुरस्कार प्राप्त करते थे। शेरो-शायरी के जादू में भी फंस चुके थे। मौलाना बाक़िर ने यह सोचकर कि शायद यह भी इनके व्यक्तित्व निर्माण में सहायक होगा, ‘आजाद’ को ले जाकर अपने अभिन्न मित्र शेख़ मुहम्मद इब्राहिम ‘ज़ौक़’ के सिपुर्द कर दिया कि उनके संक्षरण एवं नेतृत्व में इस होनहार युवक को दिल्ली की मुहावरेदार भाषा और काव्य के मर्मों का ज्ञान हो जाए। ‘जौक़’ उस समय दिल्ली के सर्वाधिक महत्वपूर्ण कवि समझे जाते थे। किमें भी उन्हीं का दौरा-दौरा था। बादशाह बहादुर शाह ‘ज़फ़र’ और शाहज़ादे सब उन्हीं के शिष्य थे और दिल्ली की भाषा के सबसे बड़े मर्मज्ञ वही समझे जाते थे। ‘आजाद’ ने उनकी सुसंगति में क्या पाया, क्या नहीं, यह बताना तो कठिन है, परंतु उनके स्नेह और उपकारों का बोध उन्हें इतना था कि जब विद्रोह के समय में घर की धन-संपत्ति छोड़कर, और पिता को गोली लगती देखकर दिल्ली से निकलना पड़ा, तो उन्होंने अपने गुरुवर ‘ज़ौक’ की रचनाएं, जो विश्रृंखलित रूप में उनके पास थीं, अपने साथ ले लीं और उन्हें सीने से लगाए, फिरे और जब ‘आबे-हयात’ लिखने बैठे, तो उन्हें ऐसी भाव-भीनी श्रद्धांजलि अर्पित की, मानो, उर्दू भाषा में ‘ज़ौक’ से बड़ा कोई कवि, भाषाविद् और कोई मानव जन्मा ही नहीं ! इस परमानुराग एवं अपूर्व श्रद्धा ने उन्हें बदनाम भी किया। परंतु उन्होंने ‘ज़ौक’ के शिष्यत्व का दायित्व निभाया। विद्रोह के बाद मुहम्मद हुसैन ‘आज़ाद’ गिरफ्तारी से बचने के लिए भेष बदल कर मारे-मारे फिरे। कभी लखनऊ गए, कभी हैदराबाद, परंतु वर्षों तक कहीं ठिकाना न मिला। कई वर्ष बीतने के बाद लाहौर के सरकारी बुकडिपो में नौकरी मिल गई और यहीं से उनके साहित्यिक जीवन का शुभारंभ हुआ। पहले कुछ पाठ्य-पुस्तकें उर्दू, फ़ारसी की लिखीं, फिर ज्ञान-ग्रंथों की ओर आकृष्ट हुए और पचीस वर्ष की अवधि में काव्य एवं साहित्य, इतिहास और भाषाशास्त्र पर बहुत कुछ लिख डाला और इससे भी महत्वपूर्ण कार्य यह किया कि ‘अंजुमने पंजाब-लाहौर’ के उन मुशायरों की बुनियाद डाली, जिनमें नए रंग की कविताएं पढ़ी जाती थीं। इस प्रकार उनकी स्थिति आधुनिक उर्दू-काव्य एवं साहित्य के निर्माता और प्रवर्तक की हो गई। इसी बीच ‘आज़ाद’ ईरान और अफ़गानिस्तान भी गए। गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में अरबी-फारसी के प्रोफेसर भी रहे और ‘शम्सुल उलेमा’ की उपाधि भी मिली। सन् 1890 के लगभग अपनी युवा एवं प्रतिभाशाली सुपुत्री के दिवंगत हो जाने और अपने निजी पुस्तकालय में आग लग जाने के कारण मानसिक संतुलन खो बैठे और धीरे-धीरे नितांत उन्मादित हो गए। इस उन्माद की स्थिति में भी बहुत कुछ लिखते ही रहे, जिनका संबंध प्रायः दर्शन और धर्म से है। इस प्रकार से वर्षों तक एक दुखपूर्ण जीवन बिताकर उन्होंने सन् 1910 में प्राण त्याग दिए, लाहौर ही में क़ब्र बनी। उनके प्रसिद्ध ग्रंथों में ‘आबे-हयात’, ‘दरबारे-अकबरी’, ‘नरंगे-ख़्याल’, ‘किसिसे-हिंद’, ‘सुख़नदाने-फ़ारस’, ‘दीवाने-ज़ौक’ और ‘नज़्मे-आजाद’ (काव्य-संकलन) हैं।
‘आज़ाद’ ने पूर्वी नियमों के अनुसार अपने घर पर शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की थी। कुछेक नई विधाओं और नवीन विचारों का परिचय दिल्ली कॉलेज में प्राप्त हुआ और वहां ऐसा वातावरण मिला जो भारतीय चिंतन में परिवर्तन ला रहा था। उनके घर से समाचारपत्र निकलता था, जिसने विवेक को विशालता प्रदान की। विद्रोह और पराजय के बोध ने धार्मिक संकीर्णता से बचाकर भारत से प्रेम करना सिखाया। इस प्रकार ‘आज़ाद’ अपने अन्य समकालीनों के अनुपात में एक विशिष्ट विचार-पद्धति के अधिकारी बन गए। सर सैय्यद, हाली, नज़ीर अहमद, शिबली की तुलना में उनके सोचने का ढंग सबसे अधिक ‘अधार्मिक’ था। उर्दू और फ़ारसी के साथ-साथ उन्हें संस्कृत और ब्रजभाषा से भी प्रेम था और गुल-बुलबुल, शीरी-फ़रहाद, तूर-बेसतून जैहून-सैहून के बराबर ही कमल और भौरे, राधा और कृष्ण, हिमालय और विध्यांचल, गंगा और यमुना की चर्चा भी आवश्यक समझते थे और उन उपमाओं एवं रूपकों को प्राथमिकता देते थे जिनमें अपनी धरती का रंग-रूप और महक हो।
‘आबे-हयात’ इसी भंगिमा की सर्जना है। इसकी रचना में उन्हें पंद्रह वर्ष से अधिक समय लगा और इसका पहला संस्करण सन् 1880 में प्रकाशित हुआ, जिसके बाद के संस्करणों में उन्होंने अनेक परिवर्तन किए तथा अनेक महत्वपूर्ण संशोधन किए। इस प्रकार के ग्रंथ की रचना में इतना समय लगना ही चाहिए था। कवियों की जीवनियां कहीं एक स्थान पर प्राप्त न थीं, प्रकाशित पुस्तकें बहुत कम थीं, पांडुलिपियों की उपलब्धि सरल न थी, कवियों की रचनाएं प्राप्त न थीं, फिर ‘आज़ाद’ का रचनाकार स्वभाव भी ऐसा था जो कि कवियों की जीवनी मात्र नहीं लिखना चाहता था, बल्कि उनके चलते-फिरते चित्र, उनके समय का वातावरण और शायरों की छेड़छाड़ से संबंधित प्रसिद्ध गाथाएं और प्रहसन भी एकत्र कर देना चाहते थे। इसलिए कभी पुराने लोगों से भेंट करके, कभी पत्रव्यवहार से, कभी पुस्तकालयों में समय बिताकर, कभी जानेवालों से पूछकर बूंद-बूंद पानी इकट्ठा कर रहे थे, ताकि उसे परिष्कृत करके अमृत बनाएं ! ‘आज़ाद’ अपने पूर्ववर्तियों की त्रुटियों से परिचित थे और उनके काव्य-दोष भी जानते थे लेकिन उनका विचार था कि त्रुटियां और दोष गिनाने के बजाय गुणों पर अधिक बल देना चाहिए और यदि किसी कमी की चर्चा अपरिहार्य भी हो, तो ऐसे ढंग से लिखना चाहिए कि कटुता न उत्पन्न होने पाए। यह सत्य है कि शोध एवं आलोचना के लिए यह पद्धति अपने आप में एक बड़ा दोष है, परंतु अपने अग्रजों की कीर्ति के प्रति उनका श्रद्धाभाव और सहानुभूति की प्रवृत्ति उनकी मार्ग-बाधक है। इसी का परिणाम है कि ‘आज़ाद’ को बहुत-सी आपत्तियों का निशाना बनना पड़ा। लोगों ने उनके उद्देश्य और दृष्टिकोण की ओर ध्यान ही नहीं दिया।
किसी पुस्तक को पढ़ते समय उसके लिखनेवाले, उसके काल और उद्देश्य को ध्यान में रखना चाहिए। ‘आज़ाद’ को तथ्य एकत्र करने के जो साधन उपलब्ध थे, उसमें कमी नहीं दिखती। जो पुस्तकें मिल सकीं, वह उन्होंने देखीं। कुछ के संदर्भ दिए, कुछ के नहीं दिए। बाद के पढ़नेवालों ने जिन्हें वह पुस्तक न मिल सकी, यह विचार स्थापित कर लिया कि सारी बातें ‘आज़ाद’ ने अपनी तरफ़ से गढ़ कर लिख दी हैं। जैसे-जैसे पुरानी पुस्तकें मिलती जाती हैं, ‘आज़ाद’ की बहुत-सी बातें सही साबित होती जाती हैं। कवियों से संबंधित कुछ सुनी-सुनाई घटनाएं ऐसी होती हैं, जिनका किसी पुस्तक में पहले से लिखा होना आवश्यक नहीं होता, इसलिए ऐसी हर बात को गलत कह देना उचित नहीं है, जो केवल ‘आबे हयात’ में मिलती है। यह स्मरण रखना चाहिए कि ‘आबे-हयात’ सन् 1880 में प्रकाशित हुई, उस समय से अब तक सैकड़ों पुस्तकें, प्राचीन कवियों के काव्य-संकलन, जीवनी-संकलन और अन्य प्रकार की सामग्री हाथ आई है और लिखनेवालों के ज्ञान में वृद्धि हुई है। ‘आबे-हयात’ शोध दृष्टि से अंतिम शब्द नहीं है। यह भी ठीक है कि त्रुटियों के बावजूद ‘आबे-हयात’ साहित्यिक और ऐतिहासिक तथ्यों का भंडार है। एक आलोचक का यह मंतव्य अत्यंत उचित दिखता है कि अगर उसकी समस्त घटनाएं और चर्चाएं गलत हो जाएं, तो भी उसकी मनोहरता और साहित्यिकता पर आक्षेप नहीं किया जा सकता।
उर्दू में कवियों की जीवनी लिखने का चयन लगभग डेढ़ सौ साल से जारी था, हालांकि ये जीवनी-संकलन प्रायः फारसी में लिखे जाते थे। ‘आज़ाद’ ने पहली बार उर्दू काव्य का इतिहास लिखने की चेष्टा की। पहली बार भाषा के नियमों को दृष्टि में रखते हुए उर्दू के प्रादुर्भाव पर विचार व्यक्त किए और संस्कृत तथा फारसी के उस भाषिक संबंध का सर्वेक्षण किया, जिसकी चर्चा सिराजुद्दीन अली खां ‘आरज़ू’ ने डेढ़ सौ साल पहले की थी। ‘आज़ाद’ ने ऐतिहासिक घटनाओं और भाषिक समानताओं के आधार पर दोनों आर्य भाषाओं के संबंध की व्याख्या रोचक ढंग से की है। फिर इस समस्या को पुनः विस्तार के साथ अपनी पुस्तक ‘सुख़नदाने-फ़ारस’ में प्रस्तुत किया है। इससे भी अधिक उपयोगी ज्ञानवर्धक और विचारोत्तेजक वह अंश है, जिसमें फारसी, उर्दू और ब्रजभाषा के पारस्परिक आदान-प्रदान की चर्चा की है। इस अंश के अध्ययन से पता चलता है कि ‘आज़ाद’ का भाषाओं का अध्ययन कितना गहरा था और उनके पारस्परिक संबंधों को, जो ऐतिहासिक, सामाजिक और साहित्यिक कारणों से उत्पन्न हुए थे, वे कितनी गहरी निगाह से देखते थे। कवि तो सहस्रों होते हैं, इतिहास में सबको स्थान नहीं मिलता। ‘आज़ाद’ ने भी अपने सामने यही आदर्श रखा है, बहुत से कवियों की सरसरी चर्चा करने के बाद उर्दू काव्य के विकास की कहानी दकनी से शुरू की और शैली, अभिव्यक्ति-भंगिमा और ऐतिहासिक अथवा क्षेत्रीय प्रभाव के आधार पर पूरी गाथा को पांच दौर में विभाजित किया। प्रत्येक दौर की विशिष्ट विशेषता संक्षिप्त भूमिका और समाप्ति में व्यक्त की है। इस प्रकार इस समय तक के सभी महत्वपूर्ण कवि अपने नख-शिख, परिवेश और सामाजिक संबंधों के साथ जीवित तथा स्पंदित रूप में ‘आबे-हयात’ के पृष्ठों पर चलते-फिरते दिखाई देते हैं।
जो व्यक्ति भी इस पुस्तक का अध्ययन करेगा उस पर ‘आज़ाद’ के ज्ञान और अभिव्यक्ति के सौन्दर्य का तुरंत प्रभाव पड़ेगा। ज्ञान की दृष्टि से इसमें बहुत-सी साहित्यिक समस्याएं, ऐतिहासिक घटनाएं, भाषिक नियम और चिंतन के संकेत मिलेंगे, जिनसे विचारोत्तेजक प्रश्न उत्पन्न हो सकते हैं तथा शोध एवं आलोचना की नई राहें खुल सकती हैं। जो बातें गलत मालूम हों, उनकी खोज की जा सकती हैं। जो संकेत अधूरे दिख पड़े, उनको पूर्ण किया जा सकता है और जो बातें गलत मालूम हों, उन पर शोध किया जा सकता है। जहां तक शैली का संबंध है, इसमें दो मत नहीं हो सकते कि उसका सौंदर्य घटनेवाला नहीं है। आज के परिवेश में ऐसा गद्य लिखना संभव न हो सके या रुचिकर न प्रतीत हो, किंतु उसकी साहित्यिकता, प्रभावोत्पादकता तथा संप्रेषणीयता को स्वीकारना ही होगा। सूक्ष्म भाव और मृदुल अनुभूति की अभिव्यक्ति के साथ-साथ ‘आज़ाद’ की वर्णनात्मक शैली भी आकर्षक है। इसी कारण पुस्तक का कोई भाग ऐसा नहीं है, जिसका अध्ययन उकताहट पैदा करे।
‘आबे-हयात’ जैसी पुस्तक का अनुवाद और सारांश दोनों ही बहुत कठिन काम हैं, क्योंकि अनेक साहित्यिक चर्चाएं, भाषा और मुहावरों के सूक्ष्म अंतर के उदाहरण, घटनाओं के विस्तार पूरी पुस्तक में बिखरे पड़े हैं और एक-दूसरे में जुड़े हुए हैं, लेकिन संक्षिप्त करने में उन्हें छोड़ देना आवश्यक था। बहुत से उदाहरण और नमूने छोड़ने पड़े हैं और अनेक रोचक घटनाओं को कम करना पड़ा है। फिर भी इसका ध्यान बराबर रहा है कि क्रम टूटने न पाए और कोई आवश्यक बात छूट न जाए इस प्रकार अब यह सारांश पूरी पुस्तक का एक-तिहाई है। अनुवाद में सबसे बडी रूकावट ‘आबे-हयात’ की अलंकारिक शैली, लहजे की वैयक्तिक भंगिमा और मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग है। यदि इसके वाक्यों को शाब्दिक अर्थ के आधार पर हिन्दी तथा अन्य भाषाओं में अनूदित किया गया, तो इसका बहुत-सा जादू कम हो सकता है।
मैंने ‘आबे-हयात’ को संक्षिप्त करते समय जिन कुछेक बातों का विशेष ध्यान रखा है, उनकी चर्चा कर देना आवश्यक है, ताकि पढ़नेवाले को किसी प्रकार का भ्रम न हो।
• सभी ऐसे आवश्यक भाग इस संस्करण में ले लिए गए हैं, जिनसे ऐतिहासिक क्रम और जानकारी में अधिक अंतर नहीं आता। शोधप्रधान भाग कम किए गए हैं और रोचक वर्णनात्मक भाग रख लिए गए हैं।
• अशआर के नमूने कम कर दिए गए हैं।
• हिजरी सन् को अधिकतर ईसवी सन् में परिवर्तित कर दिया गया है, ताकि साधारण पढ़नेवाले काल का अनुमान कर सकें
• जहां तक संभव हुआ है फ़ारसी के वाक्य, शेर और शब्द संकलन निकाल दिए हैं।
• कहीं-कहीं फुटनोट में किसी आवश्यक बात की व्याख्या दी गई है कि कोई भ्रामक निष्कर्ष न निकाला जाए।
मुझे विश्वास है कि भारत की अन्य भाषाओं के साहित्यकार भी उर्दू की इस अमर रचना का अध्ययन यह समझकर करेंगे कि सौ वर्ष पूर्व उर्दू में शोध, आलोचना और शैली-भंगिमा की क्या स्थिति थी और एक कुशल कलाकार ने उसे किस प्रकार चित्रित किया है।
-सैयद एहतेशाम हुसैन
प्रस्तावना
‘प्राय: अर्थ ऐसे होते हैं कि
उन्हीं की भाषा में
कहें तो एक शब्द में व्यक्त हो जाते हैं, अनुवाद करें तो एक वाक्य बनता
है। फिर भी न वह रस मिलता है और न भावार्थ के प्रति न्याय होता
है।’
इसी प्रकार प्रस्तुत पुस्तक में एक दूसरे स्थान पर कहते हैं,
‘..अक्षरों में चित्र बनाना ही कठिन है। उस पर मैं भाषिक अपाहिज
!
इस ढंग के शब्द कहां से लाऊं, जो ऐसे बुजुर्गों की जीती-जागती,
बोलती-चालती तस्वीर खींच दिखाएं।’ वरन् इसे अनूठे ढंग से अपनी
बातें
कहने की एक शैली मात्र ही समझना चाहिए ! सत्यहो यह है कि
‘आजाद’ की शैली अपने शब्दों एवं विन्यासों में घुले
बिंबों
एवं प्रतीकों के माध्यम से मात्र कल्पनात्मक विषयों को भी ऐसी सुगमता,
स्वाभाविकता और सहजता से चित्रित करती है कि पाठक स्तब्ध रह जाता है।
अमूर्त को मूर्त रूप में चित्रित करने में उन्हें विशेष रुचि थी और उसे
अपनी रचनात्मक शक्ति के आधार पर अलंकारिता एवं कृत्रिमता के बावजूद एक
जीता-जागता चित्र बना देते थे।
‘आजाद’ की आलंकारिक शैली, वैयक्तिक एवं निजी रचना-प्रक्रिया, असाधारण कलात्मक शक्ति उनकी कृतियों में सहजता एवं स्वाभाविकता से प्रस्तुत होती है। उनकी भाषिक रचनात्मकता में ऐसा जादू है कि पाठक का मन उस इंद्रजाल में फंसकर रह जाता है। यह जादू उस जादू के समान है, जो किसी कुशल संगीतज्ञ के संगीत, किसी चित्रकार के चित्र, ताज और अजंता की संगतराशी या किसी बड़े गीतमय काव्य की ध्वनियों से प्राप्त होता है। शायद इसीलिए, ‘आजाद’ की शैली अपनी लोकप्रियता के बावजूद अनुकरणीय समझी गई है और किसी को उसका चरबा उतारने की हिम्मत नहीं होती। फिर भी उर्दू साहित्य के इतिहास में शायद ही कोई गद्यकार ऐसा हो जो उनके रचना-प्रभाव से बच सका हो। स्पष्ट ही है कि ऐसे अद्भुत रचनाकार के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ ‘आबे-हयात’ को अनूदित करने का साहस करना, तलवार की धार पर चलना ही है। लेकिन इस धृष्टता को क्या कहिए कि अनुवाद हो ही गया ! जैसा कुछ है, आपके सामने प्रस्तुत है।
अनुवाद में ‘आजाद’ की शैली की विशिष्टता, कलात्मकता और भाषिक प्रयोगों पर विशेष ध्यान दिया गया है, और कोशिश की गई है कि अनुवाद में भी ‘आजाद’ का खास लहजा झलकता रहे। इसलिए हिन्दी में रूपांतर के समय वाक्यों का भावार्थ व्यक्त कर देने, सारांश प्रस्तुत कर देने या शब्दों का ज्यों का त्यों प्रयोग कर देने के बजाय लेखक के शब्दों और विन्यासों अथवा रूपकों एवं उपमाओं के ऐसे पर्याय प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है, जिनमें उनकी आकारिकता का रस भी प्राप्त हो सके। इस संबंध में आधुनिक और पारिभाषिक शब्दों के बजाय आदि हिन्दी शब्दों को प्राथमिकता दी गई है, ताकि मूल रचना का क्लासिकी रूप स्पष्ट हो सके और इस अनुवाद के अध्ययन के समय आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व की उर्दू का भास भी मिल सके। इसलिए भय है कि कहीं-कहीं शब्दों का गठन अव्यावहारिक या अटपटा-सा लगेगा, किंतु यदि यह ध्यान रहा कि उस युग के गद्य का अनुवाद पढ़ रहे हैं, जब उर्दू गद्य बहुत विकसित नहीं हुआ था, तो शायद निराशा न हो।
शब्दों के प्रयोग के संदर्भ में ‘आज़ाद’ ने अत्यंत संतुलित एवं शास्त्रीय पद्धति अपनाई है। उन्होंने शब्दों को उनके पूर्ण संस्कार के साथ स्थान दिया है और उनके माध्यम से अपने विचारों की एक पूरी श्रृंखला प्रस्तुत कर देते हैं। इस संबंध में यह बात विशेषकर विचारणीय है कि हिन्दी तथा उर्दू दोनों ही खड़ी बोली के समान स्रोत से उत्पन्न होने के बावजूद सांस्कृतिक एवं सामाजिक स्तरों पर संस्कारगत पृथकता एवं प्रतिकूलता रखती हैं, इसलिए मात्र शब्द परिवर्तन से अनुवाद संभव नहीं है। फिर यह भी ध्यान रहे कि ‘आज़ाद’ को विभिन्न विधाओं एवं कलाओं का यथेष्ट ज्ञान था, इसलिए उन्होंने प्रायः मूल स्रोत से ही विचार या शब्द ग्रहण किए हैं। इन सबसे परिचित हुए बिना उनका भावार्थ व्यक्त कर देना संभव नहीं है। इस अनुवाद में सभी मूल स्रोतों तक पहुंचना संभव न था, इसलिए तत्सम और तद्भव दोनों रूपों का यथोचित उपयोग किया गया है।
‘आबे-हयात’ का संक्षिप्त रूप आधुनिक उर्दू-आलोचना के जनक यह एहतेशाम हुसैन की महत्वपूर्ण भूमिका के साथ उर्दू में प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने अपने मंतव्य स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किए हैं जिनमें कुछेक के संदर्भ में यहां निवेदन करना हैः
1. उन्होंने उर्दू संस्करण में कुछ स्थानों पर टिप्पणियां दी थीं. हिन्दी-पाठकों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कुछ टिप्पणियां बढ़ा दी गई हैं। दोनों प्रकार की टिप्पणियों में भेद करने के लिए उर्दू संस्करण की टिप्पणियों पर ‘सं.’ लिखा गया है। शेष टिप्पणियां अनुवादक की हैं।
2. उर्दू, फारसी और अरबी के अपरिचित शब्दों, विन्यासों और वाक्यों का भावार्थ टिप्पणी के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया है।
3. उर्दू संस्करण में हिजरी सन् को ईस्वी सन् में परिवर्तित कर दिया गया है। इस संबंध में यह बात ध्यान रहे कि हिजरी सन् जरी ईस्वी सन् से लगभग दस दिन छोटे होते हैं। इस प्रकार कुछ स्थान पर आयु में अंतर दिखाई देगा।
4. उर्दू संस्करण में मुहम्मद शाही सन् नहीं बदले गए थे। अनुवाद में उन्हें भी ईस्वी सन् में परिवर्तित कर दिया गया है।
5. प्रकाशन की अनेक त्रुटियां जो उर्दू संस्करण में रह गई थीं या विभिन्न संस्करणों में लगातार चली आ रही थीं, उन्हें संशोधित कर दिया गया है। इस प्रकार कहीं-कहीं सन् और कुछ स्थानों पर उद्धरण में दी गई अर्धालियां बदल गई हैं।
ज़ाफ़र रज़ा
‘आजाद’ की आलंकारिक शैली, वैयक्तिक एवं निजी रचना-प्रक्रिया, असाधारण कलात्मक शक्ति उनकी कृतियों में सहजता एवं स्वाभाविकता से प्रस्तुत होती है। उनकी भाषिक रचनात्मकता में ऐसा जादू है कि पाठक का मन उस इंद्रजाल में फंसकर रह जाता है। यह जादू उस जादू के समान है, जो किसी कुशल संगीतज्ञ के संगीत, किसी चित्रकार के चित्र, ताज और अजंता की संगतराशी या किसी बड़े गीतमय काव्य की ध्वनियों से प्राप्त होता है। शायद इसीलिए, ‘आजाद’ की शैली अपनी लोकप्रियता के बावजूद अनुकरणीय समझी गई है और किसी को उसका चरबा उतारने की हिम्मत नहीं होती। फिर भी उर्दू साहित्य के इतिहास में शायद ही कोई गद्यकार ऐसा हो जो उनके रचना-प्रभाव से बच सका हो। स्पष्ट ही है कि ऐसे अद्भुत रचनाकार के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ ‘आबे-हयात’ को अनूदित करने का साहस करना, तलवार की धार पर चलना ही है। लेकिन इस धृष्टता को क्या कहिए कि अनुवाद हो ही गया ! जैसा कुछ है, आपके सामने प्रस्तुत है।
अनुवाद में ‘आजाद’ की शैली की विशिष्टता, कलात्मकता और भाषिक प्रयोगों पर विशेष ध्यान दिया गया है, और कोशिश की गई है कि अनुवाद में भी ‘आजाद’ का खास लहजा झलकता रहे। इसलिए हिन्दी में रूपांतर के समय वाक्यों का भावार्थ व्यक्त कर देने, सारांश प्रस्तुत कर देने या शब्दों का ज्यों का त्यों प्रयोग कर देने के बजाय लेखक के शब्दों और विन्यासों अथवा रूपकों एवं उपमाओं के ऐसे पर्याय प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है, जिनमें उनकी आकारिकता का रस भी प्राप्त हो सके। इस संबंध में आधुनिक और पारिभाषिक शब्दों के बजाय आदि हिन्दी शब्दों को प्राथमिकता दी गई है, ताकि मूल रचना का क्लासिकी रूप स्पष्ट हो सके और इस अनुवाद के अध्ययन के समय आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व की उर्दू का भास भी मिल सके। इसलिए भय है कि कहीं-कहीं शब्दों का गठन अव्यावहारिक या अटपटा-सा लगेगा, किंतु यदि यह ध्यान रहा कि उस युग के गद्य का अनुवाद पढ़ रहे हैं, जब उर्दू गद्य बहुत विकसित नहीं हुआ था, तो शायद निराशा न हो।
शब्दों के प्रयोग के संदर्भ में ‘आज़ाद’ ने अत्यंत संतुलित एवं शास्त्रीय पद्धति अपनाई है। उन्होंने शब्दों को उनके पूर्ण संस्कार के साथ स्थान दिया है और उनके माध्यम से अपने विचारों की एक पूरी श्रृंखला प्रस्तुत कर देते हैं। इस संबंध में यह बात विशेषकर विचारणीय है कि हिन्दी तथा उर्दू दोनों ही खड़ी बोली के समान स्रोत से उत्पन्न होने के बावजूद सांस्कृतिक एवं सामाजिक स्तरों पर संस्कारगत पृथकता एवं प्रतिकूलता रखती हैं, इसलिए मात्र शब्द परिवर्तन से अनुवाद संभव नहीं है। फिर यह भी ध्यान रहे कि ‘आज़ाद’ को विभिन्न विधाओं एवं कलाओं का यथेष्ट ज्ञान था, इसलिए उन्होंने प्रायः मूल स्रोत से ही विचार या शब्द ग्रहण किए हैं। इन सबसे परिचित हुए बिना उनका भावार्थ व्यक्त कर देना संभव नहीं है। इस अनुवाद में सभी मूल स्रोतों तक पहुंचना संभव न था, इसलिए तत्सम और तद्भव दोनों रूपों का यथोचित उपयोग किया गया है।
‘आबे-हयात’ का संक्षिप्त रूप आधुनिक उर्दू-आलोचना के जनक यह एहतेशाम हुसैन की महत्वपूर्ण भूमिका के साथ उर्दू में प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने अपने मंतव्य स्पष्ट रूप में प्रस्तुत किए हैं जिनमें कुछेक के संदर्भ में यहां निवेदन करना हैः
1. उन्होंने उर्दू संस्करण में कुछ स्थानों पर टिप्पणियां दी थीं. हिन्दी-पाठकों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए कुछ टिप्पणियां बढ़ा दी गई हैं। दोनों प्रकार की टिप्पणियों में भेद करने के लिए उर्दू संस्करण की टिप्पणियों पर ‘सं.’ लिखा गया है। शेष टिप्पणियां अनुवादक की हैं।
2. उर्दू, फारसी और अरबी के अपरिचित शब्दों, विन्यासों और वाक्यों का भावार्थ टिप्पणी के रूप में प्रस्तुत कर दिया गया है।
3. उर्दू संस्करण में हिजरी सन् को ईस्वी सन् में परिवर्तित कर दिया गया है। इस संबंध में यह बात ध्यान रहे कि हिजरी सन् जरी ईस्वी सन् से लगभग दस दिन छोटे होते हैं। इस प्रकार कुछ स्थान पर आयु में अंतर दिखाई देगा।
4. उर्दू संस्करण में मुहम्मद शाही सन् नहीं बदले गए थे। अनुवाद में उन्हें भी ईस्वी सन् में परिवर्तित कर दिया गया है।
5. प्रकाशन की अनेक त्रुटियां जो उर्दू संस्करण में रह गई थीं या विभिन्न संस्करणों में लगातार चली आ रही थीं, उन्हें संशोधित कर दिया गया है। इस प्रकार कहीं-कहीं सन् और कुछ स्थानों पर उद्धरण में दी गई अर्धालियां बदल गई हैं।
ज़ाफ़र रज़ा
1
उर्दू भाषा का इतिहास
इतनी बात प्रत्येक व्यक्ति जानता है कि हमारी
उर्दू भाषा
ब्रजभाषा से निकली है1 और ब्रजभाषा महत्वपूर्ण भारतीय भाषा है। लेकिन वह
ऐसी भाषा नहीं कि विश्व के पर्दे पर भारत के साथ आई हो। उसकी आयु साठ सौ
वर्ष से अधिक नहीं है और ब्रज की हरियाली-भरी भूमि ही उसकी जन्मभूमि है।
तुम किंचित यह विचार करोगे कि इस प्राचीन थाती का आदि-स्रोत संस्कृत के
पास होगा और वह ऐसा बीज होगा, जो यहीं फूटा होगा। लेकिन नहीं, इसका पता
करने के लिए खोज अभी आगे चलती है। यह सब जानते हैं कि भारत यद्यपि
साहसहीनता और विलासिता के कारण बदनाम रहा, परंतु इसके बावजूद सभ्य
जनजातियों की आँखों में हमेशा से खुपा रहा है। अतएव, इसकी हरित
उर्वरा-भूमि और संतुलित वायु ने जान का जंजाल बनकर सदैव से इसे अन्य
जनजातियों की घुड़दौड़ का मैदान बनाए रखा है। विदेशी विद्वान जो कि हर बात
का पता पाताल तक निकालने वाले हैं, उन्होंने विभिन्न भाषाओं और पुरातन
चिह्नों से सिद्ध किया है कि इस देश के आदिम निवासी तो कोई और लोग थे,
किंतु कालोपरांत एक शक्तिशाली जनजाति ने आकर धीरे-धीरे समस्त देश पर
अधिकार कर लिया। यह विजेता संभवतः जैहून और सैहून के मैदानों से उठकर और
हमारे उत्तरी पर्वतों को पार कर इस देश में आए होंगे। उस काल के गीत और
पुराने चिह्नों को देखकर यह भी पता चला है कि वे लोग हृदय से वीर, साहस के
पूरे, आकृति में रोबदार और रंग के गोरे रहे होंगे और उस युग की स्थिति के
अनुसार सुशिक्षित भी रहे होंगे। यतोचित स्थान और उर्वर भूमि देखकर यहीं बस
गए। इस जनजाति का नाम आर्य था और आश्चर्य नहीं कि उनकी भाषा वही हो, जो
अपने मौलिक रूप से कुछ-कुछ बदलकर अब संस्कृत कहलाती है। यही लोग हैं,
जिन्होंने भारत आकर शासन किया और राजा-महाराजा की उपाधि से विभूषित हुए।
ईरान में कयानी मुकुट के ऊपर कावयानी पताका लहराई, अपने धर्म की अनुपम
पद्धति लेकर चीन को रंगमहल बनाया। यूनानी भूखंड को विधान की दौलत देकर
विशिष्ट रूप में स्थापित किया,
1. उर्दू भाषा के उद्गम के विषय में अनेक मत प्रकट किए गए हैं। ‘आज़ाद’ के विचार में तो उर्दू का उद्गम स्रोत ब्रजभाषा है, किंतु हाफ़िज़ महमूद शीरानी के विचार में पंजाबी और मौलाना सुलेमान नदवी के विचार में सिंधी है। यही नहीं, बल्कि डॉ.शौकत सब्ज़वारी ने उर्दू व्याकरण और पाली व्याकरण की समान रूपरेखा के आधार पर उर्दू का उद्गम पाली से निश्चित किया है तथा सुहैल बुख़ारी ने कुछ द्रविड़ भाषाओं से उर्दू का आदि स्रोत स्थापित किया है। सत्य यह है कि उर्दू (हिन्दी,हिंदुस्तानी) पश्चिमी हिन्दी का एक रूप है। उपर्युक्त भाषाओं से व्याकरणगत जो समानता मिलती है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उर्दू इन भाषाओं से प्रभावित अवश्य हुई है। (उर्दू लिसानियात का खाका/सैयद एहतेशाम हुसैन तथा तारीख जबाने-उर्दू/मसूद हुसैन खां) रोम के विश्वव्यापी साम्राज्य की नींव डाली, उंदलुस पहुंचकर चांदी निकाली, यूरोप से खबर आई कि कहीं नदी से मछली निकालते-निकालते राज्य-रत्न पा गए और कहीं पहाड़ों से धातु खोदते-खोदते अमूल्य माणिक निकाल लाए।
विजेताओं ने हिंदूकुश पर्वत से उतरकर पहले तो पंजाब में डेरे डाले होंगे। फिर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते गए होंगे, यहां के आदिम निवासी कुछ तो लड़ते-मरते दाएं-बाएं जंगलों की गोद और पर्वतों के अंचल में घुसते गए होंगे, कुछ भागे होंगे। वे दक्षिण और पूर्व को हटते गए होंगे। कुछ विजेताओं की पराधीनता और दासता के काम आए होंगे और वे ही शूद्र कहलाए होंगे। अतएव, उनकी आकृतियां अब तक कहे देती हैं कि ये किसी और शरीर की हड्डी हैं।
दीर्घकाल तक आर्य भाइयों के कारोबार भारत के आदिम निवासी भाइयों के साथ मिले-जुले रहे होंगे। यही कारण है कि ईरान के प्राचीन इतिहास में महाबाद और उसके युगों का विभाजन, ब्रह्मा के युगों से और उसकी रीतियों एवं नियमों के अनुरूप दिखता है और चारों वर्णों के होने का भी बराबर पता लगता है। जहां बुद्ध ने इनकी धार्मिक एवं सामाजिक व्यवस्थाओं को तोड़ा, वहां ज़रतुश्त के धर्म ने उसे जलाकर भस्म किया। परंतु हिंदुओं ने बुद्ध के बाद फिर अपनी स्थिति संभाल ली, किंतु ईरानी अपनी दुर्दशा को न संभाल सके। समाज का चार वर्गों में विभाजन और उनका अलग-अलग रहना यद्यपि दूर से देखने वालों को असहिष्णुता और दंभ के रूप में ही दिखाई दिया,परंतु सच पूछो तो यह कोई बुरी बात न थी। उसी का प्रताप है कि आज तक चारों श्रेणियां स्पष्ट रूप में अलग-अलग चली जाती हैं।
विजेताओं ने कहा कि हमारी भाषा देव-भाषा है और देव-युग से इसी तरह चली आई है। अतः उसका व्याकरण और नियम बनाएं और ऐसे जांचकर बांधें कि जिनमें तनिक-सा भी अंतर नहीं आ सकता। उसकी विशुद्धता ने विदेशी शब्दों को अपने दामन पर अपवित्र धब्बा समझा और ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी दूसरे की जिह्वा, बल्कि कान से भी सुनना अवैध हुआ। इस कठोर नियम से एक बहुत बड़ा लाभ यह हुआ कि भाषा सदैव अपनी वास्तविकता और पूर्वजों, सांस्कृतिक स्मारकों के एक पावन प्रतीक के रूप में बनी रही और चिरकाल तक बनी रहेगी।
इसके विपरीत ईरानी भाइयों के पास उसका मौखिक आधार भी न रहा।
इसी आधार पर विजेताओं की उच्चदर्शिता ने इस भाषा का नाम संस्कृत रखा, जिसके शाब्दिक अर्थ सुसज्जित, तकनीकी, अंलकृत, परिष्कृत, पवित्र जो चाहो समझ लो। इसका भाषागत व्याकरण भी ऐसा पवित्र हुआ कि धर्म-मनीषी ही उसे पढ़ाएं तो पढ़ाएं, बल्कि इस तरह पुकारकर पढ़ाना भी पाप हुआ कि इसकी ध्वनि शूद्र के कानों में पड़े। इस भाषा का नाम देव-वाणी हुआ, अर्थात् ईश्वरीय भाषा।
1. उर्दू भाषा के उद्गम के विषय में अनेक मत प्रकट किए गए हैं। ‘आज़ाद’ के विचार में तो उर्दू का उद्गम स्रोत ब्रजभाषा है, किंतु हाफ़िज़ महमूद शीरानी के विचार में पंजाबी और मौलाना सुलेमान नदवी के विचार में सिंधी है। यही नहीं, बल्कि डॉ.शौकत सब्ज़वारी ने उर्दू व्याकरण और पाली व्याकरण की समान रूपरेखा के आधार पर उर्दू का उद्गम पाली से निश्चित किया है तथा सुहैल बुख़ारी ने कुछ द्रविड़ भाषाओं से उर्दू का आदि स्रोत स्थापित किया है। सत्य यह है कि उर्दू (हिन्दी,हिंदुस्तानी) पश्चिमी हिन्दी का एक रूप है। उपर्युक्त भाषाओं से व्याकरणगत जो समानता मिलती है, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि उर्दू इन भाषाओं से प्रभावित अवश्य हुई है। (उर्दू लिसानियात का खाका/सैयद एहतेशाम हुसैन तथा तारीख जबाने-उर्दू/मसूद हुसैन खां) रोम के विश्वव्यापी साम्राज्य की नींव डाली, उंदलुस पहुंचकर चांदी निकाली, यूरोप से खबर आई कि कहीं नदी से मछली निकालते-निकालते राज्य-रत्न पा गए और कहीं पहाड़ों से धातु खोदते-खोदते अमूल्य माणिक निकाल लाए।
विजेताओं ने हिंदूकुश पर्वत से उतरकर पहले तो पंजाब में डेरे डाले होंगे। फिर ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते गए होंगे, यहां के आदिम निवासी कुछ तो लड़ते-मरते दाएं-बाएं जंगलों की गोद और पर्वतों के अंचल में घुसते गए होंगे, कुछ भागे होंगे। वे दक्षिण और पूर्व को हटते गए होंगे। कुछ विजेताओं की पराधीनता और दासता के काम आए होंगे और वे ही शूद्र कहलाए होंगे। अतएव, उनकी आकृतियां अब तक कहे देती हैं कि ये किसी और शरीर की हड्डी हैं।
दीर्घकाल तक आर्य भाइयों के कारोबार भारत के आदिम निवासी भाइयों के साथ मिले-जुले रहे होंगे। यही कारण है कि ईरान के प्राचीन इतिहास में महाबाद और उसके युगों का विभाजन, ब्रह्मा के युगों से और उसकी रीतियों एवं नियमों के अनुरूप दिखता है और चारों वर्णों के होने का भी बराबर पता लगता है। जहां बुद्ध ने इनकी धार्मिक एवं सामाजिक व्यवस्थाओं को तोड़ा, वहां ज़रतुश्त के धर्म ने उसे जलाकर भस्म किया। परंतु हिंदुओं ने बुद्ध के बाद फिर अपनी स्थिति संभाल ली, किंतु ईरानी अपनी दुर्दशा को न संभाल सके। समाज का चार वर्गों में विभाजन और उनका अलग-अलग रहना यद्यपि दूर से देखने वालों को असहिष्णुता और दंभ के रूप में ही दिखाई दिया,परंतु सच पूछो तो यह कोई बुरी बात न थी। उसी का प्रताप है कि आज तक चारों श्रेणियां स्पष्ट रूप में अलग-अलग चली जाती हैं।
विजेताओं ने कहा कि हमारी भाषा देव-भाषा है और देव-युग से इसी तरह चली आई है। अतः उसका व्याकरण और नियम बनाएं और ऐसे जांचकर बांधें कि जिनमें तनिक-सा भी अंतर नहीं आ सकता। उसकी विशुद्धता ने विदेशी शब्दों को अपने दामन पर अपवित्र धब्बा समझा और ब्राह्मण के अतिरिक्त किसी दूसरे की जिह्वा, बल्कि कान से भी सुनना अवैध हुआ। इस कठोर नियम से एक बहुत बड़ा लाभ यह हुआ कि भाषा सदैव अपनी वास्तविकता और पूर्वजों, सांस्कृतिक स्मारकों के एक पावन प्रतीक के रूप में बनी रही और चिरकाल तक बनी रहेगी।
इसके विपरीत ईरानी भाइयों के पास उसका मौखिक आधार भी न रहा।
इसी आधार पर विजेताओं की उच्चदर्शिता ने इस भाषा का नाम संस्कृत रखा, जिसके शाब्दिक अर्थ सुसज्जित, तकनीकी, अंलकृत, परिष्कृत, पवित्र जो चाहो समझ लो। इसका भाषागत व्याकरण भी ऐसा पवित्र हुआ कि धर्म-मनीषी ही उसे पढ़ाएं तो पढ़ाएं, बल्कि इस तरह पुकारकर पढ़ाना भी पाप हुआ कि इसकी ध्वनि शूद्र के कानों में पड़े। इस भाषा का नाम देव-वाणी हुआ, अर्थात् ईश्वरीय भाषा।
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