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स्मृति एक प्रेम की

कृष्ण खटवाणी

प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :94
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4879
आईएसबीएन :81-237-1460-2

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मानवीय संबंधों के गहन भावनात्मक ताने-बाने पर नजर डालता उपन्यास...

Smriti ek Prem Ki

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत उपन्यास स्मृति एक प्रेम की सिंधी साहित्य की एक अन्यतम कृति है। मानवीय संबंधों के गहन भावनात्मक ताने-बाने से इस उपन्यास का कथानक बुना गया है। एक स्वाभिमानी और भावुक लड़की नंदिनी के जीवन में भिन्न-भिन्न पुरुष आते हैं और कोई समय के अभिशापवश और कोई पुरुषवादी अहंवश उसके जीवन से निकल जाते हैं। कानवेंट स्कूल का पादरी, सतेन, देवव्रत, पत्र-पत्रिका में फ्रीलांस छपने वाला अनाम युवक...आदि इसी कोटि के पुरुषों में से हैं। नंदिनी की मां की नजर में कोई भी स्वाभिमानी पुरुष यह सहन नहीं करेगा कि उसकी पत्नी के मधुर संबंध दूसरे मर्द से भी रहे हों। और नंदिनी का सोचना है कि स्वाभिमान केवल पुरुषों को ही नहीं, स्त्रियों को भी होता है....इसी विचारधारा का पोषक अनिल नामक युवक नंदिनी के जीवन में आता है, जो सारा कुछ जानकर भी नंदिनी को अपनी पत्नी बनाता है। अतीत की बातें, प्रकृति, आदि का सूक्ष्म चित्रण उपन्यास की रोचकता में निखार लाता है।
उपन्यासकार श्री कृष्ण खटवाणी का जन्म सन् 1927 में ठारुशाह सिंध (पाकिस्तान) में हुआ था। इनकी कई अन्य कृतियां प्रकाशित एवं प्रशंसित हैं।

स्मृति : एक प्रेम की

भूमिका

सिंधु देश 1843 में भारत में ब्रिटिश साम्राज्य से मिल गया। अंग्रेज सरकार ने 1870 में राजाओं-महाराजाओं के दैव-अधिकार को प्रश्रय और योरोपीय राज्य प्रणाली को प्रोत्साहन देने के लिए डॉ.सैम्युएल जॉन्सन के उपन्यास रास्सेलस का सिंधी-अनुवाद कराया। यह अनुवाद साधु नवलराय और मुंशी उधाराम मीरचंदाणी ने किया और उन्हें समुचित पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अंग्रेज सरकार की मुराद कुछ भी रही हो, परंतु इससे एक आधुनिक साहित्यिक विधा के रूप में उपन्यास से हमारा परिचय हुआ।
सिंधी में 1870 और 1888 के बीच कई किस्से प्रकाशित हुए। दलूराइ, उमर मारूई, सस्सी-पुन्हू आदि किस्सों के गद्य में वही विषयवस्तु थी, जो पद्य में बहुत पहले से रही थी 1888 में मिर्ज़ा कलीच बेग का किस्सा दिलाराम ज़ाहिर हुआ। उस घटना-प्रधान किस्से में राजा और रानियां, राजकुमार और राजकुमारियां आदि खचाखच भरी पड़ी थीं और लेखक ने शाह आदिल और जहां बेग को अच्छे और बुरे-दो ‘‘टाइप’’ चरित्रों में प्रस्तुत किया था। 1890 में मिर्ज़ा कलीच बेग की कथाकृति ज़ीनत प्रकाशित हुई, जिसमें राजा-रानियों के स्थान पर आम लोगों का सहज चित्रण हुआ। इसमें ज़ीनत और उसके पति अली रज़ा जिंदगी के कई दौरों से गुज़रते हैं और अपने समकालीन मुसलमान समाज का सही चित्र प्रस्तुत करते हैं। ज़ीनत सिंधी का प्रथम आधुनिक उपन्यास है।

1892 में सामाजिक यथार्थ का दूसरा उपन्यास अजीब भेट (विचित्र तुलना) प्रकाशित हुआ, जिसमें प्रीतमदास हकूमतराइ ने सिंधी-हिन्दुओं के दो वर्गों-आमिल और भाईबंद-के जीवन का निरूपण किया है। इसमें वर्णित विषय हैं-दहेज-प्रथा, स्वयंघोषित गुरुओं में अंध-विश्वास, कर्मकांड आदि सामाजिक दुर्गुण। बीसवीं शती के प्रारंभ में लालचंद अमरडिनोमल का चोथ जो चंड (चतुर्थी का चंद्र) सरस्वती पत्रिका में धारावहिक रूप से प्रकाशित हुआ। जैसा कि इस उपन्यास के शीर्षक से ही स्पष्ट है, इसमें भाद्र मास की शुक्ल चतुर्थी के चंद्र-दर्शन संबंधी अपशकुन का विवरण है। इसमें भी अजीब भेट की तरह कई अंधविश्वासों का खंडन किया गया है। 1909 में यह उपन्यास पुस्तक रूप में छपा। इसकी भाषा शैली आलांकारिक है। क्रमशः 1915 और 1917 में मुख्यत: विद्वान लेखकों होतचंद मूलचंद गुरबक्षाणी और भेरूमल मेहरचंद आडवानी के उपन्यास नूरजहाँ और मोहिनीबाई प्रकाशित हुए। ‘‘शिक्षा और मनोरंजन’’ इन विद्वान उपन्यासकारों का उद्देश्य रहा था।
तीसरे और चौथे दशकों के मुख्य उपन्यासकारों में अब्दुल खालिक मोराई के सुंदरी, सतीअ जी सत्या (सती का सत्य) और छत्रपति, विष्णु शर्मा के सतीअ जो त्याग (सती का त्याग) और सिंध जा ठोगी (सिंध के ठग), हरजसराइ सुखरामाणी का व भाउर ( दो भाई), सेवक भोजराज के आशीर्वाद और दादा श्याम और रोचीराम सडाणी का आजाद-खयाल ज़ालू (मुक्त विचार नारियां) के नाम आते हैं। इनमें दैनंदिन समस्याओं को स्थान मिला है और आम आदमी का सुख-दुख चित्रित हुआ है। इनमें सेवक भोजराज के आशीर्वाद का महत्वपूर्ण स्थान है: इस उपन्यास में बताया गया है कि किस प्रकार महात्मा गांधी के विचारों से भारत के जनजीवन में क्रांति आयी।

पांचवें दशक में आकर सिंधी उपन्यास ने अच्छी-खासी तरक्की की और उसमें सामाजिक यथार्थ का कलात्मक ढंग से निर्वाह हुआ। 1941 में आसानंद माम्तोरा का शायर और गुली सदारंगाणी का इत्तिहाद (एकता) प्रकाशित हुए। इन उपन्यासों में नायकों और नायिकाओं के अंतर्जातीय विवाहों द्वारा राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने का प्रयत्न किया गया है और इस प्रयत्न में कोरा आदर्श नहीं, अपितु स्थिति-जन्य यथार्थ परिलक्षित है।
शीघ्र ही, नारायणदास भम्भाणी के तीन उपन्यास आये-माल्हिण (मालिन,1942), विधवा (1943) और ग़रीबनि जो वर्सो (निर्धन लोगों का उत्तराधिकार, 1946)। इनके मुख्य पात्र संसार की तर्कहीन रचना के कारण दुखी हैं और उनमें यदा-कदा ‘‘डेथ-विश’’ या मृत्यु-इच्छा बलवती हो उठती है। कुछ पात्र आत्महत्या के कगार पर पहुंच जाते हैं या कुछ आत्महत्या करते हैं। भभ्भाणी की तरह राम पंजवाणी भी प्राध्यापक-उपन्यासकार हैं। उनके कैद़ी (1943), लतीफ़ा (1945), चांदीअ जो चमको (चांदी की चमक, 1947) सामाजिक उपन्यास हैं। वे सरल, प्रवाहमयी शैली और सामाजिक दायित्वबोध के कारण सिंधी के लोकप्रिय उपन्यासकार रहे हैं।

स्वातंत्र्योत्तर सिंधी-उपन्यास के क्षेत्र में राम पंजवाणी, गोविंद माल्ही, चंदूलाल जयसिंघाणी, सुंदरी उत्तमचंदाणी, मोहन कल्पना, लाल पुष्प,कृष्ण खटवाणी आदि की महत्वपूर्ण देन है। गोविंद माल्ही सिंधी में प्रगतिशील विचारधारा के प्रवर्तकों में से एक रहे हैं। और उनके उपन्यास शोषित वर्गों (उनमें एक नारी-वर्ग है-देखिए उनका उपन्यास प्यार जी प्यास (प्रेम की प्यास,1972) का प्रतिनिधित्व करते हैं। चूंकि चंदूलाल जयसिंधाणी पेशे से वकील हैं, उनके अधिकतर उपन्यासों में कानून का कोई न कोई नुक्ता रहता है। उदाहरणतः वे बाहि ऐं बरसात (आग और बरसात, 1973) में कहते हैं कि तेजी से बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर सालों पुराना कानून भी उतनी तेजी से बदलना चाहिए। सुंदरी उत्तमचंदाणी अपने उपन्यासों में नारी-हृदय का कोना-कोना झांकती-सी लगती हैं। वे प्रीत पुरानी, रीति निराली (1956) में जमुना और सरला की अपनी-अपनी स्पष्ट भूमिकाओं द्वारा कल और आज के नारी-मन का विश्लेषण करती हैं। मोहन-कल्पना का रूअ ऐं पाछा (मरीचिका और परछाइयां, 1968) और लाल पुष्प का हुन जे आतम जो मौत (उसके आत्म की मौत, 1973) विशिष्ट लेखकीय दृष्टिकोणों का प्रस्तुतिकरण होते हुए भी सफल उपन्यास गिने जाएंगे।

श्री कृष्ण खटवाणी (जन्म 1972, ठारूशाह सिंध, अब पाकिस्तान) सिंधी के सिद्धहस्त कथाकार हैं। अब तक उनके पांच कहानी-संग्रह और चार उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। उनके उपन्यास याद हिक प्यार जी (हिंदी अनुवाद, स्मृति एक प्रेम की) को ‘‘मानवीय संबंधों के अपने मार्मिक आकलन, गहरी भावनाओं, संवेदनशील कथानक तथा गीतात्मक आरोह अवरोह के लिए सिंधी साहित्य को एक विशिष्ट देन’’ मानकर साहित्य अकादमी ने 1980 के सिंधी-पुरस्कार से विभूषित किया। वे सिंधी के अंतिम स्वच्छंतावादी लेखक हैं। जब हम यह कहते हैं, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उनके पश्चात् सिंधी में कोई और स्वच्छन्दतावादी लेखक नहीं होगा। अवश्य होगा और वह फिर उस समय अंतिम स्वच्छंदतावादी लेखक कहलाएगा। साहित्य में पारिभाषिक शब्द के स्तर पर स्वच्छंदतावादी या रोमानी प्रवृत्ति के आने से पहले भी यह प्रवृत्ति रही थी; और आज जब इस प्रवृत्ति को प्रश्रय नहीं दिया जाता, तो भी यह अपने नवीन-संस्कार में विद्यमान है। यह उपन्यास इस नई रोमानियत का सफल उदाहरण है-इसमें अद्भुत, भावात्मक और रहस्यात्मकता का आधुनिक संदर्भों में निर्वाह हुआ है और व्यक्ति को सर्वोपरि मानकर उसके माध्यम से, समष्टि को समझाने का प्रयत्न किया गया है।

इस उपन्यास की विषयवस्तु के अंतर्गत अतीत से संबंधित दृश्यों, घटनाओं और पात्रों का चित्रण हुआ है। इस चित्रण में खंडहर मूर्तियां, मंदिर, समुद्र-तट, प्रेम-मुलाकातें, मूर्च्छा-स्थितियां और मानवीय संबंध सजीव हो उठे है। इसका नायक ‘‘मैं’’ (सतेन/सत्येन्द्र) और नायिका नंदिनी प्रकृति और मानव-जीवन के सत्यदर्शी हैं। नंदिनी अधिक ठोस पात्र है। सतैन आत्मिक दृष्टि से कथा प्रस्तुत करते हुए भी उसे अपने पीछे नहीं छिपा सका है। दरअसल, सतेन नंदिनी की पृष्ठभूमि में ही अपने आपको समझ सका है। अब वह केवल वह नहीं है, जो वह अपने को समझता है वह वह भी है, जो नंदिनी उसे समझ रही है। नंदिनी उपन्यास के अंत में उसे साफ-साफ कहती है, ‘‘तुमने उस रात को आकाश के तारों तले धरती की उस सुनसान राह पर उस औरत को नहीं अपनाया था जिससे, तुम कह रहे हो, तुमने प्रेम किया था।’’
नंदिनी के सजीव पात्र में अवस्था-सुलभ मन:स्थितियां रूपायित हुई हैं। ये स्पष्ट न हो पातीं, यदि वह उन्हें छिपाने की कोशिश करती। जब वह कांवेट स्कूल में पढ़ती थी, तो एक अंग्रेज-अध्यापक पादरी को पूजने और प्रेम करने लगी थी। जैसा कि वह सतेन को बताती है, उसने उसे सपनों में भी कई बार याद किया था। वह कालेज में आयी, तो वह सतेन को हृदय से चाहने लगी। लेकिन उसे अंतर्मुखी सतेन की अपेक्षा बहिर्मुखी देवव्रत अधिक अच्छा लगने लगा। चूंकि वही पहले देवव्रत की ओर आकृष्ट हुई थी, इसीलिए देवव्रत यह समझने लगा कि वह नंदिनी से जो कुछ चाहेगा, उसे वह कुछ मिलेगा। शीघ्र ही नंदिनी को इस बात का ज्ञान हो गया कि उसे देवव्रत की बाहरी तड़क-भड़क और शान-शौकत के आगे ‘‘समर्पण’’ नहीं करना चाहिए था। उसने सतेन के समक्ष अपनी भूल स्वीकार की। परंतु क्या सतेन ने उसे सही समझा ? चूंकि सब बातें शब्दों में नहीं बांधी जातीं, इसीलिए सतेन और नंदिनी का वह मधुर प्रेम-संबंध शब्दातीत रह गया।

नवयौवन के पश्चात् यौवनकाल में, नंदिनी के जीवन में एक और व्यक्ति भी आया। वह फ्री लांसर था और पत्र-पत्रिकाओं में उसके नाम से कई लेख छपते थे। परंतु बिंडबना यह है कि इस उपन्यास में वह अनाम ही रह गया है। वह प्रगतिशील कहलाता था। परंतु वह नंदिनी के कालेज-जीवन की प्रेम-कहानी सुनकर उसके जीवन से दूर चला गया। नंदिनी ने अपनी मां से यह बात कही। मां ने उसका ही दोष निकाला और कहा, ‘‘कोई भी स्वाभिमानी पुरुष ये बातें नहीं सह सकता।’’ नंदिनी कराह उठी,‘‘ क्या केवल पुरुष का स्वाभिमान होता है ? नारी का नहीं होता ?’’ आगे चलकर उसे पता चला कि सब पुरुष एक-से हैं, जो नारी के स्वाभिमान की रक्षा करना जानते हैं। वह नंदिनी के कालेज-जीवन की एक प्रेम कहानी नहीं, दो-दो प्रेम कहानियां (चाहे नंदिनी की सहेलियों से सुनकर) जानता था। उसने अपनी वासना-कहानियों पर भी कोई पर्दा नहीं डाला था। नंदिनी को उन सब कहानियों की जानकारी थी। उसे लगा, अनिल भीतर-बाहर एक है और उसने उसका विवाह-प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। अनिल जीवन में सफल व्यक्तियों में से एक है। परंतु क्या नंदिनी अपने विवाहित जीवन में सुखी है ? सुख क्या है ? तन ही तो सब कुछ नहीं है, मन भी तो है, और मन को न जाने क्या चाहिए ? मन के विस्मयकारी रहस्य को भला कौन जान सका है ? नंदिनी ने अस्तित्वात्मक वास्तविकता या ‘‘एग्जिस्टेंशनल रिएलिटी’’ को स्वीकार कर इन प्रश्नों पर सोचना छोड़ दिया है और अपने आपको घर-गृहस्थी के कामों में खपा दिया है। वह सतेन से कहती है, ‘‘सतेन, दुनिया में दो इंसान सदा एक दूसरे के लिए अजनबी ही बने रहे हैं, वे सदा एक दूसरे के लिए अजनबी ही बने रहेंगे।’’ अनिल यही बात अपने सतही ढंग से-सिर्फ आसपास की जिंदगी को लेकर कहता है, ‘‘हम भारतीय पति-पत्नी एक-दूसरे की दो अलग परछाइयां होते हैं-दो अलग शख्सियतें, जो रेल की दो पटरियों की तरह सदा जुदा रहती हैं और जिन पर ज़िंदगी की गाड़ी दौड़ती रहती है।’’

जब अंत में विदाई के समय सतेन टैक्सी में जा बैठता है और टैक्सी चलने को होती है, तो वह हाथ आगे बढा़ता है नंदिनी भी हाथ आगे बढ़ाती है। परंतु वे अंधेरे में यह देख नहीं पाते कि टैक्सी के दरवाजे का शीशा ऊपर चढ़ा हुआ है। उनके हाथ शीशे से टकराकर लौट आते हैं। हम लोग इसी अस्तित्वात्मक वास्तविकता में जीते हैं। दुनिया में अभी अंधेरा बाकी है और इस अंधेरे में की चीजें साफ दिखाई नहीं देती है और अजनबियत बनी रहती है।
उपन्यास के अंत का यह प्रतीकात्मक बिंब लेखक की जीवन-दृष्टि से जुड़ा हुआ है। दरअसल, किसी भी लेखक का शिल्प उसके कथ्य से अलग नहीं किया जा सकता। श्री कृष्ण खटवाणी ने ‘‘स्मृति एक प्रेम की’’ में अपने इससे इसमें अनायास ही गीतात्मकता, दिवा-स्वप्न-बहुलता और कल्पना का समावेश हो गया है। इन्हीं तीन शिल्प-वैधानिक विशेषताओं के होने से यह उपन्यास यह उपन्यास बन पाया है। वैसे इसमें बात छोटी-सी है। पर वह बारीक और पेचीदा है। बंबई में आकर सतेन को पता चलता है कि उसके कालेज-जीवन की प्रेयसी नंदिनी अमुक पते पर रहती है और वह उससे मिलने के लिए उसके फ्लैट पर जाता है। तब उस समय सुबह के लगभग साढ़े दस बज रहे थे। जब वह नंदिनी और उसके परिवार से मिलकर वापस जाता है, तब रात के लगभग साढ़े दस बज रहे थे। लेकिन ये क्या केवल बारह घंटे थे ? नहीं, इन बारह घंटों में अतीत की स्मृति, वर्तमान की चिंता और भविष्यत् की आशा दुबकी बैठी थीं। नंदिनी उपन्यास की नायिका है और स्मृति, चिंता और पीड़ा पार्श्व-नायिकाएं हैं।

सतेन लगभग पंद्रह साल के अंतराल के पश्चात् नंदिनी से मिलता है। कम से कम वह उपन्यास के आरंभ में नंदिनी को, और अंत में अनिल को, यही बताता है। परंतु वह इन पंद्रह सालों के बीच एक बार और भी नंदिनी से दिल्ली में मिल चुका है। यह मुलाकात उसकी स्मृति में शेष है। उस समय नंदिनी की मन:स्थिति कोई अच्छी न थी, उस पर उसके घर वाले दबाव डाल रहे थे कि उसके रिश्ते के सिलसिले में अगर कोई लड़का उसे देखना चाहता है, तो वह सज-संवरकर उसके सम्मुख निरीक्षणार्थ प्रस्तुत हो। सतेन और नंदिनी की वह मुलाकात काल की अखंड धारा में (जिस में सतेन कभी धारा के अनुकूल तो कभी प्रतिकूल तैरता रहता है) खो गयी दिखती है। जैसे नंदिनी अपने घर में कभी कमरे में (जहां सतेन बैठा है) तो कभी किचेन में आती-जाती है, वैसे सतेन कभी वर्तमान में तो कभी अतीत में विचरण करता है। घर के सारे काम करते समय नंदिनी की भी कुछ ऐसी स्थिति है। काल-प्रवाह एक है, हमने उसे अपनी सुविधा के अनुसार वर्षादिक खंडों में विभाजित कर रखा है। लेखक एक स्थान पर कहते हैं, ‘‘समय कभी नाप के हिसाब से नहीं चलता है। दिन, मौसम, साल और कैलेंडर जैसे इंसान की बाहरी जिंदगी से वास्ता रखते हैं, वे जैसे अंदर की जिंदगी से सदा मात खाते रहते हैं।’’

इस उपन्यास में खंड-काल और अखंड काल, शरीर और आत्मा, नंदिनी और सतेन, सतेन और देवव्रत, देवव्रत और अनिल, दिन और रात, फ़्लैटों के अंदर शोरोगुल और उनके बाहर ‘‘लान’’ पर खामोशी, एक फ्लैट के अंदर शराब के प्याले टकराते हुए एक आदमी और औरत और बाहर लान पर आत्मलाप करते हुए सतेन और नंदिनी आदि के बीच ‘‘टेंशन’’ या तनाव द्वारा मानवीय संबंधों की सहज-सुंदर स्थितियां धीरे-धीरे खुलती हैं। कहीं पर कोई जल्दी नहीं है। ऐसा लगता है कि पूरा उपन्यास इसमें वर्णित नाव की सैर है। शांति निकेतन के कुछ विद्यार्थी एक चांदनी रात को मद्रास से महाबलीपुरम् नाव में जाते हैं। नाव-समुद्र के पानी को चीरती हुई धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है और सिर्फ पानी के चीरने की आवाज सुनाई दे रही है।
मोतीलाल जोतवाणी
जो पूजाएं अधूरी रहीं
वे व्यर्थ न गयीं

जो फूल खिलने से पहले मुरझा गये
और नदियां रेगिस्तानों में खो गयी
वे भी नष्ट न हुईं

जो कुछ रह गया पीछे जीवन में
जानता हूं
निष्फल न होगा
जो मैं गा न सका
बजा न सका
हे प्रकृति !
वह तुम्हारे साज पर बजता रहेगा

रवीन्द्रनाथ ठाकुर
वह मकान ढूंढ़ने के लिए मुझे आखिरकार टैक्सी का मोह छोड़ना पड़ा। मलबार हिल्स के उतार-चढ़ाव वाले रास्तों पर मैं बहुत समय से टैक्सी वाले को उल्टे-सीधे ठौर-ठिकाने बताता रहा था। यहां की इमारतें ऊँची हैं, महलों की तरह सुंदर हैं। सड़के साफ हैं, देखने पर लगेगा कि ज्यादा लंबी नहीं हैं, परंतु उन पर चलने पर महसूस होगा कि वे रबड़ की तरह खिंचकर लंबी हो गयी हैं। सुबह के पहले शहर पहल में भी मेरे माथे पर से पसीने की बूंदें टपक रही थीं। ऐसा लग रहा था कि वह धनवान बस्ती किसी नए व्यक्ति को जानती ही न थी। उसके लिए उसके मन में कोई सहानुभूति, कोई लगाव न था। ऐसे में बस एक ही मेरा हमदम, मेरा दोस्त था-वह था समुद्र का कभी न थमने वाला, हल्का-हल्का कोलाहल ! मैं जहां भी, जिस ओर भी जाता था, वह कोलाहल वहां कभी स्पष्ट, तो कभी अस्पष्ट सुनाई देता था। लगता था, मानो समुद्र भी मेरे संग-संग भटक रहा था, किसी को खोज रहा था।
टांगों में थकावट और दर्द लिये आखिर मैं लिफ्ट से एक सात-मंजिला इमारत की तीसरी मंजिल पर पहुंचा। फ्लैट का नंबर पढ़कर बेल-बटन दबाकर मैं रूमाल से पसीना पोंछने लगा। फिर मैंने घड़ी में समय देखा-लगभग साढ़े दस हो रहे थे।
जिसने दरवाज़ा खोला, वह नंदिनी न थी। वह बीस-इक्कीस साल की लड़की थी।

एक क्षण के लिए मैंने महसूस किया जैसे मैंने बाज़ी हार ली है। इतनी मेहनत और तकलीफ के बाद भी सामने नंदिनी न थी। शायद मैं एक गुमराह मुसाफिर था।
लड़की को परेशान देखकर मैंने अपने आप को सम्हाल लिया।
नंदिनी है ?
उसकी निगाहें मेरे पैरों तक गयीं और फिर वापस चेहरे की ओर मुड़ीं- वह बाहर गयी हैं, पर जल्द ही वापस आयेंगी। आप बैठेंगे, इंतजार करेंगे ?
मेरा मन खिल उठा। मैंने राहत की सांस ली, जैसे किसी भूखे को रोटी के टुकड़े की उम्मीद बंध जाए।
हां, जरूर इन्तजार करूँगा। दूर से आया हूं। मेरा नाम सतेन है। नंदिनी के साथ कालेज में पढ़ता था।
वह मुझे भीतर ले गयी। मैं एक सोफे पर बैठ गया। छोटा-सा ड्राइंग-ड्राइनिंग रुम था वह। बहुत सजाया हुआ नहीं। सामने सेटी पर कुछ रिकार्ड रखे थे और पत्रिकाएं फैली पड़ी थीं। डाइनिंग टेबल पर ट्रे में कुछ फल जाली से ढके रखे थे। फर्श पर कालीन बिछा था।
उस लड़की ने रेग्यूलेटर घुमाकर पंखे को तेज कर दिया। फिर मुड़कर मेरी ओर देखा। उसके लंबे बालों की एक चोटी घूमकर, छाती पर से मुड़कर नीचे साड़ी के पल्लू के साथ लटकने लगी। इतने में, उसकी आँखों के भीतर से संकोच प्रकट हुआ और उसने जैसे उसे छिपाने के लिए कहा :
आपका नाम सुना-सा लगता है। शायद आंटी से सुना हो। मैं नंदिनी की भतीजी हूँ।

विस्मय से मैंने पलकें ऊपर उठाई। मन ने विश्वास करने से साफ इन्कार कर दिया। मन में कई भूली-बिसरी घटनाओं से संबद्ध विचार-धाराएं उफन पड़ीं। अचानक ही कई साल पहले का अतीत जमीन फोड़कर बाहर निकल आया। समय कभी भी नाप के हिसाब से नहीं चलता है। दिन, मौसम, साल और कैलेंडप जैसे इन्सान की बाहरी जिन्दगी से वास्ता रखते हैं, वे जैसे अंदर की जिंदगी से सदा मात खाते रहते हैं। प्रकट में भूला हुआ, परंतु मन के किसी निचले तह में छिपा हुआ नाम अचानक ही मेरे मन में उभर आया। ऐसे जैसे सुबह की हवा चुपके से बाग में आती है।
तुम दीपा हो ?
न सिर्फ उसके मुंह पर, बल्कि उसके ताजा बदन के हर अंग पर ताज्जुब जाहिर हो उठा। गोया बयाबान में अचानक ही किसी को बुलाया हो।
आपको मेरा नाम कैसे मालूम हुआ ?

मेरी आँखों ने देखा, उसके अधपके आम जैसे चेहरे पर कुछ लाली आ गयी थी। उसकी आँखों में संकोच का भाव बढ़ गया था। वह कद की ज़रा लंबी थी। उसके उरोज छोटे, आधे उभरे हुए थे। कंधे गोल और सुडौल। हल्के रंग की सादी, सूती साड़ी। उसकी आँखों में न जाने क्या था। पर मुझे लगा, उसकी आँखों में, उसके चिकने बालों में, ताजा बदन में छिपी हुई थी वह दीपा, जिसे मैंने कई साल पहले अपनी गोद में बिठाकर खेल खिलाए थे। मेरे मन में शरारत जाग उठी, जैसे मैं उम्र में कई साल छोटा हो गया था। बोला,
एक बार ग्रीष्मावकाश में, मैं मद्रास में आप लोगों के यहां महीना भर रहा था। तब तुम छोटी थीं, चार-पांच साल की। मैं हर रोज रात को कैडबरी चाकलेट ले आता था और हाथ ऊपर उठाकर बुलाता था-दीपा। तुम दौड़कर आती थीं और आकर मेरी गोद में बैठती थीं। मैं चाकलेट का पहला टुकड़ा तुम्हारे मुंह में डालता था, तुम्हारे मुंह पर खुशी फैल जाती थी। कई बार तुम्हें गोद में उठाकर मैंने समुद्र के किनारे पर दौड़ें लगायी थीं। तुम्हारे जूते के तस्मे खुल जाते थे तो मैं उन्हें बांधता था। तुम्हारी मम्मी तुम्हारे गालों पर काफी सारा पाउडर मल देती थीं, तो मैं वह इन अंगुलियों से पोंछ देता था...
मैं अपनी सनक में अभी और कुछ भी कहता जाता। लेकिन मैंने देखा कि दीपा का रंग बदल रहा था, कभी सफेद तो कभी गुलाबी; शायद उसे हैरत हो रही थी क्या यह संभव था कि किसी पराये व्यक्ति की गोद में उसने कभी ऐसे खेल खेले थे।
तुम्हें कुछ याद है, दीपा ?
दीपा ने सिर हिलाकर इनकार किया।
कुछ भी नहीं ?
दीपा ने फिर इनकार में सिर हिलाया।

उसे वे दिन याद न थे। वह उन्हें पीछे छोड़कर आगे बढ़ गयी थी। जैसे उन दिनों का, उन पलों का उसके जीवन में अब कोई अर्थ, कोई महत्व न था। उसके लिए भविष्य की गुफाओं में ही कुबेर के खज़ाने भरे पड़े थे। फिर वह समुद्र किनारे पर इकट्ठी की गयी सीपियों को क्यों सहेजकर रखे ? लेकिन मैं ? मेरे लिए वह अतीत कितना सुंदर और अर्थपूर्ण था। मुझे खुद पता न था कि वे सब बीते हुए दिन मेरे मन पर ऐसे कुरेदे हुए थे, जैसे पत्थर पर लकीरें होती हैं। और मैं क्या बूढ़ा हो चला था जो अपने सपनों को भविष्य में उड़ा देने की बजाय भूत के पिंजरे में कैद करने लगा था ? मेरा अवचेतन मन उन यादों को ऐसे सहेजकर बैठा था, जैसे मेरी जिंदगी की थोड़ी कुछ जमा पूंजी का वही अहम हिस्सा था। जैसे मैं उसके बाद जिंदगी में कभी कोई फायदे का सौदा नहीं कर पाऊंगा।
मैंने सामने बैठी हुई दीपा की ओर देखा। उसके चेहरे पर कितना बड़ा विश्वास था और उसकी आँखों में भविष्य के कितने सारे सपने थे। आज की इस युवती और पंद्रह साल पहले की उस बच्ची में कितना ज्यादा फर्क था। इन्सान कैसे न बढ़ता है। कैसे न सिर्फ उसका तन, बल्कि उसका चिंतन भी दर्जे-ब-दर्जे विकास पाता है। दुनिया में सबसे अधिक सूक्ष्म घटनाएं अपने आप घट जाती हैं और उनका भान तक नहीं होता। पिछले पंद्रह सालों के प्रत्येक पल ने, प्रत्येक कालांश में घटित घटना ने उसे पाल-पोसकर बड़ा किया था और आज वह उन सबको भुलाकर, अपने में समाविष्ट किये हुए थी।

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