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हमीरगढ़

राम स्वरूप अणखी

प्रकाशक : स्वास्तिक प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4893
आईएसबीएन :81-88090-05-0

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प्रस्तुत है श्रेष्ठ उपन्यास.....

Hamirgargh

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

1

पिछले पहर बरसात का पहला बादल बरस गया। कच्ची मिट्टी की सोंधी-सोंधी गंध अच्छी लग रही थी। हवा बह रही थी। पीपल के पत्ते एक-दूसरे से टकराते तो वातावरण और खुशगवार हो उठता।
दिन छिपते ही जलकौर ने भैंस दुही और चूल्हे पर दूध औटाने को रख दिया। उसने राम को निर्देश दिया कि वह आग धीमी-धीमी ही रखे। ध्यान रखे कि आग बुझने न पाए और तेज भी न हो। अगर दूध बाहर निकल गया तो मैं तेरे कान खींच दूंगी।
छान-बीनकर चावल पहले ही भिगो दिए थे। दूध दो बार उबाल खा चुका तो जलकौर ने पानी निथारकर चावल पतीले में छोड़ दिए और कलछी चला दी। उसने फिर राम की ओर देखकर कहा, ‘‘समझ गया न मेरी बात ? यहीं बैठे रहना। तेरी यही ड्यूटी है बस। फिर डिब्बा लेकर सामने आ जाएगा, कहेगा, पहले मुझे दो चाची।’

पूड़े पकाते समय मौसम फिर पलट गया। आसमान में बादल थे। लगता था, फिर बरसेगा। चूल्हे के ऊपर दीवार में कील गाड़कर लालटेन टांग रखी थी। साफ-सुथरी चिमनी की सफेद रोशनी थी, जैसे गैस जलती हो। जलकौर के माथे पर पसीना था। गुड़ घोलकर गूंधा हुआ पतला-पतला आटा परात में ऐसा भरा रखा था जैसे मन भर का हो। वह तवे पर कटोरी भरकर आटा उलटती और फिर पीपल के चौड़े-मोटे पत्ते से पूड़ा फैलाने लगती। पूड़े के चारों ओर सरसों का तेल टपकाती। कपास की लकड़ी के सिरे पर कपड़े की पट्टी लिपटी थी। तेल उसी से टपकाती थी और चुपड़ती थी। तवे पर तेल पड़ते ही पूड़ा छन्न-छन्न करता। छन्न-छन्न में से उठती सुगंध घर के कोने-कोने में तैरने लगती तो सभी के पेट में भूख लगाने लगती। सुगंध पड़ोस के घरों में पहुंचती तो वे भी मुंडेरों पर झांकने लगते। जलकौर आवाज देती, ‘अरे भाई, गर्म-गर्म लेते जाओ। ठंड़े खड़ंक हो जाएंगे तब खाने से क्या फायदा। अपने बर्तन लाओ। खुद खीर लो और खुद ही पूड़े उठाओ !’
आसपास और कोई नहीं था। उधर बरांडे में बैठा भजना राम से कुछ पूछे जा रहा था।
‘अरे राम, ओ श्याम, कहां पर मर गए नासपीटों ? आ जाओ अब तो। खालो। काम खत्म हो। ईश्वर का रथ भी तो देखो। इसका कोई पता नहीं, कब बरसने लग जाए। तब चूल्हे-चौके में बैठना मुश्किल हो जाएगा।’ जलकौर स्वयं ही बोले जा रही थी।

चाची की बड़बड़ाहट सुनकर राम चूल्हे के पास आया। थाली में खीर एक कटोरे में दो पूड़े रखकर वरांडे में ले आया। वरांडे में मिट्टी के तेल का छोटा लैम्प जल रहा था। भजना खाट पर पालथी मारे बैठा रोटी की प्रतीक्षा कर रहा था। थाली और बाटी पकड़कर वह बोला, ‘अच्छा-खासा अंधेरा कर दिया ससुरे ने। वहां मंडी में अब तक पता नहीं क्या कर रहा है ?’
‘आ जाएगा, कोई फिकर की बात नहीं है बापू ! तुम रोटी खाओ। वह जाएगा कहां। दूसरे लड़कों की टोली में चला गया होगा। दारू पीने लगे होंगे। और क्या ‘श्याम कहां है आज रे ? वह भी खा लेता, छुट्टी करता।’ जलकौर ने कहा।
‘तुम्हें नहीं पता चाची, वह तो मंडी गया है।’
‘कब भाग गया ? यहां से तो तेरे चाचा के साथ खेत में गया था। दोनों साथ-साथ गए थे।’
‘चाचा ही बता रहे हैं, खेत से ही चला गया था वह।’
‘लो बताओ, कमूत को, मंडी का कितना शौक है। जब भी मंडी लगती है, जाता जरूर है।’
राम ने अपनी थाली में दो-तीन कल्छी खीर डाली, दो पूड़े थाली में ही एक ओर रख लिए। पम्प से गिलास में पानी भरा और वहीं चौंतरे पर ही एक ओर बैठकर खाने लग गया।
‘तेरा चाचा नहीं दिखाई दे रहा रे ?’

‘मंडली में बैठा होगा, और क्या। जानवरों को चारा दे गया है। अब छुट्टी है, चाहे जब आए।’
वरांडे में खाट बिछाकर बाप-बेटे श्याम की बातें कर रहे थे। अंधेरा बहुत घना था। उन्हें इस बात की चिन्ता थी कि वह अब तक आया क्यों नहीं ? इसके बाद अब कब आएगा ? सोचते, हो सकता है दूसरे गांव के किसी लड़के के साथ उधर-के-उधर ही उसके गांव न चला गया हो। यार दोस्त एक-दूसरे के साथ अक्सर उनके गांव चले ही जाया करते हैं। श्याम के साथ भी तो कई लड़के दूसरे गांव से यहां आकर रात काटते हैं। चिंता तो उन्हें इस बात की थी कि श्याम राजी-खुशी से हो।
और फिर दरवाजे का पल्ला खटका। राम ने दौड़कर किवाड़ खोल दिया। भीतर से कुंडा लगा हुआ था।
‘श्याम, यह बखत है आने का ?’ राम ने ऊंची आवाज में पूछा। पर यह क्या, यह तो उसका चाचा गुरमेल था।
‘आया नहीं, अभी तक ?’ उल्टे गुरमेल ने प्रश्न किया नहीं, अभी तक तो उसका कोई पता नहीं है। पता नहीं कहां है।’ राम ने चिंतातुर होकर कहा।
‘खेत से अच्छा-भला गया था। कह रहा था, मंडी जाना है। अब क्या समझा जाए ?’ गुरमेल आंगन की ओर जाते हुए कह रहा था।

उसकी प्रतीक्षा करते-करते जलकौर खीर-पूड़े खा रही थी। बोली, ‘तुम कहां फंसे हुए थे। समय पर खाना तो खा लिया करो। कब से तुम्हारे इंतजार में बैठी हूं। अब आ रहा हो, अब आ रहा हो।’ फिर पूछा, ‘श्यामा कहां है ?’
‘मंडी गया था। अब क्या पता ?’ गुरमेल ने साधारण रूप से उत्तर दिया। जैसे उसे कोई चिंता न हो।
और अब सब खा-पीकर अपनी-अपनी खाट बिछाकर लेटे थे। जलकौर बर्तन मांज रही थी। गांव का शोरगुल खत्म हो चुका था। कहीं-कहीं से किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज़ सुनाई देती थी। या फिर उजड़े घरों के उल्लू बोलते थे। दोनों बैल और भैंस चारा-भूसा खाकर, बैठ गए थे और आराम से लेटे हुए थे। आधी रात का समय था। आसमान में बादल एकत्रित होकर बैठ गए थे। ना कहीं जाते नजर आ रहे थे और ना अपना रंग बदल रहे थे। चांद की चांदनी मटमैली-सी होकर धरती पर बिछ गई थी। किसी ने दरवाजा खटखटाया। एक बार सुना नहीं, तो बाहर से किसी ने फिर कुंडा खटकाया भजना ने पूछा, ‘कौन है भई ?’
‘‘मैं तो ताऊ, हरनेक हूं। दरवाजा खोलो।’
भजना धीरे-धीरे उठकर दरवाजे तक गया और भीतर का कुंडा खोल दिया। गली में दो लड़के खड़े थे। बचना भी बाहर गली में आ गया। उसने पहचान लिया, ये अपने ही रिश्तेदार के लड़के थे।
‘भीतर आ जाओ।’ भजने ने कहा।
‘बस ताऊ।’ हरनेक बोला।

‘तो फिर वह तुम्हारे साथ नहीं था ! वह कहां है ?’
‘हमारे साथ ही गया था, ताऊ। वह तो भर्ती हो गया। सैनिक आए थे, उसे ले गए।’ हरनेक ने निःसंकोच कह दिया।
‘कहां ले गए हैं ?’
‘कह रहे थे, पहले तो अम्बाले जाएंगे।’
भजन केवल तहमद और चादर लपेटे था। नंगे पैर, उसने सिर में उंगलियों से कंगी करके जूड़ा बांधा और दाढ़ी खुजलाने लगा। जैसे उसके सभी अरमान मर गए हों। ‘क्यों हो गया भर्ती, श्यामा ? उसे काहे का दुःख था ?’ उसने स्वयं से प्रश्न किया।
फिर एक निरर्थक-सा प्रश्न किया, ‘तुम क्यों नहीं हुए भर्ती ?’
‘नहीं, हम उनमें जाकर नहीं खड़े हुए। हम तो गांव में ही ठीक हैं ताऊ।’ हरनेक ने उत्तर दिया।
‘अपने गांव वहां और कौन था ?’ भजने ने झूठे ही स्वयं को आश्वस्त करना चाहा।
‘एक करनैल था। मजबी का लड़का और एक यह अपना श्यामा था। उन्होंने दोनों को रख लिया। ये हर तरह से ठीक थे। हम खड़े-खड़े देखते रहे थे।’ इस बार हरनेक के साथ वाला लड़का बोला।
‘अच्छा भई, हम तो सोच रहे थे कि, भई आया क्यों नहीं। इतनी रात हो गई है, वह कहां होगा !’ भजना दरवाजे के भीतर आ गया।
हरनेक और दूसरा लड़का अपने घर चले गए।

भजना खाट पर जाकर लेट गया। उसे नींद नहीं आई। खुले हुए वरांडे में हवा आ रही थी। गली वाली दीवार में झरोखे भी थे। पर भजन के मन में एक तीखी हुमस भरने लगी। उसकी मां जीवित होती तो इस समय वह ऐसे बैठने नहीं देती मुझे। अभी भेजती, जाओ अभी लेकर आओ मेरे लाल को कहीं से भी। पर उसने सोचा, यदि उसकी मां जीवित होती तो वह भर्ती ही क्यों होता। फिर तो हम जमीन बंटवाकर अलग खेती करते। अब तक श्याम खुद मुख्तियार होता। घर और खेती-बाड़ी का सभी काम सम्भालता। छोटा पड़ रहा था, पढ़ता रहता।
भजने की पत्नी दस वर्ष हुए मोतीझरे की बीमारी से मर गई थी। तब राम पांच-छः वर्ष का था। स्कूल जाना प्रारम्भ ही किया था। दूसरे लड़कों के साथ गुरदयाल कौर उसे छोड़ आती थी। उसे अपने बेटे को स्कूल में पढ़ाने का कितना चाव था। और फिर वह खाट पर पड़ गई। खाट ऐसी पकड़ी कि फिर उठ ही न सकी। राम नित्य स्कूल जाता रहा। उसे भी पढ़ने का बहुत शौक था।
गुरदयाल कौर तो मरने वाली थी, मर गई, पर राम ने पढ़ाई नहीं छोड़ी। पहले गांव के प्राइमरी स्कूल से चार कक्षाएं, पास कीं, फिर बुढलाडे जाने लगा। बुढलाडा हमीरगढ़ से डेढ़ मील की दूरी पर था। गांव के अन्य बालक भी बुढलाडे पढ़ने जाया करते थे। उन्हीं बालकों के साथ वह भी जाता था। वहीं मिडल स्कूल था। राम सौभाग्यशाली था कि जब उसने आठवां पास किया तो बुढलाडे का वही स्कूल मिडल से हाईस्कूल हो गया।
अब जब श्यामा सेना में भर्ती हुआ तब राम दसवीं में था। पढ़ने में वह तेज था। शौकियातौर से कभी-कभी खेती-बारी के काम में भी हाथ बंटा लेता था।

गुरमेल और श्यामा खेत पर मक्का की मेंढ डाल रहे थे। सुबह-सुबह ही गए थे। उस दिन बुढलाडे में पशुओं की मंडी लगी थी। गांव के लड़के झुंड बनाकर मंडी में जाया करते थे, श्यामा भी जाता था, पर खेत जाना भी जरूरी था। उस दिन यह नहीं करते तो मक्की के दाने और फूट आते। खेती के औजार से उनकी जड़ें उखाड़नी थीं। गत दो दिन तो उनको और आवश्यक काम था। वह भी जरूरी था। श्यामा ने तो कहा था कि चांदनी रात है। चलो चाचा अभी कर आएं, पर गुरमेल तैयार नहीं हुआ। कहने लगा, ‘बिनौलों के बीज बोते-बोते तो मेरी हालत खराब हो गई है। तुझे मंडी की पड़ी है। ना जाना कल मंडी, मंडी तो तीन दिन तक रहेगी, परसों चले जाना। आज तो मैं आराम से सोऊंगा।’
गुरमेल जिंद्रा धंसाता और श्यामा सामने से रस्सा घसीटता। वह उसे जमीन में धंसा भी न पाता था कि श्यामा पहले ही रस्सा घसीट लेता था। ऐसा होने पर वह श्यामा को गालियां देता। कभी-कभी जिंद्रा इतना ज्यादा जमीन में गहरा धंस जाता कि श्यामा खींच ही न पाता। वह पूरा जोर लगा देता। इस पर भी वह उसको गालियां देता, ‘खींच बे अपने बाप को। मां चोद रोटी नहीं खाता है क्या ?’

कभी वे स्थान अदला-बदली कर लेते। गुरमेल सामने से रस्सा खींचता और श्यामा जिंद्रा जमीन में धंसाता। श्यामा उसे बहुत गहरा धंसा देता तो गुरमेल से वह खिंच ही न पाता। इस समय भी वह गाली देता। श्याम अभी जिंद्रा जमीन में धंसा भी न पाता था कि गुरमेल सामने से खाली रस्सा खींच लेता था। एक बार तो ऐसा हुआ कि श्यामा ने जिंद्रा अभी धरती पर भी नहीं लगाया था कि गुरमेल ने खाली रस्सा घसीट लिया जिससे वह चारों खाने चित्त होकर दूर जा गिरा। वह पड़े-पड़े ही गाली बकने लगा। मां-बहन एक कर दी। उठा और जिंद्रे के रस्से में से डंडा निकाल कर श्यामा के दो-तीन जड़ दिए। श्यामा कुछ नहीं बोला। गुमसुम एक ही जगह खड़ा रहा। गुरमेल भौंके जा रहा था, ‘साला खेती करेगा। बेटी के खसम, तुझसे कुछ नहीं होगा। भूखा मरेगा। यह भी कोई काम है भला। तुझसे यह भी नहीं होता। फिर कड़ककर बोला, ‘जा, भाग जा। देख मंडी जा के। तेरा मन यहां हो तभी तो करे न काम। ध्यान तो भैनचोद का कहीं और है।’
वह फिर भी यथावत खड़ा रहा। आंखें लाल थीं और उनमें पानी भर आया था। पता नहीं क्या कहना चाहता था। पता नहीं क्या सोच रहा था। पर उसके मन में क्रोध का एक बगूला अवश्य था, जो बारूद की तरह फटने वाला था। गुरमेल उसकी चुप दृष्टि से जैसे डर गया था, उसने जिंद्रा उठाया और शीशम के पेड़ के नीचे जा बैठा। सिर का चारखाने का दुपट्टा बिछाकर लेट गया। बेमतलब की खीझ ने उसे निढालकर दिया था। कुछ समय बाद उसने करवट बदल कर देखा। श्यामा वहां नहीं था। वह उठकर बैठ गया। चारों ओर निगाह दौड़ाई। श्यामा वहां कहीं भी नहीं था। गांव लौट आया था बुढलाडे की ओर चला गया हो। गुरमेल कोई अनुमान नहीं लगा सका।

गुरमेल ने खीर-पूड़े खाए और चुपचाप अपनी खाट बिछाकर लेट गया। जलकौर ने भोजन करने के बाद बर्तन मांजे थे और फिर उन्हें सजाकर रख दिए थे। फिर वह भी लेट गई। सुबह तड़के उठने पर राम से पता लगा कि श्यामा सेना में सिपाही भर्ती हो गया है। जलकौर, भर्ती होने से दुःखित हुई। उसके कोई औलाद नहीं थी। वह श्याम और राम को बेटों जैसा ही समझती थी। यद्यपि उसका स्वभाव रूखा था, गालियां देती रहती थी, खीझती भी थी, पर भीतर से दोनों लड़कों से मोह करती थी। और उनका कौन था। लड़कों का भी कोई नहीं था। गुरदयाल कौर के मरने के बाद अब तो चाची ही उनकी मां थी।
जलकौर ने चिंतित होकर पूछा, ‘कहीं तुम्हीं ने तो नहीं कह दिया लड़के से कुछ, जो जाकर भर्ती हो गया।’
‘मैं क्या कहता। उसका मन किया, हो गया भर्ती।’ गुरमेल ने ऊटपटांग उत्तर दिया।
‘तुमने किसी बात पर उसे झिड़का तो होगा ही। नहीं तो अचानक वह ऐसा कदम ना उठाता। भर्ती होने के लिए उसने कभी घर में बात ही नहीं की।’
‘मैं क्या करूं फिर। बहुत हेज करती है तो उसे वापस ले आ जा के। अम्बाले में है, जा दौड़ जा।’ वह अपने आगे उसकी नहीं चलने दे रहा था।
‘उसकी मां होती तो अभी तड़फ-तड़फ उठती। उसी की छाती फटती। चाचा दुश्मन हो गया। बाप क्या कहे, उसे तो टुकड़े तोड़ने हैं।’ वह वरांडे की ओर गई तो देखा, भजना घुटनों में सिर दिए, खाट पर बैठा था। वह बोली, ‘तुम जाओ अम्बाले, किसी को साथ ले जाओ। नम्बरदार चला जाएगा या और कोई होशियार आदमी हो। लड़के को वापस ले आओ। फौजी तो उसकी कचूमर निकाल देंगे। वह फिर आदमी नहीं रह जाएगा।’

2


शाम को तो नम्बरदार मिला नहीं, दूसरे दिन सुबह ही उठकर भजना उसके घर गया। वह कहीं जाने के लिए तैयार हो रहा था। भजने का मन उदास था। मुंह से मक्खी नहीं उड़ाई जा रही थी। उसने नम्बरदार से पूरी बात बता दी। भजने को जलकौर से इस बात की भनक लग गई थी कि श्यामा गुरमेल से लड़-झगड़कर गुस्से में भर्ती हो गया है। यही बात उसने नम्बरदार से बता दी।
‘तो अब क्या किया जाए ?’ नम्बरदार ने पूछा।
‘क्या कर सकते हैं नम्बरदारजी, हमें अम्बाला चलना चाहिए। वह कौन अपनी इच्छा से भर्ती हुआ है। चाचा के साथ कहा-सुनी हुई और मंडी जाकर फौजियों के पास चला गया। हम किसी-न-किसी तरह से उसे जाकर लौटा लाएं।’
‘मैं तुम्हें बताऊं, वह अब नहीं लौटेगा। एक बार भर्ती कर लेने पर फौजी उसे नहीं छोड़ेंगे। मैंने पहले भी ऐसा सुना है।’
‘क्यों नम्बरदार जी, वह पशु है क्या ? भई कांजी हौज वाले हांककर ले गए तो नहीं छोड़ते। अनुनय-विनय करने से तो कांजी हौज वाले भी पशु छोड़ देते हैं, यह तो आदमी है। हम खुशामद करेंगे तो वे श्यामा को छोड़ेंगे क्यों नहीं। हम अम्बाला चलते हैं।
तुम भी हमारे साथ चलो। मैं अनपढ़ हूँ, तुम्हें तो सब पता है ! चार अक्षर भी आते हैं। फिर नम्बरदार हो, गांव के मुखिया।’
‘अच्छा, तेरी बात मान ली। पर आज नहीं जा सकेंगे।’

‘क्यों आज क्या हो गया ? बुढलाडा चलेंगे। दस बजे वाली गाड़ी से। बठिंडे होते हुए सीधे अम्बाला।’
‘आज हमें मानसा जाना है। तहसीलदार से एक काम है। मैं तो तैयार बैठा हूं। तुम पांच मिनट और न आते तो मैं घर से निकल गया था।’
‘तो फिर कब चलोगे ?’
‘परसों चलेंगे, पक्का। मैं आज रात को भी नहीं लौटूंगा। मुझे लगता है मानसा से आगे जाना पड़ेगा। कल लौटूंगा। तब परसों चलेंगे।’
‘तब ठीक है। और किसी से हां न कर लेना। हमें यह काम करना है। ससुर यूं ही घर से निकल गया।’ भजने की आवाज़ में भारीपन था।
वह घर लौटा तो चाचा-भतीजे में क्लेश हो रहा था। गुरमेल कह रहा था, ‘आज स्कूल मत जा, खेत पर चल। मक्की की मेंढ मेरे साथ निकलवा चल के। एक दिन में कुछ नहीं हो जाएगा।
राम कह रहा था, ‘पहले भी तुम मुझे खेत पर ले जाते रहे हो। मेरी गैरहाजरियां लग रही हैं। हाजरी कम हो गई तो हेडमास्टर इम्तिहान के समय मेरी फीस नहीं भेजेंगे।’
‘कोई बात नहीं, एक दिन में कोई फर्क नहीं पड़ता।
‘पड़ता क्यों नहीं है। इसी तरह एक-एक दिन करके तुम मेरा साल मरवाओगे।’

गुरमेल को गुस्सा आ गया। उसने राम को चांटा मार दिया। कड़कती आवाज में बोला, ‘साला बड़ा पढ़इया है ! काम कौन केरेगा तेरा बाप ?’
‘जाओ, मैं नहीं जाऊंगा।’ वह भी तैश में आ गया।
‘अरे तुम क्यों लड़ रहे हो ? मैं निकलवा दूंगा जैसे-तैसे। अभी इस काबिल तो हूं मैं। इसे स्कूल जाने दे मेलू ! ‘भजना कलप उठा था।
‘तुम कैसे साथ दे दोगो। पेट पकड़कर तो बैठे रहते हो। काम करने से तो और परेशान हो जाओगे। काम से ज्यादा तो पैसे तुम्हारे इलाज में लग जाएंगे। पहले ही लग रहे हैं। तुम चुपचाप बैठे रहो। आज तो राम ही जाएगा। फिर चाहे कभी न जाए।’ गुरमेल अड़ बैठा था।
‘अच्छा, जा चला जा रे, कोई बात नहीं। आज चला जा। एक दिन में तेरे स्कूल को कुछ नहीं हो जाएगा।’ जलकौर ने राम को पुचकारते हुए कहा।
राम ने किताब-कापियों वाला बस्ता घुमाकर संदूक पर दे मारा। बोला, ‘अच्छा तो, चलो अभी।’ जैसे वह उसी समय खेत पर जाने को तैयार हो।
‘अरे, अभी कहां जाएगा ? चाय से दो रोटियां तो खा ले।’ जलकौर, बोली।
‘ला दे !’ गुरमेल ठंडा-सा पड़ते हुए खाट पर बैठ गया।
‘बैठ रे, तू भी खा ले।’ जलकौर ने दूर खड़े राम से कहा।
‘मुझे भूख नहीं है। नहीं, मैं नहीं खाऊंगा।’ गुस्सा उसके भीतर गले तक भरा हुआ था।
गुरमेल रोटी खाते-खाते बोला, ‘अंगौछे में बांध दे, खेत पर जाकर मैं खुद खिला दूंगा। वहां जाकर मैं इसे मना लूंगा। इसकी रोटी की चिंता तू मत कर।’

एक अंगौछे में जलकौर ने पांच रोटियां बांध दी। दो गांठ प्याज और आम का अचार भी उसी में रख दिया। चाय का सामान अलग बांध दिया। आधी बोतल दूध भी। कहा, ‘खेत का काम आज निबटाकर आना। इसका पढ़ाई का काम है। यह भी सच है कि या तो स्कूल जाया करे या खेत। एक ही काम होगा, दो तो होते नहीं।’ जरा जोर से बोलकर वह राम को भी सुनाकर कह रही थी।
चाचा-भतीजा खेत के लिए चले गए तो वह गोबर-कूड़ा का काम करने लगी। भजना चारा काटने की मशीन के पास छत के नीचे खाट डालकर लेट गया। वह मट्ठे के साथ दो बेसनी रोटी खा चुका था।
पहले तो उसने दो-चार बार खंखारा फिर जलकौर को आवाज दी, ‘इधर तो आना। यह देख। यहां हाथ रख।’
वह सने हुए हाथ लिए छाजन के नीचे आई और पूछने लगी, ‘हां, क्या है ?’
‘यहां, यहां दबा तो कलेजा !’ भजना खाट पर सीधा एक हाथ से अपना कलेजा दबाए पड़ा था।
जलकौर ने चारा काटनेवाली मशीन के गंदे बोरे से अपने हाथ पोंछे और सीधे हाथ की हथेली उसके कलेजे पर रख दी फिर धीरे-धीरे दबाने लगी। उसका कलेजा जोर-जोर से धड़क रहा था। जैसे उसके पेट में कोई मशीन रखी हो।
‘यहीं एक बार फिर दबा।’ भजने को आराम लग रहा था।

जलकौर ने अपने दोनों पंजे भजने के कलेजे में गड़ा दिए। भजने को सांस नहीं आ रही थी। उसकी आंखें बुझ रही थीं। जलकौर, की छाती का उभार भजने की नाक पर झुका हुआ था। उसे जलकौर के बदन से जानी-पहचानी गंध आने लगी। बोला, ‘अब इधर का पेट दबा।’ फिर बोला, ‘अब इधर का।’ फिर उसने कहा कि वह दोनों हाथों के पंजो से उसका पेडू दबा दे। कमर दबा दे। फिर बोला, ‘एक बार कलेजा फिर दबा दे घूसे से। फिर बस।’
जलकौर ने उसके कलेजे में कसकर घूंसे से दबाव दिया। उसका पूरा बदन भजने पर झुका हुआ था। भजने का पेट पोला हो गया। बोला, ‘अब बस कर।’ और इसके साथ ही उसने जलकौर को अपनी छाती से भींच लिया।
एक क्षण तो वह दबी-घुटी उसकी देह से लिपटी पड़ी रही, फिर बोली, ‘मरजाने ! इसलिए बुलाया था मुझे। अब छोड़ो। मेरा सारा काम पड़ा है।’
‘अरे काम तो हो ही जाएगा। तू कौन सी...।’ भजने की सांस फूल रही थी। और फिर वह बोला, ‘जा दरवाजे में जाकर भीतर से कुंडा लगा आ।’
‘नहीं, यह काम नहीं।’
‘तुझे मेरी कसम।’
‘तुम्हार तो रोज का यही काम है। कौन-सा पेट दुखता है तुम्हारा !’
भजना बैठ गया। दीवार से लगी खड़ी जलकौर के पैरौं के पास बैठकर उसकी पिंडलयां दबाने लगा। बोला, ‘ऐसे ना कर बिलकुल नहीं।’
‘अच्छा छोड़ो, दूर हटो।’ वह दरवाजा का कुंडा लगाने के लिए छाजन से बाहर निकली।


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