सामाजिक >> राधा जागो राधा जागो राधा जागो राधा जागोगजेन्द्रकुमार मित्र
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एक रोचक उपन्यास
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
उपन्यास के धारावाहिक प्रकाशन के समय लेखक के पास पाठकों
के अनेक पत्र आते हैं। मुझे भी विभिन्न उपन्यासों के प्रकाशन के समय अनेक
प्रकार के पत्र मिले। नाना प्रकार के कुतूहल, चरित्र या घटना के संबंध में
अनेक प्रश्न होते थे। ‘पांचजन्य’ और ‘आदि है अंत
नहीं’ के प्रकाशन के समय सर्वाधिक पत्र मिले थे। इसमें आश्चर्य की
कोई बात नहीं है। किंतु ‘राधा जागो, राधा जागो’ उपन्यास के
प्रकाशन के समय जिस मात्रा में पत्रों और प्रश्नों की वर्षा हुई है उससे
आश्चर्य हो रहा है। उपन्यास आकार में छोटा होता है। उसे लेकर प्रश्नों की
ऐसी झड़ी लगेगी, सोचा भी न था। मेरा गौरव है कि स्वयं साहित्यसम्राज्ञी
आशा पूर्ण देवी ने धारावाहिक के प्रकाशन के समय बहुत प्रशंसा की। किंतु
पुस्तक शेष होने तक केवल पाठक नहीं—अनेक लेखकों ने भी कहा,
‘‘कुछ और कहना चाहिए था।’’ ‘‘आप
अविलंब दूसरा खंड शुरू कर दें।’’ यहाँ तक कि आशापूर्णा देवी
ने भी पत्र द्वारा अतृप्ति जताई, कि अवैध पुत्र का क्या हुआ नहीं बताया।
श्रीमान् चंद्रगुप्त मौर्य लिखा कि ‘‘जल्दी दूसरा शण्ड शुरु
करें।’’ पहाड़ पर जाकर पति-पत्नी का मिलन हुआ या
नहीं—वह स्पष्ट नहीं लिखा है—यही अभियोग अधिक है।
मेरा यही निवेदन है कि मैंने सोचा भी नहीं था कि इतने विस्तार से कहने की आवश्यकता है। बंगाली पाठक बुद्धिमान हैं, वे श्रेष्ठ कथा साहित्य पढ़ते हैं—वे इतना-सा स्वयं सोच लेंगे—मेरी यही आशा थी; और आशापूर्णा देवी से निवेदन है कि जहां विशाखा सब कुछ त्याग कर कठोर संन्यास द्वारा अपने स्वप्न या साधना को सार्थक करना चाह रही थी—वहां पीछे मुड़कर देखना क्या उचित है, या सम्भव है ? कम-से-कम मैं समझ नहीं पाया था कि यह प्रश्न उठ सकता है !
मेरा यही निवेदन है कि मैंने सोचा भी नहीं था कि इतने विस्तार से कहने की आवश्यकता है। बंगाली पाठक बुद्धिमान हैं, वे श्रेष्ठ कथा साहित्य पढ़ते हैं—वे इतना-सा स्वयं सोच लेंगे—मेरी यही आशा थी; और आशापूर्णा देवी से निवेदन है कि जहां विशाखा सब कुछ त्याग कर कठोर संन्यास द्वारा अपने स्वप्न या साधना को सार्थक करना चाह रही थी—वहां पीछे मुड़कर देखना क्या उचित है, या सम्भव है ? कम-से-कम मैं समझ नहीं पाया था कि यह प्रश्न उठ सकता है !
1
हम जिस वक्त की बात कर रहे हैं, उस समय मथुरा
से वृंदावन जाने का रास्ता—मामूली रास्ता भी—रात के समय काफी
भयानक होता था।
हम प्रथम युद्ध के ठीक बाद की अर्थात् 19191 से आरंभ की बात कह रहे हैं। वही क्या कहना, मैं सबसे पहले 1923 में वृंदावन गया था, तब भी दैवचक्र से मथुरा पहुंचने में शाम बीत गई, नतीजा यह कि हम पाँच प्राणी दो तांगे लेकर चले फिर भी बीच रास्ते में पहुंचकर छाती धक-धक करने लगी।
निस्संदेह मेरे सिवाय सबकी। तब मेरी उम्र ही क्या थी । ऐसा नहीं है कि शरीर सिहर नहीं रहा था, पर कुछ आनन्द भी आ रहा था। तब तक शहर में ही रहे थे—कलकत्ता और काशी। खुली प्रकृति को मैंने पहली बार देखा था। दोनों ओर मनुष्यों की बस्ती का कोई निशान नहीं, केवल अंधेरा धू-धू कर रहा था, बीच-बीच में बबूल जंगल के जंगल थे—लगता था यहां घास भी नहीं उगती—पेड़ों के नाम पर केवल कभी-कभी दो-चार खजूर के पेड़ अथवा इक्का-दुक्का ताल के से पेड़, यही दिखाई देते थे। पहले शुक्लपक्ष का चांद अस्त हो गया था, पश्चिमी आकाश में उसका आभास-मात्र था—हल्की ठंडी हवा अच्छी लग रही थी।
बाद में पता चला था कि वह प्रदेश केवल मानव बस्ती रहित या जंगल हो यही नहीं—बल्कि और भी खराब था। जो वहां रहते थे वे हिंसक पशुओं से भी खतरनाक थे, किसी को अकेला ओट में पाते ही दो-चार रुपयों के लिए भी खून करने में इधर-उधर नहीं करते। मुझे एक बार रात के समय हाथरस से ‘रतिका नागला’ स्टेशन के रास्ते पर जाना पड़ा था। लाइन के साथ-साथ चल रहा था, एक गेटमैन ने जाने से रोका, मेरे यह कहने कि मेरे पास टिकट के अलावा केवल दो-तीन रुपये हैं, उसने हंसकर जवाब दिया, ‘‘बाबूजी, पहले आपका खून करने के बाद ही तो देखेगा कि आपके पास रुपये हैं या केवल टूटे पैसे ! एक बार एक आदमी को मारने के बाद उसके पास एक पैसा भी नहीं मिला। वह इसी भरोसा जा रहा था, फिर भी जान गयी !’
गेटमैन की वह समझदारी की बात याद थी-तभी तो 1937 में जब मां को लेकर वृंदावन आया—साथ में एक साहित्यकार मित्र भी थे—ट्रेन लेट होने के कारण संध्या के बाद इस रास्ते से जाना पड़ा था, तब कहने को सारा रास्ता डर से कांपता रहा था।
पर हम जिस दिन की बात कर रहे हैं, उस दिन यह रास्ता किसी को भयानक नहीं लग रहा था।
नहीं, बड़ी लाइन पर ट्रेन लेट हो गई थी इसलिए नहीं—बल्कि जान-बूझकर सांझ के समय यात्रा का आयोजन किया गया था। जब तक रोशनी से भरा जुलूस न हो, तब तक रौनक नहीं लगती।
विशाल शोभायात्रा—मथुरा से वृंदावन जा रही थी।
श्री राधा-गोपीवल्लभ के प्रधान सेवक या गुसाईं स्वरूप अपनी नववधू को शांतिपुर से लाकर वृंदावन जा रहे हैं।
कालरात्रि उन्होंने शांतिपुर में ही बितायी थी। क्योंकि विवाह के अगले दिन कुशंडिका और अन्य रस्मों को पूरा करते-करते अपराह्न में ढल गया था। उसके बाद यात्रा करने का कोई उपाय नहीं था। मतलब ट्रेन का समय निकल जाने के बाद जल्दी करने की क्या जरूरत थी।
अगले दिन ही यात्रा की गई। तब ट्रेन बहुत धीमी होती थी, अतः और एक दिन ट्रेन में काटकर, मतलब दो रात बाद आज ही दूसरे पहर में बारात यहां पहुंची है। वहां के चौबेजी अर्थात् इनके पंडे ने आदर और आग्रह के साथ अपने घर ले जाकर स्नान, आहार और विश्राम की व्यवस्था की थी। द्वारकाधीश के प्रसाद की भी व्यवस्था की थी—सबने संतुष्ट होकर वह पाया। वृंदावन से सधवा रिश्तेदारों और दासियों का एक दल पहले से ही आकर प्रतीक्षा कर रहा था—ताकि वर-वधू को और विशेष रूप से वधू को सजा सकें। उसके बाद, तैयारी का आयोजन खत्म करने के लिए, शोभायात्रा में आगे कौन होगा। और पीछे कौन रहेगा, किसके बाद कौन होगा—इसे तय किया जाने लगा। हालांकि यह व्यवस्था शाम चार बजे से शुरू हो गई थी—खूब हल्लागुल्ला है, सब अपनी-अपनी बात दूसरे को सुनाने को बेचैन हैं—प्रत्येक व्यक्ति दूसरे का तिरस्कार करना चाहता है कि बेकार की देरी और अकर्मण्यता हो रही है—यात्रा शुरू हई संध्या पार होने के एक घंटे बाद।
चार हाथी—दो इन्हीं के, शहर की संकीर्ण गलियों में रहने का स्थान नहीं है अतः शहर के बाहर गोपीवल्लभ के उद्यानगृह में रहते हैं—और दो किराए पर लिये गए हैं। उनको उपयुक्त रूप से सजाया गया है, उन पर चित्रकारी में कोई कमी नहीं थी। बाहर सजे हुए घोड़े; पैदल बंदूकची—उस दिन उनकी वेशभूषा भी कीमती थी; संभ्रांत व्यक्तियों के लिए विशेष रूप से सजे हुए तांगे—उनके घोड़ों को जरी की कढ़ाईवाली मखमली पृष्ठसज्जा पहनाई गई थी।
इस समारोह के ठीक बीच में केंद्रबिंदु के रूप में एक बड़ी पालकी में वर-वधु थे।
विराट शोभायात्रा के आगे और पीछे, दोनों तरफ गैस की लाइट—लाइट के कई तरह के झाड़—एक-से-एक सटे हुए-से, पहले जिसे बंधी रोशनी कहते थे, वैसी ही। बिजली-रहित कलकत्ता में रईसों की शादी में इसे स्टेटस सिम्बल कहा जाता था। वह रोशनी केवल बारात के साथ नहीं होती थी बल्कि लड़की के घर से लड़के के घर तक अथवा लड़के के घर से लड़की के घर तक—पूरा रास्ता रहती थी।
पर यहां—जिसे अकबर बादशाह ने फकीराबाद नाम दिया था—हरियालीरहित प्रायः वृक्ष-विहीन प्रदेश में ऐसी घटना अभिनव थी ! शायद कभी ही घटती होगी। फलस्वरूप दूर-दूर के गांवों के लोग यह दृश्य देखने के लिए दौड़-दौड़कर आ रहे थे। यह भी एक तरह का तमाशा था। उनके लिए यह सब रूपकथा के समान अविश्वसनीय, स्वप्न या प्रवाद की बात है। दूसरे तमाशों—जैसे नाच-गाना या यात्रा-गीतों से कहीं अधिक विस्मयकर और उत्तेजक है।
कुल मिलाकर यह सब दर्शकों के लिए असीम कुतूहल की बात है, पर विशेष कुतूहल बीच की पालकी के विषय में है। उसे ठीक से देखने के लिए धक्का-मुक्की हो रही है। बंदूकची का सख्ती से धकेलना भी उन्हें घबराहट में नहीं डालता।
ठीक पालकी नहीं कह सकते। उसमें से कुछ देखा नहीं जा सकता, इस विषय में आयोजक सजग थे।
वास्तव में वह एक चौड़ा सिंहासन कहा जा सकता है—पीछे दोनों तरफ से और ऊपर से कीमती वस्त्र से आच्छादित है। बारह वाहक उसे उठाए हैं, आठ व्यक्ति बराबर उठाए हुए हैं—कोई थके तो उसका स्थान लेने के लिए चार व्यक्ति साथ चल रहे हैं—जिसे कंधा बदलना कहते हैं।
इस तीन तरफ से बंद प्रशस्त सिंहासन पर ही वर-वधू बैठे हैं। फूलमाला, जरी और कांच की उज्जवल झिलमिलाहट से युक्त यह आसन राजा-रानी के ही उपयुक्त है।
यह दृश्य और मनोरम इसलिए है कि वर वधू दोनों ही असाधारण रूप से सुंदर हैं—ऐसा आश्चर्यजनक संयोग सब समय, सब देशों, सब जातियों में मुश्किल से ही मिलता है। वर सुंदर होता है तो कन्या कुत्सित या साधारण होती है। दूसरी ओर कन्या के भाग्य में सुंदर पुरुष सुपुरुष वर कभी-कभी ही होता है। आजकल के प्रेम विवाहों में भी इस नियम का व्यतिक्रम नहीं होता।
यहाँ ऐसा ही अविश्वसनीय योग हुआ है।
चारों ओर की माणिक-मुक्ता जटित सेटिंग के बीच वर-वधू दोनों बहुमूल्य हीरे के टुकड़े लग रहे हैं।
आवाजों से आकर्षित होकर आये गांव के साधारण लोग उन्हें देख-देखकर संतुष्ट हो रहे हैं और प्रशंसा करते अघाते नहीं हैं।
पहले कभी न देखे इस दृश्य से—वे प्रसन्न हैं। उन्होंने लोगों से सुनकर रूपकथा के राजकुमार और राजकुमारी की जैसी कल्पना की थी, वैसा रूप देखकर वे प्रसन्न थे।
साथी-वाहक, भृत्य या सेवक सभी प्रसन्न हैं।
कारण स्वरूप गोस्वामी इन सबको बहुत प्रिय हैं। ये उन्हें प्यार करते हैं, उनको मान देते हैं।
स्वरूप के यहां इतनी उम्र पर शादी नहीं होती, किसी की नहीं हुई।
स्वरूप गोस्वामी के पिता प्राणकिशोर गोस्वामी की ग्यारह वर्ष की आयु में शादी हुई थी।
स्वरूप की शादी की बात कुछ ज्यादा उम्र पर चली थी—सोलह साल पर, किंतु तब हो नहीं पाई; क्योंकि सहसा निमोनिया से प्राणकिशोर का देहांत हो गया। तब उस बीमारी का कोई इलाज नहीं था—गरम अलसी की पुल्टिस और आकंद की रुई से बांधना—यही चेष्ठा की जाती थी; सुतरां जो ठीक हो जाता था उसकी किस्मत की ताकत ही कह सकते थे।
सूतक के समय विवाह की बात ही नहीं उठती थी। यद्यपि शास्त्र में यह व्यवस्था है कि विवाह के लिए सूतक की अवधि कम की जा सकती है—एक वर्ष पूरा होने से पहले ही बरसी करने से ऐसा हो सकता है।
पर स्वरूप गोसाईं एक वर्ष पूरा होने पर भी विवाह के लिए तैयार नहीं हुए। वे ही अब मुखिया हैं, उन्हें कौन आदेश देता ?
एक व्यक्ति दे सकता था—उनकी मां। गंभीर स्वभाव वाली, तीक्ष्ण बुद्धिमती महली हैं। वास्तव में वही इतनी बड़ी संपत्ति तथा इतने बड़े मंदिर की पूजा-सेवा सब चला रही हैं। उनके सामने किसी की बोलने की ताकत नहीं है।
किंतु स्वरूप ने मां को समझाया, ‘‘माँ, हम गुरुवंशी हैं, इतने शिष्य-यजमान हैं, मंदिर में भी बहुत से लोग उपदेश और निर्देश लेने आते हैं—आध्यात्मिक प्रश्न पूछते हैं। मूर्ख बने रहने से उनके सामने बार-बार नीचा देखना पड़ेगा। बाबा का बचपन में विवाह हो गया था, पर उनकी शिक्षा में कोई कमी नहीं रही थी। हमारे पूज्य पितामह ने बड़े यत्न से उन्हें सब सिखाया था। मुझे बाबा ने अंग्रजी स्कूल में भेजा था क्योंकि वह जानना आज की ज़रूरत है। उनकी इच्छा थी कि स्कूल की पढ़ाई पूरी होने पर, वे स्वयं शास्त्र, व्याकरण आदि पढ़ाएँगे। वह नहीं हो पाया। मैं पहले कम-से-कम कुछ वैष्णव शास्त्र पढ़ लूं—फिर विवाह की बात सोचोंगे, तुम इस पर असम्मति मत देना।’’
मां श्यामसोहागिनी ने बात समझकर विरोध नहीं किया। धीर, स्थिर, धर्मपरायण इस बड़े बेटे पर उन्हें सबसे ज्यादा गर्व है, प्यार है। वह अपने पितामह के समान पंडित हो सके तो उन्हें इससे ज्यादा वांछनीय क्या होगा ?
स्वरूप या प्राणस्वरूप—पिता ने महाप्रभु के प्रमुख भक्त के नाम के आधार पर स्वरूप दामोदर नाम रखा था—पर पितामह ने पुत्र के नाम के साथ मिलाते हुए प्राणस्वरूप नाम दिया, उनके आगे कौन बोल सकता था ? नवद्वीप न जाकर काशी गए। उनका उद्देश्य था कि वैष्णव शास्त्र चर्चा के साथ कुछ संस्कृत शिक्षा भी पा लें और काशी में जितने बड़े-बड़े वैष्णव पंडित हैं या आते हैं—उतने नवद्वीप में नहीं मिल सकते।
काशी में उन्हें बहुत से विख्यात पंडित मिले—राधामाधव गोस्वामी प्रभुपाद, अतुलकृष्ण गोस्वामी आदि। संस्कृत में न्याय, व्याकरण, सहित आदि पर भी कुछ-कुछ चर्चा की। उन्हें फणिभूषण तर्कवागीश, रामभूषण शास्त्री, प्रमथनाथ तर्कभूषण, हारान शास्त्री, प्रभास काव्यतीर्थ आदि से शिक्षा पाने का सौभाग्य मिला।
उनमें यथेष्ठ मनोयोग और उतना ही अधिक आग्रह था। प्रायः बीस घंटे रोज के परिश्रम से वे पांच-छः वर्ष में यथेष्ट पांडित्य अर्जित कर जब लौटे, तब उनकी देवदुर्लभ कांति में विनय और माधुर्य का योग हो गया था—इस कठिन परिश्रम का चिह्न-मात्र उनके प्रशांत सुंदर मुख पर नहीं पड़ा था।
अब विवाह की व्यवस्था हुई। और देर करना किसी तरह उचित नहीं था।
इस वंश में दीर्घकाल से अष्टमीगौरी के अतिरिक्तकोई वधू नहीं आई श्यामसोहागिनीसात वर्ष की आयु पर घर आई थीं, पर वे बुद्धिमती थीं। समय के साथ व्यक्ति भी बदलता है, यह वे जानती थीं। चौबीस साल के लड़के के साथ सात साल की लड़की की शादी नहीं की जा सकती, यह उन्होंने भलीभाँति सोच-समझ लिया है।
आत्मीय स्वजन घर में ऋतु-अभिज्ञा कन्या को घर में लाने के प्रस्ताव पर आपत्ति कर रहे थे किंतु श्यामसोहागिनी मालकिन थीं, लड़के ने काशी से लौटकर भी कार्यभार हाथ में नहीं लिया, डेढ़ लाख वार्षिक आय की संपत्ति है, देवता की पूजा के नाना दायित्व थे—वे अभी इतना भार उठाने के लिए तैयार नहीं थे। और जरूरत भी क्या थी ? मां की इन बातों में असाधारण जानकारी और दक्षता है, श्री राधा गोपीलल्लभ के इस विशाल संसार के सब छोटे-मोटे नियम-कानून उनकी उंगलियों पर हैं—स्वरूप अभी से उसमें नाक घुसाने क्यों जाएंगे ?
अतः श्यामसोहागिनी ने इन युक्ति और विवेचनाहीन आपत्तियों को अनसुना कर दिया। उस बारे में सोचा तक नहीं।
उनके वंश के उपयुक्त पात्री मिलना आसान नहीं था। उन्होंने अनेक परिचितों को लड़की खोजने के लिए पत्र लिखे। कई जगह से उत्तर आए। फोटो देखीं, कोई-कोई आकर कन्या दिखा गए। अंत में उन्हें शांतिपुर से अच्छे वंश की कन्या पसंद आई। अच्छा घर, जान-पहिचान परिवार—थोड़ा-सा कुछ संबंध का सूत्र भी मिला। सोलह वर्ष उम्र, बहुत दिन स्कूल में नहीं पढ़ी, पर घर पर यथेष्ट पढ़ाई की है; सुश्री सुंदरी कहना ही उचित होगा—सुलक्षणा कन्या; आपत्ति का कोई कारण नहीं हो सकता था।
इसके अलावा भी—हालांकि लड़की के पिता वकालत करते हैं—वे भी गुरुवंशी हैं। घर में कुलदेवता हैं, नित्य सेवा भोग आदि लगता है। अगर मछली खाते भी हैं-तो भी मांस आज तक घर में नहीं लाया गया। सब तरफ से ही उनके उपयुक्त परिवार था।
लड़की का नाम यमुना था—श्यामसोहागिनी ने ही नया नाम दिया, विशाखा। बोलीं, ‘समधी महाशय, पहले ही रिश्ता मानकर संबोधन कर रही हूं, इसे गलत मत समझना। जब बात पक्की हो गई है तब रिश्ता भी पक्का मानकर चल रही हूँ। महाप्रभु कह गए हैं कि राधिका के प्रेम से भी गोपियों का प्रेम श्रेष्ठतर है, उनका प्रेम स्वार्थ से रहित है—इसलिए विशाखा नाम दिया है। ललिता मेरी बेटी का नाम है, नहीं तो ललिता ही देती।’
वही विवाह निर्विघ्न विधिवत् पूरा हो गया, श्रीराधा गोपीवल्लभ के बड़े गोसाईं अपनी नवोढ़ा वधू को लेकर आज घर लौट रहे हैं—इससे ज्यादा आनंद की क्या बात हो सकती है।
इस योग्य एवं दुर्लभ युगल जोड़ी के मिलन दृश्य से सभी संतुष्ट और प्रसन्न हैं। अंतरंग लोग उत्फुल्ल हैं।
स्वरूप स्वयं भी संतुष्ट हैं। शुभ दृष्टि के क्षण से ही उनकी छाती भर उठी है। केवल सुन्दर है इसलिए नहीं—दृष्टि में एक ऐसी स्निग्धता, उस मुख पर एक ऐसा अपरूप शांत कोमल लज्जानम्र माधुर्य था कि किसी भी युवक की छाती भर उठती। मन में लगा ठीक ऐसी ही तो वे चाहते थे—जीवन की संगिनी होने योग्य तो है ही, वास्तव में सहधर्मिणी होने योग्य भी है। उनके पावन संसार, देवता के संसार के उपयुक्त सेविका लग रही है—हो सकता है समय के साथ साधिका भी बन जाए।
उस क्षण के बाद से नाना अवसरों पर, नाना बहानों से उसे देखते रहे। कुशंडिका के समय तो उनकी अपनी छाती के पास ही थी, दोनों की हथेलियां जोड़कर आहुति देते समय—हर बार ही वे मुग्ध होते रहे, आश्वस्त और आशान्वित होते रहे।
आज इस समय भी आंखों के कोने से देखते रहे।
वह मुख-मुख कमल वैसा ही है। अब ऐसा लग रहा है, जैसे कुछ म्लान, बल्कि विषण्ण कहना ही ठीक होगा। साधारणतः पिता का घर छोड़ते समय ऐसा होता है—किंतु अब भी !
आज सुबह से एक संशय मन में आ रहा है—क्या उसे पति पसंद नहीं आया ? उसकी क्या कुछ और ऊंची आशा थी ?
पर वैसा क्यों होगा ?
कुशंडिका, सप्तपदी, गमन आदि के बाद जब पंडित ने कहा, ‘स्वामी को प्रणाम करो मां—ये ही इस लोक में तुम्हारे इष्ट, तुम्हारे देवता हैं’’- तब एकदम पैरों पर सिर रखकर प्रणाम करके ऐसे ढंग से उनके दोनों पैर दोनों हाथों को कसकर क्यों पकड़ती थी—जैसे आश्रय की प्रार्थना कर रही हो, अवलंबन की आशा कर रही हो ?
नहीं, नहीं उन्होंने ही ग़लत समझा है।
असल में माता-पिता को छोड़कर आने के कारण, इतने दिन पुराना घर, आत्मीय स्वजन, परिचित परिवेश—शायद हमेशा के लिए—छोड़कर आने के कारण यह व्यथा है। यही तो स्वाभाविक है। हालांकि आजकल—काशी, प्रयाग या मथुरा में—किसी-किसी लड़की को पहले बहुत रोना-धोना करते हुए देखते हैं, पर गाड़ी में आते-आते ही प्रसन्न हो इठती हैं-पर वे सब बड़ी होती हैं, इसकी तरह षोडशी नहीं। उनकी मां तो कहते हैं सात दिन तक रोती रही थीं।
उन्होंने चारों तरफ नज़र डाली-किसी की नजर उधर न पाकर एक समय—विशाखा के कोमल कांपते हुए पसीने से भीगे दाहिने हाथ को अपनी मुट्ठी में लेकर स्नेहपूर्वक दबा दिया।
बताना चाहते थे, ‘डरो नहीं, मैं तुम्हारा हूं। तुम्हारा सब दुख, सब विषाद, प्यार से धो-पोंछकर गायब कर दूंगा। मेरी छाती में तुम्हें अच्छा सहारा मिलेगा।’
हम प्रथम युद्ध के ठीक बाद की अर्थात् 19191 से आरंभ की बात कह रहे हैं। वही क्या कहना, मैं सबसे पहले 1923 में वृंदावन गया था, तब भी दैवचक्र से मथुरा पहुंचने में शाम बीत गई, नतीजा यह कि हम पाँच प्राणी दो तांगे लेकर चले फिर भी बीच रास्ते में पहुंचकर छाती धक-धक करने लगी।
निस्संदेह मेरे सिवाय सबकी। तब मेरी उम्र ही क्या थी । ऐसा नहीं है कि शरीर सिहर नहीं रहा था, पर कुछ आनन्द भी आ रहा था। तब तक शहर में ही रहे थे—कलकत्ता और काशी। खुली प्रकृति को मैंने पहली बार देखा था। दोनों ओर मनुष्यों की बस्ती का कोई निशान नहीं, केवल अंधेरा धू-धू कर रहा था, बीच-बीच में बबूल जंगल के जंगल थे—लगता था यहां घास भी नहीं उगती—पेड़ों के नाम पर केवल कभी-कभी दो-चार खजूर के पेड़ अथवा इक्का-दुक्का ताल के से पेड़, यही दिखाई देते थे। पहले शुक्लपक्ष का चांद अस्त हो गया था, पश्चिमी आकाश में उसका आभास-मात्र था—हल्की ठंडी हवा अच्छी लग रही थी।
बाद में पता चला था कि वह प्रदेश केवल मानव बस्ती रहित या जंगल हो यही नहीं—बल्कि और भी खराब था। जो वहां रहते थे वे हिंसक पशुओं से भी खतरनाक थे, किसी को अकेला ओट में पाते ही दो-चार रुपयों के लिए भी खून करने में इधर-उधर नहीं करते। मुझे एक बार रात के समय हाथरस से ‘रतिका नागला’ स्टेशन के रास्ते पर जाना पड़ा था। लाइन के साथ-साथ चल रहा था, एक गेटमैन ने जाने से रोका, मेरे यह कहने कि मेरे पास टिकट के अलावा केवल दो-तीन रुपये हैं, उसने हंसकर जवाब दिया, ‘‘बाबूजी, पहले आपका खून करने के बाद ही तो देखेगा कि आपके पास रुपये हैं या केवल टूटे पैसे ! एक बार एक आदमी को मारने के बाद उसके पास एक पैसा भी नहीं मिला। वह इसी भरोसा जा रहा था, फिर भी जान गयी !’
गेटमैन की वह समझदारी की बात याद थी-तभी तो 1937 में जब मां को लेकर वृंदावन आया—साथ में एक साहित्यकार मित्र भी थे—ट्रेन लेट होने के कारण संध्या के बाद इस रास्ते से जाना पड़ा था, तब कहने को सारा रास्ता डर से कांपता रहा था।
पर हम जिस दिन की बात कर रहे हैं, उस दिन यह रास्ता किसी को भयानक नहीं लग रहा था।
नहीं, बड़ी लाइन पर ट्रेन लेट हो गई थी इसलिए नहीं—बल्कि जान-बूझकर सांझ के समय यात्रा का आयोजन किया गया था। जब तक रोशनी से भरा जुलूस न हो, तब तक रौनक नहीं लगती।
विशाल शोभायात्रा—मथुरा से वृंदावन जा रही थी।
श्री राधा-गोपीवल्लभ के प्रधान सेवक या गुसाईं स्वरूप अपनी नववधू को शांतिपुर से लाकर वृंदावन जा रहे हैं।
कालरात्रि उन्होंने शांतिपुर में ही बितायी थी। क्योंकि विवाह के अगले दिन कुशंडिका और अन्य रस्मों को पूरा करते-करते अपराह्न में ढल गया था। उसके बाद यात्रा करने का कोई उपाय नहीं था। मतलब ट्रेन का समय निकल जाने के बाद जल्दी करने की क्या जरूरत थी।
अगले दिन ही यात्रा की गई। तब ट्रेन बहुत धीमी होती थी, अतः और एक दिन ट्रेन में काटकर, मतलब दो रात बाद आज ही दूसरे पहर में बारात यहां पहुंची है। वहां के चौबेजी अर्थात् इनके पंडे ने आदर और आग्रह के साथ अपने घर ले जाकर स्नान, आहार और विश्राम की व्यवस्था की थी। द्वारकाधीश के प्रसाद की भी व्यवस्था की थी—सबने संतुष्ट होकर वह पाया। वृंदावन से सधवा रिश्तेदारों और दासियों का एक दल पहले से ही आकर प्रतीक्षा कर रहा था—ताकि वर-वधू को और विशेष रूप से वधू को सजा सकें। उसके बाद, तैयारी का आयोजन खत्म करने के लिए, शोभायात्रा में आगे कौन होगा। और पीछे कौन रहेगा, किसके बाद कौन होगा—इसे तय किया जाने लगा। हालांकि यह व्यवस्था शाम चार बजे से शुरू हो गई थी—खूब हल्लागुल्ला है, सब अपनी-अपनी बात दूसरे को सुनाने को बेचैन हैं—प्रत्येक व्यक्ति दूसरे का तिरस्कार करना चाहता है कि बेकार की देरी और अकर्मण्यता हो रही है—यात्रा शुरू हई संध्या पार होने के एक घंटे बाद।
चार हाथी—दो इन्हीं के, शहर की संकीर्ण गलियों में रहने का स्थान नहीं है अतः शहर के बाहर गोपीवल्लभ के उद्यानगृह में रहते हैं—और दो किराए पर लिये गए हैं। उनको उपयुक्त रूप से सजाया गया है, उन पर चित्रकारी में कोई कमी नहीं थी। बाहर सजे हुए घोड़े; पैदल बंदूकची—उस दिन उनकी वेशभूषा भी कीमती थी; संभ्रांत व्यक्तियों के लिए विशेष रूप से सजे हुए तांगे—उनके घोड़ों को जरी की कढ़ाईवाली मखमली पृष्ठसज्जा पहनाई गई थी।
इस समारोह के ठीक बीच में केंद्रबिंदु के रूप में एक बड़ी पालकी में वर-वधु थे।
विराट शोभायात्रा के आगे और पीछे, दोनों तरफ गैस की लाइट—लाइट के कई तरह के झाड़—एक-से-एक सटे हुए-से, पहले जिसे बंधी रोशनी कहते थे, वैसी ही। बिजली-रहित कलकत्ता में रईसों की शादी में इसे स्टेटस सिम्बल कहा जाता था। वह रोशनी केवल बारात के साथ नहीं होती थी बल्कि लड़की के घर से लड़के के घर तक अथवा लड़के के घर से लड़की के घर तक—पूरा रास्ता रहती थी।
पर यहां—जिसे अकबर बादशाह ने फकीराबाद नाम दिया था—हरियालीरहित प्रायः वृक्ष-विहीन प्रदेश में ऐसी घटना अभिनव थी ! शायद कभी ही घटती होगी। फलस्वरूप दूर-दूर के गांवों के लोग यह दृश्य देखने के लिए दौड़-दौड़कर आ रहे थे। यह भी एक तरह का तमाशा था। उनके लिए यह सब रूपकथा के समान अविश्वसनीय, स्वप्न या प्रवाद की बात है। दूसरे तमाशों—जैसे नाच-गाना या यात्रा-गीतों से कहीं अधिक विस्मयकर और उत्तेजक है।
कुल मिलाकर यह सब दर्शकों के लिए असीम कुतूहल की बात है, पर विशेष कुतूहल बीच की पालकी के विषय में है। उसे ठीक से देखने के लिए धक्का-मुक्की हो रही है। बंदूकची का सख्ती से धकेलना भी उन्हें घबराहट में नहीं डालता।
ठीक पालकी नहीं कह सकते। उसमें से कुछ देखा नहीं जा सकता, इस विषय में आयोजक सजग थे।
वास्तव में वह एक चौड़ा सिंहासन कहा जा सकता है—पीछे दोनों तरफ से और ऊपर से कीमती वस्त्र से आच्छादित है। बारह वाहक उसे उठाए हैं, आठ व्यक्ति बराबर उठाए हुए हैं—कोई थके तो उसका स्थान लेने के लिए चार व्यक्ति साथ चल रहे हैं—जिसे कंधा बदलना कहते हैं।
इस तीन तरफ से बंद प्रशस्त सिंहासन पर ही वर-वधू बैठे हैं। फूलमाला, जरी और कांच की उज्जवल झिलमिलाहट से युक्त यह आसन राजा-रानी के ही उपयुक्त है।
यह दृश्य और मनोरम इसलिए है कि वर वधू दोनों ही असाधारण रूप से सुंदर हैं—ऐसा आश्चर्यजनक संयोग सब समय, सब देशों, सब जातियों में मुश्किल से ही मिलता है। वर सुंदर होता है तो कन्या कुत्सित या साधारण होती है। दूसरी ओर कन्या के भाग्य में सुंदर पुरुष सुपुरुष वर कभी-कभी ही होता है। आजकल के प्रेम विवाहों में भी इस नियम का व्यतिक्रम नहीं होता।
यहाँ ऐसा ही अविश्वसनीय योग हुआ है।
चारों ओर की माणिक-मुक्ता जटित सेटिंग के बीच वर-वधू दोनों बहुमूल्य हीरे के टुकड़े लग रहे हैं।
आवाजों से आकर्षित होकर आये गांव के साधारण लोग उन्हें देख-देखकर संतुष्ट हो रहे हैं और प्रशंसा करते अघाते नहीं हैं।
पहले कभी न देखे इस दृश्य से—वे प्रसन्न हैं। उन्होंने लोगों से सुनकर रूपकथा के राजकुमार और राजकुमारी की जैसी कल्पना की थी, वैसा रूप देखकर वे प्रसन्न थे।
साथी-वाहक, भृत्य या सेवक सभी प्रसन्न हैं।
कारण स्वरूप गोस्वामी इन सबको बहुत प्रिय हैं। ये उन्हें प्यार करते हैं, उनको मान देते हैं।
स्वरूप के यहां इतनी उम्र पर शादी नहीं होती, किसी की नहीं हुई।
स्वरूप गोस्वामी के पिता प्राणकिशोर गोस्वामी की ग्यारह वर्ष की आयु में शादी हुई थी।
स्वरूप की शादी की बात कुछ ज्यादा उम्र पर चली थी—सोलह साल पर, किंतु तब हो नहीं पाई; क्योंकि सहसा निमोनिया से प्राणकिशोर का देहांत हो गया। तब उस बीमारी का कोई इलाज नहीं था—गरम अलसी की पुल्टिस और आकंद की रुई से बांधना—यही चेष्ठा की जाती थी; सुतरां जो ठीक हो जाता था उसकी किस्मत की ताकत ही कह सकते थे।
सूतक के समय विवाह की बात ही नहीं उठती थी। यद्यपि शास्त्र में यह व्यवस्था है कि विवाह के लिए सूतक की अवधि कम की जा सकती है—एक वर्ष पूरा होने से पहले ही बरसी करने से ऐसा हो सकता है।
पर स्वरूप गोसाईं एक वर्ष पूरा होने पर भी विवाह के लिए तैयार नहीं हुए। वे ही अब मुखिया हैं, उन्हें कौन आदेश देता ?
एक व्यक्ति दे सकता था—उनकी मां। गंभीर स्वभाव वाली, तीक्ष्ण बुद्धिमती महली हैं। वास्तव में वही इतनी बड़ी संपत्ति तथा इतने बड़े मंदिर की पूजा-सेवा सब चला रही हैं। उनके सामने किसी की बोलने की ताकत नहीं है।
किंतु स्वरूप ने मां को समझाया, ‘‘माँ, हम गुरुवंशी हैं, इतने शिष्य-यजमान हैं, मंदिर में भी बहुत से लोग उपदेश और निर्देश लेने आते हैं—आध्यात्मिक प्रश्न पूछते हैं। मूर्ख बने रहने से उनके सामने बार-बार नीचा देखना पड़ेगा। बाबा का बचपन में विवाह हो गया था, पर उनकी शिक्षा में कोई कमी नहीं रही थी। हमारे पूज्य पितामह ने बड़े यत्न से उन्हें सब सिखाया था। मुझे बाबा ने अंग्रजी स्कूल में भेजा था क्योंकि वह जानना आज की ज़रूरत है। उनकी इच्छा थी कि स्कूल की पढ़ाई पूरी होने पर, वे स्वयं शास्त्र, व्याकरण आदि पढ़ाएँगे। वह नहीं हो पाया। मैं पहले कम-से-कम कुछ वैष्णव शास्त्र पढ़ लूं—फिर विवाह की बात सोचोंगे, तुम इस पर असम्मति मत देना।’’
मां श्यामसोहागिनी ने बात समझकर विरोध नहीं किया। धीर, स्थिर, धर्मपरायण इस बड़े बेटे पर उन्हें सबसे ज्यादा गर्व है, प्यार है। वह अपने पितामह के समान पंडित हो सके तो उन्हें इससे ज्यादा वांछनीय क्या होगा ?
स्वरूप या प्राणस्वरूप—पिता ने महाप्रभु के प्रमुख भक्त के नाम के आधार पर स्वरूप दामोदर नाम रखा था—पर पितामह ने पुत्र के नाम के साथ मिलाते हुए प्राणस्वरूप नाम दिया, उनके आगे कौन बोल सकता था ? नवद्वीप न जाकर काशी गए। उनका उद्देश्य था कि वैष्णव शास्त्र चर्चा के साथ कुछ संस्कृत शिक्षा भी पा लें और काशी में जितने बड़े-बड़े वैष्णव पंडित हैं या आते हैं—उतने नवद्वीप में नहीं मिल सकते।
काशी में उन्हें बहुत से विख्यात पंडित मिले—राधामाधव गोस्वामी प्रभुपाद, अतुलकृष्ण गोस्वामी आदि। संस्कृत में न्याय, व्याकरण, सहित आदि पर भी कुछ-कुछ चर्चा की। उन्हें फणिभूषण तर्कवागीश, रामभूषण शास्त्री, प्रमथनाथ तर्कभूषण, हारान शास्त्री, प्रभास काव्यतीर्थ आदि से शिक्षा पाने का सौभाग्य मिला।
उनमें यथेष्ठ मनोयोग और उतना ही अधिक आग्रह था। प्रायः बीस घंटे रोज के परिश्रम से वे पांच-छः वर्ष में यथेष्ट पांडित्य अर्जित कर जब लौटे, तब उनकी देवदुर्लभ कांति में विनय और माधुर्य का योग हो गया था—इस कठिन परिश्रम का चिह्न-मात्र उनके प्रशांत सुंदर मुख पर नहीं पड़ा था।
अब विवाह की व्यवस्था हुई। और देर करना किसी तरह उचित नहीं था।
इस वंश में दीर्घकाल से अष्टमीगौरी के अतिरिक्तकोई वधू नहीं आई श्यामसोहागिनीसात वर्ष की आयु पर घर आई थीं, पर वे बुद्धिमती थीं। समय के साथ व्यक्ति भी बदलता है, यह वे जानती थीं। चौबीस साल के लड़के के साथ सात साल की लड़की की शादी नहीं की जा सकती, यह उन्होंने भलीभाँति सोच-समझ लिया है।
आत्मीय स्वजन घर में ऋतु-अभिज्ञा कन्या को घर में लाने के प्रस्ताव पर आपत्ति कर रहे थे किंतु श्यामसोहागिनी मालकिन थीं, लड़के ने काशी से लौटकर भी कार्यभार हाथ में नहीं लिया, डेढ़ लाख वार्षिक आय की संपत्ति है, देवता की पूजा के नाना दायित्व थे—वे अभी इतना भार उठाने के लिए तैयार नहीं थे। और जरूरत भी क्या थी ? मां की इन बातों में असाधारण जानकारी और दक्षता है, श्री राधा गोपीलल्लभ के इस विशाल संसार के सब छोटे-मोटे नियम-कानून उनकी उंगलियों पर हैं—स्वरूप अभी से उसमें नाक घुसाने क्यों जाएंगे ?
अतः श्यामसोहागिनी ने इन युक्ति और विवेचनाहीन आपत्तियों को अनसुना कर दिया। उस बारे में सोचा तक नहीं।
उनके वंश के उपयुक्त पात्री मिलना आसान नहीं था। उन्होंने अनेक परिचितों को लड़की खोजने के लिए पत्र लिखे। कई जगह से उत्तर आए। फोटो देखीं, कोई-कोई आकर कन्या दिखा गए। अंत में उन्हें शांतिपुर से अच्छे वंश की कन्या पसंद आई। अच्छा घर, जान-पहिचान परिवार—थोड़ा-सा कुछ संबंध का सूत्र भी मिला। सोलह वर्ष उम्र, बहुत दिन स्कूल में नहीं पढ़ी, पर घर पर यथेष्ट पढ़ाई की है; सुश्री सुंदरी कहना ही उचित होगा—सुलक्षणा कन्या; आपत्ति का कोई कारण नहीं हो सकता था।
इसके अलावा भी—हालांकि लड़की के पिता वकालत करते हैं—वे भी गुरुवंशी हैं। घर में कुलदेवता हैं, नित्य सेवा भोग आदि लगता है। अगर मछली खाते भी हैं-तो भी मांस आज तक घर में नहीं लाया गया। सब तरफ से ही उनके उपयुक्त परिवार था।
लड़की का नाम यमुना था—श्यामसोहागिनी ने ही नया नाम दिया, विशाखा। बोलीं, ‘समधी महाशय, पहले ही रिश्ता मानकर संबोधन कर रही हूं, इसे गलत मत समझना। जब बात पक्की हो गई है तब रिश्ता भी पक्का मानकर चल रही हूँ। महाप्रभु कह गए हैं कि राधिका के प्रेम से भी गोपियों का प्रेम श्रेष्ठतर है, उनका प्रेम स्वार्थ से रहित है—इसलिए विशाखा नाम दिया है। ललिता मेरी बेटी का नाम है, नहीं तो ललिता ही देती।’
वही विवाह निर्विघ्न विधिवत् पूरा हो गया, श्रीराधा गोपीवल्लभ के बड़े गोसाईं अपनी नवोढ़ा वधू को लेकर आज घर लौट रहे हैं—इससे ज्यादा आनंद की क्या बात हो सकती है।
इस योग्य एवं दुर्लभ युगल जोड़ी के मिलन दृश्य से सभी संतुष्ट और प्रसन्न हैं। अंतरंग लोग उत्फुल्ल हैं।
स्वरूप स्वयं भी संतुष्ट हैं। शुभ दृष्टि के क्षण से ही उनकी छाती भर उठी है। केवल सुन्दर है इसलिए नहीं—दृष्टि में एक ऐसी स्निग्धता, उस मुख पर एक ऐसा अपरूप शांत कोमल लज्जानम्र माधुर्य था कि किसी भी युवक की छाती भर उठती। मन में लगा ठीक ऐसी ही तो वे चाहते थे—जीवन की संगिनी होने योग्य तो है ही, वास्तव में सहधर्मिणी होने योग्य भी है। उनके पावन संसार, देवता के संसार के उपयुक्त सेविका लग रही है—हो सकता है समय के साथ साधिका भी बन जाए।
उस क्षण के बाद से नाना अवसरों पर, नाना बहानों से उसे देखते रहे। कुशंडिका के समय तो उनकी अपनी छाती के पास ही थी, दोनों की हथेलियां जोड़कर आहुति देते समय—हर बार ही वे मुग्ध होते रहे, आश्वस्त और आशान्वित होते रहे।
आज इस समय भी आंखों के कोने से देखते रहे।
वह मुख-मुख कमल वैसा ही है। अब ऐसा लग रहा है, जैसे कुछ म्लान, बल्कि विषण्ण कहना ही ठीक होगा। साधारणतः पिता का घर छोड़ते समय ऐसा होता है—किंतु अब भी !
आज सुबह से एक संशय मन में आ रहा है—क्या उसे पति पसंद नहीं आया ? उसकी क्या कुछ और ऊंची आशा थी ?
पर वैसा क्यों होगा ?
कुशंडिका, सप्तपदी, गमन आदि के बाद जब पंडित ने कहा, ‘स्वामी को प्रणाम करो मां—ये ही इस लोक में तुम्हारे इष्ट, तुम्हारे देवता हैं’’- तब एकदम पैरों पर सिर रखकर प्रणाम करके ऐसे ढंग से उनके दोनों पैर दोनों हाथों को कसकर क्यों पकड़ती थी—जैसे आश्रय की प्रार्थना कर रही हो, अवलंबन की आशा कर रही हो ?
नहीं, नहीं उन्होंने ही ग़लत समझा है।
असल में माता-पिता को छोड़कर आने के कारण, इतने दिन पुराना घर, आत्मीय स्वजन, परिचित परिवेश—शायद हमेशा के लिए—छोड़कर आने के कारण यह व्यथा है। यही तो स्वाभाविक है। हालांकि आजकल—काशी, प्रयाग या मथुरा में—किसी-किसी लड़की को पहले बहुत रोना-धोना करते हुए देखते हैं, पर गाड़ी में आते-आते ही प्रसन्न हो इठती हैं-पर वे सब बड़ी होती हैं, इसकी तरह षोडशी नहीं। उनकी मां तो कहते हैं सात दिन तक रोती रही थीं।
उन्होंने चारों तरफ नज़र डाली-किसी की नजर उधर न पाकर एक समय—विशाखा के कोमल कांपते हुए पसीने से भीगे दाहिने हाथ को अपनी मुट्ठी में लेकर स्नेहपूर्वक दबा दिया।
बताना चाहते थे, ‘डरो नहीं, मैं तुम्हारा हूं। तुम्हारा सब दुख, सब विषाद, प्यार से धो-पोंछकर गायब कर दूंगा। मेरी छाती में तुम्हें अच्छा सहारा मिलेगा।’
2
वधू को अपने घर पहुँचते बहुत रात हो गई थी।
उसके बाद भी विग्रह के दर्शन, पैरों की धूल लेने (इनके कारण ठाकुर का शयन
तब तक नहीं हुआ था) वरण, अन्यान्य स्त्रियों के आचारों आदि में बहुत देर
हो गई थी। प्रसाद ग्रहण—वह तो केवल नाममात्र को हुआ। इतनी रात
गए,
उत्तेजना और थकान के बाद खाने में किसकी रुचि रह जाती है, और तब एक लाइन
में या पंगत-में बैठो तो अकेले नहीं उठ सकते। सबके खाने के बाद राधा
गोपीवल्लभ की जयजयकार के साथ उठना होता है। अतः सोने जाने तक प्रायः रात
के दो बज गए थे।
विशाखा सास के साथ एक ही पलंग पर सोई थी।
इतना थके होने पर भी बहुत देर तक उसे नींद नहीं आई।
नया परिवेश, नये लोग—साथ में एक दासी आई तो है, पर वह तो कहीं और सोई होगी—नींद न आने के ये यथेष्ट कारण हैं।
इसके अतिरिक्त, शायद स्वामी के बारे में सोच, कामना-आशा की अधीरता भी मस्तिष्क को उत्तेजित कर रही होगी।
इस बीच यह जानने के कई मौके मिले कि पति केवल सुंदर एवं सत्पुरुष ही नहीं—वे तो मृदु, विवेचक स्नेहपरायण, मधुर स्वभाव के व्यक्ति हैं। इसीलिए कामना और आशा के स्वप्न देख रही है। शायद उस कामना के धन, स्वप्नों के आधार व्यक्ति को अकेले में पाने की अधीरता भी है।
कारण जो भी हो—थकान का यथेष्ट कारण होते हुए भी यमुना को नींद आने में बहुत देर हो गई। ड्योढ़ी की घड़ी के घंटों में तीन की आवाज भी उसने सुनी। उसके बाद शायद झपकी लगी थी पर ठीक चार बजे ही श्यामसोहागिनी ने उस पर हाथ रखकर प्यार से कहा, ‘‘बहू मां, आज जरा जल्दी उठना पड़ेगा मां, आज तुम्हारी दीक्षा है !’’
‘‘दीक्षा !’’
वहू चौंकी क्या ?
श्यामसोहागिनी का हाथ तब तक भी विशाखा के शरीर पर था। उसका चौंकना जानने में उन्हें कोई मुश्किल नहीं हुई। पर उन्हें इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं लगा। सोलह वर्ष की लड़की। बिल्कुल अलग तरह के परिवेश की—फूलशय्या (सुगाहरात) के दिन दीक्षा की बात सुनकर चौंकने की बात ही है।
उन्होंने उसी स्नेह से विशाखा के शरीर पर हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘हां, मां, आज तुम्हें रसोई में जाना है। तुम्हें अपने हाथ से कुटुम्ब परिजनों को परोसना होगा, यही नियम है। पर जब तक दीक्षा नहीं होगी तब तक वह अधिकार नहीं मिलेगा, मां !’’
विशाखा ने और कुछ नहीं कहा, एक निश्वास दबाकर पलंग से उतरी, गले में आंचल डालकर सास को प्रणाम किया। उसके बाद लज्जा भरके कोमल कंठ से बोली, ‘‘मां-मतलब शांतिपुर वाली मां—ने कहा था प्रतिदिन सुबह उठकर आपको और...और...’’
‘स्वामी को प्रणाम करना। तुम्हारी मां ने ठीक ही कहा था, अच्छी शिक्षा दी थी। पर वह तो नहाने गया है। वही मंगल आरती करके ठाकुर को नींद से जगाएगा। तुम भी नहा लो। मंदिर जाकर एक बार गुरुगोविन्द के दर्शन कर लो। किंतु मंदिर में, इष्ट, मंत्रदाता गुरु और जन्मदात्री मां के अतिरिक्त किसी को प्रणाम नहीं करना चाहिए। खोका जब बाहर आकर खड़ा होगा, उस समय वहां से उसे प्रणाम करना !’
विशाखा सास के साथ एक ही पलंग पर सोई थी।
इतना थके होने पर भी बहुत देर तक उसे नींद नहीं आई।
नया परिवेश, नये लोग—साथ में एक दासी आई तो है, पर वह तो कहीं और सोई होगी—नींद न आने के ये यथेष्ट कारण हैं।
इसके अतिरिक्त, शायद स्वामी के बारे में सोच, कामना-आशा की अधीरता भी मस्तिष्क को उत्तेजित कर रही होगी।
इस बीच यह जानने के कई मौके मिले कि पति केवल सुंदर एवं सत्पुरुष ही नहीं—वे तो मृदु, विवेचक स्नेहपरायण, मधुर स्वभाव के व्यक्ति हैं। इसीलिए कामना और आशा के स्वप्न देख रही है। शायद उस कामना के धन, स्वप्नों के आधार व्यक्ति को अकेले में पाने की अधीरता भी है।
कारण जो भी हो—थकान का यथेष्ट कारण होते हुए भी यमुना को नींद आने में बहुत देर हो गई। ड्योढ़ी की घड़ी के घंटों में तीन की आवाज भी उसने सुनी। उसके बाद शायद झपकी लगी थी पर ठीक चार बजे ही श्यामसोहागिनी ने उस पर हाथ रखकर प्यार से कहा, ‘‘बहू मां, आज जरा जल्दी उठना पड़ेगा मां, आज तुम्हारी दीक्षा है !’’
‘‘दीक्षा !’’
वहू चौंकी क्या ?
श्यामसोहागिनी का हाथ तब तक भी विशाखा के शरीर पर था। उसका चौंकना जानने में उन्हें कोई मुश्किल नहीं हुई। पर उन्हें इसमें कुछ अस्वाभाविक नहीं लगा। सोलह वर्ष की लड़की। बिल्कुल अलग तरह के परिवेश की—फूलशय्या (सुगाहरात) के दिन दीक्षा की बात सुनकर चौंकने की बात ही है।
उन्होंने उसी स्नेह से विशाखा के शरीर पर हाथ फिराते हुए कहा, ‘‘हां, मां, आज तुम्हें रसोई में जाना है। तुम्हें अपने हाथ से कुटुम्ब परिजनों को परोसना होगा, यही नियम है। पर जब तक दीक्षा नहीं होगी तब तक वह अधिकार नहीं मिलेगा, मां !’’
विशाखा ने और कुछ नहीं कहा, एक निश्वास दबाकर पलंग से उतरी, गले में आंचल डालकर सास को प्रणाम किया। उसके बाद लज्जा भरके कोमल कंठ से बोली, ‘‘मां-मतलब शांतिपुर वाली मां—ने कहा था प्रतिदिन सुबह उठकर आपको और...और...’’
‘स्वामी को प्रणाम करना। तुम्हारी मां ने ठीक ही कहा था, अच्छी शिक्षा दी थी। पर वह तो नहाने गया है। वही मंगल आरती करके ठाकुर को नींद से जगाएगा। तुम भी नहा लो। मंदिर जाकर एक बार गुरुगोविन्द के दर्शन कर लो। किंतु मंदिर में, इष्ट, मंत्रदाता गुरु और जन्मदात्री मां के अतिरिक्त किसी को प्रणाम नहीं करना चाहिए। खोका जब बाहर आकर खड़ा होगा, उस समय वहां से उसे प्रणाम करना !’
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लोगों की राय
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