कहानी संग्रह >> अंतर्मिलन की कहानियाँ अंतर्मिलन की कहानियाँरांगेय राघव
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विशाल भारतीय पौराणिक साहित्य में से चुनी कुछ श्रेष्ठ कहानियाँ
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रस्तुत कहानियाँ मैंने विशाल भारतीय पौराणिक साहित्य में से चुनी हैं।
इनको मैंने इसलिए लिखा कि इनमें मुझे इतिहास की बहुत-सी गुत्थियाँ सुलझती
मिलीं। हमारी संस्कृति में एक ही स्रोत की प्रेरणा नहीं है। महाभारत युद्ध
के बाद से गौतम बुद्ध तक, फिर गौतम बुद्ध से गुप्त सम्राटों के काल तक,
निरंतर भारत में जातियों का अंतर्मिलन चला। इन दो दौरों में-
पहली बार-आर्य्य, राक्षस, गंधर्व, यक्ष, किन्नर, नाग, गरुड़, पिशाच, असुर तथा अनेक जातियाँ परस्पर घुल-मिल गईं। इनके मिलन से इनके देवता भी परस्पर मिल गए। विष्णु, शिव, गरुड़, पार्वती, वासुकि, कुबेर, पुलस्त्य, वृत्र, शाक्त इत्यादि भी परस्पर मैत्री भाव से स्थित हुए।
दूसरी बार-भारत में यवन, शक, कुषाण, पहलव इत्यादि जातियाँ आईं, जो भी भारत में घुल-मिल गईं।
यहाँ मैंने पहले दौर के अंतर्मिलन को प्रकट करने वाली कथाएँ रखी हैं, जो प्रकट करती हैं कि हिंदू धर्म कितनी व्यापक भूमि पर बना था।
पहली बार-आर्य्य, राक्षस, गंधर्व, यक्ष, किन्नर, नाग, गरुड़, पिशाच, असुर तथा अनेक जातियाँ परस्पर घुल-मिल गईं। इनके मिलन से इनके देवता भी परस्पर मिल गए। विष्णु, शिव, गरुड़, पार्वती, वासुकि, कुबेर, पुलस्त्य, वृत्र, शाक्त इत्यादि भी परस्पर मैत्री भाव से स्थित हुए।
दूसरी बार-भारत में यवन, शक, कुषाण, पहलव इत्यादि जातियाँ आईं, जो भी भारत में घुल-मिल गईं।
यहाँ मैंने पहले दौर के अंतर्मिलन को प्रकट करने वाली कथाएँ रखी हैं, जो प्रकट करती हैं कि हिंदू धर्म कितनी व्यापक भूमि पर बना था।
रांगेय राघव
अंतर्मिलन की कहानियाँ
दधीचि और पिप्पलाद
प्राचीन काल में दधीचि नाम के एक महर्षि थे। उनकी पत्नी का नाम गभस्तिनी
था। महर्षि वेद-शास्त्रों के पूर्ण ज्ञाता थे और स्वभाव के बड़े ही दयालु
थे। अहंकार तो उन्हें छू तक नहीं गया था। वे सदा दूसरों का हित करना अपना
परम धर्म समझते थे। उनके व्यवहार से उस वन के पशु-पक्षी तक संतुष्ट थे,
जहाँ वे रहते थे। गंगा के तट पर ही उनका आश्रम था। जो भी अतिथि उनके आश्रम
पर आता था, उसकी महर्षि और उनकी पत्नी श्रद्धा भाव से सेवा करते थे।
एक दिन की बात है, महर्षि के आश्रम पर रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार, इंद्र, विष्णु यम और अग्नि आए। देवासुर संग्राम समाप्त हुआ था जिसमें देवताओं ने दैत्यों को परास्त कर दिया था। विजय के कारण सभी देवता हर्षित हो रहे थे। उन्होंने आकर यह प्रसन्नता-भरा समाचार महर्षि को सुनाया। महर्षि ने उक्त देवताओं का समुचित स्वागत किया और उनके आने का कारण पूछा।
देवताओं ने कहा, ‘‘हे भगवान् ! आप इस पृथ्वी के कल्पवृक्ष हैं। आप जैसे तपस्वी ऋषि की यदि हमारे ऊपर कृपा हो तो हमारे मार्ग में किसी प्रकार की कठिनाई उपस्थित नहीं हो सकती।
‘‘हे मुनिश्रेष्ठ ! जीवित मनुष्यों के जीवन का इतना ही फल है कि तीर्थों में स्नान, समस्त प्राणियों पर दया और आप जैसे तपस्वी महर्षि के दर्शन करें। इस समय हम दैत्यों को परास्त करके आए हैं और इसके पश्चात् आपके दर्शन करके हमारी प्रसन्नता दूनी बढ़ गई है। अब हमारे पास ये अस्त्र-शस्त्र हैं। इनका बोझ अब हम नहीं ढो सकते और यदि इन्हें ले जाकर स्वर्ग में रख भी दें तो हमारे शत्रु किसी तरह पता लगाकर कभी भी इन्हें ले जा सकते हैं, इसलिए हमारा विचार इन अस्त्र-शस्त्रों को आपके आश्रम पर ही रखने का है।
‘‘हे मुनिश्रेष्ठ ! यदि आप आज्ञा दे दें तो इन्हें हम यहीं छोड़ जाएँ। इससे अधिक उपयुक्त स्थान हमें नहीं मिल सकता, क्योंकि यहाँ से दैत्य इनको चुराकर नहीं ले जा सकेंगे।
‘‘हे भगवन् ! आपकी तपस्या के प्रभाव से आपका स्थान परम सुरक्षित है। इसलिए हम अपने अस्त्र-शस्त्रों को यहाँ छो़ड़कर निश्चिंत होकर अपने लोक को जाना चाहते हैं। आप इसके लिए आज्ञा दीजिए।’’
देवताओं की बात सुनकर महर्षि दधीचि ने अपने सरल स्वभाव के कारण कह दिया, ‘‘देवताओं ! मेरा जीवन तो सदा दूसरों के उपकार के लिए ही व्यतीत हुआ है और इसी तरह होगा। तुम अपने अस्त्र-शस्त्रों को यहाँ रख सकते हो। मुझे इसमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है।’’
जिस समय महर्षि ने यह कहा था, उस समय उनकी पत्नी भी वहाँ खड़ी थी, उसने रोकते हुए कहा, ‘‘ऐसा विरोध उत्पन्न करने वाला कार्य मत करिए स्वामी ! दैत्यों को जब पता चलेगा कि देवताओं के अस्त्र-शस्त्र हमने छिपाकर रख दिए हैं तो वे हमारे शत्रु हो जाएँगे और हर प्रकार से हमें कष्ट पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे। आपको इस बीच में पड़ने की क्या आवश्यकता है ?
‘‘हे स्वामी ! जो शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके परमार्थ-तत्त्व में स्थित हो चुके हैं, संसार के कार्यों में जिनकी कोई आसक्ति नहीं है, उन्हें दूसरों के लिए संकट मोल लेने से क्या लाभ ? आप सोचिए तो प्राणनाथ ! यदि इन अस्त्र-शस्त्रों में मानो कोई चोरी चला गया तो देवता भी हमारे शत्रु हो जाएँगे, उधर दैत्य हर प्रकार से इनको छीनने का प्रयत्न करेंगे। इस प्रकार व्यर्थ चित्त की शांति नष्ट होगी। फिर आप तो वेद के ज्ञाता हैं, आपको इस पराए धन से ममत्व जोड़ना किसी प्रकार उचित नहीं है। साधु पुरुष में यदि धन देने की शक्ति हो तो बिना किसी प्रकार का विचार किए उसे याचक को धन दे देना चाहिए। यदि धन देने की शक्ति न हो तो साधु पुरुष को केवल मन, वाणी तथा शारीरिक क्रियाओं के द्वारा दूसरे का उपकार करना चाहिए लेकिन पराए धन को धरोहर के रूप में अपने यहाँ रखना साधु के लिए किसी प्रकार भी उचित नहीं है। पूरी तरह परिस्थिति पर विचार करके आप देवताओं को उनके अस्त्र-शस्त्र लौटा दीजिए।’’
पत्नी की बात सुन दधीचि ने कहा, ‘‘प्रिये ! तुम्हारा कथन उचित है, लेकिन अब मैं देवताओं को वचन दे चुका हूँ। यदि अब तुम्हारे कहने से इन अस्त्र-शस्त्रों को रखने की अस्वीकृति प्रकट करूँगा तो देवताओं के हृदय में मेरे प्रति सम्मान कम हो जाएगा और अपने वचन को वापस लेकर मेरे हृदय में भी प्रसन्नता नहीं होगी। इसलिए अब तो जो कुछ हो गया वही उचित है।’’
अपने पति की यह बात सुनकर गभस्तिनी आगे कुछ नहीं बोली। देवता निश्चिंत होकर चले गए। जब दैत्यों को पता चला कि देवताओं के अस्त्र-शस्त्र महर्षि के आश्रम पर हैं तो वे अनेक प्रकार के उपद्रव मचाने लगे और महर्षि को यह शंका हो उठी कि कहीं दैत्य इन अस्त्र-शस्त्रों को चुराकर न ले जाएँ।
पूरे एक हज़ार वर्ष व्यतीत हो चुके थे। देवता किसी प्रकार का समाचार तक लेने नहीं आए थे। तब एक दिन महर्षि ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘प्रिये ! देवताओं को गए पूरी एक सहस्राब्दी बीत गई, अभी तक उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को आकर नहीं सँभाला। दैत्य महापराक्रमी हैं। उन्हें पता तो लग ही गया है कि देवताओं के अस्त्र-शस्त्र हमारे पास हैं, कहीं वे आकर उन्हें छीन न ले जाएँ। तब तो बड़ी विकट परिस्थिति उपस्थित हो जाएगी। उससे पहले हमारे लिए कौन-सा उचित मार्ग है, इस विषय में अपनी सम्मति प्रकट करो ?’’
उनकी पत्नी कोई उपाय सोचने लगी, लेकिन उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया। तब महर्षि ने ही सोचकर कहा, ‘‘देवी ! यदि तुम्हारी सम्मति हो तो मैं इन सभी अस्त्र-शस्त्रों को शक्तिहीन कर दूँ ?’’
गभस्तिनी ने यह बात स्वीकार कर ली। उसी क्षण महर्षि ने मंत्रोच्चारण करते हुए उन सभी अस्त्र-शस्त्रों को पवित्र जल में नहलाया और फिर वे उस सर्वास्त्रमय परम पवित्र और तेज-युक्त जल को पी गए। तेज निकलने से सभी अस्त्र-शस्त्र शक्तिहीन हो गए। धीरे-धीरे वे नष्ट हो गए।
इसके कुछ समय पश्चात् देवता महर्षि के पास आए और उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को वापस माँगा। देवासुर संग्राम फिर प्रारंभ हो चुका था। दैत्यों ने अपनी शक्ति बढ़ाकर देवताओं पर आक्रमण कर दिया था। देवताओं के अस्त्र-शस्त्र माँगने पर महर्षि ने कहा, ‘‘आपके अस्त्र-शस्त्र तो मेरे शरीर के अंदर स्थित हैं ! पूरी सहस्राब्दी बीत गई, तब भी आप उन्हें लेने नहीं आए। तब मैंने इस भय से कि कहीं दैत्य इनको चुराकर न ले जाएँ, उन्हें मंत्रोच्चारण के साथ पवित्र जल से स्नान कराकर और उस जल को पीकर पूरी तरह शक्तिहीन कर दिया। अब उन सभी अस्त्र-शस्त्रों का बल मेरे शरीर में पहुँच चुका है, आप लोग जैसा कहें वैसा ही मैं करूँ !’’
महर्षि की बात सुनकर देवता विनीत स्वर में कहने लगे, ‘‘हे मुनिश्रेष्ठ ! अस्त्र-शस्त्रों के बिना तो हम निस्सहाय-से असुरों के हाथों मारे जाएँगे। आप किसी प्रकार शस्त्रों का प्रबंध करिए। आप जानते ही हैं कि दैत्य महापराक्रमी हैं और अबकी बार तो उन्होंने अपार सैन्य दल एकत्रित कर लिया है। किसी प्रकार हमारी रक्षा करिए !’’
यह सुनकर दधीचि बोले, ‘‘हे देवताओं ! मेरा उद्देश्य तुम्हारा अहित करने का कभी नहीं था। अब तो तुम्हारे सारे अस्त्र-शस्त्र मेरी अस्थियों में मिल चुके हैं। यदि तुम उनको ले जाना चाहो तो ले जा सकते हो।’’
जिस समय महर्षि ने देवताओं के सामने यह प्रस्ताव रखा था, उसकी पत्नी कहीं बाहर चली गई थी। देवता उससे बहुत डरते थे। उसको वहाँ उपस्थित न देखकर उन्होंने कहा, ‘‘हे मुनीश्वर ! आप हमें अपनी अस्थियों को ही दे दीजिए, लेकिन करिए शीघ्रता।’’
दधीचि ने उसी समय समाधि लगा ली और अपने प्राण त्याग दिए। कुछ ही क्षण पश्चात् उनका शरीर निष्प्राण हो गया। यह देखकर देवताओं ने विश्वकर्मा से कहा, ‘‘हे विश्वकर्मा ! अब महर्षि की अस्थियाँ लेकर आप अनेक अस्त्र-शस्त्र बना डालिए।’’
विश्वकर्मा ने कहा, ‘‘देवताओं ! यह ब्राह्मण का शरीर है। मैं इसका उपयोग करते हुए डरता हूँ। जब केवल इनकी अस्थियाँ मात्र रह जाएँगी, तभी मैं इसमें हाथ लगाऊँगा और उनसे अस्त्र-शस्त्र का निर्माण करूँगा।’’
विश्वकर्मा के हृदय के भय को दूर करने के लिए देवताओं ने गौओं से कहा, ‘‘हे गौओ ! हम तुम्हारा मुख वज्र के समान कर देते हैं। तुम जाकर महर्षि दधीचि के निष्प्राण शरीर को विदीर्ण कर डालो और उनका अस्थिपंजर शेष छोड़कर बाकी सभी मांस को अलग कर दो।’’
देवताओं का आदेश मानकर गौओं ने जाकर महर्षि के शरीर को विदीर्ण कर डाला और केवल अस्थिमात्र ही खड़ी छो़ड़ दी। देवताओं ने प्रसन्न होकर उन अस्थियों को उठा लिया और वे उन्हें लेकर अपने लोक को चले गए।
थोड़ी देर बाद ही महर्षि की पत्नी गभस्तिनी आई। उसके हाथों में पानी से भरा कलश था और उसमें कुछ पुष्प थे। वह अपने पति के दर्शनों के लिए लालायित होकर शीघ्रता से चलकर आई थी, लेकिन आश्रम पर महर्षि को न देखकर उसके हृदय में चिंता समा गई। वह घबराकर इधर-उधर पति को खोजने लगी। उस समय वह गर्भवती थी। जब कहीं भी पति को नहीं पा सकी तो उसने अग्निदेव से पूछा,‘‘हे अग्निदेव ! मेरे पतिदेव आश्रम पर दिखाई नहीं देते, कृपा करके बताइए, वे कहाँ चले गए हैं ?’’
अग्नि ने महर्षि के प्राण त्यागने का सारा वृत्तांत गभस्तिनी को कह सुनाया। पति की मृत्यु का दुःखद समाचार सुनकर गभस्तिनी विलाप करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। उस समय पति के वियोग से उसके करुण क्रंदन को सुनकर वन के वृक्ष भी रोने लगे। अग्निदेव ने आकर उस कल्याणी को धैर्य बँधाया।
उसने रोते-रोते कहा, ‘‘मैं देवताओं को शाप देने के लिए समर्थ नहीं हूँ, इसलिए स्वयं ही अग्नि में प्रवेश करूँगी। पति के बिना इस अभिशप्त जीवन को भी रखकर क्या होगा ? मेरा सर्वस्व चला गया, अब मैं भी जाकर परलोक में पति से मिलूँगी, तभी मेरी आत्मा को शक्ति मिलेगी।
‘‘हे अग्निदेव ! मैं अपनी इस देह को आपको समर्पण करती हूँ।’’
अग्निदेव हर तरह से गभस्तिनी को समझाने लगे, लेकिन उसने प्राण त्यागने का पूरी तरह निश्चय कर लिया था। उसी समय उसने अपना पेट चीरकर गर्भ के बालक को बाहर निकाल लिया और फिर गंगा, पृथ्वी, आश्रम तथा वन के वृक्ष और लताओं को प्रणाम करके बोली, ‘‘मेरा यह बालक आपको समर्पित है। यह अभागा अपने पिता से तो हीन हो ही चुका है और अब माता से भी हीन हो जाएगा।
‘‘हे वन के वृक्षों ! इसकी रक्षा करना। तुम्हीं इसके माता-पिता हो।’’
यह कहकर महर्षि की पत्नी ने बालक को पीपल के समीप रख दिया और फिर वह स्वयं चिता जलाकर उसमें बैठ गई और अपने पति के पास दिव्य लोक को चली गई।
जब आश्रम सूना हो गया और वन के पशु तथा पक्षियों को दयालु महर्षि और उनकी पत्नी नहीं दिखाई दिए तो वे वहाँ आकर विलाप करने लगे। रह-रहकर उन्हें ऋषि और ऋषि पत्नी के मधुर व्यवहार की याद आने लगी और वे एक-दूसरे से कहने लगे, ‘‘अब हम पिता दधीचि और माता गभस्तिनी के बिना किसी प्रकार भी जीवित नहीं रह सकते। जिस स्नेहपूर्ण दृष्टि से ऋषि और ऋषि-पत्नी हमारी ओर देखा करते थे, उस तरह तो सगे माता-पिता भी नहीं देखते। हा ! हम कैसे पापी हैं कि अब उनके दर्शनों से वंचित होकर निस्सहाय-से इस वन में भटक रहे हैं। आज यह आश्रम कैसा श्मशान जैसा लग रहा है। नहीं तो ऋषि के उपस्थित रहते इसके चारों ओर वृक्षों का एक-एक पत्ता स्नेह से मुस्कराता रहता था।
‘‘हा विधाता ! संसार में वे भी कितने दुखी हैं जिनके माता-पिता स्वर्गवासी हो चुके हैं।’’
यह कहकर वे सभी उस बालक के पास आए, जिसे ऋषि-पत्नी जन्म देकर छोड़ गई थी। उन्होंने उसके लिए सब प्रकार की व्यवस्था की। वनस्पतियों और औषधियों ने लाकर उसके लिए राजा सोम से अमृत माँगा। सोम ने सहर्ष अमृत दे दिया। वनस्पतियों ने उस अमृत को लाकर बालक को दे दिया। बालक दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा। पीपल के वृक्षों ने उसका पालन किया था, इसलिए ‘पिप्पलाद’ के नाम से वह प्रसिद्ध हुआ।
जब पिप्पलाद बड़ा हुआ तो वह अपने आपको अकेला वन में पाकर वृक्षों से कहने लगा, ‘‘हे हम वन के वृक्षो ! सभी सौभाग्यशाली बालकों के माँ-बाप उनका लालन-पालन करते हैं, लेकिन मेरे माता-पिता ने मेरा पालन-पोषण क्यों नहीं किया ? वे कहाँ चले गए हैं, कृपा करके मुझे बताओ ?’’
बालक का सरल प्रश्न सुनकर वृक्षों को फिर ऋषि-पत्नी की याद आ गई और वे दुखी होकर रोने लगे। पिप्पलाद ने कौतूहलवश होकर पूछा, ‘‘श्रेष्ठ वृक्षो ! तुम इतने दुखी क्यों होते हो ?’’
तब वृक्षों ने पिप्पलाद से ऋषि का जीवन संबंधी सारा वृत्तांत कह सुनाया। उसे सुनते ही पिप्पलाद रोने लगा और कहने लगा, ‘‘हा विधाता। तूने मुझे इस पृथ्वी पर जन्म ही क्यों दिया ? मैं कैसा अभागा हूँ कि जिन माता-पिता ने मुझे जन्म दिया, उनका ही मुख नहीं देख पाया। जिस पुत्र को माता का स्नेह न मिला हो, उसका जीवन व्यर्थ है।’’
बालक के विलाप को सुनकर वृक्षों के हृदय भी हिल उठे। वे अनेक प्रकार से उसको धैर्य बँधाने लगे, लेकिन बालक निस्सहाय-सा रोता रहा और फिर देवताओं पर क्रुद्ध होकर उसने कहा, ‘‘जिन स्वार्थी देवताओं ने मेरे पिता के प्राण लिए हैं और जो मेरी माता के भी मृत्यु का कारण बने हैं, वे आज से ही मेरे शत्रु हैं। जब तक मैं उनका वध न कर लूँगा, तब तक धैर्य लेकर नहीं बैठूँगा। इस संसार में श्रेष्ठ पुत्र वही है जो अपने पिता के शत्रु को नष्ट करने की सामर्थ्य रखता है। देवताओं को नष्ट किए बिना मेरा जीवन व्यर्थ है।’’
पिप्पलाद की यह प्रतिज्ञा सुनकर वृक्षों ने कहा, ‘‘हे सुव्रत ! तुम्हारी माता ने परलोक जाते समय यह उद्गार प्रकट किया था-जो मनुष्य दूसरों के द्रोह में लगे रहते हैं, या जो अपने कल्याण की बातें भूलकर भ्रांतचित्त होकर इधर-उधर भटकते रहते हैं, वे नरक के गर्त में जाकर गिरते हैं।’’
माता की इस बात को सुनकर पिप्पलाद ने असंतुष्ट होकर कहा, ‘‘श्रेष्ठ वृक्षों ! माता ने कुछ भी कहा हो, लेकिन जिसके अंतःकरण में अपमान की आग प्रज्वलित हो रही हो, उसके सामने साधुता की बातें करना व्यर्थ है। मैंने तो शत्रुओं का ध्वंस करने की प्रतिज्ञा कर ली है। उसे पूरा किए बिना मैं चैन से नहीं बैठ सकता।’’
यह कहकर पिप्पलाद चक्रेश्वर महादेव के स्थान पर गया और वहाँ बैठकर भगवान् शंकर की आराधना करने लगा। पिप्पलाद की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उसे दर्शन दिया और वर माँगने के लिए कहा।
पिप्पलाद ने कहा, ‘‘हे महादेव ! मैं अपने शत्रु देवता को नष्ट करने के लिए शक्ति चाहता हूँ।’’
उसी समय भगवान् शंकर के नेत्रों से भयंकर कृत्या प्रकट हुई। उसकी आकृति बड़वा के समान थी। संपूर्ण जीवों का विनाश करने के लिए उसने अपने गर्भ में अग्नि छिपा रखी थी। मृत्यु के-से भयानक आकार वाली वह कृत्या निकलकर पिप्पलाद से कहने लगी, ‘‘हे भद्र ! बोलो, मैं तुम्हारे हित के लिए किसको नष्ट करूँ ?’’
पिप्पलाद ने कहा, ‘‘देवता मेरे शत्रु हैं, तू जाकर उन्हें ही खा जा।’’
उसी समय बड़वा के गर्भ की अग्नि प्रचंड लपटों के साथ बाहर फूट पड़ी और देवलोक की ओर चल दी। उस महाभयानक अग्नि को आते देखकर देवता भयभीत होकर निस्सहाय-से पुकारने लगे। सभी अपनी जान-बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे, लेकिन कहीं भी बचने का उपाय नहीं दिखता था। अंत में वे महादेव की शरण में गए और उन्हीं से रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे।
शरणागत देवताओं पर कृपा करके भगवान् शिव ने उन्हें अभय दे दिया और वे स्वयं पिप्पलाद के पास आकर कहने लगे, ‘‘बेटा पिप्पलाद ! देवता तुम्हारी शक्ति के कारण त्राहि-त्राहि करते फिर रहे हैं। कहीं बचने का उपाय न देखकर अंत में वे मेरी शरण में आए हैं। अब तुम मेरे कहने से इन पर अधिक रोष मत दिखाओ। सोचो तो, यदि तुम इनका नाश कर दोगे तब भी तुम्हारे माता-पिता लौटकर नहीं आएँगे और फिर सँभवतया तुम यह नहीं जानते कि महर्षि दधीचि ने तो स्वयं ही अपनी इच्छा से देवताओं के हित के लिए अपने प्राणों का त्याग किया है। ऐसे उपकारी और दयालु पिता के पुत्र होकर तुम्हारा इस प्रकार देवताओं पर क्रोध करना उचित नहीं है। संसार में वे ही पुरुष धन्य हैं जो दूसरों के हित में अपने प्राण उत्सर्ग कर देते हैं। ऐसे धर्मात्मा पिता और गभस्तिनी जैसी परम गुणवती और पतिव्रता देवी के पुत्र होकर तुम्हारे लिए इस प्रकार क्रोध करना उचित नहीं है।
‘‘बेटा ! सोचो तो, तुम्हारे पिता कैसे शक्तिशाली थे जिनकी अस्थियों से देवता सदा दैत्यों के ऊपर विजय प्राप्त करते हैं। फिर तुम्हारा भी प्रताप कम नहीं है। इसी से आज देवता स्वर्ग से भ्रष्ट होकर निस्सहाय-से मेरी शरण में आए हैं। आर्त प्राणियों की रक्षा से बढ़कर दूसरा कोई पुण्य नहीं है। क्रोध छोड़कर देवताओं की रक्षा करो। इससे पिता की भाँति तुम्हारी भी दयालुता का पारा चारों दिशाओं में फैल जाएगा।’’
भगवान् शंकर इस तरह पिप्पलाद को समझाने लगे। पिप्पलाद ने महादेव के चरणों में अपना सिर रखकर विनीत स्वर में कहा, ‘‘हे भगवान् ! जो मन, वाणी और क्रिया द्वारा सदा मेरे हित में तत्पर रहते हैं, ऐसे दयालु स्वामी ! आपको मैं नमस्कार करता हूँ। मैं देवताओं को क्षमा कर सकता हूँ देव ! लेकिन मेरी एक इच्छा है। जिन्होंने माता-पिता की भाँति मेरा पालन-पोषण किया है-उन्हीं के नाम से यह पवित्र स्थान प्रसिद्ध हो और यह पुण्य तीर्थ माना जाए। इससे मैं उनके ऋण से उऋण हो सकूँगा। यदि देवता यह स्वीकार कर लें कि पृथ्वी पर जितने भी ऐसे तीर्थ हैं, जहाँ उनकी प्रतिष्ठा होती है, उनसे अधिक माहात्म्य इस तीर्थ का होगा तो मैं अपना सारा रोष वापस ले लूँ।’’
भगवान् शंकर ने देवताओं से यह बात कही। देवताओं ने तुरंत यह स्वीकार कर लिया और वे सभी पिप्पलाद की दयालुता की प्रशंसा करते हुए अपने लोक को चले गए।
इसके पश्चात् भगवान् शंकर ने पिप्पलाद से कहा, ‘‘बेटा, तुमने मेरी बात मानकर वही कार्य किया है जो मैं चाहता था। इसके अलावा माता-पिता के प्रति तुम्हारी अनंत भक्ति है और उन वृक्षों के प्रति भी तुम्हारे हृदय में प्रेम है, जिन्होंने तुम्हारा पालन-पोषण किया है, इन्हीं कारणों से मैं तुम्हारे ऊपर अत्यधिक प्रसन्न हूँ, बोलो, तुम्हारा और क्या मनोरथ है, उसे भी मैं इसी क्षण पूरा करूँगा।’’
पिप्पलाद ने कहा, ‘‘हे महादेव ! मेरी यही इच्छा है कि मेरे माता-पिता और ये सभी वृक्ष सदा आपका दर्शन करें और आपके ही धाम में जाकर निवास करें। ये देवता भी आपकी कृपा से सुखी होकर आपके ही साथ हो जाएँ।’’
पिप्पलाद की यह बात सुनकर देवताओं ने प्रसन्न होकर कहा, ‘‘हे भद्र ! तुम धन्य हो। तुमने अपने हित की पहले चिंता न करके दूसरों के कल्याण के लिए भगवान् शंकर से वर माँगा है, इससे प्रसन्न होकर हम भी कुछ वर देना चाहते हैं।’’
पिप्पलाद ने कहा, ‘‘हे देवताओं ! यदि आप मेरा हित करना चाहते हैं, तो मेरी एक इच्छा पूर्ण करिए। मैं एक बार अपने स्वर्गीय माता-पिता को देखना चाहता हूँ। यदि आप उन्हें दिखा सकें तो आपकी अति कृपा होगी और मैं संसार में अपने आपको परम सौभाग्यशाली मानूँगा।’’
देवताओं ने सहर्ष पिप्पलाद की बात स्वीकार कर ली और उससे कहा, ‘‘हे मुनिपुत्र ! देखो, तुम्हारे माता और पिता दिव्य विमान पर चढ़कर आ रहे हैं। विषाद छोड़कर अपने मन को शांत करो और देखो, अपने पिता महर्षि दधीचि और माता गभस्तिनी से मिलो।’’
देवताओं के कहते ही एक दिव्य विमान आया। महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी उस पर बैठे हुए थे। वह विमान आकर उसी स्थान पर उतरा जहाँ पिप्पलाद खड़ा हुआ था। पिप्पलाद ने अपने माता-पिता को कभी नहीं देखा था, इसलिए वह उनको नहीं पहचान पाया और कौतूहलवश होकर उनकी ओर देखने लगा। तब स्वयं महर्षि और उनकी पत्नी ने स्नेहपूर्ण वाणी से कहा, ‘‘पुत्र, तुम्हें देखने की लालसा से हम दिव्य लोक से आए हैं। तुम हमारे बिना इस मृत्युलोक में किसी प्रकार का विषाद मत करना। सदा अपने कर्तव्य का पालन करते रहना और अपने जीवन को दूसरों के हित में ही लगाना। जो व्यक्ति केवल अपने ही स्वार्थ के लिए जीवित रहते हैं, उन अधम प्राणियों की परलोक में दुर्गति हो जाती है। परोपकारी ही सद्गति पाता है, ईश्वर तुम्हारे जीवन को सुखी रखे।’’
एक दिन की बात है, महर्षि के आश्रम पर रुद्र, आदित्य, अश्विनीकुमार, इंद्र, विष्णु यम और अग्नि आए। देवासुर संग्राम समाप्त हुआ था जिसमें देवताओं ने दैत्यों को परास्त कर दिया था। विजय के कारण सभी देवता हर्षित हो रहे थे। उन्होंने आकर यह प्रसन्नता-भरा समाचार महर्षि को सुनाया। महर्षि ने उक्त देवताओं का समुचित स्वागत किया और उनके आने का कारण पूछा।
देवताओं ने कहा, ‘‘हे भगवान् ! आप इस पृथ्वी के कल्पवृक्ष हैं। आप जैसे तपस्वी ऋषि की यदि हमारे ऊपर कृपा हो तो हमारे मार्ग में किसी प्रकार की कठिनाई उपस्थित नहीं हो सकती।
‘‘हे मुनिश्रेष्ठ ! जीवित मनुष्यों के जीवन का इतना ही फल है कि तीर्थों में स्नान, समस्त प्राणियों पर दया और आप जैसे तपस्वी महर्षि के दर्शन करें। इस समय हम दैत्यों को परास्त करके आए हैं और इसके पश्चात् आपके दर्शन करके हमारी प्रसन्नता दूनी बढ़ गई है। अब हमारे पास ये अस्त्र-शस्त्र हैं। इनका बोझ अब हम नहीं ढो सकते और यदि इन्हें ले जाकर स्वर्ग में रख भी दें तो हमारे शत्रु किसी तरह पता लगाकर कभी भी इन्हें ले जा सकते हैं, इसलिए हमारा विचार इन अस्त्र-शस्त्रों को आपके आश्रम पर ही रखने का है।
‘‘हे मुनिश्रेष्ठ ! यदि आप आज्ञा दे दें तो इन्हें हम यहीं छोड़ जाएँ। इससे अधिक उपयुक्त स्थान हमें नहीं मिल सकता, क्योंकि यहाँ से दैत्य इनको चुराकर नहीं ले जा सकेंगे।
‘‘हे भगवन् ! आपकी तपस्या के प्रभाव से आपका स्थान परम सुरक्षित है। इसलिए हम अपने अस्त्र-शस्त्रों को यहाँ छो़ड़कर निश्चिंत होकर अपने लोक को जाना चाहते हैं। आप इसके लिए आज्ञा दीजिए।’’
देवताओं की बात सुनकर महर्षि दधीचि ने अपने सरल स्वभाव के कारण कह दिया, ‘‘देवताओं ! मेरा जीवन तो सदा दूसरों के उपकार के लिए ही व्यतीत हुआ है और इसी तरह होगा। तुम अपने अस्त्र-शस्त्रों को यहाँ रख सकते हो। मुझे इसमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है।’’
जिस समय महर्षि ने यह कहा था, उस समय उनकी पत्नी भी वहाँ खड़ी थी, उसने रोकते हुए कहा, ‘‘ऐसा विरोध उत्पन्न करने वाला कार्य मत करिए स्वामी ! दैत्यों को जब पता चलेगा कि देवताओं के अस्त्र-शस्त्र हमने छिपाकर रख दिए हैं तो वे हमारे शत्रु हो जाएँगे और हर प्रकार से हमें कष्ट पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे। आपको इस बीच में पड़ने की क्या आवश्यकता है ?
‘‘हे स्वामी ! जो शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त करके परमार्थ-तत्त्व में स्थित हो चुके हैं, संसार के कार्यों में जिनकी कोई आसक्ति नहीं है, उन्हें दूसरों के लिए संकट मोल लेने से क्या लाभ ? आप सोचिए तो प्राणनाथ ! यदि इन अस्त्र-शस्त्रों में मानो कोई चोरी चला गया तो देवता भी हमारे शत्रु हो जाएँगे, उधर दैत्य हर प्रकार से इनको छीनने का प्रयत्न करेंगे। इस प्रकार व्यर्थ चित्त की शांति नष्ट होगी। फिर आप तो वेद के ज्ञाता हैं, आपको इस पराए धन से ममत्व जोड़ना किसी प्रकार उचित नहीं है। साधु पुरुष में यदि धन देने की शक्ति हो तो बिना किसी प्रकार का विचार किए उसे याचक को धन दे देना चाहिए। यदि धन देने की शक्ति न हो तो साधु पुरुष को केवल मन, वाणी तथा शारीरिक क्रियाओं के द्वारा दूसरे का उपकार करना चाहिए लेकिन पराए धन को धरोहर के रूप में अपने यहाँ रखना साधु के लिए किसी प्रकार भी उचित नहीं है। पूरी तरह परिस्थिति पर विचार करके आप देवताओं को उनके अस्त्र-शस्त्र लौटा दीजिए।’’
पत्नी की बात सुन दधीचि ने कहा, ‘‘प्रिये ! तुम्हारा कथन उचित है, लेकिन अब मैं देवताओं को वचन दे चुका हूँ। यदि अब तुम्हारे कहने से इन अस्त्र-शस्त्रों को रखने की अस्वीकृति प्रकट करूँगा तो देवताओं के हृदय में मेरे प्रति सम्मान कम हो जाएगा और अपने वचन को वापस लेकर मेरे हृदय में भी प्रसन्नता नहीं होगी। इसलिए अब तो जो कुछ हो गया वही उचित है।’’
अपने पति की यह बात सुनकर गभस्तिनी आगे कुछ नहीं बोली। देवता निश्चिंत होकर चले गए। जब दैत्यों को पता चला कि देवताओं के अस्त्र-शस्त्र महर्षि के आश्रम पर हैं तो वे अनेक प्रकार के उपद्रव मचाने लगे और महर्षि को यह शंका हो उठी कि कहीं दैत्य इन अस्त्र-शस्त्रों को चुराकर न ले जाएँ।
पूरे एक हज़ार वर्ष व्यतीत हो चुके थे। देवता किसी प्रकार का समाचार तक लेने नहीं आए थे। तब एक दिन महर्षि ने अपनी पत्नी से कहा, ‘‘प्रिये ! देवताओं को गए पूरी एक सहस्राब्दी बीत गई, अभी तक उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को आकर नहीं सँभाला। दैत्य महापराक्रमी हैं। उन्हें पता तो लग ही गया है कि देवताओं के अस्त्र-शस्त्र हमारे पास हैं, कहीं वे आकर उन्हें छीन न ले जाएँ। तब तो बड़ी विकट परिस्थिति उपस्थित हो जाएगी। उससे पहले हमारे लिए कौन-सा उचित मार्ग है, इस विषय में अपनी सम्मति प्रकट करो ?’’
उनकी पत्नी कोई उपाय सोचने लगी, लेकिन उसकी समझ में कुछ भी नहीं आया। तब महर्षि ने ही सोचकर कहा, ‘‘देवी ! यदि तुम्हारी सम्मति हो तो मैं इन सभी अस्त्र-शस्त्रों को शक्तिहीन कर दूँ ?’’
गभस्तिनी ने यह बात स्वीकार कर ली। उसी क्षण महर्षि ने मंत्रोच्चारण करते हुए उन सभी अस्त्र-शस्त्रों को पवित्र जल में नहलाया और फिर वे उस सर्वास्त्रमय परम पवित्र और तेज-युक्त जल को पी गए। तेज निकलने से सभी अस्त्र-शस्त्र शक्तिहीन हो गए। धीरे-धीरे वे नष्ट हो गए।
इसके कुछ समय पश्चात् देवता महर्षि के पास आए और उन्होंने अपने अस्त्र-शस्त्रों को वापस माँगा। देवासुर संग्राम फिर प्रारंभ हो चुका था। दैत्यों ने अपनी शक्ति बढ़ाकर देवताओं पर आक्रमण कर दिया था। देवताओं के अस्त्र-शस्त्र माँगने पर महर्षि ने कहा, ‘‘आपके अस्त्र-शस्त्र तो मेरे शरीर के अंदर स्थित हैं ! पूरी सहस्राब्दी बीत गई, तब भी आप उन्हें लेने नहीं आए। तब मैंने इस भय से कि कहीं दैत्य इनको चुराकर न ले जाएँ, उन्हें मंत्रोच्चारण के साथ पवित्र जल से स्नान कराकर और उस जल को पीकर पूरी तरह शक्तिहीन कर दिया। अब उन सभी अस्त्र-शस्त्रों का बल मेरे शरीर में पहुँच चुका है, आप लोग जैसा कहें वैसा ही मैं करूँ !’’
महर्षि की बात सुनकर देवता विनीत स्वर में कहने लगे, ‘‘हे मुनिश्रेष्ठ ! अस्त्र-शस्त्रों के बिना तो हम निस्सहाय-से असुरों के हाथों मारे जाएँगे। आप किसी प्रकार शस्त्रों का प्रबंध करिए। आप जानते ही हैं कि दैत्य महापराक्रमी हैं और अबकी बार तो उन्होंने अपार सैन्य दल एकत्रित कर लिया है। किसी प्रकार हमारी रक्षा करिए !’’
यह सुनकर दधीचि बोले, ‘‘हे देवताओं ! मेरा उद्देश्य तुम्हारा अहित करने का कभी नहीं था। अब तो तुम्हारे सारे अस्त्र-शस्त्र मेरी अस्थियों में मिल चुके हैं। यदि तुम उनको ले जाना चाहो तो ले जा सकते हो।’’
जिस समय महर्षि ने देवताओं के सामने यह प्रस्ताव रखा था, उसकी पत्नी कहीं बाहर चली गई थी। देवता उससे बहुत डरते थे। उसको वहाँ उपस्थित न देखकर उन्होंने कहा, ‘‘हे मुनीश्वर ! आप हमें अपनी अस्थियों को ही दे दीजिए, लेकिन करिए शीघ्रता।’’
दधीचि ने उसी समय समाधि लगा ली और अपने प्राण त्याग दिए। कुछ ही क्षण पश्चात् उनका शरीर निष्प्राण हो गया। यह देखकर देवताओं ने विश्वकर्मा से कहा, ‘‘हे विश्वकर्मा ! अब महर्षि की अस्थियाँ लेकर आप अनेक अस्त्र-शस्त्र बना डालिए।’’
विश्वकर्मा ने कहा, ‘‘देवताओं ! यह ब्राह्मण का शरीर है। मैं इसका उपयोग करते हुए डरता हूँ। जब केवल इनकी अस्थियाँ मात्र रह जाएँगी, तभी मैं इसमें हाथ लगाऊँगा और उनसे अस्त्र-शस्त्र का निर्माण करूँगा।’’
विश्वकर्मा के हृदय के भय को दूर करने के लिए देवताओं ने गौओं से कहा, ‘‘हे गौओ ! हम तुम्हारा मुख वज्र के समान कर देते हैं। तुम जाकर महर्षि दधीचि के निष्प्राण शरीर को विदीर्ण कर डालो और उनका अस्थिपंजर शेष छोड़कर बाकी सभी मांस को अलग कर दो।’’
देवताओं का आदेश मानकर गौओं ने जाकर महर्षि के शरीर को विदीर्ण कर डाला और केवल अस्थिमात्र ही खड़ी छो़ड़ दी। देवताओं ने प्रसन्न होकर उन अस्थियों को उठा लिया और वे उन्हें लेकर अपने लोक को चले गए।
थोड़ी देर बाद ही महर्षि की पत्नी गभस्तिनी आई। उसके हाथों में पानी से भरा कलश था और उसमें कुछ पुष्प थे। वह अपने पति के दर्शनों के लिए लालायित होकर शीघ्रता से चलकर आई थी, लेकिन आश्रम पर महर्षि को न देखकर उसके हृदय में चिंता समा गई। वह घबराकर इधर-उधर पति को खोजने लगी। उस समय वह गर्भवती थी। जब कहीं भी पति को नहीं पा सकी तो उसने अग्निदेव से पूछा,‘‘हे अग्निदेव ! मेरे पतिदेव आश्रम पर दिखाई नहीं देते, कृपा करके बताइए, वे कहाँ चले गए हैं ?’’
अग्नि ने महर्षि के प्राण त्यागने का सारा वृत्तांत गभस्तिनी को कह सुनाया। पति की मृत्यु का दुःखद समाचार सुनकर गभस्तिनी विलाप करती हुई पृथ्वी पर गिर पड़ी। उस समय पति के वियोग से उसके करुण क्रंदन को सुनकर वन के वृक्ष भी रोने लगे। अग्निदेव ने आकर उस कल्याणी को धैर्य बँधाया।
उसने रोते-रोते कहा, ‘‘मैं देवताओं को शाप देने के लिए समर्थ नहीं हूँ, इसलिए स्वयं ही अग्नि में प्रवेश करूँगी। पति के बिना इस अभिशप्त जीवन को भी रखकर क्या होगा ? मेरा सर्वस्व चला गया, अब मैं भी जाकर परलोक में पति से मिलूँगी, तभी मेरी आत्मा को शक्ति मिलेगी।
‘‘हे अग्निदेव ! मैं अपनी इस देह को आपको समर्पण करती हूँ।’’
अग्निदेव हर तरह से गभस्तिनी को समझाने लगे, लेकिन उसने प्राण त्यागने का पूरी तरह निश्चय कर लिया था। उसी समय उसने अपना पेट चीरकर गर्भ के बालक को बाहर निकाल लिया और फिर गंगा, पृथ्वी, आश्रम तथा वन के वृक्ष और लताओं को प्रणाम करके बोली, ‘‘मेरा यह बालक आपको समर्पित है। यह अभागा अपने पिता से तो हीन हो ही चुका है और अब माता से भी हीन हो जाएगा।
‘‘हे वन के वृक्षों ! इसकी रक्षा करना। तुम्हीं इसके माता-पिता हो।’’
यह कहकर महर्षि की पत्नी ने बालक को पीपल के समीप रख दिया और फिर वह स्वयं चिता जलाकर उसमें बैठ गई और अपने पति के पास दिव्य लोक को चली गई।
जब आश्रम सूना हो गया और वन के पशु तथा पक्षियों को दयालु महर्षि और उनकी पत्नी नहीं दिखाई दिए तो वे वहाँ आकर विलाप करने लगे। रह-रहकर उन्हें ऋषि और ऋषि पत्नी के मधुर व्यवहार की याद आने लगी और वे एक-दूसरे से कहने लगे, ‘‘अब हम पिता दधीचि और माता गभस्तिनी के बिना किसी प्रकार भी जीवित नहीं रह सकते। जिस स्नेहपूर्ण दृष्टि से ऋषि और ऋषि-पत्नी हमारी ओर देखा करते थे, उस तरह तो सगे माता-पिता भी नहीं देखते। हा ! हम कैसे पापी हैं कि अब उनके दर्शनों से वंचित होकर निस्सहाय-से इस वन में भटक रहे हैं। आज यह आश्रम कैसा श्मशान जैसा लग रहा है। नहीं तो ऋषि के उपस्थित रहते इसके चारों ओर वृक्षों का एक-एक पत्ता स्नेह से मुस्कराता रहता था।
‘‘हा विधाता ! संसार में वे भी कितने दुखी हैं जिनके माता-पिता स्वर्गवासी हो चुके हैं।’’
यह कहकर वे सभी उस बालक के पास आए, जिसे ऋषि-पत्नी जन्म देकर छोड़ गई थी। उन्होंने उसके लिए सब प्रकार की व्यवस्था की। वनस्पतियों और औषधियों ने लाकर उसके लिए राजा सोम से अमृत माँगा। सोम ने सहर्ष अमृत दे दिया। वनस्पतियों ने उस अमृत को लाकर बालक को दे दिया। बालक दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगा। पीपल के वृक्षों ने उसका पालन किया था, इसलिए ‘पिप्पलाद’ के नाम से वह प्रसिद्ध हुआ।
जब पिप्पलाद बड़ा हुआ तो वह अपने आपको अकेला वन में पाकर वृक्षों से कहने लगा, ‘‘हे हम वन के वृक्षो ! सभी सौभाग्यशाली बालकों के माँ-बाप उनका लालन-पालन करते हैं, लेकिन मेरे माता-पिता ने मेरा पालन-पोषण क्यों नहीं किया ? वे कहाँ चले गए हैं, कृपा करके मुझे बताओ ?’’
बालक का सरल प्रश्न सुनकर वृक्षों को फिर ऋषि-पत्नी की याद आ गई और वे दुखी होकर रोने लगे। पिप्पलाद ने कौतूहलवश होकर पूछा, ‘‘श्रेष्ठ वृक्षो ! तुम इतने दुखी क्यों होते हो ?’’
तब वृक्षों ने पिप्पलाद से ऋषि का जीवन संबंधी सारा वृत्तांत कह सुनाया। उसे सुनते ही पिप्पलाद रोने लगा और कहने लगा, ‘‘हा विधाता। तूने मुझे इस पृथ्वी पर जन्म ही क्यों दिया ? मैं कैसा अभागा हूँ कि जिन माता-पिता ने मुझे जन्म दिया, उनका ही मुख नहीं देख पाया। जिस पुत्र को माता का स्नेह न मिला हो, उसका जीवन व्यर्थ है।’’
बालक के विलाप को सुनकर वृक्षों के हृदय भी हिल उठे। वे अनेक प्रकार से उसको धैर्य बँधाने लगे, लेकिन बालक निस्सहाय-सा रोता रहा और फिर देवताओं पर क्रुद्ध होकर उसने कहा, ‘‘जिन स्वार्थी देवताओं ने मेरे पिता के प्राण लिए हैं और जो मेरी माता के भी मृत्यु का कारण बने हैं, वे आज से ही मेरे शत्रु हैं। जब तक मैं उनका वध न कर लूँगा, तब तक धैर्य लेकर नहीं बैठूँगा। इस संसार में श्रेष्ठ पुत्र वही है जो अपने पिता के शत्रु को नष्ट करने की सामर्थ्य रखता है। देवताओं को नष्ट किए बिना मेरा जीवन व्यर्थ है।’’
पिप्पलाद की यह प्रतिज्ञा सुनकर वृक्षों ने कहा, ‘‘हे सुव्रत ! तुम्हारी माता ने परलोक जाते समय यह उद्गार प्रकट किया था-जो मनुष्य दूसरों के द्रोह में लगे रहते हैं, या जो अपने कल्याण की बातें भूलकर भ्रांतचित्त होकर इधर-उधर भटकते रहते हैं, वे नरक के गर्त में जाकर गिरते हैं।’’
माता की इस बात को सुनकर पिप्पलाद ने असंतुष्ट होकर कहा, ‘‘श्रेष्ठ वृक्षों ! माता ने कुछ भी कहा हो, लेकिन जिसके अंतःकरण में अपमान की आग प्रज्वलित हो रही हो, उसके सामने साधुता की बातें करना व्यर्थ है। मैंने तो शत्रुओं का ध्वंस करने की प्रतिज्ञा कर ली है। उसे पूरा किए बिना मैं चैन से नहीं बैठ सकता।’’
यह कहकर पिप्पलाद चक्रेश्वर महादेव के स्थान पर गया और वहाँ बैठकर भगवान् शंकर की आराधना करने लगा। पिप्पलाद की आराधना से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उसे दर्शन दिया और वर माँगने के लिए कहा।
पिप्पलाद ने कहा, ‘‘हे महादेव ! मैं अपने शत्रु देवता को नष्ट करने के लिए शक्ति चाहता हूँ।’’
उसी समय भगवान् शंकर के नेत्रों से भयंकर कृत्या प्रकट हुई। उसकी आकृति बड़वा के समान थी। संपूर्ण जीवों का विनाश करने के लिए उसने अपने गर्भ में अग्नि छिपा रखी थी। मृत्यु के-से भयानक आकार वाली वह कृत्या निकलकर पिप्पलाद से कहने लगी, ‘‘हे भद्र ! बोलो, मैं तुम्हारे हित के लिए किसको नष्ट करूँ ?’’
पिप्पलाद ने कहा, ‘‘देवता मेरे शत्रु हैं, तू जाकर उन्हें ही खा जा।’’
उसी समय बड़वा के गर्भ की अग्नि प्रचंड लपटों के साथ बाहर फूट पड़ी और देवलोक की ओर चल दी। उस महाभयानक अग्नि को आते देखकर देवता भयभीत होकर निस्सहाय-से पुकारने लगे। सभी अपनी जान-बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे, लेकिन कहीं भी बचने का उपाय नहीं दिखता था। अंत में वे महादेव की शरण में गए और उन्हीं से रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे।
शरणागत देवताओं पर कृपा करके भगवान् शिव ने उन्हें अभय दे दिया और वे स्वयं पिप्पलाद के पास आकर कहने लगे, ‘‘बेटा पिप्पलाद ! देवता तुम्हारी शक्ति के कारण त्राहि-त्राहि करते फिर रहे हैं। कहीं बचने का उपाय न देखकर अंत में वे मेरी शरण में आए हैं। अब तुम मेरे कहने से इन पर अधिक रोष मत दिखाओ। सोचो तो, यदि तुम इनका नाश कर दोगे तब भी तुम्हारे माता-पिता लौटकर नहीं आएँगे और फिर सँभवतया तुम यह नहीं जानते कि महर्षि दधीचि ने तो स्वयं ही अपनी इच्छा से देवताओं के हित के लिए अपने प्राणों का त्याग किया है। ऐसे उपकारी और दयालु पिता के पुत्र होकर तुम्हारा इस प्रकार देवताओं पर क्रोध करना उचित नहीं है। संसार में वे ही पुरुष धन्य हैं जो दूसरों के हित में अपने प्राण उत्सर्ग कर देते हैं। ऐसे धर्मात्मा पिता और गभस्तिनी जैसी परम गुणवती और पतिव्रता देवी के पुत्र होकर तुम्हारे लिए इस प्रकार क्रोध करना उचित नहीं है।
‘‘बेटा ! सोचो तो, तुम्हारे पिता कैसे शक्तिशाली थे जिनकी अस्थियों से देवता सदा दैत्यों के ऊपर विजय प्राप्त करते हैं। फिर तुम्हारा भी प्रताप कम नहीं है। इसी से आज देवता स्वर्ग से भ्रष्ट होकर निस्सहाय-से मेरी शरण में आए हैं। आर्त प्राणियों की रक्षा से बढ़कर दूसरा कोई पुण्य नहीं है। क्रोध छोड़कर देवताओं की रक्षा करो। इससे पिता की भाँति तुम्हारी भी दयालुता का पारा चारों दिशाओं में फैल जाएगा।’’
भगवान् शंकर इस तरह पिप्पलाद को समझाने लगे। पिप्पलाद ने महादेव के चरणों में अपना सिर रखकर विनीत स्वर में कहा, ‘‘हे भगवान् ! जो मन, वाणी और क्रिया द्वारा सदा मेरे हित में तत्पर रहते हैं, ऐसे दयालु स्वामी ! आपको मैं नमस्कार करता हूँ। मैं देवताओं को क्षमा कर सकता हूँ देव ! लेकिन मेरी एक इच्छा है। जिन्होंने माता-पिता की भाँति मेरा पालन-पोषण किया है-उन्हीं के नाम से यह पवित्र स्थान प्रसिद्ध हो और यह पुण्य तीर्थ माना जाए। इससे मैं उनके ऋण से उऋण हो सकूँगा। यदि देवता यह स्वीकार कर लें कि पृथ्वी पर जितने भी ऐसे तीर्थ हैं, जहाँ उनकी प्रतिष्ठा होती है, उनसे अधिक माहात्म्य इस तीर्थ का होगा तो मैं अपना सारा रोष वापस ले लूँ।’’
भगवान् शंकर ने देवताओं से यह बात कही। देवताओं ने तुरंत यह स्वीकार कर लिया और वे सभी पिप्पलाद की दयालुता की प्रशंसा करते हुए अपने लोक को चले गए।
इसके पश्चात् भगवान् शंकर ने पिप्पलाद से कहा, ‘‘बेटा, तुमने मेरी बात मानकर वही कार्य किया है जो मैं चाहता था। इसके अलावा माता-पिता के प्रति तुम्हारी अनंत भक्ति है और उन वृक्षों के प्रति भी तुम्हारे हृदय में प्रेम है, जिन्होंने तुम्हारा पालन-पोषण किया है, इन्हीं कारणों से मैं तुम्हारे ऊपर अत्यधिक प्रसन्न हूँ, बोलो, तुम्हारा और क्या मनोरथ है, उसे भी मैं इसी क्षण पूरा करूँगा।’’
पिप्पलाद ने कहा, ‘‘हे महादेव ! मेरी यही इच्छा है कि मेरे माता-पिता और ये सभी वृक्ष सदा आपका दर्शन करें और आपके ही धाम में जाकर निवास करें। ये देवता भी आपकी कृपा से सुखी होकर आपके ही साथ हो जाएँ।’’
पिप्पलाद की यह बात सुनकर देवताओं ने प्रसन्न होकर कहा, ‘‘हे भद्र ! तुम धन्य हो। तुमने अपने हित की पहले चिंता न करके दूसरों के कल्याण के लिए भगवान् शंकर से वर माँगा है, इससे प्रसन्न होकर हम भी कुछ वर देना चाहते हैं।’’
पिप्पलाद ने कहा, ‘‘हे देवताओं ! यदि आप मेरा हित करना चाहते हैं, तो मेरी एक इच्छा पूर्ण करिए। मैं एक बार अपने स्वर्गीय माता-पिता को देखना चाहता हूँ। यदि आप उन्हें दिखा सकें तो आपकी अति कृपा होगी और मैं संसार में अपने आपको परम सौभाग्यशाली मानूँगा।’’
देवताओं ने सहर्ष पिप्पलाद की बात स्वीकार कर ली और उससे कहा, ‘‘हे मुनिपुत्र ! देखो, तुम्हारे माता और पिता दिव्य विमान पर चढ़कर आ रहे हैं। विषाद छोड़कर अपने मन को शांत करो और देखो, अपने पिता महर्षि दधीचि और माता गभस्तिनी से मिलो।’’
देवताओं के कहते ही एक दिव्य विमान आया। महर्षि दधीचि और उनकी पत्नी उस पर बैठे हुए थे। वह विमान आकर उसी स्थान पर उतरा जहाँ पिप्पलाद खड़ा हुआ था। पिप्पलाद ने अपने माता-पिता को कभी नहीं देखा था, इसलिए वह उनको नहीं पहचान पाया और कौतूहलवश होकर उनकी ओर देखने लगा। तब स्वयं महर्षि और उनकी पत्नी ने स्नेहपूर्ण वाणी से कहा, ‘‘पुत्र, तुम्हें देखने की लालसा से हम दिव्य लोक से आए हैं। तुम हमारे बिना इस मृत्युलोक में किसी प्रकार का विषाद मत करना। सदा अपने कर्तव्य का पालन करते रहना और अपने जीवन को दूसरों के हित में ही लगाना। जो व्यक्ति केवल अपने ही स्वार्थ के लिए जीवित रहते हैं, उन अधम प्राणियों की परलोक में दुर्गति हो जाती है। परोपकारी ही सद्गति पाता है, ईश्वर तुम्हारे जीवन को सुखी रखे।’’
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