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मीर

रामनाथ सुमन

प्रकाशक : भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशित वर्ष : 2024
पृष्ठ :294
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4902
आईएसबीएन :9789357759618

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प्रस्तुत है मीर...

Meer

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

उर्दू-काव्य से मीर को निकाल दीजिए तो जैसे गंगा को हिन्दुस्तान से निकाल दिया ! मीर में अनुभूति की गहराइयाँ तड़पती हैं, वहां दिल का दामन आँसुओं से तर है। मीर में एक अजीब-सी खुदफ़रामोशी है, एक बाँकपन, एक अकड़, एक फ़क़ीरी तथा ज़बान की वह घुलावट है, जो किसी दूसरे को नसीब नहीं हुई।

बिना डूबे मीर को पाना मुश्किल है। ‘सहल है मीर को समझना क्या, हर सुख़न उसका एक मुकाम से है’। सर्वांगीण समीक्षा के साथ इस पुस्तक में मीर नज़दीक से व्यक्त हुए हैं। सुमनजी लगभग चालीस वर्षों तक उर्दू-काव्य के गहन अध्येता रहे। उनमें गहरी पकड़ थी, वह कवि के मानस में उतरते थे।
मीर के इस अध्ययन को, सुमनजी की पैनी दृष्टि से गुज़र कर आया है, पढ़कर आपको मीर के सम्बन्ध में उर्दू में कुछ पढ़ने को नहीं रह जाता, क्योंकि इसमें मीर पर हुए सम्पूर्ण अद्यतन श्रम का समावेश है। प्रस्तुत है पुस्तक का नया संस्करण।

 

मेरी बात

 

आज से 33 वर्ष पूर्ण मैंने हिन्दी पाठकों को उर्दू काव्य का परिचय देने का निश्चय किया था। तब हिन्दी में उर्दू काव्य की आवभगत न थी, जैसी आज है। ‘मीर’, और ‘जिगर’ (जो उन दिनों उठ रहे थे) पर दो पुस्तकें लिखीं। वे छपीं। उनका आदर हुआ। फिर राजनीति के झंझा-वात से मेरा जीवन अस्थिर हो गया। इस प्रान्त से उस प्रान्त, उस प्रान्त से इस प्रान्त, कभी यहां कभी वहाँ, कभी जेल कभी बाहर फिरता रहा। वह निश्चय दब गया। वह क्रम टूट गया, यद्यपि अध्ययन-विशेष कवियों का—चलता रहा।

और आज तक टूट रहा है। इधर उर्दू कवियों पर, उर्दू शायरी पर कई किताबें देखने में आई। पर कोई ऐसा ग्रन्थ न देखा जिसे पढ़कर एक विशेष कवि या कालका सम्पूर्ण वैभव हमारे सामने आ जाय, जिसे पढ़कर उस विषय पर उर्दू में पढ़ने को न रह जाय, जिससे अब तक के शोध कार्य का सम्पूर्ण सार आ गया हो; जिसमें कवि की मर्मभावना में पैठकर उसके हृदय को उसकी भावराशि को हमारे हृदय से जोड़ दिया गया हो, सम्बद्ध कर दिया गया हो। कम से कम मेरी प्यास, नहीं बुझी। मैं प्यासा ही रहा। स्वभावतः मैं समझता हूँ कि और भी लोग, मेरी तरह, प्यासे होंगे।

मेरे एक पुराने मित्र मिल गए। यूँ ही बातें चल पड़ीं। उन्होंने मेरे उर्दू कवियों-सम्बन्धी उन दो पुरानी पुस्तकों की चर्चा की और यह भी बताया कि स्व. ओड़छा नरेश उन पर मुग्ध थे और सदा अपने शयनकक्ष में तकिये के नीचे रखते। उन्होंने कहा कि महाराज ने कई बार उनका ज़िक्र किया कि यह है जो कवि का कलेजा काग़ज़ पर निकालकर रख देता है। उसको मिलाओ, मैं कहूँगा कि ऐसा ही कुछ लिखे।
इसमें प्रकारान्त से मेरी प्रशंसा है पर मैंने अपनी प्रशंसा की दृष्टि से इसे नहीं लिखा। प्रसंगवश लिखा है। इसलिए लिखा है कि महाराज जैसे और भी हैं जो कवि के अन्तर में पैठनेवाली कलम को देखने-पाने के अभिलाषी हैं। इस चर्चा से मेरा निश्चय दृढ़ हो गया। 33 वर्ष पूर्व ‘मीर’ पर जो कुछ लिखा था मीर’ हिन्दी जगत में रख रहा हूँ। मीर उर्दू शायरी के खुदा कहे गये हैं। उर्दू गज़ल प्राचीन कवियों में वह बेजोड़ हैं। कोई उन तक नहीं पहुँचा। ग़ालिब, ज़ौक़, सौदा सब स्वीकार करते हैं। इसलिए पहिले उन्हें ही लिया। जिसमें उनके सम्बन्ध में अद्यतन शोध का तत्त्व भी है और वह सब भी है जिस पर महाराज मुग्ध थे।

इसके बाद मेरा विचार ‘ग़ालिब’ पर लिखने का है जिसका अध्ययन मैं वर्षों से करता रहा हूँ, और जिन पर कई पुस्तकें निकलने के बाद भी मेरे निश्चय के चरण दृढ़ होते गये हैं; मैं अब भी उसकी उतनी ही आवश्यकता अनुभव करता हूँ। दिल एवं दिमाग़ की मजबूरियाँ हैं।

पुस्तक लिखने में मैंने अनेक ग्रन्थों की सहायता ली है। इनका तथा इनके प्रणेताओं का ज़िक्र अन्यत्र किया गया है। मैं उनका कृतज्ञ हूँ। डा. फ़ारुक़ी, मौलवी ‘आसी’ तथा डा. अब्दुलहक़ का विशेष आभार मानता हूँ। उर्दू में डा. फ़ारुक़ीका का शोध ग्रन्थ, अपनी कुछ खामियों के साथ भी, काफ़ी प्रामाणिक है और मैंने उससे पर्याप्त प्रेरणा एवं सहायता ली है।
चित्र दे सका हूँ।
और अगली मुलाक़ात तक बस।

 

श्री रामनाथ ‘सुमन

 

मीर : जीवन-प्रवाह

 

मीर की वंश-परम्पराः

 

इनका पूरा नाम था ‘मीर तक़ी’; ‘मीर’ इनका तख़ल्लुस (उपनाम) था इनके पूर्वजों एवं इनके पिता के विषय में जो बातें इधर-उधर मिलती हैं, उनमें परस्पर अन्तर है। परन्तु हमारे सौभाग्य से मीर-द्वारा फारसी गद्य में लिखित सौभाग्य से मीर-द्वारा फारसी गद्य में लिखित आत्मचरित

 ‘ज़िक्रेमीर’1 प्राप्त है। उनकी एक दूसरी फारसी पुस्तक ‘नकातुश्शअरा’ भी है जिसमें बहुत-सी बातें मिल जाती हैं। ‘ज़िक्रेमीर’ के अनुसार इनके पूर्वज हेजाज़ के रहनेवाले थे। ज़माने की कठिनाइयों से तंग आकर वे लोग, अपने क़बीले के साथ, भारत के दक्षिण प्रदेश में आये। वहाँ से अहमदाबाद (गुजरात) पहुँचे। कुछ वहीं रह गये और कुछ जीविका की खोज में आगे बढ़े और अकबराबाद (आगरा) आये तथा वहीं बस गये।

इनके परदादा भी इसी प्रकार आगरा आये। पर वहाँ की जलवायु उनके अनुकूल न हुई; बीमार पड़ गये और बीमारी में ही इस संसार से विदा हो गये। वह एक पुत्र छोड़ गये थे। यही मीर के दादा थे। बड़ी-बड़ी कठिनाइयाँ उठाकर दादा ने अकबराबाद (आगरा) की फ़ौजदारी प्राप्त की। अब आराम से कटने लगी। पर लगभग 50 वर्ष की आयु में वह बीमार पड़े। पूर्णतः नीरोग होने के पूर्व ही उन्हें ग्वालियर जाना पड़ा और वहीं कुछ दिनों बाद, उन्होंने देह त्याग दी। दादा का नाम रशीद था।
दादा के दो बेटे थे। बड़े विक्षिप्त थे और भरी जवानी में मर गये। छोटे ने दो शादियाँ कीं जिनसे कई सन्तानें हुईं पर बाद में उन्होंने फ़क़ीरी ले
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1.    ‘ज़िक्रेमीर’ —अब यह पुस्तक ‘अंजुमन तरक्क़िए उर्दू’ द्वारा प्रकाशित कर दी गयी है।
ली और संसार में रहकर भी संसार का त्याग कर दिया। यही ‘मीर’ के पिता थे।

 

पिता का नाम क्या था ? :

 

समकालिक एवं परवर्ती लेखकों में ‘मीर’ के पिता के नाम को लेकर बड़ा मतभेद है। कुछ ने उनका नाम मीर अब्दुल्ला1, कुछ ने मुहम्मद मोतक्क़ी2, और कुछ ने मीर मोहम्मदअली3 माना है। पर सब बातों पर विचार करने से अन्तिम नाम मीर मोहम्मदअली ही ठीक जान पड़ता है। सन्तोषी एवं साधु स्वभाव होने के कारण ही लोग उन्हें ‘मोतक्क़ी’ कहने लगे थे।

 

पिता और उनके द्वारा प्रदत्त संस्कार :

 

मीर के पिता साधु पुरुष थे। उनकी दो शादियाँ हुई थीं। पहली पत्नी फारसी भाषा के लब्धप्रतिष्ठ लेखक और प्रकाण्ड पण्डित सिराजुद्दीन अलीखाँ ‘आरजू’ की बहिन थीं; दूसरी के नाम-धामका पता नहीं चलता पर मीर दूसरी पत्नी की सन्तान थे। इस प्रकार ‘आरजू’ इनके मामा लगते थे। पिता ईश्वर के ध्यान में सदा लीन रहते थे। वह प्रेमी और भक्त थे। उन्होंने शाह कलीमुल्ला अकबराबादी
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1.    सआदत ख़ाँ ‘नासिर’ ने अपने ग्रंथ ‘तज़किरा खुशमार्का ज़ेबा’ में, हकीम अब्दुल हईन ‘साहिबे गुलेराना’ में, मुहम्द हुसेन आज़ाद ने ‘आबे हयात’ में और ब्लूमहार्ट ने अपनी इण्डिया आफिस की सूची में मीर अब्दुल्ला नाम ही दिया है। 1926 में जब मेरी पुस्तक कविरत्न ‘मीर’ प्रकाशित हुई तो मैंने भी यही नाम दिया था। श्री अब्दुलवारी ‘आसी’ का कहना है कि अली मोतक़्क़ी गुरु-प्रदत्त उपनाम था।

2.    बीलने अपनी ‘ओरियंटल बायाग्राफिकल डिक्शनरी’ में तथा डा. अब्दुल हक़ ने ‘मुक़द्दमा जिक्रे मीर’ में यही नाम माना है।
3.    ‘ज़िक्रेमीर’ (पृ.62) में मीर बासित के पूछने पर कि किसके लड़के हो मीर स्वयं जवाब देते हैं—‘‘अज़ मीर मोहम्मद अली अस्त।’’
(मृत्यु. 1697 ई.) से ज्ञान प्राप्त किया था। उन्हीं के पथ-दर्शन में बड़ी-बड़ी साधनाएँ कीं। मीरने लिखा है कि वह सदा यादे इलाही1 में मसरूफ़2 रहते थे। जब उनकी तबीयत शगुफ़्ता3 होता तो फरमाते कि ‘‘बेटा ! इश्क4 इख्तियार5 करो कि इश्क ही इस कारखाना6 पर मुसल्लत7 है। अगर इश्क न होता तो यह तमाम निजाम8 दरहरम-बरहरम9 हो जाता। बेइश्क़ के ज़िन्दगानी वबाल है

और इश्क में दिल खोना असले कमाल10 है। इश्क ही बनाता है और इश्क ही बिगाड़ता है।’’
पिता जब कभी प्रेम-विह्वल या भावाविष्ट होते तो कहते कि ‘आलम11 में जो कुछ है इश्क का जहूर है। आग सोजे इश्क12 है, पानी रफ्तारे-इश्क13 है, ख़ाक क़रारे-इश्क14 है, हवा इजरारे-इश्क़15 है ! मौत इश्क की मरती है, हयात इश्क की होशियारी है, रात इश्क का ख्याब16 है, दिन इश्क की बेदारी17 है। तवक्क़ा18 क़ुर्वे इश्क19 है, गुनाह बआदे इश्क20 है; बिहिश्त21 इसका शौक़22 है,...और मुकामे इश्क तो अबूदियत, असरफियत, ज़ाहिदियत, सदीक़ियत, खुलूसियत, मुश्ताक़ियत और हबीबियत23 से बुलन्द24 और बरतर25 है।’’

बाद के दिनों में तो इनकी हालत सन्त या सूफ़ी की-सी हो गयी थी। ज़मीन पर पड़े-पड़े न जाने क्या सोचते। ‘‘दिन में खोये-खोये से रहते और रात को उपासना में तल्लीन हो जाते26।

1.भगवत्-स्मरण 2. तल्लीन, 3. प्रफुल्ल, 4 प्रेम, 5. ग्रहण, 6 जगत्से अभिप्राय है, 7. अच्छादित, 8 व्यवस्था, 9 छिन्न-भिन्न, 10. साधनातत्व, 11. संसार, 12. प्रेम की जलन, 13. प्रेम की गति, 14 प्रेम की स्थिरता, 15 प्रेम की बेचैनी, 16, स्वप्न, 17 जागरण, 18 निस्पृहता, सन्तोष, 19. प्रेम का सान्निध्य,, 20, प्रेम का उल्लंघन, 21. स्वर्ग, 22 प्रेम की आकांक्षा, 22 ईश्वर-साधना की विभिन्न अवस्थाएँ, 24 उच्च, 25 श्रेष्ठ, 26 ‘‘रोज़ हैरांकार, शब ज़िन्दादार, अक्सर रुये नियाज़ बर ख़ाक।

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