लोगों की राय

प्रवासी >> रिश्तों के रंग

रिश्तों के रंग

दर्शन सिंह धीर

प्रकाशक : स्वास्तिक प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2007
पृष्ठ :148
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4929
आईएसबीएन :81-88090-11-5

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

445 पाठक हैं

अमेरिकी जीवन की विसंगतियों पर आधारित उपन्यास....

Rishton Ke Rang

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

ढोल

दिलीप कुमार भी काम पर जाता और उसका पड़ोसी गोरा भी। फिर गोरा, जो कौशल के मकान में रहता था, किसी और इलाके में चला गया और कौशल ने वह मकान लट्टन नामक ज़मींदार को एलाट कर दिया। वह बेकार था।
गर्मी का मौसम अभी शुरू हुआ था। दिलीप शाम को काम पर से आता तो लट्टन आँगन मे गार्डन कुर्सी डाले आराम से धूप सेंक रहा होता। अखबार उलट-पुलट रहा होता, या क्रॉस वर्ड्स भर रहा होता।
कभी-कभी कुर्सी के आगे एक छोटी मेज रखी होती। आराम से मेज पर लातें पसारे वह बीयर का डिब्बा मुँह से लगाए बीयर पी रहा होता। साथ-ही-साथ आँखें मूँदे धूप का मजा ले रहा होता। एक-दो खाली डिब्बे इधर-उधर लुढ़के पडे होते। दो-तीन मेज पर पडे़ होते।
लट्टन कभी बहुत उदास दिखाई पड़ता, कभी बहुत खुश। दिलीप उसको उदासी में डूबे हुए देखता तो उसका दिल तरस से भर जाता। वह बेबस होकर सोचने लग जाता—इतनी महँगाई में काम करने वालो को भी तंगी घेर लेती है। यह बेचारा तो बेकार है। इसीलिए इतना उदास है,दुखी है। पाँच बच्चे.एक पत्नी और एक आप है।
एक दिन दिलीप काम से लौटा तो लट्टन दरी बिछाए लेटा हुआ था। बीयर के नशे मे ऊटपटाँग गा रहा था। गाना बंद किया तो सीटी के साथ-साथ चुटकियाँ बजाने लगा। फिर यूँ ही पागलों की तरह उछल-कूद मचाने लगा। दिलीप उसकी इस हालत को देख कर सोचने लग गया—यह सब अस्थिर मन की निशानियाँ हैं। ग़म और विचारो, चिन्ताओं से बाहर निकलने के प्रयत्न। इस अहसास के साथ दिलीप का दिल तरस से भर गया। उसका मन करने लगा कि वह् अपने पड़ोसी से पूछे कि मैं अपनी फाउंडरी में तेरे लिये काम ढूढ़ने की कोशिश करू? पर वह पूछने की हिम्मत न कर सका। ‘सद्दी न बुलाई मैं लाडे दी ताई’ के अहसास ने उसकी चाहत को दबोच दिया। वह चुपचाप अपने घर आ गया।

इसी तरह दिन बीत रहे थे कि धीरे-धीरे दिलीप और लट्टन एक दूसरे को हैलो-हैलो कहने लगे। शुभ दिन और शुभ रात्रि की कामना करने लगे। एक दिन दिलीप ने हिम्मत करके पूछ ही लिया,"मिस्टर लट्टन! लगता है तुम खाली बैठे हो?"
"एस मान।" उसने बहुत स्वाभिमान से कहा।
"काम ढूँढ़ने की कहीं कोशिश नही की?"
"नो मान।" उसने बहुत लापरवाही से कहा।
"क्यों?"
"मेरी मर्जी।"
"तुम्हारा गुजारा कैसे होता है?"
दिलीप से यह प्रश्न सुनते ही लट्टन खिलखिला कर हँस पड़ा। वह कितनी ही देर तक मक्का के दाने की तरह खिलखिलाता रहा। फिर हँसते-हँसते उसने पूछा,"तेरा गुजारा कैसे होता है?"
"मैं तो काम करता हूँ।" दिलीप ने बहूत ही फक्र से कहा।
"हूँ।" और फिर वह बात पलट कर बोला, "तेरे घर में सर्दियों में घर गर्म रखने के लिये क्या प्रबन्ध है?"
"गैस का हीटर।"
"तो मेरा तुझसे कहीं अच्छा प्रबन्ध है क्योकि मेरे घर में सेंट्रल हीटिंग का
इन्तजाम है। तेरे घर में टेलीविजन तो रंगीन होगा?"
"नहीं, ब्लैक एण्ड व्हाइट है।"

"रंगीन टेलीविजन पर फिल्म बहुत सुन्दर लगती है। देखनी हो तो मेरे घर आ कर देख सकते हो।"
"रंगीन टेलीविजन और सेंट्रल हीटिंग जैसी महँगी और ऐशोआराम वाली चीजें तुम अफोर्ड कैसे कर सकते हो?"
"जीते रहें सोशल सिक्योरिटी वाले लोग या फिर तुम जैसे लोग..." और फिर वह बात सँभालते हुए कहने लगा, "मिस्टर कुमार! कुछ लोगों के भाग्य में केवल काम करना ही लिखा होता है, कुछ की किस्मत में केवल ऐश करना। यह सब किस्मत की बाते हैं, वरना कौन नहीं ऐश करना चाहता?" और वह खीं-खीं करता हुआ दूसरी ओर खिसक गया। बेचारगी की स्थिति में दिलीप अपने घर आ गया।
इस घटना से दिलीप के विचारों को बहुत धक्का लगा। वह सोचने लगा, मैं रेंत की तरह उड़ती हुई बर्फ से लथपथ हुआ, पत्थर बनी बर्फ से गिरता-पड़ता और पाले से ठिठुरता हुआ काम पर झाता हूँ। पैरों में कभी-कभी मोजे़ और हाथों में मोटे-मोटे दस्ताने होने के बावजूद हाथ-पैर ठंड से सफेद पड़ जाते हैं। शरीर सुन्न हो जाता है। पाले से टूटा हुआ तन कहना नहीं मान रहा होता, हाथ औजार नहीं पकड़ रहे होते, पर फिर भी काम करना पड़ता है। और यह महाराज उस समय सेंट्रल हीटिंग की गर्मी में मोढ़े पर बैठे ऊँघ रहे होते हैं। मैं बरसते पानी में छपक-छपक करता घर और फाउंडरी के रास्ते में धक्के खा रहा होता हूँ, और यह आराम से फ्रंट रूम की खिड़की के पास खड़ा होकर झरती हुई बूँदों का आनन्द ले रहा होता है।

मैं मशीन के साथ घुलता पसीना-पसीना होता हूँ, आग की तरह जलते बक्सों के साथ जलता हूँ और यह रईसजादा आराम से कुर्सी पर बैठा धूप सेंकता हुआ ठण्डी बीयर पीता है। धूप में बीयर के सुरूर से ऊँघता है। मस्त होकर सीटी बजाता है। गाता है, रेडियो सुनते-सुनते दैनिक समाचार-पत्र की सुर्खियाँ देखता है।
मेरा दिल भी खिलखिलाते हु्ए गुनगुने दिन के साथ नशियाना चाहता है। मैं भी चाहता हूँ फ्रंट रूम की खिड़की पर खड़े होकर झरती हुई बूँदों का आनन्द लूँ। मैं भी चाहता हूँ कि गर्मी की ऋतु में लॉन में कुर्सी डाल कर आराम से बीयर पियूँ। पर मैं ऐसा नही कर सकता।
मैं क्यों बर्फ के साथ बर्फ बना काम पर जाता हूँ? क्यों फाउंडरी की आँच में जलता हूँ? क्यों राख के साथ राख होता हूँ? क्यों एक तिहाई से भी ज्यादा कमाई सरकार की झोली में डालता हूँ? फिर वह अपने ही सवालों के उत्तर स्वयं ही देता है जिससे कि लट्टन जैसे खाली लोग मेरी लहू-पसीने की कमाई से ऐश ही न करें मगर...

सोचते-सोचते उसकी विचारधारा का रूख बदल गया—यदि लट्टन सरकार से बेकारी–भत्ता लेकर ऐश कर सकता है, तो मैं भी क्यों नहीं कर सकता? मैं क्यों अपना आपा नष्ट करूँ? मुझे क्या जरूरत पड़ी है?
उसी समय उसके भीतर कोई बोल उठता है—शुरू से ही मूर्खो के सहारे चतुर ऐश करते आए हैं। बुद्धू धोबी के गधे की तरह चुपचाप काम करते रहते हैं, अपना शरीर खपाते रहते हैं, और खाली लोग ऐश करते रहते हैं।
अंत में दिलीप ने भी बुद्धुओं की कतार में से निकलकर चालाकों की पंक्ति में पैर रखने का मन बना लिया। वह इन्हीं विचारों में डूब-उतरा रहा था कि अन्य फाउंडरियों-फैक्ट्रियों की तरह उसकी फैक्ट्री में भी छटनी हो गई। उसने झट पैसे लेने के लिये अपना नाम दे दिया। उसकी सत्रह साल की नौकरी थी। इसलिए कंम्पनी ने उसे छ:हजार पौंड सेवा फल दे दिया। इससे उसका सिर चकरा गया। वह एक साधारण कामगर के स्थान पर अपने को पैसे वाला अमीरजादा समझने लगा।
पैसे मिलते ही वह घर में गैस-हीटर की जगह सेंट्रल हीटिंग ले आया।

प्रथम पृष्ठ

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai