उपन्यास >> मालिनी के वनों में मालिनी के वनों मेंश्रीनिधि सिद्धान्तालंकार
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प्रस्तुत है जंगल साहित्य....
Malini Ke Vanon Main
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
मालिनी के वनों की यात्रा लेखक ने कण्वाश्रम ढूँढ़ने के लिए की थी। किन्तु यात्रा में उन्हें अनोखे, खट्टे-मीठे अनुभव हुए। भयंकर हिंसक जन्तुओं से मुठभेड़ हुई, तो उन्हें कुछ भग्नावशेष भी प्राप्त हुए। इन सबका मनोरंजक और ज्ञानवर्धक वर्णन उन्होंने इस पुस्तक में किया है।
‘मालिनी के वनों में’ उपन्यास से भी अधिक रोचक और कविता से भी अधिक कोमल भावनाओं को अपने में संजोए एक विद्वान अधिकारी की बेजोड़ कृति है।
हिन्दी में जंगल साहित्य का अत्यन्त अभाव है। जो जंगल साहित्य उपलब्ध है वह भी स्वस्थ या रोचक नहीं कहा जा सकता। आखेट हमारे उदय और विकास का प्रथम चरण है, पहला अध्याय है। लेखक इस पाठ को वनों की गोद में जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों के साथ सीखा था और इस सहकर्म को हम भूल नहीं सकते, आज भी उसका अपना एक विशेष स्थान है।
लेखक जब मालिनी के तट पर घूम रहे थे, तब उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण स्थान खोज निकाला। वह स्थान था महिर्षि कण्व का आश्रम, जिसका वर्णन हमारे प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। लेकिन आज जो वर्तमान साहित्य हमारे सामने है उसमें कहीं भी उसका स्पष्टीकरण नहीं हो पाता। इस अभाव की पूर्ति के लिए लेखक ने कई बार मालिनी के तटों की यात्रा की और सही तथ्य ढूँढ़कर इस महत्त्वपूर्ण स्थान की घोषणा भी कर दी।
यह वही स्थान है जहाँ कण्व-दुहिता का छात्र जीवन व्यतीत हुआ। शाकुन्तल वर्णित मालिनी के इस सौन्दर्य को लेकर महाकवि कालिदास ने भारत का छः सहस्र वर्ष पूर्व का इतिहास लिखा था।
कण्वाश्रम के इस स्थान के सम्बन्ध में अनेक वाद-विवाद भी हुए, किन्तु लेखक की स्थापना के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इन्हीं के बताए इस यथार्थ स्थान को स्वीकार कर लिया और वहाँ एक स्मारक की स्थापना भी कर दी गई।
मालिनी के वनों की यात्रा लेखक ने कण्वाश्रम ढ़ूँढ़ने के लिए की थी। किन्तु यात्रा में उन्हें अनोखे, खट्टे-मिठे अनुभव हुए। भयंकर हिंसक जन्तुओं से मुठभेड़ हुई तो उन्हें कुछ भग्नावशेष भी प्राप्त हुए। इन सबका मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक वर्णन इस पुस्तक में किया गया है।
‘मालिनी के वनों में’ उपन्यास से भी अधिक रोचक और कविता से भी अधिक कोमल भावनाओं को अपने में संजोए एक अधिकारी विद्वान की बेजोड़ कृति है।
लुकाधड़ी के प्राचीन भग्नावशेषों से प्राप्त प्रस्तर-स्तम्भ, जिसमें शिकारी को कान तक खींचे धनुष से, एक क्रोधी वराह पर बाण छोड़ते हुए दिखाया गया है। चित्र को देखकर बरबस ही ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’ का यह वाक्य स्मरण हो आता है-‘ अयं मृगः, अयं वराहः, अयं शार्दूल इति मध्यान्हे ऽपि ग्रीष्म-विरल-पादपच्छायासु वनराजिषु आहिण्डय्त अटवीतः अटवी।’
धर्मपत्नी इन्दुमती को जिन्हें सघन अरण्यानी भीषण श्वापद एवं वन सौन्दर्य के दर्शन अति प्रिय हैं; जो कठिन वन-यात्राओं में भी विश्वस्त सहचरी के रूप में मेरा साथ निरन्तर देती आ रही हैं; और, इसीलिए महाकवि कालिदास का अधोलिखित वाक्य जिनके सम्बन्ध में खूब सार्थक हुआ है- ‘गृहिणी सचिवः सखी मिथः’
‘मालिनी के वनों में’ उपन्यास से भी अधिक रोचक और कविता से भी अधिक कोमल भावनाओं को अपने में संजोए एक विद्वान अधिकारी की बेजोड़ कृति है।
हिन्दी में जंगल साहित्य का अत्यन्त अभाव है। जो जंगल साहित्य उपलब्ध है वह भी स्वस्थ या रोचक नहीं कहा जा सकता। आखेट हमारे उदय और विकास का प्रथम चरण है, पहला अध्याय है। लेखक इस पाठ को वनों की गोद में जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों के साथ सीखा था और इस सहकर्म को हम भूल नहीं सकते, आज भी उसका अपना एक विशेष स्थान है।
लेखक जब मालिनी के तट पर घूम रहे थे, तब उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण स्थान खोज निकाला। वह स्थान था महिर्षि कण्व का आश्रम, जिसका वर्णन हमारे प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। लेकिन आज जो वर्तमान साहित्य हमारे सामने है उसमें कहीं भी उसका स्पष्टीकरण नहीं हो पाता। इस अभाव की पूर्ति के लिए लेखक ने कई बार मालिनी के तटों की यात्रा की और सही तथ्य ढूँढ़कर इस महत्त्वपूर्ण स्थान की घोषणा भी कर दी।
यह वही स्थान है जहाँ कण्व-दुहिता का छात्र जीवन व्यतीत हुआ। शाकुन्तल वर्णित मालिनी के इस सौन्दर्य को लेकर महाकवि कालिदास ने भारत का छः सहस्र वर्ष पूर्व का इतिहास लिखा था।
कण्वाश्रम के इस स्थान के सम्बन्ध में अनेक वाद-विवाद भी हुए, किन्तु लेखक की स्थापना के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने इन्हीं के बताए इस यथार्थ स्थान को स्वीकार कर लिया और वहाँ एक स्मारक की स्थापना भी कर दी गई।
मालिनी के वनों की यात्रा लेखक ने कण्वाश्रम ढ़ूँढ़ने के लिए की थी। किन्तु यात्रा में उन्हें अनोखे, खट्टे-मिठे अनुभव हुए। भयंकर हिंसक जन्तुओं से मुठभेड़ हुई तो उन्हें कुछ भग्नावशेष भी प्राप्त हुए। इन सबका मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक वर्णन इस पुस्तक में किया गया है।
‘मालिनी के वनों में’ उपन्यास से भी अधिक रोचक और कविता से भी अधिक कोमल भावनाओं को अपने में संजोए एक अधिकारी विद्वान की बेजोड़ कृति है।
लुकाधड़ी के प्राचीन भग्नावशेषों से प्राप्त प्रस्तर-स्तम्भ, जिसमें शिकारी को कान तक खींचे धनुष से, एक क्रोधी वराह पर बाण छोड़ते हुए दिखाया गया है। चित्र को देखकर बरबस ही ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’ का यह वाक्य स्मरण हो आता है-‘ अयं मृगः, अयं वराहः, अयं शार्दूल इति मध्यान्हे ऽपि ग्रीष्म-विरल-पादपच्छायासु वनराजिषु आहिण्डय्त अटवीतः अटवी।’
धर्मपत्नी इन्दुमती को जिन्हें सघन अरण्यानी भीषण श्वापद एवं वन सौन्दर्य के दर्शन अति प्रिय हैं; जो कठिन वन-यात्राओं में भी विश्वस्त सहचरी के रूप में मेरा साथ निरन्तर देती आ रही हैं; और, इसीलिए महाकवि कालिदास का अधोलिखित वाक्य जिनके सम्बन्ध में खूब सार्थक हुआ है- ‘गृहिणी सचिवः सखी मिथः’
प्रकाशकीय
हिन्दी में जंगल-साहित्य का अत्यन्त अभाव है। जो जंगल-साहित्य उपलब्ध है वह भी स्वस्थ या रोचक नहीं कहा जा सकता। आखेट हमारे उदय और विकास का प्रथम चरण है, पहला अध्याय है। हमने इस पाठ को वनों की गोद में जीव-जन्तुओं और पशु-पक्षियों के साथ सीखा था और इस सहकर्म को हम भूल नहीं सकते, आज भी उसका अपना एक विशेष स्थान है।
प्रस्तुत पुस्तक हमारी जंगल-साहित्य-माला का तीसरा पुष्प है। इसके लेखक श्रीनिधि सिद्धान्तालंकार बीहड़ वनों, वीरान जंगलों, नरभक्षकों और उनके ही सहजातियों के बीच रहे हैं, रहते हैं और उनसे जो कुछ भी सीखा है, देखा या परखा है, उसको उन्होंने साहित्यिक तथा रोचक शैली में ‘मालिनी के वनों में’ में सजा दिया है। यह पुस्तक हिन्दी के पाठकों को भेंट करते हुए हम हर्ष और गर्व का अनुभव करते हैं। गर्व इसलिए कि लेखक का और हमारा परिश्रम हिन्दी के जंगल-साहित्य के एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति करेगा।
‘मालिनी के वनों में’ लेखक की दूसरी पुस्तक है। पहली पुस्तक ‘शिवालक की घटियों में’ प्रकाशित हो चुकी है, जो बहुप्रशंसित हुई तथा पुरस्कृत भी। अपनी इसी पुस्तक में उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण तथा खोजपूर्ण लेख लिखा, जिसमें कण्वाश्रम की विशेष चर्चा की थी। आज से लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व श्रीनिधि सिद्धान्तालंकार जब मालिनी के तट पर घूम रहे थे, तब उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण स्थान खोज निकाला, यह था महिर्षि कण्व का आश्रम, जिसका वर्णन हमारे प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। लेकिन आज जो वर्तमान साहित्य हमारे सामने है उसमें कहीं भी इसका स्पष्टीकरण नहीं हो पाता। इस अभाव की पूर्ति के लिए उन्होंने चौथी बार फिर यात्रा की, और सही तथ्य ढूँढ़कर इस महत्त्वपूर्ण स्थान की घोषणा भी कर दी।
यह वही स्थान है जहाँ कण्व-दुहिता का छात्र जीवन व्यतीत हुआ। शाकुन्तल वर्णित मालिनी के इसी सौन्दर्य को लेकर महाकवि कालिदास ने भारत का छः सहस्त्र वर्ष पूर्व का इतिहास लिखा था।
अभी हाल में कण्वाश्रम के इस स्थान के सम्बन्ध में अनेक वाद-विवाद भी हुए; किन्तु श्रीनिधि की स्थापना के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हीं के बताए इस यथार्थ स्थान को स्वीकार कर लिया और वहाँ एक स्मारक की स्थापना भी कर दी गई।
मालिनी के वनों की यात्रा लेखक ने कण्वाश्रम ढूँढ़ने के लिए की थी। किन्तु यात्रा में उन्होंने अनोखे, खट्टे-मीठे अनुभव हुए। भयंकर हिंसक जन्तुओं से मुठभेड़ हुई, तो उन्हें कुछ भग्नावशेष भी प्राप्त हुए। इन सबका मनोरंजक और ज्ञानवर्धक वर्णन उन्होंने इस पुस्तक में किया है।
‘मालिनी के वनों में’ उपन्यास से भी अधिक रोचक और कविता से भी अधिक कोमल भावनाओं को अपने में सँजोये एक अधिकारी विद्वान की बेजोड़ कृति है।
प्रस्तुत पुस्तक हमारी जंगल-साहित्य-माला का तीसरा पुष्प है। इसके लेखक श्रीनिधि सिद्धान्तालंकार बीहड़ वनों, वीरान जंगलों, नरभक्षकों और उनके ही सहजातियों के बीच रहे हैं, रहते हैं और उनसे जो कुछ भी सीखा है, देखा या परखा है, उसको उन्होंने साहित्यिक तथा रोचक शैली में ‘मालिनी के वनों में’ में सजा दिया है। यह पुस्तक हिन्दी के पाठकों को भेंट करते हुए हम हर्ष और गर्व का अनुभव करते हैं। गर्व इसलिए कि लेखक का और हमारा परिश्रम हिन्दी के जंगल-साहित्य के एक बहुत बड़े अभाव की पूर्ति करेगा।
‘मालिनी के वनों में’ लेखक की दूसरी पुस्तक है। पहली पुस्तक ‘शिवालक की घटियों में’ प्रकाशित हो चुकी है, जो बहुप्रशंसित हुई तथा पुरस्कृत भी। अपनी इसी पुस्तक में उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण तथा खोजपूर्ण लेख लिखा, जिसमें कण्वाश्रम की विशेष चर्चा की थी। आज से लगभग पैंतीस वर्ष पूर्व श्रीनिधि सिद्धान्तालंकार जब मालिनी के तट पर घूम रहे थे, तब उन्होंने एक महत्त्वपूर्ण स्थान खोज निकाला, यह था महिर्षि कण्व का आश्रम, जिसका वर्णन हमारे प्राचीन ग्रन्थों में मिलता है। लेकिन आज जो वर्तमान साहित्य हमारे सामने है उसमें कहीं भी इसका स्पष्टीकरण नहीं हो पाता। इस अभाव की पूर्ति के लिए उन्होंने चौथी बार फिर यात्रा की, और सही तथ्य ढूँढ़कर इस महत्त्वपूर्ण स्थान की घोषणा भी कर दी।
यह वही स्थान है जहाँ कण्व-दुहिता का छात्र जीवन व्यतीत हुआ। शाकुन्तल वर्णित मालिनी के इसी सौन्दर्य को लेकर महाकवि कालिदास ने भारत का छः सहस्त्र वर्ष पूर्व का इतिहास लिखा था।
अभी हाल में कण्वाश्रम के इस स्थान के सम्बन्ध में अनेक वाद-विवाद भी हुए; किन्तु श्रीनिधि की स्थापना के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने उन्हीं के बताए इस यथार्थ स्थान को स्वीकार कर लिया और वहाँ एक स्मारक की स्थापना भी कर दी गई।
मालिनी के वनों की यात्रा लेखक ने कण्वाश्रम ढूँढ़ने के लिए की थी। किन्तु यात्रा में उन्होंने अनोखे, खट्टे-मीठे अनुभव हुए। भयंकर हिंसक जन्तुओं से मुठभेड़ हुई, तो उन्हें कुछ भग्नावशेष भी प्राप्त हुए। इन सबका मनोरंजक और ज्ञानवर्धक वर्णन उन्होंने इस पुस्तक में किया है।
‘मालिनी के वनों में’ उपन्यास से भी अधिक रोचक और कविता से भी अधिक कोमल भावनाओं को अपने में सँजोये एक अधिकारी विद्वान की बेजोड़ कृति है।
श्रीनिधिः एक परिचय
काव्य के रस का स्रोत बहुधा उसकी नायिका में निहित रहता है, यह तथ्य संसार के अधिक संख्यक काव्यों के अनुशीलन से स्पष्ट हो जाता है। आदिकवि वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य रामायण में जो रस-सरिता प्रवाहित की है, वह संभवतः जनकनन्दिनी से विहीन होकर शु्ष्क मरुभूमि ही रह जाती। महाभारत का विशाल साहित्य-कलेवर, बिना द्रुपदसुता के अवश्य ही निर्जीव रह जाता। संस्कृत वाङ्मय के विलासभूत महाकवि कालिदास तथा भवभूमि, माघ एवं बाण आदि उत्कृष्ट कवियों के काव्यों का तो कहना ही क्या ! उनकी रसधारा तो नायिकाओं की विविध लीलाओं में से ही निष्पन्दित हुई है। पाश्चात्य जगत के कवियों ने भी अपने अनेक संख्यक काव्यों में नायिका की मोहिनी लीलाओं को लेकर ही रस का सृजन किया है।
परन्तु, प्रस्तुत वन काव्य के यशस्वी लेखक, श्रीनिधि सिद्धान्तालंकार अपने पाठकों को दूसरी ही भूमिका में ले जाते हैं, जहाँ नायिकाओं की रसमयी लीलाओं का कुछ भी आभास नहीं मिलता। घटनाचक्र को मानव आभास से दूर, घने जंगलों के अन्तराल में ले जाया गया है, जहाँ चिरयुगों से उनके प्रिय वनदेवता निवास करते आ रहे हैं। जहाँ, स्वर्ग से उतरकर स्वच्छ निर्झर अहर्निश अनहद-नाद किया करते हैं। जहाँ, निर्मल जलाशयों में उतरकर उज्ज्वल चन्द्रिकायें एकान्त स्नान किया करती हैं। जहाँ, फूल हँसते हैं, पंछी गाते हैं, और मृग मुग्धता का सन्देश देते हैं।
मगर जंगल का यह नितान्त सुन्दर वातावरण श्रीनिधि के हृदय को तब तक आकर्षित नहीं कर पाता, जब तक उसमें बसने वाले शेर, हाथी, बघेरे, भालू तथा इसी श्रेणी के अन्य हिंस्र श्वापद उसे भीषणता की गंध से आकण्ठ भर नहीं देते। इन रोमांचजनक भीषणताओं से विहीन वनभूमियाँ उन्हें अपनी तरफ खींच सकने में एकदम असमर्थ दिखाई पड़ती हैं। शान्ति एवं वैराग्य का सन्देश देने वाले वन-सौन्दर्य में इन भयंकर वन्य पशुओं की भीषणता का अक्षय सम्मिलन ही उनके वन्य-प्रेम का मूल कारण है।
इसलिए उनके ग्रन्थों में हम इन्हीं दो परस्पर विरोधी रसों का एकत्र सम्मिश्रण पाते हैं। उन्हीं के शब्दों में-‘‘वनभूमियाँ जहाँ सौन्दर्य के अक्षय भंडार हैं; अहिंसा प्रेम और शान्ति के प्रतीक हैं; वैराग्य के उद्दीपक हैं; आनन्द के स्त्रोत हैं; पवित्रताओं के निकेतन हैं, वहाँ यह भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि वे विभीषिका के निकेतन भी हैं; और इस विभीषिका का रसास्वादन भी मेरी वनयात्राओं का एक उद्देश्य है।’’
जंगल-विभीषिकाओं के इस परम रस का आस्वादन करने के लिए श्रीनिधि ने अत्यन्त शैशव में वन-पर्यटन के जिस महाप्रदीप को प्रज्वलित किया था, उनके यौवन की इस सांध्य वेला में वह आज भी उसी तेजस्विता से प्रदीप्त हो रहा है। आज भी अपने विगत नव-यौवन दिवसों की तरह, वह वर्ष में लगभग चार बार तो जंगल-कैम्प लगाते ही हैं, और वन्य श्वापदों की रहस्यपूर्ण प्रवृत्तियों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। लगता है, जैसे इसी ज्ञान के चरणों में उन्होंने अपना समस्त जीवन अर्पित कर दिया है। सच तो यह है कि इन खोजपूर्ण एवं अनथक वन-पर्यटनों के कारण उन्हें जो अनुभूति वन एवं वन्य श्वापदों के सम्बन्ध में प्राप्त हुई है, वह उन्हीं के स्तर के किसी अन्य मानव द्वारा इस प्रकार अनुभूत हुई है कि नहीं, कह सकना कठिन है।
शायद यही कारण है कि निधिजी के ग्रन्थों में वनों एवं वन्य पशुओं की प्रवृत्तियों का इतना मौलिक, सुस्पष्ट एवं प्रांजल चित्रण बन पड़ा है। यद्यपि यह सच है कि बन्दूकधारी शिकारियों के लिए भी इस प्रकार के ज्ञान का संचय कर सकना कठिन नहीं है, क्योंकि उनके जीवन का अधिक भाग भी वनों एवं वन्य पशुओं के साहचर्य में ही व्यतीत होता है। तो भी, उनका ज्ञान क्यों इतनी सूक्ष्मता एवं गहराई तक नहीं पहुँच पाता, उसका एक कारण शायद यह रहा हो, कि वन्य पशुओं से उनकी भेंट प्रायः घातक मनोवृत्ति के माध्यम से ही होती है। प्रसिद्ध शिकारी श्री जिम कार्वेट ने अपने लोकप्रसिद्ध शिकार-साहित्य में वन्य पशुओं, विशेषकर नरभक्षक शेरों के सम्बन्ध में, अत्यन्त यथार्थ एवं रोमांचकारी वर्णन किया है, जिसे पढ़कर उनके असाधारण साहस एवं वन्य पशुओं की मनोवृत्ति को पहले से ही पहचान सकने की अद्भुत क्षमता के प्रति विस्मयपूर्ण श्रद्धा हो उठती है। परन्तु वैसा जनसेवक, निरीह एवं अचूक लक्ष्यवेधी शिकारी भी अपनी शिकारगाथाओं में मानव की श्वापद पर हिंसामयी विजय की सुनिश्चित घोषणा करके ही सन्तुष्ट हो सका है। उसके साथ मैत्रीपूर्ण साहचर्य की दिव्य अनुभूतियों का रसापान पाठकों को नहीं करा सका है। एक अन्य अंग्रेज-लेखक रुडियार्ड किप्लिंग की स्वकल्पित मौगली गाथाओं में यद्यपि श्वापद जगत की विविधताओं का खूब मनोरंजक एवं उत्तेजनापूर्ण वर्णन मिलता है, परन्तु वह यथार्थ न होकर अधिकांश में लोकगाथाओं पर ही आधारित है।
इस प्रकार के यथार्थ साहचर्य की अनूभूति का श्रेय वस्तुतः श्रीनिधि को ही है, जो श्वापद संकुल वनों में प्रवेश तो अन्य शिकारियों की तरह ही करते हैं, परन्तु आक्रान्ता या हिंसक बनकर नहीं, केवल जिज्ञासा एवं भीषणता के आनन्द की भावना लेकर। वहाँ जाकर वृक्षों पर मचान बाँधते हैं, जो उनके मध्याह्न विश्राम और रात्रि-शयन की आवश्यकता को पूर्ण करता है। कितनी ही बार प्रभात वेलाओं में अपने प्रिय ग्रन्थों का अध्ययन भी उसी पर बैठकर करते हैं। मगर, दिन का शेष समय वे जंगल के एकान्तों में बैठकर वन्य पशुओं द्वारा दिए गये संकेतों के अनुसार मीलों तक उनका पीछा करके ही बिताते हैं। अपने इस अध्यवसाय के कारण वे बहुधा ही उन्हें खोज लेने एवं उनके स्वभावों का अध्ययन करने में सफल हो जाते हैं। कभी-कभी ऐसा करते हुए उन्हें उन उग्रक्रोधी श्वापदों के आक्रमणों का लक्ष्य भी बन जाना पड़ता है। परन्तु आश्चर्य यह है कि उनके भाग्य ने उन्हें सदा ही सुरक्षित बनाए रखा है।
मृत्यु से उनकी यह छेड़छाड़ अपूर्व है। जान-बूझकर अपने को विपत्ति में डालने की उनकी यह मनोवृत्ति विचित्र है। सामान्य जन, जिन भयंकरताओं और भयों के कारण वनों में जाना भी पसंद नहीं करते, निधिजी उन्हीं का आनन्द लेने के लिए बार-बार उधर ही जाते हैं।
उनका सघन वनों में बसने वाले भीषण श्वापदों से यह अनूठा लगाव किन विलक्षण संस्कारों एवं परिस्थितियों के कारण हुआ, पाठकों के लिए उनका कुछ दिग्दर्शन केवल रुचिकर ही न होगा, उनके साहित्य में वर्णित एक से एक अद्भुत घटनाओं को हृदयंगम करने में भी सहायक होगा। वे किस विलक्षण वातावरण में पले, पैदा हुए एवं शिक्षित हुए, सचमूच ही वह एक रोचक एवं कौतूहलवर्धक वृत्तान्त है।
शिवालक पर्वतश्रेणी के आँचल में गंगा की धाराओं से घिरा हुआ एक सुन्दर तपोवन है, जो मानव-निवास से पृथक् एक घने वन में अवस्थित है। प्रायः आधी शती से अनेक वर्ष पूर्व, इस तपोवन के स्वामी ने इसे एक तपस्वी के चरणों में समर्पित करते हुए यह इच्छा प्रकट की, कि वे यहाँ भारत के प्राचीन आश्रमों की परम्परा के अनुसार किसी आश्रम की स्थापना करें। तपोवन के स्वामी की यह इच्छा शीघ्र ही पूर्ण हुई और तपस्वी के प्रयत्न से वहाँ एक ऐसे आश्रम की स्थापना हुई, जहाँ अल्पकाल में ही सुदूर प्रान्तों से आकर शत-शत छात्र विद्याभ्यास करने लगे।
आश्रम के एक तरफ जाह्नवी की धारायें बहती थीं और दूसरी तरफ शिवालक की पर्वतश्रेणियाँ खड़ी थीं। इन दोनों महापिण्डों के अंतराल में बसने के कारण आश्रम का वातावरण सचमुच ही शान्त एवं निर्विकार बन उठा था। वहाँ के छात्रों ने अपने पड़ौसी वनों में बसने वाले मृगों का कितने अल्पकाल में ही विश्वास पा लिया, यह एक ऐसी विचित्र बात है जिसे सुनकर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता। यह तो ठीक है कि सघन रात्रियों में बहुधा सुन पड़ने वाले श्रृगालों के आराव, वराहों के घुर-घुर शब्द, बग्घों के भयजनक हास्य, हाथियों के चीत्कार एवं शेर-बघेरों के गर्जन, नागरिक वातावरण में पले हुए उन अनभ्यस्त आश्रमवासियों के लिए शुरू-शुरू में भय का कारण अवश्य बन उठे थे, मगर कुछ ही दिनों बाद वे उनके लिए कौतूहलवर्धक और आनन्ददायक बन उठे। तिस पर वहाँ के वनदेवताओं का अभयदान भी उनके साथ था। अनध्याय दिवसों में वे बहुधा ही उन वनों में भ्रमणार्थ जाते थे और वहाँ के एकान्त जलाशयों और छायादार वृक्षों के नीचे बैठकर निद्राओं और वन-विनोदों का आनन्द लेते थे। मगर आश्चर्य यह है कि एक बार भी किसी हिंस्र पशु ने उन पर आक्रमण नहीं किया, वरन् वहाँ के वनदेवताओं ने भवभूति के शब्दों में मानो ये कहते हुए-यथेच्छाभोग्यं वो वनमिदमयं मे सुदिवसः। सतां सभ्दि संग कथमपि हि पुण्येन भवति-वहाँ के अनेक प्रकार के वन्य फलों एवं ज्ञात-अज्ञात कन्दमूलों का उपहार देकर उनका स्वागत ही किया।
और आश्रम के चरणों में बहने वाली वह गंगा ? उसका भी इनके साथ क्या कुछ कम सौहार्द था ! वह भी तो उनकी वैसी ही सखी बन उठी थी, और इस कारण गंगा-स्नान के समय पुण्यफल उन्हें अनायास ही उपलब्ध हो जाते थे। सावन-भादों में वह जब उत्ताल तरंगें फेंकती, फेन उगलती, भीषण गर्जन करती, भाग उठती थी तब तो छात्रों के तैरने का आनन्द अपनी चरम सीमा तक जा पहुँचता था। मटमैली जलधारा के उद्दाम प्रवाह में न जाने कितने वृक्ष, कितने सूखे लक्कड़ और सलीपर डूबते-उतराते बहे जा रहे होते थे। भीषण तरंगाघातों के कारण गम्भीर घोष के साथ टूट-टूटकर गिरते हुए तट के बालुकामय कगारे रह-रहकर हृदय में भय भर रहे होते थे। ऐसे विकट समय में गंगा की धारा में निर्भय भाव से कूद पड़ना और उसे तैरकर पार कर लेना इन छात्रों के लिए एक परम विनोद की ही बात बन उठी थी। कितनी ही बार ये लोग अनेक छोटे-छोटे दलों में विभक्त होकर और आश्रम से पाँच-छः मील ऊपर जाकर, गंगा के एकान्त तीरवर्ती पत्थरों में अटके हुए सलीपरों को एकत्रित कर उनका बेड़ा भी बाँधते थे और उस पर सवार होकर गंगा की लहरों में बह निकलते थे। अनेक बार मार्ग में बेड़ा भीषण भँवरों में फँस जाता और गंगा की उद्दाम लहरें न जाने क्या सोचकर उसे उछालकर दूर फेंक देतीं। मगर उसका यह निष्ठुर व्यवहार उनके लिए मनोरंजन के अतिरिक्त कुछ न होता और उसकी उन सभी विभीषिकाओं का आनन्द लेते हुए वे सकुशल आश्रम में लौट आते। ऐसे अवसरों पर कभी-कभी, गंगा में बसने वाले नरभक्षक घड़ियालों एवं मगरमच्छों से भी सामना पड़ जाता, जो धोखा देकर बेड़े पर हमला कर बैठते। मगर विपत्ति कैसी भयंकर क्यों न हो उठती, माँ जाह्नवी का अभयदान सदा उनके साथ बना रहता।
किसी महासुकृत के फलस्वरूप एक दिन निधिजी भी इस आश्रम के छात्र बने और। इसी में रहकर उन्होंने अपने चौदह वर्ष बिताये। विद्यार्थी-जीवन के इस दीर्घकाल में अपनी नैसर्गिक प्रवृत्तियों के वश होकर उन्होंने आश्रम के निकट एवं दूरवर्ती प्रायः सभी वन-पर्वतों एवं उनमें बसे हुए प्राचीन वन्य तीर्थों की अनेक पद-यात्राएँ की। इन यात्राओं में, स्वभावतः ही उन्हें वन सम्बन्धी उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त हुआ। हिंस्र एवं शष्पभोजी वन्य पशुओं से अनेक बार अनेक प्रकार की भेंटें हुईं और कितनी ही बार उनके हमलों से उन्हें आत्मरक्षा करनी पड़ी।
वन-पर्यटन का अवसर सभी छात्रों के लिए समान रहते हुए भी, क्यों श्रीनिधि का हृदय ही इन भीषण अरण्यानियों, उनके प्रशान्त सौन्दर्य एवं उनमें बसने वाले हिंस्र श्वापदों की तरफ सर्वापेक्षया अधिक वेग से आकृष्ट हुआ, पूर्वसंचित संस्कारों की तरफ संकेत करने के अतिरिक्त यद्यपि मेरे पास इस प्रश्न का दूसरा कोई सन्तोषजनक समाधान नहीं है; तो भी, सम्भव है, अनुरोध किये जाने पर श्रीनिधि की पूज्या जननी ने इस प्रश्न का जो विस्मयप्रद उत्तर मुझे दिया था, शायद वही इसका सर्वश्रेष्ठ समाधान रहा हो। उन्होंने बताया कि निधिजी का जन्म मध्य भारत के जिस नरवरगढ़ नामक स्थान में हुआ, उन दिनों वह सघन वनों से आवेष्टित एक ऐसी चिर प्राचीन बस्ती थी, जिसमें दिन में भी हिंस्र पशु आ निकलते थे और बस्तीवालों की परवाह न कर बड़ी धृष्टता से उनके गाय-बछड़े उठा ले जाते थे। निधिजी का जन्म जिस मकान में हुआ, वह इस बस्ती के एक ऐसे किनारे पर था, जिसके साथ ही वन्य श्वापदों से भरा एक भयंकर वन लगा था, जिसमें प्रायः ही शेर-तेंदुए घूमते-फिरते देखे जाते थे। उनकी जननी ने बताया कि जिस दिन (फाल्गुन बदी अष्टमी) निधिजी का जन्म हुआ, उस दिन संसार की जो सबसे पहली आवाज उनके कानों में पड़ी, वह थी इस पड़ौसी जंगल में से आती हुई शेर की एक दहाड़ः जिसने, उनकी राय में उनके पुत्र के भविष्य-निर्माण में बहुत बड़ा भाग लिया। उनका यह आन्तरिक विश्वास था कि हिंस्र पशुओं के प्रति उनमें जो इतनी उत्सुकता भरी है, उसका प्रधान कारण यह घटना ही थी।
अब कारण चाहे जो भी रहा हो, इतना तो ठीक है, निधिजी का हृदय अत्यन्त शैशव से ही जंगलों का प्रेमी था। पाँच बरस की अल्प वयस में ही-जब वे इस आश्रम में प्रविष्ट हुए-उनके साथियों एवं गुरुजनों को उनकी इस प्रवृत्ति का परिचय मिलने में देर नहीं लगी। मगर बाद में, इस आश्रम में दीर्घकाल तक निवास करने के कारण उनके हृदय में केवल वनों से ही नहीं, बल्कि अपने उस प्रिय आश्रम, अपने हाथों से आरोपित किये गये वहाँ के तरुओं, वहाँ बसने वाले पंछियों, आश्रम के पड़ौसी वन-पर्वतों और उन पर लगे हुए लता-द्रुमों, जलाशयों, गिरि निर्झरों, सूखे रेतीले नालों एवं वहाँ के वन्य श्वापदों से एक ऐसा ममत्व पैदा हो गया कि नागरिक जीवन की मोहिनी चकाचौंध भी उसे मिटा नहीं सकी।
यद्यपि यह तो सच है कि चौदह वर्ष के गुरु गम्भीर विद्याभ्यास की समाप्ति पर सिद्धान्तालंकार की सम्माननीय उपाधि से विभूषित हो, वे जब प्रथम बार नागरिक जीवन में प्रविष्टि हुए, तब कुछ समय के लिए तो ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनका वह अमिट वन्य प्रेम नागरिक-जीवन के इस व्यामोह में शायद धुल-पुँछ जाय। और यह बात शायद अस्वाभाविक भी न रही होती। कारण, अनभ्यस्त नवयौवन, नागरिक जीवन की मादकता, चिर उत्सुक परिजनों एवं बांधवों से मिलने की अतृप्त अभिलाषा और आजीविका के लिए अर्थसाधन सम्बन्धी तपस्या आदि अनेक अपरिहार्य कर्त्तव्यों के कारण उनके हृदय-मन्दिर में दिन-रात जलनेवाले वन-प्रदीप की ज्योति यदि कुछ काल के लिए मन्द पड़ गई तो इसमें आश्चर्य भी कुछ नहीं हुआ। इस अवसर पर बम्बई, मध्य भारत, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त, काश्मीर, हैदराबाद, और भी न जाने कहाँ-कहाँ वे अर्धसाधना के लिए भटकते रहे। परन्तु जिस ममत्व को उन्होंने शैशव में आरोपित किया था और जो बाद में वामन रूप धारण कर तिरोहित-सा हो गया था, वही एक दिन, अपने उस प्रिय आश्रम के उजड़ जाने का मर्मवेधी संवाद सुनकर सहसा जागृत हो उठा। बाल्यकाल का वह अनन्य वन-प्रेम, जगद्व्यापी नारायण के समान एक बार फिर उनके रोम-रोम में व्याप्त हो उठा। अपने उस कथाशेष प्रिय आश्रम, के पड़ौसी चिरपरिचित वनदेवताओं और उसमें बसनेवाले वन्य श्वापदों से पुनर्मिलन के लिए उनका हृदय व्याकुल हो उठा; और एक दिन नंगे सिर, नंगे पाँव, वे उस अशेषप्राय आश्रम की भूमि में सशरीर आ उपस्थिति हुए। चिरकाल से बिछुड़ी हुई उन आश्रम-भूमियों को देखकर वे सहसा इतने वेदनातुर एवं रोमांचित हो गये कि उनकी आँखें अश्रुपूर से भर उठी। हृदय-स्रोत उमड़ पड़ा। उनके प्रथम काव्य ‘शिवालक की घाटियों में’ में अंकित उस सुन्दर ‘पूर्व पीठिका’ में उनके कवि-हृदय-स्त्रोत से उमड़ी हुई कविता-निर्झरिणी हृदय को अत्यन्त विगलित करने वाली है। इस कविता का प्रत्येक पद्य, प्रत्येक पद्य की प्रत्येक पंक्ति और प्रत्येक पंक्ति का प्रत्येक शब्द, उनकी उस अतीत शैशवानुभूति को पुनः प्रत्यक्ष कर देता है। उस कविता के इस स्थान पर अविकल रूप से पुनरंकित करने की उत्कट इच्छा को मुझे बरबस दबाना पड़ रहा है, क्योंकि इससे इस परिमित प्रबन्ध की व्यर्थ की कलेवर-वृद्धि होने का भय है। केवल विशिष्ट पद्यों अथवा उनके अंशों को छाँटकर यहाँ उद्धत करने का साहस भी नहीं हो रहा। क्योंकि एक अंश को समूचे पद्य में से विच्छिन्न करते समय यह संशय पैदा हो जाता है कि कहीं मैं शरीर के एक अंग को काटकर उसे निष्प्राण तो नहीं कर रहा। इसलिए पाठकों को मैं यही परामर्श दूँगा। कि कवि-हृदय के इन उद्गारों को वे अविकल रूप में ही उनके ‘शिवालक की घाटियों में’ नामक प्रथम काव्य में देखें और अपने मन को तृप्त करें।
परन्तु, प्रस्तुत वन काव्य के यशस्वी लेखक, श्रीनिधि सिद्धान्तालंकार अपने पाठकों को दूसरी ही भूमिका में ले जाते हैं, जहाँ नायिकाओं की रसमयी लीलाओं का कुछ भी आभास नहीं मिलता। घटनाचक्र को मानव आभास से दूर, घने जंगलों के अन्तराल में ले जाया गया है, जहाँ चिरयुगों से उनके प्रिय वनदेवता निवास करते आ रहे हैं। जहाँ, स्वर्ग से उतरकर स्वच्छ निर्झर अहर्निश अनहद-नाद किया करते हैं। जहाँ, निर्मल जलाशयों में उतरकर उज्ज्वल चन्द्रिकायें एकान्त स्नान किया करती हैं। जहाँ, फूल हँसते हैं, पंछी गाते हैं, और मृग मुग्धता का सन्देश देते हैं।
मगर जंगल का यह नितान्त सुन्दर वातावरण श्रीनिधि के हृदय को तब तक आकर्षित नहीं कर पाता, जब तक उसमें बसने वाले शेर, हाथी, बघेरे, भालू तथा इसी श्रेणी के अन्य हिंस्र श्वापद उसे भीषणता की गंध से आकण्ठ भर नहीं देते। इन रोमांचजनक भीषणताओं से विहीन वनभूमियाँ उन्हें अपनी तरफ खींच सकने में एकदम असमर्थ दिखाई पड़ती हैं। शान्ति एवं वैराग्य का सन्देश देने वाले वन-सौन्दर्य में इन भयंकर वन्य पशुओं की भीषणता का अक्षय सम्मिलन ही उनके वन्य-प्रेम का मूल कारण है।
इसलिए उनके ग्रन्थों में हम इन्हीं दो परस्पर विरोधी रसों का एकत्र सम्मिश्रण पाते हैं। उन्हीं के शब्दों में-‘‘वनभूमियाँ जहाँ सौन्दर्य के अक्षय भंडार हैं; अहिंसा प्रेम और शान्ति के प्रतीक हैं; वैराग्य के उद्दीपक हैं; आनन्द के स्त्रोत हैं; पवित्रताओं के निकेतन हैं, वहाँ यह भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि वे विभीषिका के निकेतन भी हैं; और इस विभीषिका का रसास्वादन भी मेरी वनयात्राओं का एक उद्देश्य है।’’
जंगल-विभीषिकाओं के इस परम रस का आस्वादन करने के लिए श्रीनिधि ने अत्यन्त शैशव में वन-पर्यटन के जिस महाप्रदीप को प्रज्वलित किया था, उनके यौवन की इस सांध्य वेला में वह आज भी उसी तेजस्विता से प्रदीप्त हो रहा है। आज भी अपने विगत नव-यौवन दिवसों की तरह, वह वर्ष में लगभग चार बार तो जंगल-कैम्प लगाते ही हैं, और वन्य श्वापदों की रहस्यपूर्ण प्रवृत्तियों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। लगता है, जैसे इसी ज्ञान के चरणों में उन्होंने अपना समस्त जीवन अर्पित कर दिया है। सच तो यह है कि इन खोजपूर्ण एवं अनथक वन-पर्यटनों के कारण उन्हें जो अनुभूति वन एवं वन्य श्वापदों के सम्बन्ध में प्राप्त हुई है, वह उन्हीं के स्तर के किसी अन्य मानव द्वारा इस प्रकार अनुभूत हुई है कि नहीं, कह सकना कठिन है।
शायद यही कारण है कि निधिजी के ग्रन्थों में वनों एवं वन्य पशुओं की प्रवृत्तियों का इतना मौलिक, सुस्पष्ट एवं प्रांजल चित्रण बन पड़ा है। यद्यपि यह सच है कि बन्दूकधारी शिकारियों के लिए भी इस प्रकार के ज्ञान का संचय कर सकना कठिन नहीं है, क्योंकि उनके जीवन का अधिक भाग भी वनों एवं वन्य पशुओं के साहचर्य में ही व्यतीत होता है। तो भी, उनका ज्ञान क्यों इतनी सूक्ष्मता एवं गहराई तक नहीं पहुँच पाता, उसका एक कारण शायद यह रहा हो, कि वन्य पशुओं से उनकी भेंट प्रायः घातक मनोवृत्ति के माध्यम से ही होती है। प्रसिद्ध शिकारी श्री जिम कार्वेट ने अपने लोकप्रसिद्ध शिकार-साहित्य में वन्य पशुओं, विशेषकर नरभक्षक शेरों के सम्बन्ध में, अत्यन्त यथार्थ एवं रोमांचकारी वर्णन किया है, जिसे पढ़कर उनके असाधारण साहस एवं वन्य पशुओं की मनोवृत्ति को पहले से ही पहचान सकने की अद्भुत क्षमता के प्रति विस्मयपूर्ण श्रद्धा हो उठती है। परन्तु वैसा जनसेवक, निरीह एवं अचूक लक्ष्यवेधी शिकारी भी अपनी शिकारगाथाओं में मानव की श्वापद पर हिंसामयी विजय की सुनिश्चित घोषणा करके ही सन्तुष्ट हो सका है। उसके साथ मैत्रीपूर्ण साहचर्य की दिव्य अनुभूतियों का रसापान पाठकों को नहीं करा सका है। एक अन्य अंग्रेज-लेखक रुडियार्ड किप्लिंग की स्वकल्पित मौगली गाथाओं में यद्यपि श्वापद जगत की विविधताओं का खूब मनोरंजक एवं उत्तेजनापूर्ण वर्णन मिलता है, परन्तु वह यथार्थ न होकर अधिकांश में लोकगाथाओं पर ही आधारित है।
इस प्रकार के यथार्थ साहचर्य की अनूभूति का श्रेय वस्तुतः श्रीनिधि को ही है, जो श्वापद संकुल वनों में प्रवेश तो अन्य शिकारियों की तरह ही करते हैं, परन्तु आक्रान्ता या हिंसक बनकर नहीं, केवल जिज्ञासा एवं भीषणता के आनन्द की भावना लेकर। वहाँ जाकर वृक्षों पर मचान बाँधते हैं, जो उनके मध्याह्न विश्राम और रात्रि-शयन की आवश्यकता को पूर्ण करता है। कितनी ही बार प्रभात वेलाओं में अपने प्रिय ग्रन्थों का अध्ययन भी उसी पर बैठकर करते हैं। मगर, दिन का शेष समय वे जंगल के एकान्तों में बैठकर वन्य पशुओं द्वारा दिए गये संकेतों के अनुसार मीलों तक उनका पीछा करके ही बिताते हैं। अपने इस अध्यवसाय के कारण वे बहुधा ही उन्हें खोज लेने एवं उनके स्वभावों का अध्ययन करने में सफल हो जाते हैं। कभी-कभी ऐसा करते हुए उन्हें उन उग्रक्रोधी श्वापदों के आक्रमणों का लक्ष्य भी बन जाना पड़ता है। परन्तु आश्चर्य यह है कि उनके भाग्य ने उन्हें सदा ही सुरक्षित बनाए रखा है।
मृत्यु से उनकी यह छेड़छाड़ अपूर्व है। जान-बूझकर अपने को विपत्ति में डालने की उनकी यह मनोवृत्ति विचित्र है। सामान्य जन, जिन भयंकरताओं और भयों के कारण वनों में जाना भी पसंद नहीं करते, निधिजी उन्हीं का आनन्द लेने के लिए बार-बार उधर ही जाते हैं।
उनका सघन वनों में बसने वाले भीषण श्वापदों से यह अनूठा लगाव किन विलक्षण संस्कारों एवं परिस्थितियों के कारण हुआ, पाठकों के लिए उनका कुछ दिग्दर्शन केवल रुचिकर ही न होगा, उनके साहित्य में वर्णित एक से एक अद्भुत घटनाओं को हृदयंगम करने में भी सहायक होगा। वे किस विलक्षण वातावरण में पले, पैदा हुए एवं शिक्षित हुए, सचमूच ही वह एक रोचक एवं कौतूहलवर्धक वृत्तान्त है।
शिवालक पर्वतश्रेणी के आँचल में गंगा की धाराओं से घिरा हुआ एक सुन्दर तपोवन है, जो मानव-निवास से पृथक् एक घने वन में अवस्थित है। प्रायः आधी शती से अनेक वर्ष पूर्व, इस तपोवन के स्वामी ने इसे एक तपस्वी के चरणों में समर्पित करते हुए यह इच्छा प्रकट की, कि वे यहाँ भारत के प्राचीन आश्रमों की परम्परा के अनुसार किसी आश्रम की स्थापना करें। तपोवन के स्वामी की यह इच्छा शीघ्र ही पूर्ण हुई और तपस्वी के प्रयत्न से वहाँ एक ऐसे आश्रम की स्थापना हुई, जहाँ अल्पकाल में ही सुदूर प्रान्तों से आकर शत-शत छात्र विद्याभ्यास करने लगे।
आश्रम के एक तरफ जाह्नवी की धारायें बहती थीं और दूसरी तरफ शिवालक की पर्वतश्रेणियाँ खड़ी थीं। इन दोनों महापिण्डों के अंतराल में बसने के कारण आश्रम का वातावरण सचमुच ही शान्त एवं निर्विकार बन उठा था। वहाँ के छात्रों ने अपने पड़ौसी वनों में बसने वाले मृगों का कितने अल्पकाल में ही विश्वास पा लिया, यह एक ऐसी विचित्र बात है जिसे सुनकर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता। यह तो ठीक है कि सघन रात्रियों में बहुधा सुन पड़ने वाले श्रृगालों के आराव, वराहों के घुर-घुर शब्द, बग्घों के भयजनक हास्य, हाथियों के चीत्कार एवं शेर-बघेरों के गर्जन, नागरिक वातावरण में पले हुए उन अनभ्यस्त आश्रमवासियों के लिए शुरू-शुरू में भय का कारण अवश्य बन उठे थे, मगर कुछ ही दिनों बाद वे उनके लिए कौतूहलवर्धक और आनन्ददायक बन उठे। तिस पर वहाँ के वनदेवताओं का अभयदान भी उनके साथ था। अनध्याय दिवसों में वे बहुधा ही उन वनों में भ्रमणार्थ जाते थे और वहाँ के एकान्त जलाशयों और छायादार वृक्षों के नीचे बैठकर निद्राओं और वन-विनोदों का आनन्द लेते थे। मगर आश्चर्य यह है कि एक बार भी किसी हिंस्र पशु ने उन पर आक्रमण नहीं किया, वरन् वहाँ के वनदेवताओं ने भवभूति के शब्दों में मानो ये कहते हुए-यथेच्छाभोग्यं वो वनमिदमयं मे सुदिवसः। सतां सभ्दि संग कथमपि हि पुण्येन भवति-वहाँ के अनेक प्रकार के वन्य फलों एवं ज्ञात-अज्ञात कन्दमूलों का उपहार देकर उनका स्वागत ही किया।
और आश्रम के चरणों में बहने वाली वह गंगा ? उसका भी इनके साथ क्या कुछ कम सौहार्द था ! वह भी तो उनकी वैसी ही सखी बन उठी थी, और इस कारण गंगा-स्नान के समय पुण्यफल उन्हें अनायास ही उपलब्ध हो जाते थे। सावन-भादों में वह जब उत्ताल तरंगें फेंकती, फेन उगलती, भीषण गर्जन करती, भाग उठती थी तब तो छात्रों के तैरने का आनन्द अपनी चरम सीमा तक जा पहुँचता था। मटमैली जलधारा के उद्दाम प्रवाह में न जाने कितने वृक्ष, कितने सूखे लक्कड़ और सलीपर डूबते-उतराते बहे जा रहे होते थे। भीषण तरंगाघातों के कारण गम्भीर घोष के साथ टूट-टूटकर गिरते हुए तट के बालुकामय कगारे रह-रहकर हृदय में भय भर रहे होते थे। ऐसे विकट समय में गंगा की धारा में निर्भय भाव से कूद पड़ना और उसे तैरकर पार कर लेना इन छात्रों के लिए एक परम विनोद की ही बात बन उठी थी। कितनी ही बार ये लोग अनेक छोटे-छोटे दलों में विभक्त होकर और आश्रम से पाँच-छः मील ऊपर जाकर, गंगा के एकान्त तीरवर्ती पत्थरों में अटके हुए सलीपरों को एकत्रित कर उनका बेड़ा भी बाँधते थे और उस पर सवार होकर गंगा की लहरों में बह निकलते थे। अनेक बार मार्ग में बेड़ा भीषण भँवरों में फँस जाता और गंगा की उद्दाम लहरें न जाने क्या सोचकर उसे उछालकर दूर फेंक देतीं। मगर उसका यह निष्ठुर व्यवहार उनके लिए मनोरंजन के अतिरिक्त कुछ न होता और उसकी उन सभी विभीषिकाओं का आनन्द लेते हुए वे सकुशल आश्रम में लौट आते। ऐसे अवसरों पर कभी-कभी, गंगा में बसने वाले नरभक्षक घड़ियालों एवं मगरमच्छों से भी सामना पड़ जाता, जो धोखा देकर बेड़े पर हमला कर बैठते। मगर विपत्ति कैसी भयंकर क्यों न हो उठती, माँ जाह्नवी का अभयदान सदा उनके साथ बना रहता।
किसी महासुकृत के फलस्वरूप एक दिन निधिजी भी इस आश्रम के छात्र बने और। इसी में रहकर उन्होंने अपने चौदह वर्ष बिताये। विद्यार्थी-जीवन के इस दीर्घकाल में अपनी नैसर्गिक प्रवृत्तियों के वश होकर उन्होंने आश्रम के निकट एवं दूरवर्ती प्रायः सभी वन-पर्वतों एवं उनमें बसे हुए प्राचीन वन्य तीर्थों की अनेक पद-यात्राएँ की। इन यात्राओं में, स्वभावतः ही उन्हें वन सम्बन्धी उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त हुआ। हिंस्र एवं शष्पभोजी वन्य पशुओं से अनेक बार अनेक प्रकार की भेंटें हुईं और कितनी ही बार उनके हमलों से उन्हें आत्मरक्षा करनी पड़ी।
वन-पर्यटन का अवसर सभी छात्रों के लिए समान रहते हुए भी, क्यों श्रीनिधि का हृदय ही इन भीषण अरण्यानियों, उनके प्रशान्त सौन्दर्य एवं उनमें बसने वाले हिंस्र श्वापदों की तरफ सर्वापेक्षया अधिक वेग से आकृष्ट हुआ, पूर्वसंचित संस्कारों की तरफ संकेत करने के अतिरिक्त यद्यपि मेरे पास इस प्रश्न का दूसरा कोई सन्तोषजनक समाधान नहीं है; तो भी, सम्भव है, अनुरोध किये जाने पर श्रीनिधि की पूज्या जननी ने इस प्रश्न का जो विस्मयप्रद उत्तर मुझे दिया था, शायद वही इसका सर्वश्रेष्ठ समाधान रहा हो। उन्होंने बताया कि निधिजी का जन्म मध्य भारत के जिस नरवरगढ़ नामक स्थान में हुआ, उन दिनों वह सघन वनों से आवेष्टित एक ऐसी चिर प्राचीन बस्ती थी, जिसमें दिन में भी हिंस्र पशु आ निकलते थे और बस्तीवालों की परवाह न कर बड़ी धृष्टता से उनके गाय-बछड़े उठा ले जाते थे। निधिजी का जन्म जिस मकान में हुआ, वह इस बस्ती के एक ऐसे किनारे पर था, जिसके साथ ही वन्य श्वापदों से भरा एक भयंकर वन लगा था, जिसमें प्रायः ही शेर-तेंदुए घूमते-फिरते देखे जाते थे। उनकी जननी ने बताया कि जिस दिन (फाल्गुन बदी अष्टमी) निधिजी का जन्म हुआ, उस दिन संसार की जो सबसे पहली आवाज उनके कानों में पड़ी, वह थी इस पड़ौसी जंगल में से आती हुई शेर की एक दहाड़ः जिसने, उनकी राय में उनके पुत्र के भविष्य-निर्माण में बहुत बड़ा भाग लिया। उनका यह आन्तरिक विश्वास था कि हिंस्र पशुओं के प्रति उनमें जो इतनी उत्सुकता भरी है, उसका प्रधान कारण यह घटना ही थी।
अब कारण चाहे जो भी रहा हो, इतना तो ठीक है, निधिजी का हृदय अत्यन्त शैशव से ही जंगलों का प्रेमी था। पाँच बरस की अल्प वयस में ही-जब वे इस आश्रम में प्रविष्ट हुए-उनके साथियों एवं गुरुजनों को उनकी इस प्रवृत्ति का परिचय मिलने में देर नहीं लगी। मगर बाद में, इस आश्रम में दीर्घकाल तक निवास करने के कारण उनके हृदय में केवल वनों से ही नहीं, बल्कि अपने उस प्रिय आश्रम, अपने हाथों से आरोपित किये गये वहाँ के तरुओं, वहाँ बसने वाले पंछियों, आश्रम के पड़ौसी वन-पर्वतों और उन पर लगे हुए लता-द्रुमों, जलाशयों, गिरि निर्झरों, सूखे रेतीले नालों एवं वहाँ के वन्य श्वापदों से एक ऐसा ममत्व पैदा हो गया कि नागरिक जीवन की मोहिनी चकाचौंध भी उसे मिटा नहीं सकी।
यद्यपि यह तो सच है कि चौदह वर्ष के गुरु गम्भीर विद्याभ्यास की समाप्ति पर सिद्धान्तालंकार की सम्माननीय उपाधि से विभूषित हो, वे जब प्रथम बार नागरिक जीवन में प्रविष्टि हुए, तब कुछ समय के लिए तो ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनका वह अमिट वन्य प्रेम नागरिक-जीवन के इस व्यामोह में शायद धुल-पुँछ जाय। और यह बात शायद अस्वाभाविक भी न रही होती। कारण, अनभ्यस्त नवयौवन, नागरिक जीवन की मादकता, चिर उत्सुक परिजनों एवं बांधवों से मिलने की अतृप्त अभिलाषा और आजीविका के लिए अर्थसाधन सम्बन्धी तपस्या आदि अनेक अपरिहार्य कर्त्तव्यों के कारण उनके हृदय-मन्दिर में दिन-रात जलनेवाले वन-प्रदीप की ज्योति यदि कुछ काल के लिए मन्द पड़ गई तो इसमें आश्चर्य भी कुछ नहीं हुआ। इस अवसर पर बम्बई, मध्य भारत, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पंजाब, पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त, काश्मीर, हैदराबाद, और भी न जाने कहाँ-कहाँ वे अर्धसाधना के लिए भटकते रहे। परन्तु जिस ममत्व को उन्होंने शैशव में आरोपित किया था और जो बाद में वामन रूप धारण कर तिरोहित-सा हो गया था, वही एक दिन, अपने उस प्रिय आश्रम के उजड़ जाने का मर्मवेधी संवाद सुनकर सहसा जागृत हो उठा। बाल्यकाल का वह अनन्य वन-प्रेम, जगद्व्यापी नारायण के समान एक बार फिर उनके रोम-रोम में व्याप्त हो उठा। अपने उस कथाशेष प्रिय आश्रम, के पड़ौसी चिरपरिचित वनदेवताओं और उसमें बसनेवाले वन्य श्वापदों से पुनर्मिलन के लिए उनका हृदय व्याकुल हो उठा; और एक दिन नंगे सिर, नंगे पाँव, वे उस अशेषप्राय आश्रम की भूमि में सशरीर आ उपस्थिति हुए। चिरकाल से बिछुड़ी हुई उन आश्रम-भूमियों को देखकर वे सहसा इतने वेदनातुर एवं रोमांचित हो गये कि उनकी आँखें अश्रुपूर से भर उठी। हृदय-स्रोत उमड़ पड़ा। उनके प्रथम काव्य ‘शिवालक की घाटियों में’ में अंकित उस सुन्दर ‘पूर्व पीठिका’ में उनके कवि-हृदय-स्त्रोत से उमड़ी हुई कविता-निर्झरिणी हृदय को अत्यन्त विगलित करने वाली है। इस कविता का प्रत्येक पद्य, प्रत्येक पद्य की प्रत्येक पंक्ति और प्रत्येक पंक्ति का प्रत्येक शब्द, उनकी उस अतीत शैशवानुभूति को पुनः प्रत्यक्ष कर देता है। उस कविता के इस स्थान पर अविकल रूप से पुनरंकित करने की उत्कट इच्छा को मुझे बरबस दबाना पड़ रहा है, क्योंकि इससे इस परिमित प्रबन्ध की व्यर्थ की कलेवर-वृद्धि होने का भय है। केवल विशिष्ट पद्यों अथवा उनके अंशों को छाँटकर यहाँ उद्धत करने का साहस भी नहीं हो रहा। क्योंकि एक अंश को समूचे पद्य में से विच्छिन्न करते समय यह संशय पैदा हो जाता है कि कहीं मैं शरीर के एक अंग को काटकर उसे निष्प्राण तो नहीं कर रहा। इसलिए पाठकों को मैं यही परामर्श दूँगा। कि कवि-हृदय के इन उद्गारों को वे अविकल रूप में ही उनके ‘शिवालक की घाटियों में’ नामक प्रथम काव्य में देखें और अपने मन को तृप्त करें।
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