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जिन्दगी और रंग

हरपाल सिंह

प्रकाशक : सुयोग्य प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4952
आईएसबीएन :81-7901-018-x

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सामाजिक सम्बन्धों पर आधारित कहानियाँ

Jindagi Aur Rang

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश


हरपाल सिंह ‘अरुष’ की कहानियों की अपनी विशेषताएँ हैं। इनकी भाषा की रेंज का फलक अपने आप में अनूठा और बड़ा है। मिथकीय, ऐतिहासिक, कस्बाई ग्रामीण और नगरीय कहानियों में परिवेश के अनुसार भी भाषा अपना कमाल दिखाने में सक्षम है। यह इनकी भाषा की बहुआयामी रूप को ग्रहण कर सकने की क्षमता के कारण सम्भव हो सका है।
जहाँ इनकी कहानियाँ सामाजिक सम्बन्धों की परतें खोलती हैं, वहीं मानवीय सम्बन्धों को संवेदना के स्तर तक ले जाकर गहराई तक स्पष्ट करती हैं। यथार्थ के रू-ब-रू रहते हुए कार्य कारण परिणाम को भोगे हुए अनुभवों के आधार पर रूपायित करने की शक्ति इनकी कहानियों को सक्षम और समर्थ बनाती हैं। प्रेम के त्रिकोण और कोरे आर्थिक विद्रूप सम्बन्धों की बनावट से दूर रहकर ‘अरुष’ दैनिक जीवन की समस्याओं से दो-दो हाथ करने वाले पात्रों को जगह देकर नये प्रगतिशील, जूझारू कहानीकार की हैसियत प्राप्त कर चुके हैं।
समाज के विस्तृत पटल पर घटने वाली घटनाएँ उनकी कहानियों में जिस कला के साथ उत्कीर्ण की गयी होती हैं, उससे लगता है समकालीन चेतना और सांस्कृतिक आर्थिक संघर्ष के समीकरणों का सन्तुलन-असन्तुलन ज़िन शक्तियों से प्रभावित हो रहा है, वे इनकी कहानियों में कहीं न कहीं विद्यमान हैं।

जिन्दगी कितनी बार रो चुकी

वह कह रहा था, ‘इस सरोबर में, साले को सरोबर कहते भी जीभ ऐसी हो जाती है कि दहकते कोयले से लिपट गयी हो, पानी ही पानी नहीं होगा, इस परजा के आँसू भी होंगे, तुम लोगों ने मेरा सब कहा, बेकहा करके रख दिया। अब रोओ तीन-तीन हाथ लम्बे आँसू। मिमयाते रहो, सुबकते रहो, सुन कौन रहा है ! या तो छाती फाड़ कर रोओ, या गला फाड़कर दहाड़ो, तब इन सभ्य लोगों के कान पर जूँ सुरसुराएगी। बस जूँ ही सुरसुराएगी। कभी यूँ समझो तुम्हारे लिए कुछ कर सकेंगे !’ उसने बहुत कडुवा मुँह बनाते हुए अपनी बात को आगे बढ़ाने से पहले अपने सामने और अगल-बगल बैठे हुए लोगों को देखते हुए कहा, ‘करेंगे क्यों नहीं। तुम्हारे ऊपर अपना इतिहास लिखेंगे कि, अपना नाम लेकर कहेंगे, बाँध बनाया। इस इतिहास में इन्हीं की परसस्ती लिखी होगी। जिनका नाम लेने से इतनी सडाँद आती है, जैसे सामने ही गू की टोकरी उडेल दी हो। इन समाज सुधारकों का, इन राजनेताओं का और इन इंजीनियरों का, ‘उसने व्यंग्य करते हुए कहा, ‘और उनका नाम लिखा होगा जो तुम्हें आदिवासी से आर्य बना रहे। क्योंकि विंधाचल से जाकर कहीं और बसोगे। कोई इस सहर में कोई उस सहर में। आगे की पीढ़ियाँ तुम्हें भी आर्य कह कह कर बहस किया करेंगी। यहाँ के थे कि वहाँ के थे। इतिहास बन गये अब तो चाहे रोओ, चाहे हँसते-हँसते मान लो। जब तक इधर-उधर नहीं भटकोगे इनकी तरह पवित्तर आर्य कैसे बन जाओगे ? मैं तो सब लोगों से आज भी मूँ दर मूँ कह रहा हूँ। तुम ही तब कहा करते थे, यह गिर्राज का लड़का नेता बनना चाह रहा लगता है। ये बाहर के लोग तुम्हारे नेता बन गये। इनके तलै चूंघलो, भरलो पेट। देख नहीं रहे, केंचुली उतार-उतार कर आते रहे। चमकदार बनकर। मोहित करने को। ऐसा डस दिया। पानी माँगने का भी औसान नहीं रहा। सिलो पोजन छोड़ दिया खून में। हम सब एक-एक करके मरते रहेंगे। बहुत दिनों के बाद नाम भी नहीं बचने का, हम भी कोई थे क्या।’
वह सत्तेन नाम का युवक अपने चाचा बिसम्बर की मृत्यु पर आदिवासी राहत कैम्प में आया था। वह दिल्ली में कुछ काम धन्धा करता है। इससे पहले वह दो बार इस कैम्प में आ चुका है। दुर्भाग्य यह है कि उन दोनों बार भी वह मृत्यु पर ही शोक-संवेदना प्रकट करने आया था। सर्वप्रथम जब वह ग्वालियर में पढ़ता था। बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद उसने बी.ए. में प्रवेश लिया था कि विस्थापन का दर्द न झेल पाने के कारण उसके पिता गिरिराज की मृत्यु हो गयी थी। वह दौड़ा-दौड़ा पहुँचा था। लोगों के दिमाग में अपने परिवार के साथ साथ अन्य बहुत से लोगों को भूख-बीमारी के अलावा उजड़ने की त्रासदी और भावी की अनिश्चितता का भय झेल-झेल कर दम तोड़ते देखा तो वह भी बाँध को रुकवाने की मुहिम में शामिल हो गया। परन्तु वे शुरूआती दिन थे और वह इतनी परिपक्व उम्र का भी नहीं था। बस इतना जानता था कि कहीं दूर पर बसे लोगों को पानी का अधिकार देने के लिए उन्हें उजाड़ा जा रहा था। इसी का दर्द न सह पाने के कारण ऐसे लोग जो भीख पर पलने में हेठी समझते थे, जिन्होंने पीढ़ियों से मेहनत करके अपना गुजारा किया था अब इन राहत कैम्पों में दमघुटन महसूस करते थे। एक-एक कर मर रहे थे। न तो उसका बाप राहत कैम्प में कटोरा लेकर पंगत में लगा, न उसको भोजन मिला। जैसे उसने मृत्यु का अंगीकार ही लक्ष्य बना लिया हो। वह बहुत गुस्साई आँखों से कैम्पों को देखता। सारी व्यवस्था उसे ऐसी लगती थी जैसे महान होने का आडम्बर कर रही हो और सारे विस्थापित व्यवस्था की अपनी निगाह में दीन-हीन कीडे-गिंडार, भिखमंगे होकर रह गये हों।

वह यह सब सहन नहीं कर सका। दिल्ली भाग गया। लगभग दो वर्ष दिल्ली में पैर तुड़ाई करने पर काम मिल गया था। दूसरी बार वह अपने बड़े भाई महीपे की मृत्यु पर आया था। तब वह रो नहीं सका था। उसके मन में उमड़ती ज्वाला ने सम्भवतः उसके रुदन को आक्रोश में बदल दिया था। क्योंकि उसकी बहन और माँ को कोई शहर का आदमी बहका फुसला कर ले उड़ा था। अपमानित और खिन्न होकर उसके भाई महीपे ने कोई जहरीला पदार्थ या जड़ी खाकर इस जीवन से मुक्त होने की जुगत भिड़ा ली थी। तब वह बाँध के विरोध में कुछ करना चाहता था। आन्दोलनों में, भीड़ में वह शामिल होता। कुछ पढ़ा लिखा था अतः वह आन्दोलन के तौर तरीकों में अपनी टाँग अड़ाने के कारण लोगों की निगाह में आने लगा था। एक बार उसने शाम को इकट्ठे हुए अपने लोगों के बीच कहा था, ‘हम अपनी लड़ाई अपने हाथों से लड़ेंगे तो ठीक रहेगा। बाहरी लोगों को हम अपनी लड़ाई का ठेका नहीं दे सकते। यदि ऐसा करते हैं तो हमें मुँह की खानी पड़ सकती है। यदि बाहर के आदमी हमारा समर्थन करते हैं तो ठीक है, नहीं तो वे भी सामने रहें तो रह लें। जिसको दर्द है आपरेशन उसी का होगा और पोस्टमार्टम तो मरनेवाले के शरीर का ही होता है। उसने तब यह भी कहा था, सब लोग मिलकर जितना निरमान हुआ है उसे तोड़ देंगे। और धरती पर उसी जगह जहाँ बाँध को बनाया जाएगा अपने बाल बच्चों सहित बैठे रहेंगे। चाहे लाठी चले, चाहे गोली।’ तब उसी खाफ-कबीले के उनके पारिवारिक प्रतिद्वन्द्वी भूरे ने कहा था, ‘लगता है, यह गिर्राज का लड़का नेता बनने की सोच रहा है। दो दर्जे पढ़ क्या लिया सभी को बेकूप बनाने की फिराक में है, ऐसा लगता है। हमारे हाड़ गोड़ तुड़वाकर अपने आपको चमकाने का चक्कर चलाना सोच रहा है।’
थके हारे लोग जोश खाने लायक खून रखते तो उनको अड़ने की बात समझ में आती भी। हाँ भूरे की बात उन लोगों को तब ठीक लगी थी। फिर भी वह अपने आप को इतना कमजोर नहीं मान सका था, जितना वास्तव में लोग मान रहे थे। उसने लोगों को कई-कई प्रकार समझाने का प्रयास किया, ‘जब वह सरकारी अफसर कह रहा था कि नदी पर अकेले तुम्हारा ही अधिकार नहीं है तो हमें कहना चाहिए था ठीक है, इस धरती पर तो हमारा अधिकार है। यह डूब जाती है तो जहाँ की, जिनकी धरती को इस पानी से सींचा जाएगा उसमें से बाँट कर हमें दी जाए।’ तो भूरे और उसके साथियों ने इस माँग को असम्भव और हास्यास्पद करार देकर खारिज कर दिया था।
सत्तेन ने अपनी बात को बल देने के लिए इतिहास का सहारा लिया लोगों को याद दिलाया, बड़े-बूढ़े और दादी-नानियाँ कितनी कहानियाँ सुनाती हैं, जरा सोचो। पुराने राजाओं ने हमारे पुरखों पर कितने जुल्म ढाये, याद करके देखो। अब के लिखे इतिहास में कहीं उन जुल्मों का जो जिकर भी आता हो। उल्टा उनके टेम को सुबरन जुग लिख दिया। हमारे पुरखों की माँ-बहनें जैसे माँ-बहनें नहीं होती थीं ? जैसे हमारी माँ-बहनें आज भी माँ-बहने न हों। क्या क्या झेलने को मजबूर नहीं हैं ? वह कई-कई बार कह चुका, ‘अंगरेज पूरा जोर लगाकर भी हमें नहीं कुचल सके। जो सारी दुनिया में राज कर रहे थे, वे हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सके। और आज ये अपने देश के करनधार हमें भिखारी बना रहे हैं। हमारे धरम-बिचार और इस परकरती पर हमारी आसथा को ये क्यों जानने लगे। ऐसा लगता है हरषबरधन की तरह हमें उजाड़ कर ही दम लेंगे। तब तो पूरा विंधाचल हमारे कबजे में था।’ उसकी ऐसी इतिहास-व्याख्या आदिवासियों की स्मृति के आधार पर टिकी थी। परन्तु पाठ्यक्रम की पुस्तकें पढ़ने वाले भरोसा किस आधार पर करते। उसकी ऐसी बातें लोगों में सुगबुगाहट तो भरती थीं, परन्तु विद्रोह की उत्तेजना नहीं। फिर आपसी कलह और अविश्वास संघर्ष की क्षमता की जड़ में अपरदन करते ही हैं। जितना वह अपने आपको विरोध के आन्दोलन से जोड़ता रहा उतना ही उसके विषय में दुष्प्रचार किया गया। फिर भी वह लोगों को समझाने में लगा रहा।

क्या इस किरसी और बनसमपदा का पुनरबास समभव है ? यहाँ के सामुदाइक जीवन और संसकिरती का पुनरबास समभव है ? बिकास के जितने डरामे रचे जा रहे हैं उनके आस-पास उतनी ही दर्दीली कहानियाँ क्यों जनम ले रही हैं ? सोचो सोचकर तो देखो ! इन कहानियों को कौन बाँचेगा ? सरकार बाँचेगी, सुपरीम कोरट बाँचेगा ? योजनाकार बाँचेंगे, आन्दोलन की पीठ पर सवार होकर परसिद्दी की धजा फहराने वाले ये बुद्दीजीवी बाँचेंगे ? कोई बता सकता है इस बात को ?’
वह अपनी बात लोगों को समझाना चाह रहा था। परन्तु वे लोग, विरोध के कारण जिनके मन में पारिवारिक और कबीलाई विद्वेष था, उसकी बातों को बेकार की बातें कह कर टरका रहे थे। जो विद्वान लोग बाहर से आकर आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे उनके अनुष्ठान और प्रदर्शनों के सामने डूब क्षेत्र के लोग अभिभूत होते जा रहे थे। मीडिया में, सरकारी दफ्तरों में इन्हीं बाहरी बुद्धिजीवियों का प्रभाव व प्रभुत्व था। जो उन सामान्य लोगों को चौंधियाने के लिए पर्याप्त था। सरकारी अमला इन बाहरी बुद्धिजीवियों को सम्मान देता रहता था और वे भोले-भोले लोग इन्हीं लोगों के प्रति श्रद्धानत होते जा रहे थे। परन्तु वह अकेला ऐसा नौजवान था जो इस आडम्बर के षड़यंत्र को देख रहा था। इसी षड़यंत्र से बचने के लिए सचेत करते हुए उसने एक सभा में कहा था, ‘यहाँ से वहाँ तक, भीख के रूप में करुणा बाँटते हुए उन तम्बुओं में जैसे धुँआ घुट रहा है। हम सब गीले लक्कड़ों के ढेर की तरह सुलग रहे हैं। बुद्धीजीवी बनने वाले लोग तो अदबद कर मन ही मन इस तरह खुस होते हैं जैसे जुद्द जीत लिया हो। अपने दुसकरमों को सतकरमों में तब्दील करके हमारे सामने इस तरह रखते हैं जैसे इनको मनु महाराज कह गये हों कि कलजुग में ऐसे करना, वैसे करना और ये तभी से निरबाह करते आ रहे हैं।’
इस दिन के बाद हो गया षड़यंत्र पर जोर। चारों ओर से आवाज आने लगी यह गिर्राज का लड़का पता नहीं कहाँ-कहाँ की बात कहता है। कैसा-कैसा इतिहास सुनाता है। जो न कभी पढ़ा, न जाना। बुद्धिजीवियों ने भी घोषणा कर दी, ‘हमारी तो समझ में नहीं आता वह क्या बकता फिर रहा है। यदि वह सही-सही कहना और करना सीख ले तो हम उसे भी कुछ न कुछ जिम्मेदारी इस आन्दोलन की देने को तैयार हैं।’ इस प्रचार से उसका प्रभाव घटता चला गया। परन्तु वह अपने आप को एक समर्पित आन्दोलनकारी समझता था अतः अपनी लीक पर अपने हिसाब से चलता रहा। एक दिन तो हद ही हो गयी। वह दिन था, जिस दिन मुआवजे की रकम बाँटी जानी थी। कुछ लोगों की राय थी कि मुआवजा ले लिया जाय, कुछ की मंशा मुआवजा न लेकर सरकार का विरोध प्रकट करने की थी। सभी का एक मत होना न तो स्वाभाविक है और न सम्भव ही। वह भी चाह रहा था कि विरोध प्रकट करने के लिए एक यह अवसर है, हाथ से क्यों जाने दें। उसने कहा, ‘हम पहाड़ों में, जगलों में रहते रहे। हमें कभी पैसे की जरूरत पड़ी ? अमाणमित्ती चीजों से और मजबूरियों से हमारा कोई मतलब रहा ? परकरती ने किसी को अमीर-गरीब नहीं बनाया। हम अमीर नहीं थे तो गरीब भी नहीं थे। जैसे थे बस हम वैसे ही थे। अब इनका पैसा लेकर समझो हमारा ईमान खतम। संघरस की ताकत निचुड़ जाएगी।

एक और सुनलो, मेरी बात को सब कह रहे, समझ में नहीं आती। न आओ। पर जो मुझे दीख रहा, कहना पड़ रहा है, वह यह कि दिल्ली में मुकदमा चलाया जाएगा। मैं यह कह रहा हूँ दिल्ली में, दिल्ली में ही कहाँ, पूरे देश में लफन्डर भरे पड़े हैं। संबिधान, कोरट और जेल उनके लिए ऐसे हैं जैसे ढाल। सुरच्छित हैं उसकी आड में। उस ढाल के पीछे खड़े होकर पूरे देश को सूँतकर रख दिया। सुपरमकोरट के कानून में म्हारे कानून की भी कोई धारा जुड़ी हुई है या नहीं कौन बताएगा।’
छग्गन ने समझते हुए कहा था, ‘जो कुछ तू कह रहा है सत्तेन ! लगता है उसमें कोई न कोई भयानक बात है।’
‘अगर सचाई भयानक है तो मैं क्या कर सकता हूँ ?’ उसने कहा। ‘अब यह तो होना है, जियो और उनके ढंग से जियो। उनके तौर तरीकों से; नहीं तो उन्होंने जानी या हमने जानी। देख लो पूरा जीवन ऐसे हो रहा है जैसे आपत्तियों से बचने की कोसिस हो। ये बाहर के लोग अपने आपको भारत-परसिद्द मान लें चाहे बिसव-परसिद्द मानलें, चाहे बिरह्मा के दूत अपने को कहलें, हमारे इस संघरस को हाँककर बिवस्था की जुद्द-भूमी में ले गये। नहीं समझते तो न समझो। हमारी लड़ाई को इन बाहर के लोगों ने अपनी मुट्ठी में करके हमें धोखा दिया है।’
उसके चाचा बिसम्बर ने उसी दिन, उसके कान में कह दिया था, ‘अब सँभलने का टेम आ गया। या तो अपना मूँ बन्द करले या कहीं चला जा।’
उसी रात कुछ हथियार बन्द लोग सत्तेन को खोजते रहे। बिसम्बर को भी धमकाया गया कि उसका पता नहीं बताता तो उसके बदले तेरी बली चढ़ जाएगी। छग्गन, इन्दरे और असवत को भी गरम किया गया। परन्तु सत्तेन का किसी को या तो पता नहीं था या जिसको पता था उसने भेद नहीं दिया।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आ चुका था। बाँध की ऊँचाई बढ़ाने का कार्य आरम्भ करने के साज-समान आने लगे थे। जिस दिन ट्रकों में समान ढोकर लाया जाने लगा था उसी दिन से बिसम्बर बेचैन हुआ बाँध पर चक्कर काटने लगा था। उसकी बेचैनी ने उसे इतना मरोड़ कर रख दिया कि उसकी भूख और नींद पता नहीं कहाँ छूट गयी थीं। वह जैसे उन्हीं को खोजता फिर रहा था। कई दिन तक गायब रह कर वह एक दिन अपने लोगों के बीच आया। छग्गन ने इशारे से असवत्त को समझाया कि इसको कुछ-कुछ पगलैटपना चढ़ रहा लगता है। बिसम्बर शान्त ही बैठा था। परन्तु उसकी आँखें अजीब प्रभाव दिखा रही थी। उनकी चमक कुछ धुँधला गयी थी परन्तु गहराई बहुत बढ़ गयी थी। शाम का समय था। बिसम्बर की पत्नी ने दो मुट्ठी मोटा चावल व दो चमचे पतली अरहर की दाल के डालकर इचकी-पिचकी प्लेट सरकाई तो जैसे उसको प्लेट और पत्नी दोनों में कोई दिखाई न दी हो। पता नहीं वह कहाँ देख और सोच रहा था। उसके आस-पास कुछ आदिवासी आ बैठे। तमाशा समझकर या हमदर्दी में, किसी को कुछ पता नहीं कौन कैसे आया।

बिसम्बर धीरे-धीरे बड़बड़ाने लगा। उसकी बात पहले तो स्पष्ट सुनाई नहीं दे रही थी। परन्तु जो दस-पाँच आदमी आपस में घुस-घुस कर रह रहे थे धीरे-धीरे चुपा गये तो उसके शब्द पकड़ में आने लगे। ‘अब बैठो, अपने हाथ-पाँव कटवाकर। टुंड-मुंड। बहुत कहा सत्तेन ने कि भिड़ चलो। साले जणखे। चूतड़ों में पूंछ दे गये। वह चिल्लाता रहा कि अड़े बिना काम नहीं चलने का। बाहर के लोगों का चक्कर छोड़ने की कहते-कहते उसने थूक सुका लिया। तुम कहाँ सुनते। हरामखोरो, नामरदो, कानों में घूघ पाल कर बैठे रहे। ये लोग तो पुरसकार के चक्कर में नाम चमका रहे, किसी ने सुना ? सन्त देखे किसी के काम आते, उन्हें तो अपनी सिद्दी और मुकती से मतलब। सत्तन था तो इनको भाँप रहा था। और कोई जान सका हो तो उन्हें मैं भी जानूँ ? उसे तो तुमने संदेयसील कह कर भाग जाने पर मजबूर कर दिया। भुगतो। अपनी बहु बेटियों से अकरन कराओ। पियो ताड़ी। भरो झैंद। संसकिरतीसील हो जाओ, इनका सील बेच-बेचकर। कड़वी लग रही न, उद्दिन भी कड़वी लग रही थी। आज भी लग रही।’ कहकर वह ठठाकर हँस दिया।
कुछ देर के लिए बिसम्बर रुक गया। हालांकि रात थी। अंधेरा भी था, पर आसमान में तारे टिमटिमा रहे थे। उसने अपने दायें हाथ की तर्जनी को आसमान की और ऐसे किया जैसे तारे गिन रहा हो। इसी बीच इन्दरे ने कहा घनी सच्ची कह रहा। दरद आत्माओं तक चीर चुका।’ सुनकर छग्गन ने स्वीकृत में सिर तो हिला दिया पर ध्यान बिसम्बर पर ही टिका रहा। बिसम्बर आसमान के तारों को जैसे सम्बोधित कर रहा हो, ‘अपनी जाइयों की जांघो की कमाई खाकर, इन बाहर वालों के चरितापने के गीत गा-गाकर पिरान तजोगे तो समझ लो तुम्हारा तो सुरग में रिजरवेसन हो गया। मरते भी नहीं। आतमहित्या कर लो। सालो। कहीं जाकर खप जाओ। सत्तन कहता-कहता पागल हुआ जा रहा था। ढा दो इसकी चिनाई। तब तो माइयों का दूद सूकता था। वह कहता था, हल्ला बोल दो ठीकेदार, अंजिनीयर और फुलस पर, तब तो दौड़ कर उन देवताओं के पैरों में लेट रहे थे। उन्हें और उनके लठंगड़ों को तम्बू में अपनी जनानियों के पास सुला कर आप सोते थे वहाँ दूर, खुले में सबेरे उठते थे दिपता चेहरा लेकर। भडुओ ! अब थारे इन देवताओं ने कोरट के हाथ में बेच दिया न। अब एक ढोंग और, इन बाहर वालों का; कोरट से भिडेंगे। भिड़ लो। हमारे तो किवाड़ भिड़ गये। किसी के खुले भी हैं तो रंडीपना करने को खुले ही हैं। परसिद्द कोई हो, निसद्द कोई। सारे आदीबासी, गिंडार केचुएँ दूसरों का सिकार बनने को।’
वह कभी चुप होकर आसमान को ताकता, कभी अपने इर्द-गिर्द बैठे लोगों को देखता। फिर कहने लगता, ‘डूब गयी, डूब गयी। पुरखों की धरती डूब गयी। मैं सारी डूब देखकर आया। ससुरो ! बधिया बछड़ो ! सबके सब अपनी दुनिया से कटकर भटकने का दुख भोगते-भोगते मरोगे। सत्तन कहता रहा, पर किसी सब्हरे ने सुनी भी हो।’ बिसम्बर का पागलपन भीतर ही भीतर बढ़ता जाता था। वह तो जो कुछ बक रहा था वह अन्य लोगों को, जिनमें बिसम्बर की पत्नी औऱ उसका तेरह-चौदह बरस का लड़का और दो-एक जनानियाँ और थीं अच्छा लग रहा था। अपने दर्दों-दुखों को स्वयं तो ये लोग नहीं कह सकते थे, परन्तु बिसम्बर के प्रलाप को सुन-सुनकर ही वे संतोष कर रहे थे। वह एक दम अट्टाहास करके हँसा और, ‘ये सभ्य लोग अपना हगा हुआ अपनी हो रोटी पर धरकर खा लेते हैं, न पछताते न लजाते। उठो आओ तुम भी हगो और स्वाद ले लेकर खाओ।’ जब कोई नहीं उठा तो बिसम्बर खुद ही उठ खड़ा हुआ। अष्टमी तिथि का चन्द्रमा क्षितिज से झाँकने लगा था। कुछ-कुछ उजास फैलने लगा था। उपस्थित लोगों ने उसके पैरों की चपलताओं को अग्रसर होते हुए देखा।
वह चिल्ला-चिल्ला कर कहता जा रहा था, ‘मुझे बलि चढ़ना है। मैं देवता बन गया हूँ। मुझे लोगों की भलाई के लिए अपनी भेंट चढ़ानी है।’ उसकी आवाज गूँजती जा रही थी।

इसके पाँचवे दिन आदिवासियों में खबर आयी कि किसी ने बाँध की दीवार से सरोवर में कूद कर आत्महत्या कर ली। जब बिसम्बर के लड़के नभे ने सुना तो उसके मुँह से एक दम निकल पड़ा। ‘बाबू सब के लिए भेंट गया।’
जो बिसम्बर के करीब थे, उसके व सत्तेन के विचारों से मेल खाते थे, वे सरोवर की ओर चल दिये। उन्हें सुनाते हुए भूरे ने चुटकी ली, ‘पूरा कुनबा आदरसवादी बनता था। गारत हो गया।’
बिसम्बर की अंतिम क्रिया करने के बाद इन्दरे ने अपना लड़का सत्तेन के पास खबर करने भेज दिया।
छग्गन ने इन्दरे और असवत्त बैठे बतिया रहे थे। उनके भीतर दर्द की टीस तो थी परन्तु आह भरने की शक्ति का नाम निशान भी नहीं बचा था। वे छटपटा तो सकते थे परन्तु विरोध में खड़े होने को उनके पैर तैयार नहीं थे। उनको सोचना तो आता था परन्तु करने के लिए उनके हाथों में बल नहीं था। वे समझ तो सकते थे परन्तु समझा नहीं सकते थे। यही दुर्बलता रही कि यह जानते हुए कि सहानुभूति रखने वाले बाहरी लोग उनके लिए भेंट चढ़ने से रहे फिर भी उनके साथ लगकर रहना पड़ा। जितना पैसा इस संघर्ष में खर्च किया गया उसमें, यदि हिसाब लगाकर देंखे, सभी का पुनर्वास हो सकता था।
छग्गन ने कहा, ‘बिंधाचल के बासियों को कभी भी बिकास के साथ नहीं जोड़ा गया।’
‘क्यों जोड़ा जाता ? तोड़ना था तोड़ दिया गया। धूल की तरह आँधी में उड़े फिरेंगे। कोई कन कहीं गिरेगा कोई कहीं। समझो। पहचान भी खतम।’ इन्दरे ने समर्थन और विस्तार देते हुए अपनी बात रखी।
छग्गन जैसे भूतकाल में झाँक रहा था। उसने कहा, ‘मुझे तो बिसम्बर के द्वारा आत्महत्या करने या किसी के द्वारा हत्या करके आत्महत्या का रूप दिये जाने में कोई अन्तर नहीं लग रहा।’ परन्तु वह यह भी देख रहा था कि ऐसी विकट परिस्थिति में जो अपने आपको नहीं सँभाल पाएगा उसका परिणाम बिसम्बर जैसा होते देर नहीं लगेगी। फिर भी वह अपनी यादों को सरोवर में नहीं सिरा सका। उसने ‘किलस-किलसकर जिन्दगी कितनी बार रो चुकी। फसल बोते-काटते लोगों को उजाड़ा। अनाज छड़ती-पछोरती औरतों को धरा। कितनी बार ! क्या हम ही रह गये हैं सब कुछ झेलने को ?’ उसने कहा ही था कि भूरे भी आ गया। ‘यह वही भूरे है, जिसने बाहर के लोगों के पैसे के दम पर आपस में पच्चर ठोके। इसकी पियास दारू तक ही बन कर रह गयी थी,’ उसने भूरे पर व्यंग्य कसा।
‘अच्छा भूरे ! तू ही बता, हम कितने जने थे, बरसों पहले जब याँ आये थे ? आधे नहीं रह गये ? लड़कियाँ-औरतें तो पता नहीं हमने, तुमने या इन सभ्य लोगों ने बेच खायीं। आदमी, बीमारी या मड्डर-लड़ाई में खपा दिये। नहीं बचे। नहीं बचेंगे। ऐसे लोग हैं जो टिम्मी लगा कर पीछे हट जाते हैं, उनसे बच सके हम ? हरद है, बार-बार याद आता है’, कहकर असवत्त ने संतोष की साँस ऐसे ली, जैसे एक मोरचा खोल दिया हो। भरे था कि चुपचाप बैठा रहा। इन्दरे को भी कुछ पूछने की धुन सवार थी। उसने भी,‘ऐसी-ऐसी बातें ही तो बताया करता था सत्तन। उसको यहाँ रहने कब दिया। भूरे। तू ही नहीं था क्या ? उस रात मूँ लपेटकर उसको खोज रहा था। उसकी साँस के दुश्मनों ने तेरे जैसे लोग ही तो किराये ले रक्खे थे। सत्तन ने सच्ची कहा था कि पुराने जमाने से संसकिरत को देवताओं की भासा बताया जाता था। जो लोग ऐसा बताते थे अब वे ही अंगरेजी को दुनिया की सबसे पवित्तर भासा की तरह परयोग कर रहे। मैं तो कहता हूँ अंगरेजी के आगे धोती खोल कर पड़ गये’, कह ही दिया। परन्तु इस बात में संशोधन करते हुए असवत्त बोला, ‘धोती खोलकर नहीं, पेंट खोलकर; वे अब धोती पहनते ही कहाँ है।’ छग्गन ने कहा, ‘हमारी भासा और तौर-तरीके उनकी निघा में जंगली हैं, जंगली। धनुस-बान लेकर चढ़ आते हैं, हमारा सिकार करने।’

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