कहानी संग्रह >> पूरी हकीकत पूरा फसाना पूरी हकीकत पूरा फसानाकृष्ण बिहारी
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कृष्ण बिहारी की कहानियाँ यथास्थिति के आगे हथियार डाल देने वाले लोगों की, कहानियाँ नहीं हैं। ये उन लोगों की कहानियों हैं, जो दूसरों की बिछाई पटरियों पर नहीं बल्कि खुद के बनाए, एक अलग रास्ते पर चलने में विश्वास रखते हैं।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कृष्ण बिहारी की कहानियाँ यथास्थिति के आगे
हथियार डाल देने वाले लोगों की, कहानियाँ नहीं हैं। न ही ये पटरी पर चलने वाले उन
डिब्बाबंद परम्परावादी लोगों की कहानियाँ हैं, जो टाइमटेबल के अनुसार जीवन
प्रारम्भ करते हैं, टाइम टेबल के अनुसार जीवन जीते हैं और टाइम टेबल के
अनुसार चुपचाप मौत को गले लगा लेते हैं। कृष्ण बिहारी की कहानियाँ उन
लोगों की कहानियों हैं, जो दूसरों की बिछाई पटरियों पर नहीं बल्कि खुद के
बनाए, एक अलग रास्ते पर चलने में विश्वास रखते हैं। यह राह चाहे कितनी भी
कंटकपूर्ण, कितनी भी दुरूह हो, इस राह पर चलते हुए उन्हें चाहे जितने भी
दुःख सहने पड़े, चाहे जितना भी लहूलुहान होना पड़े, ये उस पर चलने से डरते
नहीं हैं। कृष्ण बिहारी की कहानियों के पात्र सड़ी-गली नैतिकतावादी
धार्मिक व्यवस्था ठेंगे पर रखकर जीवन को जीने की तरह जीवन के पक्षधर हैं।
उसे ढोंग या पाखण्ड की तरह जीने के पक्षधर हैं। उसे ढोंग या पाखण्ड की तरह
जीने के कायल नहीं हैं। इसीलिए ये इतने जीवन्त, जागरूक और मानवीय जिजीविषा
से भरे हुए नजर आते हैं, कि एक बार पाठक इनके सम्पर्क में आने के बाद इनके
साथ सूली तक चढ़ने से घबराता नहीं है।
ये पात्र पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक की बहस में न पड़ कर वर्तमान रूढ़िवादी जीवन व्यवस्था से सीधे मुठभेड़ तो करते ही हैं इस व्यवस्था को बदल डालने के दुस्साहस से भी भरे हुए हैं। अपने इसी दृढ़ संकल्प के कारण ये तथाकथित नैतिकतावादियों को अश्लील और असुविधाजनक लग सकते हैं पर इनका यही विद्रोही तेवर इनकी शक्ति भी है और इनके संघर्ष का धारदार शस्त्र भी।
ये पात्र पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक की बहस में न पड़ कर वर्तमान रूढ़िवादी जीवन व्यवस्था से सीधे मुठभेड़ तो करते ही हैं इस व्यवस्था को बदल डालने के दुस्साहस से भी भरे हुए हैं। अपने इसी दृढ़ संकल्प के कारण ये तथाकथित नैतिकतावादियों को अश्लील और असुविधाजनक लग सकते हैं पर इनका यही विद्रोही तेवर इनकी शक्ति भी है और इनके संघर्ष का धारदार शस्त्र भी।
अमरीक सिंह दीप
वक्तव्य
मेरा समय मुझे कल्पना की इज़ाजत नहीं देता।
मैं अपने समय
को भरपूर जीता हूँ। मेरे सुख, मेरे दुख, समय के सुख-दुख हैं। मेरी
कहानियाँ मेरे समय की कहानियाँ हैं। इससे ज्यादा मैं इनके और अपने बारे
में क्या कहूँ। आपकी राय सिर-माथे।
कृष्ण बिहारी
शराबी
बड़े-बड़े शराबी देखे भाई, लेकिन शिवशंकर
जैसा शराबी नहीं
देखा। हो सकता है कि दुनिया में शिवशंकर से भी बड़े-बड़े शराबी हों किन्तु
उनमें से किसी एक से भी मेरा साबका अब तक तो नहीं पड़ा। आगे बड़े तो कुछ
कह नहीं सकता। वो कहते हैं न कि मुसीबत कभी अपने आप नहीं आती, उसे बुलाया
जाता है। तो, शिवशंकर भी मुझसे मिलने खुद नहीं आए थे। उन्हें मैंने ही
बुलाया था। बुलाया क्या था, निमंत्रण दिया था। वह भी खुलेआम। अखबार के
माध्यम से। बताता हूँ भाई, आप अधीर क्यों हो रहे हैं....मुझे पता है कि
शराब के नाम से ही क्या होने लगता है...और, एक शराबी, दूसरे शराबी की
हरकतों के बारे में जानने की उत्सुकता क्यों रखता है...मेरा ख़्याल है
कहीं आप भी तो..खैर...
शिवशंकर से मिलने के लिए अखबार का सहारा लेने का कारण यह था कि मुझे अपने फ्लैट के दो कमरों के लिए किराएदार चाहिए थे। विज्ञापन इसीलिए दिया था, ‘‘रूम अवेलेबल फॉर डीसेंट नॉनकुकिंग एक्जीक्यूटिंग इंडियन बैचलर फ्रॉम जुलाई फर्स्ट...रेण्ट वन थाउजेंट पर मंथ इनक्लूडिंग इलेक्ट्रसिटी...मोड ऑफ पेमेण्ट, थ्री मंथ्स एडवांस...कॉन्टैक्ट मिस्टर राधेश्याम ऑफ्टर लंच ऑन 12345678...’’ यहाँ की करेंसी को भारतीय रुपये का दस गुना मान लें।
भाई, अब अधीर न हों। शिवशंकर आने ही वाले हैं। बस, आप यह और जान लें कि अखबार में अपना फोन नम्बर दे देने के बाद आदमी किन-किन जिल्लतों से नहीं गुज़रता। हाँ, एक बात और शिवशंकर की इस कहानी के माध्यम से अगर आपने मेरे और इस शहर के बारे में कुछ जान लिया तो यह समझिए कि मैंने आपसे कुछ कहा नहीं और आपने कुछ सुना नहीं। तो, पहली बात कि फोन यदि लोकल किया जाए तो उसके पैसे नहीं पड़ते। अब जबकि फोन फ्री है तो उसका दुरुपयोग तो होगा न....अब ज़रा उन कॉल्स के कुछ नमूने तो पढ़िए जो मुझे सुनने को मिले...
पहला फोन आया, ‘एकोमडेशन स्टिल अवेलेबल....’
‘एस..’
‘कितना आदमी के लिए...?’
‘क्या मतलब .....!’
‘मतलब...एक रूम में कितना आदमी रहेगा...?’
‘एक रूम में एक आदमी...और कितना आदमी...।’
‘चार नहीं रह सकता ...?’
‘नहीं...।’
‘क्यों...?’
‘बताना ज़रूरी है...और फिर, फ्लैट मेरा है कि आपका...?’
‘थैंक्यू...’ फोन कट गया।
अगला फोन था...
‘हैलो...।’
‘हैलो...।’
‘सलामवालेकुम...।’
‘वालेकुमसलाम...।’
‘आपका इसमें शरीफ...।’
‘मैं राधेश्याम बोल रहा हूँ....’
‘आपके पास कमरा है जी...।’
‘हाँ, है...’
‘देखिए ज़नाब...मैं मुस्लिम और पाकिस्तानी हूँ...क्या आप मुझे कमरा देंगे...’
‘आपका नाम....’
‘ख़ाकसार को शोएब कहते हैं...’
‘हाँ, तो मिस्टर शोएब...मुझे मुस्लिम और पाकिस्तानी से कोई गुरेज़ नहीं है...मेरे बहुत से दोस्त यहाँ भी और इण्डिया में भी मुस्लिम हैं....लेकिन, मैं बाल-बच्चों वाला आदमी हूँ। जिस तरह दो सगे भाइयों में भी थोड़ी दूरी बनाए रखकर आपसी प्रेम को बढ़ाया जा सकता है, वैसे ही आपस में थोड़ी दूरी बनाए हुए हम भी अपने संबंधों को पुख़्ता कर सकते हैं। दोस्ताने को बढ़ा सकते हैं...लेकिन पास-पास रहते हुए किसी छोटी-मोटी बात पर अनबन हो तो वह ठीक नहीं है...।’
‘मसलन...’
‘मसलन...इण्डिया और पाकिस्तान के बीच होने वाला एक क्रिकेट-मैच ही हम दोनों के लिए तनाव का वायस हो सकता है...यों भी तो लोग टेंस होकर ही देखते हैं...।’’
‘मतलब...आप अपनी ही तरह किसी काउ यूरिन ड्रंकर्ड को ही कमरा देंगे...’
‘आखिर, बात वहीं पहुँच गई जहाँ मैं ले जाने के मूड़ में नहीं था...अब आगे इस मामले पर मैं आपसे बात भी नहीं करना चाहता...’ मैंने फोन रख दिया। यों तो फोन को कटना तभी था जब ज़नाब शोएब उधर से उसे काटते। मेरे फोन रखने से क्या होना था।
खैर, उन्होंने दया की और फोन काट दिया।
मूड़ खराब हो गया। फिनेटिक्स से दुनिया भरी पड़ी है। हर कहीं। हर मजहब में कैसे बदलेगी यह दुनिया...कब समझेंगे लोग...’
फोन कट गया था। यही बहुत बड़ी बात थी। मैं अभी सामान्य भी नहीं हो पाया था कि फोन की घण्टी फिर बजी....
‘हैलो...अ...अ...’
‘हैलो...’
‘एकोमडेशन है...’
‘हाँ, है...’
‘डिश एण्टीना है...।’
‘आपको कमरा चाहिए कि डिश एण्टीना.....’ मैंने फोन रख दिया। लोग चाहते क्या हैं.....
इसी क्रम में जो अगला फोन आया उसे अटेण्ड करने के बाद दिमाग ही भन्ना गया.
‘आलो...अ...’
‘यस...’
‘एकोमडेशन अवेलेबल...’ आवाज़ एक औरत की थी।
‘नॉट फॉर यू...’
‘ह्वाइ...मैं फिलीपिना...आमकू एन्जॉय नईं करेगा...’
‘नईं करेगा...’
‘कइसा आदमी हाय..किसी पाकिस्तानी को बोलती तो वेलकॉम करता...’
‘कोई भी फैमिलीवाला हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी तुमको वेलकम नहीं करेगा...समझी....।’
फोन कट गया। फिलीपाइन्स की होकर भी वह हिन्दी बोल रही थी। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। बहुत-सी फिलीपाइन्स की लड़कियाँ हिन्दी-उर्दू मिश्रित जुबान बोल रही हैं। वैसे भी इस धंधे में रहने वालियाँ प्रायः उस समुदाय के लोगों की बोली के दो-चार जुमले ज़रूर रट लेती हैं। जिनके लोगों की संख्या उनके आस-पास ज्यादा होती हैं। धंधा तो चलाना है न। और, क्या पता वह फिलीपाइन्स की न भी रही हो। कोई भारतीय, बांग्लादेशी या फिर किसी अन्य देख की रही हो और अपनी नागरिकता को छिपाते हुए फिलीपाइन्स का नाम ले रही हो। रंडियाँ हर मुल्कों में होती हैं। वैसे भी आज के दौर में जहाँ सब कुछ उत्तर-आधुनिक हो रहा है उसमें रंडी होना स्टेटस का सिम्बल हो गया है। यह कहना कि उन्हें पुरुषों ने वेश्या बनाया उतना ही सही है जितना कि उनकी अपनी ज़रूरतों ने उन्हें कमाई के इस आसान रास्ते पर डाल दिया। किसी जमाने में वेश्याओं को देखकर या उनके बारे में सुनकर महिलाओं के दिलों में दया, सहानुभूति या घृणा जो कुछ भी उत्पन्न होती रही हो, हुई होगी। आज की हालत दूसरी है। जिस तरह से आज की चमक-दमक में कोई वेश्या हेल्थ कांशस और ब्यूटी क्वीन हुई-सी किसी कार में बैठती या उससे उतरती है, उसे देखकर बहुत-सी महिलाएँ भीतर-ही-भीतर छटपटा उठती हैं। होती रही होंगी कुटनी जैसी मौसियाँ जिनको पान चबाते और लड़कियों का शोषण करते देख दिल में भावुकता के बगूलों का ज्वार उठता रहा होगा। अब तो नई उमर की पामेला बोर्डेसों ने कुटनियों को कुछ इस तरह से कूट दिया है कि वे बस पुरानी फिल्मों में ही दिखती हैं।
दो दिनों तक विज्ञापन निकलता रहा। कॉन्ट्रैक्ट के मुताबिक उसे दो दिन और निकलना था। पिछले दो दिनों में जो फोन आए, सब आलतू-फालतू ही थे। अगर फ्लैट का किराया मैं अकेले झेल पाता तो किराएदार रखने की ज़रूरत ही नहीं थी। मगर फ्लैट इतने महँगे हैं कि बिना किराएदार रखे उन लोगों का गुज़ारा होना मुश्किल है, जिनके जॉब कॉन्ट्रैक्ट में रिहाइश की सुविधा नहीं है। यहाँ दो बेड-रूम फ्लैट का एक वर्ष का किराया लगभग उतना ही है जितने में एक दो बैड-रूम का फ्लैट हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के किसी मध्यम श्रेणी के शहर में खरीदा जा सकता है। एक जुलाई से मेरी छुट्टियाँ थीं, दो माह की। उसी दिन भारत जाने के लिए सपरिवार टिकटों की बुकिंग भी करा रखी थी। टिकट ओ.के. भी हो चुके थे। किराएदार ढूँढ़ने या पाने के लिए मात्र दो दिन ही मेरे पास थे। यदि फ्लाइट कैंसिल कराता तो अगले बीस दिनों के लिए किसी भी फ्लाइट में सीट उपलब्ध नहीं थी। लग रहा था कि छुट्टियों का सत्यानाश होगा। क्योंकि बिना किराएदार रखे जाने का मतलब एक बड़े आर्थिक नुकसान को सहना था। आर्थिक नुकसान का यह बोझ मेरे लिए बहुत भारी पड़ता।
गनीमत हुई कि दो में से एक कमरे के लिए एक मित्र ने फोन किया। उसका कोई दोस्त बहरीन से यहाँ नौकरी पर आ रहा था जिसके लिए मित्र को एकोमडेशन, तय करके रखनी थी। एक कमरे के किराए पर उठ जाने से थोड़ी राहत मिली। सोचा, किराएदार को ही दूसरा कमरा रेण्ट पर उठा देने के लिए कह जाऊँगा।
अगले दिन मित्र जिसे अपने साथ लेकर आया उनका नाम विजय दास था। मास्टर बेडरूम अपने पास रखकर मैंने उन्हें हॉल दे दिया। जो एक कमरा अब बच गया उसके बारे में बता दिया कि यदि यह मेरे भारत जाने से पहले किराए पर नहीं उठता तो विज्ञापन को निकलने दें और किराएदार के मिल जाने पर उससे मिले एडवांस को मेरे अकाउंट में जमा करा दें। विज्ञापन निकलते रहने के कारण टेलीफोन अटेण्ड करना मेरी मजबूरी और ज़रूरत दोनों थी। इस चक्कर में शॉपिंग के लिए बस निकलने ही वाला था कि फोन की घण्टी घनघनाई...
‘हैलो...’
‘हैलो...’
‘गुड ईवनिंग...ऑयम मोहन...’
‘गुड ईवनिंग मिस्टर मोहन...यस, गो अहेड....’
‘आपके पास कमरा है...या...’
‘हाँ, है...’
‘कमरा मेरे एक दोस्त को चाहिए...’
‘नो प्रॉब्लम...’
‘हम कब देखने आएँ....’
‘अभी तो मैं शॉपिंग के लिए निकल रहा हूँ...कल सुबह 9 बजे के बाद कभी भी आ जाएँ...रात की फ्लाइट से मैं सपरिवार इण्डिया जा रहा हूँ....।’
‘प्लीज, आप दस मिनट रुकें...हम अभी आ रहे हैं...हमें कमरा तुरन्त चाहिए...।’
‘ठीक है..लेकिन आप दस-पन्द्रह मिनट में अगर नहीं पहुँचे तो मैं शॉपिंग के लिए निकल जाऊँगा...।’
‘ओ.के. हम आ रहे हैं।’
दस मिनट से कुछ ही ज्यादा समय लिया होगा मिस्टर मोहन ने पहुँचने में। उन्होंने अपने दोस्त से मिलवाते हुए कहा, ‘आप हैं मिस्टर शिवशंकर...कमरा इनको ही चाहिए...मिस्टर शिवशंकर यहाँ एक योरोपियन कंपनी में मेकेनिकल इंजीनियर हैं...।’
‘आप कमरा देख लें...आपको पसंद आए तो ठीक...बाकी सभी शर्ते मैंने अखबार में दे ही दी हैं...।’
‘आपकी सभी शर्ते हमें मंजूर हैं..ये है तीन महीने का एडवांस...’ कहते हुए मिस्टर मोहन ने किराए की रकम मेरी हथेली पर रख दी। कमरा ठीक-ठाक था ही। उन्होंने एक नज़र देखा और कहा, ‘कमरा आप अभी से दे दीजिए...हम अभी शिफ्ट कर लेंगे...’ मिस्टर मोहन ने कहा।
‘इनके पास कुछ तो सामान होगा...अभी रात में पिक-अप और कुली कहाँ मिलेंगे...’ आप आराम से कल दिन में शिफ्ट करें...कोई ज़रूरत होगी तो मैं भी आपकी मदद कर दूँगा....’
‘नहीं, इनके पास कुछ ख़ास सामान नहीं है...मेरे पास कार है, इनका सामान मैं अपनी कार में रखकर ले आऊँगा...’
‘आप कर सकते हैं शिफ्ट तो कर लें, मुझे कोई आपत्ति नहीं है...’ मैंने कहा और उन्हें मेन-डोर और उनके कमरे की चाभियाँ दे दीं। चाभियाँ लेकर मिस्टर मोहन और शिवशंकर तुरंत निकल पड़े। दोनों कमरे किराए पर उठ जाने से मन को राहत मिली थी। अब मैं निश्चिंत होकर अपनी छुट्टियों के लिए निकल सकता था। कमरा खाली रह जाने का अर्थ होता लगभग बीस हजार भारतीय रुपयों की चोट। फ्लैट का छह महीने का किराया मुझे भी एडवांस देना पड़ा था। साथ ही शिफ्टिंग, कारपेटिंग, बिजली-कनेक्शन और टेलीफोन-कनेक्शन लेने में मेरी जेब का हाल बुरा हो गया था। भगवान को लाख-लाख धन्यवाद देते हुए मैं पत्नी के साथ शॉपिंग के लिए निकला। अब किसी टेलीफोन को अटेण्ड करने की आपातकालीन चिन्ता से भी मुक्ति मिल गई थी। दो तिहाई रकम किराएदारों की और एक तिहाई अपनी रकम लगाकर मैं एक साल के लिए फ्लैट का मालिक बन गया। जो कि मैंने किराया एडवांस में भुगतान किया था।
शापिंग तो मैंने की। लेकिन, एक बात मेरे मन में हलचल मचाती रही कि मिस्टर मोहन और शिवशंकर को शिफ्ट करने की इतनी जल्दी क्यों थी। कमरा तो एक जुलाई से दिया गया था। फिर उन्हें इतनी जल्दी किसलिए थी। वैसे भी, कमरे के संबंध में सारी बात मिस्टर मोहन ने ही की थी।
शापिंग के बाद जब मैं लौटा तब तक देर हो चुकी थी। शिवशंकर मय सामान आ चुके थे। ऐसा मुझे मिस्टर दास ने बताया। शिवशंकर का कमरा अंदर से बंद था। देर रात को उन्हें बुलाना अच्छा नहीं लगा। सोचा, जो कुछ कहना होगा, सुबह कहूँगा। लेकिन, सुबह देर से आँख खुली और शिवशंकर से भेंट नहीं हुई। तीस जून को रात की फ्लाइट से मैं चल पड़ा।
दो महीने की छुट्टियों का मेरा सारा वक्त उन सभी कामों को निपटाते हुए बीतता है जो बिना किसी कारण के महीनों से सिर्फ इसलिए रुके रहते हैं कि जब मैं वहाँ पहुँचूँगा तो उन्हें कराऊँगा ही। छूट हुए कामों में ऐसे भी काम होते हैं, जैसे बाथ-रूम का बल्ब फ्यूज पड़ा है, कॉल-बेल खराब पड़ी है। मोटर साइकिल की सर्विस नहीं है। हैंडपंप का मोटर जल गया है। कूलर का एक्झास्ट काम नहीं कर रहा है, आदि-आदि। बड़ी कोफ्त होती है। कभी-कभी मन करता है कि मैं भी आँखें होते हुए देखना बंद कर दूँ। लोग विदेश से बड़ी हसरत लिए घर आते हैं कि उन्हें अपने लोगों के बीच पहुँचकर सुख मिलेगा, परन्तु ऐसा होता नहीं है। प्रायः यह स्थिति हर उस घर की है जिसका कोई सदस्य विदेश में है। उसके घर-परिवार के लोग, दोस्त-दुश्मन, घर-रिश्तेदार सभी यह समझते हैं कि वह डॉलरों से लदे हुए वृक्षों के बीच है इसलिए उन सभी की आवश्यकताएँ पूरा करना उसका न केवल कर्त्तव्य है, बल्कि घर्म है। लोग यह नहीं जानते कि डॉलर का कोई पेड़ नहीं होता। रुके पड़े कामों को निपटाने में होता यह है कि वापस आने वाले दिन यही लगता है कि कल ही तो आए थे और आज जा रहे हैं।
छुट्टियों के बीच एक बार फोन करके मैंने विजय दास से यह जानने की कोशिश की थी कि मेरी अनुपस्थिति में किसी प्रकार की कोई कठिनाई तो नहीं है। उनसे पता चला कि सब कुछ ठीक-ठाक है। उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं बताया कि शिवशंकर को लेकर किसी प्रकार की कोई चिन्ता होती।
शिवशंकर के साथ जान-पहचान तो वापस लौटने के बाद ही हुई। एक दिन मुझे कैजुअल लीव लेनी पड़ी। बिजली और टेलीफोन के बिल आए पड़े थे। बिल जमा करके लौटने पर मैंने शिवशंकर को फ्लैट में ही पाया। उनके कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ था। एक दृष्टि उधर डालने के बाद मैं अपने कमरे में आ गया। पत्नी एक विद्यालय में अध्यापिका है। दोनों बेटे भी उसी विद्यालय में हैं। वे सभी विद्यालय गए थे। मैं अभी कपड़े वगैरह बदलता कि इसी बीच दरवाज़े पर दस्तक हुई। देखा तो शिवशंकर थे, ‘‘एस मिस्टर, शिवशंकर...’
‘आप ड्रिंक्स लेते हैं...’ उन्होंने पूछा।
‘हाँ, लेता हूँ...क्यों...’
‘लेंगे....’
‘ले लूँगा...वैसे दिन में अवायड ही करता हूँ...’
‘क्या लेंगे..ह्विस्की या जिन..’
‘ह्विस्की ले लूँगा...आज आप ऑफिस नहीं गए...।’’ मैंने पूछा।
‘‘हाँ, आज नहीं गया...आइए मेरे कमरे में...वहीं बैठते हैं।...’
शिवशंकर के कमरे में इससे पहले मैं नहीं गया था। कमरे में सामान के नाम पर कुछ खास नहीं था। दो बड़े-बड़े, सूटकेस, एक सिंगल बेड और एक किनारे पर मेज के ऊपर एक हॉट प्लेट वाला बर्नर। मेज पर ही दो प्लेट और दो शीशे के गिलास थे। कमरे में बिल्ट-इन आलमीरा था। जब शिवशंकर ने उसे खोला तो वह मेरे लिए चौंकने को काफी था। आलमीरा क्या, अच्छा-खासा बॉर था वह। कौन्याक ब्रॉण्डी, शिवास रीगल, विलियम ग्रॉण्ट्स और रेड-ब्लैक लेबल जॉनीवाकर की सात-आठ बोतलें करीने से लगी थीं। उन्हें देखकर मैंने सोचा कि मिस्टर शिवशंकर के पास अच्छी-ख़ासी रकम का लिकर-परमिट ज़रूर होगा। उन्होंने मेरे लिए शिवास रीगल से एक लॉर्ज पेग बनाया। उनकी गिलास में पहले से ही थोड़ी बची हुई थी। उसे उठाते हुए उन्होंने ‘चीयर्स’ कहा और गिलास की दारू एक घूँट में खत्म करके अपने लिए एक नया पेग बना लिया। एक प्लेट में थोड़े से ड्राइ-फ्रूट्स पड़े थे। उन्हीं को चबाते हुए हमने पीनी शुरू की। औपचारिक-सी बातें होती रहीं। बातों के दौरान मैंने महसूस किया कि पीने के मामले में शिवशंकर जैसे कुछ जल्दी में थे। अभी मैंने गिलास से छोटे-छोटे दो घूँट ही लिए होंगे कि उस दौरान शिवशंकर ने लगभग दो पेग ह्विस्की उतार ली थी। मेरे आने से पहले भी उन्होंने कुछ तो लिया ही होगा...
‘आप कुछ जल्दी में पी रहे हैं....बात क्या है...?’ मैंने पूछा।
‘मैं तो बस, ऐसे ही लेता हूँ....’ उन्होंने कहा।
‘बट, इट इज नॉट गुड....गो स्लो विथ ड्रिंक्स....’ मैंने उनसे कहा। लेकिन जैसे उन्होंने कुछ सुना ही नहीं।
‘आपको ड्रिंक्स कहाँ से मिलती है...’ उन्होंने पूछा।
‘क्या मतलब...’ मेरे पास तो परमिट है..बिना परमिट के कैसे मिलेगी...’
‘खूब मिलती है...अब देखिए, मेरे पास ही कहाँ परमिट है..लेकिन जितनी चाहूँ, पा सकता हूँ...’ उन्होंने कहा।
‘मुझे इस बारे में कुछ नहीं मालूम...’
शिवशंकर की बात से मुझे हैरत हुई। इस देश में यह क्या कम चौंकने वाली बात है कि कोई बिना परमिट के भी शराब पा सकता है। कानून इतने सख़्त हैं कि अवैध गतिविधियों में पकड़े जाने पर मुहावरे की भाषा में खाल उतरवाकर भूसा भरना ही बच रहता है। डिपोर्टेशन तो खैर, अन्त ही है...
‘ऑयम अ फ्रस्टेटेड मैंन...आपको कुछ दिखाऊँ....’ शिवशंकर ने कहा और लड़खड़ाते हुए से बिस्तर से उठे। उनके ऐसा कहने पर भी मुझे अजीब-सा लगा। योरोपियन कंपनी में इंजीनियर होते हुए भी अगर मिस्टर शिवशंकर एक कुंठाग्रस्त व्यक्ति हैं तो उन बेचारों का क्या हाल होगा जो न केवल चौथी श्रेणी के कर्मचारी हैं, बल्कि जिन्हें वेतन भी आठ-आठ दस-दस महीने तक नहीं मिलता। शिवशंकर ने लड़खड़ाते और सँभलते हुए अपनी बड़ी-बड़ी दोनों अटैचियाँ खोलीं। दोनों ही किताबों से भरी हुई थीं। मोटी-मोटी किताबें। सभी किताबों के शीर्षकों से पता चलता था कि वे भौतिक-विज्ञान से संबंधित हैं।
‘बचपन से ही मेरा मन था कि फिजिक्स में गहन अध्ययन करूँ और दुनिया को कोई नई चीज़ दूँ...बट, ब्लडी हेल...माय फादर स्प्वॉयल्उ एव्हरी थिंग...ही वांटेड टू सी मी ऐन इंजीनियर...’ शिवशंकर एक-एक किताब को सँभालकर उठाते, सहलाते और फिर एक ओर इस तरह रख देते जैसे कोई अपने नवजात बच्चे को सँभालकर उठाए, सहलाए और फिर अचानक याद करे कि बच्चा तो मर चुका है। हाथों में महज़ एक लाश है। सपनों की लाश। अटैचियों में जितनी भी किताबें थीं, शिवशंकर ने एक-एक करके सभी बाहर निकाल डालीं। हर किताब अब एक लाश बनी हुई फर्श पर पड़ी थी।
‘मिस्टर शिवशंकर..प्लीज, आप आराम करें...मैंने उनकी हालत को देखते हुए कहा। उन पर नशा हावी हो चुका था।
‘राधेश्याम जी, आपको पता नहीं...आपको नहीं मालूम कि ऐसे बापों की संख्या आज की दुनिया में बहुत ज्यादा है जो अपने बच्चों को जीते-जी मार रहे हैं...उनके फ्यूचर के साथ खेल रहे हैं...मेरा बाप भी....साला, इडियट फेलो...’
‘आप सो जाएँ..प्लीज, टेक रेस्ट’ किसी तरह मैंने उन्हें बिस्तर पर लिटाया और फिर कभी साथ बैठने का वायदा करके अपने कमरे में आ गया। शिवशंकर की ज़िन्दगी मुझे अबूझ-सी लगी।
शाम को विजय दास से मैंने शिवशंकर के बारे में जान-बूझकर बात की। असल में मुझे चिन्ता हो गई थी कि एक ऐसे आदमी को अपने घर में किराएदार रखना जो बिना परमिट के अपने कमरे में शराब रखता हो किसी भी दृष्टि से न तो उचित है और न ही सुरक्षित। किसी भी दिन कुछ भी हो सकता है। यह भारत नहीं है जहाँ किसी भी मामले में फँसने पर अपने संपर्कों और नेतागिरी या रिश्वत के बल पर बचा जा सके। यहाँ पहला कदम जेल है और दूसरा न्यायालय। सज़ा के बारे में तो कुछ सोचना फिजूल है। क्या होगी, मालिक जाने। विजय दास ने जो कुछ शिवशंकर के बारे में बताया, वह और चौंकाने वाला था।
शिवशंकर पिछले तीन महीनों से ही यहाँ है। अभी उन्हें वीज़ा भी नहीं मिला है। विज़िट को ही बार-बार बढ़ाया जा रहा है। जिन दिनों मैं भारत में था उस दौरान शिवशंकर कई-कई दिनों तक अपने ऑफिस नहीं गए। अपने कमरे में ही पड़े रहकर सुबह से ही पीना शुरू करते और बेहोश होने की हद तक पीते रहते। कई बार दास ने उन्हें कमरे और बाथरूम के बीच के पैसेज में गिरा हुआ पाया। उन्हें बिस्तर तक पहुँचने में मदद की। दो-एक बार तो उन्हें नहलाना-धुलाना भी पड़ा। हर बार होश में आने पर ऑयम सॉरी बोलकर फिर पीने लगते। पीते और रोते। रोते और बताते कि शराब पीने की इस लत के कारण उनका घर-परिवार बिखर गया है। बीवी से उनका संबंध वर्षों से नहीं है और उनकी इकलौती बेटी उनसे बात करना तो दूर, उनकी शक्ल भी देखना नहीं चाहती। पत्नी से कानूनन तलाक तो नहीं हुआ है पर मानसिक और शारीरिक रूप से उसने खुद को शिवशंकर से पूरी तरह असम्बद्ध कर लिया है। लगभग पन्द्रह वर्षों से ऐसा ही चल रहा है।
बिखरे हुए घर में छितराए हुए शिवशंकर की हालत मुहल्ले के उस खजुहा कुत्ते की-सी थी जिसे सभी दुरदुराया करते। शराब की इस लत के कारण उनकी नौकरियाँ भी लम्बे समय तक न चल पातीं। जो कुछ कमाते वह शराब की भेंट चढ़ जाता। यदि कभी शराब न मिलती तो उनके हाथ-पाँव काँपने लगते। ठीक से बोल भी नहीं निकलते। कई बार ऐसा भी हुआ कि शराब न पा सकने की हताशा में उन्होंने आत्महत्या की कोशिश भी कर डाली, पर हर बार बच गए। हाँ, एक बात थी कि अपनी असाधारण प्रतिभा के कारण उन्हें नौकरी फिर-फिर मिल जाती। शराब अंदर होती तो उन जैसा काबिल आदमी अपने विभाग में काम के मामले में नम्बर वन होता। और, शराब न होती तो काबिलियत से उनका दूर का भी रिश्ता न होता। जिन दिनों भारत में अपने परिवार के साथ उनका रह पाना मरते हुए जीना था उन्हीं दिनों उन्हें ओमान में काम करने का ऑफर मिला और वह अपने कलुषित अतीत और नारकीय वर्तमान को छोड़कर भाग निकले। पैसा इतना मिलने लगा कि वह उनके बेइन्तहा पीने के बाद भी काफी बच रहता। उन्होंने बहुत चाहा कि बीवी उन्हें माफ कर दे और उनका पारिवारिक जीवन एक रास्ते पर आ जाए। लेकिन वह शायद कच्ची मिट्टी की नहीं बनी थी। अपनी बेहुरमती को वह कभी भूल नहीं सकी और उसने शिवशंकर को कभी अपने अथवा बेटी के पास फटकने भी नहीं दिया।
शिवशंकर से मिलने के लिए अखबार का सहारा लेने का कारण यह था कि मुझे अपने फ्लैट के दो कमरों के लिए किराएदार चाहिए थे। विज्ञापन इसीलिए दिया था, ‘‘रूम अवेलेबल फॉर डीसेंट नॉनकुकिंग एक्जीक्यूटिंग इंडियन बैचलर फ्रॉम जुलाई फर्स्ट...रेण्ट वन थाउजेंट पर मंथ इनक्लूडिंग इलेक्ट्रसिटी...मोड ऑफ पेमेण्ट, थ्री मंथ्स एडवांस...कॉन्टैक्ट मिस्टर राधेश्याम ऑफ्टर लंच ऑन 12345678...’’ यहाँ की करेंसी को भारतीय रुपये का दस गुना मान लें।
भाई, अब अधीर न हों। शिवशंकर आने ही वाले हैं। बस, आप यह और जान लें कि अखबार में अपना फोन नम्बर दे देने के बाद आदमी किन-किन जिल्लतों से नहीं गुज़रता। हाँ, एक बात और शिवशंकर की इस कहानी के माध्यम से अगर आपने मेरे और इस शहर के बारे में कुछ जान लिया तो यह समझिए कि मैंने आपसे कुछ कहा नहीं और आपने कुछ सुना नहीं। तो, पहली बात कि फोन यदि लोकल किया जाए तो उसके पैसे नहीं पड़ते। अब जबकि फोन फ्री है तो उसका दुरुपयोग तो होगा न....अब ज़रा उन कॉल्स के कुछ नमूने तो पढ़िए जो मुझे सुनने को मिले...
पहला फोन आया, ‘एकोमडेशन स्टिल अवेलेबल....’
‘एस..’
‘कितना आदमी के लिए...?’
‘क्या मतलब .....!’
‘मतलब...एक रूम में कितना आदमी रहेगा...?’
‘एक रूम में एक आदमी...और कितना आदमी...।’
‘चार नहीं रह सकता ...?’
‘नहीं...।’
‘क्यों...?’
‘बताना ज़रूरी है...और फिर, फ्लैट मेरा है कि आपका...?’
‘थैंक्यू...’ फोन कट गया।
अगला फोन था...
‘हैलो...।’
‘हैलो...।’
‘सलामवालेकुम...।’
‘वालेकुमसलाम...।’
‘आपका इसमें शरीफ...।’
‘मैं राधेश्याम बोल रहा हूँ....’
‘आपके पास कमरा है जी...।’
‘हाँ, है...’
‘देखिए ज़नाब...मैं मुस्लिम और पाकिस्तानी हूँ...क्या आप मुझे कमरा देंगे...’
‘आपका नाम....’
‘ख़ाकसार को शोएब कहते हैं...’
‘हाँ, तो मिस्टर शोएब...मुझे मुस्लिम और पाकिस्तानी से कोई गुरेज़ नहीं है...मेरे बहुत से दोस्त यहाँ भी और इण्डिया में भी मुस्लिम हैं....लेकिन, मैं बाल-बच्चों वाला आदमी हूँ। जिस तरह दो सगे भाइयों में भी थोड़ी दूरी बनाए रखकर आपसी प्रेम को बढ़ाया जा सकता है, वैसे ही आपस में थोड़ी दूरी बनाए हुए हम भी अपने संबंधों को पुख़्ता कर सकते हैं। दोस्ताने को बढ़ा सकते हैं...लेकिन पास-पास रहते हुए किसी छोटी-मोटी बात पर अनबन हो तो वह ठीक नहीं है...।’
‘मसलन...’
‘मसलन...इण्डिया और पाकिस्तान के बीच होने वाला एक क्रिकेट-मैच ही हम दोनों के लिए तनाव का वायस हो सकता है...यों भी तो लोग टेंस होकर ही देखते हैं...।’’
‘मतलब...आप अपनी ही तरह किसी काउ यूरिन ड्रंकर्ड को ही कमरा देंगे...’
‘आखिर, बात वहीं पहुँच गई जहाँ मैं ले जाने के मूड़ में नहीं था...अब आगे इस मामले पर मैं आपसे बात भी नहीं करना चाहता...’ मैंने फोन रख दिया। यों तो फोन को कटना तभी था जब ज़नाब शोएब उधर से उसे काटते। मेरे फोन रखने से क्या होना था।
खैर, उन्होंने दया की और फोन काट दिया।
मूड़ खराब हो गया। फिनेटिक्स से दुनिया भरी पड़ी है। हर कहीं। हर मजहब में कैसे बदलेगी यह दुनिया...कब समझेंगे लोग...’
फोन कट गया था। यही बहुत बड़ी बात थी। मैं अभी सामान्य भी नहीं हो पाया था कि फोन की घण्टी फिर बजी....
‘हैलो...अ...अ...’
‘हैलो...’
‘एकोमडेशन है...’
‘हाँ, है...’
‘डिश एण्टीना है...।’
‘आपको कमरा चाहिए कि डिश एण्टीना.....’ मैंने फोन रख दिया। लोग चाहते क्या हैं.....
इसी क्रम में जो अगला फोन आया उसे अटेण्ड करने के बाद दिमाग ही भन्ना गया.
‘आलो...अ...’
‘यस...’
‘एकोमडेशन अवेलेबल...’ आवाज़ एक औरत की थी।
‘नॉट फॉर यू...’
‘ह्वाइ...मैं फिलीपिना...आमकू एन्जॉय नईं करेगा...’
‘नईं करेगा...’
‘कइसा आदमी हाय..किसी पाकिस्तानी को बोलती तो वेलकॉम करता...’
‘कोई भी फैमिलीवाला हिन्दुस्तानी-पाकिस्तानी तुमको वेलकम नहीं करेगा...समझी....।’
फोन कट गया। फिलीपाइन्स की होकर भी वह हिन्दी बोल रही थी। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी। बहुत-सी फिलीपाइन्स की लड़कियाँ हिन्दी-उर्दू मिश्रित जुबान बोल रही हैं। वैसे भी इस धंधे में रहने वालियाँ प्रायः उस समुदाय के लोगों की बोली के दो-चार जुमले ज़रूर रट लेती हैं। जिनके लोगों की संख्या उनके आस-पास ज्यादा होती हैं। धंधा तो चलाना है न। और, क्या पता वह फिलीपाइन्स की न भी रही हो। कोई भारतीय, बांग्लादेशी या फिर किसी अन्य देख की रही हो और अपनी नागरिकता को छिपाते हुए फिलीपाइन्स का नाम ले रही हो। रंडियाँ हर मुल्कों में होती हैं। वैसे भी आज के दौर में जहाँ सब कुछ उत्तर-आधुनिक हो रहा है उसमें रंडी होना स्टेटस का सिम्बल हो गया है। यह कहना कि उन्हें पुरुषों ने वेश्या बनाया उतना ही सही है जितना कि उनकी अपनी ज़रूरतों ने उन्हें कमाई के इस आसान रास्ते पर डाल दिया। किसी जमाने में वेश्याओं को देखकर या उनके बारे में सुनकर महिलाओं के दिलों में दया, सहानुभूति या घृणा जो कुछ भी उत्पन्न होती रही हो, हुई होगी। आज की हालत दूसरी है। जिस तरह से आज की चमक-दमक में कोई वेश्या हेल्थ कांशस और ब्यूटी क्वीन हुई-सी किसी कार में बैठती या उससे उतरती है, उसे देखकर बहुत-सी महिलाएँ भीतर-ही-भीतर छटपटा उठती हैं। होती रही होंगी कुटनी जैसी मौसियाँ जिनको पान चबाते और लड़कियों का शोषण करते देख दिल में भावुकता के बगूलों का ज्वार उठता रहा होगा। अब तो नई उमर की पामेला बोर्डेसों ने कुटनियों को कुछ इस तरह से कूट दिया है कि वे बस पुरानी फिल्मों में ही दिखती हैं।
दो दिनों तक विज्ञापन निकलता रहा। कॉन्ट्रैक्ट के मुताबिक उसे दो दिन और निकलना था। पिछले दो दिनों में जो फोन आए, सब आलतू-फालतू ही थे। अगर फ्लैट का किराया मैं अकेले झेल पाता तो किराएदार रखने की ज़रूरत ही नहीं थी। मगर फ्लैट इतने महँगे हैं कि बिना किराएदार रखे उन लोगों का गुज़ारा होना मुश्किल है, जिनके जॉब कॉन्ट्रैक्ट में रिहाइश की सुविधा नहीं है। यहाँ दो बेड-रूम फ्लैट का एक वर्ष का किराया लगभग उतना ही है जितने में एक दो बैड-रूम का फ्लैट हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के किसी मध्यम श्रेणी के शहर में खरीदा जा सकता है। एक जुलाई से मेरी छुट्टियाँ थीं, दो माह की। उसी दिन भारत जाने के लिए सपरिवार टिकटों की बुकिंग भी करा रखी थी। टिकट ओ.के. भी हो चुके थे। किराएदार ढूँढ़ने या पाने के लिए मात्र दो दिन ही मेरे पास थे। यदि फ्लाइट कैंसिल कराता तो अगले बीस दिनों के लिए किसी भी फ्लाइट में सीट उपलब्ध नहीं थी। लग रहा था कि छुट्टियों का सत्यानाश होगा। क्योंकि बिना किराएदार रखे जाने का मतलब एक बड़े आर्थिक नुकसान को सहना था। आर्थिक नुकसान का यह बोझ मेरे लिए बहुत भारी पड़ता।
गनीमत हुई कि दो में से एक कमरे के लिए एक मित्र ने फोन किया। उसका कोई दोस्त बहरीन से यहाँ नौकरी पर आ रहा था जिसके लिए मित्र को एकोमडेशन, तय करके रखनी थी। एक कमरे के किराए पर उठ जाने से थोड़ी राहत मिली। सोचा, किराएदार को ही दूसरा कमरा रेण्ट पर उठा देने के लिए कह जाऊँगा।
अगले दिन मित्र जिसे अपने साथ लेकर आया उनका नाम विजय दास था। मास्टर बेडरूम अपने पास रखकर मैंने उन्हें हॉल दे दिया। जो एक कमरा अब बच गया उसके बारे में बता दिया कि यदि यह मेरे भारत जाने से पहले किराए पर नहीं उठता तो विज्ञापन को निकलने दें और किराएदार के मिल जाने पर उससे मिले एडवांस को मेरे अकाउंट में जमा करा दें। विज्ञापन निकलते रहने के कारण टेलीफोन अटेण्ड करना मेरी मजबूरी और ज़रूरत दोनों थी। इस चक्कर में शॉपिंग के लिए बस निकलने ही वाला था कि फोन की घण्टी घनघनाई...
‘हैलो...’
‘हैलो...’
‘गुड ईवनिंग...ऑयम मोहन...’
‘गुड ईवनिंग मिस्टर मोहन...यस, गो अहेड....’
‘आपके पास कमरा है...या...’
‘हाँ, है...’
‘कमरा मेरे एक दोस्त को चाहिए...’
‘नो प्रॉब्लम...’
‘हम कब देखने आएँ....’
‘अभी तो मैं शॉपिंग के लिए निकल रहा हूँ...कल सुबह 9 बजे के बाद कभी भी आ जाएँ...रात की फ्लाइट से मैं सपरिवार इण्डिया जा रहा हूँ....।’
‘प्लीज, आप दस मिनट रुकें...हम अभी आ रहे हैं...हमें कमरा तुरन्त चाहिए...।’
‘ठीक है..लेकिन आप दस-पन्द्रह मिनट में अगर नहीं पहुँचे तो मैं शॉपिंग के लिए निकल जाऊँगा...।’
‘ओ.के. हम आ रहे हैं।’
दस मिनट से कुछ ही ज्यादा समय लिया होगा मिस्टर मोहन ने पहुँचने में। उन्होंने अपने दोस्त से मिलवाते हुए कहा, ‘आप हैं मिस्टर शिवशंकर...कमरा इनको ही चाहिए...मिस्टर शिवशंकर यहाँ एक योरोपियन कंपनी में मेकेनिकल इंजीनियर हैं...।’
‘आप कमरा देख लें...आपको पसंद आए तो ठीक...बाकी सभी शर्ते मैंने अखबार में दे ही दी हैं...।’
‘आपकी सभी शर्ते हमें मंजूर हैं..ये है तीन महीने का एडवांस...’ कहते हुए मिस्टर मोहन ने किराए की रकम मेरी हथेली पर रख दी। कमरा ठीक-ठाक था ही। उन्होंने एक नज़र देखा और कहा, ‘कमरा आप अभी से दे दीजिए...हम अभी शिफ्ट कर लेंगे...’ मिस्टर मोहन ने कहा।
‘इनके पास कुछ तो सामान होगा...अभी रात में पिक-अप और कुली कहाँ मिलेंगे...’ आप आराम से कल दिन में शिफ्ट करें...कोई ज़रूरत होगी तो मैं भी आपकी मदद कर दूँगा....’
‘नहीं, इनके पास कुछ ख़ास सामान नहीं है...मेरे पास कार है, इनका सामान मैं अपनी कार में रखकर ले आऊँगा...’
‘आप कर सकते हैं शिफ्ट तो कर लें, मुझे कोई आपत्ति नहीं है...’ मैंने कहा और उन्हें मेन-डोर और उनके कमरे की चाभियाँ दे दीं। चाभियाँ लेकर मिस्टर मोहन और शिवशंकर तुरंत निकल पड़े। दोनों कमरे किराए पर उठ जाने से मन को राहत मिली थी। अब मैं निश्चिंत होकर अपनी छुट्टियों के लिए निकल सकता था। कमरा खाली रह जाने का अर्थ होता लगभग बीस हजार भारतीय रुपयों की चोट। फ्लैट का छह महीने का किराया मुझे भी एडवांस देना पड़ा था। साथ ही शिफ्टिंग, कारपेटिंग, बिजली-कनेक्शन और टेलीफोन-कनेक्शन लेने में मेरी जेब का हाल बुरा हो गया था। भगवान को लाख-लाख धन्यवाद देते हुए मैं पत्नी के साथ शॉपिंग के लिए निकला। अब किसी टेलीफोन को अटेण्ड करने की आपातकालीन चिन्ता से भी मुक्ति मिल गई थी। दो तिहाई रकम किराएदारों की और एक तिहाई अपनी रकम लगाकर मैं एक साल के लिए फ्लैट का मालिक बन गया। जो कि मैंने किराया एडवांस में भुगतान किया था।
शापिंग तो मैंने की। लेकिन, एक बात मेरे मन में हलचल मचाती रही कि मिस्टर मोहन और शिवशंकर को शिफ्ट करने की इतनी जल्दी क्यों थी। कमरा तो एक जुलाई से दिया गया था। फिर उन्हें इतनी जल्दी किसलिए थी। वैसे भी, कमरे के संबंध में सारी बात मिस्टर मोहन ने ही की थी।
शापिंग के बाद जब मैं लौटा तब तक देर हो चुकी थी। शिवशंकर मय सामान आ चुके थे। ऐसा मुझे मिस्टर दास ने बताया। शिवशंकर का कमरा अंदर से बंद था। देर रात को उन्हें बुलाना अच्छा नहीं लगा। सोचा, जो कुछ कहना होगा, सुबह कहूँगा। लेकिन, सुबह देर से आँख खुली और शिवशंकर से भेंट नहीं हुई। तीस जून को रात की फ्लाइट से मैं चल पड़ा।
दो महीने की छुट्टियों का मेरा सारा वक्त उन सभी कामों को निपटाते हुए बीतता है जो बिना किसी कारण के महीनों से सिर्फ इसलिए रुके रहते हैं कि जब मैं वहाँ पहुँचूँगा तो उन्हें कराऊँगा ही। छूट हुए कामों में ऐसे भी काम होते हैं, जैसे बाथ-रूम का बल्ब फ्यूज पड़ा है, कॉल-बेल खराब पड़ी है। मोटर साइकिल की सर्विस नहीं है। हैंडपंप का मोटर जल गया है। कूलर का एक्झास्ट काम नहीं कर रहा है, आदि-आदि। बड़ी कोफ्त होती है। कभी-कभी मन करता है कि मैं भी आँखें होते हुए देखना बंद कर दूँ। लोग विदेश से बड़ी हसरत लिए घर आते हैं कि उन्हें अपने लोगों के बीच पहुँचकर सुख मिलेगा, परन्तु ऐसा होता नहीं है। प्रायः यह स्थिति हर उस घर की है जिसका कोई सदस्य विदेश में है। उसके घर-परिवार के लोग, दोस्त-दुश्मन, घर-रिश्तेदार सभी यह समझते हैं कि वह डॉलरों से लदे हुए वृक्षों के बीच है इसलिए उन सभी की आवश्यकताएँ पूरा करना उसका न केवल कर्त्तव्य है, बल्कि घर्म है। लोग यह नहीं जानते कि डॉलर का कोई पेड़ नहीं होता। रुके पड़े कामों को निपटाने में होता यह है कि वापस आने वाले दिन यही लगता है कि कल ही तो आए थे और आज जा रहे हैं।
छुट्टियों के बीच एक बार फोन करके मैंने विजय दास से यह जानने की कोशिश की थी कि मेरी अनुपस्थिति में किसी प्रकार की कोई कठिनाई तो नहीं है। उनसे पता चला कि सब कुछ ठीक-ठाक है। उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं बताया कि शिवशंकर को लेकर किसी प्रकार की कोई चिन्ता होती।
शिवशंकर के साथ जान-पहचान तो वापस लौटने के बाद ही हुई। एक दिन मुझे कैजुअल लीव लेनी पड़ी। बिजली और टेलीफोन के बिल आए पड़े थे। बिल जमा करके लौटने पर मैंने शिवशंकर को फ्लैट में ही पाया। उनके कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ था। एक दृष्टि उधर डालने के बाद मैं अपने कमरे में आ गया। पत्नी एक विद्यालय में अध्यापिका है। दोनों बेटे भी उसी विद्यालय में हैं। वे सभी विद्यालय गए थे। मैं अभी कपड़े वगैरह बदलता कि इसी बीच दरवाज़े पर दस्तक हुई। देखा तो शिवशंकर थे, ‘‘एस मिस्टर, शिवशंकर...’
‘आप ड्रिंक्स लेते हैं...’ उन्होंने पूछा।
‘हाँ, लेता हूँ...क्यों...’
‘लेंगे....’
‘ले लूँगा...वैसे दिन में अवायड ही करता हूँ...’
‘क्या लेंगे..ह्विस्की या जिन..’
‘ह्विस्की ले लूँगा...आज आप ऑफिस नहीं गए...।’’ मैंने पूछा।
‘‘हाँ, आज नहीं गया...आइए मेरे कमरे में...वहीं बैठते हैं।...’
शिवशंकर के कमरे में इससे पहले मैं नहीं गया था। कमरे में सामान के नाम पर कुछ खास नहीं था। दो बड़े-बड़े, सूटकेस, एक सिंगल बेड और एक किनारे पर मेज के ऊपर एक हॉट प्लेट वाला बर्नर। मेज पर ही दो प्लेट और दो शीशे के गिलास थे। कमरे में बिल्ट-इन आलमीरा था। जब शिवशंकर ने उसे खोला तो वह मेरे लिए चौंकने को काफी था। आलमीरा क्या, अच्छा-खासा बॉर था वह। कौन्याक ब्रॉण्डी, शिवास रीगल, विलियम ग्रॉण्ट्स और रेड-ब्लैक लेबल जॉनीवाकर की सात-आठ बोतलें करीने से लगी थीं। उन्हें देखकर मैंने सोचा कि मिस्टर शिवशंकर के पास अच्छी-ख़ासी रकम का लिकर-परमिट ज़रूर होगा। उन्होंने मेरे लिए शिवास रीगल से एक लॉर्ज पेग बनाया। उनकी गिलास में पहले से ही थोड़ी बची हुई थी। उसे उठाते हुए उन्होंने ‘चीयर्स’ कहा और गिलास की दारू एक घूँट में खत्म करके अपने लिए एक नया पेग बना लिया। एक प्लेट में थोड़े से ड्राइ-फ्रूट्स पड़े थे। उन्हीं को चबाते हुए हमने पीनी शुरू की। औपचारिक-सी बातें होती रहीं। बातों के दौरान मैंने महसूस किया कि पीने के मामले में शिवशंकर जैसे कुछ जल्दी में थे। अभी मैंने गिलास से छोटे-छोटे दो घूँट ही लिए होंगे कि उस दौरान शिवशंकर ने लगभग दो पेग ह्विस्की उतार ली थी। मेरे आने से पहले भी उन्होंने कुछ तो लिया ही होगा...
‘आप कुछ जल्दी में पी रहे हैं....बात क्या है...?’ मैंने पूछा।
‘मैं तो बस, ऐसे ही लेता हूँ....’ उन्होंने कहा।
‘बट, इट इज नॉट गुड....गो स्लो विथ ड्रिंक्स....’ मैंने उनसे कहा। लेकिन जैसे उन्होंने कुछ सुना ही नहीं।
‘आपको ड्रिंक्स कहाँ से मिलती है...’ उन्होंने पूछा।
‘क्या मतलब...’ मेरे पास तो परमिट है..बिना परमिट के कैसे मिलेगी...’
‘खूब मिलती है...अब देखिए, मेरे पास ही कहाँ परमिट है..लेकिन जितनी चाहूँ, पा सकता हूँ...’ उन्होंने कहा।
‘मुझे इस बारे में कुछ नहीं मालूम...’
शिवशंकर की बात से मुझे हैरत हुई। इस देश में यह क्या कम चौंकने वाली बात है कि कोई बिना परमिट के भी शराब पा सकता है। कानून इतने सख़्त हैं कि अवैध गतिविधियों में पकड़े जाने पर मुहावरे की भाषा में खाल उतरवाकर भूसा भरना ही बच रहता है। डिपोर्टेशन तो खैर, अन्त ही है...
‘ऑयम अ फ्रस्टेटेड मैंन...आपको कुछ दिखाऊँ....’ शिवशंकर ने कहा और लड़खड़ाते हुए से बिस्तर से उठे। उनके ऐसा कहने पर भी मुझे अजीब-सा लगा। योरोपियन कंपनी में इंजीनियर होते हुए भी अगर मिस्टर शिवशंकर एक कुंठाग्रस्त व्यक्ति हैं तो उन बेचारों का क्या हाल होगा जो न केवल चौथी श्रेणी के कर्मचारी हैं, बल्कि जिन्हें वेतन भी आठ-आठ दस-दस महीने तक नहीं मिलता। शिवशंकर ने लड़खड़ाते और सँभलते हुए अपनी बड़ी-बड़ी दोनों अटैचियाँ खोलीं। दोनों ही किताबों से भरी हुई थीं। मोटी-मोटी किताबें। सभी किताबों के शीर्षकों से पता चलता था कि वे भौतिक-विज्ञान से संबंधित हैं।
‘बचपन से ही मेरा मन था कि फिजिक्स में गहन अध्ययन करूँ और दुनिया को कोई नई चीज़ दूँ...बट, ब्लडी हेल...माय फादर स्प्वॉयल्उ एव्हरी थिंग...ही वांटेड टू सी मी ऐन इंजीनियर...’ शिवशंकर एक-एक किताब को सँभालकर उठाते, सहलाते और फिर एक ओर इस तरह रख देते जैसे कोई अपने नवजात बच्चे को सँभालकर उठाए, सहलाए और फिर अचानक याद करे कि बच्चा तो मर चुका है। हाथों में महज़ एक लाश है। सपनों की लाश। अटैचियों में जितनी भी किताबें थीं, शिवशंकर ने एक-एक करके सभी बाहर निकाल डालीं। हर किताब अब एक लाश बनी हुई फर्श पर पड़ी थी।
‘मिस्टर शिवशंकर..प्लीज, आप आराम करें...मैंने उनकी हालत को देखते हुए कहा। उन पर नशा हावी हो चुका था।
‘राधेश्याम जी, आपको पता नहीं...आपको नहीं मालूम कि ऐसे बापों की संख्या आज की दुनिया में बहुत ज्यादा है जो अपने बच्चों को जीते-जी मार रहे हैं...उनके फ्यूचर के साथ खेल रहे हैं...मेरा बाप भी....साला, इडियट फेलो...’
‘आप सो जाएँ..प्लीज, टेक रेस्ट’ किसी तरह मैंने उन्हें बिस्तर पर लिटाया और फिर कभी साथ बैठने का वायदा करके अपने कमरे में आ गया। शिवशंकर की ज़िन्दगी मुझे अबूझ-सी लगी।
शाम को विजय दास से मैंने शिवशंकर के बारे में जान-बूझकर बात की। असल में मुझे चिन्ता हो गई थी कि एक ऐसे आदमी को अपने घर में किराएदार रखना जो बिना परमिट के अपने कमरे में शराब रखता हो किसी भी दृष्टि से न तो उचित है और न ही सुरक्षित। किसी भी दिन कुछ भी हो सकता है। यह भारत नहीं है जहाँ किसी भी मामले में फँसने पर अपने संपर्कों और नेतागिरी या रिश्वत के बल पर बचा जा सके। यहाँ पहला कदम जेल है और दूसरा न्यायालय। सज़ा के बारे में तो कुछ सोचना फिजूल है। क्या होगी, मालिक जाने। विजय दास ने जो कुछ शिवशंकर के बारे में बताया, वह और चौंकाने वाला था।
शिवशंकर पिछले तीन महीनों से ही यहाँ है। अभी उन्हें वीज़ा भी नहीं मिला है। विज़िट को ही बार-बार बढ़ाया जा रहा है। जिन दिनों मैं भारत में था उस दौरान शिवशंकर कई-कई दिनों तक अपने ऑफिस नहीं गए। अपने कमरे में ही पड़े रहकर सुबह से ही पीना शुरू करते और बेहोश होने की हद तक पीते रहते। कई बार दास ने उन्हें कमरे और बाथरूम के बीच के पैसेज में गिरा हुआ पाया। उन्हें बिस्तर तक पहुँचने में मदद की। दो-एक बार तो उन्हें नहलाना-धुलाना भी पड़ा। हर बार होश में आने पर ऑयम सॉरी बोलकर फिर पीने लगते। पीते और रोते। रोते और बताते कि शराब पीने की इस लत के कारण उनका घर-परिवार बिखर गया है। बीवी से उनका संबंध वर्षों से नहीं है और उनकी इकलौती बेटी उनसे बात करना तो दूर, उनकी शक्ल भी देखना नहीं चाहती। पत्नी से कानूनन तलाक तो नहीं हुआ है पर मानसिक और शारीरिक रूप से उसने खुद को शिवशंकर से पूरी तरह असम्बद्ध कर लिया है। लगभग पन्द्रह वर्षों से ऐसा ही चल रहा है।
बिखरे हुए घर में छितराए हुए शिवशंकर की हालत मुहल्ले के उस खजुहा कुत्ते की-सी थी जिसे सभी दुरदुराया करते। शराब की इस लत के कारण उनकी नौकरियाँ भी लम्बे समय तक न चल पातीं। जो कुछ कमाते वह शराब की भेंट चढ़ जाता। यदि कभी शराब न मिलती तो उनके हाथ-पाँव काँपने लगते। ठीक से बोल भी नहीं निकलते। कई बार ऐसा भी हुआ कि शराब न पा सकने की हताशा में उन्होंने आत्महत्या की कोशिश भी कर डाली, पर हर बार बच गए। हाँ, एक बात थी कि अपनी असाधारण प्रतिभा के कारण उन्हें नौकरी फिर-फिर मिल जाती। शराब अंदर होती तो उन जैसा काबिल आदमी अपने विभाग में काम के मामले में नम्बर वन होता। और, शराब न होती तो काबिलियत से उनका दूर का भी रिश्ता न होता। जिन दिनों भारत में अपने परिवार के साथ उनका रह पाना मरते हुए जीना था उन्हीं दिनों उन्हें ओमान में काम करने का ऑफर मिला और वह अपने कलुषित अतीत और नारकीय वर्तमान को छोड़कर भाग निकले। पैसा इतना मिलने लगा कि वह उनके बेइन्तहा पीने के बाद भी काफी बच रहता। उन्होंने बहुत चाहा कि बीवी उन्हें माफ कर दे और उनका पारिवारिक जीवन एक रास्ते पर आ जाए। लेकिन वह शायद कच्ची मिट्टी की नहीं बनी थी। अपनी बेहुरमती को वह कभी भूल नहीं सकी और उसने शिवशंकर को कभी अपने अथवा बेटी के पास फटकने भी नहीं दिया।
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