धर्म एवं दर्शन >> मोक्ष द्वार मोक्ष द्वारविनय सूर्या
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मोक्ष का द्वार पाने के उपाय...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
प्रत्येक मनुष्य में प्रभु का अनन्त प्रकाश है। प्रकाश का स्वभाव सिमटना नहीं, प्रसारित होना है। मनुष्य की ऊर्जा भी सर्वत्र प्रसारित होने के लिए है। प्रकृति और प्रभु से जुड़कर वह अपनी ऊर्जा को बढ़ाता है और बढ़ाकर उसे प्रकृति और समाज के भले के लिए समर्पित कर देता है।
विनय सूर्या
प्राक्कथन
आनंदकंद भगवान श्री बाँके बिहारी जी की असीम अनुकम्पा से ही इस पुस्तक की रचना हो पाई है। परमात्मा ही सत्य है। वह नित्य एकरस और अविनाशी है। सत्य के बल पर सूर्य उगता है, सत्य के बल पर पृथ्वी ठहरी हुई है, सत्य ही परम धर्म है और सत्य के बल पर ही स्वर्ग टिका हुआ है। वास्तव में यह पुस्तक सच्चाई का रास्ता है। सत्य को समझें, सत्य को ढूँढ़ें और सत्य पर दृढ़ हो जाएं ! तरह-तरह के मुखौटों से भरे इस संसार में सच्चाई का चेहरा पहचानना कठिन होता है। मेरे लिए भी कठिन था। मैं अक्सर सोचा करता था कि कोई ऐसा होगा, जो मुझे मिलेगा और जीवन के इस प्रकाश देने वाले चेहरे से परिचित कराएगा, परंतु वह होगा कौन, इसे मैं समझ नहीं पाता था। अंतत: मेरे जीवन में उज्वलता से भरा वह क्षण आया, जब मैंने जीवन की सच्चाई को देखा। जाना कि जीवन क्या है, क्यों है और सच्चाई के साथ इसे कैसे जीया जा सकता है। यह ज्ञान पाने का अवसर मुझे तब मिला, जब मैं श्री डूंगर मल कौशिक गुरु जी के संपर्क में आया। इस भीड़-भरी दुनिया में बहुत कम व्यक्तित्व ऐसे होते हैं, जिन्हें देखकर यह एहसास होता है कि सांसें तो सब लेते हैं पर जीना इसी को कहते हैं। गुरुजी को मैंने जब ऐसा देखा तो देखता रह गया। उनके व्यक्तित्व में निहित जबर्दस्त आकर्षण ने मुझे अपनी तरफ खींचा। मैंने उनके पास नियमित जाना शुरू किया। पिछले पाँच वर्षों के दौरान मैं उनके मंगलमय सान्निध्य में लगातार जाता रहा। उनको जैसे-जैसे पहचानता रहा, वैसे-वैसे अभिभूत होता रहा। मैंने पाया कि गुरु जी का जीवन निष्काम कर्म का एक ऐसा प्रवाह है, जो जरूरतमंदों की प्यास बुझाकर स्वयं तृप्त होता रहा है और साध्य-असाध्य रोगों से ग्रस्त लोगों को अपने नि:शुल्क उपचार द्वारा स्वस्थ करते हुए स्वयं स्वस्थ होता रहा है। अनंत सुख-सुविधाओं और लालसाओं के वर्तमान युग में ऐसा जीवन जीना मुश्किल है। इस तरह विरले ही जी पाते हैं। गुरु जी का जीवन मुझे एक रास्ता लगा। सच्चाई का रास्ता। निरर्थक भाग-दौड़ से भरे संसार में सार्थकता तक जाने और ले जाना वाला रास्ता। इस रास्ते पर कोई भी चलकर वहां तक पहुंच सकता है, जहां इंसान को पहुंचना चाहिए। जीने का सच्चा मकसद और जीने का सच्चा तरीका मुझे गुरुजी के व्यक्तित्व में नजर आया। मन में इच्छा जागी कि यह अमृतमय जीवन सभी तक पहुंचना चाहिए। सभी को इसका लाभ उठाने का अवसर मिलना चाहिए। प्रस्तुत पुस्तक मूलत: इसी इच्छा का परिणाम है। इस पुस्तक का लक्ष्य बैकुंठ का रास्ता बताना है। वह रास्ता, जो सीधा प्रभु तक जाता है। आप इसे पढ़कर सच्चाई के रास्ते पर चल दें, परम शक्ति की ओर चल दें, पूर्णत: स्वस्थ होने की तरफ चल दें, यही इस पुस्तक की सफलता होगी।
अध्ययन के लिए कुछ वर्षों तक मैं विदेश में रहा। वहां तथाकथित वैज्ञानिकता की प्रगति के ऊंचे-ऊंचे स्तंभों ने मुझे कतई प्रभावित नहीं किया। उस ऊंचाई के रूप में मुझे आधुनिक इंसान का पतन दिखाई दिया। उस आधुनिकता के लिए इंसान का सिर्फ बाहरी विकास ही विकास है। उसकी आंतरिक दुनिया भी कुछ होती है, इससे कोई सरोकार वहां लगभग नहीं है। पश्चिम के विचारकों को भी आशा का सूर्य भारत के आसमान से ही उगता दिखाई देता है। विश्व की स्थितियों का आकलन करते हुए डॉ.आर्नोल्ड टॉयनबी जिस नतीजे पर पहुंचे, वह उन्हीं के शब्दों में यह है-यह तो स्पष्ट होता जा रहा कि जिस अध्याय का श्रीगणेश पश्चिमी हुआ था, उसका समापन भारतीय ही होगा, यदि उसकी परिणति मानव जाति के आत्मविनाश में नहीं होनी है...मानव-इतिहास की इस अति संकटपूर्ण घड़ी में मानव-जाति के उद्धार का एक ही मार्ग है और वह है भारतीय मार्ग....यहां हमारे पास एक ऐसा दृष्टिकोण और ऐसी भावना है, जिसके सहारे मानव जाति एक परिवार के रूप में साथ-साथ रहकर फल-फूल सकती है-और परमाणु-युग में, केवल यही एक विकल्प है, अन्यथा हम स्वयं को नष्ट कर डालेंगे। फ्रेडरिक मैक्समूलर का भी यही विचार है, यदि मैं समूचे संसार पर दृष्टिपात करूं और खोजूं कि वह कौन-सा देश है जो प्रकृतिजन्य संपदा, शक्ति और सौंदर्य से सर्वाधिक संपन्न है, कहां-कहां इसी भूतल पर स्वर्ग उतर आया है, तो मैं कहूँगा कि वह भारत ही तो है ! यदि मुझसे प्रश्न किया जाए कि किस गगन के तले मानव-मस्तिष्क ने अपनी विशिष्टतम प्रतिभाओं का सर्वांगपूर्ण विकास किया है, जीवन की बड़ी से बड़ी समस्याओं पर गहनतम चिंतन किया है, तो मैं भारत की ओर ही अपनी अंगुली उठाकर संकेत करूँगा।
भारतीय संस्कृति, जहां जो कुछ उत्तम एवं शुभ है, उसका संग्रह करने वाली है। सर्वेषाम् विरोधेन ब्रह्मकर्म समार-भे को वाणी प्रदान करने वाली है। संकुचित भावना से दूर त्याग, संयम, वैराग्य, सेवा, प्रेम, ज्ञान आदि से सुरभित-वातावरण में पली भारतीय संस्कृति समस्त संस्कृतियों का श्रृंगार है। वास्तव में भारत-भूमि तपोभूमि है। भारत की सांस्कृतिक चेतना मानवता के मंदिर की अखंड ज्योति-सी निरंतर प्रज्वलित रही है। जब भी यह ज्योति मंद पड़ी, एक नवीन ज्योति ने अपना शुभ स्नेह दानकर उसमें प्राण फूँके। कितने वात्याचक्र आए और चले गए किन्तु विश्व को शांति एवं सद्भाव का संदेश देती हुई वह मंगल ज्योति निरंतर जलती आ रही है। श्री कृष्ण गीता में कहते हैं
अध्ययन के लिए कुछ वर्षों तक मैं विदेश में रहा। वहां तथाकथित वैज्ञानिकता की प्रगति के ऊंचे-ऊंचे स्तंभों ने मुझे कतई प्रभावित नहीं किया। उस ऊंचाई के रूप में मुझे आधुनिक इंसान का पतन दिखाई दिया। उस आधुनिकता के लिए इंसान का सिर्फ बाहरी विकास ही विकास है। उसकी आंतरिक दुनिया भी कुछ होती है, इससे कोई सरोकार वहां लगभग नहीं है। पश्चिम के विचारकों को भी आशा का सूर्य भारत के आसमान से ही उगता दिखाई देता है। विश्व की स्थितियों का आकलन करते हुए डॉ.आर्नोल्ड टॉयनबी जिस नतीजे पर पहुंचे, वह उन्हीं के शब्दों में यह है-यह तो स्पष्ट होता जा रहा कि जिस अध्याय का श्रीगणेश पश्चिमी हुआ था, उसका समापन भारतीय ही होगा, यदि उसकी परिणति मानव जाति के आत्मविनाश में नहीं होनी है...मानव-इतिहास की इस अति संकटपूर्ण घड़ी में मानव-जाति के उद्धार का एक ही मार्ग है और वह है भारतीय मार्ग....यहां हमारे पास एक ऐसा दृष्टिकोण और ऐसी भावना है, जिसके सहारे मानव जाति एक परिवार के रूप में साथ-साथ रहकर फल-फूल सकती है-और परमाणु-युग में, केवल यही एक विकल्प है, अन्यथा हम स्वयं को नष्ट कर डालेंगे। फ्रेडरिक मैक्समूलर का भी यही विचार है, यदि मैं समूचे संसार पर दृष्टिपात करूं और खोजूं कि वह कौन-सा देश है जो प्रकृतिजन्य संपदा, शक्ति और सौंदर्य से सर्वाधिक संपन्न है, कहां-कहां इसी भूतल पर स्वर्ग उतर आया है, तो मैं कहूँगा कि वह भारत ही तो है ! यदि मुझसे प्रश्न किया जाए कि किस गगन के तले मानव-मस्तिष्क ने अपनी विशिष्टतम प्रतिभाओं का सर्वांगपूर्ण विकास किया है, जीवन की बड़ी से बड़ी समस्याओं पर गहनतम चिंतन किया है, तो मैं भारत की ओर ही अपनी अंगुली उठाकर संकेत करूँगा।
भारतीय संस्कृति, जहां जो कुछ उत्तम एवं शुभ है, उसका संग्रह करने वाली है। सर्वेषाम् विरोधेन ब्रह्मकर्म समार-भे को वाणी प्रदान करने वाली है। संकुचित भावना से दूर त्याग, संयम, वैराग्य, सेवा, प्रेम, ज्ञान आदि से सुरभित-वातावरण में पली भारतीय संस्कृति समस्त संस्कृतियों का श्रृंगार है। वास्तव में भारत-भूमि तपोभूमि है। भारत की सांस्कृतिक चेतना मानवता के मंदिर की अखंड ज्योति-सी निरंतर प्रज्वलित रही है। जब भी यह ज्योति मंद पड़ी, एक नवीन ज्योति ने अपना शुभ स्नेह दानकर उसमें प्राण फूँके। कितने वात्याचक्र आए और चले गए किन्तु विश्व को शांति एवं सद्भाव का संदेश देती हुई वह मंगल ज्योति निरंतर जलती आ रही है। श्री कृष्ण गीता में कहते हैं
हे भारत, जब-जब धर्म की मर्यादा गिरती है,
उसके सनातन रूप की अधोगति होती है
तब-तब उसको पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए
मैं जन्म लेता हूं
प्रताड़ित साधकों का उद्धार करने के लिए
मैं देह धारण करता हूं
दुष्कर्म धारकों का संहार करने के लिए
मैं प्रकट होता हूं
हर युग में धर्म को स्थापित करता हूं
हर युग में अवतरित स्वयं को करता हूं
संभवामि युगे युगे
गुरु जी को अपनी गहन ध्यान-साधना में जो
अनुभूति हुई, उसके
आधार पर उन्होंने कहा-प्रभु के कलिक अवतार के रूप
में
उसके सनातन रूप की अधोगति होती है
तब-तब उसको पुन: प्रतिष्ठित करने के लिए
मैं जन्म लेता हूं
प्रताड़ित साधकों का उद्धार करने के लिए
मैं देह धारण करता हूं
दुष्कर्म धारकों का संहार करने के लिए
मैं प्रकट होता हूं
हर युग में धर्म को स्थापित करता हूं
हर युग में अवतरित स्वयं को करता हूं
संभवामि युगे युगे
गुरु जी को अपनी गहन ध्यान-साधना में जो
अनुभूति हुई, उसके
आधार पर उन्होंने कहा-प्रभु के कलिक अवतार के रूप
में
अवतरित होने की संभावना है। वे सम्भल, मुरादाबाद, तिगरी, गंगापार दो सौ किलोमीटर के दायरे में अवतरित होंगे। उनका पांच वर्ष की अवस्था में दुनिया को पता लग जाएगा। गुरु जी ने यह भी कहा कि बहुत
जल्द भारत
उपलब्धियों के उच्चतम शिखर पर होगा और पूरे संसार में उसका सबसे पहला
स्थान होगा।
इस आगामी सच्चाई को देखने वाली विलक्षण शक्ति का प्रतिरूप है-गुरु जी का
व्यक्तित्व। ज्ञान, अनुभव और सेवायोग के दुर्लभ रत्नों से संपन्न यह
व्यक्तित्व सहजता, सरलता और सादगी की प्रतिमूर्ति है। न कहीं कोई अहंकार,
न कहीं कोई दिखावा। पूर्णत: स्वस्थ व्यक्तित्व।
स्वस्थ वह होता है, जो अपने में स्थित हो। गुरु जी केवल शारीरिक स्वास्थ्य
का अमृत ही नहीं बांटते। वे मन, चेतना और आत्मा का स्वास्थ्य भी बांटते
हैं। शारीरिक स्वास्थ्य का अमृत जो उन्होंने बांटा है और बांट रहे हैं, उस
पर तो बहुतों का ध्यान गया है परंतु मन, चेतना और आत्मा के स्वास्थ्य का
जो अमृत, उन्होंने जो बांटा है और बांट रहे हैं उस पर उतना ध्यान नहीं
दिया गया है, जितना दिया जाना चाहिए था।
इस दृष्टि से मैंने उन अत्यंत महत्वपूर्ण विचारों को लिखना शुरु किया, जो
गुरुजी अपने प्रेरक जीवन को जीते हुए बड़ी सहजता के साथ समय-समय पर प्राय:
कहते रहते हैं। इन विचारों में जीवन की दिशा और दशा को बदल देने वाली
शक्ति है। गुरु जी के विचार लिखते-लिखते मेरे सामने यह पूरी तरह स्पष्ट
होता गया कि आज के युग और जीवन को इन विचारों की बेहद जरूरत है। तीन साल
से ज्यादा समय तक इन विचार-रत्नों को मैं अपनी डायरियों में इकट्ठा करता
रहा। कई डायरियाँ जब भर गईं तो लगा कि अब इस संपदा को दूसरों के साथ
बांटने का समय आ गया है। प्रस्तुत पुस्तक इस एहसास का नतीजा भी है।
गुरुजी का जीवन एक महान् सेवायोगी का जीवन है। उनके इस सेवायोगी व्यक्तित्व के पीछे उनकी महान् सोच है। सच तो यह है कि उनकी सोच और उनके जीवन में बाल-भर भी फर्क नहीं है। उनके कार्य उनके विचारों के परिणाम हैं। प्रस्तुत पुस्तक उनके विचारों पर आधारित है परंतु जिस प्रकार उनके विचारों और उनके कर्म में कोई अंतर नहीं है, उसी प्रकार इस पुस्तक में भी उनके विचारों को उनके जीवन से अलग नहीं रखा जा सका। अलग रखना उचित भी नहीं था। उनका चिंतन, उनकी भावनाएं, उनके कार्य और उनके जीवन की परिस्थितियां, इन सबने मिलकर जैसे उनके जीवन को बनाया है, उसी तरह इस पुस्तक को भी रूप दिया है।
गुरुजी के जीवन पर आधारित होते हुए भी यह उनकी जीवनी नहीं है। जीवनी में जो जीवन-तथ्यों का क्रमश: वर्णन होता है, वह इस पुस्तक में नहीं है। वह इसका उद्देश्य भी नहीं है। इसका उद्देश्य है-जीवन के आदर्श स्वरूप को प्रस्तुत करना। गुरुजी का जीवन, जीवन का आदर्श स्वरूप है। उजाले का एक ऐसा पुंज है, जो आज के युग में भटकते हुए मनुष्य को सही रास्ता दिखा सकता है। इस पुस्तक में उजाले के इस पुंज की सरल भाषा में व्याख्या और विवेचना करने की कोशिश की गई है। पहला अध्याय मनुष्य के प्रेरक जीवन और इस पुस्तक, दोनों का बीज-अध्याय है। भूमिका-स्वरुप है। इसमें उन मूल एवं प्रमुख विचारों का अध्ययन किया गया है, जिन्होंने मनुष्यता की आधार-भूमि को उपजाऊ बनाया है। पहले कहा जा चुका है कि गुरुजी के विचार उनके आचरण से इस कदर घुले-मिले हैं कि उनको एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। अत: मूल एवं प्रमुख विचारों के साथ कार्यों का अध्ययन भी अपने-आप हो गया है। आदर्श जीवन की सभी प्रमुख स्थापनाएँ करने का प्रयास यहां किया गया है।
बच्चा जब पैदा होता है तो मनुष्य की बुनियादी विशेषताओं के साथ पैदा होता है। पुस्तक का पहला अध्याय आदर्श जीवन के जन्म और उसके बचपन की विशेषताओं की तरह है। कहावत है कि पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं। मनुष्य जीवन का सामान्य परिचय अपने प्राय: सभी आयामों के साथ पढ़ने वाले की नजरों के सामने आ जाए, यह पहले अध्याय का उद्देश्य है। बच्चा बड़ा होते-होते दुनिया को देखता है और दुनिया को देखते-देखते बड़ा होता है। आदर्श जीवन का बचपन दुनिया के बनावटीपन और असीम लालसाओं से भरी जिंदगी को हजम नहीं कर पाता। उसे लगता है कि जगत् बौरा गया है। उसके सामने यह साफ हो जाता है कि उसे जीवन में क्या-क्या नहीं करना। दूसरा अध्याय दुनिया की पहचान करने और उसकी छोड़ने लायक प्रवृत्तियों को छोड़ने के विवेक से जुड़ा है।
अशुद्ध प्रवृत्तियों से दूर होने के बाद ही पवित्रता को अपनाया जाता है। मन में लालसाओं के रहते संतोष के धन के लिए उसमें कोई जगह नहीं होती। बनावटीपन छूटता है, तभी सहजता-सरलता का जीवन में प्रवेश हो पाता है। बाहर की दुनिया की तरफ से आंखें फेर लेने के बाद ही भीतर की दुनिया को देखना संभव हो पाता है। आदर्श जीवन की सच्ची संपदा भीतर होती है। तीसरा अध्याय इस संपदा को समझने-समझाने की कोशिश का नतीजा है। आदर्श जीवन की मूल स्थापनाओं और दुनिया के झूठ को पहचानने और छोड़ने के बाद सच्चाई को अपनाने का रास्ता साफ हो जाता है। दूसरे शब्दों में यह अध्याय आदर्श जीवन की किशोरावस्था का प्रतीक है। चौथे अध्याय का संबंध सच्चाई के रास्ते पर चलने से है। भीतर की दुनिया में जो संपदा हासिल होती है, उसका बाहर की दुनिया में उपयोग करने से है। यह उपयोग बाहर की दुनिया से कचरा भी साफ करता है और उसमें फूलों की खेती भी करता है। पशुता की बदबू भी हटाता है और इंसानियत की खुशबू का प्रसार भी करता है। यह आदर्श जीवन का यौवन है। निष्काम कर्म एवं सेवा-योग को अपनी पूरी शक्ति के साथ बिना थके निरंतर समर्पित रहने का अपराजेय उत्साह है।
पांचवें अध्याय तक पहुंचते-पहुंचते यह उत्साह परिपक्व होने लगता है। आदर्श जीवन प्रौढ़ होने लगता है। निष्काम कर्म प्राणशक्ति बनकर रोम-रोम में रमने लगता है। सेवा-योग की साधना सहज समाधि के रूप में फलीभूत होने लगती है। आत्म-शक्ति की निर्मलता आनंद बनकर जीवन के क्षण-क्षण को सराबोर करने लगती है।
छठा और अंतिम अध्याय आदर्श जीवन के लक्ष्य तक पहुंचने का प्रतीक है। पहला अध्याय भूमिका है तो अंतिम उपसंहार। इसमें आदर्श जीवन की उन विशेषताओं का समाहार करने का प्रयास किया गया है, जो इंसान संसार से चले जाने के बाद भी संसार के लिए छोड़ जाता है। यह नश्वर शरीर से अनश्वरता को पाना है। अमरता को पाना है। इस तरह से जीवन को भी जाना है कि आदमी अनुपस्थित होते हुए भी उपस्थित रहे और दूसरों को सच्चे जीवन का उजाला देता रहे। कहते हैं कि बच्चे और बूढ़े का एक जैसा मन होता है। इसलिए बचपन और बुढ़ापे में बड़ी गहरी छनती है। असल में यह आदर्श जीवन का चक्र है। यह चक्र आदर्श जीवन को बचपन की निर्मलता से बचपन तक पहुंचाता है। यही कारण है कि पुस्तक के पहले और अंतिम अध्याय में कुछ समानताएं भी मिल सकती हैं। यह दोहराव बेमतलब नहीं है। पहले अध्याय में जो सत्य आदर्श जीवन की स्थापनाओं के रूप में हैं, अंतिम अध्याय में वही नतीजों के समाहार के रूप में हैं। नतीजों के इस समाहार में बीच के तमाम अध्यायों के अर्थ की ऊर्जा भी जुड़ी है। इसलिए सत्य एक होते हुए भी उसका असर अलग-अलग है।
यह आदर्श जीवन के गीत की तरह है। गीत की प्रारंभिक पंक्तियां उसका मुखड़ा या स्थायी कहलाती हैं। बीच की पंक्तियों को गीत का अंतरा कहा जाता है। हर अंतरे के बाद जब गीत का मुखड़ा दोहराया जाता है तो मुखड़ा वही रहता है पर उसमें अंतरे के अर्थ की ऊर्जा भी शामिल हो जाती है। इसलिए उसका असर बढ़ जाता है। अंत में जब मुखड़ा आता है तो उसका असर सबसे गहरा हो जाता है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि मुखड़े का बार-बार होने वाला दोहराव बेमतलब है। यही बात इस पुस्तक की रचना के बारे में भी सच है। कहीं-कहीं जो दोहराव> इसमें है, वह आदर्श जीवन की प्रक्रिया के असर को और गहरा करे, इस कामना से रखा गया है। यहां यह कहना ज़रूरी है कि मैं कोई लेखक नहीं हूं। इसलिए लेखकीय कौशल पर मेरा अधिकार भी नहीं है। फिर भी मैंने इस पुस्तक को, अपने जीवन की पहली पुस्तक को, लिखा है।लिखा है, कहना शायद उतना सही नहीं है। कहना चाहिए कि एक प्रबल शक्ति ने इस पुस्तक को मुझसे लिखवा लिया है। इस कार्य को पूर्ण करने में श्री विनय विश्वास जी का महत्वपूर्ण और अविस्मरणीय सहयोग मिला है। उन्होंने इस पुस्तक की सामग्री को इकट्ठा किया और पुन: आयोजित किया, जिससे पाठक को प्रवाह और आनंद की अनुभूति हो। जब भी आवश्यकता पड़ी, तो हम दोनों ने साथ बैठकर लंबे समय तक इस पुस्तक के लिए उद्यम किया और श्री विनय विश्वास जी ने इसके लिए सदैव अपना अथक सहयोग और समय दिया।
इस पुस्तक की मुद्रण-व्यवस्था में श्री शरद अग्रवाल जी का पूर्ण सहयोग मिला। साथ ही श्री विजय सिंघानिया जी और श्री महेन्द्र अजनबी जी की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही। अंत में श्री शंकर गुप्ता जी का भी मैं आभार व्यक्त करता हूं कि उन्होंने इस पुस्तक की छपाई में भरपूर रुचि ली, जिससे पुस्तक का स्वरूप और आकर्षक बना। इन सभी के अतिरिक्त अन्य अनेक मित्रों व बंधुजनों का स्नेह से भरा सहयोग मुझे सौभाग्य से मिला है। इस सहयोग के बिना इस कार्य का पूर्ण होना संभव नहीं था। मैं इन सभी के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं। भावना मेरी यही है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस पुस्तक के रूप में प्रस्तुत सच्चाई से भरे आदर्श जीवन का लाभ उठाएं ! अपने जीवन को सच्चे अर्थ में मनुष्य का ऐसा जीवन बनाएं, जो आनंद से भरा और अपने आनंद को सारी दुनिया तक पहुंचाने वाला हो ! अस्तु !
गुरुजी का जीवन एक महान् सेवायोगी का जीवन है। उनके इस सेवायोगी व्यक्तित्व के पीछे उनकी महान् सोच है। सच तो यह है कि उनकी सोच और उनके जीवन में बाल-भर भी फर्क नहीं है। उनके कार्य उनके विचारों के परिणाम हैं। प्रस्तुत पुस्तक उनके विचारों पर आधारित है परंतु जिस प्रकार उनके विचारों और उनके कर्म में कोई अंतर नहीं है, उसी प्रकार इस पुस्तक में भी उनके विचारों को उनके जीवन से अलग नहीं रखा जा सका। अलग रखना उचित भी नहीं था। उनका चिंतन, उनकी भावनाएं, उनके कार्य और उनके जीवन की परिस्थितियां, इन सबने मिलकर जैसे उनके जीवन को बनाया है, उसी तरह इस पुस्तक को भी रूप दिया है।
गुरुजी के जीवन पर आधारित होते हुए भी यह उनकी जीवनी नहीं है। जीवनी में जो जीवन-तथ्यों का क्रमश: वर्णन होता है, वह इस पुस्तक में नहीं है। वह इसका उद्देश्य भी नहीं है। इसका उद्देश्य है-जीवन के आदर्श स्वरूप को प्रस्तुत करना। गुरुजी का जीवन, जीवन का आदर्श स्वरूप है। उजाले का एक ऐसा पुंज है, जो आज के युग में भटकते हुए मनुष्य को सही रास्ता दिखा सकता है। इस पुस्तक में उजाले के इस पुंज की सरल भाषा में व्याख्या और विवेचना करने की कोशिश की गई है। पहला अध्याय मनुष्य के प्रेरक जीवन और इस पुस्तक, दोनों का बीज-अध्याय है। भूमिका-स्वरुप है। इसमें उन मूल एवं प्रमुख विचारों का अध्ययन किया गया है, जिन्होंने मनुष्यता की आधार-भूमि को उपजाऊ बनाया है। पहले कहा जा चुका है कि गुरुजी के विचार उनके आचरण से इस कदर घुले-मिले हैं कि उनको एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। अत: मूल एवं प्रमुख विचारों के साथ कार्यों का अध्ययन भी अपने-आप हो गया है। आदर्श जीवन की सभी प्रमुख स्थापनाएँ करने का प्रयास यहां किया गया है।
बच्चा जब पैदा होता है तो मनुष्य की बुनियादी विशेषताओं के साथ पैदा होता है। पुस्तक का पहला अध्याय आदर्श जीवन के जन्म और उसके बचपन की विशेषताओं की तरह है। कहावत है कि पूत के पांव पालने में ही नजर आ जाते हैं। मनुष्य जीवन का सामान्य परिचय अपने प्राय: सभी आयामों के साथ पढ़ने वाले की नजरों के सामने आ जाए, यह पहले अध्याय का उद्देश्य है। बच्चा बड़ा होते-होते दुनिया को देखता है और दुनिया को देखते-देखते बड़ा होता है। आदर्श जीवन का बचपन दुनिया के बनावटीपन और असीम लालसाओं से भरी जिंदगी को हजम नहीं कर पाता। उसे लगता है कि जगत् बौरा गया है। उसके सामने यह साफ हो जाता है कि उसे जीवन में क्या-क्या नहीं करना। दूसरा अध्याय दुनिया की पहचान करने और उसकी छोड़ने लायक प्रवृत्तियों को छोड़ने के विवेक से जुड़ा है।
अशुद्ध प्रवृत्तियों से दूर होने के बाद ही पवित्रता को अपनाया जाता है। मन में लालसाओं के रहते संतोष के धन के लिए उसमें कोई जगह नहीं होती। बनावटीपन छूटता है, तभी सहजता-सरलता का जीवन में प्रवेश हो पाता है। बाहर की दुनिया की तरफ से आंखें फेर लेने के बाद ही भीतर की दुनिया को देखना संभव हो पाता है। आदर्श जीवन की सच्ची संपदा भीतर होती है। तीसरा अध्याय इस संपदा को समझने-समझाने की कोशिश का नतीजा है। आदर्श जीवन की मूल स्थापनाओं और दुनिया के झूठ को पहचानने और छोड़ने के बाद सच्चाई को अपनाने का रास्ता साफ हो जाता है। दूसरे शब्दों में यह अध्याय आदर्श जीवन की किशोरावस्था का प्रतीक है। चौथे अध्याय का संबंध सच्चाई के रास्ते पर चलने से है। भीतर की दुनिया में जो संपदा हासिल होती है, उसका बाहर की दुनिया में उपयोग करने से है। यह उपयोग बाहर की दुनिया से कचरा भी साफ करता है और उसमें फूलों की खेती भी करता है। पशुता की बदबू भी हटाता है और इंसानियत की खुशबू का प्रसार भी करता है। यह आदर्श जीवन का यौवन है। निष्काम कर्म एवं सेवा-योग को अपनी पूरी शक्ति के साथ बिना थके निरंतर समर्पित रहने का अपराजेय उत्साह है।
पांचवें अध्याय तक पहुंचते-पहुंचते यह उत्साह परिपक्व होने लगता है। आदर्श जीवन प्रौढ़ होने लगता है। निष्काम कर्म प्राणशक्ति बनकर रोम-रोम में रमने लगता है। सेवा-योग की साधना सहज समाधि के रूप में फलीभूत होने लगती है। आत्म-शक्ति की निर्मलता आनंद बनकर जीवन के क्षण-क्षण को सराबोर करने लगती है।
छठा और अंतिम अध्याय आदर्श जीवन के लक्ष्य तक पहुंचने का प्रतीक है। पहला अध्याय भूमिका है तो अंतिम उपसंहार। इसमें आदर्श जीवन की उन विशेषताओं का समाहार करने का प्रयास किया गया है, जो इंसान संसार से चले जाने के बाद भी संसार के लिए छोड़ जाता है। यह नश्वर शरीर से अनश्वरता को पाना है। अमरता को पाना है। इस तरह से जीवन को भी जाना है कि आदमी अनुपस्थित होते हुए भी उपस्थित रहे और दूसरों को सच्चे जीवन का उजाला देता रहे। कहते हैं कि बच्चे और बूढ़े का एक जैसा मन होता है। इसलिए बचपन और बुढ़ापे में बड़ी गहरी छनती है। असल में यह आदर्श जीवन का चक्र है। यह चक्र आदर्श जीवन को बचपन की निर्मलता से बचपन तक पहुंचाता है। यही कारण है कि पुस्तक के पहले और अंतिम अध्याय में कुछ समानताएं भी मिल सकती हैं। यह दोहराव बेमतलब नहीं है। पहले अध्याय में जो सत्य आदर्श जीवन की स्थापनाओं के रूप में हैं, अंतिम अध्याय में वही नतीजों के समाहार के रूप में हैं। नतीजों के इस समाहार में बीच के तमाम अध्यायों के अर्थ की ऊर्जा भी जुड़ी है। इसलिए सत्य एक होते हुए भी उसका असर अलग-अलग है।
यह आदर्श जीवन के गीत की तरह है। गीत की प्रारंभिक पंक्तियां उसका मुखड़ा या स्थायी कहलाती हैं। बीच की पंक्तियों को गीत का अंतरा कहा जाता है। हर अंतरे के बाद जब गीत का मुखड़ा दोहराया जाता है तो मुखड़ा वही रहता है पर उसमें अंतरे के अर्थ की ऊर्जा भी शामिल हो जाती है। इसलिए उसका असर बढ़ जाता है। अंत में जब मुखड़ा आता है तो उसका असर सबसे गहरा हो जाता है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि मुखड़े का बार-बार होने वाला दोहराव बेमतलब है। यही बात इस पुस्तक की रचना के बारे में भी सच है। कहीं-कहीं जो दोहराव> इसमें है, वह आदर्श जीवन की प्रक्रिया के असर को और गहरा करे, इस कामना से रखा गया है। यहां यह कहना ज़रूरी है कि मैं कोई लेखक नहीं हूं। इसलिए लेखकीय कौशल पर मेरा अधिकार भी नहीं है। फिर भी मैंने इस पुस्तक को, अपने जीवन की पहली पुस्तक को, लिखा है।लिखा है, कहना शायद उतना सही नहीं है। कहना चाहिए कि एक प्रबल शक्ति ने इस पुस्तक को मुझसे लिखवा लिया है। इस कार्य को पूर्ण करने में श्री विनय विश्वास जी का महत्वपूर्ण और अविस्मरणीय सहयोग मिला है। उन्होंने इस पुस्तक की सामग्री को इकट्ठा किया और पुन: आयोजित किया, जिससे पाठक को प्रवाह और आनंद की अनुभूति हो। जब भी आवश्यकता पड़ी, तो हम दोनों ने साथ बैठकर लंबे समय तक इस पुस्तक के लिए उद्यम किया और श्री विनय विश्वास जी ने इसके लिए सदैव अपना अथक सहयोग और समय दिया।
इस पुस्तक की मुद्रण-व्यवस्था में श्री शरद अग्रवाल जी का पूर्ण सहयोग मिला। साथ ही श्री विजय सिंघानिया जी और श्री महेन्द्र अजनबी जी की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही। अंत में श्री शंकर गुप्ता जी का भी मैं आभार व्यक्त करता हूं कि उन्होंने इस पुस्तक की छपाई में भरपूर रुचि ली, जिससे पुस्तक का स्वरूप और आकर्षक बना। इन सभी के अतिरिक्त अन्य अनेक मित्रों व बंधुजनों का स्नेह से भरा सहयोग मुझे सौभाग्य से मिला है। इस सहयोग के बिना इस कार्य का पूर्ण होना संभव नहीं था। मैं इन सभी के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूं। भावना मेरी यही है कि ज्यादा से ज्यादा लोग इस पुस्तक के रूप में प्रस्तुत सच्चाई से भरे आदर्श जीवन का लाभ उठाएं ! अपने जीवन को सच्चे अर्थ में मनुष्य का ऐसा जीवन बनाएं, जो आनंद से भरा और अपने आनंद को सारी दुनिया तक पहुंचाने वाला हो ! अस्तु !
विनय सूर्या
काल को कला बनाता जीवन
जीवन का अर्थ और स्वरूप
आगमन और प्रस्थान के दो बिंदुओं के बीच मनुष्य की जीवन-यात्रा होती है।
संसार में मनुष्य का आगमन क्यों हुआ ? प्रस्थान क्यों होता है ? यह समझना
बहुत जरूरी है कि हम इस संसार में क्यों आए ? स्वयं को जानने के लिए हमें
उस कारण को ढूँढ़ना होगा। सारा खेल कारण का है। कारण को जानना जरूरी है।
कारण जानने की यह चुनौती प्रत्येक मनुष्य के सामने है। इस कारण को खोजने
के लिए चिंतन के महासागर में गहराई तक जाना होगा। प्रस्तुत पुस्तक में
इन्हीं आधारभूत विषयों का वर्णन किया गया है।
संसार में आ तो सभी जाते हैं परंतु उसमें कुशलता के साथ सभी रह नहीं पाते।
यह चक्रव्यूह को भेदने जैसा काम है। चक्रव्यूह की चुनौती सिर्फ अभिमन्यु
के सामने ही नहीं थी। संसार में आने वाले हर इंसान के सामने यह चुनौती
होती है। हर इंसान इस चुनौती का जवाब देने की कोशिश करता है परंतु सफल वही
हो पाता है, जो जीवन के चक्रव्यूह को भेदने का रास्ता जानता हो और उस
रास्ते पर बिना थके आगे बढ़ सकता हो।
जीवन के चक्रव्यूह को भेदने का अर्थ है-मनुष्य जीवन को पूरी सच्चाई से
जीना और जीवन के परम लक्ष्य तक पहुंचना। इस तरह जीना एक कला है। यह कला
तभी आती है, जब आदमी सिर्फ जीने के लिए जीवित न रहे बल्कि उसके जीने का एक
मकसद हो। ऐसा मकसद, जो संपूर्ण उन्नति का आधार हो। ऐसा मकसद, जो अपने साथ
दूसरों का भी भला करे। ऐसा मकसद, जिसे पा लेने के बाद कुछ भी पाना बाकी न
रह जाए।
आज के जीवन में यह मकसद बहुत कम दिखाई देता है। शाम को सुबह और सुबह को
शाम करते हुए सारा जीवन बीत जाता है। चारों तरफ एक ऐसी दौड़ लगातार जारी
रहती है, जिसका लक्ष्य ज्यादातर लोग नहीं जानते। ऐसा लगता है जैसे वह
अंधों की दौड़ हो ! उन्हें यह तो पता हो कि उनको लगातार दौड़ते रहना है
परंतु यह न पता हो कि दौड़ते हुए आखिर पहुंचना कहां है ! अगर यह पता हो कि
पहुंचना कहां है तो दौड़ने वालों में अपनी दौड़ के लिए एक तसल्ली का एक
एहसास भी हो।
दौड़ तो लगातार जारी है लेकिन उसके प्रति तसल्ली का एहसास ज्यादातर लोगों
को नहीं है। इससे यह पता लगता है कि यह दौड़ दृष्टिहीनों की ही दौड़ है !
भागदौड़ तो बहुत है पर मंजिल लापता है। इस जीवन में मरने तक भागदौड़ जारी
रहती है पर इंसान कहीं नहीं पहुंचता। आज का मनुष्य दिशाहीन हो गया है और
इससे उसके कार्यों में बिखराव दिखाई देता है। वह मात्र स्वार्थ से प्रेरित
होकर कर्म करता है। उसके सामने कोई बड़ा लक्ष्य या आदर्श नहीं है।
सवाल यह है कि क्या इस भाग दौड़ को जिंदगी कहा जा सकता है ? क्या मनुष्य
का जीवन यही है ? क्या इसी जीवन के लिए मनुष्य को सृष्टि का सर्वोत्तम
प्राणी माना जाता है ? क्या यही है वह जीवन, जिसके लिए कहा जाता है कि
चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद यह मिलता है ?
जीए तो ऐसे जीए कि कभी मरे न, और मरे तो ऐसे मरे कि कभी जीए न।
गुरु जी कहते हैं। मैं उनका तेज से दमकता चेहरा
देखता रह जाता हूं। सहसा यकीन नहीं आता कि एक साधारण-से दिखाई देने वाले व्यक्ति के भीतर इतना असाधारण ऋषि छुपा हुआ है।
यहीं से शुरू होती है मेरी जिज्ञासा। एक ऐसी जिज्ञासा, जो सोचने और खोजने
के लिए विवश कर दे। सोचता हूं तो लगता है कि गुरु जी एक ऐसे व्यक्तित्व का
नाम है, जो किसी के लिए भी सफर और मंजिल एक साथ हो सकता है। यह व्यक्तित्व
किसी अजनबी पर भी मां की तरह स्नेह लुटा सकता है, पिता की तरह उसे
डांट-फटकार सकता है, गुरु की तरह सही रास्ते को जीवन-आचरण की भाषा द्वारा
सिखा सकता है और ऋषि की तरह कोमल-कठोर सच को देख व दिखा सकता है।
ऋषि के बारे में आम धारणा यह है कि वह भगवा या किसी और खास रंग के कपड़े
पहनता है। असाधारण ढंग से असाधारण भोजन करता है। कहीं जाता है तो चेलों की
पूरी जमात के साथ जाता है। बोलता है तो ऐसे बोलता है जैसे दुनिया पर एहसान
कर रहा हो। हमेशा गंभीर रहता है, आदि-आदि।
गुरु जी में इनमें से एक बात नहीं है। वे अत्यंत सरल हैं। उनका मन भी सरल
है और उनका रहन-सहन भी। श्री बांके बिहारी जी और श्री गिरिराज जी में अटूट
विश्वास और गहरी भक्ति उनके रोम-रोम में है। उनकी वाणी में ठाकुर जी बोलते
हैं। समभाव उनमें इतना गहरा है कि वे सभी में ठाकुर जी के दर्शन किया करते
हैं। वे सादा जीवन-उच्च विचार रखते हैं ज्यादातर लुंगी-बुश्शर्ट पहनते है। कभी-कभी पैंट-शर्ट भी पहन लेते हैं। उन कपड़ों का चमचमाते ही रहना जरूरी नहीं है।
वे सादगीपूर्ण ढंग से सादा भोजन करते हैं। सादगी से रहते हैं। जब जहां जी चाहे, चले जाते है। बातचीत के लहजे या अंदाज में बड़े सहज ढंग से बोलते हैं। मजाक भी कर लेते हैं।
संसार में आ तो सभी जाते हैं परंतु उसमें कुशलता के साथ सभी रह नहीं पाते।
यह चक्रव्यूह को भेदने जैसा काम है। चक्रव्यूह की चुनौती सिर्फ अभिमन्यु
के सामने ही नहीं थी। संसार में आने वाले हर इंसान के सामने यह चुनौती
होती है। हर इंसान इस चुनौती का जवाब देने की कोशिश करता है परंतु सफल वही
हो पाता है, जो जीवन के चक्रव्यूह को भेदने का रास्ता जानता हो और उस
रास्ते पर बिना थके आगे बढ़ सकता हो।
जीवन के चक्रव्यूह को भेदने का अर्थ है-मनुष्य जीवन को पूरी सच्चाई से
जीना और जीवन के परम लक्ष्य तक पहुंचना। इस तरह जीना एक कला है। यह कला
तभी आती है, जब आदमी सिर्फ जीने के लिए जीवित न रहे बल्कि उसके जीने का एक
मकसद हो। ऐसा मकसद, जो संपूर्ण उन्नति का आधार हो। ऐसा मकसद, जो अपने साथ
दूसरों का भी भला करे। ऐसा मकसद, जिसे पा लेने के बाद कुछ भी पाना बाकी न
रह जाए।
आज के जीवन में यह मकसद बहुत कम दिखाई देता है। शाम को सुबह और सुबह को
शाम करते हुए सारा जीवन बीत जाता है। चारों तरफ एक ऐसी दौड़ लगातार जारी
रहती है, जिसका लक्ष्य ज्यादातर लोग नहीं जानते। ऐसा लगता है जैसे वह
अंधों की दौड़ हो ! उन्हें यह तो पता हो कि उनको लगातार दौड़ते रहना है
परंतु यह न पता हो कि दौड़ते हुए आखिर पहुंचना कहां है ! अगर यह पता हो कि
पहुंचना कहां है तो दौड़ने वालों में अपनी दौड़ के लिए एक तसल्ली का एक
एहसास भी हो।
दौड़ तो लगातार जारी है लेकिन उसके प्रति तसल्ली का एहसास ज्यादातर लोगों
को नहीं है। इससे यह पता लगता है कि यह दौड़ दृष्टिहीनों की ही दौड़ है !
भागदौड़ तो बहुत है पर मंजिल लापता है। इस जीवन में मरने तक भागदौड़ जारी
रहती है पर इंसान कहीं नहीं पहुंचता। आज का मनुष्य दिशाहीन हो गया है और
इससे उसके कार्यों में बिखराव दिखाई देता है। वह मात्र स्वार्थ से प्रेरित
होकर कर्म करता है। उसके सामने कोई बड़ा लक्ष्य या आदर्श नहीं है।
सवाल यह है कि क्या इस भाग दौड़ को जिंदगी कहा जा सकता है ? क्या मनुष्य
का जीवन यही है ? क्या इसी जीवन के लिए मनुष्य को सृष्टि का सर्वोत्तम
प्राणी माना जाता है ? क्या यही है वह जीवन, जिसके लिए कहा जाता है कि
चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद यह मिलता है ?
जीए तो ऐसे जीए कि कभी मरे न, और मरे तो ऐसे मरे कि कभी जीए न।
गुरु जी कहते हैं। मैं उनका तेज से दमकता चेहरा
देखता रह जाता हूं। सहसा यकीन नहीं आता कि एक साधारण-से दिखाई देने वाले व्यक्ति के भीतर इतना असाधारण ऋषि छुपा हुआ है।
यहीं से शुरू होती है मेरी जिज्ञासा। एक ऐसी जिज्ञासा, जो सोचने और खोजने
के लिए विवश कर दे। सोचता हूं तो लगता है कि गुरु जी एक ऐसे व्यक्तित्व का
नाम है, जो किसी के लिए भी सफर और मंजिल एक साथ हो सकता है। यह व्यक्तित्व
किसी अजनबी पर भी मां की तरह स्नेह लुटा सकता है, पिता की तरह उसे
डांट-फटकार सकता है, गुरु की तरह सही रास्ते को जीवन-आचरण की भाषा द्वारा
सिखा सकता है और ऋषि की तरह कोमल-कठोर सच को देख व दिखा सकता है।
ऋषि के बारे में आम धारणा यह है कि वह भगवा या किसी और खास रंग के कपड़े
पहनता है। असाधारण ढंग से असाधारण भोजन करता है। कहीं जाता है तो चेलों की
पूरी जमात के साथ जाता है। बोलता है तो ऐसे बोलता है जैसे दुनिया पर एहसान
कर रहा हो। हमेशा गंभीर रहता है, आदि-आदि।
गुरु जी में इनमें से एक बात नहीं है। वे अत्यंत सरल हैं। उनका मन भी सरल
है और उनका रहन-सहन भी। श्री बांके बिहारी जी और श्री गिरिराज जी में अटूट
विश्वास और गहरी भक्ति उनके रोम-रोम में है। उनकी वाणी में ठाकुर जी बोलते
हैं। समभाव उनमें इतना गहरा है कि वे सभी में ठाकुर जी के दर्शन किया करते
हैं। वे सादा जीवन-उच्च विचार रखते हैं ज्यादातर लुंगी-बुश्शर्ट पहनते है। कभी-कभी पैंट-शर्ट भी पहन लेते हैं। उन कपड़ों का चमचमाते ही रहना जरूरी नहीं है।
वे सादगीपूर्ण ढंग से सादा भोजन करते हैं। सादगी से रहते हैं। जब जहां जी चाहे, चले जाते है। बातचीत के लहजे या अंदाज में बड़े सहज ढंग से बोलते हैं। मजाक भी कर लेते हैं।
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