गजलें और शायरी >> जिगर और उनकी शायरी जिगर और उनकी शायरीप्रकाश पंडित
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जिगर मुरादाबादी की जिन्दगी और उनकी बेहतरीन शायरी
Jigar Aur Unki Shayari
प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश
उर्दू के लोक प्रिय शायर
नागरी लिपी में उर्दू के लोकप्रिय शायरों व उनकी शायरी पर आधारित पहली सुव्यवस्थित पुस्तकमाला। इसमें मीर, ग़ालिब से लेकर साहिर लुधियानवी-मजरूह सुलतानपुरी तक सभी प्रमुख उस्तादों और लोकप्रिय शायरों की चुनिंदा शायरी उनकी रोचक जीवनियों के साथ अलग-अलग पुस्तकों में प्रकाशित की गई हैं। इस पुस्तकमाला की प्रत्येक पुस्तक में संबंधित शायर के संपूर्ण लेखन से चयन किया गया है और प्रत्येक रचना के साथ कठिन शब्दों के अर्थ भी दिये गये हैं। इसका संपादन अपने विषय के दो विशेषज्ञ संपादकों-सरस्वती सरन कैफ व प्रकाश पंडित-से कराया गया है। अब तक इस पुस्तकमाला के अनगिनत संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और पाठकों द्वारा इसे सतत सराहा जा रहा है।
जिगर मुरादाबादी
उर्दू साहित्य में ‘जिगर’ मुरादाबादी का बहुत ऊँचा स्थान है। साधारण शिक्षा, अजीब शक्ल-सूरत और कभी रोजी-रोटी के लिए स्टेशन-स्टेशन चश्मे बेचने वाले ‘जिगर’ ने जब शेर कहने शुरू किये तो लोगों पर जादू-सा कर दिया। शराब बेतहाशा पीते थे, लेकिन आदमी बहुत नेक और भले थे। ‘जिगर’ उन भाग्यशाली शायरों में से हैं जिनकी रचनाएं उनके जीवन-काल में ही ‘क्लासिक’ मानी जाने लगीं।
हमको मिटा सके, यह ज़माने में दम नहीं,
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं।
मोहब्बत में ‘जिगर’ गुज़रे हैं ऐसे भी मुकाम अक्सर,
कि ख़ुद लेना पड़ा है अपने दिल से इंतिकाम अक्सर।
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क ने जाना है,
हम ख़ाकनशीनों की ठोकर में ज़माना है।
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं।
मोहब्बत में ‘जिगर’ गुज़रे हैं ऐसे भी मुकाम अक्सर,
कि ख़ुद लेना पड़ा है अपने दिल से इंतिकाम अक्सर।
क्या हुस्न ने समझा है क्या इश्क ने जाना है,
हम ख़ाकनशीनों की ठोकर में ज़माना है।
जिगर मुरादाबादी
‘‘कोई अच्छा इनसान ही अच्छा शायर हो सकता है।’’ ‘जिगर’ मुरादाबादी का यह कथन किसी दूसरे शायर पर लागू हो या न हो, स्वयं उन पर बिलकुल ठीक बैठता है। यों ऊपरी नज़र डालने पर इस कथन में मतभेद की गुंजाइश कम ही नज़र आती है लेकिन इसको क्या किया जाए कि स्वयं ‘जिगर’ के बारे में कुछ समालोचकों का मत यह है कि जब वह अच्छे इनसान नहीं थे, तब बहुत अच्छे शायर थे।
‘‘जब वह अच्छे इनसान नहीं थे’’ से उन समालोचक सज्जनों का अभिप्राय उस काल से है, जब ‘जिगर’ बेतहाशा शराब पीते थे-इस बुरी तरह और इस मात्रा में कि यदि दस व्यक्ति मिलकर आयु भर पीते रहें। तो भी उतनी न पी पायें जितनी ‘जिगर’ कुछ एक वर्षों में पी गए थे। और उन सज्जनों का अभिप्राय उस ‘जिगर’ से भी है जो सारे संसार और उसकी नैतिकता को शराब के प्याले में डुबो देते थे, और जिन्होंने अपना दाम्पत्य-जीवन नरक-समान बना लिया था1 और आठों पहर मस्त-अलस्त रहकर :
1.‘जिगर’ साहब की शादी उर्दू के एक प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय ‘असग़र’ गौंडवी की छोटी साली से हुई थी लेकिन ‘जिगर’ साहब की शराबनोशी ने बना घर बिगाड़ दिया और ‘असग़र’ साहब ने ‘जिगर’ साहब से तलाक़ दिलाकर उनकी पत्नी को अपनी पत्नी बना लिया। ‘असग़र’ साहब के देहांत पर ‘जिगर’ साहब ने फिर उसी महिला से दोबारा शादी कर ली और कुछ मित्रों का कहना है कि उनकी इस पत्नी ने ही उनकी शराब की लत छुड़ावाई।
‘‘जब वह अच्छे इनसान नहीं थे’’ से उन समालोचक सज्जनों का अभिप्राय उस काल से है, जब ‘जिगर’ बेतहाशा शराब पीते थे-इस बुरी तरह और इस मात्रा में कि यदि दस व्यक्ति मिलकर आयु भर पीते रहें। तो भी उतनी न पी पायें जितनी ‘जिगर’ कुछ एक वर्षों में पी गए थे। और उन सज्जनों का अभिप्राय उस ‘जिगर’ से भी है जो सारे संसार और उसकी नैतिकता को शराब के प्याले में डुबो देते थे, और जिन्होंने अपना दाम्पत्य-जीवन नरक-समान बना लिया था1 और आठों पहर मस्त-अलस्त रहकर :
1.‘जिगर’ साहब की शादी उर्दू के एक प्रसिद्ध कवि स्वर्गीय ‘असग़र’ गौंडवी की छोटी साली से हुई थी लेकिन ‘जिगर’ साहब की शराबनोशी ने बना घर बिगाड़ दिया और ‘असग़र’ साहब ने ‘जिगर’ साहब से तलाक़ दिलाकर उनकी पत्नी को अपनी पत्नी बना लिया। ‘असग़र’ साहब के देहांत पर ‘जिगर’ साहब ने फिर उसी महिला से दोबारा शादी कर ली और कुछ मित्रों का कहना है कि उनकी इस पत्नी ने ही उनकी शराब की लत छुड़ावाई।
मुझे उठाने को आया है वाइज़े-नादां1
जो उठ सके तो मेरा साग़रे-शराब2 उठा
किधर से बर्क़3 चमकती है देखें ऐ वाइज़
मैं अपना जाम उठाता हूं तू किताब4 उठा
जो उठ सके तो मेरा साग़रे-शराब2 उठा
किधर से बर्क़3 चमकती है देखें ऐ वाइज़
मैं अपना जाम उठाता हूं तू किताब4 उठा
ऐसे उच्च कोटि के शे’र कहते थे और उनके तरन्नुम (गान) की हालत यह थी बड़े-बड़े महारथियों का पित्ता उनके सामने पानी हो जाता था।
जहां तक मेरी व्यक्तिगत राय का सम्बन्ध है, मैं न तो पूर्ण रूप से ‘जिगर’ साहब के उक्त कथन का पक्षपाती हूं और न ही उन महानुभावों के इस दो टूक फ़ैसले से सहमत कि जब से ‘जिगर’ ने शराब छोड़ी, उनकी शायरी का स्तर नीचा हो गया। मेरे तुच्छ विचार में ‘जिगर’ साहब की शायरी का यह भेद (यदि कोई भेद है तो) शराब पीने या न पीने का भेद नहीं है। यह भेद उनके दाम्पत्य-जीवन के नरक-समान बनने और फिर स्वर्ग-समान बन जाने का भी भेद नहीं है, बल्कि यह भेद दो विभिन्न कालों का भेद है। दो विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों में बहुधा एक ही ढंग से सोचने, पुराने पर सन्तोष और नये को अस्वीकार करने का भेद है। अतएव जब वह :
जहां तक मेरी व्यक्तिगत राय का सम्बन्ध है, मैं न तो पूर्ण रूप से ‘जिगर’ साहब के उक्त कथन का पक्षपाती हूं और न ही उन महानुभावों के इस दो टूक फ़ैसले से सहमत कि जब से ‘जिगर’ ने शराब छोड़ी, उनकी शायरी का स्तर नीचा हो गया। मेरे तुच्छ विचार में ‘जिगर’ साहब की शायरी का यह भेद (यदि कोई भेद है तो) शराब पीने या न पीने का भेद नहीं है। यह भेद उनके दाम्पत्य-जीवन के नरक-समान बनने और फिर स्वर्ग-समान बन जाने का भी भेद नहीं है, बल्कि यह भेद दो विभिन्न कालों का भेद है। दो विभिन्न सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों में बहुधा एक ही ढंग से सोचने, पुराने पर सन्तोष और नये को अस्वीकार करने का भेद है। अतएव जब वह :
उनका जो फ़र्ज़ है अरबाबे-सियासत6 जानें
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है, जहां तक पहुंचे
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है, जहां तक पहुंचे
ऐसे शे’र कहते हैं, तो हम उनकी इस ‘मुहब्ब्त’ को उस परम्परागत सूफ़ीवाद और अध्यात्मवाद से अलग करके नहीं देख सकते जो शुरू
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1.नादान धर्मोपदेशक 2.शराब का प्याला 3.बिजली (एक किंवदन्ती के अनुसार ‘तूर’ नामक पहाड़ पर बिजली चमकी थी और मूसा-पैग़म्बर-ने खुदा से बातें की थीं।) 4.धर्म-ग्रंथ 5.राजनीतिज्ञ
से उनकी शायरी की विशेषता रही और जिसमें से :
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1.नादान धर्मोपदेशक 2.शराब का प्याला 3.बिजली (एक किंवदन्ती के अनुसार ‘तूर’ नामक पहाड़ पर बिजली चमकी थी और मूसा-पैग़म्बर-ने खुदा से बातें की थीं।) 4.धर्म-ग्रंथ 5.राजनीतिज्ञ
से उनकी शायरी की विशेषता रही और जिसमें से :
यही हुस्नो-इश्क़ का राज़ है कोई राज़ इसके सिवा नहीं
कि ख़ुदा नहीं तो ख़ुदी1 नहीं, जो ख़ुदी नहीं तो ख़ुदा नहीं
कि ख़ुदा नहीं तो ख़ुदी1 नहीं, जो ख़ुदी नहीं तो ख़ुदा नहीं
ऐसे शेर निकलते थे।
लेकिन ऐसा भी नहीं था कि ‘जिगर’ अपने स्थान से टस से मस न हुए हों। यह सही है कि उनकी पूरी शायरी से इत्यादि परम्परागत शब्द और परम्परागत परिभाषाओं की बहुतायत और परम्परागत अन्तर्चेतना की गहरी छाप है। वह ग़ज़ल को उर्दू शायरी की पराकाष्ठा मानते थे और कविता के सामाजिक क्रम से इनकार करते रहे थे, लेकिन मौलिक रूप से एक विमल और सत्य-प्रेमी कलाकार होने के नाते उन्होंने कभी ‘आत्मा की आवाज़’ को दबाने की कोशिश नहीं की। अतएव बंगाल के अकाल के ज़माने में जब उन्होंने :
लेकिन ऐसा भी नहीं था कि ‘जिगर’ अपने स्थान से टस से मस न हुए हों। यह सही है कि उनकी पूरी शायरी से इत्यादि परम्परागत शब्द और परम्परागत परिभाषाओं की बहुतायत और परम्परागत अन्तर्चेतना की गहरी छाप है। वह ग़ज़ल को उर्दू शायरी की पराकाष्ठा मानते थे और कविता के सामाजिक क्रम से इनकार करते रहे थे, लेकिन मौलिक रूप से एक विमल और सत्य-प्रेमी कलाकार होने के नाते उन्होंने कभी ‘आत्मा की आवाज़’ को दबाने की कोशिश नहीं की। अतएव बंगाल के अकाल के ज़माने में जब उन्होंने :
बंगाल की मैं शामो-सहर देख रहा हूं
हरचंद कि हूं दूर मगर देख रहा हूं
इन्सान के होते हुए इन्सान का यह हश्र2
देखा नहीं जाता है मगर देख रहा हूं
हरचंद कि हूं दूर मगर देख रहा हूं
इन्सान के होते हुए इन्सान का यह हश्र2
देखा नहीं जाता है मगर देख रहा हूं
कहा तो लोगों ने चौंक कर ‘जिगर’ साहब की ओर देखा और फिर 1947 ई. के साम्प्रदायिक उपद्रव पर तो ‘जिगर’ साहब इस बुरी तरह तड़प उठे कि ग़ज़ल पर जान देने और ग़ज़ल का बादशाह कहलाने वाले इस शायर ने :
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1.अहंभाव 2.बुरी हालत
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1.अहंभाव 2.बुरी हालत
फ़िक्रे-जमील ख्वाबे-परेशां1 है आजकल
शायर नहीं है वो जोग़ज़लख्वां2 है आजकल
शायर नहीं है वो जोग़ज़लख्वां2 है आजकल
कहकर और इस ग़ज़ल में हिन्दू, मुसलमान, इन्सानियत, जमहूरियत इत्यादि ग़ज़ल की परम्पराओं के प्रतिकूल शब्दों का प्रयोग करके कविता के प्रति अपनी उस महान सत्यप्रियता का प्रमाण दिया जिसके बिना कोई कवि महान नहीं बन सकता। और यह भी कला के प्रति उनकी निष्कपटता ही थी जिससे उनसे :
सलामत तू, तेरा मयख़ाना, तेरी अंजुमन3 साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ ख़िदमते-दारो-रसन4 साक़ी
रगो-पै में5 कभी सहबा6 ही सहबा रक़्स7 करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मौजज़न8 साक़ी
मुझे करनी है अब कुछ ख़िदमते-दारो-रसन4 साक़ी
रगो-पै में5 कभी सहबा6 ही सहबा रक़्स7 करती थी
मगर अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मौजज़न8 साक़ी
ऐसे शे’र कहलवाए। निःसंदेह यह ‘जिगर’ की आंतरिक मान्यताओं पर बाहरी वास्तविकता की विजय थी। यह ग़ज़ल का एक स्पष्ट मोड़ या भेद था जिससे शायरी के इस रूप का भविष्य सम्बद्ध है।
अली सिकन्दर ‘जिगर’ मुरादाबादी 1890 ई. में मौलवी अली ‘नज़र’ के यहां, जो स्वयं एक अच्छे शायर और ख़्वाजा वज़ीर देहलवी के शिष्य थे, पैदा हुए। एक पूर्वज मौलवी ‘समीअ़’ दिल्ली के निवासी और बादशाह शाहजहान के उस्ताद थे। लेकिन शाही प्रकोप के कारण दिल्ली छोड़कर मुरादाबाद में जा बसे थे। यों ‘जिगर’ को शायरी उत्तराधिकार के रूप में मिली। तेरह-चौदह वर्ष की आयु में ही उन्होंने शे’र कहने शुरू कर दिए। शुरू-शुरू में अपने पिता से संशोधन लेते
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1.सुन्दर विचार और कल्पनाएं टूटे स्वप्न की तरह छिन्न-भिन्न हैं। 2.ग़ज़ल गा रहा है अर्थात् हुस्नो-इश्क़ की परम्परागत बातों में उलझा हुआ है। 3.महफ़िल 4.सूलियों-फांसियों की सेवा (क्रान्तिकारी कार्य), 5.नस-नस में 6.सुरा 7.नृत्य 8.तरंगित रहे। उसके बाद उस्ताद ‘दाग़’ देहलवी को अपनी ग़ज़लें दिखाईं और ‘दाग’ के बाद मुंशी अमीर-उल्ला ‘तसलीम’ और ‘रसा’ रामपुरी को ग़ज़लें दिखाते रहे। शायरी में सूफ़ियाना रंग ‘असग़र’ गौंडवी की संगत का फल था।
शिक्षा बहुत साधारण। अंग्रेज़ी बस नाम-मात्र जानते थे। आजीविका जुटाने के लिए कभी स्टेशन-स्टेशन चश्मे भी बेचा करते थे। और शक्ल-सूरत के लिहाज़ से तो अच्छे-खासे बदसूरत व्यक्ति गिने जाते थे। लेकिन ये सब ख़ामियां अच्छे शे’र कहने की क्षमता तले दब कर रह गई थीं। और जहां तक शक्ल-सूरत का सम्बन्ध है, उर्दू के एक हास्य-लेखक शौकत थानवी ने शायद बिलकुल ठीक लिखा है कि शे’र पढ़ते समय उनकी शक्ल बिलकुल बदल जाती थी उनके चेहरे पर एक लालित्य आ जाता था। एक सुन्दर मुस्कान, एक मनोहर कोमलता तथा सरलता के प्रभाव से ‘जिगर’ साहब का व्यक्तित्व किरनें-सी बिखेरने लगता था-ये किरनें निःसन्देह हर उस व्यक्ति ने देखी होंगी, जिसने किसी मुशायरे में ‘जिगर’ साहब को शे’र पढ़ते सुना होगा।
‘जिगर’ साहब का शे’र पढ़ने का ढंग कुछ ऐसा मोहक और तरन्नुम ऐसा जादूभरा था कि एक ज़माने में तरुण शायर उन जैसे शे’र कहने और उन्हीं के से ढंग से शे’र पढ़ने की ही चेष्टा नहीं करते थे बल्कि अपना रूप-रंग भी ‘जिगर’ जैसा बना लेते थे। वही लम्बे-लम्बे उलझे बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, अस्त-व्यस्त वस्त्र और उन्हीं की तरह बेतहाशा शाराबनोशी।
ऊपर एक स्थान पर मैं कह चुका हूं कि ‘जिगर’ साहब बेतहाशा शराब पिया करते थे। लेकिन यह उनके अच्छे आदमी बनने की धुन थी या न जाने क्या था कि एक दिन उन्होंने हमेशा के लिए शराब से तौबा कर ली और फिर मरते दम तक शराब को हाथ नहीं लगाया। इस तौबा के बारे में स्वयं ‘जिगर’ साहब का कहना था कि ‘‘जब मैंने शराब से तौबा की तो खुदा से अपने इरादे की पुख्तगी की दुआ भी मांगी। शराब छोड़ते ही सख्त बीमार पड़ गया। ज़िन्दा बचने की कोई सूरत न थी। डॉक्टर और दोस्त कहते थे कि अब गया कि अब। दिल के ऊपर एक बड़ा ख़तरनाक क़िस्म का फोड़ा भी निकल आया था, डॉक्टरों ने बताया कि एकदम शराब छोड़ देने से यह बला नाज़िल हुई है और साथ ही यह मशवरा दिया कि अगर मैं फिर शराब पीनी शुरू कर दूं तो आया वक्त टल सकता है। यह वक़्त मेरे इम्तहान का वक़्त था। मैंने डॉक्टरों से साफ कह दिया कि इनसान की क़िस्मत में जब मौत एक ही बार लिखी है तो ख़ुदा से शर्मसारी क्यों हो। यह कुदरत का करिश्मा था कि मुझे आराम आ गया, या यह समझिए कि मेरे इरादे की पुख्तगी पर कुदरत को तरस आ गया।’’
शराब से तौबा के बाद वह बेतहाशा सिगरेट पीने लगे, लेकिन कुछ समय के बाद उन्होंने सिगरेट भी छोड़ दी और उसके बाद बेतहाशा ताश खेलने लगे।
उनकी शराबनोशी का बेतहाशापन किस डिगरी पर होगा, इसका अनुमान उनके ताश के बेतहाशापन की हलकी-सी झलक से लगाया जा सकता है। साथी खिलाड़ियों का कहना है कि खेलते समय अगर उनका कोई दोस्त आ गया और उसने सलाम किया तो ‘जिगर’ साहब की नज़र तो पत्तों पर होगी और ‘वालैकुम-अस्सलाम’ का बहुत खींचकर जवाब देंगे। थोड़ी देर बाद आने वाले की सूरत देखेंगे, फिर पूछेंगे, ‘‘मिज़ाज तो अच्छे हैं आपके ?’’ फिर खेल शुरू। आध-पौन घंटे के बाद उन साहब की मौजूदगी याद आएगी तो फिर पूछे लेंगे, ‘‘मिज़ाज तो अच्छे हैं आपके ?’’ अगर आप रात-भर उनके पास बैठे रहें रह-रहकर वह यही पूछते रहेंगे कि ‘‘मिज़ाज तो अच्छे हैं आपके ?’’
‘जिगर’ साहब बड़े हंसमुख और विशाल हृदय के व्यक्ति थे। धर्म पर उनका गहरा विश्वास था लेकिन धर्मनिष्ठा ने उनमें उद्दंडता और घमंड नहीं, विनय और नम्रता उत्पन्न की। वह हर उस सिद्धांत का सम्मान करने को तैयार रहते थे जिसमें सच्चाई और शुद्धता हो। यही कारण है कि साहित्य के प्रगतिशील आन्दोलन का भरसक विरोध करने पर भी उन्होंने ‘मजाज़’, ‘जज़्बी’, मसऊद अख़्तर ‘जमाल’, मजरूह सुलतानपुरी इत्यादि बहुत से प्रगतिशील शायरों को प्रोत्साहन दिया और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के निमंत्रण पर अपनी जेब से किराया ख़र्च करके वह उनके सम्मेलनों में योग देते रहे। (यों ‘जिगर’ साहब किसी मुशायरे में आने के लिए हज़ार-बारह सौ रुपये से कम मुआवज़ा नहीं लेते थे।) इस समय मुझे उनकी 1949-50 की एक मुलाक़ात याद आ रही है, जब उन्होंने ‘मजरूह सुलतानपुरी की गिरफ़्तारी पर शोक प्रकट करते हुए कहा था, ‘‘ये लोग ग़लत हैं या सही एक अलग बहस है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ये लोग अपने उसूलों के पक्के हैं। इन लोगों में ख़लूस कूट-कूटकर भरा हुआ है।’’
और फिर ‘मजरूह’ की ग़ज़ल की (जिसके कारण उसे गिरफ़्तार किया गया था) एक पंक्ति :
अली सिकन्दर ‘जिगर’ मुरादाबादी 1890 ई. में मौलवी अली ‘नज़र’ के यहां, जो स्वयं एक अच्छे शायर और ख़्वाजा वज़ीर देहलवी के शिष्य थे, पैदा हुए। एक पूर्वज मौलवी ‘समीअ़’ दिल्ली के निवासी और बादशाह शाहजहान के उस्ताद थे। लेकिन शाही प्रकोप के कारण दिल्ली छोड़कर मुरादाबाद में जा बसे थे। यों ‘जिगर’ को शायरी उत्तराधिकार के रूप में मिली। तेरह-चौदह वर्ष की आयु में ही उन्होंने शे’र कहने शुरू कर दिए। शुरू-शुरू में अपने पिता से संशोधन लेते
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1.सुन्दर विचार और कल्पनाएं टूटे स्वप्न की तरह छिन्न-भिन्न हैं। 2.ग़ज़ल गा रहा है अर्थात् हुस्नो-इश्क़ की परम्परागत बातों में उलझा हुआ है। 3.महफ़िल 4.सूलियों-फांसियों की सेवा (क्रान्तिकारी कार्य), 5.नस-नस में 6.सुरा 7.नृत्य 8.तरंगित रहे। उसके बाद उस्ताद ‘दाग़’ देहलवी को अपनी ग़ज़लें दिखाईं और ‘दाग’ के बाद मुंशी अमीर-उल्ला ‘तसलीम’ और ‘रसा’ रामपुरी को ग़ज़लें दिखाते रहे। शायरी में सूफ़ियाना रंग ‘असग़र’ गौंडवी की संगत का फल था।
शिक्षा बहुत साधारण। अंग्रेज़ी बस नाम-मात्र जानते थे। आजीविका जुटाने के लिए कभी स्टेशन-स्टेशन चश्मे भी बेचा करते थे। और शक्ल-सूरत के लिहाज़ से तो अच्छे-खासे बदसूरत व्यक्ति गिने जाते थे। लेकिन ये सब ख़ामियां अच्छे शे’र कहने की क्षमता तले दब कर रह गई थीं। और जहां तक शक्ल-सूरत का सम्बन्ध है, उर्दू के एक हास्य-लेखक शौकत थानवी ने शायद बिलकुल ठीक लिखा है कि शे’र पढ़ते समय उनकी शक्ल बिलकुल बदल जाती थी उनके चेहरे पर एक लालित्य आ जाता था। एक सुन्दर मुस्कान, एक मनोहर कोमलता तथा सरलता के प्रभाव से ‘जिगर’ साहब का व्यक्तित्व किरनें-सी बिखेरने लगता था-ये किरनें निःसन्देह हर उस व्यक्ति ने देखी होंगी, जिसने किसी मुशायरे में ‘जिगर’ साहब को शे’र पढ़ते सुना होगा।
‘जिगर’ साहब का शे’र पढ़ने का ढंग कुछ ऐसा मोहक और तरन्नुम ऐसा जादूभरा था कि एक ज़माने में तरुण शायर उन जैसे शे’र कहने और उन्हीं के से ढंग से शे’र पढ़ने की ही चेष्टा नहीं करते थे बल्कि अपना रूप-रंग भी ‘जिगर’ जैसा बना लेते थे। वही लम्बे-लम्बे उलझे बाल, बढ़ी हुई दाढ़ी, अस्त-व्यस्त वस्त्र और उन्हीं की तरह बेतहाशा शाराबनोशी।
ऊपर एक स्थान पर मैं कह चुका हूं कि ‘जिगर’ साहब बेतहाशा शराब पिया करते थे। लेकिन यह उनके अच्छे आदमी बनने की धुन थी या न जाने क्या था कि एक दिन उन्होंने हमेशा के लिए शराब से तौबा कर ली और फिर मरते दम तक शराब को हाथ नहीं लगाया। इस तौबा के बारे में स्वयं ‘जिगर’ साहब का कहना था कि ‘‘जब मैंने शराब से तौबा की तो खुदा से अपने इरादे की पुख्तगी की दुआ भी मांगी। शराब छोड़ते ही सख्त बीमार पड़ गया। ज़िन्दा बचने की कोई सूरत न थी। डॉक्टर और दोस्त कहते थे कि अब गया कि अब। दिल के ऊपर एक बड़ा ख़तरनाक क़िस्म का फोड़ा भी निकल आया था, डॉक्टरों ने बताया कि एकदम शराब छोड़ देने से यह बला नाज़िल हुई है और साथ ही यह मशवरा दिया कि अगर मैं फिर शराब पीनी शुरू कर दूं तो आया वक्त टल सकता है। यह वक़्त मेरे इम्तहान का वक़्त था। मैंने डॉक्टरों से साफ कह दिया कि इनसान की क़िस्मत में जब मौत एक ही बार लिखी है तो ख़ुदा से शर्मसारी क्यों हो। यह कुदरत का करिश्मा था कि मुझे आराम आ गया, या यह समझिए कि मेरे इरादे की पुख्तगी पर कुदरत को तरस आ गया।’’
शराब से तौबा के बाद वह बेतहाशा सिगरेट पीने लगे, लेकिन कुछ समय के बाद उन्होंने सिगरेट भी छोड़ दी और उसके बाद बेतहाशा ताश खेलने लगे।
उनकी शराबनोशी का बेतहाशापन किस डिगरी पर होगा, इसका अनुमान उनके ताश के बेतहाशापन की हलकी-सी झलक से लगाया जा सकता है। साथी खिलाड़ियों का कहना है कि खेलते समय अगर उनका कोई दोस्त आ गया और उसने सलाम किया तो ‘जिगर’ साहब की नज़र तो पत्तों पर होगी और ‘वालैकुम-अस्सलाम’ का बहुत खींचकर जवाब देंगे। थोड़ी देर बाद आने वाले की सूरत देखेंगे, फिर पूछेंगे, ‘‘मिज़ाज तो अच्छे हैं आपके ?’’ फिर खेल शुरू। आध-पौन घंटे के बाद उन साहब की मौजूदगी याद आएगी तो फिर पूछे लेंगे, ‘‘मिज़ाज तो अच्छे हैं आपके ?’’ अगर आप रात-भर उनके पास बैठे रहें रह-रहकर वह यही पूछते रहेंगे कि ‘‘मिज़ाज तो अच्छे हैं आपके ?’’
‘जिगर’ साहब बड़े हंसमुख और विशाल हृदय के व्यक्ति थे। धर्म पर उनका गहरा विश्वास था लेकिन धर्मनिष्ठा ने उनमें उद्दंडता और घमंड नहीं, विनय और नम्रता उत्पन्न की। वह हर उस सिद्धांत का सम्मान करने को तैयार रहते थे जिसमें सच्चाई और शुद्धता हो। यही कारण है कि साहित्य के प्रगतिशील आन्दोलन का भरसक विरोध करने पर भी उन्होंने ‘मजाज़’, ‘जज़्बी’, मसऊद अख़्तर ‘जमाल’, मजरूह सुलतानपुरी इत्यादि बहुत से प्रगतिशील शायरों को प्रोत्साहन दिया और ‘प्रगतिशील लेखक संघ’ के निमंत्रण पर अपनी जेब से किराया ख़र्च करके वह उनके सम्मेलनों में योग देते रहे। (यों ‘जिगर’ साहब किसी मुशायरे में आने के लिए हज़ार-बारह सौ रुपये से कम मुआवज़ा नहीं लेते थे।) इस समय मुझे उनकी 1949-50 की एक मुलाक़ात याद आ रही है, जब उन्होंने ‘मजरूह सुलतानपुरी की गिरफ़्तारी पर शोक प्रकट करते हुए कहा था, ‘‘ये लोग ग़लत हैं या सही एक अलग बहस है, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ये लोग अपने उसूलों के पक्के हैं। इन लोगों में ख़लूस कूट-कूटकर भरा हुआ है।’’
और फिर ‘मजरूह’ की ग़ज़ल की (जिसके कारण उसे गिरफ़्तार किया गया था) एक पंक्ति :
‘‘ये भी कोई हिटलर का है चेला, मार ले साथी जान न पाये
पर मुस्कराकर व्यंग्य करते हुए बोले, ‘‘लो देखो, ख़ुद में तो मारने की हिम्मत नहीं, मारने के लिए साथी को आवाज़ दी जा रही है।’’
‘जिगर’ साहब बातें बड़े मजे की करते थे-विशेषकर जब उन पर दार्शनिक बनने का मूड सवार होता था। कुछ पल्ले नहीं पड़ता था कि वह क्या कह रहे हैं, और क्यों कह रहे हैं। कहां से चले थे, कहां जा पहुंचे। एक वाक्य का दूसरे से कुछ कम ही सम्बन्ध होता था या बिलकुल नहीं होता था। शायद इसलिए कि वह ग़ज़लगो शायर थे और ग़ज़ल का शे’र अपने आपमें पूर्ण होता है। ज़रा आप भी सुनिए :
‘‘अगर मैं आपके कहने के मुताबिक मान लूं और मुझे भी यक़ीने-कामिल (पूर्ण विश्वास) हो जाये कि फ़लां साहब अच्छे शे’र कहते हैं, फिर भी यह कहूँगा कि बस उनमें वही एक चीज़ नहीं है और वो चीज़ पैदा तो होती नहीं। वो तो इनसानेकामिल (पूर्ण मनुष्य) और मर्दे-ख़ुद-आगाह (अपने आपको पहचानने वाला व्यक्ति) में ख़ुद-ब-ख़ुद होती है। मेरी मुराद खुलूसे-बासफ़ा (पवित्र और सच्ची मैत्री) से है। वो शे’र बड़े बद-एमाल (दुश्चरित्र) होते हैं जो ऐसे-ऐसे ज़हनी नाबालिग़ों (मानसिक रूप से कच्चे लोगों) पर वारिद होते हैं (उतरते हैं) और दूसरों के लिए शे’र मुसीबत बन जाते हैं। जिस शख्स में ख़ुलूस नहीं वो पुरख़ुलूस शे’र नहीं कह सकता। पुरख़ुलूस शे’र कहने के लिए फ़िक्रो-नज़र की वुसअ़त (विशालता), बुलंद-किरदारी (सुचरित्रता), मशाहदातों-तजुर्बात की ज़रूरत है। इसका फ़कदान (अभाव) आम है। जहल (मूढ़ता) और इल्म (ज्ञान) में लोग तमीज़ नहीं कर पाते। फिर शेअरी दयानत कहां से आये ? अगर आप इस चीज को वैसे ही कहते चले जायेंगे तो आपको सैकड़ों सिज्दे बेकार नज़र आयेंगे। एक गुनहगार की आंखों में इन्फ़आल (पश्चात्ताप) की जो चमक एक बार पैदा हो जाती है उस के मुक़ाबले में सिज्दों की क्या हक़ीक़त है ? मैं अपनी रिंदी और तौबा दोनों ज़मानों के ज़िक्र से घबराता हूं। और यह सब कुछ क्यों होता है ? और साहब यह बहुरूपियापन तो मेरी समझ में आ ही नहीं सकता कि इनसान की जिन्दगी कुछ हो और शे’र के स्टेज पर एक्टर की हैसियत से आए। साहब, ये एक्टर हैं। ये मीनाकारी करते हैं।
यह शायरी से ज़ियादा कारीगरी है। साहब, मज़हब क्या है ? ज़ाती वजदान (अपने-आपको समझना)। अगर वजदान भी हमने मग़रिब से मुस्तआ़र (उधार) ले लिया तो हम क्या हैं ? हमारी रिवायात (परम्पराएं) क्या हैं....’’ इत्यादि, इत्यादि।
‘जिगर’ साहब की भूल जाने की आदत भी बड़ी खूबसूरत थी। उन्हें कोई बात याद नहीं रहती थी। उनसे दो-चार साल तक आपकी मुलाकात न हो तो वह आपको इस प्रकार भूल जाते थे कि याद दिलाने पर भी केवल इतना कह पाते थे (वह भी शायद शिष्टता के नाते) कि हां साहब, आपको कहीं देखा तो है, लेकिन इस वक़्त याद नहीं पड़ता। एक बार अपनी याददाश्त के लिए उन्होंने डायरी रखने का तरीक़ा इख़्तियार किया था, लेकिन वह तरीक़ा भी व्यर्थ हुआ क्योंकि वह अक्सर भूल जाते थे कि डायरी कहां रखी है। उनके यों खोये-खोये रहने से कई लोग नाजायज़ फ़ायदा भी उठा जाते थे। श्री मोहम्मद तुफ़ैल (सम्पादक ‘नुक़ूश’, लाहौर) लिखते हैं कि ‘‘एक बार लखनऊ में मैंने यह खबर सुनी कि कल ‘जिगर’ साहब का बटुआ गुम हो गया है और उसमें हज़ार-बारह-सौ रुपये थे। अफ़सोस के लिए मैं उनके पास पहुंचा और मैंने पूछा, ‘‘आपको कुछ मालूम नहीं कि बटुआ कैसे और कहां गुम हुआ ?’’
कहने लगे, ‘‘मुझे सब मालूम है। कल एक साहब से चलते-चलते मुलाकात हुई थी, उन्होंने बड़ी नियाज़मंदी का इज़हार किया। मैंने सोचा कोई मिलने वाला होगा। बाजार से कुछ सौदा-सलफ़ खरीदा। फिर तांगे में बैठे और यहां आये। रास्ते में उन साहब ने मेरी जेब में से कुछ निकाला। मैंने सोचा मुझे बदगुमानी हुई है, यह बात नहीं हो सकती। जब जेब को टटोला तो बटुआ ग़ायब था। मैंने अपना बटुआ उनके पास अपनी आंखों से भी देख लिया, लेकिन मैंने उनसे कुछ कहा नहीं।’’
‘‘वह क्यों ?’’ मैंने पूछा। कहने लगे कि ‘‘अगर मैं उनसे कहता कि मेरा बटुआ आपने चुरा लिया है तो उस वक़्त जो उन्हें परेशानी होती, वह मुझसे न देखी जाती।’’
इसी प्रकार की एक और घटना का उल्लेख करते हुए श्री तुफ़ैल लिखते हैं कि एक बार (लाहौर में) ‘जिगर’ साहब बड़े ही परेशान तशरीफ़ लाये। आते ही कहने लगे, ‘‘रात-भर नींद नहीं आई। क़िस्सा यह है कि फ़लां साहब मेरे पास आया करते थे, वो गिरफ़्तार हो गये हैं। उनकी वालिदा (माता) बेचारी मेरे पास रोती-पीटती आई थी। ये लोग बड़े ही बेसहारा और बे-यारो-मददगार हैं। मैं सुबह से अब तक डिप्टी कमिश्नर और फ़लां-फ़लां अफ़सरों को टेलीफ़ोन करा चुका हूं और उन सबसे कह चुका हूं कि अव्वल तो वो साहब बड़े नेक हैं; अगर वो साहब आपके खयाल में मुजरिम हैं फिर भी छोड़ दें। इसलिए कि किसी ग़रीब को रोते देखता हूं तो समझता हूं कि कायनात हिल रही है और हम अभी भस्म हुए कि अभी-न जाने वो अब तक रिहा होकर आया है या नहीं। चलो उसके घर चलें।’’
मैंने कहा, ‘‘मैंने तो उनका घर नहीं देखा, आपको मालूम है ?’’
कहने लगे, ‘‘मालूम तो मुझे भी नहीं। कल उनकी वालिदा ने कुछ अता-पता बताया था, ढूंढ़ लेंगे।’’
चुनांचे उस मोहल्ले में पहुंचकर कभी मैंने और कभी ‘जिगर’ साहब ने उन साहब का पता पूछा। बड़ी मुश्किलों से उनका मकान मिला। बाहर ही से मालूम हो गया कि वो साहब घर पर आ चुके हैं। यह सुनते ही ‘जिगर’ साहब ने खुदा का शुक्र किया और वापसी के लिए पलटे।
मैंने कहा कि उनके घरवालों को तो अपने आने की इत्तला देते जाइए।
बोले, ‘‘किसी की मदद करने के बाद उसे शर्मसार (लज्जित) नहीं करना चाहिए।’’
अब इसी प्रकार की एक और घटना सुनिए-जो घटना कम और लतीफ़ा अधिक मालूम होती है। ‘जिगर’ साहब के एक पुराने मिलने वाले और समकालीन शायर ने मुझे बताया कि जिन दिनों ‘जिगर’ साहब को शराब से बड़ी मोहब्बत थी, एक साहब ने दिल्ली में उनकी बड़ी दावतें कीं। हफ़्तों पिलाते-खिलाते रहे। बाद में पता चला कि वह महानुभाव अपने बिज़नेस के सम्बन्ध में ‘जिगर’ साहब से कोई सिफारिश करवाना चाहते थे। ‘जिगर’ साहब तुरन्त सिफ़ारिश करने पर तैयार हो गये और उस दिन उन्होंने सुबह ही से डटकर पीनी शुरू कर दी। बारह बजे के करीब तांगे में सवार होकर उच्चाधिकारी के यहां जाते हुए जब वह चांदनी चौक में से गुज़र रहे थे तो एकाएक ‘जिगर’ साहब तांगे की सीट पर खड़े हो गये और इश्तिहारी हकीमों की तरह चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगे कि ‘ऐ लोगो ! यह शख्स मुझे हफ़्ता-भर तक इसलिए शराब पिलाता रहा है कि मैं फ़लां अफ़सर से इनकी झूठी सिफ़ारिश करूं,’’ इत्यादि।
‘जिगर’ साहब के मित्र ने मुझे बताया कि भाषण समाप्त करने के बाद जब ‘जिगर’ साहब अपने अतिथि की ओर पलटे तो उसने उनके पैर पकड़ रखे थे और मिनमिना रहा था कि नहीं, नहीं नहीं !
कदाचित् यही बातें थीं कि जो आदमी उनसे जितना मिलता था उतना ही उनके व्यक्तित्व की विशेषताएं सामने आती थीं। उनकी किसी राय या मत से कोई भले ही सहमत न हो, उनका आदर किये बिना नहीं रह सकता था। बुज़ुर्ग होने पर भी वह हर समय गंभीर मुद्रा धारण किये नहीं बैठे रहते थे। अपने से कहीं कम आयु और नई पीढ़ी के शायरों के साथ क़हक़हे लगाने में उन्हें विशेष आनन्द आता था। वह उन्हें खिला-पिलाकर बहुत प्रसन्न होते थे और ‘वाक्य कसने’ के किसी अवसर को हाथ से नहीं जाने देते थे। एक बार एक महफ़िल में ‘जिगर’ साहब शे’र सुना रहे थे। पूरी महफ़िल झूम-झूमकर उनके शे’र पर दाद दे रही थी, लेकिन एक व्यक्ति शुरू से आख़िर तक चुपचाप बैठा रहा। एकाएक अंतिम शे’र पर उस व्यक्ति ने उचक-उचककर दाद देनी शुरू कर दी। ‘जिगर’ साहब ने चौंककर उसकी ओर देखा और कहा :
‘जिगर’ साहब बातें बड़े मजे की करते थे-विशेषकर जब उन पर दार्शनिक बनने का मूड सवार होता था। कुछ पल्ले नहीं पड़ता था कि वह क्या कह रहे हैं, और क्यों कह रहे हैं। कहां से चले थे, कहां जा पहुंचे। एक वाक्य का दूसरे से कुछ कम ही सम्बन्ध होता था या बिलकुल नहीं होता था। शायद इसलिए कि वह ग़ज़लगो शायर थे और ग़ज़ल का शे’र अपने आपमें पूर्ण होता है। ज़रा आप भी सुनिए :
‘‘अगर मैं आपके कहने के मुताबिक मान लूं और मुझे भी यक़ीने-कामिल (पूर्ण विश्वास) हो जाये कि फ़लां साहब अच्छे शे’र कहते हैं, फिर भी यह कहूँगा कि बस उनमें वही एक चीज़ नहीं है और वो चीज़ पैदा तो होती नहीं। वो तो इनसानेकामिल (पूर्ण मनुष्य) और मर्दे-ख़ुद-आगाह (अपने आपको पहचानने वाला व्यक्ति) में ख़ुद-ब-ख़ुद होती है। मेरी मुराद खुलूसे-बासफ़ा (पवित्र और सच्ची मैत्री) से है। वो शे’र बड़े बद-एमाल (दुश्चरित्र) होते हैं जो ऐसे-ऐसे ज़हनी नाबालिग़ों (मानसिक रूप से कच्चे लोगों) पर वारिद होते हैं (उतरते हैं) और दूसरों के लिए शे’र मुसीबत बन जाते हैं। जिस शख्स में ख़ुलूस नहीं वो पुरख़ुलूस शे’र नहीं कह सकता। पुरख़ुलूस शे’र कहने के लिए फ़िक्रो-नज़र की वुसअ़त (विशालता), बुलंद-किरदारी (सुचरित्रता), मशाहदातों-तजुर्बात की ज़रूरत है। इसका फ़कदान (अभाव) आम है। जहल (मूढ़ता) और इल्म (ज्ञान) में लोग तमीज़ नहीं कर पाते। फिर शेअरी दयानत कहां से आये ? अगर आप इस चीज को वैसे ही कहते चले जायेंगे तो आपको सैकड़ों सिज्दे बेकार नज़र आयेंगे। एक गुनहगार की आंखों में इन्फ़आल (पश्चात्ताप) की जो चमक एक बार पैदा हो जाती है उस के मुक़ाबले में सिज्दों की क्या हक़ीक़त है ? मैं अपनी रिंदी और तौबा दोनों ज़मानों के ज़िक्र से घबराता हूं। और यह सब कुछ क्यों होता है ? और साहब यह बहुरूपियापन तो मेरी समझ में आ ही नहीं सकता कि इनसान की जिन्दगी कुछ हो और शे’र के स्टेज पर एक्टर की हैसियत से आए। साहब, ये एक्टर हैं। ये मीनाकारी करते हैं।
यह शायरी से ज़ियादा कारीगरी है। साहब, मज़हब क्या है ? ज़ाती वजदान (अपने-आपको समझना)। अगर वजदान भी हमने मग़रिब से मुस्तआ़र (उधार) ले लिया तो हम क्या हैं ? हमारी रिवायात (परम्पराएं) क्या हैं....’’ इत्यादि, इत्यादि।
‘जिगर’ साहब की भूल जाने की आदत भी बड़ी खूबसूरत थी। उन्हें कोई बात याद नहीं रहती थी। उनसे दो-चार साल तक आपकी मुलाकात न हो तो वह आपको इस प्रकार भूल जाते थे कि याद दिलाने पर भी केवल इतना कह पाते थे (वह भी शायद शिष्टता के नाते) कि हां साहब, आपको कहीं देखा तो है, लेकिन इस वक़्त याद नहीं पड़ता। एक बार अपनी याददाश्त के लिए उन्होंने डायरी रखने का तरीक़ा इख़्तियार किया था, लेकिन वह तरीक़ा भी व्यर्थ हुआ क्योंकि वह अक्सर भूल जाते थे कि डायरी कहां रखी है। उनके यों खोये-खोये रहने से कई लोग नाजायज़ फ़ायदा भी उठा जाते थे। श्री मोहम्मद तुफ़ैल (सम्पादक ‘नुक़ूश’, लाहौर) लिखते हैं कि ‘‘एक बार लखनऊ में मैंने यह खबर सुनी कि कल ‘जिगर’ साहब का बटुआ गुम हो गया है और उसमें हज़ार-बारह-सौ रुपये थे। अफ़सोस के लिए मैं उनके पास पहुंचा और मैंने पूछा, ‘‘आपको कुछ मालूम नहीं कि बटुआ कैसे और कहां गुम हुआ ?’’
कहने लगे, ‘‘मुझे सब मालूम है। कल एक साहब से चलते-चलते मुलाकात हुई थी, उन्होंने बड़ी नियाज़मंदी का इज़हार किया। मैंने सोचा कोई मिलने वाला होगा। बाजार से कुछ सौदा-सलफ़ खरीदा। फिर तांगे में बैठे और यहां आये। रास्ते में उन साहब ने मेरी जेब में से कुछ निकाला। मैंने सोचा मुझे बदगुमानी हुई है, यह बात नहीं हो सकती। जब जेब को टटोला तो बटुआ ग़ायब था। मैंने अपना बटुआ उनके पास अपनी आंखों से भी देख लिया, लेकिन मैंने उनसे कुछ कहा नहीं।’’
‘‘वह क्यों ?’’ मैंने पूछा। कहने लगे कि ‘‘अगर मैं उनसे कहता कि मेरा बटुआ आपने चुरा लिया है तो उस वक़्त जो उन्हें परेशानी होती, वह मुझसे न देखी जाती।’’
इसी प्रकार की एक और घटना का उल्लेख करते हुए श्री तुफ़ैल लिखते हैं कि एक बार (लाहौर में) ‘जिगर’ साहब बड़े ही परेशान तशरीफ़ लाये। आते ही कहने लगे, ‘‘रात-भर नींद नहीं आई। क़िस्सा यह है कि फ़लां साहब मेरे पास आया करते थे, वो गिरफ़्तार हो गये हैं। उनकी वालिदा (माता) बेचारी मेरे पास रोती-पीटती आई थी। ये लोग बड़े ही बेसहारा और बे-यारो-मददगार हैं। मैं सुबह से अब तक डिप्टी कमिश्नर और फ़लां-फ़लां अफ़सरों को टेलीफ़ोन करा चुका हूं और उन सबसे कह चुका हूं कि अव्वल तो वो साहब बड़े नेक हैं; अगर वो साहब आपके खयाल में मुजरिम हैं फिर भी छोड़ दें। इसलिए कि किसी ग़रीब को रोते देखता हूं तो समझता हूं कि कायनात हिल रही है और हम अभी भस्म हुए कि अभी-न जाने वो अब तक रिहा होकर आया है या नहीं। चलो उसके घर चलें।’’
मैंने कहा, ‘‘मैंने तो उनका घर नहीं देखा, आपको मालूम है ?’’
कहने लगे, ‘‘मालूम तो मुझे भी नहीं। कल उनकी वालिदा ने कुछ अता-पता बताया था, ढूंढ़ लेंगे।’’
चुनांचे उस मोहल्ले में पहुंचकर कभी मैंने और कभी ‘जिगर’ साहब ने उन साहब का पता पूछा। बड़ी मुश्किलों से उनका मकान मिला। बाहर ही से मालूम हो गया कि वो साहब घर पर आ चुके हैं। यह सुनते ही ‘जिगर’ साहब ने खुदा का शुक्र किया और वापसी के लिए पलटे।
मैंने कहा कि उनके घरवालों को तो अपने आने की इत्तला देते जाइए।
बोले, ‘‘किसी की मदद करने के बाद उसे शर्मसार (लज्जित) नहीं करना चाहिए।’’
अब इसी प्रकार की एक और घटना सुनिए-जो घटना कम और लतीफ़ा अधिक मालूम होती है। ‘जिगर’ साहब के एक पुराने मिलने वाले और समकालीन शायर ने मुझे बताया कि जिन दिनों ‘जिगर’ साहब को शराब से बड़ी मोहब्बत थी, एक साहब ने दिल्ली में उनकी बड़ी दावतें कीं। हफ़्तों पिलाते-खिलाते रहे। बाद में पता चला कि वह महानुभाव अपने बिज़नेस के सम्बन्ध में ‘जिगर’ साहब से कोई सिफारिश करवाना चाहते थे। ‘जिगर’ साहब तुरन्त सिफ़ारिश करने पर तैयार हो गये और उस दिन उन्होंने सुबह ही से डटकर पीनी शुरू कर दी। बारह बजे के करीब तांगे में सवार होकर उच्चाधिकारी के यहां जाते हुए जब वह चांदनी चौक में से गुज़र रहे थे तो एकाएक ‘जिगर’ साहब तांगे की सीट पर खड़े हो गये और इश्तिहारी हकीमों की तरह चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगे कि ‘ऐ लोगो ! यह शख्स मुझे हफ़्ता-भर तक इसलिए शराब पिलाता रहा है कि मैं फ़लां अफ़सर से इनकी झूठी सिफ़ारिश करूं,’’ इत्यादि।
‘जिगर’ साहब के मित्र ने मुझे बताया कि भाषण समाप्त करने के बाद जब ‘जिगर’ साहब अपने अतिथि की ओर पलटे तो उसने उनके पैर पकड़ रखे थे और मिनमिना रहा था कि नहीं, नहीं नहीं !
कदाचित् यही बातें थीं कि जो आदमी उनसे जितना मिलता था उतना ही उनके व्यक्तित्व की विशेषताएं सामने आती थीं। उनकी किसी राय या मत से कोई भले ही सहमत न हो, उनका आदर किये बिना नहीं रह सकता था। बुज़ुर्ग होने पर भी वह हर समय गंभीर मुद्रा धारण किये नहीं बैठे रहते थे। अपने से कहीं कम आयु और नई पीढ़ी के शायरों के साथ क़हक़हे लगाने में उन्हें विशेष आनन्द आता था। वह उन्हें खिला-पिलाकर बहुत प्रसन्न होते थे और ‘वाक्य कसने’ के किसी अवसर को हाथ से नहीं जाने देते थे। एक बार एक महफ़िल में ‘जिगर’ साहब शे’र सुना रहे थे। पूरी महफ़िल झूम-झूमकर उनके शे’र पर दाद दे रही थी, लेकिन एक व्यक्ति शुरू से आख़िर तक चुपचाप बैठा रहा। एकाएक अंतिम शे’र पर उस व्यक्ति ने उचक-उचककर दाद देनी शुरू कर दी। ‘जिगर’ साहब ने चौंककर उसकी ओर देखा और कहा :
क्यों साहब, क्या आपके पास कलम है
जी हां, उस व्यक्ति ने उत्तर दिया,क्या कीजिएगा ?
जी हां, उस व्यक्ति ने उत्तर दिया,क्या कीजिएगा ?
मेरे इस शेर में ज़रूर कोई ख़ामी है, वरना आप दाद न देते। इसे अपनी बिजाज़ में से (कापी जिसमें हाथ से शे’र लिखे जाते हैं) काटना चाहता हूं।’’
इस प्रकार एक और व्यक्ति ने उनसे कहा कि ‘‘ ‘जिगर’ साहब, एक महफ़िल में मैं आपके एक शे’र पर पिटते-पिटते बचा।’’
इस पर ‘जिगर’ साहब बोले, ‘‘मेरा वो शे’र असर के लिहाज़ से ज़रूर घटिया होगा, वरना आप ज़रूर पिटते।’’
‘जिगर’ साहब का पहला दीवान (कविता-संग्रह) ‘दाग़े-जिगर’ 1921 ई. में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद 1923 ई. में ‘शोला-ए-तूर’ के नाम से एक संकलन मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ से छपा जिसके पूरे ख़र्च की जिम्मेदारी साहबज़ादा रशीदुज़्ज़्फ़र (भोपाल) ने ली थी। अब तक उसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। एक नया कविता-संग्रह ‘आतिशे-गुल’ के नाम से सन् 1958 में प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक को साहित्य अकादमी ने उर्दू भाषा की सन् 1959 की सर्वश्रेष्ठ कृति मानकर उस पर पाँच हज़ार रुपये का पुस्कार देकर ‘जिगर’ साहब को सम्मानित किया।
9 सितम्बर, 1960 को उर्दू ग़ज़ल के इस शती के बादशाह ‘जिगर’ का गोंडा में स्वर्गवास हो गया। ‘जिगर’ साहब के उठ जाने से उर्दू शायरी और विशेषकर उर्दू ग़ज़ल की दुनिया में जो स्थान रिक्त हुआ है उसकी पूर्ति होनी मुश्किल ही दिखाई देती है।
‘जिगर’ साहब उन सौभाग्यशाली शायरों में से थे, जिनकी कलाकृतियां उनके अपने जीवनकाल में ही ‘क्लासिकल’ साहित्य का अंग बन जाती हैं। बल्कि अधिक सही यह कहना होगा कि ‘जिगर’ साहब उर्दू साहित्य के इतिहास में अपना नाम स्वयं अपने हाथ से मोटो अक्षरों में लिख गए हैं।
इस प्रकार एक और व्यक्ति ने उनसे कहा कि ‘‘ ‘जिगर’ साहब, एक महफ़िल में मैं आपके एक शे’र पर पिटते-पिटते बचा।’’
इस पर ‘जिगर’ साहब बोले, ‘‘मेरा वो शे’र असर के लिहाज़ से ज़रूर घटिया होगा, वरना आप ज़रूर पिटते।’’
‘जिगर’ साहब का पहला दीवान (कविता-संग्रह) ‘दाग़े-जिगर’ 1921 ई. में प्रकाशित हुआ था। उसके बाद 1923 ई. में ‘शोला-ए-तूर’ के नाम से एक संकलन मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ से छपा जिसके पूरे ख़र्च की जिम्मेदारी साहबज़ादा रशीदुज़्ज़्फ़र (भोपाल) ने ली थी। अब तक उसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। एक नया कविता-संग्रह ‘आतिशे-गुल’ के नाम से सन् 1958 में प्रकाशित हुआ था। इस पुस्तक को साहित्य अकादमी ने उर्दू भाषा की सन् 1959 की सर्वश्रेष्ठ कृति मानकर उस पर पाँच हज़ार रुपये का पुस्कार देकर ‘जिगर’ साहब को सम्मानित किया।
9 सितम्बर, 1960 को उर्दू ग़ज़ल के इस शती के बादशाह ‘जिगर’ का गोंडा में स्वर्गवास हो गया। ‘जिगर’ साहब के उठ जाने से उर्दू शायरी और विशेषकर उर्दू ग़ज़ल की दुनिया में जो स्थान रिक्त हुआ है उसकी पूर्ति होनी मुश्किल ही दिखाई देती है।
‘जिगर’ साहब उन सौभाग्यशाली शायरों में से थे, जिनकी कलाकृतियां उनके अपने जीवनकाल में ही ‘क्लासिकल’ साहित्य का अंग बन जाती हैं। बल्कि अधिक सही यह कहना होगा कि ‘जिगर’ साहब उर्दू साहित्य के इतिहास में अपना नाम स्वयं अपने हाथ से मोटो अक्षरों में लिख गए हैं।
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