लोगों की राय

गजलें और शायरी >> शकील बदायूनी और उनकी शायरी

शकील बदायूनी और उनकी शायरी

प्रकाश पंडित

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2006
पृष्ठ :96
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4987
आईएसबीएन :81-7028-318-3

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

24 पाठक हैं

शकील बदायूनी की जिन्दगी और उनकी बेहतरीन गजलें, नज्में, शेर और रुबाइयां

Sakil Badayni Aur Unki shayari

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

उर्दू के लोक प्रिय शायर

नागरी लिपी में उर्दू के लोकप्रिय शायरों व उनकी शायरी पर आधारित पहली सुव्यवस्थित पुस्तकमाला। इसमें मीर, ग़ालिब से लेकर साहिर लुधियानवी-मजरूह सुलतानपुरी तक सभी प्रमुख उस्तादों और लोकप्रिय शायरों की चुनिंदा शायरी उनकी रोचक जीवनियों के साथ अलग-अलग पुस्तकों में प्रकाशित की गई हैं। इस पुस्तकमाला की प्रत्येक पुस्तक में संबंधित शायर के संपूर्ण लेखन से चयन किया गया है और प्रत्येक रचना के साथ कठिन शब्दों के अर्थ भी दिये गये हैं। इसका संपादन अपने विषय के दो विशेषज्ञ संपादकों-सरस्वती सरन कैफ व प्रकाश पंडित-से कराया गया है। अब तक इस पुस्तकमाला के अनगिनत संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और पाठकों द्वारा इसे सतत सराहा जा रहा है।

शकील बदायूनी

 

‘जिगर’ और ‘फ़िराक़’ के बाद आने वाली पीढ़ी में शकील बदायूनी एकमात्र शायर हैं जिन्होंने अपनी कला के लिए ग़ज़ल का क्षेत्र चुना है और इस प्राचीन किन्तु सुंदर और पूर्ण काव्य-रूप को, जिसमें हमारे अतीत की सर्वोत्तम साहित्यिक तथा सांस्कृतिक सामग्री सुरक्षित है, केवल अपनाया ही नहीं, उसका जीवन के परिवर्तनशील मूल्यों और नये विचारों से समन्वय कर उसमें नये रंग भी भरे हैं।
मैं ‘शकील’ दिल का हूँ तजुर्मां कि मुहब्बतों का हूँ राज़दां
मुझे फ़ख़ है मेरी शायरी मेरी ज़िन्दगी से जुदा नहीं

कोई ऐ ‘शकील’ देखे ये जुनूं नहीं तो क्या है
कि उसी के हो गए हम जो न हो सका हमारा।

 


फ्रन्टियर-मेल बम्बई से फ़र्राटे भरता दिल्ली की तरफ़ उड़ा जा रहा है और लगभग हर छोटे-बड़े स्टेशन पर उसके रुकते ही प्लेटफ़ार्म पर खड़े लोगों का समूह हड़बड़ाकर फ़र्स्ट-क्लास के डिब्बों की ओर लपकता है और गाड़ी छूट जाने की बौखलाहट के बावजूद शीघ्र ही एक डिब्बे में काली शेरवानी और सफे़द पायजामे में सुसज्जित एक ऐसे व्यक्ति को ढूंढ निकालता है जिसने सिर के बाल पीछे को संवार रखे हैं, जिसकी आँखों में बड़ी सुन्दर चमक है और जिसके होटों पर सदाबहार मुस्कराहट मानो चिपक कर रह गई है।
लोग बढ़-बढ़कर फूल-पान, मिठाइयाँ और फल उस व्यक्ति को भेंट करते हैं और वह सहर्ष स्वीकार करता जाता है। डिब्बे में बैठे अन्य यात्री आश्चर्य से एक-दूसरे की ओर देखते हैं कि हे भगवान् ! यह व्यक्ति न तो कोई जाना-माना राजनैतिक नेता है, न अंतराष्ट्रीय ख्याति-प्राप्त कोई खिलाड़ी, और फ़िल्म-अभिनेता तो किसी ओर से हो ही नहीं सकता। फिर इतना प्यार, हर जगह ऐसी आवभगत क्यों ? शायद कुछ यात्री यह भी सोचते हों कि संभव है, इस व्यक्ति के कुल-परिवार के लोग देश के हर नगर, हर कस्बे में मौजूद हों और यह किसी दूर देश की यात्रा को जा रहा हो। लेकिन किसी स्टेशन पर जब कोई उस व्यक्ति को उसके नाम से पुकारता है कि ‘शकील’ साहब ! लौटते समय हमारे यहाँ अवश्य आइएगा, या ‘शकील’ साहब ! अगर संभव हो तो एक-आध दिन हमारे यहाँ रुक के चले जाइएगा, तो रहस्य खुलता है कि वह व्यक्ति उर्दू का प्रसिद्ध गज़ल-गो शायर ‘शकील’ बदायूनी है जो कहीं समुद्र पार नहीं, देश ही के किसी मुशायरे में शामिल होने जा रहा है; तथा वे लोग ‘शकील’ के कुटुम्बी नहीं, उसके श्रद्धालु हैं।

‘शकील’ की ऐसी लोकप्रियता के कारण कुछ मित्रों ने तरह-तरह के लतीफ़े भी घड़ रहे हैं। उनका कहना है कि ‘शकील’ पहले से हर शहर में अपने जानने वालों को पत्र लिख देता है कि मैं अमुक शहर के मुशायरे में शरीक होने अमुक दिन अमुक गाड़ी से आपके शहर से गुज़रूँगा। आपसे मिले काफ़ी समय हो चुका है। आप को कष्ट तो होगा लेकिन मेरी प्रसन्नता के लिए यदि आप स्टेशन पर पधार सकें तो अत्यन्त आभारी हूँगा। इत्यादि।
लतीफ़ा न होकर यदि यह वास्तविकता भी हो, तब भी इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि ‘शकील’ को पर्याप्त सर्वप्रियता प्राप्त है। और उसकी सर्वप्रियता का भेद निहित है उसके बेपनाह तरन्नुम में, शेरों की बेपनाह चुस्ती में और अनुभूति की बेपनाह तीव्रता में। मैंने उसे कई ऐसे मुशायरों में भी दाद पाते देखा है, जहाँ श्रोतागण मानो शपथ लेकर आते हैं कि किसी शायर को भी ‘हूट’ किए बिना न छोड़ेंगे। लेकिन इसी संबंध में मैं यह कहने का दुःसाहस भी करूँगा कि इस प्रकार की सर्वप्रियता चूँकि उसे अपनी शायरी के प्रारंभिक काल में ही प्राप्त हो गई थी, अतएव ‘वाह’ ‘वाह’ और ‘सुब्हान अल्ला’ के निरंतर शोर ने एक समय तक उसे जीवन के कई महत्त्वपूर्ण मूल्यों के बारे में सोचने का अवसर न दिया और उसकी शायरी परम्परागत ग़ज़ल तक ही सीमित रही। उसके समकालीन शायर अपनी शायरी में नई और प्रगतिशील उद्भावनायें समोते चले गये और वह ‘प्रेम’ में ही उलझा रहा।

लेकिन, जैसी कि कुछ समालोचकों ने भूल की है, मैं ‘शकील’ की शायरी को एकदम परम्परागत शायरी कहकर नज़रअंदाज़ नहीं कर सकता। मेरा दावा है कि उन समाचोलकों ने ‘शकील’ को पूर्ण रूप से और क्रमानुसार नहीं पढ़ा। साथ-ही-साथ वे समालोचना के इस मूल सिद्धांत को भूल गए कि हर कलाकार की कला का विश्लेषण उस कलाकार के पैरों पर खड़े होकर करना चाहिए। देखना चाहिए कि जो माँग हम कलाकार से कर रहे हैं, कलाकार का जीवन और उसकी परिस्थितियों ने उसे ऐसा अवसर दिया भी या नहीं कि वह हमारी माँग पूरी कर सकता। और जब उसे अवसर मिला तब उसने हमें क्या दिया ?
स्वयं ‘शकील’ बदायूनी के कथनानुसार उसकी काव्यात्मक क्षमताओं को चार विभागों या चार स्थानों के जलवायु में विभाजित किया जा सकता है-बदायूँ, अलीगढ़ दिल्ली और बम्बई।
मेरे पूछने पर उसने बताया कि बचपन1 का ज़माना पार करने के बाद जब उसका बोध जगा तो बदायूँ शहर में घर-घर
---------------
1.शकील अहमद ‘शकील’ बदायूनी का जन्म 3 अगस्त, 1916 ई. को बदायूँ (उत्तर प्रदेश) में हुआ। स्वर्गवासी पिता का नाम मौलाना जमील अहमद सोख्ता क़ादरी था, जिन्होंने बड़े लाड़-प्य़ार से बेटे को घर पर अरबी, फ़ारसी, उर्दू और हिन्दी की प्रारंभिक शिक्षा दिलवाई।

मज़हबी (इस्लाम-धर्म सम्बन्धी) और अदबी (साहित्यिक) चर्चा थी। बदायूँ के लगभग सब शायर ग़ज़लें कहते थे और उनपर शायरी के लखनऊ-स्कूल का गहरा प्रभाव था। ‘साहित्य-जीवन के लिए’ का अभाव था और ‘साहित्य-साहित्य के लिए’ का आधिपत्य। अतएव ऐसे साहित्यिक वातावपण और नाते के चचा हज़रत मौलाना ज़िया-उल-क़ादिरी बदायूनी [जो एक माने हुए नाअ़त-गो (हज़रत मोहम्मद की प्रशंसा में शेर लिखने वाले) शायर थे] के प्रशिक्षण का रंग उसकी काव्य-अभिरुचि पर पड़ा, जो बदायूँ की साहित्यिक बैठकों में विभिन्न शायरों के शेर सुन-सुनकर पैदा हो गई थी1।
अलीगढ़ के बारे में उसने बताया कि 1936 ई. में अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रविष्ट होने तक वह बदायूँ के आसपास के कई मुशायरों में शरीक हो चुका था। अलीगढ़ आया तो वहाँ सैद्धान्तिक रूप से शायरों के दो दल मिले। प्रगतिशील शायर और ग़ज़लगो शायर। एक ओर ‘मजाज़’, ‘जज़्बी’, जांनिसार ‘अख़्तर’, मसऊद अख़्तर ‘मजाल’ आदि के नग़्मे गूँज रहे थे तो दूसरी ओर ‘राज़’ मुरादाबादी ऐसे ग़ज़लग शायरों ने, जो ‘जिगर’ मुरादाबादी से बेतरह प्रभावित थे, अपने झन्डे गाड़ रखे थे, ‘राज़’ साहब ‘जिगर’ मुरादाबादी के शिष्य भी थे अतएव अपने परम मित्र ‘शकील’
-----------------
1.मेरी शायरी का फ़न (कला) मारूसी (पैतृक) नहीं है क्योंकि न मेरे वालिद शायर थे न दादा। हाँ, मेरी सातवीं पुश्त में जो मेरे जद्दे-अमजद (पूर्वज) थे उनके बारे में किताबों में पढ़ा है कि वो शायर थे और उनका नाम ख़लीफ़ा मोहम्मद वासिल था। मुमकिन है वही ज़ौक़ (अभिरुचि) सात पुश्तों की छलांग लगाकर मेरे हिस्से में आया हो-
शकील

 


बदायूनी को भी उन्होंने ‘जिगर’ साहब से मिलाया और फिर ‘जिगर’ साहब की कृपा दृष्टि से स्वयं ‘शकील’ के कथनानुसार ‘मेरी शायरी पर यौवन आता गया। उसी ज़माने में स्वर्गीय मौलाना ‘अहसन’ मारहर्वी उर्दू के लेक्चरर थे, और यू.पी. के विभिन्न कालेजों, विशेषकर सेंट जोन्स कालेज, आगरा, में ‘इन्टर-वर्सिटी’ इनामी मुशायरे हुआ करते थे। ‘अहसन’ साहब मुझे और ‘राज़’ को अपने साथ वहाँ ले जाया करते थे और हम दोनों मुशायरों के लिए ‘धमाका’ सिद्ध होते थे। इनाम हमें मिलता था और विजय अलीगढ़ विश्वविद्यालय की होती थी। इन सिलसिलों ने ग़ज़लगोई के क्षेत्र में मेरे पाँव और भी दृढ़ता से जमा दिए। चूँकि मस्तिष्क को राजनीति से कोई लगाव ही न था इसलिए प्रगतिशील, आन्दोलन, सामाजिक बोध और सामाजिक ज़िम्मेदारियों पर क्रेंद्रित करने की बजाय मैंने अपनी शायरी को प्रेम तथा प्रेम सम्बन्धी मनोविश्लेषण पर क्रेंद्रित कर दिया।’’

अलीगढ़ से बी.ए. करने के बाद राज्य के सप्लाई-विभाग में नौकर होकर 1942 से 46 ई. तक वह दिल्ली में रहा आधुनिक उर्दू शायरी के इतिहास में यह काल तीन प्रकार से उल्लेखनीय हैं। इस काल में कुछ संकीर्णतावादी आलोचकों ने यह बहस उठाई कि काव्य के एक रूप के तौर पर ग़ज़ल को बाक़ी रहना चाहिए या नहीं ? उन्होंने ग़ज़ल की विषय-वस्तु को परम्परागत शायरी से सम्बधित कर उसे अफ़ीम से उपमा दी और गज़लगो शायरों पर प्रतिक्रियावादी होने का आरोप लगाया। इसके अतिरिक्त न. म. ‘राशिद’, ‘मीराजी’ और डाक्टर तासीर ने अंग्रेज़ी साहित्य से प्रभावित होकर उर्दू शायरी में ‘फ्री-वर्स’ और ‘ब्लैंक-वर्स’ के नए-नए प्रयोग करने शुरु किए। तीसरी घटना या दुर्घटना यह हुई कि जिगर’ साहब मुरादाबादी से आसाधारण-रूप से प्रभावित होकर अधिकतर नौजवान ग़ज़लगो शायर ‘जिगर’ साहब की उद्भावना के अनुमोदन में शे’र कहने लगे। यहाँ तक कि कुछ शायरों ने हुलिए और वस्त्रों में भी उनकी नक़ल शुरू कर दी। सिर पर बड़े-बड़े बाल। खोए-खोए ढंग में गुफ़्तगूँ और उनके तरन्नुम (गाकर कविता पाठ करना) की नक़ल आम होने लगी। प्रयोगवादी शायरी तो ख़ैर ‘शकील’ के स्वभाव ही के प्रतिकूल थी, राजनीति से विशेष दिलचस्पी न होने के कारण वह नज़्मगोई की ओर भी प्रवृत्त न हो सका। रह गया ‘जिगर’ साहब का अनुकरण, तो उसके सम्बन्ध में एक स्थान पर वह लिखता है कि ‘‘मेरा दिल ‘जिगर-छाप’ शायर बनने को बिल्कुल तैयार न था। शायद इसीलिए मैं पुकारता था :
जो नुक़ूश-खुर्दा-ए-पा1 न हो उसी रहगुज़र की2 तलाश है !

 

 

इसके अतिरिक्त वह ग़ज़ल के पक्षपातियों की इस धारण से सहमत था कि ग़ज़ल में भी सामाजिक बोध और नए मूल्यों की गुंजाइश पैदा करना संभव है-जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण उस समय ‘मजाज़’ ‘फ़ैज’, अहमद नदीम क़ासमी इत्यादि प्रगतिशाली शायर दे रहे थे। ‘शकील’ ने भी अपनी शायरी में नये मूल्यों को समोने का प्रयत्न किया, लेकिन प्रेम और प्रेम-सम्बन्धी मनोविश्लेषण के मुक़ाबले में उनका अंश काफ़ी कम रहा। क्योंकि उसका विश्वास था (और उसका कहना है कि यह विश्वास आज भी उसी तरह दृढ़ है) कि ‘‘प्रेम, सौंदर्य और शिष्टता भी जीवन के महत्त्वपू्र्ण अंग हैं। इनके बिना पूर्ण मानव नहीं बना जा सकता। और यदि
---------------
1.पद चिह्नों से परिचित (रौंदी हुई) 2.मार्ग की
हम स्वयं मानव नहीं बन सकते तो दूसरों को मानवता का उपदेश कैसे दे सकते हैं।’’
दिल्ली में अपने निवास-काल में ‘शकील’ ने भारत के लगभग सभी मुख्य शहरों में मुशायरे पढ़े और उसे अनुभव हुआ कि मुशायरों में या विशेष महफ़िलों में केवल शायरी की दाद नहीं मिलती बल्कि कई चीज़ों के सम्मिश्रण पर दाद दी जाती है, जिनमें शायर की ख्याति, व्यक्तित्व, तरन्नुम, भाषा की चाशनी और आसान शेर विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। दूसरे शब्दों में, मुशायरे भाषा की उन्नति और शायर की लोकप्रियता का साधन तो बना सकते हैं, लेकिन साहित्य के स्तर को ऊंचा करने में सहायता नहीं देते। इस अनुभव के प्रकाश में, वह कहता है कि ‘‘मैंने, जहां तक संभव हो सका। अपनी शायरी को इस राह पर लाने की कोशिश की कि स्तर भी क़ायम रहे और सुनने वाले भी निराश न हों। कलाकार यदि प्रसिद्ध हो तभी उसकी आवाज़ में असर पैदा होता है और यह भी होता है कि कलाकार की आवाज़ जनता को अपनी ओर आकृष्ट करे। उसी प्रकार एक शायर यदि जनता में मान्य है तो उस शायर पर यह ज़िम्मेदारी आती है कि वह अपने प्रभाव से जनता का स्तर ऊँचा करे, न कि उसको अधस्थल की ओर ले जाए। जो हो, मुझे और मेरी ग़जलों को जिनती मान्यता मिलती गई, मैं उतना ही चौकन्ना होता गया।’’

और 1946 ई. में बम्बई आकर जब उसने फ़िल्म-जगत में प्रवेश किया तो फ़िल्मी गीतों की लोकप्रियता से उसने सीखा कि गूढ़-से-गूढ़ बात भी यदि सरल भाषा में कही जाए तो शायरी के लिए हितकर सिद्ध हो सकती है। बम्बई आकर ‘‘मैंने जो ग़ज़लें कही हैं, उनमें मैंने इन समस्त बातों का ध्यान रखा है और मुझे आशा है कि यदि जीवन ने साथ दिया तो ग़ज़ल के लिए अपना एक अलग ढांचा तैयार कर लूँगा।’’
यह है ‘शकील’ बदायूनी के जीवन और उसकी शायरी की पृष्ठभूमि, जिसे ‘शकील’ की शायरी पर बहस करने और ‘शकील’ को यथोचित स्थान न देने वाले अक्सर समालोचक  नज़र में नहीं रखते। उचित उच्च स्थान न मिलने से कभी-कभी उसके क़लम से ऐसे शेर भी निकल पड़ते हैं जिनसे पता चलता है कि वे शेर केवल चिढ़कर कहे गए हैं। अन्यथा एक ओर यदि ‘शकील’ के यहाँ :
क्या शै1 है मताअ़-ए-ग़मो-राहत2 न समझना
जीना है तो जीने को हक़ीक़त न समझना

 

 

और
नई सुबह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है
ये सहर3 रफ़्ता-रफ़्ता4 कहीं शाम तक न पहुँचे

 

 

ऐसे परम्परागत, सूफ़ियाना और नकारात्मक शेर मिलते हैं तो ऐसे शेरों की भी कुछ कम संख्या नहीं जिनमें उसने कर्मशीलता की शाश्वत महानताओं का लोहा मानते हुए कहा है :-
मैं ज़िन्दा हूं मुझे ऐनाखुदा5 तूफ़ान में ले चल
मेरे ज़ौक-अमल की6 मौत है साहिल के पर्दे में

 


1.चीज़ 2.ग़म और खुशी-रूपी पूँजी 3.सुबह 4.शनैःशनैः 5.माँझी 6.कर्म की अभिरुचि
और
है यही वक़्ते-अ़मल1 जहदे-मुसलसल की2 क़सम
बेसहारों की तरह हाथ न मलते रहना
नग़्मा-ए-इश्क़ न हो एक ही धुन पर क़ायम
वक़्त के साथ ज़रा राग बदलते रहना

 


इसी प्रकार एक ओर यदि वह खुदा के पक्ष में :
मुन्किरे-ज़ात3 बहस मुसल्लम4 लेकिन
यूँ वो कुछ और नुमायां5 नज़र आता है

 


कहता है तो दूसरी ओर
दे सदायें6 दर्रे इन्सां7 ही पे इन्सान ‘शकील’
हाए दुनिया में ग़रीबों का खुदा क्यों न रहा

 


कहकर उस शून्य को पाट देता है, जिसे पाट न पाने की उससे शिकायत की जाती है। लेकिन शिकायतों और विरोधों के बावजूद ‘शकील’ यह कहते हुए आगे बढ़ा चला जा रहा है कि :
शे’र –ओ अदब की राह में हूं गामज़न8 ‘शकील’
अपने मुख़ालिफ़ीन की9 परवा किये बग़ैर

 

 

--------------
1.काम करने का समय 2.निरन्तर संघर्ष की 3.नास्तिक 4.युक्तियुक्त 5.स्पष्ट 6.आवाज़ें 7.मनुष्य के दरवाज़े 8.चल रहा हूँ 9.विरोधियों की
‘जिगर’ मुरादाबादी ने शायद बिल्कुल ठीक लिखा है कि ‘‘शकील’ शायरे-फ़ितरत (स्वाभाविक कवि) है, शायरे-कारीगर नहीं। उसका कलाम सिर्फ़ लफ़्ज़ी तलिस्मबंदियों (शाब्दिक जादूगरियों) का मजमूआ़ (संग्रह) नहीं बल्कि हक़ीक़तन (वास्तव में) उसका कलाम उसकी ज़िन्दगी का आईनादार (प्रतिरूप) है।’’
ज़िन्दगी जैसी कि उसकी थी या ज़िन्दगी जैसी भी वह पा सका। और इसीलिए सरदार जाफ़री और ‘मजरूह’ सुलतानपुरी जैसे कट्टर प्रगतिशील शायर भी इस स्वीकारोक्ति से दामन न बचा सके कि :
‘‘ ‘शकील’ ग़ज़ल कहना भी जानते हैं और गाना भी। मैं अपनी अदबी ज़िन्दगी में ‘शकील’ से दूर रहा हूँ लेकिन उनकी ग़ज़ल से हमेशा कुर्बत (सामीप्य) महसूस की है। यह एक ऐसी लताफ़त (मृदुलता) है जो दिल में उतर जाती है।
-सरदार जाफ़री

 

 

‘‘एक ग़ज़लगो शायर की हैसियत से मुझे ‘शकील’ के मक्तबे-ख़याल (सिद्धांत-पद्धति) से इख़तिलाफ़ (विरोध) सही लेकिन मगर ईमान की तो है कि जब भी मैंने उनके मुँह से अच्छे शेर सुने हैं रश्क (ईर्ष्या या प्रतिस्पर्धा) किए बग़ैर नहीं रह सका।’’
मजरूह’ सुलतानपुरी
और ‘साहिर’ लुधियानवी के ख़्याल में तो:-
‘जिगर’ और ‘फ़िराक़’ के बाद आने वाली पीढ़ी में ‘शकील’ बदायूनी एकमात्र शायर हैं जिन्होंने अपनी कला के लिए ग़ज़ल का क्षेत्र चुना है और इस प्राचीन किन्तु सुन्दर और पूर्ण काव्य-रूप को, जिसमें हमारे अतीत की सर्वोत्तम साहित्यिक तथा सांस्कृतिक सामग्री सुरक्षित है, केवल अपनाया ही नहीं उसका जीवन के परिवर्तनशील मूल्यों और नये विचारों से समन्वय कर उसमें नये रंग भी भरे हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि एक काव्य-रूप के लिहाज़ से ग़ज़ल सीमित भावनाओं की वाहक है। और फिर यह इतनी मथी जा चुकी है कि अब इसमें अधिक मंथन की बहुत ही कम गुंजाइश रह गई है। लेकिन जो लोग इस प्रकार की गुंजाइश निकाल सकते हैं उन्हें अपने विचारों को ग़ज़ल का पहनावा पहनाने का पूरा-पूरा अधिकार है। ‘शकील’ बदायूनी बड़ी सुरीति से अपने अधिकार की रक्षा कर रहा है। उसे पढ़ते हुए जहाँ हमें यह अनुभव होता है कि हम आधुनिक काल के किसी शायर को नहीं, किसी उस्ताद को पढ़ रहे हैं, वहाँ इस बात का भी अनुभव होता है कि वह उस्ताद आधुनिक-काल का उस्ताद है।
20 अप्रैल 1970 को इस मशहूर शायर का 54 बरस की बहुत कम उम्र में निधन हो गया।
 

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book