गजलें और शायरी >> नजीर अकबराबादी और उनकी शायरी नजीर अकबराबादी और उनकी शायरीप्रकाश पंडित
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नजीर अकबराबादी की जिन्दगी और उनकी बेहतरीन गजलें, नज्में, शेर
Najir Akabarbadi Aur Unaki Shayri Saraswati Saran Kaif
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
उर्दू के लोकप्रिय शायर
वर्षों पहले नागरी लिपि में उर्दू की चुनी हुई शायरी के संकलन प्रकाशित कर राजपाल एण्ड सन्स ने पुस्तक प्रकाशन की दुनिया में एक नया कदम उठाया था। उर्दू लिपि न जानने वाले लेकिन शायरी को पसंद करने वाले अनगिनत लोगों के लिए यह एक बड़ी नियामत साबित हुआ और सभी ने इससे बहुत लाभ उठाया। ज़्यादातर संकलन उर्दू के सुप्रसिद्ध सम्पादक प्रकाश पंडित ने किये हैं। उन्होंने शायर के सम्पूर्ण लेखन से चयन किया है और कठिन शब्दों के अर्थ साथ ही दे दिये हैं। इसी के साथ, शायर के जीवन और कार्य पर जिनमें से समकालीन उनके परिचित ही थे-बहुत रोचक और चुटीली भूमिकाएं लिखी हैं। ये बोलती तस्वीरें हैं जो सोने में सुहागे का काम करती हैं।
नज़ीर अकबराबादी
नज़ीर की शायरी से पता चलता है कि उन्होंने जीवन-रूपी पुस्तक का अध्ययन बहुत अच्छी तरह किया है। भाषा के क्षेत्र में भी वे उदार हैं, उन्होंने अपनी शायरी में जन-संस्कृति का, जिसमें हिन्दू संस्कृति भी शामिल है, दिग्दर्शन कराया है और हिन्दी के शब्दों से परहेज़ नहीं किया है। उनकी शैली सीधी असर डालने वाली है और अलंकारों से मुक्त है। शायद इसीलिए वे बहुत लोकप्रिय भी हुए।
अंग्रेज़ी की एक कहानी का अन्तिम अंश इस प्रकार है:
कवि ने झल्लाकर एक दिन कीर्ति से कहा, ‘‘प्यारी कीर्ति ! खुलेआम गली-कूचों में तू कमीनों से हंसती बोलती है-तुझे शर्म नहीं आती ! और मैं तेरे लिए खून पानी करता हूं, तेरा स्वप्न देखता हूँ, और तू मेरी हंसी उड़ाती है, मेरी तरफ़ आंख उठाकर भी नहीं देखती।’’ कीर्ति मटक कर चली गई। जाते समय मुड़कर उसने कनखियों से एक अजीब अंदाज़ से मुस्कराकर कवि की ओर देखा। इस तरह की मुस्कराहट उसके चेहरे पर पहले कभी न दिखलाई पड़ी थी। जाते जाते वह धीरे-से कह गई, ‘‘आज से सौ वर्ष बाद कब्रिस्तान में मैं तुझसे मिलूँगी !’’
यह कहने की हिम्मत तो ख़ैर कोई नहीं कर सकता कि सच्चे कवियों को हमेशा मरने के बाद ही कीर्ति मिलती है किन्तु इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि बहुधा ऐसा भी होता है। इस बात का ज्वलन्त उदाहरण उर्दू के ख़्यातनामा कवि मियां नज़ीर अकबराबादी के जीवन से मिल जाता है। मियां ‘नज़ीर’ ने लगभग सौ वर्ष की आयु पाई। भारत जैसे देश का निवासी होकर भी इतनी लम्बी उम्र पाना अपने जीवन के अधिकार का आवश्यकता से अधिक उपयोग करना कहा जाएगा। किन्तु इतनी लम्बी उम्र के बावजूद ‘नज़ीर’ को अंतिम क्षणों तक कवि के रूप में ख्याति न मिली। यही क्यों, उनके मरने के लगभग सत्तर वर्ष बाद तक भी आलोचकगण उन्हें एक प्रमुख कवि के रूप में मानने से इनकार करते रहे। बीसवीं शताब्दी में लिखे उर्दू साहित्य के कुछ प्रमुख इतिहासों-अब्दुल हई कृत ‘गुले रअ़ना’ और अब्दुस्सलाम नदवी कृत ‘शेरुलहिन्द’-में ‘नज़ीर’ का कहीं उल्लेख भी नहीं किया गया। अलबत्ता बीसवीं शताब्दी के मध्य काल में आकर मियां ‘नज़ीर’ उभरे (यद्यपि इस समय कब्र में उनकी हड्डियां तक गल गईं होंगी) और उभरे तो ऐसे उभरे कि आलोचकों के पास उनकी निस्पृहता, धार्मिक सहिष्णुता, देश-प्रेम भ्रातृ-भाव पैनी दृष्टि की प्रशंसा करने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं रह गया। उनका ‘सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा’ जैसी कविताएं, जो उन्नीसवीं शताब्दी के आलोचकों की दृष्टि में उपहासास्पद समझी जाती थीं, अब कविता-प्रेमियों के गले का हार हो गई हैं। ‘जन-कवि’ कहकर उनको उछाला जा रहा है और लब्धप्रतिष्ठ आलोचक उनकी रचनाओं के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालना जरूरी समझते हैं।
इतना सब होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि नज़ीर की ख्याति का यह चरम काल है। मेरी अपनी समझ में तो सभी आलोचकों को भी अंधेरे में प्रकाश की एक आध ही किरण मिली है, साधारण काव्य प्रेमियों की तो बात ही क्या है। अभी हम अपने दृष्टिकोण को इतना विस्तृत कर ही नहीं पाए हैं कि ‘नज़ीर’ की रचनाओं के वास्तविक महत्त्व को समझें। उसे समझने के लिए हमें लगभग सौ वर्ष और लग सकते हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी के आलोचकों ने या तो ‘नज़ीर’ का जिक्र करना ही ठीक नहीं समझा, (क्योंकि उनकी दृष्टि में वे प्रमुख कवि ही नहीं थे) या नवाब मुस्तफा़ ख़ां ‘शेफ़्ता’ जैसे आलोचकों ने उन्हें काफ़ी खरी-खोटी सुनाते हुए याद किया है। उपेक्षा और बेक़द्री की इस दलदल में ‘नज़ीर’ के काव्य को सबसे पहले 1900 ई. में औरंगाबाद कॉलेज के प्राध्यापक मौलवी सय्यद मुहम्मद अब्दुल ग़फूर ‘शहबाज़’ ने निकाला। इस शताब्दी में ‘नज़ीर’ पर जो कुछ लिखा गया है उसका उधार प्रो. शहबाज़ की प्रसिद्ध पुस्तक ‘ज़िन्दगानी-ए-बेनज़ीर’ है। इस पुस्तक में जो खोज-सामग्री है उससे अधिक आगे बढ़ना किसी और के लिए सम्भव न हुआ, यद्यपि यह भी सही है कि प्रो. शहबाज़ ने इसमें आलोचक से अधिक प्रशंसक का रवैया अपनाया है। ‘ज़िन्दगानी-ए-बेनज़ीर’ के बारे में श्री सलीम जाफ़र ठीक ही लिखते हैं, ‘‘केन्टरबरी के डोन एफ.डब्लू. फैरट ने यीशु मसीह का जीवन-चरित्र लिखा है। एक आलोचक ने इसके बारे में कहा है कि इसमें ईसा हैं तो, लेकिन फूलों में छुपे हुए। यानी वर्णन-सौंदर्य और अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा ने उन पर पर्दा डाल दिया है और वे निगाहों से ओझल हो गए हैं। यही आलोचना शब्दशः प्रो. शहबाज़-कृत ‘ज़ि़न्दगी-ए-बेनज़ीर’ पर लागू होती है। मगर सच तो यह है कि उनकी खोज के आगे क़दम बढ़ाना दुश्वार है।
‘नज़ी़र’ की जन्मतिथि का किसी को पता नहीं है। डॉ. सक्सेना का ख़याल है कि वे नादिरशाह के दिल्ली में हमले के समय 1739 या 1740 ई. में पैदा हुए थे। प्रो. शहबाज़ के कथनानुसार उनका जन्म 1735 ई. में हुआ था। ख़ैर, यह अंतर कोई ख़ास नहीं है। उनका जन्मस्थान दिल्ली था। केवल एक तज़किरे के अनुसार वे आगरे में पैदा हुए थे लेकिन अन्य तज़किरों में जन्मस्थान दिल्ली ही को माना गया है।
कवि ने झल्लाकर एक दिन कीर्ति से कहा, ‘‘प्यारी कीर्ति ! खुलेआम गली-कूचों में तू कमीनों से हंसती बोलती है-तुझे शर्म नहीं आती ! और मैं तेरे लिए खून पानी करता हूं, तेरा स्वप्न देखता हूँ, और तू मेरी हंसी उड़ाती है, मेरी तरफ़ आंख उठाकर भी नहीं देखती।’’ कीर्ति मटक कर चली गई। जाते समय मुड़कर उसने कनखियों से एक अजीब अंदाज़ से मुस्कराकर कवि की ओर देखा। इस तरह की मुस्कराहट उसके चेहरे पर पहले कभी न दिखलाई पड़ी थी। जाते जाते वह धीरे-से कह गई, ‘‘आज से सौ वर्ष बाद कब्रिस्तान में मैं तुझसे मिलूँगी !’’
यह कहने की हिम्मत तो ख़ैर कोई नहीं कर सकता कि सच्चे कवियों को हमेशा मरने के बाद ही कीर्ति मिलती है किन्तु इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि बहुधा ऐसा भी होता है। इस बात का ज्वलन्त उदाहरण उर्दू के ख़्यातनामा कवि मियां नज़ीर अकबराबादी के जीवन से मिल जाता है। मियां ‘नज़ीर’ ने लगभग सौ वर्ष की आयु पाई। भारत जैसे देश का निवासी होकर भी इतनी लम्बी उम्र पाना अपने जीवन के अधिकार का आवश्यकता से अधिक उपयोग करना कहा जाएगा। किन्तु इतनी लम्बी उम्र के बावजूद ‘नज़ीर’ को अंतिम क्षणों तक कवि के रूप में ख्याति न मिली। यही क्यों, उनके मरने के लगभग सत्तर वर्ष बाद तक भी आलोचकगण उन्हें एक प्रमुख कवि के रूप में मानने से इनकार करते रहे। बीसवीं शताब्दी में लिखे उर्दू साहित्य के कुछ प्रमुख इतिहासों-अब्दुल हई कृत ‘गुले रअ़ना’ और अब्दुस्सलाम नदवी कृत ‘शेरुलहिन्द’-में ‘नज़ीर’ का कहीं उल्लेख भी नहीं किया गया। अलबत्ता बीसवीं शताब्दी के मध्य काल में आकर मियां ‘नज़ीर’ उभरे (यद्यपि इस समय कब्र में उनकी हड्डियां तक गल गईं होंगी) और उभरे तो ऐसे उभरे कि आलोचकों के पास उनकी निस्पृहता, धार्मिक सहिष्णुता, देश-प्रेम भ्रातृ-भाव पैनी दृष्टि की प्रशंसा करने के अतिरिक्त और कोई चारा ही नहीं रह गया। उनका ‘सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बंजारा’ जैसी कविताएं, जो उन्नीसवीं शताब्दी के आलोचकों की दृष्टि में उपहासास्पद समझी जाती थीं, अब कविता-प्रेमियों के गले का हार हो गई हैं। ‘जन-कवि’ कहकर उनको उछाला जा रहा है और लब्धप्रतिष्ठ आलोचक उनकी रचनाओं के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालना जरूरी समझते हैं।
इतना सब होने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि नज़ीर की ख्याति का यह चरम काल है। मेरी अपनी समझ में तो सभी आलोचकों को भी अंधेरे में प्रकाश की एक आध ही किरण मिली है, साधारण काव्य प्रेमियों की तो बात ही क्या है। अभी हम अपने दृष्टिकोण को इतना विस्तृत कर ही नहीं पाए हैं कि ‘नज़ीर’ की रचनाओं के वास्तविक महत्त्व को समझें। उसे समझने के लिए हमें लगभग सौ वर्ष और लग सकते हैं।
उन्नीसवीं शताब्दी के आलोचकों ने या तो ‘नज़ीर’ का जिक्र करना ही ठीक नहीं समझा, (क्योंकि उनकी दृष्टि में वे प्रमुख कवि ही नहीं थे) या नवाब मुस्तफा़ ख़ां ‘शेफ़्ता’ जैसे आलोचकों ने उन्हें काफ़ी खरी-खोटी सुनाते हुए याद किया है। उपेक्षा और बेक़द्री की इस दलदल में ‘नज़ीर’ के काव्य को सबसे पहले 1900 ई. में औरंगाबाद कॉलेज के प्राध्यापक मौलवी सय्यद मुहम्मद अब्दुल ग़फूर ‘शहबाज़’ ने निकाला। इस शताब्दी में ‘नज़ीर’ पर जो कुछ लिखा गया है उसका उधार प्रो. शहबाज़ की प्रसिद्ध पुस्तक ‘ज़िन्दगानी-ए-बेनज़ीर’ है। इस पुस्तक में जो खोज-सामग्री है उससे अधिक आगे बढ़ना किसी और के लिए सम्भव न हुआ, यद्यपि यह भी सही है कि प्रो. शहबाज़ ने इसमें आलोचक से अधिक प्रशंसक का रवैया अपनाया है। ‘ज़िन्दगानी-ए-बेनज़ीर’ के बारे में श्री सलीम जाफ़र ठीक ही लिखते हैं, ‘‘केन्टरबरी के डोन एफ.डब्लू. फैरट ने यीशु मसीह का जीवन-चरित्र लिखा है। एक आलोचक ने इसके बारे में कहा है कि इसमें ईसा हैं तो, लेकिन फूलों में छुपे हुए। यानी वर्णन-सौंदर्य और अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा ने उन पर पर्दा डाल दिया है और वे निगाहों से ओझल हो गए हैं। यही आलोचना शब्दशः प्रो. शहबाज़-कृत ‘ज़ि़न्दगी-ए-बेनज़ीर’ पर लागू होती है। मगर सच तो यह है कि उनकी खोज के आगे क़दम बढ़ाना दुश्वार है।
‘नज़ी़र’ की जन्मतिथि का किसी को पता नहीं है। डॉ. सक्सेना का ख़याल है कि वे नादिरशाह के दिल्ली में हमले के समय 1739 या 1740 ई. में पैदा हुए थे। प्रो. शहबाज़ के कथनानुसार उनका जन्म 1735 ई. में हुआ था। ख़ैर, यह अंतर कोई ख़ास नहीं है। उनका जन्मस्थान दिल्ली था। केवल एक तज़किरे के अनुसार वे आगरे में पैदा हुए थे लेकिन अन्य तज़किरों में जन्मस्थान दिल्ली ही को माना गया है।
जीवन-वृत्त
‘नज़ीर’ के जीवन-वृत में कोई मार्के की बात नहीं है। दरअसल अगर वे खुद अपने बारे में कुछ लिखते तो कुछ ज़्यादा बातें मालूम होतीं। सो अपना जीवन-वृत्त लिखना तो दूर की बात है, अपनी रचनाओं को संग्रहीत करने की भी चिन्ता उन्होंने नहीं की। प्रो. शहबाज़ को ‘नज़ीर’ का हाल जानने में उनकी नवासी से, जो प्रो. शहबाज़ के ज़माने में ज़िन्दा थीं, बड़ी मदद मिली। उनसे जो हाल मालूम हुए उसका खुलासा यह है :
‘नज़ीर’ का नाम वली मुहम्मद था और उनके पिता का नाम मुहम्मज फ़ारुक़ था। उनकी मां आगरे के क़िलेदार नवाब सुल्तान ख़ां की बेटी थीं। ‘नज़ीर’ की पैदाइश के बाद ही दिल्ली पर लगातार मुसीबतें आने लगीं। 1739 ई. में नादिरशाह का हमला हुआ। उसने दिल्ली को ख़ूब लूटा और खसोटा और क़त्ले-आम बरपा कर दिया। दिल्ली की गलियों में ख़ून की नदियां बह गईं। इसके बाद भी बहुत दिनों तक दिल्ली में अशांति रही। अहमद शाह अब्दाली ने भी पैदरपै तीन बार-1748, 1751 और 1756 ई. में दिल्ली पर हमले किए। मरहटों के भी आक्रमण हो रहे थे। चुनांचे ‘नज़ी़र’ भी अपनी मां और नानी को साथ लेकर बाईस-तेईस साल की उम्र में दिल्ली से अकबराबाद (आगरा) चले आए और वहीं ताजगंज में नूरी दरवाज़े पर एक मकान लेकर रहने लगे। नज़ीर आगरे में बसे तो ऐसे बसे कि मरकर भी यहीं दफ़्न हुए।
आगरे में उन्होंने तहव्वरुन्निसा बेगम से विवाह किया। यह अहदी अब्दुर्रहमान-ख़ां चग़ताई की नवासी और मुहम्मद रहमान ख़ां की बेटी थीं। मुहम्मद रहमान ख़ां मलिकों की गली में रहते थे जो ताजगंज मुहल्ले में थी। ‘नज़ीर’ की दो संतानें थीं, एक लड़का गुलज़ार अली और एक लड़की इमामी बेगम। इमामी बेगम के एक लड़की हुई जिसका नाम विलायती बेगम था। विलायती बेगम प्रो. शहबाज़ के वक़्त में ज़िन्दा थीं और उन्होंने ‘ज़ि़न्दगानी-ए-बेनज़ीर के लिए बहुत सी आवश्यक सामग्री दी।
‘नज़ीर’ का हुलिया फरहतुल्ला बेग यूं लिखते हैं :
‘नज़ीर’ का रंग गुंदुम-गूं (गेहुंआ), कद मियाना, पेशानी ऊंची और चौड़ी, आंखें चमकदार और बेनी। (नाक) बुलन्द थी। दाढ़ी ख़शख़शी और मूंछें बड़ी रखते थे। खिड़कीदार पगड़ी, गाढ़े का अंगरखा, सीधा पर्दा, नीची चोली, उसके नीचे कुरता, एक बरका पाजामा, घीतली जूती, हाथ में शानदार छड़ी, उंगलियों में फ़ीरोज़े और अक़ीक की अंगूठियां।’’
उनकी योग्यता के बारे में मिर्ज़ा फ़रहतुल्ला बेग लिखते हैं।’’
‘‘इल्मी क़ाबलियत यह थी कि आठ ज़बानें-अरबी-फ़ारसी, उर्दू, पंजाबी, भाषा, मारवाड़ी, पूरबी और हिन्दी-जानते थे।’’
श्री सलीम जाफ़र का कहना है कि ‘नज़ी़र का क़द ठिगना रंग सांवला दाढ़ी नदारद और अरबी नहीं जानते थे जानते भी थे तो बहुत कम। उनका कहना है कि प्रो. शहबाज़ द्वारा सम्पादित ‘नज़ीर के दीवान’ और ‘नज़ीर का देश-प्रेम’ में जो तस्वीर दी गई है उसमें दाढ़ी़ नहीं है। अपने कथन की पुष्टि में वे स्वयं ‘नज़ीर’ के निम्नलिखित शे’र देते हैं :
‘नज़ीर’ का नाम वली मुहम्मद था और उनके पिता का नाम मुहम्मज फ़ारुक़ था। उनकी मां आगरे के क़िलेदार नवाब सुल्तान ख़ां की बेटी थीं। ‘नज़ीर’ की पैदाइश के बाद ही दिल्ली पर लगातार मुसीबतें आने लगीं। 1739 ई. में नादिरशाह का हमला हुआ। उसने दिल्ली को ख़ूब लूटा और खसोटा और क़त्ले-आम बरपा कर दिया। दिल्ली की गलियों में ख़ून की नदियां बह गईं। इसके बाद भी बहुत दिनों तक दिल्ली में अशांति रही। अहमद शाह अब्दाली ने भी पैदरपै तीन बार-1748, 1751 और 1756 ई. में दिल्ली पर हमले किए। मरहटों के भी आक्रमण हो रहे थे। चुनांचे ‘नज़ी़र’ भी अपनी मां और नानी को साथ लेकर बाईस-तेईस साल की उम्र में दिल्ली से अकबराबाद (आगरा) चले आए और वहीं ताजगंज में नूरी दरवाज़े पर एक मकान लेकर रहने लगे। नज़ीर आगरे में बसे तो ऐसे बसे कि मरकर भी यहीं दफ़्न हुए।
आगरे में उन्होंने तहव्वरुन्निसा बेगम से विवाह किया। यह अहदी अब्दुर्रहमान-ख़ां चग़ताई की नवासी और मुहम्मद रहमान ख़ां की बेटी थीं। मुहम्मद रहमान ख़ां मलिकों की गली में रहते थे जो ताजगंज मुहल्ले में थी। ‘नज़ीर’ की दो संतानें थीं, एक लड़का गुलज़ार अली और एक लड़की इमामी बेगम। इमामी बेगम के एक लड़की हुई जिसका नाम विलायती बेगम था। विलायती बेगम प्रो. शहबाज़ के वक़्त में ज़िन्दा थीं और उन्होंने ‘ज़ि़न्दगानी-ए-बेनज़ीर के लिए बहुत सी आवश्यक सामग्री दी।
‘नज़ीर’ का हुलिया फरहतुल्ला बेग यूं लिखते हैं :
‘नज़ीर’ का रंग गुंदुम-गूं (गेहुंआ), कद मियाना, पेशानी ऊंची और चौड़ी, आंखें चमकदार और बेनी। (नाक) बुलन्द थी। दाढ़ी ख़शख़शी और मूंछें बड़ी रखते थे। खिड़कीदार पगड़ी, गाढ़े का अंगरखा, सीधा पर्दा, नीची चोली, उसके नीचे कुरता, एक बरका पाजामा, घीतली जूती, हाथ में शानदार छड़ी, उंगलियों में फ़ीरोज़े और अक़ीक की अंगूठियां।’’
उनकी योग्यता के बारे में मिर्ज़ा फ़रहतुल्ला बेग लिखते हैं।’’
‘‘इल्मी क़ाबलियत यह थी कि आठ ज़बानें-अरबी-फ़ारसी, उर्दू, पंजाबी, भाषा, मारवाड़ी, पूरबी और हिन्दी-जानते थे।’’
श्री सलीम जाफ़र का कहना है कि ‘नज़ी़र का क़द ठिगना रंग सांवला दाढ़ी नदारद और अरबी नहीं जानते थे जानते भी थे तो बहुत कम। उनका कहना है कि प्रो. शहबाज़ द्वारा सम्पादित ‘नज़ीर के दीवान’ और ‘नज़ीर का देश-प्रेम’ में जो तस्वीर दी गई है उसमें दाढ़ी़ नहीं है। अपने कथन की पुष्टि में वे स्वयं ‘नज़ीर’ के निम्नलिखित शे’र देते हैं :
कहते हैं जिसको ‘नज़ीर’ सुनिए टुक उसका बयां
था वो मुअ़ल्लम1 ग़रीब बुज़दिल-ओ तरसंदा जां2
फ़ज़्ल ने अल्लाह के उसको दिया उम्र भर
इज़्ज़तो-हुरमत के साथ पारचा-ओ-आबो नां3
फ़हम न था इल्म से अरबी के कुछ भी उसे
फारसी में हां मगर जाने था कुछ ईं-व-आं4
फ़र्दों-ग़ज़ल के सिवा शौक़ न था कुछ उसे
अपने इसी शौक़ में रहता था ख़ुश हर ज़मां5
सुस्त रविश, पस्ता-क़द सांवल हिन्दी-नज़ाद6
तन भी कुछ ऐसा ही था कद के मुआफ़िक मियां
माथे पे इक़ ख़ाल7 था छोटा सा मस्से के तौर
था वो मुअ़ल्लम1 ग़रीब बुज़दिल-ओ तरसंदा जां2
फ़ज़्ल ने अल्लाह के उसको दिया उम्र भर
इज़्ज़तो-हुरमत के साथ पारचा-ओ-आबो नां3
फ़हम न था इल्म से अरबी के कुछ भी उसे
फारसी में हां मगर जाने था कुछ ईं-व-आं4
फ़र्दों-ग़ज़ल के सिवा शौक़ न था कुछ उसे
अपने इसी शौक़ में रहता था ख़ुश हर ज़मां5
सुस्त रविश, पस्ता-क़द सांवल हिन्दी-नज़ाद6
तन भी कुछ ऐसा ही था कद के मुआफ़िक मियां
माथे पे इक़ ख़ाल7 था छोटा सा मस्से के तौर
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1. अध्यापक
2. भीरु
3. कपड़ा-खाना
4. यह वह
5. समय
6. नस्ल के भारतीय
7. तिल
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1. अध्यापक
2. भीरु
3. कपड़ा-खाना
4. यह वह
5. समय
6. नस्ल के भारतीय
7. तिल
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था वो पड़ा आंख और अबरुओं के दरमियां
वज़अ़ सुबुक उसकी थी तिस पे न रखता था रीश1
मूंछे थीं और कानों पर पट्टे भी थे पंबा-सां2
पीरी3 में भी जिस तरह उसको दिल-अफ़सुर्दगी4
वैसी ही थी उन दिनों जिन दिनों मैं था जवां
लिखने की यह तर्ज़ थी कुछ जो लिखे था किताब
पुख़्तगी-ओ-ख़ामी5 के उसके था ख़त6 दरमियां
वज़अ़ सुबुक उसकी थी तिस पे न रखता था रीश1
मूंछे थीं और कानों पर पट्टे भी थे पंबा-सां2
पीरी3 में भी जिस तरह उसको दिल-अफ़सुर्दगी4
वैसी ही थी उन दिनों जिन दिनों मैं था जवां
लिखने की यह तर्ज़ थी कुछ जो लिखे था किताब
पुख़्तगी-ओ-ख़ामी5 के उसके था ख़त6 दरमियां
अगर इसके शब्दों पर जाइए तक तो श्री सलीम जाफ़र की बात ठीक साबित होती है लेकिन अगर ‘नज़ीर’ के पद्यों से उनके निरभिमानी स्वभाव का अन्दाज़ा लगाकर ‘पंक्तियों के बीच में पढ़ने’ का तरीक़ा अपनाया जाए तो मिर्ज़ा फ़रहतुल्ला बेग की बात ग़लत नहीं जान पड़ती। ‘नज़ीर’ में दरबारी शायरों का सा अभिमान न था। उस ज़माने की तहज़ीब के मुताबिक लोग अपने को छोटा कहा ही करते थे। तुलसीदास ने लिखा है, ‘‘मो सम कौन कुटिल खल कामी।’’ लेकिन इन शब्दों के आधार पर उन्हें ऐसा समझ लिया जाए तो इससे ज़्यादा मसख़रापन और क्या होगा। ज़रा ग़ौर कीजिए तो मालूम हो जाएगा कि किसी निराभिमानी व्यक्ति का अपने मंझोले क़द को नाटा और गेहुएं रंग को सांवला कहना स्वाभाविक ही है। दाढ़ी़ भी ख़शख़शी (छोटी) रखते थे। बड़ी दाढ़ी़ बुजुर्गी और सम्मान का चिह्न समझी जाती थी। ‘नज़ीर’ ने अपने को छोटा दिखाने के लिए दाढ़ी़ उड़ा ही दी। हो सकता है कि उनके पहले दाढ़ी़ न रही हो, बाद में रखने लगे हों, ग़ा़लिब ने भी तो ऐसा ही किया था। यह भी ध्यान में रखिए कि ‘नज़ीर’ ने अपने पट्टों को रुई की तरह
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1. दाढ़ी़
2. रुई
3. बुढ़ापा
4. रंजीदा रहना
5. पक्कापन और कच्चाई
6. लिखावट
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कहा है। इससे मालूम होता है कि वे अपना चित्र नहीं व्यंग्य-चित्र खींच रहे हैं, इसलिए इनके शब्दों को ज्यूं का त्यूं सही मानना मुश्किल ही है।
ख़ैर, क़द, रंगत या दाढ़ी का बहुत महत्त्व नहीं है। यही सारी बहस उनकी योग्यता के सिलसिले में हुई जिसे बेग साहब यथेष्ठ और जाफ़र साहब मामूली मानते हैं। अरबी ‘नज़ीर’ कम जानते थे लेकिन बिलकुल न जानते हों ऐसा भी नहीं था। फ़ारसी अच्छी-ख़ासी जानते थे और अन्य भारतीय भाषाएं भी उन्हें खूब आती थीं, यह उनकी रचनाओं से मालूम हो जाता है। चुनांचे उन्हें आठ भाषाओं का जानकार मानने में कोई दिक्कत पैदा नहीं होती।
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1. दाढ़ी़
2. रुई
3. बुढ़ापा
4. रंजीदा रहना
5. पक्कापन और कच्चाई
6. लिखावट
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कहा है। इससे मालूम होता है कि वे अपना चित्र नहीं व्यंग्य-चित्र खींच रहे हैं, इसलिए इनके शब्दों को ज्यूं का त्यूं सही मानना मुश्किल ही है।
ख़ैर, क़द, रंगत या दाढ़ी का बहुत महत्त्व नहीं है। यही सारी बहस उनकी योग्यता के सिलसिले में हुई जिसे बेग साहब यथेष्ठ और जाफ़र साहब मामूली मानते हैं। अरबी ‘नज़ीर’ कम जानते थे लेकिन बिलकुल न जानते हों ऐसा भी नहीं था। फ़ारसी अच्छी-ख़ासी जानते थे और अन्य भारतीय भाषाएं भी उन्हें खूब आती थीं, यह उनकी रचनाओं से मालूम हो जाता है। चुनांचे उन्हें आठ भाषाओं का जानकार मानने में कोई दिक्कत पैदा नहीं होती।
स्वभाव
‘नज़ीर’ संतोषी प्रकृति के मस्त जीव थे। उनकी आर्थिक स्थिति बहुत मामूली रही-यद्यपि फ़ाकों की नौबत कभी नहीं आई-लेकिन रुपया उन्हें कभी आकृष्ट न कर सका। नवाब सआदत अली ख़ां ने उन्हें लखनऊ बुलाया लेकिन उन्होंने जाने से इनकार कर दिया। इसी प्रकार भरतपुर के नवाब ने उन्हें बुलाया किन्तु वे वहां भी नहीं गए। कुछ दिन अध्यापन कार्य के सिलसिले में मथुरा भी रहे लेकिन उन्हें आगरा छोड़ना पसन्द न था। यहां की रंगरलियां उन्हें कहीं नहीं मिल सकती थीं इसलिए वे आगरे लौट आए और लाला बिलासराय के लड़कों, हरबख्श़राय, गुरुबख़्श़राय, मूलचन्द्र राय, मनसुखराय, वंशीधर और शंकरदास को पढ़ाने लगे। वेतन उनका सत्रह रुपया मासिक था। इसी मामूली तनख़्वाह पर सारी उम्र हंसते-गाते काट दी।
संतोष के साथ ही जीवन का पूरा आनन्द लेना वे जानते थे। जवानी के दिनों में उन्होंने ख़ूब रंगरलियां भी कीं। उनकी रचनाओं से मालूम होता है कि उन्हें वेश्याओं का काफ़ी अनुभव था, विशेषतः एक वेश्या मोती बाई से उन्हें बड़ा प्रेम था। इसके अलावा उन्हें पक्षियों के पालने का भी शौक़ रहा होगा। अपनी रचनाओं में उन्होंने पक्षियों की जितनी जानकारी दिखाई है, उतनी किसी और ने नहीं दिखाई, यहां तक कि उनके द्वारा वर्णित कुछ पक्षियों का नाम भी आज लोग नहीं जानते । इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है। पक्षियों के पालने का श़ौक जितना उन्नीसवीं शताब्दी के लोगों को था, उतना आज के व्यस्त जीवन में संभव नहीं है। इसलिए आज उनके ज़माने के कई पक्षियों को पालना छोड़ ही दिया गया है और लोग उनका नाम भी भूल गए हैं।
मेले-ठेलों आदि से भी ‘नज़ीर’ को दिलचस्पी थी। तैराकी में भी वे दिलचस्पी लेते थे, कुश्ती का भी उन्हें शौक मालूम होता है। ग़रज़ कि कोई शौक़ ऐसा न था जो ‘नज़ीर’ ने पूरा न किया हो।
अन्त में पंचानवे वर्ष की अवस्था में 16 अगस्त, 1830 ई. को उनका देहावसान हो गया। यह सन् उनके एक शिष्य द्वारा कही गई तारीख़ मालूम होता है। लायल साहब उनकी मृत्यु का समय 1832 ई. बताते हैं लेकिन इसका कोई सबूत नहीं देते। यह अटकल शायद उन्होंने इस आधार पर लगाई होगी कि ‘नज़ीर’ के बारे में मशहूर था कि वे सौ वर्ष जिये। उनका जन्म संवत् 1147 हिजरी (1735 ई.) माना गया है। इसी आधार पर उनके देहान्त का समय 1247 हि. (1832 ई.) लायल साहब ने मान लिया। लेकिन किंवदंती और अटकल की बजाय स्पष्ट ‘तारीख़’ का आधार ही मानना चाहिए जो 1830 ई. में उनका देहांत बताती है। इस प्रकार ई. हिसाब से 95 और हिजरी हिसाब से 98 वर्ष की अवस्था में ‘नज़ीर’ का देहान्त हुआ। मृत्यु का तात्कालिक कारण पक्षाघात था।
‘नज़ीर’ ने बहुत लिखा। उनके रचित शे’र सबके सब प्राप्य होते तो दो लाख से अधिक होते। लेकिन उन्होंने ख़ुद कुछ जमा ही नहीं किया। जो कुछ आज मिलता है (और वह भी कम नहीं है-लगभग 6 हज़ार शे’र हैं) वह उनके प्रिय शिष्यों लाला विलासराय के पुत्रों ने अपनी कापियों में लिख लिया था। इन्हीं शिष्यों द्वारा सुरक्षित निम्नलिखित सामग्री मिलती है :
(1) एक कुल्लियात उर्दू का जिसमें नज़्में और ग़ज़लें शामिल हैं।
(2) एक दीवान फ़ारसी ऩज़्मों का।
(3) फारसी गद्य में नौ पुस्तकें जिनके नाम यह हैं-नरमीए-गुज़ी, क़द्रे-मतीं, फ़हों-क़रीं, बज़्में-ऐश रअ़नाए-जे़बा हुस्ने बाज़ार तर्ज़े-तक़रीर तथा दो और जिनके नाम मुझे नहीं मालूम हो सके।
संतोष के साथ ही जीवन का पूरा आनन्द लेना वे जानते थे। जवानी के दिनों में उन्होंने ख़ूब रंगरलियां भी कीं। उनकी रचनाओं से मालूम होता है कि उन्हें वेश्याओं का काफ़ी अनुभव था, विशेषतः एक वेश्या मोती बाई से उन्हें बड़ा प्रेम था। इसके अलावा उन्हें पक्षियों के पालने का भी शौक़ रहा होगा। अपनी रचनाओं में उन्होंने पक्षियों की जितनी जानकारी दिखाई है, उतनी किसी और ने नहीं दिखाई, यहां तक कि उनके द्वारा वर्णित कुछ पक्षियों का नाम भी आज लोग नहीं जानते । इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है। पक्षियों के पालने का श़ौक जितना उन्नीसवीं शताब्दी के लोगों को था, उतना आज के व्यस्त जीवन में संभव नहीं है। इसलिए आज उनके ज़माने के कई पक्षियों को पालना छोड़ ही दिया गया है और लोग उनका नाम भी भूल गए हैं।
मेले-ठेलों आदि से भी ‘नज़ीर’ को दिलचस्पी थी। तैराकी में भी वे दिलचस्पी लेते थे, कुश्ती का भी उन्हें शौक मालूम होता है। ग़रज़ कि कोई शौक़ ऐसा न था जो ‘नज़ीर’ ने पूरा न किया हो।
अन्त में पंचानवे वर्ष की अवस्था में 16 अगस्त, 1830 ई. को उनका देहावसान हो गया। यह सन् उनके एक शिष्य द्वारा कही गई तारीख़ मालूम होता है। लायल साहब उनकी मृत्यु का समय 1832 ई. बताते हैं लेकिन इसका कोई सबूत नहीं देते। यह अटकल शायद उन्होंने इस आधार पर लगाई होगी कि ‘नज़ीर’ के बारे में मशहूर था कि वे सौ वर्ष जिये। उनका जन्म संवत् 1147 हिजरी (1735 ई.) माना गया है। इसी आधार पर उनके देहान्त का समय 1247 हि. (1832 ई.) लायल साहब ने मान लिया। लेकिन किंवदंती और अटकल की बजाय स्पष्ट ‘तारीख़’ का आधार ही मानना चाहिए जो 1830 ई. में उनका देहांत बताती है। इस प्रकार ई. हिसाब से 95 और हिजरी हिसाब से 98 वर्ष की अवस्था में ‘नज़ीर’ का देहान्त हुआ। मृत्यु का तात्कालिक कारण पक्षाघात था।
‘नज़ीर’ ने बहुत लिखा। उनके रचित शे’र सबके सब प्राप्य होते तो दो लाख से अधिक होते। लेकिन उन्होंने ख़ुद कुछ जमा ही नहीं किया। जो कुछ आज मिलता है (और वह भी कम नहीं है-लगभग 6 हज़ार शे’र हैं) वह उनके प्रिय शिष्यों लाला विलासराय के पुत्रों ने अपनी कापियों में लिख लिया था। इन्हीं शिष्यों द्वारा सुरक्षित निम्नलिखित सामग्री मिलती है :
(1) एक कुल्लियात उर्दू का जिसमें नज़्में और ग़ज़लें शामिल हैं।
(2) एक दीवान फ़ारसी ऩज़्मों का।
(3) फारसी गद्य में नौ पुस्तकें जिनके नाम यह हैं-नरमीए-गुज़ी, क़द्रे-मतीं, फ़हों-क़रीं, बज़्में-ऐश रअ़नाए-जे़बा हुस्ने बाज़ार तर्ज़े-तक़रीर तथा दो और जिनके नाम मुझे नहीं मालूम हो सके।
नज़ीर का काव्य
‘नज़ीर’ बहुत पुराने ज़माने में पैदा हुए थे। उन्होंने लम्बी उम्र पाई। उनके मरने के लगभग सौ वर्ष बाद उनकी रचनाओं को ऐतिहासिक महत्त्व मिला। सम्भवतः किसी और साहित्यकार को कीर्ति इतनी देर से नहीं मिली। इसीलिए यह भी सुनिश्चित है कि ‘नज़ीर’ की कीर्ति का स्थायित्व भी अन्य कवियों की अपेक्षा अधिक होगा। अभी तो सम्भवतः ‘नज़ीर’ के काव्य की मान्यता का शैशवकाल ही है। आइए हम, ‘नज़ीर’ के काव्य के महत्त्व को समझने का प्रयत्न करें।
‘नज़ीर’ को उन्नीसवीं शताब्दी के आलोचकों ने, जिनमें नवाब मुस्तफ़ा-ख़ां ‘शेफ़्ता’ प्रमुख हैं, निकृष्ट कोटि का कवि माना है। नवाब ‘शेफ़्ता’ द्वारा लिखित उर्दू कवियों के तज़किरे गुलशने-बे-ख़ार की रचना के बहुत पहले ही नज़ीर परलोकवासी हो गए थे। किन्तु यदि ‘शेफ़्ता’ जैसा विद्वान उनके जीवनकाल ही में उन्हें निकृष्ट कोटि का कवि करार देता तो भी उन्हें चिन्ता न होती। नज़ीर ने कभी खुद को ऊंचा कवि नहीं कहा, हमेशा अपने को साधारणता के धरातल पर ही रखा। उन्होंने अपने व्यक्तित्व का जो भी चित्रण किया है (जिसे हम पहले पढ़ चुके हैं) उसमें अपना हुलिया बिगाड़कर रख दिया है। साहित्यिक कीर्ति के पीछे दौड़ने की तो बात ही क्या, उन्होंने लखनऊ और भरतपुर के दरबारों के निमंत्रणों को अस्वीकार करके जिस तरह मिलती हुई कीर्ति को भी ठोकर मार दी, उसे देखकर आज के ज़माने में-जब कि साहित्य क्षेत्र में हर तरफ कुंठा का बोलबाला दिखाई देता है-हमारी आंखें आश्चर्य से फटी रह जाती हैं। हम समझ ही नहीं पाते कि ‘नज़ीर’ किस मिट्टी के बने थे।
‘नज़ीर’ को उन्नीसवीं शताब्दी के आलोचकों ने, जिनमें नवाब मुस्तफ़ा-ख़ां ‘शेफ़्ता’ प्रमुख हैं, निकृष्ट कोटि का कवि माना है। नवाब ‘शेफ़्ता’ द्वारा लिखित उर्दू कवियों के तज़किरे गुलशने-बे-ख़ार की रचना के बहुत पहले ही नज़ीर परलोकवासी हो गए थे। किन्तु यदि ‘शेफ़्ता’ जैसा विद्वान उनके जीवनकाल ही में उन्हें निकृष्ट कोटि का कवि करार देता तो भी उन्हें चिन्ता न होती। नज़ीर ने कभी खुद को ऊंचा कवि नहीं कहा, हमेशा अपने को साधारणता के धरातल पर ही रखा। उन्होंने अपने व्यक्तित्व का जो भी चित्रण किया है (जिसे हम पहले पढ़ चुके हैं) उसमें अपना हुलिया बिगाड़कर रख दिया है। साहित्यिक कीर्ति के पीछे दौड़ने की तो बात ही क्या, उन्होंने लखनऊ और भरतपुर के दरबारों के निमंत्रणों को अस्वीकार करके जिस तरह मिलती हुई कीर्ति को भी ठोकर मार दी, उसे देखकर आज के ज़माने में-जब कि साहित्य क्षेत्र में हर तरफ कुंठा का बोलबाला दिखाई देता है-हमारी आंखें आश्चर्य से फटी रह जाती हैं। हम समझ ही नहीं पाते कि ‘नज़ीर’ किस मिट्टी के बने थे।
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