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साहिर लुधियानवी और उनकी शायरी

प्रकाश पंडित

प्रकाशक : राजपाल एंड सन्स प्रकाशित वर्ष : 2018
पृष्ठ :128
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4995
आईएसबीएन :9789350641989

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साहिर लुधियानवी की जिन्दगी और उनकी बेहतरीन गजलें, नज्में, शेर और रुबाइयां

Sahir Ludhiyanvi Aur Unki shayari

प्रस्तुत है पुस्तक के कुछ अंश

उर्दू के लोकप्रिय शायर

वर्षों पहले नागरी लिपि में उर्दू की चुनी हुई शायरी के संकलन प्रकाशित कर राजपाल एण्ड सन्ज़ ने पुस्तक प्रकाशन की दुनिया में एक नया कदम उठाया था। उर्दू लिपि न जानने वाले लेकिन शायरी को पसंद करने वाले अनगिनत लोगों के लिए यह एक बड़ी नियामत साबित हुआ और सभी ने इससे बहुत लाभ उठाया।
ज्यादातर संकलन उर्दू के सुप्रसिद्ध सम्पादक प्रकाश पंडित ने किये हैं। उन्होंने शायर के सम्पूर्ण लेखन से चयन किया है और कठिन शब्दों के अर्थ साथ ही दे दिये हैं। इसी के साथ, शायर के जीवन और कार्य पर जिनमें से समकालीन उनके परिचित ही थे-बहुत रोचक और चुटीली भूमिकाएं लिखी हैं। ये बोलती तस्वीरें हैं जो सोने में सुहागे का काम करती हैं।

साहिर लुधियानवी

 

साहिर ने जब लिखना शुरू किया तब इकबाल, जोश, फैज़, फ़िराक, वगैरह शायरों की तूती बोलती थी, पर उन्होंने अपना जो विशेष लहज़ा और रुख अपनाया, उससे न सिर्फ उन्होंने अपनी अलग जगह बना ली बल्कि वे भी शायरी की दुनिया पर छा गये। प्रेम के दुख-दर्द के अलावा समाज की विषमताओं के प्रति जो आक्रोश हमें उनकी शायरी में मिलता है, वह उन्हें अपना विशिष्ट स्थान दिलाता है।
दुनिया के तजुरबातो-हवादिस की शक्ल में
जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूँ मैं
साहिर

 

साहिर लुधियानवी

 

साहिर को मैंने बहुत क़रीब से देखा है।
1943 ई. में-जब वह ‘साहिर’ कम और कॉलेज का विद्यार्थी अधिक था और अपने-आपको ‘साहिर’ यानी शायर मनवाने और अपना कविता-संग्रह ‘तल्ख़ियाँ’ छपवाने के लिए लुधियाना से लाहौर आया था। 1945 ई. में-जब ‘तल्ख़ियाँ’ के प्रकाशन के साथ ही उसने ख्याति की कई सीढ़ियाँ एकदम तै कर लीं। प्रसिद्ध उर्दू पत्र ‘अदबे-लतीफ़’ और ‘शाहकार’ (लाहौर) का सम्पादक बना और देवेन्द्र सत्यार्थी ने उससे मेरा बाक़ायदा परिचय कराया।
1948 ई. में-जब वह ख्याति के शिखर पर पहुँच चुका था। बम्बई के फ़िल्म-जगत् से निकलकर शरणार्थी की हैसियत से लाहौर में आबाद था और भारतीय लेखकों के एक ग़ैर-सरकारी मैत्री-मण्डल के सदस्य के रूप में मैं उसके यहाँ दो दिन रहा था।

लेकिन इन सबके बावजूद ‘साहिर’ के व्यक्तित्व और उसके आधार पर उसकी शायरी के इस अवलोकन का मुझे अधिकार न पहुँचता यदि 1949 ई. में मेरी उससे भेंट न होती।
दिल्ली में ‘साहिर’ से मेरी भेंट आकस्मिक तो थी पर आश्चर्यजनक नहीं। लाहौर में उसके यहाँ दो दिन रहकर ही मैंने अनुमान लगा लिया था कि ‘साहिर’ वहाँ ख़ुश नहीं रह सकता। ‘साहिर’ वहाँ इसलिए ख़ुश नहीं रह सकता था क्योंकि उसे अपने चारों ओर एक ही मत और धर्म के लोगों की भरमार नज़र आती थी। क़लम की आज़ादी थी न ज़बान की, और उन मित्रों की जुदाई तो उसके लिए अत्यन्त असह्य हो रही थी जो अपने नामों से हिन्दू और सिख थे और जिनके साथ ‘साहिर’ ने अपना पूरा जीवन व्यतीत किया था; और मैंने देखा था कि ‘साहिर’ के साथ-साथ उसकी माँ जी को भी हम हिन्दुओं को अपने यहाँ देखकर हार्दिक प्रसन्नता हुई थी। अतएव दिल्ली में ‘साहिर’ से जब मेरी भेंट हुई तो मुझे कोई आश्चर्य न हुआ और जब अपने विशेष ‘नटखट’ स्वर में उसने मुझे बताया कि पाकिस्तान सरकार ने उसके ख़िलाफ़ वारण्ट-गिरफ़्तारी जारी कर दिए हैं तो मैंने कारण तक पूछने की आवश्यकता न समझी। बाद में ‘साहिर’ की माँ जी को लाहौर से निकाल लाने के लिए लाहौर जाने पर मुझे मालूम हुआ कि द्वैमासिक पत्रिका ‘सवेरा’ में, जिसका उन दिनों वह सम्पादक था, उसकी क़लम ने राज्य के विरुद्ध विष की कुछेक बूँदे टपका दी थीं।

दिल्ली ‘साहिर’ की मंज़िल नहीं, पड़ाव, था। वह शीघ्र से शीघ्र बम्बई पहुँचना चाहता था, जहाँ उसके विचार में फ़िल्म-जगत् बड़ी अधीरता से उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। लेकिन शायद इस ख़याल से कि पथिक पर कुछ अधिकार पड़ाव का भी होता है, या न जाने किस ख़याल से, उसने पूरा एक वर्ष दिल्ली को भेंट कर दिया। और मैं यद्यपि ‘साहिर’ से उसके बाद भी अनेक बार मिलता रहा हूँ, लेकिन उसे और उसकी शायरी को यथोचित रूप से समझने और जाँचने-परखने का मौक़ा मुझे उसी एक वर्ष में मिला; जब उर्दू पत्रिका ‘शाहराह’ और ‘प्रीतलड़ी’ के सम्पादन के सिलसिले में हम दोनों ने न केवल एक-साथ काम किया बल्कि एक-साथ एक ही घर में रहे। यों लगभग चार वर्ष तक मैं बम्बई में भी ‘साहिर’ के साथ एक ही घर में रह चुका हूँ और 1972 में अपने गले के कैंसर के इलाज के सिलसिले में महीनों उसका मेहमान रह चुका हूँ।
‘साहिर’ अभी अभी सोकर उठा है (प्रायः दस-ग्यारह बजे से पहले वह कभी सोकर नहीं उठता) और नियमानुसार अपने लम्बे क़द की जलेबी बनाए, लम्बे-लम्बे पीछे को पलटने वाले बाल बिखराए, बड़ी-बड़ी लाल आँखों से किसी भी बिन्दु पर मैस्मेरिज़्म की-सी टिकटिकी बाँधे बैठा है। (इस समय अपनी इस समाधि में वह किसी प्रकार का विघ्न सहन नहीं कर सकता। यहाँ तक की उसकी प्यारी ‘माँ जी’ भी, जिसका वह बहुत आदर करता है और अपने जागीरदार पति से विच्छेद हो जाने के बाद से जिसके जीवन का वह एकमात्र सहारा है, वह भी उसके कमरे में प्रवेश करने का साहस नहीं कर सकतीं) कि एकाएक ‘साहिर’ पर दौरा-सा पड़ता है और वह चिल्लाता है-‘चाय !’

और सुबह की इस आवाज़ के बाद दिन-भर, और मौक़ा मिले तो रात-भर, वह निरन्तर बोले चला जाता है। आध घण्टे से अधिक किसी जगह टिककर नहीं बैठ सकता और मित्रों-परिचितों का जमघटा तो उसके लिए दैवी वरदान से कम नहीं। उन्हें वह सिगरेट पर सिगरटे पेश करता है (गला अधिक ख़राब न हो इसलिए स्वयं सिगरेट के दो टुकड़े करके पीता है, लेकिन अक्सर दोनों टुकड़े एक-साथ पी जाता है)। चाय के प्यालों के प्याले उनके कण्ठ में उँड़ेलता है (स्वयं भी दो चार चख लेता है) और इस बीच में अपनी नज़्मों-ग़ज़लों के अलावा दर्जनों दूसरे शायरों के सैकड़ों शे’र, जो उसे अपनी नज़्मों-ग़ज़लों ही की तरह ज़बानी याद हैं, बड़ी दिलचस्प भूमिका के साथ सुनाता चला जाता है। अपनी ऩज़्में-ग़ज़लें और दूसरे शायरों का कलाम ही नहीं, उसे अपने जीवन की हर छोटी-बड़ी घटना याद है, अपने मित्रों और पत्र-पत्रिकाओं के सम्पादकों के पूरे-के-पूरे पत्र याद हैं। आज तक उसकी शायरी के पत्र या विपक्ष में लिखी गई हर पंक्ति याद है। यहाँ तक कि बाल्यावस्था में देखी हुई मेडन थियेटर की ‘इन्द्र-सभा’ और ‘शाहबहराम’ नामक फ़िल्मों के पूरे-के-पूरे डायलॉग याद हैं।
और रात के दस, ग्यारह, बारह या एक बजे उसके मित्र-परिचित दूसरे दिन मिलने का वायदा, करके एक के बाद एक उसका साथ छोड़ जाते हैं और यद्यपि कम से कम एक धर्मयोद्धा1 उस समय भी उसके साथ होता है, उसे बड़े कटु प्रकार का एकाकीपन महसूस होने लगता है और न जाने कहाँ से उसमें ‘बोहीमियनिज़्म’ के ऐसे भयंकर कीटाणु घुस आते हैं कि उसे संसार
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1.‘दीवारों के कान तो होते हैं पर ज़बान नहीं’, इसलिए अपनी कभी समाप्त न होनेवाली बातें सुनाने और हामी भरवाने के लिए ‘साहिर’ एक-आध  मित्र को स्थायी रूप से अपने साथ रखता है, उसका पूरा खर्च उठाता है और सिवाय ‘सुनने के कष्ट’ के उसे और कोई कष्ट नहीं होने देता।
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का प्रत्येक व्यक्ति अपने मुक़ाबले में तुच्छ बल्कि कीड़ा-मकोड़ा नज़र आने लगता है। उस समय दिन-भर का हँसमुख और सरल-स्वभाव ‘साहिर’ एकदम बदल जाता है। दिन भर की बातें (जिनका उसे एक-एक शब्द याद हो चुका होता है) दोहरा-दोहरा कर वह अपने मित्रों की मूढ़ता और आत्म-श्लाघा पर (जिसकी सुबह वह प्रशंसा कर चुका होता है) व्यंग्य के तीर छोड़ता है। ‘क्या पिद्दी क्या पिद्दी का शोरबा’ कहकर उसका मज़ाक़ उड़ाता है और निश्चय करता है कि आइन्दा वह कभी ‘बुक़रात’ क़िस्म के इन मित्रों पर अपना पैसा और समय बर्बाद नहीं करेगा। लेकिन दूसरे ही दिन जब उन मित्रों पर उसकी नज़र पड़ती है, वह लपककर उन्हें बाँहों में भर लेता है उन्हें चाय के बजाय ह्विस्की पिलाता है, और डटकर खाना खिलाता है और उनकी मूढ़ता और आत्म-श्लाघा की प्रशंसा करके आप-ही-आप एक प्रश्नचिह्न बन जाता है।       
       
यह प्रश्न-चिह्न रास्ता चलते-चलते कभी बहुत आगे निकल जाता है, कभी बहुत पीछे रह जाता है। एक ज़रा-सी बात पर उकता जाना, शरमा जाना, घबरा जाना उसका स्वभाव है। और जहाँ तक कोई निर्णय करने का सम्बन्ध है, जीवन की बड़ी-बड़ी समस्याएँ तो क्या, किसी मुशायरे में नज़्म या ग़ज़ल सुनने से पहले वह यह भी निर्णय नहीं कर पाता कि उस समय उसे क्या चीज़ सुनानी चाहिए। यहाँ तक कि किसी क़मीज़ पर वह कौन-सी पतलून पहने और नाश्ते में परांठे और आमलेट खाए या तोस-मक्खन-इसके लिए भी अपने पास बैठे किसी ‘स्थायी’ या ‘अस्थायी’ मित्र की सहायता लेनी पड़ती है; और शायद इसलिए वह अब तक शादी नहीं कर सका। दूसरों की पसन्द की हुई लड़कियाँ वह पसन्द नहीं करना चाहता और स्वयं पसन्द करने का सवाल ही पैदा नहीं होता।
‘‘साहिर’ की इन आदतों के कारण, जिन्हें मैं बनावट समझता था, कभी-कभी हम दोनों में ठन भी जाती थी। मैं महसूस करता कि वह मुझे मुफ़्तों-मुफ़्त ‘धर्म-योद्धा’ बनाए चला जा रहा है और मैं चूँकि की़मतन भी इसके लिए तैयार न था, इसलिए उसका मज़ाक उड़ाने और उसे नीचा दिखाने का कोई अवसर हाथ से न जाने देता था। वह अपनी किसी नज़्म की महानता मनवाने के लिए अभी भूमिका ही बाँध रहा होता कि मैं अपनी किसी लम्बी-चौड़ी कहानी का प्लाट सुनाकर चेख़व, गोर्की या मोपासां से अपनी तुलना शुरू कर देता। वह लिबास के बारे में मेरी राय लेता तो बड़ी गम्भीरता से कपड़े छांटकर मैं उसे अच्छा-ख़ासा कार्टून बना देता और नाश्ता तो मैंने उसे कई बार आइसक्रीम तक का भी करवाया। लेकिन धीरे-धीरे यह वास्तविकता मुझ पर प्रकट होती गई कि वह मज़ाक का नहीं दया का पात्र है। वे आदतें उसने स्वयं नहीं पालीं, खुदरौ पौधे की तरह ख़ुद-ब-ख़ुद पल गई हैं। और इनकी तह में काम करती हैं वे दुखद परिस्थितियाँ, जिनमें उसने आँखें खोलीं, परवान चढ़ा और जो अपने समस्त गुणों–अवगुणों के साथ उसके व्यक्तित्व का अंग बन गईं।

अब्दुलहयी ‘साहिर’ 1921 ई. में लुधियाना के एक जागीरदार घराने में पैदा हुआ। माता के अतिरिक्त उसके पिता की कई पत्नियाँ और भी थीं। किन्तु एकमात्र सन्तान होने के कारण उसका पालन-पोषण बड़े लाड़-प्यार में हुआ। मगर अभी वह बच्चा ही था कि सुख-वैभव के उस जीवन के दरवाज़े एकाएक उस पर बन्द हो गए। पति की ऐय्याशियों से तंग आकर उसकी माता पति से अलग हो गई और चूँकि ‘साहिर’ ने कचहरी में पिता पर माता को प्रधानता दी थी, इसलिए उसके बाद पिता से और उसकी जागीर से उनका कोई सम्बन्ध न रहा और इसके साथ ही जीवन की ताबड़तोड़ कठिनाइयों और निराशाओं का दौर शुरू हो गया। ऐशो-आराम का जीवन छिन तो गया पर अभिलाषा बाक़ी रही। नौबत माता के ज़ेवरों के बिकने तक आ गई, पर दम्भ बना रहा और चूँकि मुक़दमा हारने पर पिता ने यह धमकी दे दी थी कि वह ‘साहिर’ को मरवा डालेगा या कम से कम माँ के पास न रहने देगा, इसलिए ममता की मारी माँ ने रक्षक क़िस्म के ऐसे लोग ‘साहिर’ पर नियुक्त कर दिए जो क्षण-भर को भी उसे अकेला न छोड़ते थे। इस तरह घृणा-भाव के साथ-साथ उसके मन में एक विचित्र प्रकार का भय भी पनपता रहा। परिणामस्वरुप उसमें विभिन्न मानसिक उलझने पैदा हो गईं। उसने प्रेम किया और निर्धनता, साहस के अभाव और सामाजिक बन्धनों के कारण विफल रहा और इसी कारण से कालेज से भी निकाल दिया गया और फिर इच्छा और स्वभाव के प्रतिकूल उसे अपना और अपनी ‘माँ जी’ का पेट पालने के लिए तरह-तरह की छोटी-मोटी नौकरियाँ करनी पड़ी। सिसक-सिसककर और सुलग-सुलगकर उसने दिनों को धक्के दिए। क़दम-क़दम पर हर्ष और विषाद में संघर्ष हुआ। यह संघर्ष बुद्धि और भावुकता में भी हुआ और जीवन और मृत्यु में भी; और यही वह संघर्ष था जिसने उसे एक साधारण विद्यार्थी से एकदम ‘साहिर’ बना दिया, और उसके मन-मस्तिष्क की सारी ‘तल्ख़ियाँ शे’रों का लिबास पहनकर बाहर निकल पड़ीं।

शायर की हैसियत से ‘साहिर’ ने उस समय आँख खोली जब ‘इक़बाल’ और ‘जोश’ के बाद ‘फ़िराक़’, ‘फ़ैज़’, ‘मज़ाज़’ आदि के नग़्मों से न केवल लोग परिचित हो चुके थे बल्कि शायरी के मैदान में उनकी तूती बोलती थी। कोई भी नया शायर अपने इन सिद्धहस्त समकालीनों से प्रभावित हुए बिना न रह सकता था। अतएव ‘साहिर’ पर भी ‘मजाज़’ और फ़ैंज़’ का ख़ासा प्रभाव पड़ा। बल्कि शुरू-शुरू में तो लोगों को उसकी शायरी पर ‘फ़ैज़’ के अनुकरण का सन्देह हुआ-वही नर्मो-नाजुक स्वर वही शब्दों की सुन्दर तराश-ख़राश और वही नींद में डूबा हुआ वातावरण। लेकिन उसके व्यक्तिगत अनुभव आड़े आए, उस वर्ग के प्रति घृणा तथा विद्रोह की आप-ही-आप उमड़ी हुई विचारों की धारा काम आई, जिसका एक पात्र उसका पिता और दूसरा उसकी प्रेमिका का पिता था, और सांसारिक दुखों में तपकर निकली हुई चेतना ने उसे मार्ग सुझाया। और लोगों ने देखा कि फ़ैज़’ या ‘मजाज़’ का अनुकरण करने के बजाय ‘साहिर’ की रचनाओं पर उसके व्यक्तिगत अनुभवों की छाप है और उसका अपना एक अलग रंग भी है। यह ‘साहिर’ की व्यक्तिगत परिस्थितियाँ ही उससे कहलवा सकती थीं कि :
मैं उन अज़दाद का1 बेटा हूँ जिन्होंने पैहम2
अजनबी क़ौम के साए की हिमायत की है
गदर की साअते-नापाक3 से लेकर अब तक
हर कड़े वक्त में सरकार की ख़िदमत की है

 

 

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1.बुजुर्गों का, 2.निरन्तर, 3. अपवित्र घड़ी।
और यह भी उसी की मनःस्थिति थी जो शब्दों के इस चित्र में प्रकट हुई :
न कोई जादा1 न मंजिल, न रोशनी, न सुराग़
भटक रही है ख़लाओं2 में ज़िन्दगी मेरी
इन्हीं ख़लाओं में रह जाऊँगा कभी खोकर
मैं जानता हूँ मेरी हमनफ़स3 मगर यूँ ही
कभी-कभी मेरे दिल में ख़याल आता है !
कि ज़िन्दगी तिरी ज़ुल्फ़ों की नर्म छाओं में
गुज़रने पाती तो शादाब हो भी सकती थी
ये तीरगी4 जो मिरी ज़ीस्त का5 मुक़द्दर6 है
तेरी नज़र की शुआओं में खो भी सकती थी।

 


और मैं समझता हूँ कि ‘साहिर’ को जो अपने बहुत-से समकालीन शायरों से अलग और उच्च स्थान प्राप्त हुआ, उसका बुनियादी कारण उसके यही अनुभव और प्रेक्षण हैं, जिनमें किसी प्रकार का मिश्रण करने की बजाय (कलात्मक श्रृंगार के अतिरिक्त) उसने उन्हें ज्यों-का-त्यों प्रस्तुत किया। प्रेम के दुख-दर्द के अलावा समाज के प्रति जो विष तथा कटुता हमें उसकी शायरी में मिलती है, वह माँगे-ताँगे की नहीं, उसके अपने ही जीवन की प्रतिध्वनि है।
‘साहिर’ मौलिक रूप से रोमाण्टिक शायर है। प्रेम की असफलता ने उसके दिलो-दिमाग़ पर इतनी कड़ी चोट लगाई कि जीवन की अन्य चिन्ताएँ पीछे जा पड़ी। राहों में ‘हरीरी-मलबूस7’ देखकर ‘सर्द आहों’ में अपनी प्रेमिका को याद करने के सिवाय उसे कुछ सूझता ही न था। हर समय उसे अपनी आखों पर अपनी प्रेमिका की झुकीं हुई पलकों का साया महसूस होता और वह तड़प कर उससे पूछने लगता:
मेरे ख़्वाबों के झरोकों को सजानेवाली
तेरे ख़्वाबों में कहीं मेरा गुज़र है कि नहीं
पूछकर अपनी निगाहों से बता दे मुझको
मेरी रातों के मुक़द्दर में8 सहर9 है कि नहीं

 

 

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1.मार्ग, 2.शून्य, सहचर 4.अँधेरा, 5.जीवन का, 6.भाग्य, 7.रेशमी वस्त्र, 8.भाग्य में, 9.सुबह।
और
मेरी दरमांदा1 जवानी की तमन्नाओं के
मुज़महिल ख़्वाब2 की ता’बीर3  बता दे मुझको
तेरे दामन में गुलिस्तां भी हैं वीरेने भी
मेरा हासिल, मेरी तक़्दीर बता दे मुझको

 

 

और सम्भव है कि आयु-भर अपनी प्रेमिका से वह इसी प्रकार के प्रश्न करता रहता और उचित उत्तर न पाने पर निराशा तथा शोक की घनी और घिनौनी छाँव में जा आश्रय लेता और नारी के प्रेम से शुरू होनेवाली उसकी शायरी नारी के प्रेम तक ही सीमित रह जाती, लेकिन बार-बार प्रश्न करने पर भी जब उसे कोई दो टूक उत्तर न मिला, बल्कि हर उत्तर नए प्रश्न के रूप में सामने आने लगा तो इस तकरार से घबराकर उसने सोचने की आदत डाली। ऐसा क्यों हुआ ? ऐसा क्यों होता ? और वह इस परिणाम पर आ पहुँचा कि ऐसा नहीं होना चाहिए। और यों उसका व्यक्तिगत प्रेम विभिन्न मंज़िलें तय करता हुआ अन्त में उस बिन्दु पर पहुँच गया जहाँ व्यक्तिगत–प्रेम सामूहिक प्रेम में बदल जाता है और शायर अपनी प्रेमिका का ही नहीं मानव-मात्र का आशिक़ बन जाता है और :
तुझको ख़बर नहीं मगर इक सादा-लौह को
बर्बाद कर दिया तेरे दो दिन के प्यार ने
कहते-कहते पहले वह अपनी प्रेमिका से दबी आवाज़ में कहता है:
मैं और तुम से तर्के-मोहब्बत4 की आरज़ू
दीवाना कर दिया है ग़मे-रोज़गार ने

और फिर बड़े स्पष्ट शब्दों में कह उठता है :
तुम्हारे ग़म के सिवा और भी तो ग़म हैं मुझे
नजात6 जिनसे मैं इक लमहा7 पा नहीं सकता
ये ऊँचे-ऊँचे मकानों की ड्योढ़ियों के तले
हर एक गाम8 पे भूखे भिकारियों की सदा9

 

 

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1.विवश, 2.शिथिल स्वप्न 3.स्वप्न-फल, 4.प्रणय-विच्छेद, 5.सांसारिक चिन्ताओं ने, 6.मुक्ति, 7क्षण-भर को भी, 8.पग-पग पर, 9.आवाज़ पुकार।
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ये कारख़ानों में लोहे का शोरो-गुल जिसमें
है दफ़्न लाखों ग़रीबों की रूह का नग़्मा
गली-गली में ये बिकते हुए जवां चेहरे
हसीन आँखों में अफ़सुर्दगी1-सी छाई हुई
ये शो लावार फ़जाएँ,2 ये मेरे देश के लोग
ख़रीदी जाती हैं उठती जवानियाँ जिनकी
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ये ग़म बहुत हैं मेरी ज़िन्दगी मिटाने को
उदास रहके मेरे दिल को और रंज न दो
तुम्हारे ग़म के सिवा और भी तो ग़म हैं मुझे

 





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